जब आंसू बन जाए जिंदगी
मदन बतातेबताते रो पङा,"साहेब, बहुत परेशान हैं. एक भी रूपया नहीं है जेब में. ठेकेदार भी हाथ खङे कर चुका है. ऊपर से कोरोना से डर लगता है. मांबाबूजी फोन पर कह रहे हैं घर आ जाओ. मगर कैसे जाएं? तिलतिल कर जीने को मजबूर हैं. दिल्ली बङा ही बेदर्द शहर है. यहां कोई किसी का नहीं होता. अब गांव जा कर ही रहूंगा और वहीं कुछ काम कर के पेट पालूंगा."
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रहनाखाना नहीं अपनों का साथ चाहिए
उधर सरकार ने श्रमिकों के लिए ट्रेनें चलाईं तो चंदन किसी तरह गांव पहुंच गया. वह 6 महीने पहले ही कानपुर काम करने आया था.
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