लेखक-लाज ठाकुर
चौथी अटैची का नंबर आतेआते लीना का पारा उतर कर थोड़ा नीचे आ गया था, सो उसे खोल कर उस में रखे अपने कपड़ों को निकाल कर उन्हें बेड पर फेंका और अलमारी खोल कर उस में रखे कपड़ों को अटैची में भरना शुरू कर दिया.
‘‘कहीं जा रही हो क्या?’’ होंठों पर शहद घोल कर मैं ने पूछा, ‘‘देखो, कल रात की बात को भूल जाओ. ज्यादा गुस्सा सेहत के लिए ठीक नहीं होता.’’
लीना ने गरदन को कुछ इस अंदाज में झटका जैसे मदारी के कहने पर बंदरिया मायके जाने को मना करती है.
‘‘अच्छा, यह बताओ, इस घर को छोड़ कर तुम कहां जाओगी?’’ मैं ने पूछा.
‘‘मैं नहीं...तुम जा रहे हो,’’ लीना जल कर बोली.
‘‘मैं जा रहा हूं, पर कहां?’’ मेरा मुंह खुला का खुला रह गया.
‘‘यह तुम जानो...मगर घर छोड़ कर अब तुम्हें जाना ही पड़ेगा.’’
‘‘यह क्या कह रही हो? मैं भला अपना घर छोड़ कर क्यों जाऊं?’’
‘‘क्योंकि अब एक छत के नीचे हम दोनों एकसाथ नहीं रह सकते,’’ लीना ने फैसला सुनाया.
बात मामूली सी थी. कल रात खाना खाते हुए मैं ने लीना को सब्जी में थोड़ा सा नमक डालने को कहा था. लीना टेलीविजन पर अपना पसंदीदा धारा- वाहिक देख रही थी. वह उस में इतना खोई हुई थी कि मुझे नमक के लिए कई बार कहना पड़ा. अपने मनोरंजन में विघ्न लीना को गवारा न हुआ. वह एक झटके में टेलीविजन के सामने से उठी, किचन में गई और नमकदानी ला कर उस का सारा नमक मेरी सब्जी व दाल की कटोरियों में उलट कर नमकदानी मेज पर पटक दी.
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