कुछ समय पहले वर्ल्ड बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि दुनिया में सब से ज्यादा गरीब लोग भारत में हैं. ‘गरीबी व साझा खुशहाली’ नामक इस रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2013 में भारत की 30 फीसदी आबादी की औसत आमदनी 1.90 अमेरिकी डौलर यानी तकरीबन 126 रुपए रोज से भी कम थी, इसलिए दुनिया में हर तीसरा गरीब भारतीय है. बेशक भारत तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है, लेकिन गरीबी का मसला छोटा नहीं है, क्योंकि यह सच है कि अमीर और अमीर हो रहे हैं, जबकि गरीब अपनी जरूरतों के लिए जूझ रहे हैं.

दिल्ली, मुंबई वगैरह कुछ शहरों में आसमान छूती इमारतें, चिकनी सड़कें, लंबे फ्लाईओवरों और बिजली की चकाचौंध से लगता है कि हमारा देश बहुत तेजी से बदल रहा है, लेकिन यह तसवीर का सिर्फ अधूरा पहलू है, जो सरकारें दिखाती हैं. दीया तले का असल अंधेरा तरक्की पर तमाचा व गरीबी दूर करने के खोखले नारों व स्कीमों का कड़वा सच है.

इन की उलटबांसी

एक ओर नेता, अफसर, कारोबारी व धर्म के धंधेबाज चांदी काट रहे हैं, वहीं दूसरी ओर गांव, कसबों, पहाड़ी, रेतीले इलाकों, मलिन बस्तियों व झोंपड़पट्टियों में रहने वाले गरीब जानवरों से बदतर जिंदगी जी रहे हैं. वे दो दून की रोटी, तन ढकने के लिए कपड़ा व सिर छिपाने के लिए टूटे छप्पर या खपरैल जैसी बुनियादी जरूरतें भी आसानी से पूरी नहीं कर पाते हैं. यह गरीबों के साथ सरासर नाइंसाफी नहीं तो और क्या है?

बेशक एक ओर मोबाइल फोन, कंप्यूटर और गाडि़यों की गिनती तेजी से बढ़ रही है, वहीं इस के उलट दूसरी ओर दिल दहलाने वाली घटनाएं मीडिया में आ रही हैं. मसलन, पिछले दिनों एक गरीब 12 किलोमीटर तक अपनी पत्नी की लाश को कंधे पर ढोने को मजबूर हुआ, तो दूसरे को कूड़े के ढेर में आग लगा कर लाश का क्रियाकर्म करना पड़ा.

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