मैंने आज तक कुछ लिखा नहीं, पर लिखने की नौटंकी पूरी की. यही वजह है कि जम कर छप रहा हूं. लिखने को साधना मानने वालों से ज्यादा लिखने की नौटंकी करने वाले छपते हैं.
आज फिर लिखने का नाटक करने की कोशिश में था कि सामने कल ही गिरा पुल भागताभागता, हांफतहांफता, लड़खड़ाता, भरभराता मेरे सामने आ खड़ा हुआ. तनिक सांस लेने के बाद उस ने मुझ से बड़े अदब से पूछा, ‘जनाबजी, क्या फ्री हो?’
‘नहीं, हूं तो नहीं, पर कहो क्या करना है?’
‘मैं अपना दर्दभरा बयान दर्ज करवा कर अपनी आत्मा की शांति चाहता हूं.’
‘तो कोर्ट में जाओ. जज के सामने जो उगलना है, उसे उगलो.’
‘पर, वहां मेरी फिर हत्या हो सकती है, इसलिए...
‘खूनखराबे से मैं बहुत डरता हूं. वह गली के चौक पर हो या कोर्ट में. पता नहीं, क्यों कई बार मुझे महल्ले के चौक और कोर्ट में कोई खास फर्क नहीं लगता, इसलिए कि कहीं गिरे पुल की भी हत्या न हो जाए, मैं ने उसे अपना बयान दर्ज करने की इजाजत देते हुए कहा, ‘डियर, मेरे सामने कहने से होगा तो कुछ नहीं, पर फिर भी जो कहना चाहते हो, मात्र अपने मन की शांति के लिए बिना डरे कहो.’
‘बंधु, मेरे गिरने को ले कर आजकल मेरी बदनामियों का बाजार गरम है. सब मुझ पर तोहमत लगा रहे हैं, मुझे देशद्रोही बता रहे हैं और मैं राष्ट्रभक्त अपनी देशभक्ति को छिपाए मारामारा फिर रहा हूं, पर कहीं मुंह छिपाने तक एक इंच भर जगह नहीं मिल रही. सब को अपने गिरने पर नहीं, मेरे गिरने पर गुस्सा है. पर कोई यह सुनने को तैयार नहीं कि मेरे गिरने से पहले कौनकौन गिरा.’
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