”कुमारी सुनीता, आप की पूरी फीस जमा है. आप को फीस जमा करने की आवश्यकता नहीं है,” बुकिंग क्लर्क अपना रेकौर्ड चैक कर के बोला. ”मगर मेरी फीस किस ने जमा कराई है. वह भी पूरे 50 हजार रुपए,” सुनीता हैरानी से पूछ रही थी.
”मैडम, आप की फीस औनलाइन जमा की गई है,” क्लर्क का संक्षिप्त सा उत्तर था. वह हैरानपरेशान कालेज से वापस लौट आई. उस की मां बेटी का परेशान चेहरा देख कर पूछ बैठी, ”क्या बात है बेटी?”
”मां, किसी व्यक्ति ने मेरी पूरी फीस जमा करा दी है,” वह हैरानी से बोली. ”किस ने और क्यों जमा कराई?” सुनीता की मां भी परेशान हो उठी.
”पता नहीं मां, कौन है और बदले में हम से क्या चाहता है?” बेटी की परेशानी इन शब्दों में टपक रही थी. उस की मां सोच में पड़ गई. आजकल मांगने के बाद भी मुश्किल से 5-10 हजार रुपए कोई देता है वह भी लाख एहसान जताने के बाद. इधर ऐसा कौन है जिस ने बिना मांगे 50 हजार रुपए जमा करा दिए. आखिर, बदले में उस की शर्त क्या है?
”खैर, जाने दो जो भी होगा दोचार दिनों में खुद सामने आ जाएगा,” मां ने बात को समाप्त करते कहा. दोनों मांबेटी खाना खा कर लेट गईं. सुनीता की मां एक प्राइवेट हौस्पिटल में 4 हजार रुपए मासिक पर दाई की नौकरी करती है. आज से 15 साल पहले एक रेल ऐक्सिडैंट में वह पति को खो चुकी थीं. तब सुनीता मुश्किल से 5-6 साल की रही होगी. तब से आज तक दोनों एकदूसरे का सहारा बन जी रही हैं. सुनीता को पढ़ाना उस का एक फर्ज है. बेटी बीए कर रही थी.
सुनीता ने अपने पिता को इतनी कम उम्र में देखा था कि उसे उन का चेहरा तक ठीक से याद नहीं है. कोई नातेरिश्तेदार इन से मिलने नहीं आता था. ऐसे में यह कौन है जो उस की फीस भर गया? दोनों मांबेटी की आंखों में यह प्रश्न तैर रहा था. पिता के नाम के स्थान पर दिवंगत रामनारायण मिश्रा लिखा था मगर वे कौन थे और कैसे थे, इस की चर्चा घर में कभी नहीं होती थी. मगर आज.
सुनीता के चाचा, मामा, मौसा या किसी दूसरे रिश्तेदार ने आज तक कभी एक रुपए की मदद नहीं की, ऐसी स्थिति में इतनी बड़ी रकम की मदद किस ने की. बहरहाल, सुनीता उत्साह के साथ पढ़ाई में जुट गई. दोचार वर्षों में वह बैंक, रेलवे या कहीं भी नौकरी कर के घर की गरीबी दूर कर देगी. वह मां को इस तरह खटने नहीं देगी. मां ने विधवा की जिंदगी में काफी कष्ट झेला है.
सुनीता उस दिन अचकचा गई जब उस के प्राचार्य ने उसे एक खत दिया. और कहा, ”बेटी, आप के नाम यह पत्र एक सज्जन छोड़ गए हैं, आप चाहें तो इस पते पर उन से संपर्क कर सकती हैं या फोन पर बात कर सकती हैं.” ”जी, धन्यवाद सर,” कह कर वह उन के कैबिन से बाहर आ गई और सीधा घर जा कर खत पढ़ा. उस में लिखा था, ”बेटी, आप की फीस मैं ने भरी है, बदले में मुझे तुम से कुछ भी नहीं चाहिए, न ही तुम्हें यह पैसा लौटाना है.” नीचे उन के हस्ताक्षर और मोबाइल नंबर था.
सुनीता की मां ने जब वह नंबर डायल किया तो तुरंत जवाब मिला, ”जी, आप सुनीता या उस की मां?” ”मैं उस की मां बोल रही हूं. आप ने मेरी बेटी की फीस क्यों भरी?”
”जी, इसलिए कि मुझे इन के पिता का कर्ज चुकाना था.” वह संक्षिप्त उत्तर दे कर चुप हो गया. ”ऐसा कीजिए आप मेरे घर आ जाइए.”
”ठीक है, रविवार को दोपहर 1 बजे मैं आप के घर आऊंगा,” कह कर उस व्यक्ति ने फोन काट दिया. रविवार को वह समय पर हाजिर हो गया. करीब 28-30 वर्ष का वह नौजवान आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी था. वह बाइक से आया और सुनीता की मां को मिठाई का डब्बा दे कर नमस्कार किया.
सुनीता ने भी उसे नमस्कार किया और पास में बैठते हुए अपना प्रश्न दोहराया. ”मैं ने फोन पर बताया तो था कि आप का ऋण चुकता किया है,” वह सरल स्वर में बोला था.
”कैसा ऋण? दोनों मांबेटी चौंकी थीं. ”ऐसा है कि रामनारायणजी ने मेरे पिताजी की 3 हजार रुपए की मदद की थी. उस के बाद मेरे पिताजी जब तक वह पैसा लौटाते तब तक रामनारायणजी गुजर चुके थे. परिवार का कोई ठिकाना नहीं था. मेरे पिताजी ने आप लोगों को बहुत ढूंढ़ा पर खोज नहीं पाए,” वह स्पष्ट स्वर में जवाब दे रहा था, मैं पढ़लिख कर नौकरी में आ गया और स्टेट बैंक की उसी शाखा में आ गया जहां आप लोगों का खाता है. साथ ही, वहीं सुनीता के कालेज का भी खाता है. मुझे यहीं आप का परिचय और आप की माली हालत का पता चला. मैं ने आप की मदद का निश्चय किया और फीस भर दी.”
”मगर आप अपनेआप को छिपा कर क्यों रखना चाहते थे,” यह सुनीता का प्रश्न था. ”वह इसलिए कि मुझे बदले में कुछ भी नहीं चाहिए था और जमाने को देखते हुए मुझे चलना था.”
”फिर सामने क्यों आए?” यह सुनीता की मां का प्रश्न था. ”जब आप लोगों को परेशान देखा, खास कर आप का यह डर की पता नहीं इस आदमी की छिपी शर्त क्या है? मैं ने आप का ऋण चुकाया था, डराना मेरा पेशा नहीं है. सो, सामने आ गया.”
अब उस के इस जवाब से वे दोनों मांबेटी, आश्चर्य से भर उठीं. ”मैं अब निकलना चाहूंगा. आप लोग चिंता न करें. मैं ने अपने पिताजी का ऋण चुकाया है,” वह उठते ही बोला.
”ऐसे कैसे? वह भी 3 हजार के 50 हजार रुपए?” अभी भी सुनीता की मां समझ नहीं पा रही थी. ”3 हजार रुपए नहीं, उन 3 हजार रुपए से मेरे पिता ने मेरी जान बचाई, मेरा इलाज कराया. मैं जीवित हूं, तभी आज बैंक में काम कर रहा हूं. गरीबी की हालत में मेरे पिताजी की रामनारायणजी ने मदद की थी. आज मेरे पास सबकुछ है, बस, पिताजी नहीं हैं,” वह भावुक हो कर बोल रहा था.
”फिर तुम यह पैसा वापस क्यों नहीं लेना चाहते?” यह सुनीता की मां का प्रश्न था. ”उपकार के बदले प्रत्युपकार हो गया. सो कैसा पैसा?” वह स्पष्ट बोला.
”फिर भी.” सुनीता की मां समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहे? ”कुछ नहीं आंटीजी, आप ज्यादा न सोचें. अब मुझे इजाजत दें,” इतना कह कर वह चल दिया.
दोनों मांबेटी उसे जाता देख रही थीं. इन की आंखों से खुशी के आंसू झर रहे थे. ”मां, आज भी ऐसे लोग हैं,” सुनीता बोली.
”हां, तभी तो वह हमारी मदद कर गया.” ”मैं नौकरी कर के उन का पैसा वापस कर दूंगी,” वह भावुक हो कर बोली.
”बेटी, ऐसे लोग बस देना जानते हैं, लेना नहीं. सो, फीस की बात भूल जाओ. हां, बैंक में मेरा परिचय हो गया है, काम जल्दी हो जाएगा,” मां के बोल दुनियादारी भरे थे. दोनों मांबेटी की आंखों में आंसू थे जो एक ही वक्त में 2 अलग सोच पैदा कर रहे थे. मां जहां पति को याद कर रो रही थी जिन के दम पर आज 50 हजार रुपए की मदद मिली, वहीं बेटी को यह व्यक्ति फरिश्ता नजर आ रहा था. काश, वह भी किसी की मदद कर पाती. 50 हजार रुपए कम नहीं होते.
अब बस, दोनों की आंखों से आंसू बह रहे थे.