सुप्रीम कोर्ट ने अरविंद केजरीवाल को 20 दिन की कई शर्तों के बाद जो जमानत दी है वह यह नहीं दिखाती कि देश में अभी भी कानून का राज है और कोई मनमानी नहीं कर सकता. यह जमानत सिर्फ यह दिखाती है कि सरकार के आगे सुप्रीम कोर्ट भी कितनी कमजोर है कि वह एक चुने हुए जिम्मेदार मुख्यमंत्री को सिर्फ बेईमान गवाहों के बयानों पर गिरफ्तार किए जाने पर भी जमानत जैसा मौलिक हक नहीं दे सकती.

जो हाथ सुप्रीम कोर्ट के इस मामले में बंधे दिख रहे हैं, वे हर अदालत में दिखते हैं. हर मजिस्ट्रेट पुलिस के कहने पर हर ऐसे व्यक्ति को जेल भेज देता है जिस के खिलाफ पुलिस ने या किसी और ने कोई एफआईआर कराई हो. 5-7 साल बाद जब मामले का फैसला आता है तो 80 प्रतिशत मामलों में तो पहला जज ही इन आरोपियों को बेगुनाह कह देता है क्योंकि पुलिस ने जब उन्हें पकड़ा था तो उस के पास कोई सुबूत नहीं था.

केवल राजनीति वाले मामलों में सत्ता में बैठी सरकार के इशारे पर पहली अदालत सजा देती है पर उन में से भी बहुत से छूट जाते हैं. आपसी मारपीट, रंजिश, सरेआम हत्या, हत्यारे का खुद गुनाह मान लेने जैसे मामलों में सही सजा सुनाई जाती है. ज्यादातर मामले जो पुलिस वाले या सरकारी अफसर कानून तोड़ने पर दायर करते हैं, उन में न गवाह होते हैं, न सुबूत होते हैं पर महीनों हो सकता है किसी को जेल में रहना पड़ा हो क्योंकि जमानत नहीं मिली.

इस मामले में जिस में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन को जेल में बंद किया, यह शक है कि उन्होंने शराब नीति में हेरफेर कर के जनता या सरकार के पैसे को हड़पा है. ऐसे मामलों में जमानत पर छोड़ देने से भी काम चल जाता पर अदालतें सरकारों की शक्ल देख कर जमानत नहीं देतीं.

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