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सौजन्य- मनोहर कहानियां

लेखक- सुनील वर्मा

पूर्वांचल की जमीन को बाहुबलियों की जमीन के नाम से जाना जाता है. ऐसा लगता है कि इस जमीन पर माफिया सरगनाओं की फसल उगती है. सब से

बड़ी बात यह है कि अपराध से शुरू हुआ इन माफिया सरगनाओं का सफर एक दिन पुलिस की गोली खा कर खत्म होता है. लेकिन ऐसे सरगनाओं की भी एक बड़ी फेहरिस्त है, जो अपने इसी बाहुबल के सहारे सियासत की ऊंचाइयों तक पहुंच गए.

पूर्वांचल की धरती पर कई माफियाओं का जन्म हुआ है. कुछ माफिया तो ऐसे हैं, जिन की कहानी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है. राजनीति के गलियारों में इन की धमक अकसर सुनाई देती रहती है. इन माफियाओं ने प्रदेश में ही नहीं बल्कि दूसरे राज्यों में भी आतंक का खूनी खेल खेला.

अपराध की संगीन वारदातों को अंजाम दे कर पूर्वांचल की धरती दहलाने वाले इन्हीं माफिया में एक नाम है बृजेश सिंह का, जिन्होंने जुर्म की दुनिया को दहलाने के बाद अब सियासत में अपनी जमीन तैयार कर ली है. लेकिन राजनीति का लबादा ओढ़ने के बाद भी बृजेश सिंह के ऊपर जेल में रह कर रंगदारी वसूलने, ठेके पर हत्या कराने और टेंडर सिंडीकेट चलाने के आरोप लगते रहे हैं.

बृजेश सिंह की कहानी किसी फिल्म की स्टोरी से कम नहीं है. वह एक ऐसा माफिया सरगना रहा, जिस का आतंक उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि दूसरे राज्यों में भी देखा  जाता था.

बृजेश सिंह उर्फ अरुण कुमार सिंह का जन्म वाराणसी के धरहरा गांव में एक संपन्न परिवार में हुआ था. उस के पिता रविंद्र सिंह इलाके के रसूखदार लोगों में गिने जाते थे. सियासी तौर पर भी उन का रुतबा कम नहीं था और इलाकाई राजनीति में सक्रिय रहते थे. बृजेश सिंह बचपन से ही पढ़ाईलिखाई में काफी होनहार था.

सन 1984 में इंटरमीडिएट की परीक्षा में उस ने बहुत अच्छे अंक हासिल किए थे. उस के बाद बृजेश ने बनारस के यूपी कालेज से बीएससी की पढ़ाई की. वहां भी उस का नाम होनहार छात्रों की श्रेणी में आता था.

बृजेश सिंह के पिता रविंद्र सिंह को अपने होनहार बेटे से काफी लगाव था और इसीलिए वह चाहते थे कि बृजेश पढ़लिख कर अच्छा इंसान बने. समाज में उस का नाम हो.

लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. 27 अगस्त, 1984 को वाराणसी के धौरहरा गांव में बृजेश के पिता रविंद्र सिंह की इलाके की राजनीति की रंजिश में हत्या कर दी गई. इस काम को उन के सियासी विरोधी हरिहर सिंह और पांचू सिंह ने साथियों के साथ मिल कर अंजाम दिया था.

राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई में पिता की मौत ने बृजेश सिंह के मन में बदले की भावना को जन्म दे दिया. इसी भावना के चलते बृजेश ने जानेअनजाने में अपराध की दुनिया में अपना कदम बढ़ा दिया.

बृजेश सिंह अपने पिता की हत्या का बदला लेने लिए तड़प रहा था. उस ने बदला लेने के लिए एक साल तक इंतजार किया. आखिर वह दिन आ ही गया, जिस का बृजेश को इंतजार था. 27 मई, 1985 को रविंद्र सिंह का हत्यारा बृजेश के सामने आ गया. उसे देखते ही बृजेश का खून खौल उठा और उस ने दिनदहाड़े अपने पिता के हत्यारे हरिहर सिंह को मौत के घाट उतार दिया.

बदले की आग ने बदला जीवन

यह पहला मौका था जब बृजेश के खिलाफ थाने में मामला दर्ज हुआ. लेकिन वारदात के बाद बृजेश सिंह पुलिस के हत्थे नहीं चढ़ा बल्कि फरार हो गया. क्योंकि उस का इंतकाम अभी पूरा नहीं हुआ था.

हरिहर को मौत के घाट उतारने के बाद भी बृजेश सिंह का गुस्सा शांत नहीं हुआ, उसे उन लोगों की भी तलाश थी, जो उस के पिता की हत्या में हरिहर के साथ शामिल थे. जल्द ही उसे अपना बदला लेने का मौका मिल गया.

9 अप्रैल, 1986 को चंदौली जिले का सिकरौरा गांव तब गोलियों की आवाज से गूंज उठा, जब बृजेश सिंह ने अपने साथियों के साथ पिता रविंद्र सिंह की हत्या में शामिल रहे गांव के पूर्वप्रधान रामचंद्र यादव सहित उन के परिवार के 6 लोगों को एक साथ गोलियों से भून डाला.

इस वारदात को अंजाम देने के बाद बृजेश सिंह पहली बार गिरफ्तार हुआ. दिलचस्प बात यह है कि इस मामले में बृजेश पर 32 साल तक मुकदमा चला.

इसे बृजेश का बाहुबल और राजनीतिक रसूख ही मान सकते हैं कि इस घटना में चश्मदीद गवाह होने के बावजूद स्थानीय अदालत ने 32 साल बाद 2018 में गवाहों के बयानों को विरोधाभासी बताते हुए बृजेश को बरी कर दिया.

बहरहाल, पिता के हत्यारों को मौत की नींद सुलाने के बाद जब बृजेश सिंह सलाखों के पीछे पहुंचा तो यहीं से उस की जिंदगी की दिशा और दशा बदल गई.

कहते हैं जेल की सलाखों के पीछे एक ऐसी पाठशाला होती है, जहां इंसान की जिंदगी एक नया मोड़ लेती है. जो कैदी यहां आ कर अपने गुनाह का प्रायश्चित करना चाहता है, वह सुधर जाता है. और जिस कैदी की मंजिल अपराध की डगर पर आगे बढ़ने की होती है, वह जेल की सलाखों के पीछे अपराध के नए गुर सीखने और नए साथी बनाने में जुट जाता है.

अगले भाग में पढ़ें- बृजेश का मुख्तार अंसारी से हुआ सामना

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