Editorial: सरकार का मानना है या कहिए कि उस का बहाना है कि उस ने अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बात इसलिए नहीं मानी कि वह भारत के बाजार को अमेरिका के खेतों से आए अनाज और डेयरी प्रोडक्ट्स को सस्ते में देश में बिकने की छूट नहीं देना चाहती थी. सरकार ने अमेरिका को भारत से जाने वाले सामान पर 25 से 40 फीसदी की कस्टम ड्यूटी लगने दी पर अपने किसानों को बचा लिया है.
अफसोस यह है कि सरकार इस बात में उतनी ही गलतबयानी कर रही है जितनी वह नोटबंदी, टैक्सबंदी, तालाबंदी और अब बिहार वाली वोटबंदी में कर रही है. सरकार को, इस सरकार को किसानों से कोई प्यार नहीं उमड़ रहा. इस सरकार के लिए पुराणों के अनुसार किसान आम वैश्य या शूद्र हैं जो ऊंची जातियों की सेवा करने के लिए बने हैं. हमारी वर्णव्यवस्था में तो वैश्यों का काम खेती करना था क्योंकि उस युग में शायद व्यापार न के बराबर था.
शूद्र जो शायद आज के पिछड़े हैं और किसान बन गए हैं और वैश्य जो दुकानदार बन गए हैं, सरकार यानी राज्य के लिए बेमतलब के हैं. सरकार उन्हें नहीं बचा रही, वह उन मुट्ठी भर धन्ना सेठों को बचा रही है जिन्होंने आज किसानों की बनाई चीजों पर पूरी तरह कब्जा कर लिया है. आज किसान को अपना सामान घरों में सीधे बेचने नहीं दिया जाता. उसे मंडी में बेचना होता है या सरकार को.
सरकार ने इस तरह का ढांचा बना लिया है कि देश का किसान मेहनत कर के जो भी अनाज, दूध, गन्ना, फलफूल पैदा करता है तुरंत बड़ी, बहुत बड़ी कंपनियों के हाथों में चला जाता है, वह भी मनमाने दामों पर. मंडी और सुपर मंडी कौमेडिटी ऐक्सचेंज पर धन्ना सेठों का कब्जा है या सरकारों का. यही ताकत है जिस से वोटों को खरीदा जाता है.
भारत चाहे दुनिया की चौथी सब से बड़ी अर्थव्यवस्था है और सब से तेज बढ़ने वाली हो, उस की 80 फीसदी जनता, चाहे गांवकसबों में रह रही हो या शहरों की स्लम बस्तियों में, जानवरों की तरह रहती है. 2 डौलर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आय पर. 700-800 डौलर सालाना. अमेरिका में किसानों की प्रति व्यक्ति आय 20,000 डौलर सालाना के आसपास है.
अमेरिका को भारत के खेती के सामान न आने देने का मतलब है कि सदियों से जो किसानों को लूटने का ढांचा बना है जिसे पौराणिक युग से आज तक चलाया जा रहा है, टूट न जाए. अमेरिकी जिस क्षेत्र में घुसते हैं वहां का नक्शा बदल देते हैं. वे गाडि़यों में घुसे तो अंबेसडर गाड़ी बननी बंद हो गई. मशीनों में घुसे तो लुहारों की जगह नईनई मशीनें आ गईं. अमेरिका के पीछेपीछे यूरोप, चीन और जापान भी आ जाएंगे और वे न सिर्फ खेती में उथलपुथल कर देंगे, गांवों का सामाजिक नक्शा भी बदल देंगे. सवर्णों की सामाजिक, सरकारी व राजनीतिक रोबदारी का युग खत्म कर देंगे.
भारत ने डोनाल्ड ट्रंप से बैर लिया है क्योंकि यहां के नेता, चाहे किसी की तरफ बैठे हों, नौकरशाह, व्यापारी, किसी भी तरह से गांवों का कायापलट होता नहीं देखना चाहते. उन्होंने पहले जम कर जीएम बीजों को नहीं आने दिया था. आज की फर्टिलाइजर व पैस्टीसाइड व इनसैक्टिसाइड को जमीन के लिए नुकसानदेय कह कर रोकते हैं. डोनाल्ड ट्रंप भारत का भला नहीं चाहते पर असल में अमेरिकी सामान के साथसाथ अमेरिकी सोच, जो अब खुद सड़ने लगी है, आएगी. भारत के आका उसे गांवों में नहीं घुसने देना चाहते क्योंकि वहीं से सस्ते, भूखे, जानवरों की तरह रहने वाले मजदूर मिल रहे हैं.
डोनाल्ड ट्रंप जैसे तो आतेजाते रहेंगे पर एक बार अमेरिकियों के लिए भारत की खेती के दरवाजे खुल गए तो वे ऐसे छा जाएंगे जैसे अमेरिकी तकनीक पर बने मोबाइल देश पर छा गए हैं जिन के बलबूते पर किसान अब मजबूत सरकार को हिला सकते हैं.
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भारतीय जनता पार्टी बिहार में मतदाता सूचियों को महज जांच करने का काम कर के वही कर रही है जो उस का पुराना, बहुत पुराना मकसद रहा है. भारतीय जनता पार्टी नहीं चाहती कि किसी भी तरह से देश के दलित, शूद्र (पिछड़े) जो हिंदू आबादी के 80-85 फीसदी हैं, ऊंची जातियों के बराबर बैठ सकें.
1757 में अंगरेजों ने जब प्लासी की लड़ाई के बाद राज करना शुरू किया तो उन्हें सिपाहियों की जरूरत हुई. उन्होंने बंगाल इंफैंट्री खड़ी की पर उस में उन्हें 5 फुट 6 इंच से ऊपर के केवल ऊंची जातियों के ब्राह्मण और राजपूत जो बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में खाली घरों में बैठे पुरोहिताई कर रहे थे या कुछ भूमिहार बन कर खेती कर रहे थे, अंगरेजों के यहां नौकरी कर के भारतीयों पर गोलियां चलाना तो उन्होंने सीख लिया पर अपना ऊंचापन नहीं छोड़ पाए और इन की अपनी जाति का सवाल अंगरेज कमांडर के हुक्म से ऊपर होता?था. कितनी ही बार इन लोगों ने उस कंपनी के खिलाफ विद्रोह किया जहां नौकरी कोई गुलामी नहीं थी-क्यों-इसलिए कि ये नीची जातियों के लोगों के साथ उठबैठ नहीं सकते थे.
आजादी के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने न जाने क्यों इन दबदबे वाले ऊंची जातियों के संविधान सभा में भारी नंबरों में होने के बावजूद हरेक को वोट का हक दे दिया. नेहरूअंबेडकर ने 21 साल से ऊपर वालों को वोट का हक दिया तो राजीव गांधी ने इस घटा कर 18 साल कर दिया. जिन का इस बार जन्म ही पिछले जन्मों के पापों के कारण दलित या शूद्र जाति में हुआ है, वे भला कैसे ऊंची जातियों के साथ कंधे से कंधा मिला कर बैठ सकते हैं, रामविलास पासवान जैसे के बेटे चिराग पासवान या जतिन राम मांझी की यह जुर्रत कैसे है कि वे ऊंची जातियों के साथ एक टेबल पर बैठे सकें.
उन के पर काटना जरूरी है और अब भारतीय जनता पार्टी ने यह काम चुनाव आयोग को दिया है, विदेशी वोटरों को ढूंढ़ने के बहाने. असल में मतदाता सूचियों से दलितों अतिदलितों, पिछड़ों और अतिपिछड़ों में से काफियों के वोट काटने का काम ही चुनाव आयोग को दिया गया है. टीएन शेषन का जमाना गया जब चुनाव आयोग प्रधानमंत्री तक को आदेश दे सकता था. आज तो चुनाव आयोग जीहुजूर है.
वोट का हक ही ऐसा है जिस से भारतीय जनता पार्टी में अब कईकई लैवलों पर पिछड़ों को बैठाना पड़ रहा है. वे लोग जिन्होंने 1757 से 1857 तक अपने गोरे मालिकों के खिलाफ वे बंदूकें बारबार उठाई थीं जिन से वे हिंदुस्तानियों को ही डराया करते थे, अब पौराणिक राज लाना चाहते हैं. बिहार की गहन मतदाता सूची जांच उसी का पहला पर आखिरी कदम नहीं है.
क्या पिछड़े और दलित इस खेल को समझेंगे? शायद नहीं. उन के दिमागों में पिछले जन्मों के कर्मों के फल की कहानी इस तरह से फिट है कि वोट का हक छिनने को भी वे पिछले जन्म के पाप का फल मानेंगे. वे इस जन्म में और ज्यादा सेवा कर के अगले जन्म में ऊंची जाति में पैदा होने का इंतजार करेंगे, सुप्रीम कोर्ट के फैसले का नहीं. Editorial