जो लोग होस्टल में रहे हैं उन्हें पता है कि वे उन की जिंदगी के कभी न भूलने वाले पल हैं. होस्टल की जिंदगी मजेदार भी होती है और परेशानियों से भरी भी. बावजूद इस के, होस्टल में रह कर त्योहारों के समय जो खुशियां मिलती हैं, जो आजादी और मस्ती मिलती है, वह कहीं और नहीं मिलती.

संध्या जब हैदराबाद से दिल्ली के एक एनजीओ में काम करने आई थी तो उस ने कई साल वुमन होस्टल में गुजारे थे. अब तो वह शादी कर के पति के घर में सैटल हो गई है मगर होस्टल के दिन उन्हें नहीं भूलते हैं. घर के ऐशोआराम से निकल कर कम संसाधनों और जुगाड़ों के बीच होस्टल की टफ लाइफ का भी अपना ही मजा था. उस जिंदगी को याद करते वक्त उन्हें सब से ज्यादा दीवाली की याद आती है.

संध्या कहती हैं, ‘‘किसी आसपास के शहर से होती तो त्योहारों में जरूर घर भाग जाती, मगर दिल्ली से ट्रेन में हैदराबाद तक 2 दिन का सफर बड़ा कठिन लगता था और वह भी सिर्फ दोतीन दिन के लिए जाना बिलकुल ऐसा जैसे देहरी छू कर लौट आओ. शुरू के 2 साल तो मैं दीवाली पर घर गई, मगर बाद में होलीदीवाली सब होस्टल में ही मनाने लगी.

‘‘दिल्ली के आसपास रहने वाली ज्यादातर लड़कियां घर चली जाती थीं.  बस, थोड़ी सी बचती थीं. शुरू में तो त्योहार के समय खाली पड़े कमरे को देख कर मु झे भुतहा फीलिंग होती थी, मगर जब शाम को बची हुई लड़कियां होस्टल की छत पर इकट्ठी हो कर पटाखे छुड़ाती थीं तब बड़ा मजा आता था. हम 8-10 लड़कियां नई ड्रैसेस पहन कर सुबह से ही त्योहार की तैयारियों में जुट जाती थीं. हमारी वार्डन काफी सख्तमिजाज महिला थीं, मगर उस दिन उन का मातृत्व हम लड़कियों पर खूब छलकता था. वे सिंगल मदर थीं. पति से तलाक हो चुका था. 14 साल की उन की बेटी थी जो उन के साथ ही रहती थी. त्योहार के दिन होस्टल के रसोइए की छुट्टी रहती थी और किचन हम लड़कियों के हवाले होता था. ऐसे में विशेष मैन्यू तैयार किया जाता. दोपहर और रात के खाने के लिए मनपसंद सब्जियां,  नौनवेज, पूडि़यां, पुलाव हम बनाते थे. इकट्ठे जब इतने सारे बंदे रसोई में पकाने के लिए जमा होते थे तो काम भी फटाफट निबट जाता था. शाम को हम सब होस्टल के गेट पर बड़ी सी रंगोली बनाने में जुट जाते थे. पूरे गेट और दीवार की मुंडेर को दीयों, फूलमालाओं और रंगोली से सजा देते थे.

‘‘अंधेरा होते ही पूरा होस्टल दीयों की जगमगाहट से भर जाता था. दीवाली की रात हम सब छत पर इकट्ठे हो कर आधी रात तक जम कर पटाखे जलाते थे. मगर उस दिन दोस्ती के लिए तो सब को खुली छूट थी. खुद वार्डन भी उन लड़कियों के साथ मस्ती करती. खानेपीने के बाद जब हम सोते तो दूसरे दिन 12 बजे से पहले आंख न खुलती थी.

‘‘फिर वार्डन की आवाज सुनाई देती कि जाओ सब मिल कर छत साफ करो. छत पर जले हुए पटाखों, दीयों, मोमबत्तियों, जूठे बरतनों का ढेर लगा होता था. सारा कूड़ा इकट्ठा कर के बोरियों में भर कर हम कूड़ा गाड़ी पर फेंकने जाते थे. घर की दीवाली में कभी इतना मजा नहीं आया जितना होस्टल की दीवाली में आया करता था. जबकि होस्टल की दीवाली में हमारी मेहनत दोगुनी होती थी लेकिन मजा भी दोगुना था. घर में तो मां ही पूरी रसोई बनाती थीं. वे ही पूजा करती थीं, फिर थोड़े से पटाखे हम भाईबहन महल्ले के बच्चों के साथ जला लेते थे. लो मन गई दीवाली. मगर होस्टल में त्योहार का आनंद ही अलग था. खुलेपन का एहसास जहां होस्टल में हुआ तो बियर का स्वाद भी पहलेपहल वहीं चखा.’’

संध्या बताती हैं, ‘‘मैं बचपन में बहुत दब्बू टाइप थी. मगर होस्टल में आने के बाद काफी बोल्ड हो गई. इस की वजह है होस्टल में हमें अपनी परेशानियों का हल खुद ही निकालना होता है. वहां मांबाप या बड़े भाईबहन नहीं होते जो परेशानी हल कर दें. एक बार की बात है, हमारे होस्टल में सुबह पानी की मोटर जल गई. अब किसी को कालेज के लिए निकलना था, किसी को औफिस के लिए. तब हम सब बाहर सरकारी नल से बाल्टी में पानी भरभर कर लाए और नहाया.

यह तो ऐसा मामला था जो शायद कभीकभार ही हो, लेकिन कुछ बातें तो लगभग हर गर्ल्स होस्टल या पीजी में देखने को मिलती हैं. हर होस्टल में चोरी जरूर होती है. चाहे वह कोई रहने वाली लड़की करे, चाहे कोई नौकर करे या कोई पड़ोसी ही आ कर कुछ चुरा ले जाए. लड़कियों की कटोरीचम्मच से ले कर अंडरगारमैंट्स तक गायब हो जाते थे.

‘‘कभीकभी 2 लड़कियों के बीच इतनी भयानक लड़ाई हो जाती थी कि मामला हाथापाई तक पहुंच जाता था. उस में बीचबचाव करना और सम झाना खुद की लाइफ को बहुत स्ट्रौंग बना देता है. होस्टल एक ऐसी जगह है जहां आजादी, मस्ती, टाइमपास, फैशन,  झगड़े सब होते हैं. लड़कियां अपने घर से दूर, मांबाप की डांट से दूर अपनी उम्र की लड़कियों के साथ जिंदगी का पूरा मजा लेती हैं.’’

वैसे होस्टल लाइफ को ले कर बहुत से लोग कहते हैं, ‘जो कभी होस्टल में नहीं रहा,  उस ने लाइफ में बहुतकुछ मिस किया है.’ राजीव चन्नी अपनी होस्टल लाइफ याद करते हुए कहते हैं, ‘‘पानी जैसी दाल, नहाने के लिए लंबी लाइन और खूसट वार्डन के अलावा भी बहुतकुछ होता है होस्टल में. घर के ऐशोआराम के बाद अगर आप ने होस्टल में संघर्ष कर लिया तो सम झ लो, जीवन सफल हो गया.

‘‘होस्टल में इंसान लाइफ के बहुत सारे स्किल्स सीख लेता है. जैसे, नहाते हुए पानी चले जाने पर शरीर पर लगे साबुन को गीले तौलिए से पोंछना और फ्रैश फील करना, दूसरे की शेविंग क्रीम या शैंपू इस्तेमाल कर लेना और उस को हवा भी न लगने देना, पौटी प्रैशर रोकने में सक्षम हो जाना, मनपसंद सब्जी न होने पर दहीचावल खा कर जीना, पनीर की सब्जी में से पनीर और आलू के परांठों में आलू ढूंढ़ना और जब हद गुजर जाए तो भूखहड़ताल करना वगैरहवगैरह और सब से अहम सीख है ‘एकता’. एकजुट हो कर कोई भी काम करना, स्ट्राइक से ले कर त्योहार मनाने तक.

‘‘दीवाली के दिन तो लड़कों का जोश देखने लायक होता था. कुछ घरेलू किस्म के लड़के जहां अपने कमरों में दीयामोमबत्तियां सजाते थे, पूजा करते और कुछ स्पैशल खाना बनाने में रसोइए की मदद करते थे, वहीं मर्द टाइप के लड़के इस जुगाड़ में रहते थे कि दारू और गर्लफ्रैंड के साथ त्योहार की रात कहां और कैसे मनाई जाए. दीवाली की रात ज्यादातर लड़के होस्टल के बाहर ही बिताते थे. कुछ सिनेमाहौल में तो कुछ होटल वगैरह में पाए जाते थे.

‘‘होस्टल लाइफ थी. खुली छूट थी. कोई रोकटोक नहीं. जब तक चाहो, बाहर रहो. कोई पूछने वाला नहीं था. न मां की  िझक िझक, न बाप की फटकार. कई बार तो हम सुबह के 4 बजे वापस आते और चौकीदार की जेब में 10 रुपए का नोट ठूंस कर आराम से कमरे में जा कर सो जाते. अलग ही आनंद था होस्टल लाइफ में त्योहार मनाने का. वे दिन तो जिंदगीभर नहीं भूलेंगे.’’

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