ट्रेन पूरी स्पीड से भागी जा रही थी. ट्रेन के उस एसी कोच में सन्नाटा पसरा था. पराग के सामने वाली सीट पर भी कोई नहीं था. ऊपर की बर्थ पर एक बुजुर्ग बैठे थे, जो बीचबीच में ऊपर की बर्थ से नीचे उतर कर अपना नीचे रखा सूटकेस खोल कर देख लेते थे, फिर ऊपर की बर्थ पर जा कर लेट जाते थे.

पराग ने उस बुजुर्ग को नीचे वाली बर्थ पर आने को कहा, लेकिन उन का कहना था कि उन की बर्थ ऊपर वाली है. वे ऊपर ही रहेंगे. नीचे की बर्थ का पैसेंजर आ गया, तो फिर उठना पड़ेगा.

पराग ने फिर दोबारा नहीं कहा. वह जानता था कि पैसेंजर को आना होता तो अब तक आ गया होता. खैर, वह फिर अपना लैपटौप खोल कर बैठ गया.

तकरीबन 25 साल का पराग दिल्ली मैट्रो रेल में नौकरी करता था. सालभर पहले ही उस की नौकरी लगी थी. लेकिन अब वह दिल्ली मैट्रो रेल की नौकरी छोड़ने वाला था, क्योंकि दिल्ली की ही एक अच्छी कंपनी में उसे आटोमोटिव इंजीनियर की नौकरी मिल गई थी.

थोड़ी देर में ही लैपटौप बंद कर पराग खिड़की से बाहर देखने लगा. अगस्त का महीना था. हलकीहलकी फुहार थी. हरियाली की चादर चारों ओर थी. कुदरत मानो मुसकरा रही थी. छोटेछोटे टीले ऊंचेनीचे छोटे से पहाड़, जगहजगह तालाबों में पानी भरा था.

ऐसा ही खुशनुमा मौसम था, जब पराग की मुलाकात गोमती से हुई थी. गोमती अब 23 साल की होगी. गोमती उस के गांव की लड़की. गांव की मिट्टी सी सौंधीसौंधी खुशबू उस के पूरे शरीर से उठती हुई महसूस होती.

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