लेखक-विश्वजीत बनर्जी
यह शायद सूर के किसी पद से लिया गया हो, पर अब याद नहीं. बच्चा था सो उस समय ‘म’ अक्षर की इतनी बार पुनरावृत्ति से इस के उच्चारण में बड़ा मजा आता था. यह कुछकुछ अंगरेजी ‘टंगट्वीस्टर’ जैसा ही था.
आधुनिक काल में अनुप्रास के ये सब उदाहरण चलने वाले नहीं हैं. हमारे सांसद एवं विधायक सूर या तुलसी के पदों की नहीं बल्कि लाभ के पद के मादक मधु को चख कर जिस प्रकार मतवाले हो रहे हैं इस बारे में अनुप्रास अलंकार के नए उदाहरण कुछ इस प्रकार हो सकते हैं, ‘लाभ के पद के लोभ से लालायित हो कर लार टपकना या फिर कुछ और क्लिष्ट ‘पद के लोभ से लाभ का पद लाभ कर लाभ के पद के त्याग का लाभ उठाना’ आदि.
व्याकरण के अलंकार ज्यादा उपयोगी होते जा रहे हैं क्योंकि वैचारिक एवं नैतिक नग्नता को ढकने के लिए अलंकार तो चाहिए ही, चाहे वह महज व्याकरण के ही क्यों न हों.
अब तनिक देखा जाए कि युधिष्ठिर ने महाभारत के दौरान लाभ के पद के अहम मसले को किस प्रकार हैंडल किया था. युद्ध में सामान्यतया स्थिर रहने वाले युधिष्ठिर के हृदय की धुकपुकाहट उस समय बढ़ गई थी जब उन्होंने यक्ष के अंतिम प्रश्न को सुना.
यह प्रश्न महाभारत में दर्ज नहीं है और यक्ष ने इसे युधिष्ठिर के कान में फुसफुसा कर पूछा था क्योंकि वे स्वयं भी इस के उत्तर के बारे में कौन्फिडेंट नहीं थे. अब अपने चारों भाइयों को जीवित करने के लिए यह रहा तुम्हारा आखिरी सवाल :
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