साढ़े तीन साल पहले भारतीय जनता पार्टी ने जम्मू-कश्मीर में राजनीति का जो एक अध्याय शुरू किया था, पिछले मंगलवार की दोपहर उसके समापन की घोषणा हो गई. तब सरकार चलाने के लिए पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी से गठजोड़ की जितनी तरह की राजनीतिक व्याख्याएं हुई थीं, उतनी ही तरह की व्याख्याएं शायद इस संबंध-विच्छेद की भी होंगी. बहुत से लोगों को अभी से इसमें उम्मीद नजर आनी शुरू हो गई है.
यह मानने वालों की तादाद काफी बड़ी है कि अब ऑपरेशन ऑल आउट की सारी बाधाएं खत्म हो चुकी हैं. अब सुरक्षा बलों को अपना काम करने की खुली छूट दी जाएगी और वे आतंकवाद को जड़ से उखाड़ने में पूरी तरह जुट जाएंगे. इस सोच के पीछे कहीं न कहीं यह धारणा भी है कि भाजपा और पीडीपी का गठजोड़ आतंकवादियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई में आड़े आ रहा है. लेकिन भाजपा के इस कदम की एक दूसरी व्याख्या भी है.
यह भी कहा जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर में सरकार से समर्थन वापस लेकर पार्टी ने अगले आम चुनाव की राजनीति शुरू कर दी है. इस व्याख्या में कुछ नया नहीं है. आम चुनाव जब पास आने लगता है, तो किसी भी पार्टी के हर कदम की सबसे सुगम व्याख्या यही हो सकती है. ऐसी व्याख्याएं अक्सर गलत भी नहीं होतीं.
यह भी सच है कि पिछले कुछ समय से जम्मू-कश्मीर में जो हो रहा है, उसमें केंद्र सरकार और भाजपा, दोनों के लिए ही कोई बड़ा कदम उठाना और साथ ही कुछ करते हुए दिखना जरूरी हो गया था. प्रदेश सरकार से समर्थन वापस लेकर इसकी शुरुआत कर दी गई है. यह भी तय है कि अगला कदम राष्ट्रपति शासन होगा. मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने इस्तीफा देकर इसका रास्ता भी साफ कर दिया है. यह उम्मीद कम ही है कि वहां वैकल्पिक सरकार बनाने का कोई दावा सामने आए. ऐसे में, इस बदलाव का अर्थ होगा राज्य की बागडोर का केंद्र के हाथ में आ जाना.
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