‘तड़ाक,’ एक झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा नीरा के गाल पर, ‘यह क्या हो गया?’ अम्मां क्षुब्ध मन से सोचने लगीं, ‘मेरे दिए हुए संस्कार, शिक्षा, सभी पर पानी फेर दिया अजय ने?’
अश्रुपूरित दृष्टि से अपर्णा की ओर अम्मां ने देखा था. जैसे पूछ रही हों कि यह सब क्यों हो रहा है इस घर में. कुछ देर तक नेत्रों की भाषा पढ़ने की कोशिश की पर एकदूसरे के ऊपर दृष्टि निक्षेप और गहरी श्वासों के अलावा कोई वार्तालाप नहीं हो सका था.
अचानक अपर्णा का स्वर उभरा, ‘सारी लड़ाईर् पैसे को ले कर है. बाबूजी थे तो इन पर कोई जिम्मेदारी नहीं थी. अब खर्च करना पड़ रहा है तो परेशानी हो रही है.’
अम्मां ने दीर्घनिश्वास भरा, ‘मैं ने तो नीरा से कहा है कि कोई नौकरी तलाश ले. कुछ पेंशन के पैसे अजय को मैं दे दूंगी.’
जीवन में ऐसे ढेरों क्षण आते हैं जो चुपचाप गुजर जाते हैं पर उन में से कुछ यादों की दहलीज पर अंगद की तरह पैर जमा कर खड़े हो जाते हैं. मां के साथ बिताए कितने क्षण, जिस में वह सिर्फ याचक है, उस की स्मृति पटल पर कतार बांधे खडे़ हैं.
बच्चे दादी को प्यार करते, अड़ोसीपड़ोसी अम्मां से सलाहमशविरा करते, अपर्णा और अजय मां को सम्मान देते तो नीरा चिढ़ती. पता नहीं क्यों? चाहे अम्मां यही प्यार, सम्मान अपनी तरफ से एक तश्तरी में सजा कर, दोगुना कर के बहू की थाली में परोस भी देतीं फिर भी न जाने क्यों नीरा का व्यवहार बद से बदतर होता चला गया.
अम्मां के हर काम में मीनमेख, छोटीछोटी बातों पर रूठना, हर किसी की बात काटना, घरपरिवार की जिम्मेदारियों के प्रति उदासीनता, उस के व्यवहार के हिस्से बनते चले गए.
एक बरस बाद बाबूजी का श्राद्ध था. अपर्णा को तो आना ही था. बेटी के बिना ब्राह्मण भोज कैसा? उस दिन पहली बार, स्थिर दृष्टि से अपर्णा ने अम्मां को देखा. कदाचित जिम्मेदारियों के बोझ से अम्मां बुढ़ा गई थीं. हर समय तनाव की स्थिति में रहने की वजह से घुटनों में दर्द होना शुरू हो गया था.
ब्राह्मण भोज समाप्त हुआ तो अम्मां धूप में खटोला डाल कर बैठ गईं. अजय, अपर्णा और नीरा को भी अपने पास आ कर बैठने को कहा. तेल की तश्तरी में से तेल निकाल कर अपने टखनों पर धीरेधीरे मलती हुई अम्मां बोलीं, ‘याद है, अजय, मैं ने एक बार कहा था कि घर में कोई भी नया सामान तभी जगह पा सकता है जब पुराने सामान को अपनी जगह से हटाया जाए. इसी तरह जब परिवार के लोग पुराने सामान को कूड़ा समझ कर फेंकने पर ही उतारू हो जाएं तो भलाई इसी में है कि उस सामान को किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया जाए. शायद वह सामान तब भी किसी के काम आ सके? जो इनसान समझौता करते हैं वे ही सार्थक जीवन जीते हैं पर जो समझौता करतेकरते टूट जाते हैं वे कायर कहलाते हैं. और मैं कायर नहीं हूं.’
अम्मां के बच्चे उन का मंतव्य समझे या नहीं पर अगले दिन वह कमरे में नहीं थीं. तकिये के नीचे एक नीला लिफाफा ही मिला था.
विचारों में डूबताउतराता अजय आश्रम के जंग खाए, विशालकाय गेट के सामने आ खड़ा हुआ. सड़क पतली, वीरान और खामोश थी. न जाने उसे यहां आ कर ऐसा क्यों लग रहा था कि अम्मां पूर्ण रूप से यहां सुरक्षित हैं. उस की सारी चिंताएं, तनाव न जाने कहां खो गए. गेट खोल कर अजय अंदर आया तो अम्मां अपने कमरे में बैठी एक बच्ची को वर्णमाला का पाठ पढ़ा रही थीं. अजय को देखते ही उन की आंखें भर आईं.
‘‘तू कब आया?’’ आंसू भरी आंखों को छिपाने के लिए इधरउधर देखने लगीं. दोबारा पूछा, ‘‘अकेले ही आया? मेरी बहू नीरा कहां है? लवकुश कैसे हैं? होमवर्क करते हैं कि नहीं?’’
अजय ने अम्मां का हाथ अपने हाथ में थाम लिया और बोला, ‘‘मां, सबकुछ एक ही पल में पूछ लोगी?’’
अम्मां को धैर्य कहां था, अजय को समझाते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, तू बहू को काम पर जाने से मत रोकना. जानता है, जब बच्चे सैटिल हो जाते हैं तो औरत को खालीपन का एहसास होने लगता है. ऐसा लगता है जैसे वह एक निरर्थक सी जिंदगी जी रही है, एक ऐसी जिंदगी, जिस का इस्तेमाल कर के बच्चे और पति अपनेअपने क्षेत्र में सफल हो गए और वह उपेक्षित सी एक कोने में पड़ी है.’’
अपने भीतर के दर्द को ढांपने के लिए अम्मां ने हलकी मुसकान के साथ अपनी नजरें अजय पर टिका दी थीं. अजय बारबार अम्मां को शांत करता, उन का ध्यान दूसरी बातों में लगाने का प्रयास करता पर जहां यादों का खजाना और पीड़ा का मलबा हो वहां अपने लिए छोटा सा कोना भी पा सकना मुश्किल है.
‘‘अजय, क्या खाएगा तू? मठरी, पेठा, लड्डू?’’ और अम्मां दीवार की तरफ हो कर अलमारी में से डब्बे निकालने लगीं.
‘‘अम्मां, अब भी अपनी अलमारी में आप यह सब रखती हो? कौन ला कर देता है ये सारा सामान तुम्हें?’’ अजय ने छोटे से बच्चे की तरह मचल कर पूछा.
‘‘चौकीदार को 5 रुपए दे कर मंगा लेती हूं. यहां भी लवकुश की तरह कई नन्हेनन्हे बालगोपाल हैं. कमरे में आते ही कुछ भी मांगने लगते हैं. सच में अजय, ऐसा लगता है, खाते वह हैं, तन मेरे लगता है.’’
अजय सोच रहा था, भावनाओं और अनुराग की कोई सीमा नहीं होती. जिन का आंचल प्यार, दया और ममता से भरा होता है वह कहीं भी इन भावनाओं को बांट लेते हैं. अम्मां अलमारी में रखे डब्बे में से सामान निकाल रही थीं कि अचानक नीरा का स्वर उभरा, ‘‘अम्मां, मुझे कुछ नहीं चाहिए. सिर्फ अपनी गोदी में सिर रख कर हमें लेटने दीजिए.’’
‘‘तू कब आई?’’ अम्मां आत्म- विभोर हो उठी थीं.
‘‘अजय के साथ ही आई, अम्मां. जानती हैं, आप के जाने के बाद कितने अकेले हो गए थे हम. कितना सहारा मिलता था आप से? निश्ंिचत हो कर स्कूल जाती. लौटती तो सबकुछ बना- बनाया, पकापकाया मिलता था. घर का दरवाजा तो खुला ही रहता था. अहंकार और अहं की अग्नि में राख हुई मैं यह भी नहीं जान पाई कि बच्चों को जो सुख, आनंद, नानीदादी के मुख से सुनी कहानियों में मिलता है वह वीडियो कैसेट में कहां?
‘‘बच्चों के स्कूल बैग टटोलती तो छोटेछोटे चोरी से लाए सामान मिलते. अजय घंटों आप के फोटो के पास बैठे रोते. फिर मन का संताप दूर करने के लिए नशे का सहारा लेते तो मन तिरोहित हो उठता कि क्यों जाने दिया मैं ने आप को?
‘‘मैं ने अजय से अनुनय की कि मुझे एक बार मां से मिलना है पर वह नहीं माने. कैसे मानते? मेरे दुर्व्यवहार की परिणति से ही तो आप को घर से बेघर होना पड़ा था. मेरे मन में प्रश्न उठा कि क्या स्नेह की आंच से मां के मन में ठोस हुई कोमल भावनाओं को पिघलाया नहीं जा सकता. मां का आंचल तो सुरक्षा प्रदान करता है. एक ऐसे प्यार की भावना देता है जिस के उजास से तनमन भीग जाता है.’’
अम्मां चुप्पी साधे रहीं. शुरू से ही चिंतन, मनन, आत्मविश्लेषण करने के बाद ही किसी निर्णय पर पहुंचती थीं.
‘‘इतना बड़ा ब्रह्मांड है, अम्मां. आकाश, तारे, नक्षत्र, सूर्य सब अपनीअपनी जगह पर अपना दायित्व निभाते रहते हैं. कमाल का समायोजन है. लेकिन हम मानव ही इतने असंतुलित क्यों हैं?’’
अम्मां समझ रही थीं, अजय बेचैन है. अंदर ही अंदर खौल रहा था. अम्मां ने उस की जिज्ञासा शांत की, ‘‘क्योंकि इनसान ही एक ऐसा प्राणी है जो राग, द्वेष, प्रतिद्वंद्विता, प्रतिस्पर्धा जैसी भावनाओं से घिरा रहता है.’’
‘‘सच अम्मां, मेरा विरोधात्मक तरीका आज मुझे उस मुकाम पर ले आया जहां आत्मसम्मान के नाम पर रुपया, पैसा, आरामदायक जिंदगी होते हुए भी घर खाली है. साथ है तो केवल अकेलापन. यह सब मैं अब समझ पाई हूं.’’
अपने मन के सामने अपराधिनी बनी नीरा अम्मां के कथन की सचाई को सहन कर, हृदय की पीड़ा के चक्र से अपनेआप को मुक्त करती बोली तो अम्मां की आंखों से भी आंसुओं की अविरल धारा बह निकली.
‘‘अम्मां, हम तो बातोें में ही उलझ गए. आप को लिवाने आए हैं. कहां चोट लगी आप को?’’ अजय नन्हे बालक की तरह मचल उठा.
‘‘अरे, कुछ नहीं हुआ. तुम से मिलने को जी चाहा तो बहाना बना दिया. महंतजी से फोन करवा दिया. जानती थी, मैं तुम्हें याद करती हूं तो तुम लोग भी जरूर याद करते होगे. दिल से दिल के तार मिले होते हैं न.’’
‘‘तो फिर अम्मां, चलोगी न हमारे साथ?’’ अजय ने पूछा, तो अम्मां हंस दीं, ‘‘मैं ने कब मना किया.’’
अजय ने नीरा की ओर देखा. अपने ही खयालों में खोई नीरा भी शायद यही सोच रही थी, ‘घरपरिवार की दौलत छोटीछोटी खुशियां होती हैं जो एकदूसरे की भावनाओं का सम्मान करने से प्राप्त होती हैं.’ आज सही मानों में दोनों को खुशी प्राप्त हुई थी.