18 साल की इला रामपुर में रहती थी. वह इसी साल कालेज में आई थी और हर रोज कालेज जाती थी. वह एक भी क्लास मिस नहीं करती थी. दरअसल, इला को पढ़ाईलिखाई बहुत ही खास लगती थी.

एक दिन इला मनोविज्ञान की क्लास में मगन हो कर व्यवहार मनोविज्ञान के एक बिंदु पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही थी कि उस के ठीक बगल में एक अजनबी लड़की आ कर बैठ गई.

इला ने चौंक कर देखा. वह एक जवान लड़की लग रही थी. इस से पहले कि इला कुछ कह पाती या कुछ सोचती, वह जवान लड़की आगे बढ़ कर इला से बोली, ‘‘हैलो, मेरा नाम गीता है. मैं ने आज ही कालेज में दाखिला लिया है.’’

इला को गीता की आवाज एकदम सच्ची और खरी सी लगी, इसलिए इला ने उस से बात करनी शुरू कर दी.

गीता इला से 2 साल बड़ी थी. किसी वजह से कालेज की पढ़ाई देर से शुरू कर रही थी. इला ने उसे मनोविज्ञान की प्रयोगशाला दिखाई. उसे पिछले नोट्स भी दे दिए.

धीरेधीरे गीता और इला की आपस में अच्छी ट्यूनिंग बन गई. गीता बहुत ही संयत और सुलझ हुई थी. गीता की कुछ बातें खास थीं. वह अपने हैंडबैग खुद ही बनाती थी. उस के हाथ में जो रूमाल रहता था, वह भी गीता किसी पुराने कुरते को काटछांट कर तैयार कर लेती थी.

इला आज तक गीता के घर नहीं गई थी, मगर इला मन ही मन में यह कल्पना करती थी कि गीता का परिवार बहुत ही शानदार होगा. मगर, गीता ने उसे कभी भी अपने घर नहीं बुलाया था. इला ने भी कभी जिद नहीं की थी.

वजह यह थी कि इला कालेज की पढ़ाई के बाद एक संस्थान से जुड़ कर समाजसेवा किया करती थी. यह संस्थान अपने शिविर लगा कर झुग्गी बस्ती में रहने वालों को साफसफाई की आदतें सिखाया करता था.

इला को उस संस्थान से बहुतकुछ सीखने को मिला था. उस ने यह जाना था कि इस दुनिया में करोड़ों लोग गरीबी में जी रहे हैं. उन्हें अगर हम कुछ भी दे सकें, तो हमारी जिंदगी उपयोगी हो जाएगी.

इला को इस तरह के काम करने में बहुत ही खुशी मिलती थी. एक बार रविवार के दिन उस के संस्थान ने एक बस्ती में ऐसा ही शिविर लगाया. इला समय पर बस्ती में पहुंच गई थी. उस के बैग में तमाम सामान था. पानी की बोतल, घर पर तैयार सूजी के बिसकुट, पुरानी जींस को साफधो कर काट कर तैयार किए गए छोटेछोटे थैले थे.

इला के सीनियर भी शिविर में पहुंच गए थे. अपने कार्यक्रम के तयशुदा एजेंडे के मुताबिक वे सभी एकएक कर हर ?ाग्गी के पास जा कर दरवाजा खटखटाते हुए बढ़ते रहे.

हौलेहौले उन के साथ 50 से ज्यादा झुग्गी वाले शामिल हो गए. अब वे सभी एक जगह पर खड़े हो कर आपस में चर्चा करने लगे. तभी एक लड़की नल से पानी भर कर ले जाती दिखाई दी.

इला ने उस लड़की की तरफ पहले तो सरसरी नजर से ही देखा, मगर दोबारा देखा तो उस के मुंह से बरबस ही निकल गया, ‘‘गीता… ओ गीता…’’

उधर पानी भर कर जाती हुई गीता ने भी इला की आवाज पहचान ली थी. वह ठिठक कर पलट गई और, ‘‘अरे, इला…’’ कह कर गीता ने बालटी उसी जगह पर रख दी और इला से जा कर मिली. उस दिन इला ने गीता की असलियत जानी थी.

अब, इला के कहने पर गीता भी उस शिविर में शामिल हुई, मगर इला को उस के बारे में जान कर बहुत ही अजीब सा लगा था. इला को झुग्गी बस्ती में रहने वाली गीता से दोस्ती करने की कोई फिक्र नहीं थी, मगर गीता इतनी गरीबी में भी इतनी सहज है, इला को इस बात पर बहुत हैरानी होती थी.

अब इला को गीता से और भी ज्यादा लगाव होने लगा था… इला को अब हर बात पता चल गई थी. गीता की सौतेली मां, गीता के 2 सौतेले भाईबहन. उस के पिता का लापरवाह स्वभाव…

इला का तो बड़ा मन होता कि वह गीता को अपने घर पर ले कर आए, मगर यह भी तो बहुत ही मुश्किल था. इलाका संयुक्त परिवार था. 4 कमरे का मकान था, मगर उस छोटे से घर में भी तो

10 लोग रहते थे. इला के मातापिता और चाचाचाची सभी टीचर थे. बेमतलब सुविधा बढ़ाना किसी को भी पसंद नहीं था. यही आदत इला की भी थी.

गीता और इला मन लगा कर पढ़ती थीं. कालेज में उन दोनों ने वृक्षारोपण अभियान और प्लास्टिकमुक्त शहर अभियान में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था.

गीता तो वैसे भी खूब मेहनती थी. कालेज के आखिरी दिन वे दोनों अपनी ग्रेजुएशन की डिगरी पा कर खुश थीं. इला और आगे पढ़ना चाहती थी, मगर गीता की शादी तय कर दी गई थी. इला ने उसे बहुत सम?ाया कि ऐसे बेमेल रिश्ते को मना कर दे, मगर गीता ने उस की सलाह पर एक खामोशी ओढ़ ली थी.

कुछ पल ठहर कर गीता ने जवाब दिया था, ‘‘जितनी अशांति और असंतोष इस घर में है, पति का घर शायद ठीकठाक ही होगा.’’

गीता वहां से चली गई. इला के मन में अजीब खालीपन आने लगा. उस ने एक रैस्टोरैंट में पार्टटाइम नौकरी शुरू कर दी.

इला को एक महीना भी नहीं हुआ था कि रैस्टोरैंट की मालकिन ने उसे एक मनपसंद काम दे दिया. वह काम था मालकिन की बेटी को पढ़ाना. इला ने उस लड़की को खुशीखुशी सब पढ़ाया.

इला की मुलाकात वहां अकसर एक लड़के से होती थी. उस का नाम शान था. वह रैस्टोरैंट की मालकिन का भतीजा था.

शान यहां रह कर वर्क फ्रौम होम कर रहा था. वह मन ही मन इला को बेहद चाहने लगा था. इला की सरलता शान को बेहद भाती थी. सच यह था कि आग दोनों तरफ बराबर लगी थी.

एक दिन उन दोनों ने एकदूसरे से अपने मन की बात कह दी. इला के मातापिता को कोई परेशानी नहीं थी. वे जातपांत, धर्मकर्म या किसी भी रीतिरिवाज में कतई भरोसा नहीं करते थे, इसलिए उन दोनों का चट मंगनी पट ब्याह हो गया.

शान की मुंबई में नई नौकरी लगी थी. शान और इला वहां आ गए. मुंबई की उन की नईनवेली जिंदगी शुरू हो गई.

एक दिन शान ने इला को खुशखबरी दी कि उसे एक खास ट्रेनिंग के लिए तकरीबन 3 महीने के लिए विदेश जाना है. शानदार मौका है, बहुतकुछ सीखने को मिलेगा.

इला को यह सुन कर बहुत खुशी हुई. वह शान की तरक्की से बेहद खुश थी.

शान विदेश चला गया. खाली समय में इला को यहां आ कर भी समाजसेवा और जनसेवा का मौका मिल गया. शान को उस की इस इच्छा से कोई परेशानी नहीं थी… फालतू समय बरबाद करने की जगह इला सम?ादारी ही कर रही थी.

अब इला साफसफाई की आदत सिखाने जबतब धारावी के तंग इलाके में जाती रहती थी. एक दिन इसी तरह इला मुंबई के धारावी के किसी तंग इलाके में साफसफाई की आदतें सिखा रही थी कि उस ने कुछ बच्चों के हाथ में रूमाल देखे.

वे रूमाल देख कर इला ठिठक गई. ऐसे रूमाल तो गीता तैयार करती थी, उसे अच्छी तरह से याद था. वह झट से बच्चों के पास आई.

एक बच्चे ने बताया कि बचपन फाउंडेशन की एक गीता दीदी हैं, उन्होंने ही ये रूमाल उन्हें दिए हैं.

वहां से घर लौट कर इला ने शान को आज की सारी बातें बताईं, उस के बाद गीता को फोन लगाया.

गीता ने आज तक इला को अपनी यह  सचाई नहीं बताई थी. वह हमेशा यही कहती थी कि ससुराल में सब

ठीक है, जबकि कुछ भी ठीक नहीं था. 3 महीने में ही गीता को उस घर से धक्के मार कर निकाल दिया गया था.

वजह यह थी कि गीता अपने से 12 साल बड़े पति को साफसफाई की आदत सिखाने लगती थी. यह बात उस के पति और सास को बिलकुल भी पसंद नहीं आई.

पर गीता ने हिम्मत नहीं हारी थी. वह अपने मन में हौसला रख कर अपने पैरों पर खड़ी होने का संकल्प ले चुकी थी. अब वह अपने दम पर जीना चाहती थी, इसलिए वापस रामपुर नहीं गई.

गीता अब मुंबई में ही रहती थी. वह नौकरी करती थी और अपना एक फाउंडेशन भी चला रही थी, मगर अभी बस शुरुआत ही थी. वह इला को सब बताने ही वाली थी.

इला को गीता का यही भोलापन बहुत पसंद था. इला को मालूम था कि गीता बहुत ही जरूरू है. वह कुछ बेहतर ही करेगी.

इला ने गीता को बताया कि वह भी मुंबई में आ कर रहने लगी है, तो गीता बहुत खुश हुई. गीता उस के लिए भेंट में अपने हाथों से बनाए रूमाल लाना चाहती थी, मगर इला को तो पूरी गीता ही मिल रही थी. वह समाज के लिए कुछ करना चाहती थी. अब तो उस की खुशी का ठिकाना न था. उसे उपयोगी जिंदगी जीने को मिल रही थी.

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