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लेखक- अंजुम फारुख

शेख मजीद बोला, ‘‘इंसपेक्टर साहब, आप के आने से 10 मिनट पहले अफजाल बेग ने दरवाजे पर दस्तक दी थी. मैं ने अपनी जगह बैठेबैठे उसे अंदर आने की इजाजत दे दी. मैं समझा था कि वेटर होगा. अफजाल बेग अंदर दाखिल होते ही चाकू लहराता हुआ मेरी ओर बढ़ा. संयोग से आप ने मुझे पहले ही सचेत कर दिया था, इसलिए मैं पिस्तौल हाथ में लिए बैठा था.’’

‘‘बेचारा अफजाल.’’ सबइंसपेक्टर सलीम की आवाज में दुख और अफसोस था.

‘‘आप उसे बेचारा कह रहे हैं..?’’ शेख मजीद ने सबइंसपेक्टर सलीम को घूर कर देखा और कहा, ‘‘क्या मतलब है आप का?’’

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‘‘मेरा मतलब है, हमें यहां आने में देर हो गई वरना हम उसे बचा लेते.’’

सबइंसपेक्टर सलीम ने रहस्यमय अंदाज में कहा, ‘‘लेकिन इस का कातिल कानून की गिरफ्त से बच नहीं सकता.’’

शेख मजीद ने नागवारी से कहा, ‘‘मैं आप को बता चुका हूं कि यह आदमी मुझे कत्ल करने के लिए चाकू लहराता हुआ मेरी ओर लपका था. मैं ने अपनी सुरक्षा के तहत इस पर गोली चला दी. यह कत्ल नहीं, बचाव का कदम था.’’

इंसपेक्टर जावेद कुछ बेचैनी महसूस कर रहा था. वह कोई बात कहना चाहता था कि सबइंसपेक्टर सलीम ने हाथ उठा कर उसे रोक दिया और बोला, ‘‘सर, हमें बताया गया है कि मकतूल अफजाल बेग पिछले 2 महीनों से शेख मजीद का पीछा कर रहा था. मेरा सुझाव है कि यह मामला जरा उलट कर के तो देखें. यह भी संभव है कि शेख मजीद ही अफजाल बेग का पीछा कर रहा हो.’’

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