Hindi Story : ‘‘ये कारखाने, आधुनिक मंदिर हैं.’’ जब से नेहरूजी द्वारा यह घोषणा हुई, देश कृषि प्रधान होते हुए भी तीव्र गति से औद्योगीकरण की ओर अग्रसर होता चला गया है. इस औद्योगीकरण का प्रमुख सिद्धांत था, देश के पिछड़े भागों व वर्गों को उन्नति और विकास में बराबर का साझीदार बनाना और वहां रहने वाले आदिवासियों व अनुसूचित जातियों को मुख्य धारा में आने का प्रोत्साहन व अवसर देना.
इन कारखानों की स्थापना से एक साधारण आदिवासी के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा, इस की खोज करने के लिए एक युवा पत्रकार औद्योगिक क्षेत्रों के भ्रमण पर निकल पड़ा. वह देश के कोनेकोने में बिखरे इन आधुनिक मंदिरों में गया और अनेक आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक तथ्य एकत्रित किए. जो परिणाम निकला, उस से वह चकरा गया. ये ही प्रश्न बारबार उस के मस्तिष्क में उठ रहे थे, क्या हम लोग अपने उद्देश्य में सफल हुए हैं? इनसान सचमुच जागृत हो गया है या मानसिक कोढ़ के चंगुल में फंस गया है?
रहरह कर उसे उस निर्मल हृदय व विनम्र वृद्ध आदिवासी से लिया साक्षात्कार याद आ रहा था, जिस का नाम था मुंडा. उस का पुत्र उस समय कारखाने में प्रोन्नति पा कर उपप्रबंधक के पद पर पहुंच गया था. लगातार संघर्ष करने से उस के व्यवहार में एक कड़वाहट थी. उस के दोनों बच्चे गैरआदिवासियों के प्रति आक्रोश, घृणा व उद्दंडता की भावना में जी रहे थे, क्योंकि उन्होंने केवल समृद्धि देखी थी.
पत्रकार ने पूछा, ‘‘मुंडाजी, आप को उस समय की याद होगी, जब यहां कारखाना नहीं था. क्या कुछ वर्णन कर सकते हैं?’’
‘‘हां, याद है. बहुत कुछ याद है,’’ कह कर वह खो सा गया.
पत्रकार ने कुरेदा, ‘‘क्या याद है?’’
‘‘तब यहां कुछ नहीं था,’’ मुंडा ने चारों ओर हाथ फैला कर कहा, ‘‘चारों ओर दूरदूर तक जंगल ही जंगल था.’’
पत्रकार ने मन में सोचा, ‘इस विशाल कारखाने के लिए लाखों एकड़ धरती पर फैले जंगल का विनाश हो गया तो पर्यावरण में असंतुलन तो होगा ही. भट्ठियों से निकलते जहरीले धुएं से वातावरण तो दूषित होगा ही. कारखाने से निष्कासित दूषित जल जब नदी में गिरेगा तो नदी में जीते प्राणी तो मरेंगे ही, साथ में इस जल पर निर्भर रहने वाले मनुष्य अनेक बीमारियों का भी शिकार तो होंगे ही. यह कैसा विकास है?’
‘‘आप लोगों की तब जीविका क्या थी?’’ पत्रकार ने प्रश्न किया.
‘‘कुछ भी नहीं,’’ मुंडा हंसा, ‘‘थोड़ी बहुत खेती करते थे, बाकी समय नाच- गाना, खानापीना और मस्त रहना. कोई चिंता नहीं थी. जंगल हमारा मातापिता और अन्नदाता सबकुछ था. झोंपडि़यों में रहते थे, पर बहुत अच्छा लगता था, बिलकुल स्वतंत्रता से रहते थे.’’
मुंडा को फिर से सपनों के संसार में खोते देख कर पत्रकार ने टोका, ‘‘और अब?’’
‘‘अब यह पक्का मकान है, एकदम जेलखाना लगता है, इस घर से निकल कर बाहर जाएं कहां? फिर से जंगल में खो जाने को जी करता है.’’
‘‘कारखाना और कालोनी बनाने के लिए आप से आप की जमीन तो सरकार ने ली होगी?’’
‘‘हां, सब जमीन ले ली. पर उस का पूरा पैसा भी दिया.’’
‘‘उस पैसे का आप ने क्या किया?’’
मुंडा फिर हंसा, ‘‘हम आदिवासी पैसे का क्या करेंगे? हमारी मुट्ठी में पैसा तो पानी समान है. और मुट्ठी में कई सूराख होते हैं, सब खापी के बराबर कर दिया.’’
पत्रकार ने आगे प्रश्न किया, ‘‘फिर आप की जीविका कैसे चलती थी?’’
‘‘बड़ी मेहरबानी सरकार की,’’ मुंडा ने नम्रता व कृतज्ञता से कहा, ‘‘हम सब को कारखाने में नौकरी दी. नौकरी के लिए योग्यतानुसार प्रशिक्षण दिया. रहने को मकान और बच्चों की शिक्षा के लिए स्कूल, शिक्षा भी मुफ्त. एक पैसा नहीं देना पड़ता.’’
‘‘आप इस से खुश हैं?’’
‘‘हां, अगर यह कारखाना नहीं होता तो इतना विकास कहां देखने को मिलता? मैं और मेरे बच्चे आज भी जंगल के निवासी बने रहते.’’
‘‘जब कालोनी बनी तो क्या आप इसी मकान में रहते थे?’’
मुंडा जोर से हंसा, ‘‘आप भी क्या मजाक करते हैं? अरे, यह तो बंगला है मेरे बेटे का. बड़ा अफसर है न. मैं तो मजदूर कालोनी में रहता था. 2 छोटे से कमरे, पर बिजली भी थी और पानी भी.’’
‘‘क्या आप के अड़ोसीपड़ोसी सब आदिवासी थे?’’
‘‘अधिकतर तो आदिवासी थे,’’ मुंडा सोच कर बोला, ‘‘परंतु बहुत सारे बाहर के लोग भी थे. मैं ने तो पहली बार सुना था कि यहां बंगाल, बिहार, तमिलनाडु, केरल और राजस्थान जैसी और जगहें भी हैं. पहले हमारी दुनिया तो बस, जंगल तक ही सीमित थी.’’
‘‘आप लोगों का बाहर के लोगों से झगड़ा भी होता होगा? आखिर उन का रहनसहन, बोलचाल, तीजत्योहार सब ही तो अलगअलग होंगे?’’
मुंडा फिर हंसा और काफी देर तक हंसता रहा. फिर बोला, ‘‘हां, झगड़ा तो होता था पर इस बात पर नहीं कि उन के आचारविचार अलग थे. वैसे हम सब मिलजुल कर रहते थे. तीजत्योहार मिल कर मनाते थे. गमीखुशी में भी साथ देते थे,’’ मुंडा चुप हो गया.
‘‘फिर झगड़ा क्यों होता था?’’
‘‘इसीलिए कि बाहरी लोग हम आदिवासियों को नीचा समझते थे. हमें बराबर का इनसान नहीं समझते थे. इस बात को ले कर अकसर झगड़ा होता था.’’
‘‘फिर आप विरोध तो करते होंगे?’’
‘‘कैसा विरोध? हम आदिवासी से कुछ और तो बनने से रहे. बस, परि- स्थितियों से समझौता कर लेते थे.’’
‘‘उस समय चोरी, डाका या हिंसा की वारदातें होती थीं?’’
‘‘नहीं, एक भी नहीं. रात भर दरवाजा खोल कर सोते थे. एक भी चीज कोई उठा कर नहीं ले जाता था.’’
‘‘अब क्या होता है?’’
मुंडा सोच में पड़ गया. कुछ देर बाद बोला, ‘‘अब हम लोग आधुनिक बन गए हैं न. सिनेमा खूब देखते हैं. यहां 2 तो सिनेमाघर खुल गए हैं. ऊपर से कंपनी प्रति सप्ताह एक सिनेमा खुले मैदान में मुफ्त में दिखाती है. सिनेमा का असर पड़ता है न.’’
‘‘आप ने पहले कभी सिनेमा देखा था?’’
‘‘नहीं, पहले यहां का मुफ्त सिनेमा देखा था. हमें तो देख कर बड़ी शर्म आई. पर आश्चर्य भी हुआ और अच्छा भी लगा,’’ मुंडा ने गहरी सांस ली.
‘‘आप ने शिक्षा ली?’’
मुंडा झेंप गया, ‘‘अरे, हम क्या शिक्षा लेंगे. बच्चों ने पढ़ लिया, वही बहुत है.’’
‘‘कितने बच्चे हैं?’’
‘‘2, लड़का अमित मुंडा और लड़की रेखा मुंडा. सिनेमा देखने और कुछ साथ पढ़ने वाले बच्चों के हंसी उड़ाने से उन्होंने अपने आदिवासी नाम बदल लिए हैं.’’
पत्रकार को हंसी आ गई. मुंडा और भी झेंप गया, जैसे उस से कोई अपराध हो गया हो. पत्रकार ने आगे प्रश्न किया, ‘‘बच्चों के बारे में कुछ बताएंगे?’’
‘‘मेरा बड़ा लड़का यानी अमित मुंडा…’’ मुंडा ने गर्व से कहा, ‘‘कंपनी में आजकल उपप्रबंधक बन गया है. पढ़ने में अच्छा निकला. वैसे पढ़ना शायद कठिन होता, पर एक तो फीस माफ थी और दूसरे, नंबर कम आने पर भी आदिवासी होने के कारण कक्षा में उत्तीर्ण कर दिया जाता था. सरकारी नीति है न.’’
‘‘फिर क्या इंजीनियर बन गया?’’
‘‘हां, यहां तो सारे के सारे इंजीनियर ही हैं, सो उसे भी धुन चढ़ गई कि मैं भी इंजीनियर बनूंगा. परीक्षा में बैठा तो नंबर बहुत कम थे, परंतु आदिवासियों के लिए सुरक्षित स्थान होने से उसे प्रवेश मिल गया.’’
‘‘क्या वह हर साल इसी तरह पास होता गया?’’
‘‘हां, इस से यह अवश्य हुआ कि जिन्हें प्रवेश नहीं मिला या परीक्षा में पास नहीं हुए, उन्हें ईर्ष्या बहुत हुई. एक बार तो कालिज में इस को ले कर हंगामा भी हुआ. हड़ताल हुई, कुछ विद्यार्थियों ने अदालत में मुकदमा भी कर दिया, पर अदालत ने कहा कि इसे सरकारी नीति के अनुसार सुरक्षित स्थान के लिए प्रवेश मिला है.’’
‘‘पर आप यह नहीं सोचते कि इस तरह कम नंबर पा कर भी आगे बढ़ने से आप के पुत्र में योग्यता नहीं होगी?’’
‘‘अजी, आजकल योग्यता को कौन पूछता है? हम आदिवासियों को अगर सरकार ही ऊपर नहीं उठाएगी तो आम आदमी तो सदा ही हमारा शोषण करता रहेगा?’’
पत्रकार मुंडा की बात से चकित हो गया. वह इतना तो जागृत हो गया था कि अपनी बातों में जो विरोधाभास था, उसे बिलकुल महसूस नहीं कर रहा था.
पत्रकार ने पूछा, ‘‘क्या आप यह नहीं सोचते कि इस देश की बागडोर योग्य पुरुषों के हाथों में होनी चाहिए? कारखाने चलाने के लिए कुशल इंजीनियर होने चाहिए?’’
मुंडा ने उलझन महसूस की. रुक कर बोला, ‘‘आप की बात ठीक है पर योग्यता व कुशलता की कसौटी पर आदिवासी सदा खरा नहीं उतरेगा. उसे अपनेआप ऊपर उठने में 100 साल भी लग सकते हैं. पर यह जो हम ने अपनी धरती कारखाने, विकास और उन्नति के लिए न्योछावर कर दी है, क्या इसलिए कि हमारे बच्चे 100 साल तक प्रतीक्षा करें.’’
पत्रकार निरुत्तर हो गया. एक पेचीदा प्रश्न का पेचीदा उत्तर था. मुंडा के चेहरे पर क्षणिक आवेश झलका, परंतु वह जंगलपुत्र होने के कारण अत्यधिक सहनशील भी था.
पत्रकार ने प्रश्नों का रुख मोड़ते हुए पूछा, ‘‘अच्छा, यह बताइए कि पहले के और अब के वातावरण में क्या अंतर है?’’
मुंडा कुछ देर तक सोचता रहा. फिर बोला, ‘‘हरियाली देखने को बहुत मन करता है. अब तो चारों ओर सीमेंट, पत्थर, लोहा और धुआं ही धुआं दिखाई देता है, बस, पहले वर्षा भी खूब होती थी और बिजली के पंखों का तो नाम भी नहीं सुना था. अब तो बिना पंखे के कोई सो ही नहीं सकता. वातावरण में पहले जो एक खुशबू थी, वह अब नहीं है.’’
उसी समय एक प्रौढ़ पुरुष ने प्रवेश किया. प्रश्नसूचक दृष्टि से पत्रकार ने देखा.
‘‘यह मेरा बेटा है,’’ मुंडा ने परिचय दिया, ‘‘अमित मुंडा.’’
अमित ने परिचय प्राप्त कर के पत्रकार से हाथ मिलाया. पत्रकार के हाथ अभिवादन के लिए उठे थे, पर बीच में ही रुक गए.
अमित ने इधरउधर की बातें कर के कहा, ‘‘आज मैं बहुत खुश हूं. मैं व्यवस्था से एक लड़ाई जीत गया हूं.’’
पत्रकार ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘कैसी लड़ाई?’’
‘‘कुछ महीने पहले प्रोन्नति की एक सूची निकली थी. मुझे अयोग्य बता कर प्रोन्नति नहीं दी. महानिदेशक तक गया, परंतु एक ही जवाब मिला कि अफसरों की प्रोन्नति उन की योग्यता के आधार पर होती है. मैं ने केंद्रीय गृहमंत्री को लिखा. वहां से आदेश आ गए हैं कि आदि- वासियों के लिए स्थान सुरक्षित हैं. चूंकि और कोई आदिवासी उम्मीदवार नहीं था, इस कारण मुझे प्रोन्नति मिलनी चाहिए.’’
पत्रकार ने पूछा, ‘‘क्या इस तरह का संघर्ष आप को हर बार करना पड़ता है?’’
‘‘यही मेरी विडंबना है. आदिवासी होना मानो एक बड़ा अभिशाप है. सब को ईर्ष्या और जलन होती है. जहां तक हो सकता है, मेरे रास्ते में रुकावटें डालते हैं.’’
‘‘आप का कोई और भी कटु अनुभव है?’’
‘‘एक नहीं, कई. समाज में हमें कोई बराबरी का दरजा नहीं देता. हमें इतना हीन समझते हैं कि साथ में उठनेबैठने और खानेपीने से कतराते हैं. बड़ा अपमान महसूस होता है.’’
‘‘अगर यह कारखाना नहीं होता तो आप शायद अभी भी जंगल का जीवन बिता रहे होते. आप कौन सा जीवन पसंद करेंगे, आज का या पहले वाला?’’
अमित सोच में पड़ गया. वह बोला, ‘‘इस का उत्तर कठिन है परंतु इतनी शिक्षा और सुविधाएं होने से यही कह सकता हूं कि विकास और प्रगति के लिए इनसान को कुछ त्यागना ही पड़ता है. आदिवासियों ने अपनी स्वतंत्रता खो कर यदि इस सामाजिक असंतुलन का जीवन स्वीकार किया है तो शायद यह सोच कर कि कभी न कभी उसे समाज में अपना उचित स्थान मिल जाएगा. बस, सब्र की आवश्यकता है.’’
पत्रकार ने अगला प्रश्न किया, ‘‘आप ने थोड़ाबहुत पुराना जीवन और अब दूसरा जीवन भी देखा है. यह संघर्ष आप को कटु और मीठे अनुभव दे रहा है. पर आप के बच्चों को तो लगभग समृद्धि का वातावरण मिल रहा है. अपेक्षाकृत सुविधाएं भी अधिक हैं और समाज में आदिवासियों को स्थान भी मिल रहा है. वे क्या सोचते हैं?’’
अमित ने आवेश में आ कर कहा, ‘‘वे तो हम से भी अधिक क्रुद्ध हैं. छोटीमोटी अवहेलना से भी उन का खून खौलने लगता है. सामाजिक स्वीकृति जो कुछ भी है, उन्हें एक दिखावा और छलावा लगती है.’’
‘‘आप का कहना है कि वे अधिक जागृत हो गए हैं?’’
‘‘ऐसा कहिए कि उन में चेतना आ गई है. दुख यह है कि उन में हिंसा की भावना आ रही है. यह रोकना कठिन है. साथ के बच्चे जब काले रंग को ले कर या हमारे नाकनक्श को ले कर हंसी उड़ाते हैं तो कभीकभी मारपीट हो जाती है.’’
‘‘आप का मतलब है कि बच्चों में सहनशीलता की कमी है. बहुत जल्दी क्रोध में आ जाते हैं.’’
‘‘ताली दोनों हाथों से बजती है. पहले हम लोग अपमान या तो महसूस नहीं करते थे या पी जाते थे. आजकल के बच्चे ऐसा करने लगें तो यह उन की कमजोरी समझी जाएगी. वे दबते चले जाएंगे और फिर शुरू होगा शोषण का दौर. नहीं, उन्हें यह सब सहने की आवश्यकता नहीं है,’’ अमित के स्वर में दबादबा आक्रोश था.
पत्रकार ने पूछा, ‘‘आप की बहन…’’
‘‘मेरी बहन, रेखा? वह तो डाक्टर बन गई है. लीजिए, वह भी आ गई. उसी से पूछ लीजिए जो कुछ पूछना हो.’’
अभिवादन के बाद पत्रकार ने रेखा से पूछा, ‘‘आप को डाक्टरी की शिक्षा प्राप्त करने में कोई कठिनाई हुई?’’
रेखा ने हंस कर कहा, ‘‘कठिनाई तो बहुत हुई. एक तो पढ़ाई कठिन थी ही, साथ ही सहपाठियों से कुछ सहायता नहीं मिली. उन्हें सदा यह लगता था कि मेरा डाक्टरी पढ़ने का कोई अधिकार नहीं. मुझे हमेशा एक घुसपैठिए का दरजा मिलता था. अपमान भी काफी झेलना पड़ा. पर यह सब पुरानी बात है. मुझे कोई शिकायत नहीं.’’
‘‘आप को नौकरी मिलने में कोई कठिनाई हुई?’’
‘‘कोई नहीं, इस कारखाने में जगह थी. बहुत से उम्मीदवार थे, पर यहीं का होने से व पिताजी के कारण आदिवासी होने से प्राथमिकता दी गई. मैं सुरक्षित स्थान के लिए चुन ली गई.’’
‘‘लोगों में काफी रोष उत्पन्न हुआ होगा?’’
‘‘अवश्य हुआ, परंतु हम आदि- वासियों को खुलेआम कोई नौकरी देता कहां है?’’
पत्रकार ने विनोदभाव से पूछा, ‘‘विवाह?’’
रेखा ने बेझिझक कहा, ‘‘वह तो मैं कर चुकी. यहीं एक इंजीनियर हैं.’’
अमित ने बीच में कहा, ‘‘इस ने प्रेम विवाह किया है. एक गैरआदिवासी से. हम ने बहुत समझाया, पर यह नहीं मानी. अब परिणाम भोग रही है.’’
पत्रकार ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘कैसा परिणाम? ऐसी शादी से तो सरकार की ओर से इनाम मिला होगा?’’
‘‘हां,’’ रेखा ने कहा, ‘‘मुझे नहीं, हम दोनों को 1 हजार रुपया इनाम मिला.’’
‘‘यह तो बहुत प्रसन्नता की बात है कि आप ने ऐसा क्रांतिकारी कदम उठाया.’’
‘‘हां, मैं ऐसा ही समझती थी. पर इस की हानियां अब समझ में आ रही हैं.’’
‘‘कैसी हानियां?’’
‘‘एक प्रोन्नति विवाह के पहले मिली थी. अब नहीं मिल रही. कई साल से वहीं पड़ी हूं.’’
‘‘वह क्यों?’’
‘‘गैरआदिवासी से विवाह करने के कारण मेरा स्तर बदल गया. अब मैं उन्नत जातियों में आ गई हूं. इसलिए सरकारी सुरक्षा बंद हो गई. बच्चों को भी विशेष सुविधाएं नहीं मिलेंगी. भला बताइए, यह तो सरासर अन्याय है. केवल विवाह करने से एक आदिवासी गैरआदिवासी कैसे हो गया?’’
वह उत्तेजित हो कर बोली, ‘‘मेरी रगों में तो अभी भी आदिवासी रक्त बहता है. मैं ने कई बार यह प्रश्न उठाया था, असफल रही.’’
‘‘अब क्या करेंगी?’’
‘‘सोचती हूं, अदालत में जाना चाहिए.’’
पत्रकार चकित रह गया. वह खड़ा हो गया. आज के लिए काफी मसाला मिल गया था.
कुछ दूर गया था कि देखा कि एक घर के आगे एक गृहिणी को 13 से 15 साल तक के कुछ आदिवासी बच्चे घेर कर उस से लड़ रहे थे. वह रुक गया.
गृहिणी ने चिल्ला कर कहा, ‘‘तुम सब चोर हो. रोज मेरे बगीचे में से फल चुरा कर ले जाते हो. एक केला नहीं बचा. कच्चे अमरूद तोड़तोड़ कर खा लिए या फेंक दिए. मैं तुम्हारी रिपोर्ट करूंगी.’’
एक बड़े लड़के ने उद्दंडता से कहा, ‘‘हां, हां, कर देना रिपोर्ट. क्या कर लेगी पुलिस हमारा? यह हमारी जमीन है. यह कारखाना हमारा है. ये पेड़ और फल तू अपने साथ ले कर नहीं आई थी. इन पर हमारा हक है.
‘‘तू तो विदेशी है. आज है, कल चली जाएगी. पर हम लोग तो हमेशा यहीं रहेंगे. ज्यादा तेवर दिखाए तो घर का सामान भी उठा कर ले जाएंगे.’’
गृहिणी क्रोध और भय से कांप रही थी. पत्रकार ने गहरी सांस ली और आगे चल दिया. उस के जेहन में बारबार एक ही प्रश्न फुंकार रहा था, ‘अभी इन्हें कितनी और उन्नति कर के अपने अधिकार दूसरों से झपट लेने हैं?’