घुमरी बाबा किसी यजमान के यहां से श्राद्धभोज का खाना खा कर और साथ ही घर वालों के लिए गठरी में खाना बांध कर अपने घर को लौट रहे थे.
उन्होंने भोज में पूरी, सब्जी, दही, लड्डू, जलेबी वगैरह चीजें खूब डट कर खाई थीं. पेट निकल कर मटका हो गया था. हाथपैर भारी लग रहे थे.
घुमरी बाबा गहरी नींद सोते थे. भरपेट खाना खाने के बाद उन की आंखें खुलनी मुश्किल हो जाती थीं. बाबा का कहना था कि ‘मर कर टर जाओ और खा कर पसर जाओ’. उस दिन भी वे रास्ते में एक पेड़ की छांव में सिरहाने गठरी रख कर पसर गए और पलभर में खर्राटे भरने लगे.
घुमरी बाबा अभी कुछ ही देर तक सो पाए थे कि कहीं से एक सांड़ आ गया और बाबा की गठरी के पास पहुंच गया. उस ने गठरी समेत उस में रखा खाना चबा लिया.
गठरी चबाते समय उस में रखी जलेबी का रस बाबा की चुटिया पर गिर गया, इसलिए उस बेशर्म सांड़ ने बाबा की चुटिया भी चबानी शुरू कर दी.
बाबा की नींद खुली, तो सिरहाने सांड़ को देख कर वे घबरा गए और धीरेधीरे गुहार करने लगे, ‘‘दुहाई प्रभु, दुहाई, जान बचा लो...’’
सांड़ ने शायद बाबा की गुहार सुन ली. उस ने चूसी हुई चुटिया को उगल दिया व अलग हट कर खड़ा हो गया.
सांड़ के अलग हटते ही बाबा उसे कोसने लगे, ‘‘यह नीच सांड़ नहीं, कुत्ता है. सांड़ जाति के लिए कलंक है.’’
सांड़ कुछ ही देर बाद पागुर करने लगा. बाबा अब वहां से खिसकने की ताक में लग गए. उन्होंने देखा कि सांड़ का सारा ध्यान पागुर करने में लगा हुआ है. घुमरी बाबा धीरे से उठ कर खिसकते हुए गांव वाले रास्ते की ओर बढ़ते गए. कुछ देर बाद बाबा ने पलट कर देखा, तो सांड़ को अपनी ओर पीछेपीछे आता हुआ पाया.
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