Bihar Elections 2025, लेखक – शकील प्रेम

बिहार के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों एससी, एसटी और मुसलिम वोटों को जमा करने के लिए हाथपैर मार रही हैं. पर ये समाज जानते हैं कि वे सताए हुए हैं, उन से जम कर भेदभाव होता है, उन्हें कदमकदम पर बेइज्जत किया जाता है, उन के पढ़ने, साथ बैठ कर खाने के हक, रोटीबेटी के संबंध बनाने में हजारों रुकावटें हैं, फिर भी तकरीबन बहुमत में होते हुए भी वे बेबस हैं, बेचारे हैं, गरीब हैं, गंदे घरों में मैला पानी पीते हैं. सिर्फ वोटों के समय उन की पूछ होती है.

एससी व मुसलिम समाज में नेताओं और बुद्धिजीवियों की कमी नहीं है. नेता तो थोक के भाव में हैं. खुद को मसीहा कहने वाले भी हैं और साहित्य का भी अंबार लगा है, फिर भी यह समाज दलित, गरीब, कमजोर और लाचार बना हुआ है. क्यों?

एससी, एसटी और मुसलिम वर्ग का अगर कोई किसी बड़ी पोस्ट पर पहुंच भी जाए तो उसे या तो मोहरा बन कर रहना होगा वरना उसे बुरी तरह बेइज्जत कर के अलगथलग कर दिया जाएगा.

क्या है असली वजह

दलित समाज, जिसे संवैधानिक तौर पर शैड्यूल कास्ट यानी एससी (अनुसूचित जाति) के रूप में वर्गीकृत किया गया है, की आबादी तकरीबन 17 फीसदी है. एससी वर्ग को राष्ट्रीय स्तर पर 15 फीसदी संवैधानिक आरक्षण मिला हुआ है. तकरीबन पूरा एससी समाज ही आरक्षण के दायरे में है और यह आरक्षण राजनीति, पढ़ाईलिखाई और सरकारी नौकरियों के लिए दिया गया है. सरकारी शिक्षण संस्थानों जैसे आईआईटी, आईआईएम में एससी वर्ग के लिए 15 फीसदी सीटें आरक्षित हैं.

इस के अलावा स्कौलरशिप, फीस छूट और छात्रावास की सुविधाएं भी उपलब्ध हैं. नौकरियों की बात करें तो केंद्रीय और राज्य सरकार की नौकरियों में 15 फीसदी पद आरक्षित हैं. आर्टिकल 16(4ए) के तहत इन्हें प्रमोशन में भी आरक्षण मिलता है और यह सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में भी लागू है.

लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एससी आबादी के अनुपात में सीटें आरक्षित होती हैं. इस आरक्षण के तहत तकरीबन 84 लोकसभा सीटें एससी के लिए आरक्षित हैं. इन सीटों पर उम्मीदवार एससी वर्ग का होता है, लेकिन वोट सभी मतदाता दे सकते हैं. कुछ और जनरल सीटों पर भी एससी, एसटी, मुसलिम वर्ग के लोग जीत कर आ जाते हैं.

पंचायत स्तर के चुनाव हों या नगरनिगम के चुनाव यहां भी एससी वर्ग के लिए सीटें आरक्षित होती हैं.

ग्रामीण और शहरी विकास योजनाओं में भी आरक्षण के तहत एससी वर्ग को प्राथमिकता दी जाती है.

शिक्षा, राजनीति और नौकरियों में आरक्षण की बदौलत एससी वर्ग के माली और सामाजिक हालात में सुधार हुआ है, लेकिन जातिगत भेदभाव, गरीबी और उत्पीड़न के चलते एससी वर्ग अभी भी हाशिए पर ही है.

पढ़ाईलिखाई, नौकरी और राजनीति में आरक्षण के बावजूद, ग्रामीण क्षेत्रों में 80 फीसदी से ज्यादा दलित व मुसलिम रहते हैं, जहां वे आज भी भूमिहीन और मजदूर हैं. सन 1991 के उदारीकरण के बाद देश के कुछ दलितों के हालात बेहतर हुए हैं, लेकिन ज्यादातर अभी भी गरीबी रेखा से नीचे ही हैं.

गरीबी सूचकांक 2021 के अनुसार एससी वर्ग में एकतिहाई लोग आज भी गरीबी रेखा से नीचे हैं, वहीं 2023 में हुए बिहार सर्वे में एससी परिवारों में से 43 फीसदी परिवार गरीबी रेखा से नीचे हैं.

कुलमिला कर एससी वर्ग में गरीबी राष्ट्रीय औसत (21 फीसदी) से दोगुनी है. अगर ओबीसी को भी उन के साथ जोड़ लिया जाए, जिन के साथ पुराणों में ब्राह्मणों ने व्यवस्था वहीं कर रखी है जो अब एससीएसटी के साथ होती है, तो गरीब 75-80 फीसदी हो जाएंगे. वर्ण व्यवस्था में उन्हें शूद्र कहा गया है.

राष्ट्रीय साक्षरता दर 80.9 फीसदी है, लेकिन एससी में यह सिर्फ 70 फीसदी के आसपास ही है. एससी लड़कियों में साक्षरता दर मात्र 24.4 फीसदी है, जबकि राष्ट्रीय औसत 42.8 फीसदी है. आज भी पैसे की कमी और भेदभाव के चलते प्राइमरी लैवल पर ही 50 फीसदी दलित और मुसलिम बच्चे स्कूल छोड़
देते हैं.

एससी वर्ग के लिए गहरे सवाल

सवाल यह है कि तमाम तरह के संवैधानिक हकों और सरकारी सुविधाओं, अवसरों और प्राथमिकताओं के बावजूद एससी वर्ग मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाया है, तो कमी किस की है? इस में कोई दो राय नहीं है कि एससी वर्ग के लिए ऊंचे समाज की सोच में सुधार नहीं हुआ है. हर स्तर पर नाइंसाफी, बेईमानी और भेदभाव जारी है, जिस के चलते आज भी इस वर्ग में गरीबी बनी हुई है. लेकिन इस के लिए दूसरों को दोष कब तक दिया जाएगा?

दुनिया के इतिहास में हर जगह कमजोरों को दबाया गया है और आज भी पूरी दुनिया में कमजोरों के साथ अनेक तरह के भेदभाव होते हैं. कहीं कोई मसीहा नहीं आता, बल्कि कमजोरों को खुद से अपनी कमजोरियों को सम झना और उन से जू झ कर निकलना होता है.

मसीहा सिर्फ धर्म के किस्सों में आते हैं. यूरोप के यहूदियों ने सन 150 से ले कर सन 1945 तक हजारों साल तक यूरोप में दमन और उत्पीड़न को झेला, लेकिन उन्होंने दूसरों पर दोष मढ़ने की बजाय खुद की तरक्की के रास्ते तलाशे और आज वे इजरायल में दुनिया की सब से ताकतवर कौम बन कर उभरे हैं.

एससीएसटी के साथ इतिहास में हिंदू राजाओं और बाद में दूसरों के हाथों भी बहुत नाइंसाफी हुई है, जिस की वजह से वे संसाधनों से वंचित रहे, लेकिन सन 1950 में संविधान ने उन्हें मौका दिया. बराबरी का दर्जा दिया, जिस की वजह से इस समाज में मुट्ठीभर नेता पैदा हुए. कुछ बड़े अफसर भी बने. कहींकहीं उद्योगपति भी उभरे, फिर भी ज्यादातर समाज वहीं का वहीं रहा.

आजादी के बाद से देश की संसद में एससी वर्ग के कम से कम 84 सांसद बैठे होते हैं. दलितों की आबादी के अनुपात के हिसाब से संसद में बराबर की नुमाइंदगी होते हुए भी कैसा रोना? राजनीतिक रूप से मजबूत होने के बावजूद एससी वर्ग कमजोर क्यों है? इस सवाल पर इस वर्ग को सोचविचार जरूर करना चाहिए.

पढ़ाईलिखाई पाने के मौके में इस पूरी आबादी को रिजर्वेशन मिला है. उन के दरवाजे हर सरकारी स्कूल के लिए खुले हैं. इस के बावजूद यह समाज सब से ज्यादा अंगूठाछाप क्यों है? इस समाज के पढ़ेलिखे लोग क्या कर रहे हैं? क्या पढ़ेलिखे और अमीर लोगों की अपने समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? जो आगे बढ़ चुके हैं, वे दूसरों के लिए सीढि़यां क्यों नहीं बना रहे हैं और उन्हें गहरे गड्ढे से निकाल क्यों नहीं रहे हैं? वे क्यों नहीं भेदभाव की खाई पाट पा रहे हैं?

विचार जरूरी है

विचारों से दुनिया बदलती है. विचारों की ताकत से हालात बदले जा सकते हैं, लेकिन एससी वर्ग ने विचारों को अहमियत ही नहीं दी. विचारों का मतलब तक जानने की कोशिश नहीं की. वे व्यक्तिपूजा में लग गए. उन्हें लगा कि ऊंची जातियों की तरह वे भी किसी बुत को पूज कर अपना भाग्य सुधार लेंगे.

विचारों से ही तरक्की होती है, लेकिन तरक्की के विचार जिस समाज में पैदा ही न हों, उस समाज में कितने ही मसीहा जन्म लें, तरक्की नहीं हो सकती.

एससी समाज में डाक्टर भीमराव अंबेडकर पैदा हुए, जिन के नाम पर हजारों संगठन बने. इन संगठनों से निकल कर हजारों नेता पैदा हुए जिन्होंने डाक्टर अंबेडकर की पूजा करवानी शुरू कर दी, लेकिन इन नेताओं ने समाज को स्कूली पढ़ाईलिखाई भी पाने का फायदा नहीं सम झाया. पढ़ाईलिखाई से अच्छी समझ पैदा होती है. सम झ सही हो तो समाज यकीनन तरक्की करता है.

इस वर्ग के कुछ लोग पढ़ेलिखे जरूर, लेकिन वे समाज से कट गए. जो नेता बने उन्होंने अपने फायदे की खातिर समाज का फायदा उठाया और जमीन से इतने ऊपर उठ गए कि समाज से ही गायब हो गए. बाकी का समाज किसी मसीहा के इंतजार में वहीं का वहीं पड़ा है. उलटे वह जुल्म करने वाले ऊंचों की चाटुकारिता ज्यादा जोर से कर रहा है.

कैसा मसीहा चाहिए

मसीहा कोई एक इनसान नहीं होता, बल्कि मसीहा हर वह इनसान होता है जो हालात को बदल देता है. अगर कोई अनपढ़ है, लेकिन उस ने अपने बच्चों को केवल पढ़ायालिखाया ही नहीं, बल्कि सम झदार और होशियार भी बना दिया है, तो वह अपने बच्चों के लिए मसीहा ही है. अगर कोई गरीब है और अपनी मेहनत से संसाधन जुटा लेता है तो वह अपने परिवार के लिए मसीहा ही है. अगर कोई पढ़ालिखा इनसान अपने समाज के बच्चों को पढ़ाता है, हुनरमंद बनाता है तो वह उस समाज के लिए मसीहा ही है.

जिस इनसान को अपने समाज के दर्द से मतलब नहीं, वह पढ़ालिखा होते हुए भी गंवार ही होता है. और जो अनपढ़ होते हुए भी अपने समाज की चिंता करे वही सम झदार कहलाता है. एससी वर्ग में कितने तथाकथित मसीहा आए और गए, लेकिन समाज वहीं का वहीं रहा.

यहूदियों में कोई मसीहा नहीं पैदा हुआ फिर भी वे आज सब से ताकतवर कौम बन कर उभरे हैं. इस की वजह यह है कि यहूदियों ने किसी मसीहा का इंतजार नहीं किया, बल्कि हर यहूदी अपनेआप में मसीहा बना. यहूदियों ने पढ़ाईलिखाई की अहमियत को सम झा और बुरे हालात में भी इस से सम झौता नहीं किया.

ब्राह्मण समाज आज सब से अमीर है. क्या ऐसा करने में उस के किसी मसीहा का नाम मालूम है? किसी नेता का क्या योगदान रहा है उन के आज हर जगह सत्ता में रहने का? पारसियों के बीच कितने मसीहा पैदा हुए?

पारसियों को कभी किसी मसीहा की जरूरत ही नहीं पड़ी. हर पारसी अपनेआप में मसीहा है, क्योंकि वह पढ़ालिखा है. जो गरीब है, कमजोर है, उसे ही मसीहा की जरूरत होती है. लेकिन ऐसा कोई मसीहा जो आप के हालात बदल दे, कभी आता ही नहीं.

पढ़ाई से बदलेंगे हालात

डाक्टर भीमराव अंबेडकर बहुत महान थे, इस बात से आज के अनपढ़ एससी को क्या फायदा मिल सकता है? लेकिन डाक्टर अंबेडकर ने किन विकट हालात से जू झ कर पढ़ाईलिखाई हासिल की इस बात को सम झने से एससी वर्ग के हालात बदल सकते हैं. डाक्टर अंबेडकर ने तब मेहनत की जब एससी वर्ग का कोई संघ या पार्टी नहीं थी, कोई रिजर्वेशन भी नहीं था.

पढ़ाईलिखाई अपनेआप में एक बहुत बड़ी ताकत है. जिस समाज ने इस की अहमियत को सम झा वह समाज कभी भी कमजोर नहीं रहा. एससी वर्ग की बदहाली की वजह पढ़ाईलिखाई से उस की दूरी है.

सामाजिक भेदभाव एक समस्या है, रुकावट नहीं. यह बहाना कब तक ढोया जाएगा?

एससी समाज के पढ़ेलिखे लोगों को अपनी जिम्मेदारियां तय करनी होंगी. उन्हें समाज के लिए मसीहा बनना होगा. समाज का एक टीचर चाहे तो अपने समाज से हजारों टीचर पैदा कर सकता है. एक पढ़ालिखा इनसान हजारों अफसर पैदा कर सकता है, लेकिन एससी वर्ग के पढ़ेलिखे लोग कहां सोए हुए हैं?

ऐजूकेशन ही कामयाबी की कुंजी है. एससी वर्ग के प्रति समाज की सोच कैसी भी हो, यह आप को पढ़नेलिखने से नहीं रोक सकती. तमाम विरोधाभासों के बावजूद एससी वर्ग के लिए हायर ऐजूकेशन तक के रास्ते खुले हुए हैं, फिर बहानेबाजी क्यों?

संस्थागत भेदभाव का शिकार हुए रोहित वेमुला हायर ऐजूकेशन में सताए जाने का उदाहरण हैं, तो जज, वैज्ञानिक और तमाम आईएएसआईपीएस के भी उदाहरण हैं, जो दलित समाज से निकले हैं.

याद रखिए कि जो जितना कमजोर होता है, उस के लिए जद्दोजेहद उतनी ही बड़ी होता है. अगर वंचित समाज को अपनी कमजोरियों से बाहर निकलना है, तो उसे अपनी जद्दोजेहद तेज करनी होगी.

पढ़ाईलिखाई का मतलब सिर्फ स्कूलकालेज में पढ़ना नहीं है, बल्कि इस का मतलब है दूसरों की कही या लिखी बात जिंदगीभर पढ़ते रहना, लगातार लिखते रहना है. अपने मौकों का पूरा फायदा उठाने के लिए हर समय जूझना है. एससी, एसटी और मुसलिम धर्म के चक्करों में डाल दिए गए हैं और वे उन्हीं बातों के लिए दूसरों के सिर फोड़ रहे हैं, जिन से उन्हें जंजीरें पहनाई जाती हैं.

अपनी पहचान बनाने के लिए कोई देखादेखी खास रंग का गमछापट्टा पहन रहा है, कोई टोपी लगा रहा है. उन के नेता यही सम झा रहे हैं और खुद अपनी रोटी, मकान, गाड़ी और रुतबे का इंतजाम कर रहे हैं.

मसीहा कोई हाड़मांस का जना नहीं हो सकता. आज तक कभी कोई ऐसा जना नहीं हुआ, जिस ने देश और समाज को बदल डाला हो. गांधी, अंबेडकर, नेहरू मसीहा नहीं थे. तिलक, गोखले, गोलवलकर भी ऊंचों के मसीहा नहीं थे. ऊंचों ने पिछले 50 साल में साइंस का फायदा उठा कर बिना मसीहा के पढ़ कर, समझ कर फायदा उठाया है.

आज बिहार में नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और प्रशांत कुमार एससी, एसटी और मुसलिम वर्ग को जीत कर भी कुछ नहीं दे पाएंगे, क्योंकि इन वर्गों को पानी का गिलास भर कर खुद ही पीना होगा.

कार्ल मार्क्स ने कहा था कि बुरी दशा से निकलने के लिए समाज बदलो, सरकार का ढांचा बदलो और उस के लिए वर्ग संघर्ष करो. मार्क्सवादी नजरिया मसीहा की जरूरत को सिरे से नकारता है.

कार्ल मार्क्स के मुताबिक, सामाजिक बदलाव किसी एक जने की इच्छा से नहीं, बल्कि प्रोडक्शन के साधनों, उन की मिल्कियत में बदलाव और वर्ग संघर्ष जैसी जमीनी व धन के रखने के तरीकों से होता है.

किसी राहुल गांधी, तेजस्वी यादव या प्रशांत किशोर के कहने या किसी मां के मंदिर के बनाने से जो गरीब है, कुचला है, वंचित है, बीमार है, भूखा है, अपनी हालत सुधार नहीं सकता, उसे तो पढ़ कर, सम झ कर संघर्ष कर के बढ़ना होगा. समाज की तरक्की के लिए, ‘मसीहा’ की नहीं, बल्कि एक बड़े वर्ग में जागरूकता और क्रांतिकारी सामूहिक कार्रवाई की जरूरत होती है, जो कांवड़ यात्रा में नाचने या बैनर लगाने से नहीं आती.

बिहार चुनाव में वोट देते समय खयाल रहे कि कौन पढ़ने का मौका देगा और कौन हकों और मौकों पर डाका डालने के लिए बैठा है. एससी, एसटी और मुसलिम के लिए मसीहा किताबें हैं, पत्रिकाएं हैं, वे टीवी चैनल हैं जो न तो बिकाऊ हैं और न ही मदारी का खेल खिला रहे हैं. आगे बढ़ना है तो ऐसे अखबार खरीदें जो आप को बेचे नहीं, बल्कि बनाएं.

पश्चिम के एक विचारक हेनरी वार्ड बीचर ने कहा, ‘‘एक अच्छा अखबार या पत्रिका लोगों के लिए अनगिनत लाखों सोने से भी बड़ा खजाना है. आप इस खजाने को लुटने न दें.’’

अमेरिका के शुरुआती सालों में तब के राष्ट्रपति थौमस जैफरसन ने कहा था, ‘‘अगर मु झे यह तय करना होता कि हमें बिना अखबारों, पत्रिकाओं और किताबों के सरकार चाहिए या बिना सरकार के अखबार, पत्रिकाएं, किताबें तो मैं बाद वालों को चुनने में एक पल का भी संकोच नहीं करता.’’

क्या दलित अखबार, पत्रिकाएं पढ़ रहे हैं? आप रील देखने में लगे हैं, पौराणिक कथाओं को दोहराने वाले अखबारों और चैनलों को देखने में लगे हैं या अपनी सम झ का दायरा बढ़ाने वाली बात जानने, सुनने, पढ़ने में, इस का फैसला आप को करना है.

एससी, एसटी और मुसलिम का मसीहा नवंबर में वोटिंग मशीन से नहीं निकलने वाला, बल्कि उस के बारे में तो अंगरेजी लेखक चार्ल्स डिकेंस 150 साल पहले कह गया है कि अखबारों और किताबों को पढ़ने की आदत से एक कौशल का विकास होता है. अखबार, पत्रिकाएं और किताबें पढ़ने की आदत आप को भाषा, लेखन और ताजा जलते मुद्दों पर पूरी गहराई से सही सम झ देती है, जो सरकार को सही रास्ते पर चलने के लिए मजबूर करने के लिए जरूरी है और व्यावसायिक तरक्की में मददगार है.

याद रहे कि मसीहा सफेद चोगा पहने गलीगली नहीं घूमते, बल्कि वे आपके दिमाग में, मन में, दिल में पैदा होते हैं.

नहीं निकले काबिल नेता

डाक्टर भीमराव अंबेडकर के बाद भारतीय राजनीति में दलित समाज से कई नेता उभरे लेकिन वे दलितों के फायदे के लिए कोई क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा नहीं कर पाए. आजादी के बाद दलित समाज से जो भी नेता हुए वे आगे चल कर अवसरवादी राजनीति का शिकार हो कर रह गए. ज्यादातर दलित नेताओं ने दलितों के उत्थान के नाम पर दलित वोटों को बेचने का ही काम किया.

यही हाल मुसलिमों का भी रहा. मुसलिम समाज के बीच से नेता तो कई उभरे लेकिन वे किसी न किसी राजनीतिक पार्टी के दलाल की भूमिका में ही रहे. मुसलिम नेताओं से मुसलिम समाज को कोई फायदा नहीं हुआ. मुसलिमों के फायदे की राजनीति करने की आड़ में इन मुसलिम नेताओं ने अपना और अपनी पार्टी का ही भला किया.

यही वजह है कि आज की राजनीति में दलितों और मुसलिमों का कोई सर्वमान्य नेता नजर नहीं आता. आज की राजनीति में दलितों के बड़े नेताओं में मायावती, चंद्रशेखर रावण, रामदास अठावले, चिराग पासवान, जीतनराम मां झी जैसे लोग ही नजर आते हैं, जिन के लिए विचारधारा की कोई कीमत नहीं रह गई है.

मायावती सिर्फ जाटवों की नेता बन कर रह गई हैं. चिराग पासवान दुसाध जाति के नेता हैं. चंद्रशेखर रावण भी दलितों की कुछ जातियों के नेता हैं और जीतनराम मां झी मुसहर समाज के नेता हैं. इस से ज्यादा इन नेताओं की कोई पहचान नहीं रह गई है.

मेनस्ट्रीम मीडिया के बंद दरवाजे

मीडिया में नुमाइंदगी नहीं होने के चलते दलितों, मुसलिमों और आदिवासियों की असली समस्याएं कभी हाईलाइट ही नहीं हो पातीं. गरीबी, बेरोजगारी का दंश झेलते इन तीनों समाजों का जम कर शोषण होता है, अत्याचार होते हैं, लेकिन इन की यह त्रासदी कभी भी मेनस्ट्रीम मीडिया तक नहीं पहुंच पाती.

मुख्यधारा की मीडिया में दलित, मुसलिम और आदिवासी समाज की भागीदारी बिलकुल जीरो है. ये तीनों वर्ग न्यूजरूम, कवरेज, एंकरिंग और नेतृत्व वाले पदों से कोसों दूर खड़े हैं.

औक्सफैम इंडिया और न्यूजलौन्ड्री की रिपोर्ट के मुताबिक, मीडिया में केवल ऊंची जातियों का ऐसा दबदबा है कि ये तकरीबन 86-90 फीसदी पदों पर काबिज हैं. इन तीनों वर्गों का लेखन, रिपोर्टिंग, एंकरिंग में भागीदारी जीरो है. एक भी दलित, मुसलिम या आदिवासी मेन स्ट्रीम के किसी भी मीडिया ग्रुप का हैड नहीं है.

यही वजह है कि इन तबकों से जुड़े मुद्दों को ले कर अंगरेजी अखबारों में 5 फीसदी से कम लेख छपते हैं, तो हिंदी अखबारों में महज 10 फीसदी ही छपते हैं.

मीडिया के 121 प्रमुख पदों में से 106 पदों पर ऊंची जाति के लोग बैठे हैं और यहां एससी, एसटी, ओबीसी का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है.

एनडीटीवी, आजतक, जी न्यूज आदि में एससी, एसटी एंकर एक भी नहीं है. 972 प्रमुख पत्रिकाओं में से केवल 10 पत्रिकाओं की कवर स्टोरी ही दलित और आदिवासी मुद्दों पर केंद्रित होती हैं.

यह एससी, एसटी और मुसलिम की अपनी जिम्मेदारी है कि वे इन चैनलों, अखबारों, पत्रिकाओं का त्याग करें और अपने मतलब के मीडिया को सपोर्ट करें.

यह देखने की बात है कि अंगरेजी की किताबें बेचने वाली दुकानें तो खुली हुई हैं, पर हिंदी में जहां एससी, एसटी और मुसलिम के मतलब की किताबें हो सकती हैं, बंद हो चुकी हैं, क्योंकि अत्याचारों का रोना रोने वाले ये वर्ग अपने मुद्दों के बारे में भी जानने की कोशिश नहीं कर रहे.

बिना नायक की वंचित आबादी

भारत में दलितों की आबादी तकरीबन 24 करोड़ है, जो देश की कुल आबादी का 17 फीसदी है. आदिवासी समाज कुल आबादी का 9 फीसदी हैं यानी तकरीबन 11 करोड़. वहीं मुसलिमों की कुल आबादी तकरीबन 14 फीसदी यानी 20 करोड़ के आसपास है.

दलित, मुसलिम और आदिवासी समाज की हालत तकरीबन एकजैसी ही है. अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट को सच मानें तो ज्यादातर मुसलिमों के हालात दलितों से भी बदतर हैं. दलितों, मुसलिमों और आदिवासियों की कुल आबादी को जोड़ दिया जाए तो देश की आबादी में इन तीनों समाजों का अनुपात तकरीबन 40 फीसदी हो जाता है. इस में ईसाई, सिख, बौद्ध और दूसरे अल्पसंख्यक समाजों को भी जोड़ लिया जाए तो यह फीसद 50 के पार पहुंच जाएगा लेकिन विडंबना यह है कि मौजूदा राजनीतिक माहौल में देश की यह आधी आबादी पूरी तरह सत्ता विहीन नजर आती है.

40 फीसदी आबादी होने के बावजूद मुसलिम, दलित और आदिवासी तो पूरी तरह हाशिए पर हैं. नेता नहीं, मीडिया नहीं, उद्योगपति नहीं, लेखक नहीं और कोई नायक नहीं.

बिहार की राजनीति में सामाजिक न्याय की बातें करने वाले नेताओं का लंबा इतिहास रहा है. बाबू जगजीवन राम, कर्पूरी ठाकुर, बाबू जगदेव प्रसाद और लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं ने बिहार में सामाजिक न्याय की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई.

आज की राजनीति की बात करें तो सामाजिक न्याय की बातें तो नीतीश कुमार भी करते हैं, लेकिन भाजपा के साथ गठबंधन के बाद नीतीश कुमार के लिए सामाजिक न्याय पीछे छूट गया है. 2023 के बिहार जाति सर्वे के अनुसार बिहार की कुल आबादी में दलितों की आबादी 20 फीसदी है और पासवान जाति की कुल आबादी बिहार की कुल आबादी का 5.3 फीसदी है. इस तरह अकेले पासवान समाज ही दलितों का तकरीबन 27 फीसदी हैं और बिहार में पासवान वोटों का बड़ा हिस्सा चिराग पासवान को जाता है.

लोजपा के राजग में होने के चलते इस का फायदा सीधे भाजपा को मिलता है. यही वजह है कि पासवान जाति से इतर की तमाम दलित जातियों पर हर नेता की नजर है और वे दलितों को आकर्षित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते, पर उन के साथ हो रही सामाजिक या सरकारी बेईमानी, बेइज्जती, लूट के बारे में सब चुप हैं. यह कोई नेता नहीं करेगा. यह तो इन एससी, एसटी और मुसलिम वर्गों को अपने बलबूते पर, अपनी जागरूकता से कराना होगा. पर क्या पितापुत्र पासवानों ने एससी के इस वर्ग को हाथ पकड़ कर ऊपर खींचने के लिए कुछ किया? वे तो सत्ता में मजे लेने में लगे रहे. Bihar Elections 2025

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