इनसानियत: कालू मेहतर की समझदारी

सु बह से ही रुकरुक कर बारिश हो रही थी. बच्चे नहाने का पूरा मजा लूट रहे थे. गांव के सभी तालतलैया लबालब थे.दोपहर बाद बारिश रुकी. थोड़ी ही देर बाद गांव में तूफान सा आ गया. लोग एक ही दिशा में भागे जा रहे थे. गांव के दक्षिणी छोर पर भारी भीड़ जमा हो रही थी. जोरजोर से शोर हो रहा था. ऐसा जान पड़ता था, जैसे कोई बहुत बड़ा तमाशा हो रहा हो.जब कालू मेहतर वहां पहुंचा, तो दिल दहला देने वाला नजारा था. अलादीन के चारों बेटे अपने बाप के जनाजे के पास बैठे सुबक रहे थे.

कोई भी उन की हालत से पसीज नहीं रहा था. सब मरनेमारने को तैयार खड़े नजर आ रहे थे. किसी के पास लाठी, तो किसी के पास फावड़ा था.मौलवी नूरुद्दीन गिड़गिड़ा रहा था, ‘‘आखिर हम क्या करें? हमारा कब्रिस्तान पानी से लबालब है, मुरदा दफनाने को जगह तो चाहिए न?’’‘‘अपने मुरदे को यहां से ले जाओ, वरना हम इसे आग लगा देंगे.

किस से पूछ कर खोदी है यहां कब्र?’’ पंडितजी ने तैश में आ कर कहा.‘‘रहम करो पंडितजी, हमें लाश को दफना लेने दो या कोई दूसरी जगह बता दो,’’ नूरुद्दीन फिर गिड़गिड़ाया.‘‘हम ने आप को जगह बताने का ठेका नहीं ले रखा. मुरदे को उठा कर चलते बनो,’’ पंडितजी ने गुस्से से कहा.‘‘हमारा कब्रिस्तान कब्र खोदने लायक नहीं है. फिर हम कोई रोजरोज तो मुरदे यहां दफनाएंगे नहीं.

मौत पर तो किसी का बस नहीं होता,’’ नूरुद्दीन ने समझाया.‘‘ये ऐसे ही नहीं मानेंगे, इस कब्र को मिट्टी से भर डालो,’’ पंडितजी ने अपने आदमियों से कहा.पंडितजी का इशारा पाते ही कुछ जवान लड़के हाथों में फावड़े ले कर कब्र पाटने के लिए आगे बढ़े. उन को आगे बढ़ता देख कालू मेहतर बोल उठा, ‘‘रुक जाओ. खबरदार, किसी ने कब्र पाटने की हिम्मत की तो…’’जवानों के आगे बढ़ते कदम जाम हो गए. अचानक पंडितजी ने कालू की ओर देखते हुए कहा, ‘‘अरे कालू, तू ने आने में देर कर दी.’’

‘‘हां पंडितजी, मैं ने आने में देर कर दी, वरना अब तक मुरदा कब का ही दफनवा देता,’’ कालू ने उन की ओर देखते हुए कहा.‘‘क्यों?’’ पंडितजी ने सवाल किया.‘‘क्योंकि धर्मकर्म तो सब जीतेजी के झगड़े हैं. मरे हुए आदमी का कोई धर्म नहीं होता, वह तो माटी होता है.’’‘

‘लेकिन, एक मुसलमान हिंदू मंदिर की जगह पर तो नहीं दफनाया जा सकता…’’‘‘हिंदू मंदिर है ही कहां? यह तो एक बेरी का पेड़ है.’’‘‘यह एक पेड़ ही नहीं, बल्कि इस से भी ज्यादा बहुतकुछ है.’’‘‘क्या है? बताओ तो, जरा हम भी सुनें.’’‘‘इस पेड़ की पूजा होती है. हर सुहागिन हिंदू औरत इस पेड़ पर आए महीने की शुक्ल अष्टमी को तेल चढ़ा कर अपने बच्चों के लिए आशीष मांगती है.’’

‘‘हिंदू औरत इस की पूजा करती है, तभी यह हिंदू पेड़ है?’’ कालू मेहतर ने कहा.‘‘हां.’’‘‘बहुत खूब, पंडितजी. आप जैसे लोगों ने पेड़ों को भी जातियों में बांट दिया. पेड़ का धर्म तो परोपकार होता है, वह हिंदूमुसलिम का फर्क नहीं करता. इस बेरी के बेर तो सभी खाते हैं.

इस के ‘देवता’ ने तो कभी किसी का हाथ नहीं पकड़ा?’’‘‘तू समझता क्यों नहीं कालू, आखिर इस पेड़ के साथ हमारी पूजा का सवाल जुड़ा हुआ है, इसीलिए तो इस के चारों ओर की जगह खाली रखवा रखी है, नहीं तो यहां कब के मकान बन गए होते.’’

‘‘आप जैसे लोगों के लिए देवस्थान अलग बनाना कोई बड़ी बात नहीं है. आप इस बेरी के देवता को दूसरी बेरी में बैठा दीजिए.’’‘‘नामुमकिन.’’‘‘जब आप लोगों के घरों के भूत भगा सकते हैं, उन के रूठे देवता मना सकते हैं, तब इस देवता को दूसरी जगह क्यों नहीं ले जा सकते?’’

‘‘इन दोनों बातों में रातदिन का फर्क है.’’‘‘कोई फर्क नहीं… फर्क है तो बस आप की नीयत का…’’‘‘मेरी नीयत में कोई खोट नहीं है. दूसरों के दुखों को दूर करने के लिए ही मैं उन के भूत भगाता हूं.’’‘‘बड़े हमदर्द हैं आप दूसरों के… तभी तो शायद आप ने आज गांव में यह बवंडर फैला दिया कि मुसलिम हमारे देवता की जगह पर कब्जा कर रहे हैं.’’‘‘मैं ने कोई बवंडर नहीं फैलाया.

मैं ने तो गांव वालों को हकीकत बताई है.’’‘‘हकीकत नहीं पंडितजी, आप ने घरघर जा कर यह आग लगाई है.’’‘‘यह झूठ है. अगर मैं ने गांव में यह आग लगाई है, तो मैं किसी भी गाय की कसम खाने को तैयार हूं. चल कौन सी गाय की पूंछ पकड़वाता है. अगर मैं सच्चा हूं तो भगवान मेरी रक्षा करेंगे, नहीं तो मैं आसऔलाद समेत गल जाऊंगा. मुझ पर झूठे इलजाम मत लगाओ.’’

‘‘इलजाम सोलह आने सच हैं. गाय की पूंछ पकड़ना तो आप लोगों ने पेशा बना रखा है. क्या आप मेरे घर नहीं गए? आप ने मुझे नहीं कहा कि उस बेरी के पास चलो, नहीं तो वे लोग कब्जा कर लेंगे.’’‘‘हां, यह तो कहा था.’’‘‘आप ने न सिर्फ मुझे, बल्कि यहां आए हुए सभी लोगों के घरघर जा कर यही बात कही है. तभी हम सब यहां आए हैं, नहीं तो हमें कोई खुशबू नहीं आ रही थी कि वहां चलना है.’’

‘‘हां, कहा है. आप सब हिंदू हैं और मैं आप सब का पुजारी हूं. पुजारी होने के नाते यह मेरा फर्ज था… मैं ने उसे पूरा किया… और अब आप लोग जानो…’’‘‘हम सब हिंदू हैं?’’‘‘हां, इस में कोई शक नहीं.’’‘‘नहीं पंडितजी… आप सब हिंदू हो सकते हैं, पर मैं हिंदू नहीं हूं. मैं तो एक मेहतर हूं, गयाबीता हूं और न जाने क्याक्या हूं.’’‘‘यह तू क्या कह रहा है?’’‘‘मैं वही कह रहा हूं, जो आप ने कहा था.

याद करो, उस दिन को…’’‘‘किस दिन को?’’‘‘कृष्ण जन्माष्टमी… याद आया? मैं मंदिर में जाने लगा तो आप ने मुझे धक्के मार कर, गालियां दे कर बाहर निकाल दिया था. उस दिन मैं छोटी जाति का था और आज जब आप को भीड़ इकट्ठी करनी पड़ रही है, तब आप मुझे हिंदू बना कर मुझे इज्जत बख्श रहे हैं. क्या उस दिन मैं हिंदू नहीं था?’’‘‘मुझ से गलती हो गई थी.’’‘‘गलती तो मेरी थी, जो मैं दलित हो कर भी मंदिर दर्शन करने चल दिया.’’‘‘उन बातों को भूल जाओ.

आज मैं तुम्हें सारा मंदिर घुमाघुमा कर दिखा दूंगा.’’‘‘नहीं, मैं ऐसा काम नहीं करूंगा, जिस से आप को सारा मंदिर एक बार फिर धो कर पवित्र करना पड़े.’’‘‘देखो कालू, उस दिन मैं अंधा था. अब मेरी आंखें खुल गई हैं… मुझे और जलील न करो.’’‘‘आप अब भी अंधे हैं. अगर उस मंदिर और भगवान में मेरा कोई हिस्सा न था, तो इस बेरी के देवता पर मेरा क्या हक है? यहां भी तो सवर्णों का देवता है.’’‘‘अरे, तू समझता क्यों नहीं है, अवर्णसवर्ण क्या होता है?’’

‘‘अगर अवर्णसवर्ण नहीं होते, तो यह झमेला क्यों खड़ा कर रखा है? आप धर्मकर्म के लफड़े को छोड़ कर इनसानियत का रास्ता क्यों नहीं अपना लेते? अगर धर्मकर्म और अवर्णसवर्ण नहीं होते, तो आप ने इन लोगों को क्यों बुला रखा है? क्यों ये मरनेमारने को तैयार खड़े हैं?

‘‘पंडितजी, इनसानियत के नाते मुरदा अब भी यहां दफना लेने दीजिए, नहीं तो मुरदों के ढेर लग जाएंगे, तब न किसी को गाड़ने की जगह मिलेगी और न जलाने की.’’‘‘चाहे धरती उलटपलट हो जाए, पर धर्म भ्रष्ट नहीं होने दूंगा. किसी भी कीमत पर अलादीन को यहां नहीं दफनाया जाएगा.’’‘‘पंडितजी, सीधी तरह क्यों नहीं कह देते कि आज आप दोनों जातियों में खून की नदियां बहती देखना चाहते हैं?’’‘‘मुझे झगड़े से कोई सरोकार नहीं. मैं गांव में किसी तरह शांति चाहता हूं.’’

‘‘यदि दिल से शांति चाहते हो, तो आप को और गांव वालों को मेरी यह बात माननी पड़ेगी.’’‘‘कैसी बात?’‘‘मैं हिंदू या मुसलिम होने से पहले एक इनसान हूं और इसी नाते यह सबकुछ कर रहा हूं. यह जगह गांव से कुछ दूर है. इसे मैं ‘हड़खोरी’ (जहां मरे हुए पशुओं को डाला जाता है और उन के अस्थिपंजर इकट्ठे किए जाते हैं) बना लूंगा, और मेरी मंजूरशुदा ‘हड़खोरी’ की जमीन जो गांव के बिलकुल पास आ गई है, उसे मैं मंदिर और कब्रिस्तान दोनों के लिए दे दूंगा.’’

दोनों तरफ के लोगों में खुसुरफुसुर होने लगी. पंडितजी के माथे पर सोच की रेखाएं उभर आईं. अलादीन के जनाजे के इर्दगिर्द बैठे लोगों को भी कुछ उम्मीद की किरण दिखाई देने लगी.‘‘पंडितजी, आप कुछ बोले नहीं?’’ कालू मेहतर ने पूछा.‘‘मुझे तो कुछ समझ नहीं आता.

यदि दोनों जगहों की अदलाबदली हो गई, कब्रिस्तान और पूजास्थल एक जगह हो गए, तो सतकाली (लगातार 7 अकाल) पड़ेगी. गांव उजड़ जाएगा… सत्यानाश हो जाएगा,’’ पंडितजी ने आखिरी हथियार फेंका.‘‘समझ में क्यों नहीं आता आप के? सतकाली पड़ेगी तब देखा जाएगा, पर फिलहाल तो शांति हो जाएगी. न गांव वालों को मरे पशुओं की सड़ांध आएगी और न कभी किसी को दफनाने की शिकायत होगी.’’‘‘इन के पास कब्रिस्तान की जगह न होती तब तो सोचते…’’

‘‘होने से क्या होता है? कुदरती मुसीबतों से बचने के लिए आधी से कम दे देना.’’‘‘लेकिन, यह होगा कैसे?’’‘‘हड़खोरी भी 2 बीघा जमीन पर है, और इतनी ही यह जमीन है. उस में भी एक तरफ बेरी का पेड़ है, आप चंदे से बाद में वहां चारदीवारी बनवा लेना, सारी दिक्कतें मिट जाएंगी.’’‘‘लेकिन…?’’‘‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं, आप इस बेरी वाले देवता को उस बेरी में बैठा दीजिए.’’

‘‘और तुम…?’’‘‘मेरे इस स्थान पर हड़खोरी बनाते वक्त जो दिक्कत आएगी, उस से अपनेआप ही निबट लूंगा,’’ कालू मेहतर ने अपनी बात कही और फिर गांव वालों से पूछा, ‘‘किसी को कोई एतराज हो, तो अब भी बोल देना, भाइयो?’’‘‘हमें कोई एतराज नहीं, बस झगड़ा हमेशाहमेशा के लिए मिट जाना चाहिए,’’ एक बूढ़े ने सब की तरफ से कहा.‘‘ठीक है, मैं अभी जा कर उस हड़खोरी को साफ करवा देता हूं. आप इन को बता दीजिए कि अलादीन की कब्र किस ओर खोदें,’’ कह कर कालू मेहतर चल पड़ा.सभी की तनी हुई लाठियां झुक गईं. सब अपनेअपने घरों की ओर चल पड़े.3-4 घंटे बाद हड़खोरी साफ हो गई. उस जमीन पर पंडितजी ने गंगाजल छिड़का.

फिर उन्होंने हवन कर के हड़खोरी को पवित्र किया और मंत्र बोलते हुए पुरानी बेरी के देवता को इस नई बेरी में बैठाया. उधर जो जगह मुसलिमों को दी गई, उस में मौलवीजी ‘तिलावत’ (इसलाम के मुताबिक क्रियाकर्म) करने में लग गए.शाम तक अलादीन की लाश दफना दी गई. गांव में सब तरफ कालू मेहतर की सूझबूझ की बातें हो रही थीं.वक्त गुजरता रहा और कालू मेहतर अपना काम करता रहा. न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर, अपने काम से काम.

एक दिन जब वह मरी हुई भैंस हड़खोरी में डाल रहा था, तो अचानक उस ने आवाजें सुनीं, ‘‘अरे ओ कालू, यहां जानवर मत डालना.’’‘‘क्यों भाई, क्या बात है? इस हड़खोरी में भी पशु न डालूं, तो कहां डालूं?’’ कालू मेहतर ने सवाल किया.‘‘कहांवहां का मुझे पता नहीं, यहां तो मेरा प्लाट है.’’‘‘यहां और प्लाट?’’‘‘हां, सरपंच ने परसों ही दिया है.’’‘‘कुछ तो शर्म करते भाई, यदि प्लाट ही लेना था तो किसी अच्छी जगह लेते.’’‘‘तू तो भोला है कालू, शर्म किस बात की?

बाबा आना चाहिए, चाहे पिछली गली से आ जाए. फिर गांव में और जगह है ही कहां?’’‘‘ठीक है भाई, तेरी मरजी. मैं इसे दूसरी जगह डाल दूंगा,’’ कह कर कालू मेहतर भैंस को दूसरी जगह डालने चल दिया.भैंस को दूसरी जगह डाल कर वह अपनी गधागाड़ी पर लौट आया. घर पहुंच कर वह हाथमुंह धो ही रहा था कि शेरू की आवाज सुनाई दी, ‘‘कालू, उस भैंस को उठा, उसे तू मेरे प्लाट में डाल आया है. आइंदा वहां कोई जानवर मत डालना, नहीं तो खैर मत समझना.’’

‘‘अरे भाई, उसे तो मैं हड़खोरी में ही डाल कर आया हूं,’’ कालू मेहतर ने धीरे से कहा.‘‘किस की हड़खोरी? वहां तो मेरा प्लाट है,’’ शेरू ने धौंस जमाई.‘‘ये प्लाट कब काट दिए?’’ कालू ने पूछा.‘‘तुझे पता नहीं, सरपंचों के चुनाव नजदीक हैं?’’‘‘तो यह करामात सरपंच ने की है. ठीक है भाई, आप चलो. मैं अभी आता हूं… उठा लूंगा. फिर कभी नहीं डालूंगा,’’ कह कर कालू मेहतर ने अपना पिंड छुड़़ाया.उस के चले जाने पर कुछ देर तो कालू मेहतर हैरानपरेशान सा बैठा रहा.

फिर गांव के लोगों के पास चला गया. सभी लोग मंदिर के चबूतरे पर इकट्ठे हो गए.कालू मेहतर ने पंडितजी से कहा, ‘‘हड़खोरी पर कब्जा हो गया है, वहां लोगों ने प्लाट ले लिए हैं, मैं मरे पशुओं को कहां डालूंगा?’’पंडितजी ने कोई जवाब नहीं दिया. वे लोगों की शक्ल पहचानने में लगे थे. कुछ देर बाद कालू मेहतर ने फिर कहा, ‘‘पंडितजी, मैं जानवरों को कहां डालूंगा?’’

‘‘अरे कालू, पंडितजी क्या जवाब देंगे, इन्होंने खुद वहां प्लाट ले रखा है,’’ भीड़ में से एक आवाज आई.‘‘यदि यह सच है तो डूब मरो, पंडितजी डूब मरो. याद करो उस दिन को, जब अलादीन को 5 हाथ जमीन नहीं देने दे रहे थे और आज खुद हड़खोरी पर कब्जा कर रहे हो?’’ कालू ने गरम होते हुए कहा.‘‘अरे, बोलते क्यों नहीं पंडितजी, कहां गई आप की वह भक्ति? कहां है आप का वह धर्म, जो दूसरों को गलत काम न करने की सलाह देता है? चुल्लूभर पानी में डूब मरो… ‘धर्मात्मा’ हो कर भी 20-30 गज टुकड़े के लिए मर रहे हो. बोलो, मैं पशुओं को कहां डालूंगा?’’

कालू मेहतर ने तेज आवाज में कहा.‘‘भाई कालू, जो करेगा, वह भरेगा. तू कोई और काम देख ले,’’ भीड़ में से फिर वही आवाज आई.‘‘पंडितजी चुप क्यों हो? मेरी बातों का जवाब दो… या तो यह कब्जा छोड़ देना या अपनी मरी हुई भैंस हड़खोरी से उठा लाना और अपने घर, खेत में कहीं डाल लेना. मैं आइंदा यह काम नहीं करूंगा,’’ कह कर कालू मेहतर चला गया.

दिन छिप चुका था. अंधेरा भी हो चुका था. हवा जोरों से बह रही थी. किसी ने आ कर कालू मेहतर का दरवाजा खटखटाया.कालू मेहतर की छोटी लड़की ने दरवाजा खोला. 2 आदमी अंदर आ गए. कालू भी बरामदे में आ गया.कालू मेहतर को देखते ही पंडितजी ने कहा, ‘‘जय श्रीरामजी की.’’कालू मेहतर ने कोई जवाब नहीं दिया. वह खामोश बैठा पंडितजी के साथ आए सरपंच को सवालिया निगाहों से घूरता रहा. कुछ पल बीतने पर पंडितजी ने कहा, ‘‘यह लो कालू, संभालो.’’‘‘क्या है?’’ कालू मेहतर ने बेरुखी से पूछा.

‘‘प्लाट का पट्टा और 20,000 रुपए हैं. देखो, हड़खोरी वाले मामले को अब मत उछालना,’’ कहते हुए पंडितजी ने दोनों चीजें कालू को पकड़ाईं.‘‘मुझे इन से कोई सरोकार नहीं. आप की चीजें आप को मुबारक हों,’’ कहते हुए कालू मेहतर ने दोनों चीजें वापस करनी चाही.तभी सरपंच बोल उठा, ‘‘देखो कालू, गांव की राजनीति बड़ी घटिया होती है. उस में टांग अड़ा कर तुझे कुछ नहीं मिलेगा, उलटे तू उजड़ जाएगा.’’‘‘मुझे राजनीति से कोई मतलब नहीं. मैं तो हड़खोरी को टुकड़ों में बंटा नहीं देखना चाहता.

मुझे या तो हड़खोरी चाहिए या इस काम से नजात.’’‘‘भाड़ में जाए तारी हड़खोरी. तू ने मैला ढोने का ठेका ले रखा है क्या? इन पैसों से कोई और काम देख लेना.’’‘‘नहीं सरपंच साहब, मैं बिक नहीं सकता. अपने हक के लिए मैं कचहरी का दरवाजा खटखटाऊंगा,’’ कालू मेहतर ने इतमीनान से कहा.‘‘वहां तो तू हारेगा. पहले तो दानवीर कर्ण बन कर अपनी मंजूरशुदा हड़खोरी की जमीन गांव को दान में दे चुका है. और अब वाली हड़खोरी की जमीन पंचायत की है. इस जमीन पर पट्टे बांटने का पंचायत को पूरा हक है.

‘‘वैसे भी केस लड़ना कोई बच्चों का खेल नहीं. उस में पैसा भी पानी की तरह बहेगा, जो मेरी औकात की बात नहीं. हड़खोरी के लिए सारे पट्टे वालों से दुश्मनी मोल ले लेगा क्या? ये सब पट्टेदार गांव के पैसे वाले लोग हैं,’’ सरपंच ने धौंस जमाई.‘‘ठीक है सरपंच साहब, मैं एक गरीब आदमी हूं, लेकिन मेरा जमीर इस बात की गवाही नहीं देता. मैं चांदी के चंद टुकड़ों के बदले जमीर नहीं बेच सकता.

मैं मरे पशुओं की खाल नोचता हूं, मैला ढोता हूं, फिर भी इनसान हूं. इनसानियत मेरा धर्म है और इसी नाते मैं ने पुरानी हड़खोरी गांव को दे कर झगड़ा मिटाया था.‘‘अब अगर आप अपना धर्म बेच रहे हो तो बेचो, पर मैं अपना धर्म, ईमान नहीं बेचूंगा. ये लो अपने रुपए और ये रहा आप का पट्टा,’’ कहते हुए कालू मेहतर ने रुपए सरपंच की ओर फेंक दिए और पट्टे के टुकड़ेटुकड़े कर के हवा में उड़ा दिए.सरपंच और पंडितजी के चेहरे देखने लायक थे. शायद उन की हेकड़ी निकल चुकी थी.

आन का फैसला : एक जमींदार की जिद

हालांकि फैसला सुनाते समय बिंदा प्रसाद उर्फ ‘भैयाजी’ का मन उन्हें धिक्कार रहा था, पर हमेशा की तरह उन्होंने अपने मन की आवाज को यों ही चिल्लाने दिया. इस मन के चक्कर में ही उन के हालात आज ऐसे हो गए हैं कि अब गांव में उन्हें कोई पूछता तक नहीं है. वे अब गांव के मुखिया नहीं थे, पर जब उन के पिताजी मुखिया हुआ करते थे, तब शान ही कुछ और थी.कामती भले ही छोटा सा गांव था, पर एक समय में इस गांव में बिंदा प्रसाद के पिताजी गया प्रसाद की हुकूमत चलती थी.

वे अपनी नुकीली मूंछों पर ताव देते हुए सफेद धोतीकुरते पर पीला गमछा डाल कर जब अपनी बैठक के बाहर दालान में बिछे बड़े से तख्त पर बैठते थे, तो लोगों का मजमा लग जाता था.गांव में किसी के भी घर में कोई भी अच्छाबुरा काम होता, तो वह उस की इजाजत सब से पहले गया प्रसाद से ही लेने आता था. गया प्रसाद हां कह देते तो हां और अगर उन्होंने न कह दिया तो फिर किसी की मजाल नहीं कि कुछ कर ले.

वे कहीं नहीं जाते थे, दिनभर अपने तख्त पर बैठेबैठे हुक्म बजाते रहते थे.बिंदा प्रसाद को याद है कि एक बार उन के पिताजी गया प्रसाद को शहर की ओर जाना था. बहुत दिनों बाद वे घर से निकल रहे थे. तांगा अच्छी तरह सजा कर तैयार कर दिया गया था.

गया प्रसाद को सिर्फ तांगे की सवारी ही पसंद थी. वैसे तो उन के घर पर एक कार भी थी, जिसे बाकी लोग ही इस्तेमाल किया करते थे, पर वे कभी उस में नहीं बैठे थे. गया प्रसाद का तांगा गांव के रास्ते से निकला. थोड़ा सा आगे सड़क के किनारे बने किसी घर की कंटीली बाड़ से उन का कुरता फट गया और वे आगबबूला हो गए.

उस घर में रहने वाला परिवार गया प्रसाद के पैरों पर लोट गया और माफी की गुहार लगाता रहा.गया प्रसाद ने उस परिवार को माफ भी कर दिया, पर उन्होंने शहर जाना छोड़ कर सब से पहले अपने आदमियों को बुला कर सड़क के किनारे लगी उस बाड़ को हटवाया.गांव के बहुत सारे लोग, जो रोजाना इस परेशानी से जूझ रहे थे, उन्होंने गया प्रसाद के इस काम के लिए उन का शुक्रिया अदा किया.गया प्रसाद जब तक जिंदा रहे, तब तक उन की शान बनी रही, पर उन के गुजर जाने के बाद धीरेधीरे इस शान में ग्रहण लगता चला गया.

इस के बाद बिंदा प्रसाद को मुखिया बनाया गया, पर सब उन्हें ‘भैयाजी’ कहते थे. वे अपने पिताजी से अलग थे. वे चूड़ीदार कुरतापाजामा और उस के ऊपर काली बंडी पहनते थे. वे हलकी दाढ़ीमूंछ रखते थे, जो उन्हें रोबीला बनाती थी.काफी दिनों तक तो लोग ‘भैयाजी’ को भी वैसे ही स्नेह देते रहे और उन से पूछ कर ही हर काम करते रहे, पर बाद में यह कम हो गया.

गांव के बच्चे शहर पढ़ने जाते थे और वहां से कुछ नया सीख कर आते थे. बच्चियां भी साइकिल से पढ़ने जाती थीं. शासन उन्हें साइकिल से ले कर ड्रैस तक दे रहा था.नए बच्चों में बिंदा प्रसाद की इस अघोषित गुलामी की प्रथा को ले कर गुस्सा पनप रहा था. पर ‘भैयाजी’ की नसों में जो खून दौड़ रहा था, वह इस सब को स्वीकार नहीं कर पा रहा था.‘भैयाजी’ के अपने बच्चे भी बाहर पढ़ रहे थे. वे अपने पिताजी को समझाते थे कि अब जमाना बदल गया है. कोई किसी का गुलाम नहीं है.

अपनी इज्जत बनाए रखनी है, तो इन के साथ मिल कर चलो.दूसरी तरफ ‘भैयाजी’ की बढ़ती उम्र के साथ गांव के लोग उन से अब पंचायत भी नहीं करा रहे थे. ज्यादातर मामले वे अपनी समाज की पंचायत में ही सुलझा लेते या फिर ग्राम पंचायत में बैठक हो जाती. ‘भैयाजी’ इसे अपनी शान के खिलाफ मान रहे थे. वे दिनभर तख्त पर बैठे रहते, पर 2-4 लोगों को छोड़ कर कोई उन से मिलने तक नहीं आता था.

गांव की एक सरोज काकी की एकलौती बेटी सावित्री ने कालेज में फर्स्ट आ कर गोल्ड मैडल जीता था. गांव में जश्न मनाया गया. सावित्री के साथ पढ़ने वाली लड़कियां भी गांव में आ कर इस जश्न में शामिल हुईं. बड़ीबड़ी गाडि़यों में बैठ कर कालेज के प्रोफैसर और अखबार वाले भी आए. सावित्री देखते ही देखते हीरो बन गई थी. ‘भैयाजी’ को भी सरोज काकी ने जश्न में बुलाया था, पर वे नहीं गए.

कल ही ‘भैयाजी’ की शादी के बाद पहली बार गांव में किसी और दूल्हे ने घोड़ी पर बैठ कर बरात निकाली थी. डीजे भी बज रहा था और जनरेटर से रोशनी भी की जा रही थी. ‘भैयाजी’ से यह सब बरदाश्त नहीं हो रहा था. उन्होंने उसे रोकने की कोशिश नहीं की. वे जानते थे कि ऐसा कर के वे कानूनी दांवपेंच में उलझ जाएंगे, पर उन के मन में एक टीस पैदा हो चुकी थी. वे अपनी और अपने पुरखों की हो रही इस बेइज्जती को सहन नहीं कर पा रहे थे. उन का मन अब काम में भी नहीं लगता था.

वैसे, ‘भैयाजी’ की खेतीकिसानी बहुत थी. दर्जनों नौकरचाकर काम करते थे. ‘भैयाजी’ खेत तो कभीकभार ही जाते थे, पर हिसाबकिताब पुख्ता रखते थे. मजाल है कि कोई उन की इजाजत के बिना एक बोरा भूसा भी ले जाए.भैयाजी की सारी खेतीकिसानी तख्त पर बैठेबैठे ही हो जाती थी. पहले दिनभर लोगों का आनाजाना लगा रहता था, पर अब उन की बैठक व्यवस्था खत्म सी हो चुकी है, तब उन्हें दिन काटना मुश्किल जान पड़ने लगा. वे इस का कुसूर गांव वालों और शहर में पढ़ रहे नौजवानों पर डालते थे.रामलाल ‘भैयाजी’ का खासमखास था. वह बचपन से उन के साथ साए की तरह लगा रहता था.

रामलाल को भी गांव के लोगों की यह अनदेखी सहन नहीं हो रही थी. वह मालिक को उदास देखता तो उस का खून खौलने लगता. धीरेधीरे उस के मन का गुस्सा भयानक रूप लेता जा रहा था.‘भैयाजी’ सरोज काकी के अलावा गांव के कुछ और लोगों को सबक सिखाने का मन बना चुके थे. वे जानते थे कि उन्हें कुछ ऐसा करना ही पड़ेगा कि गांव में उन की इज्जत फिर पहले जैसी हो जाए. वे इस के लिए कुछ भी करने को तैयार थे.मनसुख गांव का ईमानदार और मेहनती आदमी था.

कभी उस के पिताजी ‘भैयाजी’ के घर का गोबर डाला करते थे, पर मनसुख ने जब से होश संभाला, उस के परिवार ने तरक्की करनी शुरू कर दी थी.मनसुख गांव में गल्ला खरीदता और मंडी में ले जा कर बेच देता था. उस ने इस धंधे से ही पैसे कमाए थे. गांव वाले उस की ईमानदारी से खुश रहते थे. वह गांव के लोगों की मदद दिल खोल कर करता था. इस वजह से गांव में उस की बहुत इज्जत थी.‘भैयाजी’ ने मनसुख को अपने निशाने पर लिया था. मनसुख सरंपच का सगा भाई था.

‘भैयाजी’ एकसाथ कई निशाने लगाने की योजना में थे. सरोज काकी मनसुख के धंधे में मदद करती थीं. उन्हें भी दो पैसे मिल जाते थे. उन के पास यही एकमात्र रोजगार का साधन था. ज्यादा उम्र न तो मनसुख की हुई थी और न ही सरोज काकी की. इस वजह से ‘भैयाजी’ को उन के बारे में अफवाह फैलाने में कोई परेशानी भी नहीं हुई.‘भैयाजी’ तो गांव में कहीं आतेजाते नहीं थे, सो रामलाल ने गलीगली खबर फैलाने की जिम्मेदारी ले ली और इस अफवाह को पंख लग गए.

सरोज काकी ने मनसुख के यहां आनाजाना बंद कर दिया. कुछ ही दिन में मनसुख का धंधा चौपट हो गया. मनसुख इसे सहन नहीं कर पाया. गांव के लोगों को भरी दोपहरी में उस की लाश एक पेड़ से लटकी मिली.देखते ही देखते मनसुख के खुदकुशी कर लेने की खबर पूरे गांव में फैल गई. गांव वाले पुलिस के चक्कर में पड़ना नहीं चाहते थे, बल्कि यों कहें कि रामलाल ने खुदकुशी के मामले में पुलिस किस तरह से लोगों को परेशान कर सकती है की ऐसी भयानक कहानी गांव वालों को सुनाई थी कि गांव वाले इस मामले को गांव में ही निबटा लेने में भलाई समझने लगे थे.

सालों बाद गांव के लोगों को ‘भैयाजी’ की याद आई. ‘भैयाजी’ का मन फूला नहीं समा रहा था, पर उन्होंने गांव वालों की इस गुजारिश को साफ शब्दों में ठुकरा दिया. गांव वाले निराश हो कर लौटने भी लगे, पर रामलाल ने हालात को संभाला और अपनी सेवाओं की दुहाई दे कर ‘भैयाजी’ से पंचायत करने की इजाजत ले ली.रामलाल को लगा कि आज उस ने मालिक का कर्ज अदा कर दिया और ‘भैयाजी’ को लगा कि रामलाल को खिलानापिलाना काम आ गया.पंचायत ‘भैयाजी’ के दालान में ही लगी. गांव के सारे लोग जमा हुए. सरोज काकी को बुलाया गया और सरपंच को भी.

सरपंच ने सारा कुसूर सरोज काकी पर मढ़ दिया. हालांकि उसे ऐसा करने की सलाह खुद ‘भैयाजी’ ने ही दी थी. सरपंच उन की गिरफ्त में आ चुका था.सरोज काकी के साथ कोई नहीं था. वे औरत थीं, इस वजह से वे बहुत खुल कर अपनी बात रख भी नहीं पाईं. सारा माहौल ऐसा बन गया था कि लोग उन के खिलाफ नजर आने लगे.‘भैयाजी’ की चाल कामयाब हो गई थी.

अब उन्हें अपना फैसला देने में कोई परेशानी नहीं थी. वे जानते थे कि लोग सरोज काकी के खिलाफ फैसला सुनना चाहते हैं और अगर वे ऐसा ही फैसला देंगे, तो गांव वालों की नजरों में उन की इज्जत बढ़ जाएगी.‘भैयाजी’ ने बहुत सोचनेविचारने के बाद कहा, ‘पंचायत सावित्री की मां को मनसुख की खुदकुशी के लिए कुसूरवार मानती है और फैसला देती है कि सावित्री की मां यानी सरोज काकी का दानापानी बंद किया जाता है और उसे गांव में घुसने की भी इजाजत नहीं होगी.’’पंचायत ऐसे ही फैसले का इंतजार कर रही थी.

इस वजह से किसी को भी कोई हैरत नहीं हुई सिवा रामलाल के, जो मुखिया का सब से खास राजदार था.‘भैयाजी’ को लग रहा था कि उन्होंने अपनी हारी हुई बाजी अपने हाथ में कर ली थी. सरपंच तो उन की चपेट में आ ही चुका था, गांव वाले भी उन के फैसले से खुश थे. सो, देरसवेर वे भी उन को सलाम करने लगेंगे.पर ऐसा हुआ नहीं. सरोज काकी को पंचायत के फैसले के हिसाब से गांव छोड़ना था.

वे इस की तैयारी भी कर रही थीं कि तभी सावित्री अपने दलबल के साथ वहां आ पहुंची. सावित्री को एकाएक अपने सामने देख कर सरोज काकी की आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली. सावित्री को सारे मामले की जानकारी तो पहले ही हो चुकी थी. इस वजह से तो वह गांव में आई थी.सावित्री अब बड़ी सरकारी अफसर बन चुकी थी. पुलिस उस के साथ रहती थी.

‘भैयाजी’ पुलिस के नाम से ही घबरा गए थे.सावित्री ने ‘भैयाजी’ की उम्र का लिहाज किया और बोली, ‘‘देखो अंकल, मैं चाहती तो अब तक आप सलाखों के पीछे होते, पर मैं आप की उम्र का लिहाज कर रही हूं. ‘‘मां को तो मैं अपने साथ ले जा रही हूं, पर आप को चेतावनी भी देती जा रही हूं कि भविष्य में ऐसा कुछ भी मत दोहराना, वरना…’’‘भैयाजी’ की बाजी पलट गई. वे मुंह लटकाए खड़े रह गए.

हिमशिला : एक मां की चुप्पी

उस ने टैक्सी में बैठते हुए मेरे हाथ को अपनी दोनों हथेलियों के बीच भींचते हुए कहा, ‘‘अच्छा, जल्दी ही फिर मिलेंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘जरूर मिलेंगे,’’ और दूर जाती टैक्सी को देखती रही. उस की हथेलियों की गरमाहट देर तक मेरे हाथों को सहलाती रही. अचानक वातावरण में गहरे काले बादल छा गए. ये न जाने कब बरस पड़ें? बादलों के बरसने और मन के फटने में क्या देर लगती है? न जाने कब की जमी बर्फ पिघलने लगी और मैं, हिमशिला से साधारण मानवी बन गई, मुझे पता ही नहीं चला. मेरे मन में कब का विलुप्त हो गया प्रेम का उष्ण सोता उमड़ पड़ा, उफन पड़ा.

मेरी उस से पहली पहचान एक सैमिनार के दौरान हुई थी. मुख पर गंभीरता का मुखौटा लगाए मैं अपने में ही सिकुड़ीसिमटी एक कोने में बैठी थी कि ‘हैलो, मुझे प्रेम कहते हैं,’ कहते हुए उस का मेरी ओर एक हाथ बढ़ा था. मैं ने कुछकुछ रोष से भरी दृष्टि उस पर उठाई थी, ‘नमस्ते.’ उस के निश्छल, मुसकराते चेहरे में न जाने कैसी कशिश थी जो मेरे बाहरी कठोर आवरण को तोड़ अंतर्मन को भेद रही थी. मैं उस के साथ रुखाई से पेश न आ सकी. फिर धीरेधीरे 3 दिन उस के बिंदास स्वभाव के साथ कब और कैसे गुजर गए, मालूम नहीं. मैं उस की हर अदा पर मंत्रमुग्ध सी हो गई थी. सारे दिनों के साथ के बाद अंत में अब आज विदाई का दिन था. मन में कहींकहीं गहरे उदासी के बादल छा गए थे. उस ने मेरे चेहरे पर नजरें गड़ाए हुए मोहक अंदाज में कहा, ‘अच्छा, जल्दी ही फिर मिलेंगे.’

उस के हाथों की उष्णता अब भी मेरे तनबदन को सहला रही थी. मुझे आश्चर्य हो रहा था कि क्या मैं वही वंदना हूं, जिसे मित्रमंडली ने ‘हिमशिला’ की उपाधि दे रखी थी? सही ही तो दी थी उन्होंने मुझे यह उपाधि. जब कभी अकेले में कोई नाजुक क्षण आ जाता, मैं बर्फ सी ठंडी पड़ जाती थी, मुझ पर कच्छप का खोल चढ़ जाता था. पर क्या मैं सदा से ही ऐसी थी? अचानक ही बादलों में बिजली कड़की. मैं वंदना, भोलीभाली, बिंदास, जिस के ठहाकों से सारी कक्षा गूंज उठती थी, मित्र कहते छततोड़, दीवारफोड़ अट्टहास, को बिजली की कड़क ने तेजतेज कदम उठाने को मजबूर कर दिया. तेज कदमों से सड़क मापती घर तक पहुंची. हांफते, थके हुए से चेहरे पर भी प्रसन्नता की लाली थी. दरवाजा मां ने ही खोला, ‘‘आ गई बेटी. जा, जल्दी कपड़े बदल डाल. देख तो किस कदर भीग गई.’’

‘‘अच्छा मां,’’ कह कर मैं कपड़े बदलने अंदर चली गई.

मेरे हाथ सब्जी काट रहे थे पर चारों ओर उसी के शब्द गूंज रहे थे, ‘बधाई, वंदनाजी. आप के भाषण ने मुझे मुग्ध कर लिया. मन ने चाहा कि गले लगा लूं आप को, पर मर्यादा के चलते मन मसोस कर रह जाना पड़ा.’ उस के गले लगा लूं के उस भाव ने मेरे होंठों पर सलज्ज मुसकान सी ला दी. मां चौके में खड़ी कब से मुझे देख रही थीं, पता नहीं. पर उन की अनुभवी आंखों ने शायद ताड़ लिया था कि कहीं कुछ ऐसा घटा है जिस ने उन की बेटी को इतना कोमल, इतना मसृण बना डाला है.

‘‘बीनू, कौन है वह?’’

मैं भावलोक से हड़बड़ा कर कटु यथार्थ पर आ गई,  ‘‘कौन मां? कोई भी तो नहीं है?’’

‘‘बेटी, मुझ से मत छिपा. तेरे होंठों की मुसकान, तेरी खोईखोई नजर, तेरा अनमनापन बता रहा है कि आज जरूर कोई विशेष बात हुई है. बेटी, मां से भी बात छिपाएगी?’’

मैं ने झुंझला कर कहा, ‘‘क्या मां, कोई बात हो तो बताऊं न. और यह भी क्या उम्र है प्रेमव्रेम के चक्कर में पड़ने की.’’ मां चुपचाप मेरी ओर निहार कर चली गईं. उन की अनुभवी आंखें सब ताड़ गई थीं. मैं दाल धोतेधोते विगत में डूब गई थी. कालेज से आई ही थी कि मां का आदेश मिला, ‘जल्दी से तैयार हो जाओ. लड़के वाले तुम्हें देखने आ रहे हैं.’

‘मां, इस में तैयार होने की क्या बात है? देखने आ रहे हैं तो आने दो. मैं जैसी हूं वैसी ही ठीक हूं. गायबैल भी क्या तैयार होते हैं अपने खरीदारों के लिए?’

पिताजी ने कहा, ‘देख लिया अपनी लाड़ली को? कहा करता था कालेज में मत पढ़ाओ, पर सुनता कौन है. लो, और पढ़ाओ कालेज में.’

मैं ने तैश में आ कर कहा, ‘पिताजी, पढ़ाई की बात बीच में कहां से आ गई?’

मां ने डपटते हुए कहा, ‘चुप रह, बड़ों से जबान लड़ाती है. एक तो प्रकृति ने रूप में कंजूसी की है, दूसरे तू खुद को रानी विक्टोरिया समझती है? जा, जैसा कहा है वैसा कर.’ इस से पहले मेरे रूपरंग पर किसी ने इस तरह कटु इंगित नहीं किया था. मां के बोलों से मैं आहत हो उन की ओर देखती रह गई. क्या ये मेरी वही मां हैं जो कभी लोगों के बीच बड़े गर्व से कहा करती थीं, ‘मैं तो लड़केलड़की में कोई फर्क ही नहीं मानती. बेटी के सुनहले भविष्य की चिंता करते हुए मैं तो उसे पढ़ने का पूरा मौका दूंगी. जब तक लड़कियां पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाएंगी, समाज से दहेज की बुराई नहीं जाने की.’

आज वही मां मेरे रूपरंग पर व्यग्ंय कर रही हैं, इसलिए कि मेरा रंग दबा हुआ सांवला है, मेरे बदन के कटावों में तीक्ष्णता नहीं है, मुझे रंगरोगन का मुलम्मा चढ़ाना नहीं आता, आज के चमकदमक के बाजार में इस अनाकर्षक चेहरे की कीमत लगाने वाला कोई नहीं. आज मैं एक बिकाऊ वस्तु हूं. ऐसी बिकाऊ वस्तु जिसे दुकानदार कीमत दे कर बेचता है, फिर भी खरीदार खरीदने को तैयार नहीं. ये सब सोचतेसोचते मेरी आंखों में आंसू भर आए थे. मैं ने अपनेआप को संयत करते हुए हाथमुंह धोया, 2 चोटियां बनाईं, साड़ी बदली और नुमाइश के लिए  खड़ी हो गई. दर्शकों के चेहरे, मुझे देख, बिचक गए.

औपचारिकतावश उन्होंने पूछा, ‘बेटी, क्या करती हो?’

‘जी, मैं बीए फाइनल में हूं.’

मुझे ऊपर से नीचे तक भेदती हुई उन की नजरें मेरे जिस्म के आरपार होती रहीं, मेरे अंदर क्रोध का गुबार…सब को सहन करती हुई मैं वहां चुपचाप सौम्यता की मूर्ति बनी बैठी थी. एकएक पल एकएक युग सा बीत रहा था. मैं मन ही मन सोच रही थी कि ऐसा अंधड़ उठे…ऐसा अधंड़ उठे कि सबकुछ अपने साथ बहा ले जाए. कुछ बाकी न रहे. अंत में मां के संकेत ने मेरी यातना की घडि़यों का अंत किया और मैं चुपचाप अंदर चली गई.

‘रुक्मिणी, उन की 2 लाख रुपए नकद की मांग है. क्या करें, अपना ही सोना खोटा है. सिक्का चलाने के लिए उपाय तो करना ही पड़ेगा न. पर मैं इतने रुपए लाऊं कहां से? भविष्य निधि से निकालने पर भी तो उन की मांग पूरी नहीं कर सकता.’ मां ने लंबी सांस भरते हुए कहा, ‘जाने भी दो जी, बीनू के बापू. यही एक लड़का तो नहीं है. अपनी बेटी के लिए कोई और जोड़ीदार मिल जाएगा.’ फिर तो उस जोड़ीदार की खोज में आएदिन नुमाइश लगती और इस भद्दे, बदसूरत चेहरे पर नापसंदगी के लेबल एक के बाद एक चस्पां कर दिए जाते रहे. लड़के वालों की मांग पूरी करने की सामर्थ्य मेरे पिताजी में न थी.

देखते ही देखते मैं ने बीए प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर लिया और मां के सामने एमए करने की इच्छा जाहिर की. पिताजी तो आपे से बाहर हो उठे. दोनों हाथ जोड़ कर बोले, ‘अब बस कर, बीए पढ़ कर तो यह हाल है कि कोई वर नहीं फंसता, एमए कर के तो हमारे सिर पर बैठ जाएगी.’ मेरी आंखों में आंसू झिलमिला उठे. मां ने मेरी बिगड़ी बात संवारी,‘बच्ची का मन है तो आगे पढ़ने दीजिए न. घर बैठ कर भी क्या करेगी?’ रोज ही एक न एक आशा का दीप झिलमिलाता पर जल्दी ही बुझ जाता. मां की उम्मीद चकनाचूर हो जाती. आखिर हैं तो मातापिता न, उम्मीद का दामन कैसे छोड़ सकते थे.

मैं ने अब इस आघात को भी जीवन की एक नित्यक्रिया के रूप में स्वीकार कर लिया था. पर इस संघर्ष ने मुझे कहीं भीतर तक तोड़मरोड़ दिया था. मेरी वह खिलखिलाहट, वे छतफोड़, दीवार तोड़ ठहाके धीरेधीरे बीते युग की बात हो गए थे. मेरे विवाह की चिंता में घुलते पिताजी को रोगों ने धरदबोचा था. नियम से चलने वाले मेरे पिताजी मधुमेह के रोगी बन गए थे, पर मेरे हाथ में कुछ भी न था. मैं अपनी आंखों के सामने असहाय सी, निरुपाय सी उन्हें घुलते देखती रहती थी. अपनी लगन व मेहनत से की पढ़ाई से मैं एमए प्रथम वर्ष में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हो गई. फाइनल में पहुंची कि एक दिन ट्रक दुर्घटना में पिताजी के दोनों पैर चले गए. मां तो जैसे प्रस्तर शिला सी हो गईं. घर की दोहरी जिम्मेदारी मुझ पर थी. मैं पिताजी का बेटा भी थी और बेटी भी. मैं ने ट्यूशनों की संख्या बढ़ा ली. पिताजी को दिलासा दिया कि जयपुरी कृत्रिम पैरों से वे जल्द ही अपने पैरों पर चलने में समर्थ हो सकेंगे. सब ठीक हो जाएगा. एमए उत्तीर्ण करते ही मुझे कालेज में नौकरी मिल गई.

धीरेधीरे जिंदगी ढर्रे पर आने लगी थी. मेरे तनाव कम होने लगे थे. कभी किसी ने मुझ से मित्रता करनी चाही तो ‘भाई’ या ‘दादा’ के मुखौटे में उसे रख कर अपनेआप को सुरक्षित महसूस करती. किसी की सहलाती हुई दृष्टि में भी मुझे खोट नजर आने लगता. एक षड्यंत्र की बू सी आने लगती. लगता, मुझ भद्दी, काली लड़की में किसी को भला क्या दिलचस्पी हो सकती है?

और उस पर मांपिताजी की नैतिकता के मूल्य. कभी किसी सहकर्मी को साथ ले आती तो पिताजी की आंखों में शक झलमला उठता और मां स्वागत करते हुए भी उपदेश देने से नहीं चूकतीं कि बेटा, बीनू के साथ काम करते हो? बहुत अच्छा. पर बेटा, हम जिस परिवार में, जिस समाज में रहते हैं, उस के नियम मानने पड़ते हैं. हां, मैं जानती हूं बेटा, तुम्हारे मन में खोट नहीं पर देखो न, हम तो पहले ही बेटी की कमाई पर हैं, फिर दुनिया वाले ताने देते हैं कि रोज एक नया छोकरा आता है. बीनू की मां, बीनू से धंधा करवाती हो क्या?

मां के उपदेश ने धीरेधीरे मुझे कालेज में भी अकेला कर दिया. खासकर पुरुष सहकर्मी जब भी देखते, उन के मुख पर विद्रूपभरी मुसकान छा जाती. मुझे मां पर खीझ होने लगती थी. यह नैतिकता, ये मूल्य मुझ पर ही क्यों आरोपित किए जा रहे हैं? मैं लोगों की परवा क्यों करूं? क्या वे आते हैं बेवक्त मेरी सहयता के लिए? बेटी की कमाई का ताना देने वालों ने कितनी थैलियों के मुंह खोल दिए हैं मेरे सामने? एक अकेले पुरुष को तो समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता? ये दोहरे मापदंड क्यों?

कई बार मन विद्रोह कर उठता था. इन मूल्यों का भार मुझ से नहीं उठाया जाता. सब तोड़ दूं, झटक दूं, तहसनहस कर दूं, पर मांपिताजी के चेहरों को देख मन मसोस कर रह जाती. वंदनाजी, आप हमेशा इतने तनाव में क्यों रहती हैं? मैं जानता हूं, इस कठोर चेहरे के पीछे स्नेहिल एक दिल छिपा हुआ है. उसे बाहर लाइए जो सब को स्नेहिल कर दे. ‘वंदनाजी नहीं, बीनू’ मेरे मुंह से सहसा निकल गया. प्रेम शायद मेरे दिल की बात समझ गया था.

‘बीनू, इस बार दिल्ली आओ तो अपने कार्यक्रम में 4 दिन बढ़ा कर आना. वे 4 दिन मैं तुम्हारा अपहरण करने वाला हूं.’ प्रेम की ये रसीली बातें मेरे कानों में गूंज उठतीं और मैं अब तक की तिक्तता को भूल सी जाती. मेरे अंतर की स्रोतस्विनी का प्रवाह उमड़ पड़ने को व्याकुल हो उठा है. उसे अब अपना लक्ष्य चाहिए ‘प्रेम का सागर.’ नहींनहीं, अब वह किसी वर्जना, किसी मूल्य के फेर में नहीं अटकने वाली. वह तो उन्मुक्त पक्षी के समान अपने नीड़ की ओर उड़ना चाहती है. कोई तो है इस कालेभद्दे चेहरे की छिपी आर्द्रता को अनुभूत करने वाला. आज बादल भी तो कितनी जोर से बरस रहे हैं. बरसो…बरसो…बरसो न मेरे प्रेमघन…मेरा पोरपोर भीग जाए ऐसा रस बरसो न मेरे प्रेमघन.

मेरी बेचारी वाचलिस्ट: हर घर की कहानी

आजघर के काम से थोड़ा जल्दी फ्री हो गई तो सोचा, चलो अब आराम से लेट कर आईपैड पर ‘मैरिड वूमन’ देखूंगी. जैसे ही कानों में इयरफोन लगा कर आराम से लेट कर पोज बनाया, शिमोली अंदर आई. मैं इसी घड़ी से बच रही थी. पता नहीं कैसे सूंघ लेते हैं ये बच्चे कि मां कुछ देखने लेटी है.

उस ने बहुत ही ऐक्ससाइटेड हो कर पूछा, ‘‘वाह मम्मी, क्या देखने लेटीं?’’

‘‘मैरिड वूमन.’’

शिमोली को करंट सा लगा, ‘‘क्या? आप ‘मेड’ नहीं देखेंगी जो मैं ने आप को बताई थी?’’

‘‘देखूंगी बाद में.’’

‘‘मुझे पता था जो आदिव बताता है वह तो फौरन देख लेती हैं आप.’’

‘‘अरे, फौरन कहां देखती हूं कुछ? इतना टाइम मिलता है क्या?’’

‘‘मम्मी, मुझे कुछ नहीं पता, आप पहले ‘मेड’ देखो. इतने सारे शोज बता रखे हैं आप को, आप को उन की वैल्यू ही नहीं. एक तो अच्छेअच्छे शोज बताओ, ऊपर से आप देखने के लिए तैयार ही नहीं होतीं. मैं ही आप को बताने में अपना टाइम खराब करती हूं.’’

‘‘शिमो बेटा, मेरी सारी फ्रैंड्स ने ‘मैरिड वूमन’ शो देख लिया है, मुझे भी देखनी है.’’

‘‘मतलब मेरे बताए शोज की कोई वैल्यू

ही नहीं?’’

‘‘अरे, देख लूंगी बाद में.’’

‘‘मुझे पता है अभी आदिव आप को कोई शो बताएगा, आप देखने बैठ जाएंगी.’’

वहशिमोली ही क्या जो मुझे अपनी पसंद का शो दिखाए बिना चैन से बैठ जाए, मेरे हाथ से आईपैड ले कर फौरन ‘मेड’ का पहला ऐपिसोड लगा कर दे दिया और बोली, ‘‘पहले यह देखो.’’

अब जितना टाइम था मेरे पास, उस में से काफी तो इस बातचीत में खत्म हो चुका था. मैं ‘मेड’ देखने लगी. ‘मैरिड वूमन’ आज फिर रह गया था. यह कोई आज की बात ही थोड़े ही है. यह तो मेरे मां होने के रोज के इम्तिहान हैं जो मेरे दोनों बच्चे शिमोली और आदिव लेते रहते हैं.

मैं ने अनमनी सी हो कर शो रोका और सोचने लगी कि मेरी वाचलिस्ट में कितने शोज हो चुके हैं जो मुझे देखने हैं पर कितने दिनों से देख ही नहीं पा रही. होता यह है कि आदिव और शिमोली जो शोज देखते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है, दोनों चाहते हैं कि मैं भी जरूर देखूं. पसंद दोनों की अलगअलग है.

दोनों यही चाहते हैं कि मैं उन्हीं का बताया शो देखूं और सितम यह भी कि मुझे उस शो की तारीफ भी करनी है जो उन्हें पसंद आया हो. अगर कभी कह दो कि उतना खास तो नहीं लगा मुझे तो सुनने को मिलता है कि आप की पसंद ही नीचे की हो गई है, पता नहीं अपनी फ्रैंड्स के बताए हुए कौनकौन आम से शोज देखने लगी हूं. मतलब तुम्हारी पसंद खास, मेरी आम.

बहुत नाइंसाफी है, भई. इंसान बाहर वालों से ज्यादा अच्छी तरह निबट लेता है पर शिमोली और आदिव से डील करना मैनेजमैंट के एक पूरे कोर्स को पास करना है.

पिछले दिनों आदिव के कहने पर ‘कोटा फैक्टरी’ के दोनों सीजन देखे, उसे जीतेंद्र पसंद है तो मां का फर्ज बनता है कि वे भी शो देखे और हर ऐपिसोड पर वाहवाह करें और बेटे को थैंक्स बोल कर कहें कि वाह बेटा, तुम ने मुझे कितना अच्छा शो दिखाया नहीं तो मैं दुनिया से ऐसे ही चली जाती.

मेरी सहेली रोमा का एक दिन फोन आया. बोली, ‘‘‘बौलीवुड बेगम’  देखा? नहीं देखा तो फौरन देख ले… मजा आ गया.’’

मैं जब यह शो देखने बैठी, एक ही ऐपिसोड देखा था कि आदिव आया, बोला, ‘‘छोड़ो मम्मी, मैं बताता हूं आप को एक अच्छा शो.’’

मैं ने कहा, ‘‘यह भी अच्छा

है, अभी शुरू किया है, अच्छा लग रहा है.’’

‘‘अरे, नहीं मम्मी, आप के पास टाइम है तो देखो. रुको, मैं ही लगा कर देता हूं.’’

देखते ही देखते ‘बौलीवुड बेगम’ चला गया और सामने था ‘जैकरायान.’

यह टाइम भी तो वर्कफ्रौम होम का है, सब बाहर जाएं तो

कुछ अपनी पसंद का चैन से देखा जाए पर नहीं, पता नहीं कैसे कुछ भी देखना शुरू करते ही सब अपनीअपनी पसंद बताने आ जाते हैं. अरे, भई, मेरी भी एक बेचारी वाचलिस्ट है जो मुझे आवाजें देती रहती है. बच्चों की तो छोड़ो, बच्चों के पापा वीर भी कहां कम हैं.

उन्हें ऐक्शन फिल्म्स पसंद हैं तो वे चाहते हैं कि जब वे देखें तो मैं उन की पसंद की मूवी देखने में अपनी हसीं कंपनी दूं, उन्हें अच्छा लगता है अपनी पसंद की मूवी में मेरा साथ. जब गाडि़यां हवा में उड़ रही होती हैं, मेरा मन करता है कि किसी कोने में बैठ कर कानों में इयरफोन लगाऊं और आराम से कोई अपनी पसंद का शो देख लूं. कोशिश भी की तो वीर ने फरमाया, ‘‘अरे, नैना आओ न, तुम ने सुना नहीं? साथ मूवी देखने से प्यार बढ़ता है, एकदूसरे के साथ टाइम बिताने का यह अच्छा तरीका है, आओ न.’’

मन कहता है अरे, वीर इंसान. अकेले क्यों नहीं देख लेते एक्शन फिल्म. इस में भी कंपनी चाहिए? कोविड के टाइम रातदिन साथ बिता कर साथ रहने में कोई कसर रह गई है क्या? मुझे सस्पैंस वाली मूवीज या रोमांटिक कौमेडी अच्छी लगती है, बच्चे ऐसी मूवीज के नाम भी बताते हैं पर दोनों के बीच यह कंपीटिशन खूब चलता  है कि मम्मी किस के बताए हुए शो को देख रही हैं.

यह अच्छा नया तरीका है सिबलिंगरिवेलरी का. पुराना तरीका अच्छा नहीं था जहां बस इतने में निबट जाता था कि मम्मी ने किसे 1 लगाया, किसे 2? किसे ज्यादा डांट पड़ी, किसे कम. अब उस दिन मुझे ‘होस्टेजिस’ देखना था, हाय. रानितराय. जमाने से फैन हूं उस की. पर इतनी आसानी से कहां देख पाई, दोनों से प्रौमिस करना पड़ा कि ‘होस्टेजिस’ खत्म करते ही ‘अवेंजर्स’ और ‘द इंटर्न’ देखूंगी. देखे भी. अच्छे थे. पर मेरी अपनी लिस्ट का क्या? जब रानितराय का ‘कैंडी’ आया, मुझे न चाहते हुए भी साफसाफ कहना ही पड़ा कि अब मैं इसे देख कर ही कुछ और देखूंगी, जब तक वे शो खत्म नहीं किए, दोनों मुझे ऐसे देख रहे थे कि कोई गुनाह कर रही हूं.

अपना टाइम खराब कर रही हूं, परेशानी असल में इस बात की है कि बच्चे बड़े हो जाएं तो उन से इन छोटीछोटी बातों के लिए उलझा नहीं जाता. लगता है कि छोटी सी फरमाइस ही तो कर रहे हैं कि हमारी पसंद का शो देख लो पर इस चक्कर में अपनी वाचलिस्ट तो लंबी होती जा रही है न.

देखिए, जितनी छोटी यह प्रौब्लम सुनने में लग रही है न, उतनी है नहीं. देखने का टाइम कम हो, शोज की लिस्ट लंबी हो, दूसरों की लिस्ट उस से भी लंबी हो कि मुझे क्याक्या दिखाना है, बताइए, कितना मुश्किल है मैनेज करना. अपनी लिस्ट, शिमोली की लिस्ट, आदिव की लिस्ट, वीर की लिस्ट. मेरी अपनी बेचारी लिस्ट.

मैं यही सब सोच रही थी कि शिमोली की आवाज आई, ‘‘मम्मी, यह क्या आंखें बंद किएकिए क्या सोचने में अपना टाइम खराब कर दिया? एक भी ऐपिसोड खत्म नहीं किया ‘मेड’ का? ओह. सो डिसअपौइंटिंग. आप से एक शो ठीक से नहीं देखा जाता.’’

मैं ने कहा, ‘‘बस, मूड ही

नहीं हुआ. पता नहीं क्याक्या सोचती रह गई.’’

वह मेरे पास ही लेट गई, पूछा, ‘‘क्या सोचने लगीं मम्मी?’’

‘‘बेचारी के बारे में सोच

रही थी.’’

‘‘कौन बेचारी?’’

‘‘मेरी बेचारी वाचलिस्ट.’’

उस ने पहले मुझे घूरा, फिर हम दोनों एकसाथ जोर से हंस पड़ीं.

लाल गुलाब : विजय की मौत कैसे हुई

जयपुर रेलवे स्टेशन पर ‘अजमेरदिल्ली शताब्दी’ ट्रेन खड़ी थी. आकाश तेजी से कदम बढ़ाता हुआ कंपार्टमैंट में चढ़ा. अपनी सीट पर बैठने लगा तो उस की नजर बराबर की सीट पर बैठी एक प्यारी सी 3 साल की बच्ची पर पड़ी, जो एक औरत के साथ बैठी थी.

औरत को गौर से देखते ही आकाश चौंक उठा. उस के मुंह से निकला, ‘‘माधवी…’’

माधवी ने जैसे ही आकाश की ओर देखा तो वह भी चौंक उठी और बोली, ‘‘अरे, आप?’’

एकदूसरे को देख कर उन दोनों के चेहरे पर खुशी बढ़ गई.

‘‘बड़ी प्यारी बच्ची है. क्या नाम है इस का?’’ आकाश ने बच्ची की ओर देख कर पूछा.

‘‘सोनम.’’

‘‘बहुत प्यारा नाम है,’’ आकाश ने कहा और बच्ची के सिर पर हाथ फेरा.

‘‘कहां से आ रहे हैं आप?’’ माधवी ने पूछा.

‘‘कंपनी के काम से मैं जयपुर आया था. और तुम?’’

‘‘मैं भी मौसेरी बहन की शादी में जयपुर आई थी.’’

रात के 8 बजने को थे. ट्रेन चल दी.

आज आकाश और माधवी अचानक ही 7-8 साल बाद मिले थे. दोनों के

मन में बहुत से सवाल उठ रहे थे. तभी सोनम ने माधवी के कान में कुछ कहा और माधवी उसे वाशरूम की तरफ ले कर चल दी.

आकाश सीट पर सिर लगा कर आराम से बैठ गया और आंखें बंद कर लीं. भूलीबिसरी यादें फिर से ताजा होने लगीं.

आकाश जब कंप्यूटर इंजीनियरिंग कर चुका था, उस ने अपने एक दोस्त की शादी में माधवी को पहली बार देखा था. माधवी की खूबसूरती पर वह मरमिटा था.

आकाश ने अपने उस दोस्त से ही माधवी के बारे में पता कर लिया था. वह अभी एमए में पढ़ रही थी. परिवार में मातापिता व एक छोटा भाई था. पिता का अपना कारोबार था.

आकाश माधवी से मिलना और उस से बात करना चाहता था, पर समझ नहीं पा रहा था कि कैसे मिले?

एक दिन आकाश स्कूटर पर किसी काम से जा रहा था, तभी उस ने देखा कि सड़क के एक किनारे खड़ी स्कूटी पर माधवी किक मार रही थी, पर वह स्टार्ट नहीं हो रही थी.

आकाश ने माधवी के निकट अपना?स्कूटर रोक कर पूछा था, ‘क्या हुआ माधवीजी?’

अपना नाम सुनते ही माधवी चौंक उठी थी. वह उस की ओर गौर से देख रही थी, पहचानने की कोशिश कर रही थी. वह बोली थी, ‘मैं ने आप को पहचाना नहीं मिस्टर…?’

‘आकाश नाम है मेरा. आप मेरी भाभी की सहेली हैं. मेरे दोस्त का नाम राजन है. मैं ने आप को राजन की शादी में देखा था. मैं इस समय आप की मदद करना चाहता हूं. आगे चौक पर स्कूटर मिस्त्री की दुकान है. आप मेरा स्कूटर ले जाइए. मैं आप की स्कूटी पैदल ले कर पहुंच रहा हूं. यह हम से स्टार्ट नहीं होगी. इसे मिस्त्री ही ठीक करेगा,’ आकाश ने कहा था.

माधवी मना नहीं कर सकी थी और उस का स्कूटर ले कर मिस्त्री की दुकान पर पहुंच गई थी.

कुछ देर बाद आकाश भी स्कूटी धकेलता हुआ मिस्त्री की दुकान पर जा पहुंचा था.

स्कूटर ठीक करा कर चलते हुए माधवी ने खुश होते हुए कहा था, ‘थैंक्स मिस्टर आकाश.’

इस के बाद दोनों की मुलाकातें बढ़ने लगी थीं. वे दोनों शादी कर के घर बसाने के सपने देखने लगे थे.

एक दिन माधवी की उदासी में डूबी आवाज मोबाइल पर सुनाई दी थी, ‘आकाश, शाम को पटेल पार्क में मिलना.’

‘क्या बात है माधवी? तुम बहुत उदास लग रही हो,’ आकाश ने पूछा था.

‘हां आकाश, पापा ने हमारी शादी को मना कर दिया है.’

‘क्यों?’

‘वे कहते हैं कि हम अपनी बिरादरी में ही शादी करेंगे. मम्मी को तो मैं ने किसी तरह मना लिया था, पर पापा नहीं माने. उन का कहना है कि हमारी जाति ऊंची है. मेरे पापा जातबिरादरी और छुआछूत को बहुत मानते हैं.’

‘अब क्या होगा माधवी?’

‘सारी बातें फोन पर नहीं होंगी. मैं शाम को पार्क में मिलती हूं.’

शाम को आकाश पार्क में पहुंच कर बेसब्री से माधवी का इंतजार करने लगा.

कुछ देर बाद माधवी पार्क में आई और उदास लहजे में बोली, ‘अब क्या होगा आकाश?’

‘मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए.’

‘अब तो एक ही उपाय है कि हम दोनों घर से भाग कर कोर्ट मैरिज कर लें.’

‘वह सब तो ठीक है, लेकिन माधवी मैं अभी बेरोजगार हूं. जल्दी से नौकरी मिलती कहां है? बहुत कंपीटिशन है. हमें घर से नहीं भागना है. औलाद के घर से भागने पर मांबाप को बहुत बेइज्जती सहनी पड़ती है.

‘जिन मातापिता ने हमें पालपोस कर बड़ा किया, हमें पढ़ायालिखाया, हमारी हर जरूरत पूरी की, हम उन को  बेइज्जत क्यों महसूस होने दें,’ आकाश ने माधवी को समझाते हुए कहा था.

‘मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती.’

‘माधवी, एक बात जान लो कि हर प्रेमी को उस की मंजिल नहीं मिलती. हम ने हमेशा साथ रहने का वादा किया था, पर मजबूरी है कि मैं इस वादे को पूरा नहीं करा पा रहा हूं.’

कुछ देर बाद दोनों भारी मन से पार्क से बाहर निकले थे.

आकाश नौकरी की खोज में लग गया था. एक साल बाद उसे आगरा में एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी मिल गई थी.

‘‘क्या सोच रहे हैं आप?’’ माधवी ने वाशरूम से सोनम के साथ आते ही पूछा.

‘‘पुरानी यादों में खो गया था.’’

‘‘अब तो बस यादें ही रह गई हैं.’’

‘‘सोनम के पापा का क्या नाम है?’’

‘‘विजय.’’

‘‘तुम यहां अकेली आई हो? उन को शादी में साथ नहीं लाई?’’

‘‘वे नहीं रहे. एक साल पहले उन का एक्सिडैंट हो गया था.’’

‘‘ओह…’’ आकाश के मुंह से निकला. उस ने माधवी की तरफ देखा. उस का चेहरा भी कुछ कमजोर सा हो गया था. चेहरे का रंगरूप और आकर्षण भी काफी ढल चुका था.

कुछ पल के लिए वे दोनों चुप हो गए, फिर आकाश ने पूछा, ‘‘माधवी, मुझे आगरा में एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी मिल गई थी. एक दिन राजन ने बता दिया कि तुम्हारी शादी हो चुकी है और शादी के बाद तुम दिल्ली पहुंची गई हो.

‘‘मैं फोन कर के तुम्हारी शादीशुदा जिंदगी में आग नहीं लगाना चाहता था, इसलिए मैं ने मोबाइल से तुम्हारा नंबर ही हटा दिया था, पर मैं तुम्हें दिल से नहीं भुला पाया.’’

माधवी बोल उठी, ‘‘जब तुम नौकरी करने आगरा चले गए तो पापा ने हमारी बिरादरी के ही एक लड़के विजय से मेरी शादी कर दी. मैं ने कोई खिलाफत नहीं की.

‘‘विजय दिल्ली में एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे. परिवार में केवल उन की मां थीं. वे सिगरेट, शराब और गुटके के बहुत शौकीन थे. देखने में खूबसूरत थे, पर दिल काला था. रोजाना शराब पीना, गाली देना और कठोर शब्द बोलना उन की आदत में शामिल था. कभीकभार वे मारपीट भी कर देते थे.

‘‘न जाने किस ने हमारे बारे में विजय को बता दिया था. बस, फिर क्या था. बातबात में मुझे ताने दिए जाने लगे.

‘‘एक रात तकरीबन 10 बजे थे. उस समय सोनम केवल एक साल की थी. पता नहीं, क्या हो गया था उसे, वह रो रही थी. वह चुप ही नहीं हो रही थी. मैं उसे सुलाने की कोशिश कर रही थी कि तभी विजय ने मुझे घूरते हुए कहा था, ‘अबे, इसे अपने यार के पास छोड़ आ, जिस की निशानी है यह.’

‘‘मैं ने भी तुरंत कह दिया था, ‘नहीं, यह तो आप की बेटी है.’

‘‘पर, वे नहीं माने और बोले, ‘रहने दे झूठी कहीं की. मैं तेरा विश्वास तब करूंगा, जब तू यह जलती सिगरेट अपने सीने से लगा लेगी.’

‘‘मैं ने भी आव देखा न ताव और कह दिया, ‘मैं यह भी कर सकती हूं.’

‘‘यह कहते हुए मैं ने जलती सिगरेट अपने सीने से लगा ली. जलन और दर्द के चलते मुंह से चीख निकल रही थी, पर मैं सब दुखदर्द चुपचाप पी गई थी.

‘‘उस रात मैं सो नहीं पाई थी. सारी रात रोती रही कि प्रेम करने की ऐसी सजा उन को ही मिलती है, जिन की प्रेमी से शादी नहीं हो पाती.

‘‘इस का भी विजय पर कोई असर नहीं पड़ा था. ताने और गाली उसी तरह चलती रही.

‘‘एक दिन मैं मायके आई, तो मैं ने पापा से कहा था, ‘पापाजी, अब तो आप बहुत खुश होंगे कि आप ने अपनी बेटी की शादी अपनी बिरादरी में ही की है. अब तो आप की खूब इज्जत हो रही होगी. भले ही बेटी तड़पतड़प कर मर जाए.’

‘‘यह कहते हुए मैं ने पापा को छाती पर सिगरेट के जलने के निशान दिखाए. देखते ही मम्मीपापा की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘पापा ने भर्राई आवाज में कहा था, ‘बेटी, मैं तेरा गुनाहगार हूं. मेरी बहुत बड़ी भूल रही कि मैं ने विजय के बारे में पता नहीं कराया. बस मेरी आंखों पर तो बिरादरी में शादी करने की पट्टी बंधी थी. वह इतना बेरहम होगा, कभी सपने में भी नहीं सोचा था.’

‘‘तभी मम्मी रोते हुए बोली थीं, ‘बेटी, तुम वहां दुखी रहती हो और हम यहां तेरे बारे में सोच कर दुखी हैं. कभीकभी तो रात को सो भी नहीं पाते. भला जिस मातापिता की बेटी ससुराल में दुखी हो, वे रात को आराम से कैसे सो सकते हैं.’

‘‘तभी पापा ने कहा था, ‘बस बेटी, अब और सहन नहीं करेगी तू. अब तुझे वहां जाने की भी जरूरत नहीं है. मैं उस जालिम से तेरा पीछे छुड़ा दूंगा. 1-2 दिन में वकील से तलाक लेने की बात करता हूं.’

‘‘मैं चुप रही. मुझे लगा कि अब पापा का फैसला ठीक है.

‘‘2 दिन बाद ही मुझे मोबाइल पर सूचना मिली कि हरिद्वार जाते समय विजय की कार का एक्सिडैंट हो गया और वे चल बसे.

‘‘विजय के मरने का मुझे जरा भी दुख नहीं हुआ. विजय की मां भी 3 महीने बाद चल बसीं.

‘‘मुझे उसी कंपनी में नौकरी मिल गई. अब तो मैं अपनी बेटी के साथ चैन से रह रही हूं,’’ माधवी ने अपने बारे में बताया.

यह सुन कर आकाश कुछ सोचने लगा.

‘‘तुम अपने बारे में कुछ नहीं बताओगे क्या? पत्नी का क्या नाम है? बच्चों के क्या नाम हैं?’’ माधवी ने पूछा.

आकाश ने लंबी सांस छोड़ कर कहना शुरू किया, ‘‘माधवी, तुम्हारी शादी हो जाने के बाद मैं ने भी शादी कर ली. पत्नी के रूप में आई माधुरी उस की एक बड़ी बहन थी मीनाक्षी. वह माधुरी से 5 साल बड़ी थी. उस का पति काफी अमीर था. अच्छाखासा कारोबार था.

‘‘मैं ने सोचा भी नहीं था कि माधुरी की इच्छाएं इतनी ऊंची हैं. वह हमेशा कह देती कि इतनी छोटी सी नौकरी में जिंदगी कैसे चलेगी? जीजाजी की तरह कोई कारोबार कर लो.

‘‘माधुरी के जीजा प्रदीप ने माधुरी पर अपनी धनदौलत का ऐसा सुनहरा जाल फेंका कि वह उस में उलझती चली गई. वह जब देखो, अपने जीजा की ही तारीफ करती रहती.

‘‘एक दिन मैं ने गुस्से में कह दिया, ‘जब जीजा ही इतना प्यारा लगता है तो उस से ही शादी कर लेनी चाहिए थी.’

‘‘इस पर वह बोली, ‘शादी कैसे कर लेती? वहां तो पहले ही मेरी बहन है.’

‘‘मैं ने झल्ला कर कहा, ‘रखैल बन जाओ उस की और मेरा पीछा छोड़ो.’

इस पर माधुरी ने बुरा सा मुंह बना कर कहा था, ‘मैं भी तुम जैसे इनसान के साथ नहीं रहना चाहती, जो कभी अपनी तरक्की के बारे में न सोचे.’

‘‘उस दिन के बाद मुझे माधुरी से नफरत हो गई थी. धीरेधीरे माधुरी और प्रदीप के बीच की दूरी घटती चली गई. वह कभी भी प्रदीप के पास पहुंच जाती.

‘‘एक दिन माधुरी एक चिट्ठी लिख कर घर से चली गई. चिट्ठी में लिखा था, ‘मैं अब यहां नहीं रहना चाहती. यहां रहते हुए मैं अधूरी जिंदगी जी रही हूं. मुझे यहां अजीब सी घुटन हो रही है. तुम मेरी इच्छाएं कभी पूरी नहीं कर सकते हो. मैं अपने जीजा के पास जा रही हूं. मुझे वापस बुलाने की कोशिश भी मत करना.’

‘‘मैं जानता था कि यह तो एक दिन होना ही था. मैं ने अदालत में तलाक का केस कर दिया. एकडेढ़ साल के बाद मुझे तलाक मिल गया. बस, तब से मैं अकेला ही रह रहा हूं माधवी.’’

तकरीबन 11 बजे ट्रेन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर रुकी.

स्टेशन से बाहर निकल कर आकाश ने एक आटोरिकशा किया और माधवी से कहा, ‘‘बैठो माधवी, रात का समय है. मैं तुम दोनों को अकेले नहीं जाने दूंगा.’’

माधवी भी मना नहीं कर सकी. करोलबाग में एक मकान के बाहर आटोरिकशा रुका. माधवी उतर कर बोली, ‘‘आइए…’’

‘‘नहीं माधवी, फिर कभी. मैं ने तुम्हारा मोबाइल नंबर ले लिया है. फोन पर बात हो जाएगी,’’ आकाश ने कहा और आटोरिकशा वाले को चलने का संकेत किया.

2 दिन बाद रविवार था. सुबह के 7 बज रहे थे. माधवी अलसाई सी लेटी हुई थी. बगल में सोनम सो रही थी.

मोबाइल की घंटी बजने लगी. माधवी ने फोन उठा कर देखा कि आकाश का फोन था. वह बोली, ‘‘हैलो…’’

‘माधवी, जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाएं,’ उधर से आवाज आई.

यह सुनते ही माधवी चौंक उठी. वह तो अपना जन्मदिन भी भूल गई थी. यहां आ कर तो बहुतकुछ भूल गई. लेकिन आकाश को याद रहा. उस के चेहरे पर खुशी फैल गई. वह बोली, ‘‘आप को याद रहा मेरा जन्मदिन…’’

‘बहुत सी बातें भूली नहीं जातीं. उन को भुलाने की नाकाम कोशिश की जाती है. मैं 10 बजे के बाद आऊंगा.’

‘‘ठीक है. मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी.’’ माधवी ने कहा.

तकरीबन साढ़े 10 बजे आकाश माधवी के मकान पर पहुंचा. उस के हाथों में गहरे लाल रंग के गुलाब के फूल थे.

गुलाब देखते ही माधवी की आंखों की चमक बढ़ गई.

चाय पीते हुए आकाश ने माधवी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘देखो माधवी, मैं ने सपने में भी नहीं न सोचा था कि तुम से कभी इस तरह मुलाकात हो पाएगी. इस बीच इतने साल हम दोनों को ही पता नहीं क्याक्या सहन करना पड़ा. मैं तुम्हें अपनाना चाहता हूं.’’

माधवी चुप रही. वह आकाश की ओर गौर से देखने लगी.

‘‘माधवी, तब हमारे सामने मजबूरी थी, पर अब ऐसा नहीं है और फिर बेटी सोनम को भी तो पापा का लाड़प्यार चाहिए. अब हम दोनों को जिंदगी के रास्ते पर अकेले नहीं साथसाथ चलना है,’’ आकाश ने कहा.

माधवी ने मुसकरा कर हामी भर दी. उसे लग रहा था, मानो आज वह किसी पंछी की तरह आसमान में उड़ान भर रही है.

लाश की सवारी : टैक्सी ड्राइवर की कहानी

टैक्सी ड्राइवर को उस सवारी पर शक हुआ था. उस की हरकतें ही कुछ वैसी थीं. उस सवारी ने एयरपोर्ट जाने के लिए टैक्सी बुक कराई थी.

मुमताज हुसैन नाम से उस के ऐप पर बुकिंग हुई थी. इस से पहले कि ड्राइवर जीपीएस की मदद से वहां पहुंचता, तभी मुमताज हुसैन का फोन आ गया था, ‘‘हैलो, आप कहां हो?’’

‘‘बस 2 मिनट में लोकेशन पर पहुंच जाऊंगा,’’ टैक्सी ड्राइवर ने जवाब दिया था और 2 मिनट बाद ही वह उस के लोकेशन पर पहुंच भी गया था.

टैक्सी किनारे कर टैक्सी ड्राइवर उस के टैक्सी में आने का इंतजार करने लगा. उस ने किनारे खड़े लड़के को गौर से देखा.

मुमताज हुसैन तकरीबन 20-22 साल का लड़का था. बड़ी बेचैनी से वह उस का इंतजार कर रहा था. हर आनेजाने वाली टैक्सी को बड़े ही गौर से देख रहा था. खासकर टैक्सी की नंबरप्लेट को वह ध्यान से देखता था.

जैसे ही उस की टैक्सी का नंबर मुमताज हुसैन ने देखा, उस के चेहरे पर संतोष के भाव आ गए. वह सूटकेस उठाने में दिक्कत महसूस कर रहा था. टैक्सी ड्राइवर ने टैक्सी से उतर कर सूटकेस उठाने में उस की मदद की.

ड्राइवर ने सूटकेस रखने के लिए कार की डिक्की खोली थी, पर मुमताज हुसैन उसे अपने साथ पिछली सीट पर ले कर बैठना चाहता था.

ड्राइवर को सूटकेस काफी वजनी लगा था. शायद कोई कीमती चीज थी उस में, जिस के चलते वह उसे अपने साथ ही रखना चाहता था. ठीक भी है. कोई अपने कीमती सामान को अपनी नजर के सामने रखना चाहेगा ही.

दोनों ने साथ उठा कर सूटकेस को टैक्सी की पिछली सीट पर रखा था. टैक्सी की पिछली सीट पर मुमताज हुसैन उस सूटकेस पर ऐसे हाथ रख कर बैठा था मानो हाथ हटाते ही कोई उस सूटकेस को ले भागेगा.

जीपीएस औन कर ड्राइवर ने एयरपोर्ट की ओर गाड़ी मोड़ दी. बैक व्यू मिरर में वह मुमताज हुसैन को बीचबीच में देख लेता था. उस के चेहरे पर बेचैनी थी. वह किसी गहरी सोच में डूबा हुआ था.

वह थोड़ा घबराया हुआ भी लग रहा था. रास्ते में उस ने पहले बेलापुर चलने को कहा. इस से पहले कि अगले मोड़ पर वह टैक्सी को मोड़ पाता, उस ने उसे कुर्ला की ओर चलने का आदेश दिया.

टैक्सी ड्राइवर को उस के बरताव पर शक हुआ. कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है, तभी तो यह कभी यहां तो कभी वहां जाने के लिए कह रहा है.

मलाड से गुजरते हुए मुमताज हुसैन ने टैक्सी रुकवाई. उसे भुगतान कर वह सूटकेस किसी तरह उठा कर एक झड़ी की ओर गया.

टैक्सी ड्राइवर का मुमताज हुसैन पर शक गहरा हो गया. बुकिंग एयरपोर्ट के लिए करवा कर पहले उस ने उसे बेलापुर जाने को कहा, फिर कुर्ला और अब मलाड में उतर गया. कुछ तो गड़बड़ है इस लड़के के साथ.

ड्राइवर नई बुकिंग के इंतजार में वहीं रुक गया और एक ओर गाड़ी खड़ी कर के मुमताज हुसैन की हरकतों पर ध्यान रखने लगा. थोड़ी ही देर में वह चौंक गया.

मुमताज हुसैन ने सूटकेस वहीं झड़ी की ओट में छोड़ एक आटोरिकशा पकड़ लिया और वहां से चल दिया.

कोई भी आदमी अपना सूटकेस छोड़ कर क्यों भागेगा भला? वह भी उस सूटकेस को, जिसे वह डिक्की में न रख कर अपने पास रख कर लाया था. कहीं वह भी किसी झमेले में न पड़ जाए क्योंकि उस लड़के ने उस की टैक्सी को मोबाइल फोन से बुक कराया था. वैसे भी किसी लावारिस सामान की जानकारी पुलिस को देनी ही चाहिए. हो सकता है, सूटकेस में बम हो या बम बनाने का सामान हो या फिर किसी और चीज की स्मगलिंग की जा रही हो.

ड्राइवर ने तुरंत पुलिस को फोन किया और पूरी जानकारी दी. कुछ ही देर में पुलिस वहां पहुंच गई.

पुलिस ने सूटकेस खोला तो उस में एक लड़की की जैसेतैसे मोड़ कर रखी गई लाश मिली. उस के सिर पर जख्मों के निशान थे, जो ज्यादा पुराने नहीं लग रहे थे.

पुलिस ने टैक्सी कंपनी से उस के संबंध में जानकारी ली. वह उस टैक्सी सर्विस का काफी पुराना ग्राहक था. टैक्सी सर्विस से उस के बारे में काफी जानकारी मिली. पुलिस ने जल्दी ही उस की खोज की और 4 घंटे के अंदर वह पकड़ा गया. उस की मोबाइल लोकेशन से यह काम और आसान हो गया था.

पुलिस की सख्त पूछताछ में जो बातें सामने आईं, वे काफी चौंकाने वाली थीं. सूटकेस में जिस लड़की की लाश

थी, वह एक मौडल थी, मानसी. वह पिछले 3 सालों से मुंबई में रह रही थी और मौडलिंग के साथसाथ फिल्म और टैलीविजन की दुनिया में जद्दोजेहद कर रही थी. वह राजस्थान के कोटा शहर की रहने वाली थी. उस का ज्यादातर समय मुंबई में ही बीतता था.

मुमताज हुसैन हैदराबाद का रहने वाला था और एक हफ्ते से मुंबई में था. यहां एक अपार्टमैंट में एक कमरे का फ्लैट उस ने किराए पर ले रखा था, क्योंकि उस का काम के सिलसिले में मुंबई आनाजाना लगा रहता था.

वह एक फ्रीलांस फोटोग्राफर था और हैदराबाद की कई कंपनियों के लिए मौडलों की तसवीरें खींचा करता था. मानसी से भी किसी इश्तिहार के सिलसिले में उस की जानपहचान हुई थी.

मानसी का दोस्त सचिन भी उस इश्तिहार के फोटो शूट के लिए मानसी के साथ था. सचिन मानसी का पुराना दोस्त था और दोनों साथसाथ फिल्म, टीवी और विज्ञापन की दुनिया में पैर जमाने के लिए मेहनत कर रहे थे.

मानसी और सचिन में काफी नजदीकियां थीं. मुमताज हुसैन ने जब मानसी और सचिन की दोस्ती का मतलब यही निकाला कि मानसी सभी के लिए मुहैया है. उस ने इशारेइशारे में सचिन से इस बारे में बात भी की, पर सचिन ने मजाक में बात को उड़ा दिया.

सचिन के साथ मुमताज हुसैन का पहले से ही फोटो शूट के लिए परिचय था और उस के परिचय का फायदा उठा कर उस ने मानसी से भी नजदीकियां बढ़ाई थीं.

धीरेधीरे दोनों की दोस्ती बढ़ती चली गई थी. दोनों हमउम्र थे इसलिए फेसबुक, ह्वाट्सएप वगैरह पर लगातार दोनों में बातें होती रहती थीं.

मानसी शायद मुमताज हुसैन को सिर्फ एक परिचित के रूप में देखती थी, पर उस के मन में मानसी के बदन को भोगने की हवस थी. इसी के चलते उस ने उस से मेलजोल बनाए रखा था खासकर उस के मन में यह बात थी कि जब मानसी सचिन के लिए मुहैया है तो उस के लिए क्यों नहीं?

पर वह जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना चाहता था. धीरेधीरे उस ने मानसी से इतना परिचय बढ़ा लिया कि मानसी उस पर यकीन करने लगी.

उस दिन मुमताज हुसैन ने किसी बहाने मानसी को मुंबई में अपने फ्लैट पर बुलाया था. मानसी के पास कुछ खास काम नहीं था, इसलिए वह भी समय बिताने के लिए अपने इस फोटोग्राफर दोस्त के पास चली गई थी.

कुछ देर खानेपीने, इधरउधर की बातें करने के बाद मुमताज हुसैन बोला था, ‘‘मानसी, मैं जब से तुम से मिला हूं, तुम्हारा दीवाना हो गया हूं. मैं कई लड़कियों से मिला, पर कोई भी तुम्हारे टक्कर की नहीं.’’

‘‘इस तरह की बातें तो हर लड़का हर लड़की से करता है. इस में कुछ नया नहीं है,’’ मानसी ने हंस कर कहा था.

‘‘मैं सच बोल रहा हूं मानसी. तुम इसे मजाक समझ रही हो.’’

‘‘देखो मुमताज, हमारी दोस्ती एक फोटो शूट के जरीए हुई है. न मैं अपने कैरियर को संवार पाई हूं और न तुम. अच्छा होगा कि हम अपनाअपना कैरियर संभालें और दोस्त बन कर एकदूसरे की मदद करें.’’

‘‘वह सब तो ठीक है, पर आज तो सैक्स कौमन बात है. मैं तो तुम्हारे साथ सिर्फ सैक्स का मजा लेना चाहता हूं. वह भी सुरक्षित सैक्स. कहीं कोई खतरा नहीं. किसी को कोई भनक तक नहीं.

‘‘मुमताज, मैं वैसी लड़की नहीं हूं. मैं एक छोटे से शहर की रहने वाली हूं. कपड़े भले ही मौडर्न पहनती हूं और सोच से नई हूं, पर सैक्स मेरे लिए सिर्फ पतिपत्नी के बीच होने वाला काम है. मैं इस तरह का संबंध नहीं बना सकती. चाहे तुम मेरे दोस्त रहो या न रहो.’’

पहले तो मुमताज हुसैन ने बारबार उसे मनानेसम?ाने की कोशिश की थी, पर जब वह नहीं मानी तो उस के सब्र का बांध टूट गया और वह गुस्से से आगबबूला हो गया.

मुमताज हुसैन ने मानसी को धमकाया, ‘‘आज तुम्हें मेरी बात माननी पड़ेगी. राजीखुशी से मानो या फिर मेरी जबरदस्ती को मानो.’’

‘‘ऐसी गलतफहमी में मत रहना. यह देखो, मिर्च स्प्रे…’’ मानसी ने अपने पर्स से मिर्च स्प्रे निकाल कर उसे दिखाया, ‘‘कुछ देर के लिए तो तुम अंधे हो जाओगे और अपने गंदे इरादे को पूरा नहीं कर पाओगे. अगर अपना भला चाहते हो तो मेरे रास्ते से हट जाओ…’’

मुमताज हुसैन ने आव देखा न ताव नजदीक रखे लकड़ी के स्टूल को उस के सिर पर दे मारा. चोट सिर के ऐसे हिस्से में लगी कि कुछ ही देर में मानसी की मौत हो गई.

मुमताज हुसैन यह देख कर हक्काबक्का रह गया. उस का हत्या करने का हरगिज इरादा नहीं था. वह तो बस अपनी हवस को शांत करना चाहता था. घबराहट में वह कुछ सम?ा नहीं पा रहा था कि क्या करे.

मुमताज हुसैन कुछ सोच पाता, इस से पहले ही किसी ने डोरबैल की घंटी बजा दी. मैजिक आई से ?ांक कर उस ने देखा तो सचिन को वहां खड़ा पाया. गनीमत थी कि मानसी की लाश अंदर कमरे में पड़ी थी.

‘‘मानसी आई है क्या यहां?’’ सचिन ने पूछा.

‘‘नहीं तो,’’ मुमताज हुसैन घबरा कर बोला.

‘‘उस ने मुझे ह्वाट्सएप पर संदेश दिया था कि वह तुम्हारे घर आ रही है. मुझे इस ओर ही आना था इसलिए सोचा कि उसे भी साथ ले चलूं.’’

‘‘हां… हां… उस ने यहां आने को कहा था, पर किसी काम से नहीं आ पाई,’’ मुमताज हुसैन ने कहा.

‘‘पर, तुम तो घर में हो. तुम्हें इतना पसीना क्यों आ रहा है?’’ सचिन ने पूछा.

‘‘क… क… कुछ नहीं. थोड़ा वर्कआउट कर रहा था. आओ बैठो…’’ डरतेडरते मुमताज हुसैन ने कहा. वह सोच रहा था कि कहीं सचमुच ही सचिन अंदर न आ जाए.

‘‘अभी नहीं, समय पर स्टूडियो पहुंचना है, फिर कभी आऊंगा तो बैठूंगा. मानसी से मैं मोबाइल पर बात कर लूंगा. उसे भी स्टूडियो में किसी से मिलवाना था,’’ सचिन ने कहा और चलता बना.

मुमताज हुसैन ने जल्दी से दरवाजा बंद किया और अंदर रूम में जा कर सब से पहले मानसी का फोन स्वीच औफ किया. वह समझ सकता था कि लाश वहीं पड़ी रहेगी तो उस से बदबू आएगी और राज खुल जाएगा. आखिरकार लाश को ठिकाने लगाना जरूरी था. लेकिन, कैसे? यह उस की समझ में नहीं आ रहा था.

अपार्टमैंट के बाहर सिक्योरिटी गार्ड की चौकस ड्यूटी रहती थी. मुमताज हुसैन ने काफी सोचविचार के बाद फैसला किया कि एक बड़े से सूटकेस में लाश को ले कर कहीं छोड़ दिया जाए. कहीं और लाश मिलेगी तो पुलिस को उस पर शक नहीं होगा.

इसी योजना के तहत मुमताज हुसैन ने कार बुक की और मलाड में झड़ी के पास सूटकेस को छोड़ आया था, पर उस की चाल कामयाब नहीं हो पाई और घटना के 5-6 घंटे के अंदर ही वह पुलिस की गिरफ्त में था. थाने में बैठा मुमताज हुसैन सोच रहा था अपनी बदहाली की वजह. उस ने पाया कि उस की अनुचित मांग ही उस की इस हालत की वजह बनी.

दलदल : नौकरी के जंजाल में फंसा मोहनलाल

मोहनलाल की जब बैंक में नौकरी लगी, तो उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उसे बैंक की शेखपुर ग्रामीण ब्रांच में पहली पोस्टिंग मिली.

शहर में पलेबढ़े मोहनलाल को शेखपुर गांव की जिंदगी रास नहीं आई, पर गांव से शहर की किसी ब्रांच में तबादला कराना आसान नहीं था, इसलिए वह न चाहते हुए भी गांव में रहने के लिए मजबूर था, जहां बिजली, सड़कें, अच्छे घर और दूसरी बुनियादी जरूरतों की कमी थी.

बैंक में नौकरी मिलने के एक साल बाद ही मोहनलाल की शादी मोनिका से हो गई. मोनिका बहुत खूबसूरत थी और उतनी ही महत्त्वाकांक्षी भी. शादी के बाद वह 2 महीने तक मोहनलाल के मातापिता के साथ रही और फिर उस के साथ शेखपुर गांव चली गई.

मोनिका को शेखपुर गांव में रहना सजा काटने के बराबर लगा, पर बिना पति के साथ के रात काट पाना भी उस के लिए आसान नहीं था. वह मजबूर हो कर गांव में एकएक दिन काट रही थी और पति से अपना तबादला किसी शहरी ब्रांच में कराने की जिद कर रही थी.

मोहनलाल ने उसे सम?ाया कि बैंक के जितने मुलाजिम गांव की ब्रांचों में काम करते हैं, उन में से आधे से ज्यादा लोग अपना तबादला किसी शहरी ब्रांच में कराना चाहते हैं, इसलिए तबादले के लिए दी गई अर्जियों पर बैंक कोई ध्यान नहीं देता और यूनियन के नेता भी ऐसे तबादलों के केस अपने हाथ में नहीं लेते.

मोहनलाल ने मोनिका को यह भी बताया कि उस की तो अभी 2 साल की ही नौकरी हुई है, यहां तो 10-12 साल से लोग लगे हैं और अभी तक उन की अर्जियों पर कोई कार्यवाही नहीं हुई.

मोनिका के बारबार पूछने पर मोहनलाल ने बताया कि अगर जोनल मैनेजर चाहें, तो उस का तबादला शहर में हो सकता है.

मोनिका जिद कर के मोहनलाल के साथ जोनल मैनेजर से मिलने उन के घर पहुंच गई.

जोनल मैनेजर नरेश को जब मालूम हुआ कि मोहनलाल बैंक की शेखपुर ब्रांच में क्लर्क है, तो उन्हें उस का बिना इजाजत के घर आना बुरा लगा, पर मोनिका ने लपक कर उन के पैर छू लिए.जोनल मैनेजर नरेश ने एक निगाह मोनिका पर डाली, तो उस के तीखे नाकनक्श और कसी हुईर् देह देख कर उन के तेवर ढीले पड़ गए. मोनिका को आशीर्वाद देने के बहाने वे देर तक उस की नंगी पीठ सहलाते रहे. मोनिका भी निगाह नीची किए उन से सटी मुसकराती रही.

नरेश उन दोनों को घर के अंदर ले गए और नौकर से चाय लाने के लिए कहा. इस बीच मोनिका ने मोहनलाल के तबादले के लिए उन से गुजारिश की, जिसे नरेश ने उस की खूबसूरत देह को ललचाई नजर से घूरते हुए मान लिया.

मोहनलाल चुपचाप जमीन पर नजर गड़ाए बैठा रहा. जब वे लोग लौटने लगे, तो मोनिका ने जबरन नरेश के फिर से पैर छू लिए.

इस घटना के 15 दिन बाद जोनल मैनेजर नरेश शेखपुर ब्रांच का दौरा करने आए और रात को शेखपुर के डाक बंगले में रुकने का इंतजाम करने के लिए ब्रांच मैनेजर को निर्देश दिया. बैंक मैनेजर ने उन के रुकने का सारा इंतजाम करा दिया.

शाम को मोहनलाल बैंक से घर आया, तो उस ने नरेश के शेखपुर गांव आने की बात मोनिका को बताई. मोनिका ने मोहनलाल से कहा कि नरेशजी को डिनर के लिए अपने घर बुला लो.

मोहनलाल ने ऐसा ही किया, जिसे नरेश ने बिना किसी नानुकर के मान लिया. साथ ही शराब पीने का इंतजाम रखने का इशारा भी किया. उन्होंने उस से यह भी कहा कि वे रात को 9 बजे डाक बंगले पर पहुंच जाए.

रात के 9 बजे मोहनलाल जब डाक बंगले पर पहुंचा, तो नरेशजी उस का इंतजार कर रहे थे. उन्हें ले कर मोहनलाल घर पहुंचा, तो सजीधजी मोनिका ने दरवाजे पर उन का स्वागत किया.

फिर शराब का दौर चला. शुरू में तो मोहनलाल ?ि?ाका, मगर 2 पैग पीने के बाद ही वह खुल गया. इस के बाद नरेशजी के इशारा करने पर उस ने मोनिका को भी जबरदस्ती पैग पिला दिया. जब नरेशजी मस्ती में आ गए, तो डिनर हुआ. इस के बाद नरेशजी ने सिगरेट पीने की फरमाइश की. मोहनलाल सिगरेट लेने बाजार की ओर भागा.

इस बीच नरेशजी ने मोनिका की कमर में हाथ डाल दिया और उस की मांसल देह को सहलाने लगे.जब मोनिका ने उन की इस हरकत का कोई विरोध नहीं किया, तो उन की हिम्मत बढ़ गई. उन्होंने उसे खींच कर अपनी गोद में बैठा लिया और उन के हाथ तेजी से मोनिका की देह पर फिसलने लगे. कुछ ही देर में मोनिका के हाथ भी नरेशजी की देह में कुछ खोजने लगे.

जल्दी ही नरेशजी ने उसे उठा कर पलंग पर लिटा दिया. जब तक मोहनलाल लौटा, तब तक वे हलके हो कर कुरसी पर बैठ चुके थे. पर उन की तेज चल रही सांसों और मोनिका के गालों पर दांत के हलके निशान बीती हुई घटना की चुगली मोहनलाल से कर रहे थे.

मोहनलाल कुछ उदास हो गया, पर चलते समय जब नरेशजी ने उसे छाती से लगा कर कहा कि आज से तुम मेरे भाई जैसे हो, तो उस का दिल बल्लियों उछलने लगा.

नरेशजी ने जाते ही मोहनलाल के तबादले का आदेश जारी कर दिया. मोहनलाल और मोनिका अपने शहर के तबादले पर बेहद खुश थे. अब नरेशजी अकसर उस के घर आने लगे. शहर में मोहनलाल को बहुतकुछ मिला. उन के घर बेटी पैदा हुई और प्रमोशन में अफसर का पद भी मिल गया.

हां, प्रमोशन के लिए मोहनलाल को कई बार नरेशजी को डिनर के लिए अपने घर बुलाना पड़ा था और डिनर के बाद घर में सिगरेट होते हुए भी मोनिका के इशारे पर सिगरेट लाने के लिए उसे रात के 10-11 बजे के बाद बाजार जाना पड़ा था.क चतुर खिलाड़ी की तरह मोनिका ने मोहनलाल और नरेशजी दोनों को अपने इशारों पर नचाना शुरू कर दिया.

कुछ ही महीने बाद नरेशजी की पोस्टिंग दूसरे शहर में हो गई, पर मोनिका लगातार उन से मिलती रही और अपने पति के प्रमोशन और शहरी ब्रांचों में नियुक्ति का इंतजाम कराती रही. बदले में वह नरेशजी की खुल कर सेवा करती रही. मोहनलाल ने भी हालात से सम?ौता कर लिया था.

4 साल बाद नरेशजी दोबारा तबादला हो कर मोहनलाल के शहर में आ गए. अब उन की मेहरबानियां खुल कर मोनिका पर बरस रही थीं. यहां तक कि उन्होंने कई बड़े कर्ज भी उन के लिए मंजूर किए थे.

मोहनलाल के पास शहर में 2-2 मकान, बढि़या गाड़ी, नौकरचाकर सबकुछ था. उस के पुराने साथी अब भी बैंक में बाबू और बड़े बाबू के पद पर थे, जबकि वह मैनेजर बन गया था.

मोहनलाल की बेटी चेतना ने 12वीं जमात का इम्तिहान सैकंड डिविजन में पास किया, तो कालेज में दाखिला लेने के लिए किसी यूनिवर्सिटी में बात नहीं बनी. मजबूरन मोनिका को नरेशजी का सहारा लेना पड़ा और देखते ही देखते उस की बेटी को शहर के अच्छे कालेज में दाखिला मिल गया.

मोनिका के कहने पर नरेशजी ने दोपहर में उस के घर आना शुरू कर दिया.

ऐसे ही एक दिन जब नरेशजी मोनिका के घर में थे, तो कालेज में एक लड़की की मौत होने की वजह से जल्दी छुट्टी हो गई और मोनिका की बेटी चेतना 12 बजे ही घर पहुंच गई. घर का बाहरी दरवाजा खुला था.

चेतना ने बैग ड्राइंगरूम में रखा और फ्रिज से पानी की बोतल निकालने लगी, तभी उसे अपनी मां की चीख सुनाई दी. उस ने खिड़की से छिप कर देखा, तो दंग रह गई.

कुछ देर बाद मोनिका और नरेशजी जब कमरे से बाहर निकले, तो चेतना को ड्राइंगरूम में देख कर सकपका गए.

नरेशजी बिना कुछ बोले ही बाहर निकल गए और मोनिका ने खुद को घरेलू कामों में मसरूफ कर लिया.

एक दिन मोहनलाल घर लौट रहा था. रास्ते में उस ने देखा कि एक अधेड़ शख्स स्कूटर चला रहा था और चेतना उस के पीछे बैठी थी. वह अपने दोनों हाथों से उस अधेड़ शख्स को जकड़े हुए थी. शाम को घर आ कर मोहनलाल ने यह बात मोनिका को बताई. मोनिका ने अकेले में चेतना से पूछा, ‘‘आज तुम दोपहर में किस के साथ स्कूटर पर जा रही थीं?’’ चेतना ने बताया कि वह बायोलौजी पढ़ाने वाले सर के साथ थी. इस पर मोनिका ने पूछा, ‘‘तुम उन के साथ कहां गई थीं?’’ ‘‘फिल्म देखने.’’ ‘‘क्यों? तुम टीचर के साथ फिल्म देखने क्यों गई थीं?’’ ‘‘अरे मां, 30 नंबर का प्रैक्टिकल होता है. अगर सर खुश हो गए, तो 30 में से पूरे 30 नंबर भी दे सकते हैं. अगर वे चाहें, तो कैमिस्ट्री और फिजिक्स के टीचरों से भी प्रैक्टिकल में अच्छे नंबर दिला सकते हैं.’’‘‘तो प्रैक्टिकल में अच्छे नंबर पाने के लिए तुम अपनी इज्जत लुटा दोगी?’’ मोनिका ने चीखते हुए कहा. ‘‘क्यों मां, इस में बुराई क्या है? आखिर आप भी तो मनचाही चीजें पाने के लिए यही करती हैं,’’ चेतना ने मां को घूरते हुए कहा.

यह सुन कर मोनिका के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. उस का मुंह खुला का खुला रह गया. बैडरूम में चुपचाप बैठे मांबेटी की बात सुन रहे मोहनलाल का हाल भी कुछ ऐसा ही था. वे दोनों अपने ही बनाए गए दलदल में छटपटाने के लिए मजबूर थे.

दूसरा मर्द : दो नाव पर सवार श्यामली

श्यामली बैठ कर अखबार पढ़ने लगी. स्कूल के बच्चे बरामदे के पास घास पर बैठ कर दोपहर का खाना खाने लगे. मधुप भी अपना डब्बा खोलते हुए बोला, ‘‘श्यामलीजी, अब आ भी जाइए. खबरें तो बाद में भी पढ़ी जा सकती हैं. मुझे तो बड़ी जोर की भूख लगी है.’’

‘‘लेकिन मुझे भूख नहीं है. तुम खा लो,’’ अखबार से नजर हटाए बगैर श्यामली बोली.

‘‘इस का मतलब आज फिर अरुण से झगड़ा हुआ होगा?’’ मधुप ने श्यामली की उलझन समझते हुए पूछा.

‘‘हां… रात को वे देर से शराब पी कर आए. खाने में मिर्च कम होने पर तुनक पड़े और बेवजह मुझे मारने लगे,’’ कहते हुए श्यामली की आंखें भर आईं. बात जारी रखते हुए उस ने आगे बताया, ‘‘मैं रातभर सो न पाई. सुबहसुबह ही तो आंख लगी थी. अगर मैं जल्दी स्टेशन न आ पाती तो ट्रेन निकल जाती.’’

‘‘अब उठिए भी… मेरी मां ने आज वैसे ही ढेर सारा खाना रख दिया है,’’ मधुप ने कहा, तो श्यामली उस की बात टाल न सकी.

श्यामली को इस कसबे में नौकरी करते 5 साल बीत गए थे. वह सुबह 9 बजे तक अपने घर का सारा काम निबटा कर स्कूल आते समय साथ में खाने का डब्बा भी ले आती थी. उस का पति एक बैंक में क्लर्क था, जिस की सोहबत अच्छी नहीं थी. वह हमेशा नशे में धुत्त रहता था और अपनी बीवी की तनख्वाह पर नजर गड़ाए रहता था. जब कभी वह पैसा देने में आनाकानी करती, तब दोनों के बीच झगड़ा होता था.

एक तो रोजरोज रेलगाड़ी के धक्के खाना, ऊपर से स्कूल के बच्चों के साथ सिर खपाना, श्यामली बुरी तरह से थक जाती थी. उसे न घर में चैन था, न बाहर. उस के इस दुखभरे पलों को मुसकराहट में बदलने के लिए मधुप उस की जिंदगी में दाखिल हुआ था. वह उस के साथ ही नौकरी करता था.

मधुप भी उसी के शहर का रहने वाला था. रोजाना दोनों एक ही ट्रेन से साथसाथ आतेजाते थे. वे एकदूसरे में घुलमिल गए थे. श्यामली शादीशुदा थी, पर मधुप अभी कुंआरा था.

मधुप से श्यामली के घर की बात छिपी हुई नहीं थी. वह उस की दुखती रग को पहचान गया था. सोचना शायद उसे प्यार और हमदर्दी की जरूरत है, इसलिए वह उस की हिम्मत बढ़ाता रहता था.

तब श्यामली सोचती कि सब लोग एकजैसे नहीं होते. वह अपने मन की बात मधुप को बता कर हलकापन महसूस करती थी और उसे अपना हमराज मानने लगी थी.

एक दिन श्यामली तैयार हो कर बाहर निकली ही थी कि सामने मधुप को देख कर ठिठक गई.

‘‘क्या बात है?’’ श्यामली ने पूछा.

‘‘बाबूजी की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई है. उन्हें बाहर ले जाना होगा. यह छुट्टी की अर्जी रख लीजिए.’’

अर्जी देख कर श्यामली हैरान रह गई, फिर बोली, ‘‘क्या पूरे 15 दिन की छुट्टी ले रहे हो?’’

‘‘हां. डाक्टर ने सलाह दी है. अगर उन्हें आराम नहीं मिला, तो शायद और ज्यादा छुट्टी लेनी पड़ जाएं.’’

‘‘ठीक है,’’ कहते हुए श्यामली ने अर्जी अपने पास रख ली. वह मधुप को दूर तक जाते हुए देखती रही.

मधुप जब छुट्टी से लौट कर आया तो श्यामली खुशी से झूम उठी. फिर कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘मधुप, बच्चों के इम्तिहान होने से पहले क्यों न हम सब पिकनिक पर चलें?’’

मधुप फौरन श्यामली की बात मान गया.

स्कूल से 4 किलोमीटर दूर एक झील थी. बड़ी अच्छी जगह थी. वहां छुट्टी के दिन जाना तय हुआ.

श्यामली ने घर आ कर अरुण से कहा, ‘‘क्योंजी, पिकनिक पर आप भी चलेंगे न? उस दिन आप की भी छुट्टी रहेगी.’’

अरुण गुस्से से बोला, ‘‘हफ्ते में एक दिन तो यारदोस्तों के साथ दारू पीने का मौका मिलता है… उसे भी तुम छीन लेना चाहती हो?’’

उस की बात सुन कर श्यामली का दिल नफरत से भर उठा.

पिकनिक वाले दिन श्यामली भोर होेते ही उठ बैठी. अरुण अभी तक सो रहा था. वह उस का खाना बना कर नहाधो कर तैयार हुई और समय से पहले ही स्टेशन पर आ गई.

मधुप भी उसी का इंतजार कर रहा था. श्यामली बेहद खुश थी. उस ने अपने सिंगार में कोई कमी नहीं रखी थी. उस के जिस्म से इत्र की बड़ी अच्छी महक आ रही थी.

श्यामली की खूबसूरती देख कर मधुप अंदर ही अंदर तड़प उठा. उस से रहा नहीं गया, बोला, ‘‘श्यामलीजी, आप आज बहुत हसीन लग रही हैं.’’

शायद वह मधुप से तारीफ सुनना चाहती थी, इसलिए उस के गाल और ज्यादा गुलाबी हो गए.

सभी बच्चे भोजन कर आराम करने लगे. लेकिन मधुप झील के किनारे एक इमली के पेड़ तले बैठा था.

‘‘अरे, तुम यहां बैठे हो, मैं तुम्हें कब से खोज रही हूं,’’ श्यामली उस के बिलकुल नजदीक आ बैठी.

‘‘बस यों ही इस झील की लहरों को देख रहा हूं. पानी कितना ठंडा?है.’’

थोड़ी देर दोनों के बीच चुप्पी छाई रही.

अचानक श्यामली बोली, ‘‘मधुप.’’

‘‘जी कहो…’’ श्यामली की ओर निगाहें घुमाते हुए मधुप ने पूछा.

‘‘मैं चाहती हूं कि तुम मुझे अपना लो,’’ अटकते हुए श्यामली ने कहा.

मधुप हैरान रह गया. बोला, ‘‘लेकिन आप तो शादीशुदा हैं.’’

‘‘जिसे तुम शादी कहते हो, वह नरक है. वहां सांस लेते हुए भी मुझे दर्द होता है. अगर तुम ‘हां’ कह दो तो मैं अपने मर्द से तलाक ले लूंगी.’’

‘‘श्यामलीजी, झगड़े हर घर में होते हैं लेकिन इस का मतलब यह तो नहीं कि बीवी और मर्द हमेशा के लिए एकदूसरे से अपना मुंह मोड़ लें,’’ समझाते हुए मधुप ने कहा.

‘‘फिर मैं क्या करूं? मधुप, मैं अब बिलकुल टूट चुकी हूं. मुझे तुम्हारे सहारे की जरूरत है. बोलो, मेरा साथ दोगे?’’ श्यामली उस की आंखों में झांकते हुए बोली.

मधुप सोच में डूब गया. वह फैसला नहीं कर पा रहा था. कुछ देर बाद उस ने कहा, ‘‘मर्द अगर गलत रास्ते पर जाता है तो बीवी ही आगे आ कर उसे सही रास्ते पर लाती है. अरुण पर एक बार फिर अपने प्यार का बादल बरसा कर देख लीजिए. आओ, अब चलें, सूरज ढलने लगा है,’’ उठते हुए मधुप ने कहा.

श्यामली किसी मुजरिम की तरह मधुप के पीछेपीछे चल पड़ी.

उन के स्कूल से जिले की हौकी टीम में हिस्सा लेने के लिए 2 लड़कियों को चुना गया था. श्यामली ने मधुप से कहा, ‘‘अगर तुम भी मेरे साथ चलोगे तो सफर अच्छा कट जाएग.’’

‘‘आप कहती हैं तो चल देता हूं,’’ मधुप बोला.

उन के जिले की टीम मैच जीत गई थी. शाम को दोनों लड़कियों को होस्टल की दूसरी लड़कियों के बीच छोड़ कर श्यामली मधुप के साथ तांगे पर बैठ कर घूमने निकल पड़ी. दोनों ने खूब चाटपकौड़े खाए.

मधुप ने अपनी पसंद की एक साड़ी खरीदी और तोहफे के तौर पर श्यामली को दे दी. फिर एक होटल में खाना खाया, उस के बाद पार्क में आ बैठे, जहां फव्वारे चल रहे थे और रंगबिरंगी रोशनी भी थी.

मधुप एक फूल वाले से मोगरे की लडि़यां ले आया, जिन्हें उस ने अपने हाथों से श्यामली के बालों में लगा दिया. वह उस के और नजदीक सिमट आई.

श्यामली को अपनी जिंदगी में इतना प्यार कभी भी नहीं मिल पाया था, जितना कि मधुप उस पर उड़ेल रहा था. न चाहते हुए भी वह बोली, ‘‘मधुप, रात बहुत हो चुकी है… होस्टल में लड़कियां हमारा इंतजार कर रही होंगी?’’

मधुप कुछ नहीं बोला. तब श्यामली ने अपना सिर उस की गोद में रख दिया तो वह प्यार से उस के बाल सहलाने लगा. धीरेधीरे पार्क से लोग जाने लगे थे. तब मधुप ने उस का हाथ पकड़ कर उठाया, ‘‘आओ, चलते हैं.’’

श्यामली उठ खड़ी हुई. बाहर आ कर मधुप ने एक रिकशा वाले से पूछा,’’ यहां पास में कोई होटल है?’’

श्यामली हैरानी से मधुप का मुंह ताकने लगी.

‘‘हां साहब, पास में ही एक होटल है… सस्ता भी है,’’ रिकशा वाले ने कहा. तो दोनों रिकशा में बैठ गए.

श्यामली का कलेजा ‘धकधक’ कर रहा था. वह मधुप के इस फैसले से बेहद खुश थी, लेकिन दिल में डर भी समाया हुआ था.

रिकशा से उतर कर मधुप ने कमरा लेते वक्त श्यामली को अपनी बीवी बताया और उस की कमर में हाथ डाल कर सीढि़यां चढ़ने लगा. रातभर 2 जवान जिस्म एकदूसरे में समाए रहे.

सुबह श्यामली का शरीर टूट रहा था. चादर पर बिखरे मोगरे के फूल अपनी हलकीहलकी खुशबू अभी तक बिखेर रहे थे. रात की बात याद आते ही उस का दिल एक बार फिर गुदगुदा उठा.

मधुप अभी तक सोया हुआ था. वह उसे उठाते हुए बोली, ‘‘देखो, सुबह हो गई है.’’

मधुप आंखें मलते हुए उठा. उस ने श्यामली को एक बार फिर अपनी बांहों में भरने की कोशिश की तो वह छिटकते हुए बोली, ‘‘हटो, जाने रातभर लड़कियां होस्टल में कैसे रही होंगी?’’

वे दोनों तैयार हो कर होस्टल पहुंच गए.

तकरीबन 3 महीने बाद मधुप का वहां से तबादला हो गया तो श्यामली तड़प उठी. उस से बिछड़ते वक्त मधुप ने कहा, ‘‘मैं एक हफ्ते बाद तुम से मिलने आऊंगा. इस बीच तुम भी अपने आदमी से तलाक के बारे में पूरी बात कर लेना. जल्दी ही हम दोनों ब्याह कर लेंगे.’’

श्यामली ने आंसू भरी निगाहों से उसे विदा किया.

अब वह फिर से अकेली स्कूल जाने लगी. मधुप के इंतजार में हफ्ते, महीने और फिर साल बीतते गए पर न तो मधुप की कोई चिट्ठी आई और न ही वह खुद आया. बाद में श्यामली को पता चला कि मधुप तो वहां जा कर शादी कर चुका है. वह अपने आदमी के अलावा दूसरे मर्द द्वारा भी ठगी जा चुकी थी.

News Kahani: बरेली का सीरियल किलर और चतुर चाल

‘‘अरे रश्मि, कहां जा रही है इतनी सुबह?’’ मां ने घर से निकलती बेटी रश्मि को रसोई से टोका.

‘‘थोड़ा रनिंग कर आऊं मां, देखूं तो सही इन स्पोर्ट्स शू में कितना दम है,’’ रश्मि ने दरवाजा बंद करते हुए कहा.

पिछले कई दिनों से 24 साल की रश्मि खुद को सेहतमंद रखने के लिए बड़ी मेहनत कर रही थी. जिला हैडक्वार्टर में क्लर्क की नौकरी मिलने के बाद रश्मि और उस की विधवा मां की जिंदगी बदल गई थी.

आज भी 5 किलोमीटर की रनिंग करने के बाद रश्मि एक दुकान पर पहुंची और वहां से सब्जी काटने का एक तेज धार वाला चाकू खरीदा. चाकू आकार में थोड़ा बड़ा था मानो कटहल जैसी कोई ठोस चीज काटने के लिए खरीदा गया हो.

जब रश्मि घर पहुंची, तो वह पसीने से तरबतर थी. मां ने उस के पास चाकू देख कर अपना माथा पीट लिया और बोलीं, ‘‘यह लड़की तो पागल हो गई है. पिछले एक हफ्ते में 3 चाकू खरीद लिए हैं. न जाने पर्स में रख कर उन का कौन सा अचार डालेगी. क्या जरूरत है इतने चाकू रखने की?’’

‘‘अरे मां, औफिस में कुछ न कुछ काटने के लिए चाकू की जरूरत पड़ ही जाती है. तुम चिंता मत करो, सस्ता सा चाकू है,’’ रश्मि ने इतना कह कर तौलिया लिया और नहाने चली गई. आज रविवार था, तो उसे औफिस जाने की कोई जल्दी नहीं थी.

रश्मि अपनी मां के साथ बरेली जिले के एक गांव में रहती थी. रोज जिला हैडक्वार्टर में अपने औफिस जाने के लिए उसे तकरीबन 3 किलोमीटर पैदल चल कर बसस्टैंड तक पहुंचना होता था. रास्ते में गन्ने के खेत थे और सुनसान इलाका था. पर चूंकि रश्मि यहीं पलीबढ़ी थी, तो उसे ज्यादा डर नहीं लगता है.

पर पिछले कुछ समय से रश्मि बड़ी चिंता में थी. दरअसल, कुछ दिन पहले उस ने एक ऐसा कांड देख लिया था, जिस से उस के दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई थी.

एक शाम को बसस्टैंड से घर लौटते हुए रश्मि ने एक गन्ने के खेत में किसी औरत पर हमला होते हुए देख लिया था. उसे हमलावर की पहचान थी, पर वह डर गई थी, क्योंकि उस आदमी ने भी उसे देख लिया था.

रश्मि डर कर वहां से भाग गई थी, पर उस के कानों में उस हमलावर की जोरदार आवाज गूंज रही थी, ‘मैं ने तेरा चेहरा देख लिया है. मेरा अगला शिकार तू ही बनेगी.’

पहले तो रश्मि पुलिस में जाना चाहती थी, पर फिर उसे लगा कि पुलिस में जाने से हो सकता है कि वह हमलावर चौकन्ना हो जाए, इसलिए यह लड़ाई तो उसे खुद ही लड़नी पड़ेगी.

बस, तभी से रश्मि ने खुद को मजबूत करना शुरू कर दिया था. वह रोज कसरत करती थी. सूटसलवार पर भी स्पोर्ट्स शू पहनती थी, ताकि मौका मिलने पर तेजी से भाग सके.

इस कांड को अब 3 महीने हो गए थे. एक सुबह की बात थी. रश्मि को औफिस जाने में देर हो गई. मां से लंच बौक्स ले कर वह जल्दी से भागी, ताकि उस की बस न निकल जाए.

गांव से पैदल ही जाने वाली बस की सवारियां काफी दूर जा चुकी थीं. लिहाजा, रश्मि अकेले ही सुनसान रास्ते पर तेजतेज चल रही थी.

गांव से कुछ दूर निकलते ही गन्ने के खेत आ गए थे. वहां एकदम सन्नाटा था. रश्मि को अपनी सांसों की आवाज भी आ रही थी, तभी उसे महसूस हुआ कि कोई साया उस का पीछा कर रहा है. वह समझ गई कि कोई तो है, जो जानबू?ा कर उस के पीछेपीछे चल रहा है.

रश्मि का हाथ अपने बैग में रखे बड़े चाकू पर चला गया. वह सोच रही थी कि अगर आज वह हिम्मत हार गई, तो अपनी जान से हाथ धो बैठेगी.

रश्मि ने दिमाग लगाया और वह 10 कदम तेज और 10 कदम धीरे चलने लगी. इस बात से उस के पीछे चल रहा साया चकरा गया. इतने में रश्मि एक पगडंडी की तरफ चल पड़ी. वह आज आरपार करने के मूड में थी.

दूसरी तरफ वह साया खुश हो गया कि शिकार खुद उस के जाल में फंस रहा है. पर अचानक रश्मि ने खेतों की ओट में अपनी चाल धीरे कर दी और थोड़ी ही देर में वह उस साए के पीछे थी.

एक पुराने कुएं के पास जा कर वह आदमी रुक गया. रश्मि धीरे से उस के नजदीक गई. उस के हाथ में चाकू था. फिर अचानक वह तेजी से झपटी, पर तब तक वह आदमी चौकस हो चुका था.

रश्मि का वार खाली गया और उस आदमी ने लड़खड़ाती रश्मि के हाथ से चाकू छीन लिया और फुरती से उसे कुएं में फेंक दिया.

‘‘आज जाल में फंसी है चिडि़या. तेरी तो मैं उस दिन से ही तलाश कर रहा हूं, जब तू ने मेरा चेहरा देख लिया था,’’ उस आदमी ने कहा.

यह तो वही हमलावर था. रश्मि जमीन पर पड़ी थी. उस के हाथ में तब तक दूसरा चाकू आ चुका था. जैसे ही वह आदमी दोबारा उस पर ?ापटा, रश्मि ने तेजी से चाकू वाला हाथ घुमाया.

इस बार वार खाली नहीं गया. उस आदमी का कंधा चिर गया था. वह दर्द के मारे बिलबिला गया और इसी बात का फायदा उठा कर रश्मि ने पूरी ताकत से उस की टांगों के बीच खींच कर जोर से लात मारी.

बस, फिर क्या था, वह आदमी धड़ाम से धरती पर जा गिरा. रश्मि ने पूरी ताकत से उस के दोनों हाथ अपनी चुन्नी से बांध दिए और दम लेने के लिए एक पेड़ के नीचे जा कर पसर गई.

बड़ी देर से रश्मि पेड़ के सहारे टिकी बेदम सी पड़ी थी. उस की सांसें ऊपरनीचे हो रही थीं. सामने वह राक्षस पड़ा था. उस के दोनों हाथ रश्मि की चुन्नी से बंधे हुए थे, पर उस के चेहरे पर शिकन की एक लकीर नहीं थी.

वह अभी भी रश्मि की ऊपरनीचे होती छाती को घूर रहा था. फिर उस ने रश्मि के कानों की बालियों को देखा और कुटिल मुसकान से फिर छातियों पर उस की नजर रेंग गई.

रश्मि ने ताड़ लिया था कि यह आदमी बड़ी सख्त जान है. वह चौकन्नी हो गई. उस ने वहीं पड़ेपड़े उस आदमी से पूछा, ‘‘अब तक कितनियों को मार दिया है तू ने? मैं तो तुझे तभी पहचान गई थी, जब तू ने उस मासूम औरत का गला घोंट कर उस के गले की चेन झपट ली थी. बता, क्या इरादा है तेरा?’’

‘‘मेरे इरादे की न पूछ ऐ जालिम, मुझे वफा के बदले बेवफाई का इनाम मिला है…  तू भी मेरे हाथ से कत्ल होगी. किसी को नहीं छोड़ूंगा,’’ वह आदमी अपना आपा खोने लगा.

‘‘ऐसा क्या जख्म दिया था उस औरत ने कि तू उस की जान का दुश्मन ही बन बैठा?’’ यह पूछते हुए रश्मि और भी संभल चुकी थी. उस का बैग अभी भी हाथ में था.

‘‘उस औरत की कोई गलती नहीं थी. वह तो किसी और के किए की सजा भुगत गई बेचारी. मैं तो उसे जानता भी नहीं था,’’ वह आदमी बोला.

‘‘तू है कौन? और यह सब क्यों कर रहा है?’’ रश्मि ने हिम्मत कर के पूछा.

‘‘चल, तू भी क्या याद करेगी. मेरा नाम कुलदीप है और मैं गांव बाकरगंज थाना नवाबगंज इलाके का रहने वाला हूं. मेरी 2 सगी बहनें हैं. मेरी सगी मां की मौत हो चुकी है.’’

‘‘सगी मां की मौत का मतलब…?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘मेरे बाप बाबूराम ने मेरी मां के जिंदा रहते समय ही किसी दूसरी औरत से शादी कर ली थी. मेरा बाप अपनी दूसरी पत्नी के कहने पर मेरी मां को खूब मारता था. यह देख कर मेरा खून खौल जाता था और मैं अपनी सौतेली मां से नफरत करने लगा था, इसलिए मैं अपनी सौतेली मां की उम्र की 45 से 50 साल की औरतों को अपना शिकार बनाने लगा.

‘‘पर, बेवफाई तो तुम्हारे बाप ने की थी तुम्हारी मां के साथ, फिर यह सब क्यों?’’ रश्मि ने हैरानी से पूछा.

‘‘मेरी बीवी के चलते मैं और ज्यादा हैवान बनता चला गया.’’

‘‘बीवी ने तेरे साथ क्या किया था?’’

‘‘मुझे नहीं पता. मेरी शादी साल 2014 में हुई थी. मैं अपनी बीवी के साथ भी मारपीट करता था. मुझ से परेशान हो कर वह कुछ साल पहले मुझे छोड़ कर चली गई थी.’’

‘‘उस के बाद क्या हुआ?’’ रश्मि को जैसे कुलदीप की कहानी में मजा आने लगा था.

‘‘फिर क्या था, मैं भांग, सुल्फा, शराब का नशा करने लगा और अपने घर से निकल कर आसपास के जंगल और गांवगांव भटकने लगा.

‘‘मैं इतना ज्यादा भटकता था कि अब तो मुझे आसपास के सुनसान इलाके, खेतों के रास्तों पर बनी सभी पगडंडियों की पूरी जानकारी है.

‘‘मैं केवल सुनसान इलाके से जा रही अकेली औरत को देख कर ही उस पर हमला करता था. हमला करने से पहले मैं पक्का कर लेता था कि किसी ने मुझे उस औरत के पीछे जाते हुए नहीं देखा है.

‘‘अगर किसी औरत का पीछा करते समय रास्ते में कोई भी बच्चा, मर्द या कोई दूसरी औरत मुझे मिल जाती थी, तब मैं उस दिन वारदात नहीं करता था.’’

‘‘तुम वारदात कहां करते हो?’’ रश्मि ने पूछा.

‘‘गन्ने के खेत में, क्योंकि वहां मुझे देख पाना मुश्किल होता था. अपने शिकार को मार कर वहां से जाते समय मैं उस औरत के गले में उसी की पहनी गई साड़ी या दुपट्टे से कस कर गांठ लगा देता था.’’

रश्मि समझे गई थी कि यह आदमी पागल है और मौका मिलते ही उसे भी मार डालेगा. उस ने ठान लिया कि इसे सबक सिखाना ही होगा. वह धीरे से उठी और अपने बैग से दूसरा चाकू निकाला. साथ में एक चुन्नी और निकाली, फिर वह कुलदीप की ओर बढ़ी.

‘‘क्या इरादा है तेरा? मेरे हाथ खोल, फिर बताता हूं कि मैं क्या चीज हूं,’’ कुलदीप गुर्राया, पर तब तक रश्मि उस के पीछे जा चुकी थी. उस ने अपनी चुन्नी कुलदीप के गले में लपेटी और कस दी.

थोड़ी ही देर में कुलदीप की आंखें उबल कर बाहर आने को हो गईं. वह छटपटा कर रह गया. फिर रश्मि ने न जाने क्या सोच कर अपनी पकड़ ढीली की और उसे वहीं बेहोश छोड़ कर वहां से चल दी.

इस सुनसान इलाके से कोई तो गुजरेगा, फिर इस हैवान को जो सजा होनी होगी, देखा जाएगा. क्या पता, तब तक इस की सांसें चलेंगी भी या नहीं.

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