
रामसिंह धीरेधीरे मुसाफिर बन गया. अब उस की रोटी बड़ी दूरदूर बिखर गई थी, जिसे चुनने उसे दूरदूर जाना पड़ता था. लंबी सवारी मिल जाती तो अकसर हफ्ताहफ्ता वह आता ही नहीं था और जब भी आता अपनी सारी कमाई मेरे हवाले कर लौट जाता. उस की जमीन के कागज भी मेरे ही पास पडे़ थे. धीरेधीरे वह हमारे परिवार का ही सदस्य बन गया. वह जहां भी होता हमें अपना अतापता बताता रहता. जिस दिन उसे आना होता था मेरी पत्नी उस की पसंद का ही कुछ विशेष बना लेती.
हमारी बेटियां भी धीरेधीरे उसे अपना भाई मान चुकी थीं. मेरे पैर का टूटना और रामसिंह का जीजान से मेरी सेवा करना भी उन्हें अभिभूत कर गया था.
एक शाम वापस आया तो वह बेहद थका सा लगा था. उस शाम उस ने अपने पैसे भी मुझे नहीं दिए और कुछ खा भी नहीं पाया. पिछले 3-4 महीने में आदत सी हो गई थी न रामसिंह की बातें सुनने की, उस की बड़ीबड़ी बातों पर जरा रुक कर पुन: सोचने की. आधी रात हो गई थी, खटका सा लगा बाहर बरामदे में. कौन हो सकता है यही देखने को मैं बाहर गया तो बरामदे की सीढि़यों पर रामसिंह चुपचाप बैठा था.
ये भी पढ़ें- पासा पलट गया: आभा को लग गया चस्का
‘‘क्या बात है, बेटा? बाहर सर्दी में क्यों बैठा है? उठ, चल अंदर चल,’’ और हाथ पकड़ कर उसे अपने साथ ले आया.
मेरी पत्नी भी उठ कर बैठ गई. अपना शाल उस पर ओढ़ा कर पास बिठा लिया. रो पड़ा था रामसिंह. पत्नी ने माथा सहला दिया तो सहसा उस की गोद में समा कर वह चीखचीख कर रोने लगा और हम दोनों उस की पीठ सहलाते रहे. पहली बार इस तरह उसे रोते देख रहे थे हम.
‘‘कोई नुकसान हो गया क्या, बेटा? किसी ने तुम्हारे पैसे छीन लिए क्या? क्या हुआ मेरे बच्चे बता तो मुझे,’’ मैं ने माथा सहला कर पूछा तो कुछ कह नहीं पाया राम.
‘‘अच्छा, सुबह बताना, अभी सो जा. यहीं सो जा हमारे पास.’’
पत्नी ने जरा सा आगे सरक कर अपने पास ही जगह बना दी.
रामसिंह वहीं हम दोनों के बीच में चुपचाप छोटे बच्चे की तरह सो गया. सुबह हम दोनों जल्दी उठ जाते हैं न. सैर आदि के बाद पिछवाड़े गया तो देखा राम सब्जियों में पानी लगा रहा था.
‘‘देखिए तो चाचाजी, गोभी फूटने लगी है. गाजर और मूली भी. इस सर्दी में हमें सब्जी बाजार से नहीं लानी पडे़गी.’’
मस्त था रामसिंह. कुरता उतार कर तार पर टांग रखा था और गले में मेरी पत्नी की चेन चमचमा रही थी. एक किसान का बलिष्ठ शरीर, जो तृप्ति मिट्टी के साथ मिट्टी हो कर पाता है, वह गाड़ी के घूमते चक्कों के साथ कहां पा सकता होगा, मैं सहज ही समझने लगा. कुदाल और खुरपी उसे जो सुख दे पाती होगी वह गाड़ी का स्टेयरिंग कैसे दे पाता होगा. अपार सुख था राम के चेहरे पर, जब वह गोभी और गाजर की बात कर रहा था.
पत्नी चाय की टे्र हाथ में लिए हमें ढूंढ़ती हुई पीछे ही चली आई थी.
‘‘चाचीजी, देखिए तो, नन्हीनन्ही गोभियां फूट रही हैं?’’
हाथ धो कर चाय पीने लगा रामसिंह, तब सहसा मैं ने पूछ लिया, ‘‘इन 2 दिनों में जो कमाया वह कहां है, रामसिंह, किसी बुरी संगत में तो नहीं उड़ा दिया?’’
एक बार फिर चुप सा हो गया रामसिंह. एक विलुप्त सी हंसी उस के होंठों पर चली आई.
‘‘बुरी संगत में ही उड़ा दिया चाचाजी…जो गया सो गया. अब भविष्य के लिए मैं ने दुनिया से एक और सबक सीख लिया है. सब रिश्ते महज तमाशा, सच्चा है तो सिर्फ दर्द का रिश्ता…खून का रिश्ता तो सिर्फ खून पीता है, सुख नहीं देता.
‘‘परसों रात एअरपोर्ट पर से एक परिवार मिला जिसे मेरे ही गांव जाना था. मैं खुशीखुशी मान गया. सुबह गांव पहुंचा तो सोचा कि सवारी छोड़ कर एक बार अपना बंद घर और जमीन भी देख आऊंगा.
‘‘सवारी छोड़ी और जब उन का सामान निकालने पीछे गया तो उन के साथ ब्याही दुलहन को देख हैरान रह गया. वह लड़की वही थी जो कभी मेरी मंगेतर थी और आज अपने विदेशी पति के साथ गांव आई थी.
‘‘सामान उतार कर मैं वापस चला आया. उस के परिवार से रुपए लिए ही नहीं…आज वह मेरी कुछ नहीं लेकिन मेरे गांव की बेटी तो है. मन ही नहीं हुआ उस से पैसे लेने का.
ये भी पढ़ें- परंपरा : दीनदयाल ने कैसे पापड़ बेले
‘‘अफसोस इस बात का भी हुआ कि उस ने मुझे पहचाना तक नहीं. यों देखा जैसे जानती ही नहीं, क्या विदेश जा कर इनसान इतना बदल जाता है? कभीकभी सोचता हूं, मेरा प्यार, मेरी संवेदनाएं इतनी सस्ती थीं जिन का सदा निरादर ही हुआ. बाप भूल गया, पीछे एक परिवार भी छोड़ा है और यह लड़की भी भूल गई जिस के लिए कभी मैं उस का सबकुछ था.
‘‘गांव का ही समझ कर इतना तो पूछती कि मैं कैसा हूं, उस के बिना कैसे जिंदा हूं…कोई ऐसा भाव ही उस के चेहरे पर आ जाता जिस से मुझे लगता उसे आज भी मुझ से जरा सी ही सही हमदर्दी तो है.’’
रामसिंह की बात पर हम अवाक् रह गए थे, उस के जीवन के एक और कटु अनुभव पर. जमीनें छूटीं तो क्याक्या छूट गया हाथ से. मंगेतर भी और उस का प्यार भी. कौन एक खाली हाथ इनसान के साथ अपनी लड़की बांधता.
‘‘वह बहुत सुंदर थी, चाचाजी, पर मेरा नसीब उतना अच्छा कहां था जो वह मुझे मिल जाती. मैं ने जीवन से समझौता कर लिया है. किसकिस से माथा टकराता फिरूं. सब को माफ करते चले जाओ इसी में सुख है.’’
मेरी पत्नी रो पड़ी थी रामसिंह की अवस्था पर. कैसी मनोदशा से गुजर रहा है यह बच्चा…उस के समीप जा कर जरा सा माथा सहला दिया.
‘‘मैं निराश नहीं हूं, चाचीजी, सबकुछ छीन लिया मुझ से मेरे पिता ने तो क्या हुआ, आप का पता तो दे दिया. आप दोनों मिल गए मुझे…आज मैं कहीं भी जाऊं मुझे एक उम्मीद तो रहती है कि एक घर है जहां मेरी मां मेरा इंतजार करती है, उसे मेरी भूखप्यास की चिंता रहती है. एक ऐसा परिवार जो मेरे साथ हंसता है, मेरे साथ रोता है. मुझे सर्दी लगे तो अपने प्यार से सारी पीड़ा हर लेता है. मुझे गरमी लगे तो अपना स्नेह बरसा कर ठंडक देता है. एक इनसान को जीने के लिए और क्या चाहिए? कल तक मैं लावारिस था, आज तो लावारिस नहीं हूं…मेरी 2 बहनें हैं, उन का परिवार है. मेरे मांबाप हैं. कल मैं जमीन से उखड़ा था. आज तो जमीन से उखड़ा नहीं हूं. मुझे आप लोगों के रूप में वह सब मिला है जो किसी इनसान को सुखी होने के लिए चाहिए. मैं आप को एक अच्छा बेटा बन कर दिखाऊंगा. चाचाजी, क्या आप मुझे अपना मान सकते हैं?’’
रो पड़ा था मैं. अपना और किसे कहते हैं, अब मैं कैसे उसे समझाऊं. जो पिछले 4 महीने से अंगसंग है वही तो है हमारा अपना. मेरी पत्नी ने रामसिंह को गले लगा कर उस का माथा चूम लिया.
ये भी पढ़ें- खुली छत: रमेश और नीना की दुनिया
इस छोटी सी उम्र में क्याक्या देख चुका रामसिंह, यह कब तक हमारा बन हमारे पास रहेगा मैं नहीं जानता. मेरी पत्नी की गोद में समाया राम कब तक हमें हमारी खोई संतान भूली रहने देगा, मैं यह भी नहीं जानता. कल क्या होगा मैं नहीं जानता मगर आज का सच यही है कि राम हमारा है, हमारा अपना.
उसी सुबह बिस्तर से उठते ही मेरा पैर जरा सा मुड़ा और कड़क की आवाज आई. सूज गया पैर. मेरी चीख पर राम भागा चला आया. आननफानन में राम ने मुझे गाड़ी में डाला और लगभग 2 घंटे बाद जब हम डाक्टर के पास से वापस लौटे, मेरे पैर पर 15 दिन के लिए प्लास्टर चढ़ चुका था. पत्नी रोने लगी थी मेरी हालत पर.
‘‘रोना नहीं, चाचीजी, कुदरती रजा के आगे हाथ जोड़ो. कुदरत जो भी दे दे हाथ जोड़ कर ले लो. उस ने दुख दिया है तो सुख भी देगा.’’
रोना भूल गई थी पत्नी. मैं भी अवाक् सा था उस के शब्दों पर. अपनी पीड़ा कम लगने लगी थी सहसा. यह लड़का न होता तो कौन मुझे सहारा दे कर ले जाता और ले आता. दोनों बेटियां तो बहुत दूर हैं, पास भी होतीं तो अपना घर छोड़ कैसे आतीं.
ये भी पढ़ें- खुली छत: रमेश और नीना की दुनिया
‘‘मैं हूं न आप के पास, चिंता की कोई बात नहीं.’’
चुप थी पत्नी, मैं उस का चेहरा पढ़ सकता हूं. अकसर पीड़ा सी झलक उठती है उस के चेहरे पर. 10 साल का बेटा एक दुर्घटना में खो दिया था हम ने. आज वह होता तो रामसिंह जैसा होता. एक सुरक्षा की अनुभूति सी हुई थी उस पल रामसिंह के सामीप्य में.
रामसिंह हमारे पास आश्रित हो कर आया था पर हालात ने जो पलटा खाया कि उस के आते ही हम पतिपत्नी उस पर आश्रित हो गए? पैर की समस्या तो आई ही उस से पहले एक और समस्या भी थी जिस ने मुझे परेशान कर रखा था. मेरी वरिष्ठता को ले कर एक उलझन खड़ी कर दी थी मेरे एक सहकर्मी ने. कागजी काररवाई में कुछ अंतर डाल दिया था जिस वजह से मुझे 4 महीने पहले रिटायर होना पडे़गा. कानूनी काररवाई कर के मुझे इनसाफ लेना था, वकील से मिलने जाना था लेकिन टूटा पैर मेरे आत्मविश्वास पर गहरा प्रहार था. राम से बात की तो वह कहने लगा, ‘‘चाचाजी, 4 महीने की ही तो बात है न. कुछ हजार रुपए के लिए इस उम्र में क्या लड़ना. मैं भागने के लिए नहीं कह रहा लेकिन आप सोचिए, जितना आप को मिलेगा उतना तो वकील ही खा जाएगा…अदालतों के चक्कर में आज तक किस का भला हुआ है. करोड़ों की शांति के लिए आप अपने सहकर्मी को क्षमा कर दें. हजारों का क्या है? अगर माथे पर लिखे हैं तो कुदरत देगी जरूर.’’
विचित्र आभा है रामसिंह की. जब भी बात करता है आरपार चली जाती है. बड़ी से बड़ी समस्या हो, यह बच्चा माथे पर बल पड़ने ही नहीं देता. पता नहीं चला कब सारी चिंता उड़नछू हो गई.
अन्याय के खिलाफ न लड़ना भी मुझे कायरता लगता है लेकिन सिर्फ कायर नहीं हूं यही प्रमाणित करने के लिए अपना बुढ़ापा अदालतों की सीढि़यां ही घिसने में समाप्त कर दूं वह भी कहां की समझदारी है. सच ही तो कह रहा है रामसिंह कि करोड़ों का सुखचैन और कुछ हजार रुपए. समझ लूंगा अपने ही कार्यालय को, अपने ही कालिज को दान कर दिए.
पत्नी पास बैठी मंत्रमुग्ध सी उस की बातें सुन रही थी. स्नेह से माथा सहला कर पूछने लगी, ‘‘इतनी समझदारी की बातें कहां से सीखीं मेरे बच्चे?’’
हंस पड़ा था रामसिंह, ‘‘कौन? मैं समझदार? नहीं तो चाचीजी, मैं समझदार कहां हूं. मैं समझदार होता तो अपने पिता से झगड़ा करता, उन से अपना अधिकार मांगता, विलायत चला जाता, डालर, पौंड कमाता, मैं समझदार होता तो आज लावारिस नहीं होता. मैं ने भी अपने पिता को माफ कर दिया है.’’
‘‘कुदरत का सहारा है न तुम्हें, लावारिस कैसे हुए तुम?’’
पत्नी ने ममत्व से पुचकारा. रामसिंह की गहरी आंखें तब और भी गहरी लगने लगी थीं मुझे.
‘‘मन से तो लावारिस नहीं हूं मैं, चाचीजी. 2 हाथ हैं न मेरे पास, एक दिन फिर से वही किसान बन कर जरूर दिखाऊंगा जो सब को रोटी देता है.’’
‘‘वह दिन अवश्य आएगा रामसिंह,’’ पत्नी ने आश्वासन दिया था.
15 दिन कैसे बीत गए पता ही न चला. रामसिंह ही मुझे कालिज से लाता रहा और कालिज ले जाता रहा. उस ने चलनेफिरने को मुझे बैसाखी ला कर नहीं दी थी. कहता, ‘मैं हूं न चाचाजी, आप को बैसाखी की क्या जरूरत?’
24 घंटे मेरे संगसंग रहता रामसिंह. मेरी एक आवाज पर दौड़ा चला आता. घर के पीछे की कच्ची जमीन की गुड़ाई कर रामसिंह ने सुंदर क्यारियां बना कर उस में सब्जी के बीज रोप दिए थे. बाजार का सारा काम वही संभालता रहा. पत्नी के पैर अकसर शाम को सूज जाते थे तो हर शाम पैरों की मालिश कर रामसिंह थकान का निदान करता था. प्लास्टर कटने पर भी रामसिंह ही गाड़ी चलाता रहा. मैं तो उस का कर्जदार हो गया था.
ये भी पढ़ें- परंपरा : दीनदयाल ने कैसे पापड़ बेले
एक महीने के लिए कोई ड्राइवर रखता और घर का कामकाज भी वही करता तो 5 हजार से कम कहां लेता वह मुझ से. महीने भर बाद मैं ने रामसिंह के सामने उस की पगार के रूप में 5 हजार रुपए रखे तो विस्मित भाव थे उस की आंखों में.
‘‘यह क्या है, चाचाजी?’’
‘‘समझ लो तुम्हारा काम शुरू हो चुका है. तुम गाड़ी बहुत अच्छी चला लेते हो. आज से तुम ही मेरी गाड़ी चलाओगे.’’
‘‘वह तो चला ही रहा हूं. आप के पास खा रहा हूं, रह रहा हूं, क्या इस का कोई मोल नहीं है? आप का अपना बच्चा होता मैं तो क्या तब भी आप मुझे पैसे देते?’’
जड़ सी रह गई थी मेरी पत्नी. पता ही नहीं चला था कब उस ने भी रामसिंह से ममत्व का गहरा धागा बांध लिया था. हमारी नाजुक और दुखती रग पर अनजाने ही राम ने भी हाथ रख दिया था न.
‘‘हमारा ही बच्चा है तू…’’
अस्फुट शब्द फूटे थे मेरी पत्नी के होंठों से. अपने गले से सोने की चेन उतार कर उस ने रामसिंह के गले में डाल दी. आकंठ आवेग में जकड़ी वह कुछ भी बोल नहीं पा रही थी. उसे पुन: खोया अपना बेटा याद आ गया था. पत्नी द्वारा पहनाई गई चेन पर भी रामसिंह असमंजस में था.
आंखों में प्रश्नसूचक भाव लिए वह बारीबारी से हमें देख रहा था. डर लगने लगा था मुझे अपनी अवस्था से, हम दोनों पराया खून कहीं अपना ही तो नहीं समझने लगे. मैं तो संभल जाऊंगा लेकिन मेरी पत्नी का क्या होगा, जिस दिन रामसिंह चला जाएगा.
उस पल वक्त था कि थम गया था. रामसिंह भी चुप ही रहा, कुछ भी न पूछा न कहा. रुपए वहीं छोड़ वह भी बाहर चला गया. कुछ एक प्रश्न जहां थे वहीं रहे.
अगले 2 दिन वह काफी दौड़धूप में रहा. तीसरे दिन उस ने एक प्रश्न किया.
‘‘चाचाजी, क्या आप बैंक में मेरी गारंटी देंगे? मैं गाड़ी अच्छी चला लेता हूं, आप ने ऐसा कहा तो मुझे दिशा मिल गई. मैं टैक्सी तो चला ही सकता हूं न, आप गारंटी दें तो मुझे कर्ज मिल सकता है. मैं टैक्सी खरीदना चाहता हूं.’’
5 लाख की गाड़ी के लिए मेरी गारंटी? कल को रामसिंह गाड़ी ले कर फरार हो गया तो मेरी सारी उम्र की कमाई ही डूब जाएगी. बुढ़ापा कैसे कटेगा. असमंजस में था मैं. कुछ पल रामसिंह मेरा चेहरा पढ़ता रहा फिर भीतर अपने कमरे में चला गया और जब वापस लौटा तो उस के हाथ में कुछ कागज थे.
‘‘यह गांव की जमीन के कागज हैं, चाचाजी. जमीन पंजाब में है इसलिए बैंक ने इन्हें रखने से इनकार कर दिया है. बैंक वाले कहते हैं कि किसी स्थानीय व्यक्ति की गारंटी हो तो ही कर्ज मिल सकता है. आप मेरी जमीन के कागज अपने पास रख लीजिए और अगर भरोसा हो मुझ पर तो…’’
मैं ने गारंटी दे दी और रामसिंह एक चमचमाती गाड़ी का मालिक बन गया. पहली कमाई आई तो रामसिंह ने उसे मेरे हाथ पर रख दिया.
ये भी पढ़ें- पासा पलट गया: आभा को लग गया चस्का
‘‘अपने पैसे अपने पास रख, बेटा.’’
‘‘अपने पास ही तो हैं. आप के सिवा मेरा है ही कौन जिसे अपना कहूं.’’
‘माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोहे,
इक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोहे.’
मेरी पत्नी रसोई में व्यस्त गुनगुना रही थी और बीचबीच में आवाज भी लगा रही थी, ‘‘रामजी, बेटा आ जाओ और अपने चाचाजी से भी कहो कि जल्दी आ जाएं वरना वह कहेंगे कि रोटी अकड़ गई.’’
‘‘चाचीजी, आप को नहीं लगता कि आप अभीअभी जो गा रही थीं वह कुछ ठीक नहीं था?’’
‘‘अरे, कबीर का दोहा है. गलत कैसे हुआ?’’
‘‘गलत है, मैं ने नहीं कहा, जरा एकपक्षीय है, ऐसा लगता है न कि मिट्टी अहंकार में है, कुम्हार उसे रौंद रहा है और वह उसे समझा रही है कि एक दिन वह भी इसी तरह मिट्टी बन जाएगा.’’
ये भी पढ़ें- मदरसे की एक रात: उस रात आखिर क्या हुआ
‘‘सच ही तो है, हमें एक दिन मिट्टी ही तो बन जाना है.’’
‘‘मिट्टी बन जाना सच है, चाचीजी, मगर यह सच नहीं कि कुम्हार से मिट्टी ने कभी ऐसा कहा होगा. कुम्हार और मिट्टी का रिश्ता तो बहुत प्यारा है, मां और बच्चे जैसा, ममता से भरा. कोई भी रिश्ता अहंकार की बुनियाद पर ज्यादा दिन नहीं टिकता और यह रिश्ता तो बरसों से निभ रहा है, सदियों से कुम्हार और मिट्टी साथसाथ हैं. यह दोहा जरा सा बदनाम नहीं करता इस रिश्ते को?’’
चुप रह गई थी मेरी पत्नी रामसिंह के सवाल पर. मात्र 26-27 साल का है यह लड़का, पता नहीं क्यों अपनी उम्र से कहीं बड़ा लगता है.
60 साल के आसपास पहुंचा मैं कभीकभी स्वयं को उस के सामने बौना महसूस करता हूं. राम के बारे में जो भी सोचता हूं वह सदा कम ही निकल पाता है. हर रोज कुछ नया ही सामने चला आता है, जो उस के चरित्र की ऊंचाई मेरे सामने और भी बढ़ा देता है.
‘‘तुम्हारा क्या कहना है इस बारे में?’’ मैं ने सवाल किया.
‘‘अहंकार के दम पर कोई भी रिश्ता देर तक नहीं निभ सकता. लगन, प्रेम और त्याग ही हर रिश्ते की जरूरत है.’’
मुसकरा पड़ी थी मेरी पत्नी. प्यार से राम के चेहरे पर चपत लगा कर बोली, ‘‘इतनी बड़ीबड़ी बातें कैसे कर लेता है रे तू?’’
‘‘हमारे घर के पास ही कुम्हार का घर था जहां मैं उसे रोज बरतन बनाते देखता था. मिट्टी के लोंदे का पल भर में एक सुंदर आकार में ढल जाना इतना अच्छा लगता था कि जी करता था सारी उम्र उसी को देखता रहूं… लेकिन मैं क्या करता? कुम्हार न हो कर जाट था न, मेरा काम तो खेतों में जाना था, लेकिन वह समय भी कहां रहा…आज न तो मैं किसान हूं और न ही कुम्हार. बस, 2 हाथ हैं जिन में केवल आड़ीतिरछी लकीरें भर हैं.’’
‘‘हाथों में कर्म करने की ताकत है बच्चे, चरित्र में सच है, ईमानदारी है. तुम्हारे दादादादी इतनी दुआएं देते थे तुम्हें, उन की दुआएं हैं तुम्हारे साथ…’’ मैं बोला.
‘‘वह तो मुझे पता है, चाचाजी, लेकिन रिश्तों पर से अब मेरा विश्वास उठ गया है. लोग रिश्ते इस तरह से बदलने लगे हैं जैसे इनसान कपड़े बदल लेता है.’’
खातेखाते रुक गया था राम. उस का कंधा थपथपा कर पुचकार दिया मैं ने. राम की पीड़ा सतही नहीं जिसे थपकने भर से उड़ा दिया जाए.
बचपन के दोस्त अवतार का बेटा है राम. अवतार अपने भाई को साथ ले कर विलायत चला गया था. तब राम का जन्म नहीं हुआ था इसलिए पत्नी को यहीं छोड़ कर गया. राम को जन्म देने के बाद अवतार की पत्नी चल बसी थी. इसलिए दादादादी के पास ही पला रामसिंह और उन्हीं के संस्कारों में रचबस भी गया.
अवतार कभी लौट कर नहीं आया, उस ने विलायत में ही दोनों भाइयों के साथ मिल कर अच्छाखासा होटल व्यवसाय जमा लिया.
रामसिंह तो खेतों के साथ ही पला बढ़ा और जवान हुआ. मुझे क्या पता था कि दादादादी के जाते ही अवतार सारी जमीन बेच देगा. राम को विलायत ले जाएगा, यही सोच मैं ने कोई राय भी नहीं मांगी. हैरान रह गया था मैं जब एक पत्र के साथ रामसिंह मेरे सामने खड़ा था.
पंजाब के एक गांव का लंबाचौड़ा प्यारा सा लड़का. मात्र 12 जमात पास वह लड़का आगे पढ़ नहीं पाया था, क्योंकि बुजुर्ग दादादादी को छोड़ कर वह शहर नहीं जा सका था.
गलत क्या कहा राम ने कि जब तक मांबाप थे 2 भाइयों ने उस का इस्तेमाल किया और मरते ही उसे दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया. जमीन का जरा सा टुकड़ा उस के लिए छोड़ दिया. जिस से वह जीविका भी नहीं कमा सकता. यही सब आज पंजाब के हर गांव की त्रासदी होती जा रही है.
‘‘तुम भी विलायत क्यों नहीं चले गए रामसिंह वहां अच्छाखासा काम है तुम्हारे पिता का?’’ मैं ने पूछा.
ये भी पढ़ें- एक मौका और दीजिए : बहकने लगे सुलेखा के कदम
‘‘मेरे चाचा ने यही सोच कर तो सारी जमीनें बेच दीं कि मैं उन के साथ चलने को तैयार हो जाऊंगा. मुझ से मेरी इच्छा पूछी ही नहीं…आप बताइए चाचाजी, क्या मैं पूरा जीवन औरों की उंगलियों पर ही नाचता रहूंगा? मेरा अपना जीवन कब शुरू होगा? दादादादी जिंदा थे तब मैं ही जमीनों का मालिक था, कम से कम वह जमीनें ही वह मुझे दे देते. उन्हें भी चाचा के साथ बांट लिया…मैं क्या था घर का? क्या नौकर था? कानून पर जाऊं तो बापू की आधी जमीन का वारिस मैं था. लेकिन कानून की शरण में क्यों जाऊं मैं? वह मेरे क्या लगते हैं, यदि जन्म देने वाला पिता ही मेरा नहीं तो विलायत में कौन होगा मेरा, वह सौतेली मां, जिस ने आज तक मुझे देखा ही नहीं या वे सौतेले भाई जिन्होंने आज तक मुझे देखा ही नहीं, वे मुझे क्यों अपनाना चाहेंगे? पराया देश और पराई हवा, मैं उन का कौन हूं, चाचाजी? मेरे पिता ने मुझे यह कैसा जीवन दे दिया?’’
रोना आ गया था मुझे राम की दशा पर. लोग औलाद को रोते हैं, नाकारा और स्वार्थी औलाद मांबाप को खून के आंसू रुलाती है और यहां स्वार्थी पिता पर औलाद रो रही थी.
‘‘वहां चला भी जाता तो उन का नौकर ही बन कर जीता न…मेरे पिता ने न अपनी पत्नी की परवा की न अपने मांबाप की. एक अच्छा पिता भी वह नहीं बने, मैं उन के पास क्यों जाता, चाचाजी?’’
गांव में हमारा पुश्तैनी घर है, जहां हमारा एक दूर का रिश्तेदार रहता है. कभीकभी हम वहां जाते थे और पुराने दोस्तों की खोजखबर मिलती रहती थी. अवतार के मातापिता से भी मिलना होता था. रामसिंह बच्चा था, जब उसे देखा था. मुझे भी अवतार से यह उम्मीद नहीं थी कि अपने मांबाप के बाद वह अपनी औलाद को यों सड़क पर छोड़ देगा. गलती अवतार के मातापिता से भी हुई, कम से कम वही अपने जीतेजी रामसिंह के नाम कुछ लिख देते.
‘‘किसी का कोई दोष नहीं, चाचाजी, मुझे वही मिला जो मेरी तकदीर में लिखा था.’’
‘‘तकदीर के लिखे को इनसान अपनी हिम्मत से बदल भी तो सकता है.’’
‘‘मैं कोशिश करूंगा, चाचाजी, लेकिन यह भी सच है, न आज मेरे पास ऊंची डिगरी है, न ही जमीन. खेतीबाड़ी भी नहीं कर सकता और कहीं नौकरी भी नहीं. मुझे कैसा काम मिलेगा यही समझ नहीं पा रहा हूं.’’
ये भी पढ़ें- खुली छत: रमेश और नीना की दुनिया
काम की तलाश में मेरे पास दिल्ली में आया रामसिंह 2 ही दिन में परेशान हो गया था, मैं भी समझ नहीं पा रहा था उसे कैसा काम दिलाऊं, कोई छोटा काम दिलाने को मन नहीं था.
परंतु उसी क्षण हृदय के किसी कोने में पुरुष के प्रति फूटा घृणा का अंकुर उसे फिर किसी पुरुष की ओर आकृष्ट होने से रोक देता. तब सचमुच उसे प्रत्येक युवक की सूरत में बस, वही सूरत नजर आती, जिस से उसे घृणा थी, जिसे वह भूल जाना चाहती थी. उस ने धीरेधीरे अपनी इच्छाओं, कामनाओं को केवल उसी सीमा तक बांधे रखा था, जहां तक उस की अपनी धरती थी, जहां तक उस का अपना आकाश था.
शारीरिक भूख से अधिक महत्त्व- पूर्ण उस के अपने बच्चे प्रकाश का भविष्य था, जिसे संवारने के लिए वह अभी तक कई बार मरमर कर जी थी. अपने को उस सीमा तक व्यस्त कर चुकी थी, जहां उस को कुछ सोचने का अवकाश ही नहीं मिलता था.
ज्योति की कल्पना में अभी स्मृतियों का क्रम टूट नहीं पाया था. वह शाम आंखों में तिर गई थी, जब उस ने मां को सबकुछ साफसाफ कह दिया था. अपने प्रेम को भूल का नाम दे कर रोई थी, क्षमा की भीख मांग कर मां से याचना की थी कि वह गर्भ नष्ट करने के लिए उसे जाने दे.
ये भी पढ़ें- 15 अगस्त स्पेशल : जाएं तो जाएं कहां
मां ने उसे गर्भ नष्ट कराने का मौका न दे कर सबकुछ पिता को बता दिया था. फिर पहली बार पिता का वास्तविक रूप उस के सामने आया था. उन्होंने ज्योति को नफरत से देखते हुए दहाड़ कर कहा था, ‘‘खबरदार, जो तू ने मुझे आज के बाद पिता कहा. निकल जा, अभी…इसी वक्त इस घर से. तेरा काला मुंह मैं नहीं देखना चाहता. जाती है या नहीं?’’
अब उन्हीं पिता का पत्र उसे मिला था. क्षण भर के लिए मन तमाम कड़वाहटों से भर आया था. परंतु धीरेधीरे पिता के प्रति उदासीनता का भाव घटने लगा था. वह निर्णय ले चुकी थी कि अगर पिता ने उसे क्षमा नहीं किया तो कोई बात नहीं, वह अपने पिता को अवश्य क्षमा कर देगी.
उस दिन तो पिता की दहाड़ सुन कर कुछ क्षण ज्योति जड़वत खड़ी रही थी. फिर चल पड़ी थी बाहर की ओर. उसे विश्वास हो गया था कि उस का प्रेमी हो या पिता, पुरुष दोनों ही हैं और अपने- अपने स्तर पर दोनों ही समाज के उत्थान में बाधक हैं.
उस दिन ज्योति घर छोड़ कर चल पड़ी थी. किसी ने उस की राह नहीं रोकी थी. किसी की बांहें उस की ओर नहीं बढ़ी थीं. किसी आंचल ने उस के आंसू नहीं पोंछे थे. आंसू पोंछने वाला आंचल तो केवल मां का ही होता है. परंतु साथ ही उसे इस बात का पूरा एहसास था कि पिता के अंकुश तले दबी होंठों के भीतर अपनी सिसकियों को दबाए हुए उस की मां दरवाजे पर खड़ी जरूर थीं, पर उसे पांव आगे बढ़ाने की अनुमति नहीं थी. वह चली जा रही थी और समझ रही थी मां की विवशता को. आखिर वह भी तो नारी थीं उसी समाज की.
बच्चे को जन्म देने के बाद ज्योति ने उसे प्रकाश नाम दे कर अपने भीतर अभूतपूर्व शक्ति का अनुभव किया था. उसे वह गुलाब के फूल की तरह अनेक कांटों के बीच पालती रही थी.
अब ज्योति की आंखों में केवल एक ही स्वप्न शेष था. किस प्रकार वह समाज में अपना वही स्थान प्राप्त कर ले, जिस पर वह घर से निकाले जाने से पहले प्रतिष्ठित थी.
शायद इन्हीं भावनाओं ने ज्योति को प्रेरित किया था मां के नाम पत्र लिखने के लिए. डब्बे में रोशनी कम थी. फिर भी उस ने अपने पर्स को टटोल कर उस में से कुछ निकाला. आसपास के सारे यात्री सो रहे थे या ऊंघ रहे थे. ज्योति एक बार फिर उस पत्र को पढ़ रही थी जिसे उस ने केवल मां को भेजा था, केवल यह जानने के लिए कि कहीं भावावेश में किसी शब्द के माध्यम से उस का आत्मविश्वास डिग तो नहीं गया था.
‘‘मां, अपनी बेटी का प्रणाम स्वीकार करते हुए तुम्हें यह विश्वास तो हो गया है न कि ज्योति जीवित है.
‘‘मैं जीवन के युद्ध में एक सैनिक की भांति लड़ी हूं और अब तक हमेशा विजयी रही हूं प्रत्येक मोर्चे पर. परंतु मेरी विजय अधूरी रहेगी जब तक अंतिम मोर्चे को भी न जीत लूं. वह मोर्चा है, तुम्हारे समाज के बीच आ कर अपनी प्रतिष्ठा पुन: प्राप्त कर लेने का. मैं ने उस घर को अपना घर कहने का अधिकार तुम से छीन लेने के बाद भी छोड़ा नहीं. मैं उसी घर में आना चाहती हूं. परंतु मैं तभी आऊंगी जब तुम मुझे बुलाओगी. सचसच कहना, मां, क्या तुम में इतना साहस है कि तुम और पिताजी दोनों अपने समाज के सामने यह बात निसंकोच स्वीकार कर सको कि मैं तुम्हारी बेटी हूं और प्रकाश मेरा पुत्र है.
‘‘मेरी परीक्षा की अवधि बीत चुकी है. अब तुम दोनों की परीक्षा का अवसर है. मैं नहीं चाहती कि आप में से कोई मेरे पास ममतावश आए. मैं चाहूंगी कि आप सब कभी मुझे इस दया का पात्र न बनाएं. मैं छुट्टियों के कुछ दिन आप के पास बिता कर पुन: यहां वापस आ जाऊंगी. मेरे पुत्र या मुझे ले कर आप की प्रतिष्ठा पर जरा भी आंच आए, यह मेरी इच्छा नहीं है. मैं ऐसे में अंतिम श्वास तक आप के लिए उसी तरह मरी बनी रहने में अपनी खुशी समझूंगी जिस तरह अब तक थी. यदि मैं ने आप लोगों को अपनी याद दिला कर कोई गलती की है तो भी क्षमा चाहूंगी. शायद यही सोच कर मैं ने इस पत्र में केवल अपनी याद दिलाई है, अपना पता नहीं दिया.
-ज्योति.’’
ज्योति को यह सोच कर शांति मिली थी कि उस ने ऐसा कुछ नहीं लिखा था जिस से उन के मन में कोई दुर्बलता झांके. उस ने पत्र को पर्स में रखने के साथ दूसरा पत्र निकाला, जो उस के पिता का था. वह पत्र देखते ही उस की आंखें डबडबा आईं और उन आंसुओं में उतने बड़े कागज पर पिता के हाथ के लिखे केवल दो वाक्य तैरते रहे, ‘‘चली आ, बेटी. हम सब पलकें बिछाए हुए हैं तेरे लिए.’’
सुबह का उजाला उसे आह्लादित करने लगा था. अपनी जन्मभूमि का आकर्षण उसे बरबस अपनी ओर खींच रहा था. कल्पना की आंखों से वह सभी परिवारजनों की सूरत देखने लगी थी.
गाड़ी ज्योंज्यों धीमी होती गई, ज्योति की हृदयगति त्योंत्यों तीव्र होती गई. प्रकाश की उंगली थामे हुए वह डब्बे के दरवाजे पर खड़ी हो गई. कल्पना साकार होने लगी. गाड़ी रुकते ही कई गीली आंखें उन दोनों पर टिक गईं. कई बांहों ने एकसाथ उन का स्वागत किया. कई आंचल आंसुओं से भीगे और कई होंठ मुसकराते हुए कह बैठे, ‘‘कैसी हो गई है ज्योति, योगिनी जैसी.’’
ज्योति ने डबडबाई आंखों से भाई की ओर निहारा जो एक ओर चुपचाप खड़ा सहज आंखों से बहन को निहार रहा था. ज्योति ने अपने पर्स से पिछले 11 वर्षों की राखी के धागे निकाले और उस की कलाई पर बांधते हुए पूछा, ‘‘भाभी नहीं आईं, भैया?’’
‘‘नहीं, बेटी. तेरे बिना तेरे भैया ने शादी नहीं की. अब तू आ गई है तो इस की शादी भी होगी,’’ मां बोल उठी थीं.
घर की ओर जातेजाते ज्योति के मन में अपूर्व शांति थी. अपने भाई के प्रति मन स्नेह से भर गया था. उस का संघर्ष सार्थक हुआ था. उस के वियोग का मूल्य भाई ने भी चुकाया था. उस ने ऊपर की ओर ताका. मन के भीतर ही नहीं, ऊपर के आकाश को भी विस्तार मिल रहा था.
उस गली में बहुत से मकान थे. उन तमाम मकानों में उस एक मकान का अस्तित्व सब से अलग था, जिस में वह रहती थी. उस के छोटे से घर का अपना इतिहास था. अपने जीवन के कितने उतारचढ़ाव उस ने उसी घर में देखे थे. सुख की तरह दुख की घडि़यों को भी हंस कर गले लगाने की प्रेरणा भी उसे उसी घर ने दी थी.
कम बोलना और तटस्थ रहते हुए जीवन जीना उस का स्वभाव था. फिर भी दिन हो या रात, दूसरों की मुसीबत में काम आने के लिए वह अवश्य पहुंच जाती थी. लोगों को आश्चर्य था कि अपने को विधवा बताने वाली उस शांति मूर्ति ने स्वयं के लिए कभी किसी से कोई सहायता नहीं चाही थी.
अपने एकमात्र पुत्र के साथ उस घर की छोटी सी दुनिया में खोए रह कर वह अपने संबंधों द्वारा अपने नाम को भी सार्थक करती रहती थी. उस का नाम ज्योति था और उस के बेटे का नाम प्रकाश था. ज्योति जो बुझने वाली ही थी कि उस में अंतर्निहित प्रकाश ने उसे नई जगमगाहट के साथ जलते रहने की प्रेरणा दे कर बुझने से बचा लिया था.
ये भी पढ़ें- 15 अगस्त स्पेशल : मैन इन यूनिफौर्म- एक सैनिक की आपबीती
तब से वह ज्योति अपने प्रकाश के साथ आलोकित थी. जीवन के एकाकी- पन की भयावहता को वह अपने साहस और अपनी व्यस्तता के क्षणों में डुबो चुकी थी. प्यार, कर्तव्य और ममता के आंचल तले अपने बेटे के जीवन की रिक्तताओं को पूर्णता में बदलते रहना ही उस का एकमात्र उद्देश्य था.
उस दिन ज्योति के बच्चे की 12वीं वर्षगांठ थी. पिछली सारी रात उस की बंद आंखों में गुजरे 11 वर्षों का पूरा जीवन चित्रपट की तरह आताजाता रहा था. उन आवाजों, तानों, व्यंग्यों, कटाक्षों और विषम झंझावातों के क्षण मन में कोलाहल भरते रहे थे, जिन के पुल वह पार कर चुकी थी. उस जैसी युवतियों को समाज जो कुछ युगों से देता आया था, वह उस ने भी पाया था. अंतर केवल इतना था कि उस ने समाज से पाया हुआ कोई उपहार स्वीकार नहीं किया था. वह चलती रही थी अपने ही बनाए हुए रास्ते पर. उस के मन में समाज की परंपरागत घिनौनी तसवीर न थी, उसे तलाश थी उस साफ- सुथरे समाज की, जिस का आधार प्रतिशोध नहीं, मानवीय हो, उदार हो, न्यायप्रिय और स्वार्थरहित हो.
अपनी जिंदगी याद करतेकरते अनायास ज्योति का मन कहीं पीछे क्यों लौट चला था, वह स्वयं नहीं जान पाई थी. मन जहां जा कर ठहरा, वहां सब से पहला चित्र उस की अपनी मां का उभरा था. उसे बच्चे की वर्षगांठ मनाने की परंपरा और संस्कार उसी मां ने दिए थे. वह स्वयं उस का और उस के भाई का जन्मदिन एक त्योहार की तरह मनाती थीं. याद करतेकरते मन में कुछ ऐसी भी कसक उठी जो आंखों के द्वारों से आंसू बन कर बहने के लिए आतुर हो उठी. उस ने आंखें पोंछ डालीं. यादों का सिलसिला चलता रहा…
काश, कहीं मां मिल जातीं. केवल उस दिन के लिए ही मिल जातीं. मां प्रकाश को भी उसी तरह आशीष देतीं जैसे उसे दिया करती थीं. उसे विश्वास था कि बड़ेबूढ़ों के आशीर्वाद में कोई अदृश्य शक्ति होती है. भले ही उस की मां के आशीर्वाद उस के अपने जीवन में फलदायक न हो सके हों, परंतु वह अब जो कुछ भी थी, उस में मां के आशीर्वाद के प्रभाव का अंश, बचपन में मां से मिले संस्कारों का असर अवश्य रहा होगा.
मन रुक न सका. सुबह होतेहोते ज्योति कागजकलम ले कर बैठ गई थी. भावनाओं के मोती शब्दों के रूप में कागज पर बिखरने लगे थे. 11 वर्ष की लंबी अवधि में मां के नाम ज्योति का यह पहला पत्र था. उसे भरोसा था कि वह उस पत्र को लिखने के बाद पोस्ट अवश्य करेगी. हमेशा की तरह वह पत्र टुकड़ों में बदल जाए, अब वह ऐसा नहीं होने देगी.
वह लिखे जा रही थी और आंखें पोंछती जा रही थी. कैसी विडंबना थी कि आज उसे उस घर की धुंधली पड़ गई छवि को नए रूप में याद करना पड़ रहा था जो कभी उस का अपना घर भी था. उस में वह 16 वर्ष की आयु तक पलीबढ़ी, पढ़ीलिखी थी. उस की बनाई हुई पेंटिंगों से उस घर की बैठक की दीवारों की शोभा बढ़ी थी. उस घर के आंगन में उस के नन्हेनन्हे हाथों ने एक नन्हा सा आम का पौधा लगाया था.
वह कल्पना में अपना अतीत स्पष्ट देख रही थी. पत्र को अधूरा छोड़ कर होंठों के बीच कलम दबाए हुए आंसू भरी आंखों के साथ सोच रही थी. मां बहुत बूढ़ी हो चली थीं, शायद अपनी उम्र से अधिक. पिता के चेहरे पर कुछ रेखाएं बढ़ जाने के बावजूद उन की आवाज में अब भी वही रोब था, शान थी और अपने ऊंचे खानदान में होने का अहंकार था. वह अपने समाज और खानदान में वयोवृद्ध सदस्य की तरह आदर पा रहे थे. भाई के सिर के बाल सफेद होने लगे थे. भाभी आ गई थीं. घर के आंगन में नन्हेमुन्ने भतीजेभतीजी खेल रहे थे.
सोच रही थी ज्योति. बैठक की दीवार पर लगी पेंटिंगें हटाई नहीं गई थीं. शायद इसलिए कि घर वालों की दृष्टि में वह भले ही मर चुकी हो, लेकिन उन पेंटिंगों के बहाने उस की याद जिंदा रही. नित्य उन की धूलगर्द झाड़तेपोंछते समय उसे जरूर याद किया जाता होगा. कभी आंगन में लगाया गया आम का पौधा बढ़तेबढ़ते आज वृक्ष का रूप ले चुका था. उस में फल आने लगे थे और प्रत्येक फल की मिठास में एक विशेष मिठास थी, उस की याद की, उस घर की बेटी की यादों की.
ये भी पढ़ें- 15 अगस्त स्पेशल : फौजी के फोल्डर से- एक सैनिक की कहानी
इस तरह वह पत्र पूरा हो चला था, जगहजगह आंखों से टपके आंसू की मुहरों के साथ. उस पत्र में ज्योति ने अपने अब तक के जीवन की पुस्तक का एकएक पृष्ठ खोल कर रख दिया था, कहीं कोई दाग न था. वह पत्र मात्र पत्र न था, कुछ सिद्धांतों का दस्तावेज था. उस के अपने आत्मविश्वास की प्रतिछवि था वह. उस में आह्वान था एक नए आकार का, जिस के तले नई सुबहें होती हों, नई रातें आती हों. उस के तले जीने वाला जीवन, जीवन कहे जाने योग्य हो. ऐसा जीवन, जो केवल अपने लिए न हो कर दूसरों के लिए भी हो.
ज्योति ने उस पत्र की प्रतिलिपि को अपने पास सहेज कर एक हितैषी द्वारा दूसरे शहर के डाकघर से भिजवा दिया था.
7 दिन बीत चुके थे. इस बीच ज्योति के मन के भीतर विचित्र अंतर्द्वंद्व चलता रहा था. कौन जाने उस के पत्र की प्रतिक्रिया घर वालों पर क्या हुई होगी. पत्र अब तक तो पहुंच चुका होगा. 33 किलोमीटर दूर स्थित दूसरे शहर के डाकघर से पत्र भेजने का अभिप्राय केवल इतना था कि वह पत्र का उत्तर आए बिना, अपना असली पता नहीं देना चाहती थी. जवाब के लिए भी उस ने दूसरे शहर में रहने वाले एक ऐसे सज्जन महेंद्र का पता दिया था जो उसे असली पते पर पत्र भेज देते.
ज्योति एक-एक दिन उंगलियों पर गिनती रही थी. अब तक तो पत्रोत्तर आ जाना चाहिए था. क्यों नहीं आया था? उस के पत्र ने घर की शांति तो नहीं भंग कर दी थी? नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. निश्चय ही उस के हाथ की लिखावट देखते ही उस की मां ने पत्र को चूम लिया होगा. फिर खूब रोई होंगी. पिता को भलाबुरा सुनाया होगा. खुशामद की होगी कि जा कर बेटी को लिवा लाएं. पिता ने कहा होगा कि बेटी ने सौगंध दी है कि उसे केवल पत्रोत्तर चाहिए. उत्तर के स्थान पर कोई उसे लिवाने न आए. यहां आना या न आना, उस का अपना निर्णय होगा.
फिर भी पिता के मन में छटपटाहट जागी होगी कि चल कर देखें अपनी बेटी को. अनायास पिता का भूलाबिसरा वास्तविक रूप उस को याद आ गया था. नहीं, नहीं, पिता मुझ तक आएं यह उन की शान के विरुद्ध होगा. पत्र पढ़ कर जब मां रोई होंगी तब पिता की दबंग आवाज ने मां को डांट दिया होगा. परंतु वह खुद भी भावुक होने से न बच पाए होंगे.
ये भी पढ़ें- 15 अगस्त स्पेशल : फौजी के फोल्डर से- एक सैनिक की कहानी
मां के सो जाने के बाद उन्होंने भी लुकछिप कर एक बार फिर उस के पत्र को ढूंढ़ कर पढ़ने की कोशिश की होगी. आंखें भर आई होंगी तो इधरउधर ताका होगा कि कहीं कोई उन्हें रोते हुए देख तो नहीं रहा. मां ने पिता की इस कमजोरी को पहचान कर पहले ही वह पत्र ऐसी जगह रखा होगा, जहां वह चोरीछिपे ढूंढ़ कर पढ़ सकें क्योंकि सब के सामने उस पत्र को बारबार पढ़ना उन की मानप्रतिष्ठा के विरुद्ध होता और इस बात का प्रमाण होता कि वह हार रहे हैं.
ज्योति अनमनी सी नित्य बच्चों को पढ़ाने स्कूल जाती थी. घर लौट कर देखती थी कि कहीं पत्र तो नहीं आया. धीरेधीरे 10 दिन बीत गए थे और आशा पर निराशा की छाया छाने लगी थी.
एक दिन रास्ते में वही हितैषी महेंद्र अचानक मिल गए थे. उन के हाथ में एक लिफाफा था. उस पर लिखी अपने पिता की लिखावट पहचानने में उसे एक पल भी न लगा था.
‘‘बेटी, डाक से यहां तक पहुंचने में देर लगती, इसलिए मैं खुद ही पत्र ले कर चला आया…खुश है न?’’ महेंद्र ने पत्र उसे थमाते हुए कहा.
स्वीकृति में सिर झुका दिया था ज्योति ने. होंठों से निकल गया था, ‘‘कोई मेरे बारे में पूछने घर से आया तो नहीं था?’’
‘‘नहीं, अभी तक तो नहीं आया. और आएगा भी तो तेरी बात मुझे याद है, घर के सब लोगों को भी बता दिया है. विश्वास रखना मुझ पर.’’
‘‘धन्यवाद, दादा.’’
महेंद्र ने ज्योति के सिर पर हाथ फेरा. बहुत सालों बाद उस स्पर्श में उसे अपने मातापिता के हाथों के स्पर्श जैसी आत्मीयता मिली. पत्र पाने की खुशी में यह भी भूल गई कि वह स्कूल की ओर जा रही थी. तुरंत घर की ओर लौट पड़ी.
लिफाफा ज्यों का त्यों बंद था. मां के हाथों की लिखावट होती तो अब तक पत्र खुल चुका होता. परंतु पिता के हाथ की लिखावट ने ज्योति के मन में कुछ और प्रश्न उठा दिए थे क्योंकि अब तक वह पिता के प्रति अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं ला सकी थी. उस की दृष्टि में उस के दुखों के लिए वह खुद तो जिम्मेदार थी ही, परंतु उस के पिता भी कम जिम्मेदार न थे.
तो क्या उन्हीं कठोर पिता का हृदय पिघल गया है? मन थरथरा उठा. कहीं पिता ने अपने कटु शब्दों को तो फिर से नहीं दोहरा दिया था?
कांपते हाथों से ज्योति ने लिफाफा फाड़ा. पत्र निकाला और पढ़ने लगी. एकएक शब्द के साथ मन की पीड़ा पिघलपिघल कर आंखों के रास्ते बहने लगी. वह भीगती रही उस ममता और प्यार की बरसात में, जिसे वह कभी की खो चुकी थी.
ज्योति अगले दिन की प्रतीक्षा नहीं कर सकी थी और उसी समय उठ कर स्कूल के लिए चल दी थी. छुट्टी का आवेदन देने के साथसाथ डाकघर में जा कर तार भी दे आई थी.
वह रात भी वैसी ही अंधियारी रात थी, जैसी रात में ज्योति ने 11 वर्ष पूर्व अकेले यात्रा की थी. मांबाप और समाज के शब्दों में, अपने गर्भ में वह किसी का पाप लिए हुए थी और अनजानी मंजिल की ओर चली जा रही थी एक तिरस्कृता के रूप में. और उसी पाप के प्रतिफल के रूप में जन्मे पुत्र के साथ वह वापस जा रही थी. उस रात जीवन एक अंधेरा बन कर उसे डस रहा था. इस रात वही जीवन सूरज बन कर उस के लिए नई सुबह लाने वाला था.
उस रात ज्योति अपने घर से ठुकरा दी गई थी. इस रात उस का अपने उसी घर में स्वागत होने वाला था. यह बात और थी कि उस स्वागत के लिए पहल स्वयं उस ने ही की थी क्योंकि उस ने अपना अतापता किसी को नहीं दिया था. अपने साहसी व्यक्तित्व के इस पहलू को वह केवल परिवारजनों के ही नहीं, पूरे समाज के सामने लाना चाहती थी, यानी इस तरह घर से ठुकराई गई बेटियां मरती नहीं, बल्कि जिंदा रहती हैं, पूरे आदरसम्मान और उज्ज्वल चरित्र के साथ.
ठुकराए जाने के बाद अपने पिता का घर छोड़ते समय के क्षण ज्योति को याद आए. मन में गहन पीड़ा और भय का समुद्र उफन रहा था. फिर भी उस ने निश्चय किया था कि वह मरेगी नहीं, वह जिएगी. वह अपने गर्भ में पल रहे भ्रूण को भी नष्ट नहीं करेगी. उसे जन्म देगी और पालपोस कर बड़ा करेगी. वह समाज के सामने खुद को लज्जित अनुभव कर के अपने बच्चे को हीन भावना का शिकार नहीं होने देगी. वह समाज के निकृष्ट पुरुष के चरित्रों के सामने इस बात का प्रमाण उपस्थित करेगी कि पुरुषों द्वारा छली गई युवतियों को भी उसी तरह का अधिकार है, जिस तरह कुंआरियों या विवाहिताओं को. वह यह भी न जानना चाहेगी कि उस का प्रेमी जीवित है या मर गया. वह स्वयं को विधवा मान चुकी थी, केवल विधवा. किस की विधवा इस से उसे कोई मतलब नहीं था.
ये भी पढ़ें- 15 अगस्त स्पेशल : जाएं तो जाएं कहां
इस मानसिकता ने उस नींव का काम किया था, जिस पर उस के दृढ़ चरित्र का भवन और बच्चे का भविष्य खड़ा था. उस ने घरघर नौकरी की. पढ़ाई आगे बढ़ाई. बच्चे को पालतीपोसती रही. जिस ने उस के शरीर को छूने की कोशिश की, उस पर उस ने अपने शब्दों के ही ऐसे प्रहार किए कि वह भाग निकला. आत्मविश्वास बढ़ता गया और उस ने कुछ भलेबुजुर्ग लोगों को आपबीती सुना कर स्कूल में नौकरी पा ली. एक घर ढूंढ़ लिया और अब अपने महल्ले की इज्जतदार महिलाओं में वह जानी जाती थी.
ज्योति का अब तक का एकाकी जीवन उस के भविष्य की तैयारी था. उस भविष्य की जिस के सहारे वह समाज के बीच रह सके और यह जता सके कि जिस समाज में उसे छलने वाले जैसे प्रेमी अपना मुंह छिपा कर रहते हैं, ग्लानि का बोझ सहने के बाद भी दुनिया के सामने हंसते हुए देखे जाते हैं, वहां उन के द्वारा ठुकराई हुई असफल प्रेमिकाएं भी अपने प्रेम के अनपेक्षित परिणाम पर आंसू न बहा कर उसे ऐसे वरदान का रूप दे सकती हैं, जो उन्हें तो स्वावलंबी बना ही देता है, साथ ही पुरुष को भी अपने चरित्र के उस घिनौने पक्ष के प्रति सोचने का मौका देता है.
उस एकाकीपन में ऐसे क्षण भी कम नहीं आए थे, जब ज्योति के लिए किसी पुरुष का साथ अपरिहार्य महसूस होने लगा था. कई बार उस ने सोचा भी था कि इस समाज के कीचड़ में कुछ ऐसे कमल भी होंगे, जो उसे अपना लेंगे. कुछ ऐसे व्यक्तित्व भी उसे मिलेंगे, जिन में उस जैसी ठुकराई हुई लड़कियों के लिए चाहत होगी.
डाक्टर ने शालू का चैकअप किया और बोला कि परेशानी की कोई बात नहीं है. कमजोरी की वजह से इन को चक्कर आ गया था. दवा पिला दीजिए और इन का ध्यान रखिए. ये मां बनने वाली हैं और ऐसी हालत में लापरवाही ठीक नहीं है.’’
डाक्टर के मुंह से मां बनने की बात सुन कर रामबरन हक्केबक्के रह गए. डाक्टर के जाते ही सब से सवालों की झड़ी लगा दी.
दीपा बूआ ने पूरी बात रामबरन को बताई और बोलीं, ‘‘भैया, गौने की तारीख जल्दी से पक्की कर के आइए. अभी कुछ नहीं बिगड़ा है. सब ठीक हो जाएगा.’’
उधर होश में आते ही शालू रोने लग गई. रोतेरोते वह बोली, ‘‘बाबूजी, मुझे माफ कर दीजिए. मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई.’’
ये भी पढ़ें- पार्टनर : पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है
रामबरन शालू के सिर पर हाथ रख कर लंबी सांस ले कर बाहर चले गए.
अगले दिन वे फिर शालू की ससुराल गए. घर पर दीपा और शालू बेचैन घूम रही थीं कि न जाने क्या खबर आएगी.
रामबरन दिन ढले थकेहारे घर आए और आते ही सिर पर हाथ रख कर बैठ गए. उन को इस तरह बैठे देख सब का दिल बैठा जा रहा था. सब सांस रोक कर उन के बोलने का इंतजार कर रहे थे.
रामबरन रुंधे गले से बोले, ‘‘मेरी बेटी की जिंदगी बरबाद हो गई. उन लोगों ने गौना कराने से साफ मना कर दिया. रमेश बोल रहा था कि वह कभी मिलने नहीं आता था. दीपा, वे लोग मेरी बेटी पर कीचड़ उछाल रहे हैं. तू ही बता कि अब क्या करूं मैं?’’
दीपा बूआ और शालू दोनों रोने लगीं. किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. उस रात किसी ने कुछ नहीं खाया और सब ने अपनेअपने कमरे में करवटें बदलबदल कर रात बिताई.
सुबह हुई. शालू ने उठ कर मुंह धोया और बहुत देर तक खुद को आईने में देखती रही. मन ही मन एक फैसला लिया और बाहर आई.
रामबरन बरामदे में बैठे थे और शालू उन के पैरों के पास जमीन पर बैठ गई और बोली, ‘‘बाबूजी, मुझ से एक गलती हो गई है. लेकिन इस बच्चे को मारने का पाप मुझ से नहीं होगा. मुझ से यह पाप मत करवाइए.’’
रामबरन ने शालू का हाथ पकड़ लिया और बोले, ‘‘बेटी, क्या चाहती है बोल? मैं तेरे साथ हूं. मैं तेरे लिए सारी दुनिया से लड़ने के लिए तैयार हूं.’’
रामबरन की बात सुन कर शालू बोली, ‘‘बाबूजी, इस नन्ही सी जान को मैं सारी दुनिया से लड़ कर इस दुनिया में लाऊंगी और उस रमेश को नहीं छोडं़ूगी. अपने बच्चे को उस के बाप का नाम और हक दोनों दिलाऊंगी. रमेश बुजदिल हो सकता?है लेकिन मैं नहीं हूं. मैं आप की बेटी हूं, हार मानना नहीं सीखा है.’’
अपनी बेटी की बातें सुन कर रामबरन की आंखें भर आईं. वे आंसू पोंछ कर बोले, ‘‘हां बेटी, मैं हर पल हर कदम पर तेरी लड़ाई में साथ हूं.’’
अगले दिन शालू और रामबरन दोनों जा कर वकील से मिले और उन को सारी बातें समझाईं. वकील ने शालू को इतना बड़ा कदम उठाने के लिए सब से पहले शाबाशी दी और बोले, ‘‘बेटी, तुम परेशान न हो. हम यह लड़ाई लड़ेंगे और जरूर जीतेंगे.’’
धीरेधीरे समय बीतने लगा. रमेश पर केस दर्ज हो गया था. शालू हर पेशी पर अपने बाबूजी के साथ अदालत में अपने बच्चे के हक के लिए लड़ रही थी तो बाहर दुनिया से अपनी इज्जत के लिए. उस का बढ़ता पेट देख कर गांव वालों में कानाफूसी शुरू हो गई थी.
लोग कई बार उस के मुंह पर बोल देते थे, ‘देखो, कितनी बेशर्म है. पहले मुंह काला किया, अब बच्चा जनेगी और केस लड़ेगी.’
शालू सारी बातें सुन कर अनसुना कर देती थी. समय बीतता गया और शालू ने समय पूरा होने पर एक खूबसूरत से बेटे को जन्म दिया.
अदालत की तारीखें बढ़ रही थीं और रामबरन का बैंक बैलैंस खत्म हो रहा था. खेत बेचने तक की नौबत आ गई थी. लेकिन बापबेटी ने हिम्मत नहीं हारी, लड़ाई जारी रखी.
वे कई सालों तक लड़ाई लड़ते रहे. एक दिन रामबरन को एक रिश्तेदार ने एक रिश्ता बताया. वे लोग शालू की सारी सचाई जानते थे. लेकिन जब तक केस खत्म नहीं हो जाता, तब तक शालू अपनी जिंदगी के लिए कोई भी फैसला लेने को तैयार नहीं थी.
ये भी पढ़ें- हिसाब : कैसे गड़बड़ा गया उस का हिसाब
इधर रमेश और उस के घर वाले अदालत के चक्कर लगालगा कर परेशान हो चुके थे. वे लोग चाहते थे कि समझौता हो जाए. शालू उन के घर आ जाए और वे बच्चे को भी अपना खून मानने के लिए तैयार थे, लेकिन शालू ने सख्ती से मना कर दिया और लड़ाई जारी रखी.
आखिरकार शालू की जीत हुई. अदालत ने रमेश को सजा सुनाई और उसे जेल भेज दिया गया. वहीं उसे और उस के बेटे को रमेश की जायदाद में हिस्सेदारी भी दी गई.
शालू ने हिम्मत दिखा कर अपना खोया हुआ मानसम्मान व अपने बेटे का हक सब वापस जीत लिया था. शालू इस जीत पर बेहद खुश थी. इधर शालू की शादी के लिए भी वे लोग जोर देने लग गए थे.
एक दिन रामबरन ने शालू और योगेश की शादी करा दी. योगेश शालू को ले कर मुंबई चला गया. डेढ़ साल बाद शालू और योगेश मुंबई से वापस आए तो शालू की गोद में 6 महीने की एक प्यारी सी बच्ची भी थी.
शाम को रामबरन जब घर आए तो देखा कि आंगन में शालू और योगेश अपने दोनों बच्चों के साथ खेलने में मगन थे. वे अपनी बेटी के उचित फैसले पर मुसकरा कर अंदर चले गए.