इसी 31 जनवरी को झारखंड में रांची के पास बुंडु इलाके के परेशान किसानों ने कई ट्रक टमाटर सड़कों पर फेंक दिए. मंडी में उपज की वाजिब कीमत न मिलने से खफा किसानों ने पहली बार ऐसा नहीं किया था. 1 रुपए प्रति किलोग्राम से भी कम कीमत मिलने पर बीती 7 दिसंबर 2016 को भी किसानों ने अपने टमाटर सड़कों पर फेंक कर हाइवे जाम कर दिया था. झारखंड के चतरा व बुंडु आदि कई जिलों में इस बार टमाटरों की बहुत छीछालेदर हुई. मुनाफा तो दूर, किसानों की लागत भी नहीं निकली. नतीजतन कर्जदार किसान खुद सड़कों पर आ गए.

आजादी के बाद बीते 69 सालों में बहुत से किसान इसीलिए खुदकुशी करने पर मजबूर हुए, लेकिन ऐसा इंतजाम न हो सका, जिस से किसानों को अपनी उपज फेंकने की नौबत न आती. इस से पहले कम कीमत मिलने से नाराज किसानों ने नासिक में अपनी प्याज सड़कों पर फेंक दी थी.

बेशक बदइंतजामी है. कोई सुनने वाला नहीं है, जिस से किसान गुहार कर सकें. ऐसे में किसानों को खुद पर यकीन करना होगा. बेशक कमी सरकार की है, लेकिन जानकारी की कमी किसानों में भी है. मसलन, टमाटर फेंकने की जगह यदि किसान उन की सौस, कैचप, पेस्ट, पल्प, जूस या सूप का पाउडर आदि बना या बनवा कर बेचते तो ज्यादा कीमत मिलती. टमाटर से सौस बनाने की मशीन 35000 रुपए में मैं रिशिंग इंडस्ट्रीज, झोताला, कोलकाता. मोबाइल 08071683325 से मिलती है. अब साबुत टमाटर डब्बाबंद व धूप में सुखा कर भी प्रोसेस किए जाते हैं. टमाटरों के बीजों का तेल निकाला जाता है.

सीजन में फलसब्जियों को सुखाना नया नहीं है. चटनी, अचार, मुरब्बे, बडि़यां व पापड़ वगैरह बनाने का हुनर पुराना है. इसे पहले से ही घरों में औरतें करती रही हैं. पहले नमक, चीनी, धूप व सिरके वगैरह से फलसब्जी को महफूज किया करते थे. अब सोडियम बैंजोइड जैसे कैमिकल प्रिजर्वेटिव के तौर पर डब्बाबंदी करने में काम आते हैं. पहले ये सब घरेलू इस्तेमाल के लिए करते थे, अब व्यावसायिक तौर पर ऐसा बड़े पैमाने पर होने लगा है.

टूटते सपने

 ज्यादातर किसान कर्ज ले कर महंगी खाद, बीज व सिंचाई के खर्च पूरे करते हैं. रातदिन पसीना बहाते हैं. उस के बाद अपनी उपज को मंडी तक ले जाते हैं. वहां पहुंच कर बेचने की नौबत आती है. उस वक्त मिली रकम ऊंट के मुंह में जीरा साबित होती है. उस से यदि ढुलाई का खर्च भी पूरा न निकले तो किसानों को गुस्सा आना जायज है. ऐसे में दुखी किसान मजबूरन अपना आपा खो बैठते हैं. वे खुद पर काबू नहीं रख पाते. उन्हें कुछ नहीं सूझता.

केंद्र सरकार के खेती मंत्रालय में फसल अनुसंधान की एक अलग इकाई सीफेट के नाम से काम करती है. उस की ताजा रिपोर्ट के आंकड़े चौकाने वाले हैं. रिपोर्ट के मुताबिक देश में 32 लाख टन टमाटर व प्याज खेतों से बाजार तक पहुंचने से पहले ही बरबाद हो गए. इतना ही नहीं भारत में हर साल 92000 करोड़ रुपए कीमत की 67 लाख टन खाद्य सामग्री खराब हो जाती है. यह रकम ब्रिटेन के कुल उत्पादन से ज्यादा है.

ज्यादातर किसानों को यह शिकायत रहती है कि मंडी में उन्हें उपज की वाजिब कीमत नहीं मिलती. दूसरी ओर आढ़तिए व बिचौलिए किसानों के दम पर मलाई खाते हुए मालामाल रहते हैं. यह मसला किसानों से जुड़ा व बेहद अहम है, लिहाजा इस का कारगर हल जल्द निकाला जाना बेहद जरूरी है.

मंदी की वजह

 किसानों को लूटखसोट व मंदी की मार से बचाने के लिए देश में अब मंडी समितियां हैं. मंडी सुधार और मंडी विकास की स्कीमें चल रही हैं. लेकिन कोई खास फर्क नहीं पड़ा है. ज्यादातर किसान आज भी आढ़तियों व दलालों के चंगुल में फंसे रहते हैं. मंडी की ज्यादातर समितियों पर दबंगों व नेताओं का कब्जा है. लिहाजा छोटे किसान आज भी बदहाली के शिकार हैं. उन्हें उन की उपज की वाजिब कीमत नहीं मिलती.

ज्यादातर किसान छोटे, कम जोत वाले, कम पढे़ व गरीब हैं. उन्हें तकनीकी जानकारी नहीं होती. वे अपनी कूवत और बाजार के रुख के हिसाब से बोआई से पहले अंदाजा नहीं लगाते. वे मांग व पूर्ति के नियम से भी अनजान होते हैं. सिर्फ दूसरों की देखादेखी करते हैं, लिहाजा मंडियों में एक ही चीज के अंबार लग जाते हैं.

अब किसानों को सूझबूझ से काम लेना होगा. बेहतर है कि अपने कुल रकबे में एक ही फसल बोने की जगह उस के हिस्से करें. उन में ज्यादा मुनाफा देने वाली कई फसलें बोएं, लेकिन ज्यादातर किसान बीते सीजन की कीमतों को देख कर एक ही फसल बो देते हैं और उसी से मोटी कमाई की उम्मीद करते हैं. ऐसे में वे धोखा खाते हैं और फायदे की जगह भारी नुकसान उठाते हैं.

हल मौजूद हैं

 फसल की बोआई से बिक्री तक तौरतरीकों में सुधार व बदलाव की जरूरत है. सरकार के भरोसे रहने से कुछ होने वाला नहीं है. किसानों को अपने मसले खुद सुलझाने होंगे.

यह सीखना जरूरी है कि किस तरह से उपज की कीमत में बढ़ोतरी हो सकती है. उस के लिए कौन से तरीके अपनाए जाएं. दरअसल, अब जमाना फसल बोने व काट कर बेचने तक का नहीं रह गया है. अब उद्योगधंधों की दुनिया में कदम रखना जरूरी है.

ज्यादातर किसानों को फसल पकते ही उसे बेच कर पैसा हासिल करने की जल्दी रहती है, ताकि वे अपनी जरूरतें पूरी कर सकें और तमाम कर्ज अदा कर सकें. ऐसे में मंडी में एक साथ बहुत ज्यादा माल आ जाता है, नतीजतन दाम नीचे गिरने लगते हैं.

किसानों को चाहिए कि वे सारी उपज कच्चे माल के रूप में मंडी ले जा कर न बेचें, बल्कि खुद प्रोसेसिंग करें. इस प्रकार मंडी में ज्यादा माल न आने से कीमतों में गिरावट नहीं आएगी. साथ ही किसान तकनीक सीख कर अपनी उपज को टिकाऊ बनाने की यूनिट गांव में ही लगा सकते हैं. वे उपज की डब्बाबंदी कर के खानेपीने की बहुत सी चीजें बना सकते हैं. इस प्रकार वे अपनी उपज को लंबे अरसे तक महफूज रख सकते हैं.

आज खेती के साथ कुछ नया सहायक कामधंधा करने की जरूरत है. डब्बाबंदी का काम सीखने के लिए किसान अपने नजदीक के बागबानी, फल व खाद्य संरक्षण महकमे, एग्रीकल्चर यूनीवर्सिटी या कृषि विज्ञान केंद्र से जानकारी ले सकते हैं.

किसान फूड प्रोसेसिंग की काफी लंबे अरसे से चल रही किसी नामीगिरामी यूनिट में काम कर के तजरबा हासिल कर सकते हैं. इस के अलावा वे केंद्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान, सीएफटीआरआई मैसूर व प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान, लुधियाना, पंजाब से भी जानकारी हासिल कर सकते हैं.

पूंजी

 किसान लघु कृषक व्यापार संगठन, सफाक, नई दिल्ली राज्य सरकार के ग्रामोद्योग महकमे, सहकारी बैंक, केंद्र सरकार के खाद्य प्रसंस्करण महकमे व खादी आयोग से तकनीकी सलाह व रियायती दरों पर कर्ज वगैरह की सहूलियतें ले सकते हैं.

खेत से खाने तक का दायरा बहुत बड़ा है. आजकल नईनई चीजें बन कर बिक रही हैं. फिर भी गेहूं से आटा, मैदा, सूजी, दलिया, चावल से बाल आहार, आटा, मुरमुरे, चने से दाल, बेसन, भुने चने, सरसों से तेल, फलसब्जियों से अचार, मुरब्बे, चटनी, जैम, जूस, जैली, दालों से बड़ी, पापड़ आदि तैयार करने की इकाइयां गांवों में ही लगाई जा सकती हैं. इस से रोजगार और आमदनी दोनों बढ़ेंगे.

मशीनें

उपज को बरबाद होने से बचाने व उस की भरपूर कीमत पाने के लिए उस की प्रोसेसिंग करना लाजिम है. आलू के चिप्स बनाना और फलों के जूस व सब्जियों की डब्बाबंदी करना फायदेमंद है. इस में तकनीक, ट्रेनिंग, मशीनों व औजारों वगैरह की जरूरत पड़ती है. भारत में अब हर तरह की छोटी-बड़ी मशीनें बनती व मिलती हैं.

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