लेखक- डा.अर्जिनबी यूसुफ शेख

साल 2018 की 30 जुलाई को सामाजिक कार्यकर्ता और अकोला में आम आदमी पार्टी के नेता मुकीम अहमद और उन के साथ बुलढाणा, साखरखेड़ा के शफी कादरी की हत्या कर दी गई. हत्या करने वाले ने उन्हें अपने यहां रात खाने पर बुलाया, फिर उन का अपहरण हो जाने की खबर सामने आई. 4-5 दिन बाद उन की लाश बुलढाणा जंगल में बोरी में सड़ती पाई गई.

इसी महीने के आखिर में वाडेगांव के सरपंच आसिफ खान मुस्तफा खान को एक महिला नेता द्वारा अपनी बहन के घर बुला कर अपने बेटे और उस के दोस्तों के साथ मिल कर उस की हत्या कर मोर्णा नदी में म्हैसांग पुल से लाश को फेंके जाने की खबर सामने आई.

कहा जाता है कि सरपंच आसिफ खान और उस महिला नेता के बीच नाजायज संबंधों के चलते इस हत्याकांड को अंजाम दिया गया.

मई, 2019 में किसनराव हुंडी वाले की सार्वजनिक न्यास, सहायक संस्था निबंधक कार्यालय के सामने अग्निशमन यंत्र के उपकरण को इस्तेमाल कर भरी दोपहरी में हत्या कर दी गई. महापौर के पति रिटायर्ड पुलिस अफसर और उस के 3 बेटों को इस सिलसिले में गिरफ्तार किया गया.

ऐसी घटनाएं इनसानियत को शर्मसार कर रही हैं. जिस की हत्या हो जाती है, वह तो इस दुनिया से विदा हो जाता है, पीछे रह जाता है उस का तड़पता हुआ परिवार. पर सवाल यह है कि क्यों बढ़ रही हैं रोजाना ऐसी वारदातें? क्या लोगों का कानून पर से विश्वास घट गया है कि वह इंसाफ नहीं दिला पाएगा या फिर कानून के प्रति यह डर ही नहीं है कि सजा भुगतनी भी होगी? क्यों लोग कानून को अपने हाथ में ले रहे हैं? क्यों किसी की जान लेना आसान खेल बन गया है? वगैरह.

ये भी पढ़ें- भतीजे का बैर: भाग 2

बढ़ती हत्याएं और आएदिन मौब लिंचिंग की वारदातें इशारा कर रही हैं कि इनसानियत शर्मसार हो रही है. यह वहशियाना काम करते समय करने वाले के मन में यह क्यों नहीं आता कि वह कुछ गलत कर रहा है? धर्म के नाम पर हो या किसी चोरीडकैती के मामले में शक, लोगों के साथ बहुत ही गलत बरताव किया जाता है. किसी एक की मति मारी गई हो और वह कुछ गलत काम करने पर उतारू हो जाए तो बात अलग है, पर सारी भीड़ की मति मारी जाना, सब के द्वारा बेदर्दी से किसी एक के साथ पेश आना, उसे सरेआम बेइज्जत करना या सजा देना कितना उचित है?

कुछ दिन पहले 2 वीडियो क्लिप मेरे सामने आईं, जिन्हें देख कर मैं खुद ही शर्मिंदा हो गई. एक वीडियो में किसी दूरदराज इलाके में रहने वाली 20-22 साल की लड़की और लड़के को पूरी तरह नंगा कर भीड़ लड़की से लड़के को कंधे पर बिठा कर चलने के लिए कह रही थी. जिस के दिल में जो आ रहा था, वह उन के साथ वही कर रहा था. कोई लड़के के अंग को छेड़ता, कोई उन्हें थप्पड़, तो कोई लात मारता. गुस्साई भीड़ उन्हें दौड़ा रही थी और वे बेबस हो कर सब सह रहे थे.

इसी तरह दूसरी वीडियो क्लिप में एक 55-60 साल की औरत को पूरी तरह नंगा कर भीड़ दौड़ा रही थी. उस के साथ भी वह मनमाना सुलूक कर रही थी. किसी ने उसे पीछे से जोर की लात मारी, तो वह धड़ाम से नीचे गिर पड़ी, फिर उठ कर बेबस हो कर दौड़ने लगी.

आखिर ऐसे क्या अपराध होंगे इन के? क्यों भीड़ को यह नहीं लगता कि इन्हें नंगा कर के वह पूरी इनसानियत को नंगा कर रही है? क्यों ऐसे घटिया काम करने वालों को पकड़ा नहीं जाता? क्यों कानून बेबसों का सहारा नहीं बन पाता? क्यों आंखें मूंद कर अंधे की तरह सब भीड़ में शामिल हो जाते हैं और किसी बेबस को ऐसी सजा देते हैं, जिस से वह जिंदा होते हुए भी मरे समान हो जाए?

अगर कोई गलत करता है तो एक इनसान होने के नाते हमारा फर्ज बनता है कि उसे गलत करने से रोकें और यदि न रोक पाएं, तो कम से कम उस गलत काम करने वाले का साथ न दें. एक बेकुसूर को भी अपना पक्ष रखने का पूरा मौका दें. कानून पर विश्वास करें. सच हमेशा जीतता है, भले ही वह कुछ समय के लिए परेशान हो. हत्याओं के सिलसिले में भी इसे कभी भुलाया नहीं जा सकता.

ये भी पढ़ें- भतीजे का बैर: भाग 1

याद रखा जाना चाहिए कि किसी की हत्या कर के उस के परिवार वालों की खुशियों को लूट लेने का किसी को कोई हक नहीं है.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...