गिरिजा ग्वालिन हर रोज जैसलमेर से सुबहसवेरे 25 लिटर दूध पीतल के घड़े में अपने सिर पर रख कर 3-4 किलोमीटर दूर तक सड़क से निकलती थी. रास्ते में दूध बेचते हुए लाठी गांव पहुंच कर फिल्मी अंदाज में आवाज लगाती, ‘मेरा नाम है गिरिजा ग्वालिन, मैं आई दूध बेचने जैसलमेर से...’
गिरिजा 25 साल की भरेपूरे बदन की औरत थी. उस का गोरा रंग, लाललाल होंठ, गुलाबी गाल, उभरी छाती, मटकते कूल्हे, अदा भरी निगाहें सब को अपनी ओर खींच लेती थीं.
गिरिजा के सिर पर ओढ़नी होती थी, जिस के दोनों सिरे वह अपनी चोली में खोंस देती थी. कमर से घुटनों तक छींटदार घाघरा उस पर खूब फबता था. खुले गोरेगोरे घुटनों के नीचे के पैर हर एक को देखने को मजबूर कर देते थे.
इस तरह गिरिजा अपना दूध बेचती रहती थी और जो रुपए आते थे, उन्हें अपनी चोली में खोंसती रहती थी. जब चोली में रुपए नहीं समाते थे, तो वह उन्हें और दबा कर भर देती थी. इस तरह कुछ रुपए चोली के बाहर तक ऊपर दिखाई दे जाते थे.
गिरिजा अपना सारा दूध बेच कर जैसलमेर लौट जाती थी.
लाठी गांव के लठैत अपना लट्ठ लिए धमकाते, जबरन पैसे छीनते व जवान लड़कियोंऔरतों को छेड़ने से भी नहीं चूकते थे. जब गिरिजा दूध बेचने आती, तो ये लोग भी उस के आगेपीछे मंडराते थे, पर भीड़भाड़ व गिरिजा का कसरती बदन देख कर हिम्मत नहीं कर पाते थे.
एक दिन जब गिरिजा सारा दूध बेच कर अकेले खड़ी थी, तो कुछ मनचलों ने मौका देखा. उन के ग्रुप में बलवंत सिंह भी था.
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