Valentine’s Special-भाग -2-अब और नहीं : आखिर क्या करना चाहती थी दीपमाला

दीपमाला की डिलीवरी का समय नजदीक था. भूपेश ने उस के जाने का इंतजाम कर दिया. दीपमाला अपनी मां के घर चली आई. अपने मायके पहुंचने के कुछ दिन बाद ही दीपमाला ने एक बेटे को जन्म दिया. उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. उस के दिनरात नन्हे अंशुल के साथ बीतने लगे. 4 दिन दीपमाला और बच्चे के साथ रह कर भूपेश औफिस में जरूरी काम की बात कह कर लौट आया. दीपमाला के न रहने पर वह अब बिलकुल आजाद पंछी था. उस की और उपासना की प्रेमलीला परवान चढ़ रही थी. औफिस में लोग उन के बारे में दबीछिपी बातें करने लगे थे, मगर भूपेश को अब किसी की परवाह नहीं थी. वह हर हालत में उपासना का साथ चाहता था.

कुछ महीने बीते तो दीपमाला ने भूपेश को फोन कर के बताया कि वह अब घर आना चाहती है. जवाब में भूपेश ने दीपमाला को कुछ दिन और आराम करने की बात कही. दीपमाला को भूपेश की बात कुछ जंची नहीं, मगर उस के कहने पर वह कुछ दिन और रुक गई. 3 महीने बीतने को आए, मगर भूपेश उसे लेने नहीं आया तो उस ने भूपेश को बताए बिना खुद ही आने का फैसला कर लिया.

दरवाजे की घंटी पर बड़ी देर तक हाथ रखने पर भी जब दरवाजा नहीं खुला तो दीपमाला को फिक्र होने लगी. ‘आज इतवार है. औफिस नहीं गया होगा. दरवाजे पर ताला भी नहीं है. इस का मतलब कहीं बाहर भी नहीं गया है. तो फिर इतनी देर क्यों लग रही है उसे दरवाजा खोलने में?’ वह सोचने लगी.

कंधे पर बैग उठाए और एक हाथ से बच्चे को गोद में संभाले वह अनमनी सी खड़ी थी कि खटाक से दरवाजा खुला.

एक बिलकुल अनजान लड़की को अपने घर में देख दीपमाला हैरान रह गई. वह कुछ पूछ पाती उस से पहले ही उपासना बिजली की तेजी से वापस अंदर चली गई. भूपेश ने दीपमाला को यों इस तरह अचानक देखा तो उस की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. उस के माथे पर पसीना आ गया.

उस का घबराया चेहरा और घर में एक पराई औरत को अपनी गैरमौजूदगी में देख दीपमाला का माथा ठनका. गुस्से में दीपमाला की त्योरियां चढ़ गईं. पूछा, ‘‘कौन है यह और यहां क्या कर रही है तुम्हारे साथ?’’

भूपेश अपने शातिर दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगा. उपासना उस के मातहत काम करती है, यह बताने के साथ ही उस ने दीपमाला को एक झूठी कहानी सुना डाली कि किस तरह उपासना इस शहर में नई आई है. रहने की कोई ढंग की जगह न मिलने की वजह से वह उस की मदद इंसानियत के नाते कर रहा है.

‘‘तो तुम ने यह मुझे फोन पर क्यों नहीं बताया? तुम ने मुझ से पूछना भी जरूरी नहीं समझा कि हमारे साथ कोई रह सकता है या नहीं?’’

‘‘यह आज ही तो आई है और मैं तुम्हें बताने ही वाला था कि तुम ने आ कर मुझे चौंका दिया. और देखो न मुझे तुम्हारी और मुन्ने की कितनी याद आ रही थी,’’ भूपेश ने उस की गोद से ले कर अंशुल को सीने से लगा लिया. दीपमाला का शक अभी भी दूर नहीं हुआ कि तभी उपासना बेहद मासूम चेहरा बना कर उस के पास आई.

‘‘मुझे माफ कर दीजिए, मेरी वजह से आप लोगों को तकलीफ हो रही है. वैसे इस में इन की कोई गलती नहीं है. मेरी मजबूरी देख कर इन्होंने मुझे यहां रहने को कहा. मैं आज ही किसी होटल में चली जाती हूं.’’

‘‘इस शहर में बहुत से वूमन हौस्टल भी तो हैं, तुम ने वहां पता नहीं किया?’’ दीपमाला बोली.

‘‘जी, हैं तो सही, लेकिन सब जगह किसी जानपहचान वाले की गारंटी चाहिए और यहां मैं किसी को नहीं जानती.’’

भूपेश और उपासना अपनी मक्कारी से दीपमाला को शीशे में उतारने में कामयाब हो गए. दीपमाला उन दोनों की तरह चालाक नहीं थी. उपासना के अकेली औरत होने की बात से उस के दिल में थोड़ी सी हमदर्दी जाग उठी. उन का गैस्टरूम खाली था तो उस ने उपासना को कुछ दिन रहने की इजाजत दे दी.

भूपेश की तो जैसे बांछें खिल गईं. एक ही छत के नीचे पत्नी और प्रेमिका दोनों का साथ उसे मिल रहा था. वह अपने को दुनिया का सब से खुशनसीब मर्द समझने लगा.

दीपमाला के आने के बाद भूपेश और उपासना की प्रेमलीला में थोड़ी रुकावट तो आई पर दोनों अब होशियारी से मिलतेजुलते. कोशिश होती कि औफिस से भी अलगअलग समय पर निकलें ताकि किसी को शक न हो. दीपमाला के सामने दोनों ऐसे पेश आते जैसे उन का रिश्ता सिर्फ औफिस तक ही सीमित हो.

दीपमाला घर की मालकिन थी तो हर काम उस की मरजी से होता था. थोड़े ही अंतराल बाद उपासना उस की स्थिति की तुलना खुद से करने लगी थी. उस के तनमन पर भूपेश अपना हक जताता था, मगर उन का रिश्ता कानून और समाज की नजरों में नाजायज था. औफिस में वह सब के मनोरंजन का साधन थी, सब उस से चुहल भरे लहजे में बात करते, उन की आंखों में उपासना को अपने लिए इज्जत कम और हवस ज्यादा दिखती थी.

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Valentine’s Special-भाग -4-अब और नहीं : आखिर क्या करना चाहती थी दीपमाला

बसीबसाई गृहस्थी उजड़ चुकी थी. भूपेश ने जब तलाक का नोटिस भिजवाया तो दीपमाला की मां और भाई का खून खौल उठा. वे किसी भी कीमत पर भूपेश को सबक सिखाना चाहते थे, जिस ने दीपमाला की जिंदगी से खिलवाड़ किया. रहरह कर दीपमाला को वह थप्पड़ याद आता जो भूपेश ने उसे उपासना की खातिर मारा था.

दीपमाला के दिल में भूपेश की याद तक मर चुकी थी. उस ने ठंडे लहजे में घर वालों को समझाबुझा लिया और तलाकनामे पर हां की मुहर लगा दी. जिस रिश्ते की मौत हो चुकी थी उसे कफन पहनाना बाकी था.

वक्त ने गम का बोझ कुछ कम किया तो दीपमाला अपने आपे में लौटी. अपने घर वालों पर मुहताज होने के बजाय उस ने फिर से नौकरी करने का फैसला लिया. दीपमाला दिल कड़ा कर चुकी थी. नन्ही जान को अपनी मां की देखरेख में छोड़ वह उसी शहर में चली आई, जिस ने उस का सब कुछ छीन लिया था. सीने में धधकती आग ले कर दीपमाला ने अपने को काम के प्रति समर्पित कर दिया. जिंदगी की गाड़ी एक बार फिर पटरी पर आने लगी.

ब्यूटी सैलून में उस के हाथों के हुनर के ग्राहक कायल थे. उसे अपने काम में महारत हासिल हो चुकी थी. कुछ समय बाद ही दीपमाला ने नौकरी छोड़ दी. अब वह खुद का काम शुरू करना चाहती थी. अपने बेटे की याद आते ही तड़प उठती. वह उसे अपने पास रखना चाहती थी, मगर फिलहाल उसे किसी ढंग की जगह की जरूरत थी जहां वह अपना सैलून खोल सके.

तलाक के बाद कोर्ट के आदेश पर दीपमाला को भूपेश से जो रुपए मिले उन में अपनी कुछ जमापूंजी मिला कर उस के पास इतना पैसा हो गया कि वह अपना सपना पूरा कर सकती थी.

अपने सैलून के लिए जगह तलाश करने की दौड़धूप में उस की मुलाकात प्रौपर्टी डीलर अमित से हुई, जिस ने दीपमाला को शहर के कुछ इलाकों में कुछ जगहें दिखाईं. असमंजस में पड़ी दीपमाला जब कुछ तय नहीं कर पाई तो अमित ने खुद ही उस की परेशानी दूर करते हुए एक अच्छी रिहायशी जगह में उसे जगह दिलवा दी. अपना कमीशन भी थोड़ा कम कर दिया तो दीपमाला अमित की एहसानमंद हो गई.

अमित के प्रौपर्टी डीलिंग के औफिस के पास ही दीपमाला का सैलून खुल गया. आतेजाते दोनों की अकसर मुलाकात हो जाती. कुछ समय बाद उन का साथ उठनाबैठना भी हो गया.

अमित दीपमाला के अतीत से वाकिफ था, बावजूद इस के वह कभी भूल से भी दीपमाला को पुरानी बातें याद नहीं करने देता. उस की हमदर्दी भरी बातें दीपमाला के टूटे मन को सुकून देतीं. जिंदगी ने मानो हंसनेमुसकराने का बहाना दे दिया था.

दोस्ती कुछ गहरी हुई तो दोनों की शामें साथ गुजरने लगीं. शहर में अकेली रह रही दीपमाला पर कोई बंदिश नहीं थी. वह जब चाहती तब अमित की बांहों में चली आती.

एक सुहानी शाम दीपमाला की गोद में सिर रख कर उस के महकते आंचल से आंखें मूंदे लेटे अमित से दीपमाला ने पूछा, ‘‘अमित हम कब तक यों ही मिलते रहेंगे. क्या कोई भविष्य है इस रिश्ते का?’’

रोमानी खयालों में डूबा अमित एकाएक पूछे गए इस सवाल से चौंक गया. बोला, ‘‘जब तक तुम चाहो दीप, मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा.’’

दीपमाला खुद तय नहीं कर पा रही थी कि इस रिश्ते का कोई अंजाम भी है या नहीं. किसी की प्रेमिका बन कर प्यार का मीठा फल चखने में उसे आनंद आने लगा था, पर यह साथ न जाने कब छूट जाए, इस बात से उस का दिल डरता था.

जब अमित ने उसे बताया कि उस के घर वाले पुराने विचारों के हैं तो दीपमाला को यकीन हो गया कि उस के तलाकशुदा होने की बात जान कर वे अमित के साथ उस की शादी को कभी स्वीकार नहीं करेंगे. आने वाले कल का डर मन में छिपा था, मगर अपने वर्तमान में वह अमित के साथ खुश थी.

अमित की बाइक पर उस के साथ सट कर बैठी दीपमाला को एक दिन जब भूपेश ने बाजार में देखा तो वह नाग की तरह फुफकार उठा. दीपमाला अब उस की पत्नी नहीं थी, यह बात जानते हुए भी दीपमाला का किसी और मर्द के साथ इस तरह घूमनाफिरना उसे नागवार गुजरा. उस की कुंठित मानसिकता यह बात हजम नहीं कर पा रही थी कि उस की छोड़ी हुई औरत किसी और मर्द के साथ गुलछर्रे उड़ाए.

घर आ कर भूपेश बहुत देर तक उत्तेजित होता रहा. दीपमाला उस आदमी के साथ कितनी खुश लग रही थी, उसे यह बात रहरह कर दंश मार रही थी. उपासना से शादी कर के उस के अहं को संतुष्टि तो मिली, लेकिन उपासना दीपमाला नहीं थी. शादी के बाद भी उपासना पत्नी न हो कर प्रेमिका की तरह रहती थी. घर के कामों में बिलकुल फूहड़ थी.

उस की फजूलखर्ची से भूपेश अब परेशान रहने लगा था. कभी उस पर झुंझला उठता तो उपासना उस का जीना हराम कर देती, तलाक और पुलिस की धमकी देती.

जो शारीरिक सुख उपासना से प्रेमिका के रूप में मिल रहा था वह उस के पत्नी बनते ही नीरस लगने लगा. इश्क का भूत जल्दी ही सिर से उतर गया.

दीपमाला के साथ शादी के शुरुआती दिनों की कल्पना कर के भूपेश के मन में बहुत से विचार आने लगे. वह एक बार फिर दीपमाला के संग के लिए उत्सुक होने लगा. खाने की थाली की तरह जिस्म की भूख भी स्वाद बदलना चाहती थी.

किसी तरह दीपमाला के घर और सैलून का पता लगा कर एक दिन वह दीपमाला के फ्लैट पर आ धमका. एक अरसे बाद अचानक उसे सामने देख दीपमाला चौंक उठी कि भूपेश को आखिर उस का पता कैसे मिला और अब यहां क्या करने आया है?

‘‘कैसी हो दीपमाला? बिलकुल बदल गई हो… पहचान में ही नहीं आ रही,’’ भूपेश ने उसे भरपूर नजरों से घूरा.

दीपमाला संजसंवर कर रहती थी ताकि उस के सैलून में ग्राहकों का आना बना रहे. अब वह आधुनिक फैशन के कपड़े भी पहनने लगी थी. सलीके से कटे बाल और आत्मनिर्भरता के भाव उस के चेहरे की रौनक बढ़ा रहे थे. उस का रंगरूप भी पहले की तुलना में निखर आया था.

कांच के मानिंद टूटे दिल के टुकड़े बटोरते उस के हाथ लहूलुहान भी हुए थे, मगर उस ने अपनी हिम्मत कभी नहीं टूटने दी. वह अब जीवन की हर मुश्किल का सामना कर सकती थी तो फिर भूपेश क्या चीज थी.

‘‘किस काम से आए हो?’’ उस ने बेहद उपेक्षा भरे लहजे में पूछा. उस की बेखौफी देख भूपेश जलभुन गया, लेकिन फौरन उस ने पलटवार किया, ‘‘मैं अपने बेटे से मिलने आया हूं. तुम ने मुझे मेरे ही बेटे से अलग कर दिया है.’’

‘‘आज अचानक तुम्हें बेटे पर प्यार कैसे आ गया? इतने दिनों में तो एक बार भी खबर नहीं ली उस की,’’ एक व्यंग्य भरी मुसकराहट दीपमाला के अधरों पर आ गई.

‘‘तुम्हें क्या लगता है मैं अंशुल से प्यार नहीं करता? बाप हूं उस का, जितना हक तुम्हारा है उतना मेरा भी है.’’

‘‘तो तुम अब हक जताने आए हो? कानून ने तुम्हें बेशक हक दिया है, मगर वह मेरा बेटा है,’’ दीपमाला ने कहा.

बेटे से मिलना बस एक बहाना था भूपेश के लिए. उसे तो दीपमाला के साथ की प्यास थी. बोला, ‘‘सुनो दीपमाला, मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं. मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई… हो सके तो मुझे माफ कर दो.’’

भूपेश के तेवर अचानक नर्म पड़ गए. उस ने दीपमाला का हाथ पकड़ लिया.

तभी एक झन्नाटेदार तमाचा भूपेश के गाल पर पड़ा. दीपमाला ने बिजली की फुरती से फौरन अपना हाथ छुड़ा लिया.

भूपेश का चेहरा तमतमा गया. इस खातिरदारी की तो उसे उम्मीद ही नहीं थी. वह कुछ बोलता उस से पहले ही दीपमाला गुर्राई, ‘‘आज के बाद दोबारा मुझे छूने की हिम्मत की तो अंजाम इस से भी बुरा होगा. यह मत भूलो कि तुम अब मेरे पति नहीं हो और एक गैरमर्द मेरा हाथ इस तरह नहीं पकड़ सकता, समझे तुम? अब दफा हो जाओ यहां से.’’

उसे एक भद्दी सी गाली दे कर भूपेश बोला, ‘‘सतीसावित्री बनने का नाटक कर रही हो. किसकिस के साथ ऐयाशी करती हो सब जानता हूं, अगर उन के साथ तुम खुश रह सकती हो तो मुझ में क्या कमी है? मैं अगर चाहूं तो तुम्हारी इज्जत सारे शहर में उछाल सकता हूं… इस थप्पड़ का बदला तो मैं ले कर रहूंगा और फिर दीपमाला को बदनाम करने की धमकी दे कर भूपेश वहां से चला गया.

कितना नीच और कू्रर हो चुका है भूपेश… दीपमाला की सहनशक्ति जवाब दे गई. वह तकिए पर सिर रख कर खुद पर रोती रही, जुल्म उस पर हुआ था, लेकिन कुसूरवार उसे ठहराया जा रहा था.

इस मुश्किल की घड़ी में उसे अमित की जरूरत होने लगी. उस के प्यार का मरहम उस के दिल को सुकून दे सकता था. उस ने अपने फोन पर अमित का नंबर मिलाया. कई बार कोशिश करने पर भी जब उस ने फोन नहीं उठाया तो वह अपना पर्स उठा कर उस से मिलने चल पड़ी.

भूपेश किसी भी हद तक जा सकता है, यह दीपमाला को यकीन था. वह चुप नहीं बैठेगा. अगर उस की बदनामी हई तो उस के सैलून के बिजनैस पर असर पड़ सकता है. वह अमित से मिल कर इस मुश्किल का कोई हल ढूंढ़ना चाहती थी. क्या पता उसे पुलिस की भी मदद लेनी पड़े.

अमित के औफिस में ताला लगा देख कर वह निराश हो गई. अमित उस के एक बार बुलाने पर दौड़ा चला आता था, फिर आज उस का फोन क्यों नहीं उठा रहा? उसे याद आया जब वह पहली बार अमित से मिली थी तो उसे अपना विजिटिंग कार्ड दिया था. उस ने पर्स टटोला, कार्ड मिल गया. औफिस और घर का पता उस में मौजूद था. उस ने पास से गुजरते औटो को हाथ दे कर रोका और पता बताया. धड़कते दिल से दीपमाला ने फ्लैट की घंटी बजाई. एक आदमी ने दरवाजा खोला. दीपमाला ने उस से अमित के बारे में पूछा तो वह अंदर चला गया. थोड़ी देर बाद एक औरत बाहर आई. बोली, ‘‘जी कहिए, किस से मिलना है? लगभग उस की ही उम्र की दिखने वाली उस औरत ने दीपमाला से पूछा.’’

‘‘मैं अमित से मिलने आई हूं. क्या यह उन का घर है?’’ पूछते हुए उसे थोड़ा अटपटा लगा कि पता नहीं यह सही पता है भी या नहीं.

‘‘मैं अमित की पत्नी हूं. क्या काम है आप को? आप अंदर आ जाइए,’’ अमित की पत्नी विनम्रता से बोली.

दीपमाला ने उस औरत को करीब से देखा. वह सुंदर और मासूम थी, मांग में सिंदूर दमक रहा था और चेहरे पर एक पत्नी का विश्वास.

कुछ रुक कर अपनी लड़खड़ाती जबान पर काबू पा कर दीपमाला बोली, ‘‘कोई खास बात नहीं थी. मुझे एक मकान किराए पर चाहिए था. उसी सिलसिले में बात करनी थी.’’

‘‘मगर आप ने अपना नाम तो बताया नहीं… मैं अपने पति को कैसे आप का संदेश दूंगी.’’

‘‘वे खुद समझ जाएंगे,’’ और दीपमाला पलट कर तेज कदमों से मकान की सीढि़यां उतर सड़क पर आ गई.

अजीब मजाक किया था कुदरत ने उस के साथ. उस ने शुक्र मनाया कि उस की आंखें समय रहते खुल गईं.

अमित ने भी वही दोहराया था जो भूपेश ने उस के साथ किया था. एक बार फिर से वह ठगी गई थी. मगर इस बार वह मजबूती से अपने पैरों पर खड़ी थी. जिस जगह पर कभी उपासना खड़ी थी, उसी जगह उस ने आज खुद को पाया. क्या फर्क था भला उस में और उपासना में? दीपमाला ने सोचा.

नहीं, बहुत फर्क है, उस का जमीर अभी मरा नहीं, वह इतनी खुदगर्ज नहीं हो सकती कि किसी का बसेरा उजाड़े. जो गलती उस से हो गई है उसे अब वह दोहराएगी नहीं. उस ने तय कर लिया अब वह किसी को अपने दिल से खेलने नहीं देगी. बस अब और नहीं.

Valentine’s Special-भाग -1-अब और नहीं : आखिर क्या करना चाहती थी दीपमाला

नन्हीगौरैया ने बड़ी कोशिश से अपना घोंसला बनाया था. घास के तिनके फुरती से बटोर कर लाती गौरैया को देख कर दीपमाला के होंठों पर मुसकान आ गई. हाथ सहज ही अपने पेट पर चला गया. पेट के उभार को सहलाते हुए वह ममता से भर उठी. कुछ ही दिनों में एक नन्हा मेहमान उस के आंगन में किलकारियां मारेगा. तार पर सूख रहे कपड़े बटोर वह कमरे में आ गई. कपड़े रख कर रसोई की तरफ मुड़ी ही थी कि तभी डोरबैल बजी.

‘‘आज तुम इतनी जल्दी कैसे आ गई?’’ घर में घुसते ही भूपेश ने पूछा.

‘‘आज मन नहीं किया काम पर जाने का. तबीयत कुछ ठीक नहीं है,’’ दीपमाला ने जवाब दिया.

दीपमाला इस आस से भूपेश के पास खड़ी रही कि तबीयत खराब होने की बात जान कर वह परेशान हो उठेगा. गले से लगा कर प्यार से उस का हाल पूछेगा, मगर बिना कुछ कहेसुने जब वह हाथमुंह धोने बाथरूम में चला गया तो बुझी सी दीपमाला रसोई की ओर चल पड़ी.

शादी के 4 साल बाद दीपमाला मां बनने जा रही थी. उस की खुशी 7वें आसमान पर थी, मगर भूपेश कुछ खास खुश नहीं था. दीपमाला अकेली ही डाक्टर के पास जाती, अपने खानेपीने का ध्यान रखती और अगर कभी भूपेश को कुछ कहती तो काम की व्यस्तता का रोना रो कर वह अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेता. वह बड़ी बेसब्री से दिन गिन रही थी. बच्चे के आने से भूपेश को शायद कुछ जिम्मेदारी का एहसास हो जाए, शायद उस के अंदर भी नन्ही जान के लिए प्यार उपजे, इसी उम्मीद से वह सब कुछ अपने कंधों पर संभाले बैठी थी.

कुछ ही दिनों की तो बात है. बच्चे के आने से सब ठीक हो जाएगा, यही सोच कर उस ने काम पर जाना नहीं छोड़ा. जरूरत भी नहीं थी, क्योंकि उस की और भूपेश की कमाई से घर मजे से चल रहा था. पार्लर की मालकिन दीपमाला के हुनर की कायल थी. एक तरह से दीपमाला के हाथों का ही कमाल था जो ग्राहकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई थी. दीपमाला के इस नाजुक वक्त में सैलून की मालकिन और बाकी लड़कियां उसे पूरा सहयोग देतीं. उस का जब कभी जी मिचलाता या तबीयत खराब लगती तो वह काम से छुट्टी ले लेती.

एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर भूपेश स्वभाव से रूखा था. उस के अधीन 2-4 लोग काम करते थे. उस के औफिस में एक पोस्ट खाली थी, जिस के लिए विज्ञापन दिया गया था. कंपनी में ग्राहक सेवा के लिए योग्यता के साथसाथ किसी मिलनसार और आकर्षक व्यक्तित्व की जरूरत थी.

एक दिन तीखे नैननक्शों वाली उपासना नौकरी के आवेदन के लिए आई. उस की मधुर आवाज और व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर और कुछ उस के पिछले अनुभव के आधार पर उस का चयन कर लिया गया. भूपेश के अधीनस्थ होने के कारण उसे काम सिखाने की जिम्मेदारी भूपेश पर थी.

उपासना उन लड़कियों में से थी जिन्हें योग्यता से ज्यादा अपनी सुंदरता पर भरोसा होता है. अब तक के अपने अनुभवों से वह जान चुकी थी कि किस तरह अदाओं के जलवे दिखा कर आसानी से सब कुछ हासिल किया जा सकता है. छोटे शहर से आई उपासना कामयाबी की मंजिल छूना चाहती थी. कुछ ही दिनों बाद वह समझ गई कि भूपेश उस पर फिदा है. फिर इस बात का वह भरपूर फायदा उठाने लगी.

उपासना का जादू भूपेश पर चला तो वह उस पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान रहने लगा. उपासना बहाने बना कर औफिस के कामों को टाल देती जिन्हें भूपेश दूसरे लोगों से करवाता. अकसर बेवजह छुट्टी ले कर मौजमस्ती करने निकल पड़ती. उसे बस उस पैसे से मतलब था जो उसे नौकरी से मिलते थे. साथ में काम करने वाले भूपेश के दबदबे की वजह से उपासना की हरकतों को नजरंदाज कर देते.

अपने यौवन और शोख अदाओं के बल पर उपासना भूपेश के दिलोदिमाग में पूरी तरह उतर गई. उस की और भूपेश की नजदीकियां बढ़ने लगीं. काम के बाद दोनों कहीं घूमने निकल जाते. उसे खुश करने के लिए भूपेश उसे महंगे तोहफे देता. आए दिन किसी पांचसितारा होटल में लंच या डिनर पर ले जाता. भूपेश का मकसद उपासना को पूरी तरह से हासिल करना था और उपासना भी खूब समझती थी कि क्यों भूपेश उस के आगेपीछे भंवरे की तरह मंडरा रहा है.

पहले भूपेश औफिस से घर जल्दी आता था तो दोनों साथ में खाना खाते, अब देर रात तक दीपमाला उस का इंतजार करती रहती और फिर अकेली ही खा कर सो जाती. कुछ दिनों से भूपेश के रंगढंग बदल गए थे. औफिस में भी सजधज कर जाता. उधर इन सब बातों से बेखबर दीपमाला नन्हें मेहमान की कल्पना में डूबी रहती. उस की दुनिया सिमट कर छोटी हो गई थी.

एक रोज धोने के लिए कपड़े निकालते वक्त उसे भूपेश की पैंट की जेब से फिल्म के 2 टिकट मिले. उसे थोड़ी हैरानी हुई. भूपेश फिल्मों का शौकीन नहीं था. कभी कोई अच्छी फिल्म लगी होती तो दीपमाला ही जबरदस्ती उसे खींच ले जाती.

उस ने भूपेश से इस बारे में पूछा. टिकट की बात सुन कर वह कुछ सकपका गया. फिर तुरंत संभल कर उस ने बताया कि औफिस के एक सहकर्मी के कहने पर वह चला गया था. बात आईगई हो गई.

इस बात को कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन भूपेश के बटुए में दीपमाला को सुनार की दुकान की एक परची मिली. शंकित दीपमाला ने भूपेश के घर लौटते ही उस पर सवालों की बौछार कर दी.

उपासना को जन्मदिन में देने के लिए भूपेश ने एक गोल्ड रिंग बुक करवाई थी, लेकिन किसी शातिर अपराधी की तरह भूपेश उस दिन सफेद झूठ बोल गया. अपने होने वाले बच्चे का वास्ता दे कर.

उस ने दीपमाला को यकीन दिला दिया कि उस के दोस्त ने अपनी पत्नी को सरप्राइज देने के लिए ही परची उस के पास रखवाई है. इस घटना के बाद से भूपेश कुछ सतर्क रहने लगा. अपनी जेब में कोई सुबूत नहीं छोड़ता था.

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प्रतिदिन: भाग 2

‘‘नहीं, पापा के किसी दोस्त की पत्नी हैं. इन की बेटी ने जिस लड़के से शादी की है वह हमारी जाति का है. इन का दिमाग कुछ ठीक नहीं रहता. इस कारण बेचारे अंकलजी बड़े परेशान रहते हैं. पर तू क्यों जानना चाहती है?’’

‘‘मेरी पड़ोसिन जो हैं,’’ इन का दिमाग ठीक क्यों नहीं रहता? इसी गुत्थी को तो मैं इतने दिनों से सुलझाने की कोशिश कर रही थी, अत: दोबारा पूछा, ‘‘बता न, क्या परेशानी है इन्हें?’’

अपनी बड़ीबड़ी आंखों को और बड़ा कर के दीप्ति बोली, ‘‘अभी…पागल है क्या? पहले मेहमानों को तो निबटा लें फिर आराम से बैठ कर बातें करेंगे.’’

2-3 घंटे बाद दीप्ति को फुरसत मिली. मौका देख कर मैं ने अधूरी बात का सूत्र पकड़ते हुए फिर पूछा, ‘‘तो क्या परेशानी है उन दंपती को?’’

‘‘अरे, वही जो घरघर की कहानी है,’’ दीप्ति ने बताना शुरू किया, ‘‘हमारे भारतीय समाज को पहले जो बातें मरने या मार डालने को मजबूर करती थीं और जिन बातों के चलते वे बिरादरी में मुंह दिखाने लायक नहीं रहते थे, उन्हीं बातों को ये अभी तक सीने से लगाए घूम रहे हैं.’’

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‘‘आजकल तो समय बहुत बदल गया है. लोग ऐसी बातों को नजरअंदाज करने लगे हैं,’’ मैं ने अपना ज्ञान बघारा.

‘‘तू ठीक कहती है. नईपुरानी पीढ़ी का आपस में तालमेल हमेशा से कोई उत्साहजनक नहीं रहा. फिर भी हमें जमाने के साथ कुछ तो चलना पड़ेगा वरना तो हम हीनभावना से पीडि़त हो जाएंगे,’’ कह कर दीप्ति सांस लेने के लिए रुकी.

मैं ने बात जारी रखते हुए कहा, ‘‘जब हम भारतीय विदेश में आए तो बस, धन कमाने के सपने देखने में लग गए. बच्चे पढ़लिख कर अच्छी डिगरियां लेंगे. अच्छी नौकरियां हासिल करेंगे. अच्छे घरों से उन के रिश्ते आएंगे. हम यह भूल ही गए कि यहां का माहौल हमारे बच्चों पर कितना असर डालेगा.’’

‘‘इसी की तो सजा भुगत रहा है हमारा समाज,’’ दीप्ति बोली, ‘‘इन के 2 बेटे 1 बेटी है. तीनों ऊंचे ओहदों पर लगे हुए हैं. और अपनेअपने परिवार के साथ  आनंद से रह रहे हैं पर उन का इन से कोई संबंध नहीं है. हुआ यों कि इन्होंने अपने बड़े बेटे के लिए अपनी बिरादरी की एक सुशील लड़की देखी थी. बड़ी धूमधाम से रिंग सेरेमनी हुई. मूवी बनी. लड़की वालों ने 200 व्यक्तियों के खानेपीने पर दिल खोल कर खर्च किया. लड़के ने इस शादी के लिए बहुत मना किया था पर मां ने एक न सुनी और धमकी देने लगीं कि अगर मेरी बात न मानी तो मैं अपनी जान दे दूंगी. बेटे को मानना पड़ा.

‘‘बेटे ने कनाडा में नौकरी के लिए आवेदन किया था. नौकरी मिल गई तो वह चुपचाप घर से खिसक गया. वहां जा कर फोन कर दिया, ‘मम्मी, मैं ने कनाडा में ही रहने का निर्णय लिया है और यहीं अपनी पसंद की लड़की से शादी कर के घर बसाऊंगा. आप लड़की वालों को मना कर दें.’

‘‘मांबाप के दिल को तोड़ने वाली यह पहली चोट थी. लड़की वालों को पता चला तो आ कर उन्हें काफी कुछ सुना गए. बिरादरी में तो जैसे इन की नाक ही कट गई. अंकल ने तो बाहर निकलना ही छोड़ दिया लेकिन आंटी उसी ठाटबाट से निकलतीं. आखिर लड़के की मां होने का कुछ तो गरूर उन में होना ही था.

‘‘इधर छोटे बेटे ने भी किसी ईसाई लड़की से शादी कर ली. अब रह गई बेटी. अंकल ने उस से पूछा, ‘बेटी, तुम भी अपनी पसंद बता दो. हम तुम्हारे लिए लड़का देखें या तुम्हें भी अपनी इच्छा से शादी करनी है.’ इस पर वह बोली कि पापा, अभी तो मैं पढ़ रही हूं. पढ़ाई करने के बाद इस बारे में सोचूंगी.

‘‘‘फिर क्या सोचेगी.’ इस के पापा ने कहा, ‘फिर तो नौकरी खोजेगी और अपने पैरों पर खड़ी होने के बारे में सोचेगी. तब तक तुझे भी कोई मनपसंद साथी मिल जाएगा और कहेगी कि उसी से शादी करनी है. आजकल की पीढ़ी देशदेशांतर और जातिपाति को तो कुछ समझती नहीं बल्कि बिरादरी के बाहर शादी करने को एक उपलब्धि समझती है.’ ’’

इसी बीच दीप्ति की मम्मी कब हमारे लिए चाय रख गईं पता ही नहीं चला. मैं ने घड़ी देखी, 5 बज चुके थे.

‘‘अरे, मैं तो मम्मी को 4 बजे आने को कह कर आई हूं…अब खूब डांट पड़ेगी,’’ कहानी अधूरी छोड़ उस से विदा ले कर मैं घर चली आई. कहानी के बाकी हिस्से के लिए मन में उत्सुकता तो थी पर घड़ी की सूई की सी रफ्तार से चलने वाली यहां की जिंदगी का मैं भी एक हिस्सा थी. अगले दिन काम पर ही कहानी के बाकी हिस्से के लिए मैं ने दीप्ति को लंच टाइम में पकड़ा. उस ने वृद्ध दंपती की कहानी का अगला हिस्सा जो सुनाया वह इस प्रकार है:

‘‘मिसेज शर्मा यानी मेरी पड़ोसिन वृद्धा कहीं भी विवाहशादी का धूमधड़ाका या रौनक सुनदेख लें तो बरदाश्त नहीं कर पातीं और पागलों की तरह व्यवहार करने लगती हैं. आसपड़ोस को बीच सड़क पर खड़ी हो कर गालियां देने लगती हैं. यह भी कारण है अंकल का हरदम घर में ही बैठे रहने का,’’ दीप्ति ने बताया, ‘‘एक बार पापा ने अंकल को सुझाया था कि आप रिटायर तो हो ही चुके हैं, क्यों नहीं कुछ दिनों के लिए इंडिया घूम आते या भाभी को ही कुछ दिनों के लिए भेज देते. कुछ हवापानी बदलेगा, अपनों से मिलेंगी तो इन का मन खुश होगा.

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‘‘‘यह भी कर के देख लिया है,’ बडे़ मायूस हो कर शर्मा अंकल बोले थे, ‘चाहता तो था कि इंडिया जा कर बसेरा बनाऊं मगर वहां अब है क्या हमारा. भाईभतीजों ने पिता से यह कह कर सब हड़प लिया कि छोटे भैया को तो आप बाहर भेज कर पहले ही बहुत कुछ दे चुके हैं…वहां हमारा अब जो छोटा सा घर बचा है वह भी रहने लायक नहीं है.

‘‘‘4 साल पहले जब मेरी पत्नी सुमित्रा वहां गई थी तो घर की खस्ता हालत देख कर रो पड़ी थी. उसी घर में विवाह कर आई थी. भरापूरा घर, सासससुर, देवरजेठ, ननदों की गहमागहमी. अब क्या था, सिर्फ खंडहर, कबूतरों का बसेरा.

‘‘‘बड़ी भाभी ने सुमित्रा का खूब स्वागत किया. सुमित्रा को शक तो हुआ था कि यह अकारण ही मुझ पर इतनी मेहरबान क्यों हो रही हैं. पर सुमित्रा यह जांचने के लिए कि देखती हूं वह कौन सा नया नाटक करने जा रही है, खामोश बनी रही. फिर एक दिन कहा कि दीदी, किसी सफाई वाली को बुला दो. अब आई हूं तो घर की थोड़ी साफसफाई ही करवा जाऊं.’

‘‘‘सफाई भी हो जाएगी पर मैं तो सोचती हूं कि तुम किसी को घर की चाबी दे जाओ तो तुम्हारे पीछे घर को हवाधूप लगती रहेगी,’ भाभी ने अपना विचार रखा था.

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अपना घर: भाग 2

एक रात विजय ने शराब के नशे में मदहोश हो कर सुरेखा का मोबाइल नंबर मिला कर कहा, ‘‘तुम ने मुझे जो धोखा दिया है, उस की सजा जल्दी ही मिलेगी. मुझे तुम से और तुम्हारे परिवार से नफरत है. मैं तुम्हें तलाक दे दूंगा. मुझे नहीं चाहिए एक चरित्रहीन और धोखेबाज पत्नी. अब तुम सारी उम्र विकास के गम में रोती रहना.’’

उधर से कोई जवाब नहीं मिला.

‘‘सुन रही हो या बहरी हो गई हो?’’ विजय ने नशे में बहकते हुए कहा.

‘यह क्या आप ने शराब पी रखी है?’ वहां से आवाज आई.

‘‘हां, पी रखी है. मैं रोज पीता हूं. मेरी मरजी है. तू कौन होती है मुझ से पूछने वाली? धोखेबाज कहीं की.’’

उधर से फोन बंद हो गया.

विजय ने फोन एक तरफ फेंक दिया और देर तक बड़बड़ाता रहा.

औफिस और पासपड़ोस के कुछ साथियों ने विजय को समझाया कि शराब के नशे में डूब कर अपनी जिंदगी बरबाद मत करो. इस परेशानी का हल शराब नहीं है, पर विजय पर कोई असर नहीं पड़ा. वह शराब के नशे में डूबता चला गया.

एक शाम विजय घर पर ही शराब पीने की तैयारी कर रहा था कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. विजय ने बुरा सा मुंह बना कर कहा, ‘‘इस समय कौन आ गया मेरा मूड खराब करने को?’’

विजय ने उठ कर दरवाजा खोला तो चौंक उठा. सामने उस का पुराना दोस्त अनिल अपनी पत्नी सीमा के साथ था.

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‘‘आओ अनिल, अरे यार, आज इधर का रास्ता कैसे भूल गए? सीधे दिल्ली से आ रहे हो क्या?’’ विजय ने पूछा.

‘‘हां, आज ही आने का प्रोग्राम बना था. तुम्हें 2-3 बार फोन भी मिलाया, पर बात नहीं हो सकी.’’

‘‘आओ, अंदर आओ,’’ विजय ने मुसकराते हुए कहा.

विजय ने मेज पर रखी शराब की बोतल, गिलास व खाने का सामान वगैरह उठा कर एक तरफ रख दिया.

अनिल और सीमा सोफे पर बैठ गए. अनिल और विजय अच्छे दोस्त थे, पर वह अनिल की शादी में नहीं जा पाया था. आज पहली बार दोनों उस के पास आए थे.

विजय ने सीमा की ओर देखा तो चौंक गया. 3 साल पहले वह सीमा से मिला था अगरा में, जब अनिल और विजय लालकिला में घूम रहे थे. एक बूढ़ा आदमी उन के पास आ कर बोला था, ‘‘बाबूजी, आगरा घूमने आए हो?’’

‘‘हां,’’ अनिल ने कहा था.

‘‘कुछ शौक रखते हो?’’ बूढ़े ने कहा.

वे दोनों चुपचाप एकदूसरे की तरफ देख रहे थे.

‘‘बाबूजी, आप मेरे साथ चलो. बहुत खूबसूरत है. उम्र भी ज्यादा नहीं है. बस, कभीकभी आप जैसे बाहर के लोगों को खुश कर देती है,’’ बूढ़े ने कहा था.

वे दोनों उस बूढ़े के साथ एक पुराने से मकान पर पहुंच गए. वहां तीखे नैननक्श वाली सांवली सी एक खूबसूरत लड़की बैठी थी. अनिल उस लड़की के साथ कमरे में गया था, पर वह नहीं.

वह लड़की सीमा थी, अब अनिल की पत्नी. क्या अनिल ने देह बेचने वाली उस लड़की से शादी कर ली? पर क्यों? ऐसी क्या मजबूरी हो गई थी जो अनिल को ऐसी लड़की से शादी करनी पड़ी?

‘‘भाभीजी दिखाई नहीं दे रही हैं?’’ अनिल ने विजय से पूछा.

‘‘वह मायके गई है,’’ विजय के चेहरे पर नफरत और गुस्से की रेखाएं फैलने लगीं.

‘‘तभी तो जाम की महफिल सजाए बैठे हो, यार. तुम तो शराब से दूर भागते थे, फिर ऐसी क्या बात हो गई कि…?’’

‘‘ऐसी कोई खास बात नहीं. बस, वैसे ही पीने का मन कर रहा था. सोचा कि 2 पैग ले लूं…’’ विजय उठता हुआ बोला, ‘‘मैं तुम्हारे लिए खाने का इंतजाम करता हूं.’’

‘‘अरे भाई, खाने की तुम चिंता न करो. खाना सीमा बना लेगी और खाने से पहले चाय भी बना लेगी. रसोई के काम में बहुत कुशल है यह,’’ अनिल ने कहा.

विजय चुप रहा, पर उस के दिमाग में यह सवाल घूम रहा था कि आखिर अनिल ने सीमा से शादी क्यों की?

सीमा उठ कर रसोईघर में चली गई. विजय ने अनिल को सबकुछ सच बता दिया कि उस ने सुरेखा को घर से क्यों निकाला है.

अनिल ने कहा, ‘‘पहचानते हो अपनी भाभी सीमा को?’’

‘‘हां, पहचान तो रहा हूं, पर क्या यह वही है… जब आगरा में हम दोनों घूमने गए थे?’’

‘‘हां विजय, यह वही सीमा है. उस दिन आगरा के उस मकान में वह बूढ़ा ले गया था. मैं ने सीमा में पता नहीं कौन सा खिंचाव व भोलापन पाया कि मेरा मन उस से बातें करने को बेचैन हो उठा था. मैं ने कमरे में पलंग पर बैठते हुए पूछा था, ‘‘तुम्हारा नाम?’’

‘‘यह सुन कर वह बोली थी, ‘क्या करोगे जान कर? आप जिस काम से आए हो, वह करो और जाओ.’

‘‘तब मैं ने कहा था, ‘नहीं, मुझे उस काम में इतनी दिलचस्पी नहीं है. मैं तुम्हारे बारे में जानना चाहता हूं.’

‘‘वह बोली थी, ‘मेरे बारे में जानना चाहते हो? मुझ से शादी करोगे क्या?’

‘‘उस ने मेरी ओर देख कर कहा तो मैं एकदम सकपका गया था. मैं ने उस से पूछा था, ‘पहले तुम अपने बारे में बताओ न.’

‘‘उस ने बताया था, ‘मेरा नाम सीमा है. वह मेरा चाचा है जो आप को यहां ले कर आया है. आगरा में एक कसबा फतेहाबाद है, हम वहीं के रहने वाले हैं. मेरे मातापिता की एक बस हादसे में मौत हो गई थी. उस के बाद मैं चाचाचाची के घर रहने लगी. मैं 12वीं में पढ़ रही थी तो एक दिन चाचा ने आगरा ला कर मुझे इस काम में धकेल दिया.

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‘‘चाचा के पास थोड़ी सी जमीन है जिस में सालभर के गुजारे लायक ही अनाज होता है. कभीकभार चाचा मुझे यहां ले कर आ जाता है.’

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‘‘मैं ने उस से पूछा, ‘जब चाचा ने इस काम में तुम्हें धकेला तो तुम ने विरोध नहीं किया?’

‘‘वह बोली थी, ‘किया था विरोध. बहुत किया था. एक दिन तो मैं ने यमुना में डूब जाना चाहा था. तब किसी ने मुझे बचा लिया था. मैं क्या करती? अकेली कहां जाती? कटी पतंग को लूटने को हजारों हाथ होते हैं. बस, मजबूर हो गई थी चाचा के सामने.’

‘‘फिर मैं ने उस से पूछा था, ‘इस दलदल में धकेलने के बजाय चाचा ने तुम्हारी शादी क्यों नहीं की?’

‘‘वह बोली, ‘मुझे नहीं मालूम…’

‘‘यह सुन कर मैं कुछ सोचने लगा था. तब उस ने पूछा था, ‘क्या सोचने लगे? आप मेरी चिंता मत करो और…’

‘‘कुछ सोच कर मैं ने कहा था, ‘सीमा, मैं तुम्हें इस दलदल से निकाल लूंगा.’

‘‘तो वह बोली थी, ‘रहने दो आप बाबूजी, क्यों मजाक करते हो?’

‘‘लेकिन मैं ने ठान लिया था. मैं ने उस से कहा था, ‘यह मजाक नहीं है. मैं तुम्हें यह सब नहीं करने दूंगा. मैं तुम से शादी करूंगा.’

‘‘सीमा के चेहरे पर अविश्वास भरी मुसकान थी. एक दिन मैं ने सीमा के चाचा से बात की. एक मंदिर में हम दोनों की शादी हो गई.

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प्रतिदिन: भाग 3

‘‘‘सुमित्रा मेरी सलाह लिए बिना भाभी को चाबी दे आई. आ कर भाभी की बड़ी तारीफ करने लगी. चूंकि इस का अभी तक चालाक लोगों से वास्ता नहीं पड़ा था इसलिए भाभी इसे बहुत अच्छी लगी थीं. पर भाभी क्या बला है यह तो मैं ही जानता हूं. वैसे मैं ने इसे पिछली बार जब इंडिया भेजा था तो वहां जा कर इस का पागलपन का दौरा ठीक हो गया था. लेकिन इस बार रिश्तेदारों से मिल कर 1 महीने में ही वापस आ गई. पूछा तो बोली, ‘रहती कहां? बड़ी भाभी ने किसी को घर की चाबी दे रखी थी. कोई बैंक का कर्मचारी वहां रहने लगा था.’

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‘‘सुमित्रा आगे बताने लगी कि भाभी यह जान कर कि हम अब यहीं आ कर रहेंगे, खुश नहीं हुईं बल्कि कहने लगीं, ‘जानती हो कितनी महंगाई हो गई है. एक मेहमान के चायपानी पर ही 100 रुपए खर्च हो जाते हैं.’ फिर वह उठीं और अंदर से कुछ कागज ले आईं. सुमित्रा के हाथ में पकड़ाते हुए कहने लगीं कि यह तुम्हारे मकान की रिपेयरिंग का बिल है जो किराएदार दे गया है. मैं ने उस से कहा था कि जब मकानमालिक आएंगे तो सारा हिसाब करवा दूंगी. 14-15 हजार का खर्चा था जो मैं ने भर दिया.

‘‘‘रात खानेपीने के बाद देवरानी व जेठानी एकसाथ बैठीं तो यहांवहां की बातें छिड़ गईं. सुमित्रा कहने लगी कि दीदी, यहां भी तो लोग अच्छा कमातेखाते हैं, नौकरचाकर रखते हैं और बडे़ मजे से जिंदगी जीते हैं. वहां तो सब काम हमें अपने हाथ से करना पड़ता है. दुख- तकलीफ में भी कोई मदद करने वाला नहीं मिलता. किसी के पास इतना समय ही नहीं होता कि किसी बीमार की जा कर खबर ले आए.’

‘‘भाभी का जला दिल और जल उठा. वह बोलीं कि सुमित्रा, हमें भरमाने की बातें तो मत करो. एक तुम्हीं तो विलायत हो कर नहीं आई हो…और भी बहुत लोग आते हैं. और वहां का जो यशोगान करते हैं उसे सुन कर दिल में टीस सी उठती है कि आप ने विलायत रह कर भी अपने भाई के लिए कुछ नहीं किया.

‘‘सुमित्रा ने बात बदलते हुए पूछा कि दीदी, उस सुनंदा का क्या हाल है जो यहां स्कूल में प्रिंसिपल थी. इस पर बड़ी भाभी बोलीं, ‘अरे, मजे में है. बच्चों की शादी बडे़ अमीर घरों में कर दी है. खुद रिटायर हो चुकी है. धन कमाने का उस का नशा अभी भी नहीं गया है. घर में बच्चों को पढ़ा कर दौलत कमा रही है. पूछती तो रहती है तेरे बारे में. कल मिल आना.’

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‘‘अगले दिन सुमित्रा से सुनंदा बड़ी खुश हो कर मिली. उलाहना भी दिया कि इतने दिनों बाद गांव आई हो पर आज मिलने का मौका मिला है. आज भी मत आतीं.

‘‘सुनंदा के उलाहने के जवाब में सुमित्रा ने कहा, ‘लो चली जाती हूं. यह तो समझती नहीं कि बाहर वालों के पास समय की कितनी कमी होती है. रिश्तेदारों से मिलने जाना, उन के संदेश पहुंचाना. घर में कोई मिलने आ जाए तो उस के पास बैठना. वह उठ कर जाए तो व्यक्ति कोई दूसरा काम सोचे.’

‘‘‘बसबस, रहने दे अपनी सफाई,’ सुनंदा बोली, ‘इतने दिनों बाद आई है, कुछ मेरी सुन कुछ अपनी कह.’

‘‘आवभगत के बाद सुनंदा ने सुमित्रा को बताया तुम्हारी जेठानी ने तुम्हारा घर अपना कह कर किराए पर चढ़ाया है. 1,200 रुपए महीना किराया लेती है और गांवमहल्ले में सब से कहती फिरती है कि सुमित्रा और देवरजी तो इधर आने से रहे. अब मुझे ही उन के घर की देखभाल करनी पड़ रही है. सुमित्रा पिछली बार खुद ही मुझे चाबी दे गई थी,’ फिर आगे बोली, ‘मुझे लगता है कि उस की निगाह तुम्हारे घर पर है.’

‘‘‘तभी भाभी मुझ से कह रही थीं कि जिस विलायत में जाने को हम यहां गलतसही तरीके अपनाते हैं, उसी को तुम ठुकरा कर आना चाहती हो. तेरे भले की कहती हूं ऐसी गलती मत करना, सुमित्रा.’

‘‘सुनंदा बोली, ‘मैं ने अपनी बहन समझ कर जो हकीकत है, बता दी. जो भी निर्णय लेना, ठंडे दिमाग से सोच कर लेना. मुझे तो खुशी होगी अगर तुम लोग यहां आ कर रहो. बीते दिनों को याद कर के खूब आनंद लेंगे.’

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‘‘सुनंदा से मिल कर सुमित्रा आई तो घर में उस का दम घुटने लगा. वह 2 महीने की जगह 1 महीने में ही वापस लंदन चली आई.

‘‘‘विनोद भाई, तुम्हीं कोई रास्ता सुझाओ कि क्या करूं. इधर से सब बेच कर इंडिया रहने की सोचूं तो पहले तो घर से किराएदार नहीं उठेंगे. दूसरे, कोई जगह ले कर घर बनाना चाहूं तो वहां कितने दिन रह पाएंगे. बच्चों ने तो उधर जाना नहीं. यहां अपने घर में तो बैठे हैं. किसी से कुछ लेनादेना नहीं. वहां तो किसी काम से भी बाहर निकलो तो जासूस पीछे लग लेंगे. तुम जान ही नहीं पाओगे कि कब मौका मिलते ही तुम पर कोई अटैक कर दे. यहां का कानून तो सुनता है. कमी तो बस, इतनी ही है कि अपनों का प्यार, उन के दो मीठे बोल सुनने को नहीं मिलते.’’

‘‘‘बात तो तुम्हारी सही है. थोडे़ सुख के लिए ज्यादा दुख उठाना तो समझदारी नहीं. यहीं अपने को व्यस्त रखने की कोशिश करो,’’ विनोद ने उन्हें सुझाया था.

‘‘अब जब सारी उम्र खूनपसीना बहा कर यहीं गुजार दी, टैक्स दे कर रानी का घर भर दिया. अब पेंशन का सुख भी इधर ही रह कर भोगेंगे. जिस देश की मिट्टीपानी ने आधी सदी तक हमारे शरीर का पोषण किया उसी मिट्टी को हक है हमारे मरने के बाद इस शरीर की मिट्टी को अपने में समेटने का. और फिर अब तो यहां की सरकार ने भारतीयों के लिए अस्थिविसर्जन की सुविधा भी शुरू कर दी है.

‘‘विनोद, मैं तो सुमित्रा को समझासमझा कर हार गया पर उस के दिमाग में कुछ घुसता ही नहीं. एक बार बडे़ बेटे ने फोन क्या कर दिया कि मम्मी, आप दादी बन गई हैं और एक बार अपने पोते को देखने आओ न. बस, कनाडा जाने की रट लगा बैठी है. वह नहीं समझती कि बेटा ऐसा कर के अपने किए का प्रायश्चित करना चाहता है. मैं कहता हूं कि उसे पोते को तुम से मिलाने को इतना ही शौक है तो खुद क्यों नहीं यहां आ जाता.

‘‘तुम्हीं बताओ दोस्त, जिस ने हमारी इज्जत की तनिक परवा नहीं की, अच्छेभले रिश्ते को ठुकरा कर गोरी चमड़ी वाली से शादी कर ली, वह क्या जीवन के अनोखे सुख दे देगी इसे जो अपनी बिरादरी वाली लड़की न दे पाती. देखना, एक दिन ऐसा धत्ता बता कर जाएगी कि दिन में तारे नजर आएंगे.’’

‘‘यार मैं ने सुना है कि तुम भाभी को बुराभला भी कहते रहते हो. क्या इस उम्र में यह सब तुम्हें शोभा देता है?’’ एक दिन विनोद ने शर्माजी से पूछा था.

‘‘क्या करूं, जब वह सुनती ही नहीं, घर में सब सामान होते हुए भी फिर वही उठा लाती है. शाम होते ही खाना खा ऊपर जा कर जो एक बार बैठ गई तो फिर कुछ नहीं सुनेगी. कितना पुकारूं, सिर खपाऊं पर जवाब नहीं देती, जैसे बहरी हो गई हो. फिर एक पैग पीने के बाद मुझे भी होश नहीं रहता कि मैं क्या बोल रहा हूं.’’

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पूरी कहानी सुनातेसुनाते दीप्ति को लंच की छुट्टी का भी ध्यान न रहा. घड़ी देखी तो 5 मिनट ऊपर हो गए थे. दोनों ने भागते हुए जा कर बस पकड़ी.

घर पहुंचतेपहुंचते मेरे मन में पड़ोसिन आंटी के प्रति जो क्रोध और घृणा के भाव थे सब गायब हो चुके थे. धीरेधीरे हम भी उन के नित्य का ‘शबद कीर्तन’ सुनने के आदी होने लगे.

हिमशैल: भाग 2

रायबहादुर घर में आए इस बदलाव को महसूस तो कर रहे थे पर कारण समझने में असमर्थ थे इसलिए केवल मूकदर्शक ही बन कर रह गए थे. इनसान बाहर के दुश्मनों से तो लड़ सकता है किंतु जब घर में ही कोई विभीषण हो तो कोई क्या करे. अपनों से धोखा खाना बेहद सरल है. कहते हैं कि औरत ही घर बनाती है और वही बिगाड़ती भी है. यदि परिवार में एक भी स्त्री गलत मंतव्य की आ जाए तो विनाश अवश्यंभावी है.

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उम्र बढ़ने के साथसाथ आरती की चचिया सास के निरंकुश शासन का साम्राज्य भी बढ़ता रहा. इस बात का तकलीफदेह अनुभव तब हुआ जब चाचीजी के सौतेले भाई ने अपने बेटे के विवाह में बहन की नाराजगी के डर से अजय व रायबहादुर को विवाह का आमंत्रणपत्र ही नहीं भेजा. लोगों द्वारा उन के न आने का कारण पूछने पर उन का पैसों का अहंकार प्रचारित कर दिया गया. हालांकि चाचाजी ने इस का विरोध किया था किंतु तेजतर्रार चाची के सामने उन की आवाज नक्कारखाने में तूती बन कर रह गई थी.

मृतप्राय रिश्तों के ताबूत में आखिरी कील उन्होंने तब ठोंक दी जब अजय के बेटे अंशुल के जन्मदिन की पार्टी में रायबहादुर द्वारा सानुरोध सपरिवार आमंत्रित होेने के बाद भी केवल चाचाजी थोड़ी देर के लिए आ कर रस्म अदायगी कर गए. केवल लोकलाज के लिए रिश्तों को ढोते रहने का कोई अर्थ नहीं रह गया था. इसीलिए सगी भतीजी नेहा के विवाह आमंत्रण पर अजय ने साफ कह दिया कि यदि चाचाजी के परिवार को बुलाया गया तो हमारा परिवार नहीं जाएगा.

हमेशा की तरह बिना कारण पूछे विजय छूटते ही बोला, ‘अजय, तुम तो लड़ने का बहाना ढूंढ़ते रहते हो, इसीलिए सब तुम से दूर होते जा रहे हैं.’

‘अपने दूर क्यों हो रहे हैं, यह आप नहीं समझ सकते क्योंकि समझना ही नहीं चाहते. मैं न किसी से लड़ने जाता हूं और न अहंकारी हूं. हां, साफ कहने का माद्दा रखता हूं और गलत बात बरदाश्त नहीं करता. मुझे तो भाई आश्चर्य इस बात का है कि जब वे आप को गलत नहीं लगे तो मैं क्यों लग रहा हूं या तो आप को पूरी बातें पता ही नहीं हैं या मेरी इज्जत आप के लिए कोई माने नहीं रखती है. कोई हो या न हो पर पिताजी मेरे साथ हैं और यही मेरे लिए काफी है,’ अजय एक सांस में बोल गया.

‘तुम्हीं लोगों को शिकायतें रहती हैं. पिताजी तो मेरे यहां हर फंक्शन पर आते हैं और चाचाजी व अन्य सब से ठीक से बोलते भी हैं.’

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‘संतान का मोह ही उन्हें खींच कर ले जाता है. संतान चाहे कितना भी दुख दे मांबाप का प्यार तो निस्वार्थ होता है. आप ने कभी उन का दर्द महसूस ही नहीं किया. रही बात चाचाजी से पिताजी के बोलने की, तो हम लोग उस स्तर तक असभ्य नहीं हो सकते कि कोई बात करे तो जवाब न दें या अपने घर फंक्शन पर बुला कर खाने तक के लिए न पूछें. क्या आप के लिए चाचाजी, सगे भाई व पिता की खुशी से भी ज्यादा बढ़ कर हैं?’

‘जो भी हो…पर अजय…अब केवल तुम्हारे लिए मैं चाचाजी के पूरे परिवार को तो नहीं छोड़ सकता. उन्हें तो अपनी बेटी नेहा के विवाह में बुलाऊंगा ही,’ विजय जैसे कुछ सुननेसमझने को तैयार ही न था.

‘तो ठीक है, हमें ही छोड़ दीजिए,’ भारी मन से कह अजय सब के बीच से उठ कर चला गया था. पर इस एक पल में अंदर कितना कुछ टूट गया, कौन जान सका. एक क्षण को विजय अपने ही शब्दों की चुभन से आहत हो उठा था. किंतु बंदूक से निकली गोली और मुंह से निकली बोली तो वापस नहीं हो सकती.

उस दिन का व्याप्त सन्नाटा आज तक नहीं टूट पाया था. तभी महरी की आवाज से आरती की तंद्रा भंग हो गई.

‘‘बीबीजी, आप नहीं जाएंगी नेहा बिटिया की गोदभराई पर?’’ आंखों में कुटिल भाव लिए पल्लू से हाथ पोंछती महरी ने पूछा था.

‘‘तुम्हें इस से क्या मतलब है…जाओ, अपना काम करो,’’ उस की चुगलखोरी की आदत से अच्छी तरह परिचित आरती ने उसे झिड़क दिया. वह मुंह बनाती हुई चली गई. आरती ने जा कर दरवाजा बंद कर लिया. मन की थकान से तन भी क्लांत हो उठा था. वह कुरसी पर अधलेटी सी आंखें बंद कर बैठ गई.

घर में फैले तनाव को भांप कर दोनों बच्चे अंशुल व आकांक्षा स्कूल से आ कर चुपचाप खाना खा कर अपने कमरे में पढ़ने का उपक्रम कर रहे थे. अजय के आने में देर थी. विजय का बेटा शिशिर जब बुलाने आया तो पिताजी न चाहते हुए भी उस के साथ नेहा की गोदभराई में चले गए थे. घर के एकांत में लाउडस्पीकर पर गानों की आवाज से ज्यादा पुरानी यादों की गूंज थीं.

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आपसी रिश्तों में ख्ंिचाव व नया मकान बन जाने पर अजय अपने परिवार व पिता के साथ पुश्तैनी मकान, जिस में विजय का परिवार भी रहता था, छोड़ कर पास ही बने अपने नए बंगले में शिफ्ट हो गया था. दिलों में एकदूसरे के प्रति प्यार होते हुए भी न जाने कौन सी अदृश्य शक्ति उन के संबंधों को पुन: मधुर बनने से रोकती रही. स्थान की दूरी तो इनसान तय कर सकता है पर दिलों के फासले दूर करना इतना आसान नहीं है.

तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. अन्यमनस्क सी आरती ने उठ कर द्वार खोला तो सगे देवर कमल व उस की पत्नी पूजा को आया देख सुखद आश्चर्य से भर उठीं.

‘‘आइए, अंदर आइए, कमल भैया. पूजा…कब आए लंदन से?’’ अपनों से मिलने की प्रसन्नता आंखें नम कर गई.

‘‘भाभी, बस, अभी 2 घंटे पहले ही पहुंचे हैं. पर यह सब हम क्या सुन रहे हैं. आप लोग सगाई में शरीक नहीं होंगे?’’

अंदर आ कर कमल और पूजा ने आरती को पेर छूते हुए पूछा तो अनायास ही उस की आंखें भर आईं. पूजा को उठा कर गले से लगाती हुई बोली, ‘‘लोग तो अपने देश में रह कर भी आपसी सभ्यता व संस्कार याद नहीं रखते. तुम लोग विदेश जा कर भी भूले नहीं हो.’’

‘‘हां, भाभी, विदेश में सबकुछ मिलता है. हर चीज पैसों से खरीदी जा सकती है पर बड़ों का आशीर्वाद और प्यार बाजार में नहीं बिकता. सच, आप सब की वहां बहुत याद आती है. चलिए, तैयार हो जाइए. ऐसा भी कहीं हो सकता है, घर में शादी है और आप लोग यहां अकेले बैठे हैं,’’ पूजा मनुहार करती सी बोली.

आरती के चेहरे पर कई रंग आ कर चले गए. तभी अजय भी आ गए. बरसों बाद मिले सब एकदूसरे का सुखदुख बांटते रहे. आखिर, कमल के बहुत पूछने पर अजय ने उन को अपने न जाने की वजह बता दी.

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‘‘यहां इतना कुछ हो गया और आप लोगों ने हमें कुछ बताया ही नहीं. उन सब की ज्यादतियों का हिसाब तो हम लोग ले ही लेंगे पर अभी तो आप लोग चलिए वरना हम भी नहीं जाएंगे और आप खुद को अकेला न समझें भैया. मैं हूं न आप के साथ,’’ कमल उत्तेजित हो कर बोला.

‘‘जहां इज्जत न हो वहां न जाना ही बेहतर है. यह हमारा अहंकार या जिद नहीं स्वाभिमान है. हद तो यह है कि चाचीजी के भाई सौतेले हो कर भी उन की गलत बात मान लेते हैं और हम अपने सगे भाइयों से सही बात मानने की आशा न रखें. वे मुझे ही गलत समझते हैं. और तो और पिताजी की इच्छा का भी उन के लिए कोई महत्त्व नहीं है,’’ उदासी अजय की आवाज से साफ झलक उठी थी. एक नजर सब पर डाल वह फिर कहने लगे, ‘‘इस निर्णय तक मुझे पहुंचने में तकलीफ तो बहुत हुई पर अब कोई दुख नहीं है. इसी बहाने मुझे अपने और बेगानों की पहचान तो हो गई.’’

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जाना पहचाना – क्या था प्रतिभा के सासससुर का अतीत?

‘उन की निगाहों में जाने कितने ही रंग समाए हैं….
पर हर रंग में मुझे अपना ही अक्स नजर आता है….’
अमर ने एकटक प्रतिभा को देखते हुए कहा तो वह हंस पड़ी.

“चलो आज तुम्हें अपने पैरंट्स से मिलवा दूं.” अमर ने प्रतिभा का हाथ थाम कर फिर से कहा. प्रतिभा खुशी से चीख पड़ी,
” सच”
उस के चेहरे पर शर्म की लाली बिखर गई.

माहौल में और भी रंग भरते हुए अमर ने कहा, “सोचता हूं लगे हाथ उन से हमारी शादी का दिन भी तय करवा लूं.”

प्रतिभा ने हौले से पलकें उठाते हुए कहा,” सीधे शब्दों में कहो न कि तुम मुझे प्रपोज कर रहे हो. इतने निराले अंदाज में तो कभी किसी ने प्रपोज नहीं किया होगा.”

प्रतिभा की बात सुन कर अमर हंस पड़ा फिर गंभीर होता हुआ बोला,” सच प्रतिभा बहुत प्यार करने लगा हूं तुम्हें और तुम से जुदा हो कर जीने की बात सोच भी नहीं सकता. इसलिए चाहता हूं जल्द से जल्द हमारे रिश्ते को घर वालों की भी स्वीकृति मिल जाए. ”

“जरूर मिल जाएगी स्वीकृति. तुम बताओ कब चलना है?”

“कल कैसा रहेगा? एक्चुअली कल सटरडे है. सुबह निकलेंगे तो शाम से पहले ही लखनऊ पहुंच जाएंगे. फिर संडे वापस दिल्ली.”

“वेरी गुड. मैं इंडियन ड्रैस पहन कर चलूंगी ताकि तुम्हारे पेरेंट्स को एक नजर में पसंद आ जाऊं. ” कह कर उस ने अपना सिर अमर के कंधों पर टिका दिया.

अमर और प्रतिभा एक ही ऑफिस में पिछले 4 सालों से साथ काम करते आ रहे हैं. प्रतिभा पटना की है और दिल्ली में पढ़ाई के साथ पार्टटाइम जॉब करती है. इधर अमर भी लखनऊ से अपने सपनों को पूरा करने दिल्ली आया हुआ है. दोनों इतने दिनों से साथ हैं. एकदूसरे को पसंद भी करते हैं. पर आज पहली दफा अमर ने साफ तौर पर प्रतिभा से दिल की बात कही थी. दोनों के दिल सुनहरे सपनों की दुनिया में खो गए थे.

अगले दिन सुबहसुबह ट्रेन थी. प्रतिभा ने एक सुंदर हल्के नीले रंग का फ्रॉकसूट पहना. उस पर गुलाबी रंग का काम किया हुआ दुपट्टा लिया. माथे पर नीले रंग की बिंदी लगाई. होठों पर हल्का गुलाबी लिपस्टिक लगा कर बालों को खुले छोड़ दिए. हाई हील्स पहन कर जब वह अमर के सामने आई तो वह आहें भरता हुआ बोला,” आज तो महताब जमीन पर उतर आया है…..  साथसाथ चलेगी रोशनी सारी रात …. ”

“मिस्टर शायर, आप कहें तो हम प्रस्थान करें?” मुसकुरा कर प्रतिभा ने कहा और दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़े आगे बढ़ गए.

पूरे रास्ते दोनों भावी जीवन के सपने देखते रहे. घर पहुंच कर अमर ने बेल बजाई तो प्रतिभा का दिल धड़क उठा. वह पहली बार अपनी भावी सासससुर से मिलने वाली थी. दरवाजा अमर की मां ने खोला. पीछे से उस के पिता भी आ गए. प्रतिभा ने जल्दी से दुपट्टा सिर पर रख कर सासससुर के पैर छूए और आशीर्वाद लिया. सास ने उसे गले से लगा लिया और प्यार से अंदर ले आई.

इधर प्रतिभा इस बात को ले कर चकित थी कि पहली बार मिलने के बावजूद उसे अमर के मातापिता का चेहरा जाना पहचाना सा लग रहा था. वह असमंजस की स्थिति में थी. थोड़ी देर की बातचीत के बाद आखिरकार उस ने अपने मन की बात बोल ही दी.

इस पर अमर के पिता एकदम हड़बड़ा से गए. मगर जल्द ही संभलते हुए बोले,” देखा होगा बेटी तुम ने कहीं आतेजाते.”

फिर बात बदलते हुए पूछने लगे,” तुम पटना में कहां रहती हो?”

जी कंकरबाग में. ”

जवाब दे कर प्रतिभा ने फिर सवाल किया,” पर अंकल आप दोनों तो लखनऊ में रहते हो और मैं दिल्ली में. आप कभी अमर से मिलने दिल्ली आए भी नहीं हो. फिर मैं ने आप दोनों को कहां देखा होगा?”

अमर की मां ने बात बात संभालने की कोशिश की और बोली,” बेटी एक जैसे चेहरे वाले भी बहुत से लोग होते हैं. वह सब छोड़ और यह बता कि तुझे पसंद क्या है वही बना देती हूं.”

प्रतिभा तुरंत उठ गई और बोली,” अरे आंटी आप बैठो मैं बनाती हूं न.”

इस के बाद प्रतिभा ने कोई सवाल नहीं किया. खातेपीते और बातें करते कब रात हो गई पता ही नहीं चला. सास ने प्रतिभा को अपने कमरे में सोने के लिए बुला लिया. प्रतिभा ने टेबल पर रखी तस्वीरें देखते हुए पूछा,” आंटी जी अपनी पुरानी तस्वीरें दिखाइए न और आप दोनों की शादी की तस्वीर भी.”

“अरे बेटी अब पुरानी तस्वीरें कौन निकाले. अंदर कहीं संदूक में पड़ी होगी और वैसे भी हम ने कोर्ट मैरिज की थी.”

“कोर्ट मैरिज, क्या बात है आंटी. उस जमाने में आप ने कोर्ट मैरिज कर ली.”

“अब चल सो जा प्रतिभा. पुरानी बातें याद करने से क्या फायदा?” कह कर सास करवट बदल कर सो गई. इधर प्रतिभा सोच में डूबी रही.

अगले दिन दोनों दिल्ली के लिए वापस रवाना हो गए. प्रतिभा के मन में अभी भी कुछ उलझनें थी मगर अमर बहुत खुश था. प्रतिभा को ले कर उस के मांबाप का रिस्पांस पॉजिटिव जो था. प्रतिभा ने अपने मन की बात अमर को नहीं बताई. वह उस की खुशी में कोई बाधा पहुंचाना जो नहीं चाहती थी.

दिल्ली पहुंच कर प्रतिभा ने नेट पर खोजखबर निकालने की कोशिश की. मगर कुछ पता नहीं चला. फिर उस ने अमर के मांबाप के साथ अपनी फोटो अपने पैरेंट्स को शेयर की और लिखा,” यह फोटो मेरे सब से अच्छे दोस्त के मम्मीपापा की है. उन से पहली बार मिलने के बावजूद उन का चेहरा जानापहचाना सा लगा. क्या आप इन्हें पहचानते हैं?

प्रतिभा के पिता ने जवाब दिया,”चेहरे पहचाने से लगते हैं पर याद नहीं आता कि कौन है.”

जवाब पढ़ कर प्रतिभा चुप रह गई. धीरेधीरे यह बात उस के दिलोदिमाग से उतरती गई.

कुछ दिन बाद गर्मी की छुट्टियों में प्रतिभा ने अपने घर पटना जाने की तैयारियां शुरू कर दी. पटना जाने को ले कर वह उत्साहित थी मगर अमर से बिछड़ने के अहसास से मन भारी भी हो रहा था. किसी तरह अमर से विदा ले कर वह ट्रेन में बैठ गई. सारे रास्ते वह अमर और अपने रिश्ते को ले कर सोचती रही. अब वह अमर के बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी. पिछले कुछ दिनों में अमर उस के दिल के बहुत करीब आ गया था.

पटना जंक्शन पर उतरते ही उस का दिमाग दिल्ली के गलियारों को भूल कर पटना की सड़कों पर आ टिका. अपने घर के आगे रुकते ही पुराना समय आंखों के आगे नाचने लगा जब स्कूल में पढ़ने वाली प्रतिभा अपने घरआंगन को गुलजार रखती थी. वह मम्मीपापा की इकलौती लाडली बिटिया जो थी. दरवाजा खोलते ही मां ने उसे गले से लगा लिया.

अपने कमरे का दरवाजा खोलते ही पुरानी यादों के साये फिर से उस के मन को छूने लगे.  बैग एक कोने में पटक कर वह बिस्तर पर लुढ़क गई. 2 दिन प्रतिभा ने जम कर आराम किया और मम्मीपापा को अपनी नई जिंदगी से जुड़े किस्से सुनाए. तीसरे दिन वह थोड़ी एक्टिव हुई और घर की सफाई करने लगी. सफाई के दौरान उसे जाले लगी एक पुरानी तस्वीर दिखी. तस्वीर करीब 30 -35 साल पहले की थी जब उस के मम्मीपापा कॉलेज में थे. जाले पोंछ कर प्रतिभा ध्यान से तस्वीर देखने लगी कि अचानक उसे तस्वीर में अमर के पिता दिखाई दिए हालांकि वे काफी बदले हुए नजर आ रहे थे मगर वह उन का चेहरा एक नजर में ही पहचान गई थी.

बगल में ही उसे अमर की मां भी दिख गई. प्रतिभा को अब सारी बात समझ आने लगी थी कि क्यों उसे उन दोनों के चेहरे जानेपहचाने लग रहे थे. बचपन में उस ने कई बार वह फोटो बहुत ध्यान से देखी थी. पर उसे अब तक यह समझ नहीं आया था कि उस के मम्मीपापा ने अमर के पैरंट्स की फोटो पहचानी क्यों नहीं जबकि वे कॉलेज में साथ थे.

काफी देर तक प्रतिभा यही सब सोचती रही. तभी उसे सरला काकी का ख्याल आया. उस के परिवार के साथ उन का रिश्ता बहुत पुराना था. प्रतिभा ने अपने साथ वह तस्वीर भी ले ली. सरला आंटी का बेटा सुजय उस का बचपन का साथी था.

सरला काकी ने उसे देखते ही गले से लगा लिया. कुछ देर बैठने के बाद प्रतिभा ने वह तस्वीर निकाली और काकी को दिखाई. काकी तुरंत तस्वीर पहचान गई. तब प्रतिभा ने अमर के पैरंट्स की तस्वीर दिखाई जिस में वह भी थी. इस तस्वीर को देख कर काकी चौंकी और फिर बोलीं,” अरे तुम मुकुंद और सुधा से कब मिली? वे दोनों कैसे हैं बेटा?”

“आप जानती हैं इन्हें?”

“हां मेरी बच्ची. वे तस्वीर दिखा अपने पापा वाली. उस में भी तो वे दोनों खड़े हैं न.”

“पर मम्मीपापा ने तो इन्हें पहचाना नहीं.”

प्रतिभा की बात सुन कर काकी थोड़ी गंभीर हो गई फिर बोली,” कैसे पहचानेंगे? उस का घर जो जलाया था तेरे पापा ने.”

“घर जलाया था पर क्यों काकी?”

“क्योंकि उस वक्त तेरे पापा की बुद्धि मारी गई थी. सरपंच के इशारों पर चलते थे. सरपंच ने आदेश दिया था कि उन की बिरादरी का लड़का एक दलित लड़की से शादी नहीं कर सकता. सुधा दलित थी न. सरपंच ने लठैतों को भेजा उन का घर जलाने को. बस तेरे पापा भी निकल लिए साथ. यह भी नहीं सोचा कि अपने दोस्त का घर जलाने जा रहे हैैं. उस की आंख तो तब खुली जब उन का पुश्तैनी घर पूरी तरह जलाने के बाद सरपंच के लड़कों ने मुकुंद के बूढ़ेमां बाप को भी मार डाला. छोटी बहन को घर में जिंदा जला दिया. यह सब देख कर तेरे बाप की रूह कांप उठी और उस ने उसी दिन से सरपंच का साथ पूरी तरह छोड़ दिया. इधर मुकुंद और सुधा किसी तरह अपनी जान बचा कर कहीं भाग गए. वे कहां गए, उन के साथ क्या हुआ यह कोई नहीं जानता.”

प्रतिभा चुपचाप काकी से यह बीती कहानी सुनती रही. उस की आंखों के आगे अब सब कुछ स्पष्ट हो चुका था.

“क्या आप मुझे उन का जला हुआ घर दिखा सकती हो?”

“बेटा उन का पुश्तैनी घर तो सालों पहले खंडहर में तब्दील हो चुका है और आज तक खंडहर ही है. कोई नहीं जाता उधर. तू कहती है तो मैं सुजय को भेजती हूं तेरे साथ.”

प्रतिभा सुजय के साथ उस खंडहरनुमा घर को देखने पहुंची. टूटीजली इमारतें, खाली पड़े आधेअधूरे कमरे, दरकी हुई दीवारें, दम घोंटता वीरानापन, सब चीखचीख कर उस स्याह काली रात का दर्द बयां करते दिखे. प्रतिभा ने मोबाइल से तसवीरें खींचीं. एकएक जगह जा कर उस दर्द को महसूस किया. फिर अपने घर लौट आई.

दिल्ली आ कर वह अमर के पिता से मिली और भरी आंखों से उन्हें धन्यवाद कहा तो उन्होंने चौंकते हुए प्रतिभा की ओर देखा.

प्रतिभा ने कहा,” अंकल मैं पटना के कंकड़बाग में उसी मोहल्ले में रहती हूं जहां कभी आप दोनों भी…… इतनी मुसीबतें आने के बाद भी आप ने आंटी का साथ नहीं छोड़ा. अपने प्यार को निभाया. इतनी हिम्मत दिखाई. यू आर ग्रेट अंकल …. ”

उस की बातें सुन कर अमर के पिता की आँखें भर आई. वे समझ गए थे कि जो राज उन्होंने बेटे से भी छुपाया वह सब बहू जान चुकी है. अमर के पिता ने प्रतिभा के सर पर आशीर्वाद का हाथ रखा और फिर हौले से मुस्कुरा दिए.

प्रतिभा ने फैसला कर लिया था कि अब वह जल्द ही अमर से शादी कर लेगी मगर अपने पिता को इस शादी में नहीं बुलाएंगी. अमर से भी सच्चाई छिपा कर रखेगी. इस बीच मम्मी ने फोन पर बताया कि अगले सप्ताह पापा का कैटरैक्ट का ऑपरेशन होने वाला है.

यह सुन कर उस ने अमर से बात की और उसे कोर्ट मैरिज के लिए तैयार कर लिया. कुछ खास लोगों की उपस्थिति में कोर्ट मैरिज कर के आर्य समाजी तरीके से शादी करना तय हुआ. प्रतिभा ने जानबूझ कर शादी की तारीख 15 दिन बाद की रखवाई जब उस के पापा का ऑपरेशन हो चुका हो और उस की शादी में केवल उस की मम्मी ही आ सकें.

शादी वाले दिन प्रतिभा की मम्मी ने अमर की मम्मी को देखा तो खुद को रोक नहीं सकी और सुधा कह कर एकदम से उन के गले लग गई. 30 साल पुरानी सहेलियां जो मिली थी. अमर के पिता भी प्रतिभा की मम्मी को देख कर चकित थे. तीनों भीगी पलकों से पुराने दिन याद करने लगे.

नियत समय पर शादी भी हो गई. सारा कार्यक्रम अच्छी तरह निबट गया.

प्रतिभा की मम्मी अब घर लौटने वाली थी. ट्रेन में बैठने से पहले उन्होंने प्रतिभा को गले लगाया और रोती हुई बोली,” बेटा मैं समझ गई हूँ कि तूने ऐसा इंतजाम क्यों किया ताकि केवल मुझे ही शादी में बुलाना पड़े. देख बेटा तेरे पापा के हाथों तेरे सासससुर के साथ गलत हुआ था मैं यह मानती हूं. मगर उसी दिन से तेरे पापा बिल्कुल बदल भी गए और उन्हें अपने किए पर बहुत पछतावा भी है. मुझ से शादी होने के बाद उन्हें प्यार की गहराई का एहसास भी हो चुका है. जानती है मैं जब आ रही थी तो तेरे पापा ने क्या कहा था?”

“क्या कहा था मम्मी ?”

“उन्होंने कहा, ‘मुझे लग रहा है मेरी बच्ची मेरा पाप धोने वाली है. वह उसी दलित लड़की के बेटे से शादी करने वाली है जिन के परिवार को मेरी आंखों के आगे मार दिया गया और मैं ने कोई विरोध भी नहीं किया. मैं सालों से यह दर्द और पछतावा दिल में लिए जी रहा था. मेरी बच्ची उन से रिश्ता जोड़ कर मेरी जिंदगी का दर्द थोड़ा कम कर देगी.”

“सच मम्मी, पापा सब कुछ समझ गए?” प्रतिभा की आंखें भर आईं.

“हां बेटा और वे तुझ से बात कर के आशीर्वाद देने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहे थे. उन्हें लगता है कि तू उन्हें माफ नहीं कर पाएगी.”

“ऐसा नहीं है मम्मी. पापा को कहना हम जिंदगी की नई शुरुआत करेंगे.” कह कर उस ने मम्मी को गले से लगा लिया.

उस की आंखों में खुशी के आंसू थे.

भीतर का दर्द: क्यों सानिया घर से भाग गई थी?

Writer-  रमेश मनोहरा

रमजान मियां का आज पूरा कुनबा खुश था. उन का छोटा 2 कमरे का मकान खाने की खुशबू से महक रहा था. 20 साल बाद उन की सब से छोटी बेटी सानिया जो आ रही?थी.

सानिया ने खिलाफत कर के हिंदू लड़के से शादी की थी, तभी से उन्होंने बेटी से रिश्ता तोड़ दिया था. न तो कभी बुलाने की कोशिश की और न ही कभी मिलने गए.

रमजान मियां की 4 बेटियों के बाद सानिया पैदा हुई थी. मतलब, वह उन की 5वीं बेटी थी. आखिर में लड़का पैदा हुआ था.

रमजान मियां सरकारी मुलाजिम रहे थे. आज उन्हें रिटायर हुए 20 साल हो गए थे. वे जब सरकारी नौकरी में थे, तब 1-1 कर के 4 बेटियों की शादी कर चुके थे. जब वे रिटायर हुए, तब सानिया की शादी की जिम्मेदारी रह गई थी.

सानिया काफी खूबसूरत थी. वह सब से ज्यादा पढ़ीलिखी भी थी. जब वह निकाह के लायक हुई, उस के लिए दूल्हे की खोज शुरू हो गई थी.

कई लड़के देखने के बाद फिरोज खान से बात चल रही थी. इसी बीच सानिया और सुरेश शर्मा में इश्क परवान चढ़ गया था.

सुरेश शर्मा उस के कालेज में ही था.  जब उन्हें पता चला, तब फिरोज खान के घर वाले सानिया को देखने आने वाले थे.

फिरोज खान के साथ उस के अब्बा, अम्मी और परिवार के दूसरे लोग आए थे, मगर सानिया उस समय घर में नहीं थी.

मेहमान बैठकखाने में थे. जिस बेटी को देखने आ रहे थे, वही बेटी सुबह सहेली के यहां न्योता देने की कह कर गई थी. अभी तक आने का ठिकाना नहीं. जिस सहेली की कह कर गई थी, उस ने भी इनकार कर दिया था कि वह यहां नहीं आई.

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21 साल की सानिया कोई दूध पीती बच्ची नहीं थी. मगर कहां गई, उन की चिंता को बढ़ा दिया, जबकि होने वाले समधी कई बार कह चुके थे कि रमजान मियां लड़की को बुलाओ, मगर उस का कहीं पता नहीं चला. महल्ले के लड़के भी गाड़ी ले कर ढूंढ़ने निकल पड़े. सानिया के न आने से कई तरह के डर जन्म ले रहे थे.

अभी दोपहर के 12 बज रहे थे. महल्ले के कुछ लड़कों ने आ कर कहा कि सानिया आ रही है. यह सुनते ही सब के मुरझाए चेहरे खिल उठे.

पलभर बाद जब सानिया ने बैठक में प्रवेश किया, तब हमेशा सलवारकमीज पहनने वाली उस लड़की ने साड़ी पहन रखी थी और मांग में सिंदूर था. साथ में सुरेश शर्मा भी था.

रमजान मियां बोले, ‘‘सानिया बेटी कहां चली गई थी? हम ने तुम्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा, कहांकहां नहीं फोन लगाया और तुम ने यह क्या हुलिया बना रखा है… और यह मांग में…’’

‘‘माफ करें अब्बा…’’ बीच में ही बात काटते हुए सानिया बोली, ‘‘मैं ने सुरेश से कोर्ट में जा कर शादी कर ली है. एक महीने पहले ही अर्जी दे दी थी. उन की बहन और मेरा कजिन दोनों गवाह भी हैं.’’

‘‘क्या कहा…? मेरे पूछे बिना शादी कर ली,’’ गुस्से से रमजान मियां बोले.

‘‘हां अब्बा, अगर मैं आप से पूछती, तब क्या आप यह शादी करने देते…?’’ सानिया ने पूछा.

‘‘अरे, होने वाले समधीजी…’’ उठते हुए फिरोज खान के अब्बा बोले, ‘‘हमें यहां बुला कर हमारी बेइज्जती की. चलो फिरोज, अच्छा हुआ, सगाई के पहले ही लड़की के चालचलन का पता चल गया.

‘‘ऐसी लड़की को जन्म दे कर आप ने मुसलिम कौम की बेइज्जती की है. मेरी लड़की अगर किसी हिंदू लड़के के साथ शादी करती, तब मैं उसे काट कर फेंक देता. क्या आप ने अपनी बेटी को यही तालीम दी है…’’ कह कर फिरोज खान के अब्बा समेत पूरा कुनबा गुस्से में उठ कर चल दिया.

कुछ पल के लिए वहां सन्नाटा रहा, फिर रमजान मियां बोले, ‘‘कटा दी न तुम ने हमारी नाक. अरे, मुझे कहीं का नहीं रखा… अब यहां क्या लेने आई हो?’’

‘‘आप का आशीर्वाद लेने अब्बा,’’ सानिया ने कहा.

‘‘अब्बा की नाक काट कर अब आशीर्वाद लेने आई हो…’’ रमजान मियां गुस्से से उफन पड़े थे, ‘‘चली जा… अब मुझे अपनी सूरत भी मत दिखाना.’’

‘‘बिना आशीर्वाद लिए कैसे जाऊं अब्बा?’’ सानिया बोली.

‘‘किस मुंह से आशीर्वाद लेने आई हो? अपने अब्बा की टोपी तो तुम ने उछाल दी. अरे, तू पैदा होते ही मर गई होती तो आज मुझे यह दिन नहीं देखना पड़ता. चली जा, मुझे तेरी सूरत से भी नफरत है.

‘‘तुम अपनी अम्मां को देख रही हो, जिस की आंखों से आंसू बह रहे हैं. इस का भी खयाल तुझे नहीं आया.

‘‘अरे, तेरे रिश्ते के लिए जो लोग आए थे, उन की नजर में तू ने मेरी इज्जत गिरा दी. क्या कह कर गए हैं वे, सुना तुम ने. अब आ गई आशीर्वाद लेने.

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‘‘चले जाओ तुम दोनों. अब कभी अपनी मनहूस सूरत मत दिखाना. मेरे लिए अब तुम मर चुकी हो. सुना कि नहीं, चले जाओ तुम दोनों…’’

तब सानिया और सुरेश शर्मा बाहर निकल गए. सारा घर और महल्ला उन्हें जाते हुए देखता रहा.

कुछ गुस्साए नौजवानों ने ‘सानिया मुरदाबाद’ के नारे लगाए. कुछ उग्र लड़के सुरेश शर्मा को मारना चाहते थे, मगर कुछ समझदार बुजुर्गों ने समझाया कि कानून को हाथ में मत लो.

इस घटना को घटे 20 साल हो गए. उस दिन के बाद से उन्होंने न बेटी से रिश्ता रखा और न बेटी यहां आई. वे उसे तकरीबन भूल चुके थे.

इन 20 सालों में रिश्तों के दरिया से न जाने कितना पानी बह चुका था. बेटीबाप का रिश्ता खत्म हो चुका था. सानिया को उस के एकलौते भाई की शादी में भी नहीं बुलाया गया.

मगर सानिया उन की सब से समझदार बेटी थी. उस से रिश्ता तोड़ना उन को पछतावा दे रहा है. मगर गैरकौम में शादी कर के खुद हिंदू बन जाना यही उन्हें अंदर ही अंदर कचोट रहा था. वह अपनी ही बिरादरी में शादी कर लेती, तब उन्हें कोई पछतावा नहीं होता.

इन 20 सालों में माहौल भी बदलने लगा था. हिंदूमुसलिम को अपना जानी दुश्मन बनाने में टैलीविजन कोई कसर नहीं छोड़ रहा था. रमजान मियां ने कभी यह नहीं पूछा कि कैसी है, क्या तकलीफ है, मगर उस की तरफ से भी कोई खबर नहीं आती. वह कैसे देती, उस को तो उन्होंने बेइज्जत कर के सिर्फ इसलिए निकाल दिया था कि वह मुसलमान से हिंदू बन गई है.

चलो बन गई तब कोई बात नहीं, मगर उसे तो सब सच बता देना था. उस ने भी सबकुछ छिपा कर रखा. उस की याद में कितनी रातें उन्हें ठीक से नींद नहीं आई. कई बार उन की इच्छा हुई थी कि सानिया को बुला लें, मगर अंदर के कठोर चेहरे ने हर बार इनकार कर दिया.

ऐसे में उन के एक रिश्तेदार आबिद हुसैन आ कर बोले, ‘‘तुम्हारी चारों बेटियों में से सानिया ही अपने घर में सुखी है. पैसों की बचत भी हो जाती है और वह जिस हिंदू परिवार में गई है, वह परिवार दकियानूसी नहीं है और न ही उस पर किसी तरह की रोकटोक है. आजादी से घूमती है. उस के प्रति अभी इतने कठोर मत बनो.

‘‘माना कि उस ने जवानी में आ कर अपनी मरजी का कदम उठा लिया. यह उम्र ही ऐसी होती है. वह मर चुकी?है, कह देने से बापबेटी का रिश्ता खत्म नहीं हो जाता है. उसे एक बार बुला कर तो देखो.’’

‘‘मेरे बुलाने से क्या वह आ जाएगी?’’ रमजान मियां ने पूछा.

‘‘वह तो आने के लिए तैयार बैठी थी, मगर जब तक आप नहीं बुलाएंगे, वह नहीं आएगी.’’

‘‘मगर, आप यह कैसे कह सकते हो आबिद हुसैन भाई?’’

‘‘मेरी उन से बात हुई है. उसी ने यह कहा है कि अब्बा जब तक आने को नहीं कहेंगे, तब तक नहीं आएगी…’’ आबिद हुसैन ने अपनी बात कह दी, ‘‘ठीक है, चलता हूं. मेरा काम था समझाने का मैं ने समझा दिया. अब तुम जानो. तुम उसे बुलाओ या मरी हुई समझो.’’

सानिया के प्रति उस के अब्बा ने अब तक नफरत पाल रखी थी. आबिद हुसैन उन के भीतर एक बाप का प्यार डाल गए. सचमुच सानिया को देखे 20 साल हो गए थे. बाप और बेटी का रिश्ता भी उन्होंने खत्म कर दिया था. उन की चारों बेटियों को दुखी देख कर उन का मन कितना पिघल जाता था. जब भी वे अपनी ससुराल से पीहर में आती हैं, अपना दुखड़ा सुना कर उन का मन और पिघल उठता था.

उन की बड़ी बेटी नसीम बानो ने तो यहां तक कह दिया था, ‘‘अब्बा, किस खानदान में मेरा निकाह कर दिया. रोकटोक इतनी कि खुली हवा में सांस भी न ले सकें. हर चीज के लिए तरसो. हर साल बच्चे पैदा करो, जैसे औरत को मशीन समझ रखा है.’’

जब चारों बेटियां घर में आती हैं, सब आपस में अपनी ससुराल का दुखड़ा रोया करती हैं. उन के दुखड़ों से वे खुद परेशान तो रहते ही हैं, साथ में उन की बेगम रजिया भी दुखी रहती हैं. मगर वे सब जैसेतैसे जिंदगी की गाड़ी घसीट रही हैं.

उन की चारों लड़कियों का एक ही मत है कि सानिया ने अपनी मरजी से शादी की, इसलिए आज वह सुखी है. दोनों कमा रहे हैं और बचत भी हो रही है. बच्चे भी 2 हैं, एक लड़का और एक लड़की. सानिया के सुखी परिवार को देख कर उन चारों बहनों को जलन होने लगती है.

तभी बेगम रजिया आ कर बोलीं, ‘‘आबिद हुसैन क्या कह कर गए हैं?’’

‘‘कह गए हैं कि सानिया को

बुला लो.’’

‘‘बुला लीजिए न, उसे देखने के लिए आंखें तरस गई?हैं,’’ रजिया की ममता एकदम जाग उठी.

तब नाराजगी से रमजान मियां बोले, ‘‘अरे बेगम, सानिया तो उस दिन से ही मेरे लिए मर गई, जिस दिन उस ने…’’

‘‘यह आप नहीं, बाप का कट्टर दिल बोल रहा?है…’’ बीच में ही बात काट कर रजिया बोलीं, ‘‘एक मां का दिल क्या होता है, आप क्या जानें? फिर वह हमारी बेटी है. मर गई कह देने से क्या रिश्ता खत्म हो जाएगा.’’

‘‘बेगम, तुम भी वही भाषा बोल रही हो, जो आबिद मियां बोल गए हैं…’’ नाराज हो कर रमजान मियां बोले, ‘‘मैं नहीं बुला सकता हूं. भरी बिरादरी में उस ने मेरी नाक कटा दी. आज तक बिरादरी वाले ताने मार रहे हैं.’’

‘‘हां, उस समय उस ने आप की नाक कटा दी…’’ रजिया भी जरा नाराज हो कर बोलीं, ‘‘मगर सोचो, रजिया से भले ही हम ने रिश्ते खत्म कर लिए हैं, उस ने हिंदू धर्म अपना लिया है, मगर जातबिरादरी में सुनने को मिलता है कि वह अपनी चारों बहनों से ज्यादा सुखी है…

‘‘मैं ने आप का अब तक हर कहना माना है. जैसा आप ने कहा, वैसा मैं ने किया है. आप के हर सुखदुख में मैं ने साथ दिया है. आज आप की चारों बेटियां किस कदर दुखी हैं. उन के दुख में हम कितने दुखी होते हैं. उन का दुख हमारा दुख होता है. मगर, सानिया ने हमारी मरजी के खिलाफ शादी की, पर आज वह सुखी तो है.

‘‘हम अपने भीतर का दर्द किसी को बयां नहीं कर सकते हैं. मगर सानिया को सुखी देख कर खुशियां तो मना सकते हैं कि उस ने अच्छे खानदान में निकाह किया है. अब यह अलग बात है कि कौम अलग है. कौम अलग होने से क्या इनसानियत मर जाती है? मैं कहती हूं कि जोकुछ हुआ, उसे भूल जाओ और सानिया को बुला लो.’’

रमजान मियां ने सानिया घर फोन

कर दिया. उधर से आने की रजामंदी भी मिल गई.

‘‘अब्बा,’’ रमजान मियां की सारी सोच टूट गई. सामने सानिया खड़ी थी, साथ में सुरेश और उन के दोनों बच्चे. रमजान मियां का चेहरा खुशी से खिल उठा. उन की आंखों में खुशी के आंसू छलक आए.

इन 20 सालों में सानिया कितनी बदल गई. साड़ी पहन रखी थी. बदन भरा था. गले में सोने का हार था. हाथ में 4-4 सोने की चूडि़यां, महंगी साड़ी और महंगी जूती उस की अमीरी बयां कर बना रही थी. अनजान आदमी कोई मिल जाता तो उसे मुसलिम नहीं हिंदू कहेगा.

रमजान मियां अंदर आवाज देते हुए बोले, ‘‘बेगम बाहर आओ. हमारी सानिया आई है.’’

रजिया, उन की बहू आयशा बाहर आ गए. सानिया को देख कर उस की भी आंखों में खुशी के आंसू झिलमिला पड़े.

सानिया ने अपने बच्चों से कहा, ‘प्रभात और कुसुम, ये तुम्हारे नाना और नानी हैं… और ये तुम्हारी मामी हैं. इन के पैर छुओ.’

उन्होंने बारीबारी से पैर छुए. इस समय घर का गमगीन माहौल ऐसा हो गया कि बहुत दिनों के बाद खुशियां लौटी हैं. रजिया तो खुश थीं.

‘‘कैसी हो बेटी, तुझे तो बहुत सालों के बाद देखा है…’’ अम्मी अपने आंसू पोंछते हुई बोलीं, ‘‘क्या तुम्हें हमारी याद नहीं आई?’’

‘‘मैं तो एकदम ठीक हूं अम्मी…’’ चहक कर सानिया बोली, ‘‘जब आप लोगों ने मुझ से संबंध ही तोड़ लिए, तब मैं कैसे आती? फिर भी आप लोगों की याद मुझे आती रही.’’

‘‘अरे ओ बेगम, सालों बाद तो बेटी आई है और उलट इस से शिकायत करने बैठ गई,’’ रमजान मियां ने टोका.

‘‘हां बेटी, मैं भी कैसी मां हूं, जो आते ही शिकायत करने बैठ गई,’’ अपनी गलती स्वीकार करती हुई रजिया बोलीं, ‘‘आज तुझे पास पा कर बहुत खुश हूं. बहुत खुश हूं और तुझे खुश देख कर तो और भी खुश हूं.

‘‘बता बेटी, तेरे सासससुर कैसे हैं?

वे तुझे…’’

‘‘अम्मी, मेरे सासससुर एकदम ठीक हैं…’’ बीच में ही बात काट कर सानिया बोली, ‘‘वे मुझे बहू नहीं बेटी मानते हैं. सच अम्मी मैं वहां बहुत सुखी हूं. वहां हम न हिंदू त्योहार मनाते हैं, न मुसलिम. सिर्फ हर बार बड़ा सा खर्चा होता है. सारे रिश्तेदार मिलते हैं. कोई मुझ से भेदभाव नहीं करता है.’’

मां की ममता एक बार फिर जाग उठी. उस की आंखों से फिर आंसू

बह निकले.

पलभर के सन्नाटे के बाद सानिया बोली, ‘‘अम्मी, चारों बहनों की हालत देख कर और उन का दकिनानूसी परिवार देख कर ही मैं ने फैसला लिया था कि मैं शादी अपनी इच्छा से करूंगी. तभी तो आप से खिलाफत कर के मैं ने सुरेश से शादी करने का फैसला लिया था. आज मैं वहां बहुत सुखी हूं अब्बा. मैं वहां रोरो कर जिंदगी नहीं गुजार रही हूं,’’ सानिया ने कहा.

सानिया की इस बात से रमजान मियां और रजिया की आंखों से कितनी ही गंगाजमाना बह चुकी थीं. उन के भीतर का जो दर्द था, वह मर चुका था.      द्य

गंगासागर: सपना अपनी बुआ से क्यों नाराज थी?

Writer- माला वर्मा

‘सब तीर्थ बारबार, गंगासागर एकबार,’ इस वाक्य को रटते हुए गांव से हर साल कुछ परिचित टपक ही पड़ते. जैसेजैसे गंगासागर स्नान की तारीख नजदीक आती जाती, वैसेवैसे सपना को बुखार चढ़ने लगता.

विकास का छोटा सा घर गंगासागर स्नान के दिनों में गुलजार हो जाता. बबुआ, भैया व बचवा  कह कर बाबूजी या दादाजी का कोई न कोई परिचित कलकत्ता धमक ही पड़ता. गंगासागर का मेला तो 14 जनवरी को लगता, पर लोग 10-11 तारीख को ही आ जाते. हफ्तेभर पहले से घर की काया बदल देनी पड़ती, ताकि जितने लोग हों, उसी हिसाब से बिस्तरों का इंतजाम किया जा सके.

इस दौरान बच्चों की पढ़ाई का नुकसान होता. वैसे उन की तो मौज हो जाती, इतने लोगों के बीच जोर से डांटना भी संभव न होता.

फिर सब के जाने के बाद एक दिन की खटनी होती, नए सिरे से घर को व्यवस्थित करना पड़ता था. यह सारा तामझाम सपना को ही निबटाना पड़ता, सो उस की भृकुटि तनी रहती. पर इस से बचने का कोई उपाय भी न था. पिछले लगातार 5 वर्षों से जब से उन का तबादला पटना से कलकत्ता हुआ, गंगासागर के तीर्थयात्री उन के घर जुटते रहते.

विकास के लिए आनाकानी करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था. साल में जब भी वे एक बार छुट्टियों में गांव जाते, सभी लोग आत्मीयता से मिलते थे. जितने दिन भी वे गांव में रहते, कहीं से दूध आ जाता तो कहीं से दही, कोई मुरगा भिजवाता तो कोई तालाब से ताजा मछली लिए पहुंच जाता.

‘अब जहां से इतना मानसम्मान, स्नेह मिलता है, वहां से कोई गंगासागर के नाम पर उस के घर पहुंचता हो तो कैसे इनकार किया जा सकता है?’ विकास सपना को समझाने की बहुत कोशिश करते थे.

पर सपना को हर साल नए सिरे से समझाना पड़ता. वह भुनभुनाती रहती, ‘थोड़ा सा दूधदही खिला दिया और बापदादा का नाम ले कर कलकत्ता आ गए. आखिर जब हम कलकत्ता में नहीं थे, तब कैसे गंगासागर का पुण्य कमाया जाता था? इतनी दूर से लोग गठरियां उठाए हमारे भरोसे आ पहुंचते हैं. हमारी परेशानियों का तो किसी को ध्यान ही नहीं. क्या कलकत्ता में होटल और धर्मशाला नहीं, वे वहां नहीं ठहर सकते? न जाने तुम्हें क्या सुख मिलता है उन बूढ़ेबूढि़यों से बातचीत कर के. अगले साल से देखना, मैं इन्हीं दिनों मायके चली जाऊंगी, अकेले संभालना पड़ेगा, तब नानी याद आएगी.’

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एक दिन पत्नी की भाषणबाजी पर विराम लगाते हुए विकास कह उठे, ‘‘क्या बच्चों जैसी बातें करती हो. हमें अपना समझते हैं तभी तो अधिकार सहित पहुंचते हैं. उन के पास पैसों की कमी नहीं है, चाहें तो होटल या धर्मशाला में ठहर सकते हैं. पर जब हम यहां मौजूद हैं तो उन्हें ऐसा करने की क्या जरूरत है. फिर वे कभी खाली हाथ नहीं आते, गांव का शुद्ध घी, सत्तू, बेसन, दाल, मसाले वगैरा ले कर आते हैं. अब तुम्हीं बताओ, ऐसी शुद्ध चीजें यहां कलकत्ता में मिल सकती हैं?

‘‘तुम तो सब भूल जाती हो. लौटते वक्त वे बच्चों को रुपए भी पकड़ा जाते हैं. आखिर वे हमारे बुजुर्ग हैं, 2-4 दिनों की सेवा से हम छोटे तो नहीं हो जाएंगे. गांव लौट कर वे हमारी कितनी तारीफ करते हैं तब माई व बाबूजी को कितनी खुशी होती होगी.’’

सपना मुंह बिचकाती हुई कह उठी, ‘‘ठीक है भई, हर साल यह झमेला मुझे ही सहना है तो सहूंगी. तुम से कहने का कोई फायदा नहीं. अब गंगासागर स्नान का समय फिर नजदीक आ गया है. देखें, इस बार कितने लोग आते हैं.’’

विकास ने जेब में हाथ डाला और एक पत्र निकालते हुए कह उठे, ‘‘अरे हां, मैं भूल गया था. आज ही सरस्वती बूआ की चिट्ठी आई है. वे भी गंगासागर के लिए आ रही हैं. तुम जरा उन का विशेष खयाल रखना. बेचारी ने सारा जीवन दुख ही सहा है. वे मुझे बहुत चाहती हैं. शायद मेरे ही कारण उन की गंगासागर स्नान की इच्छा पूर्ण होने जा रही है.’’

सपना, जो थोड़ी देर पहले समझौते वाले मूड में आ गई थी, फिर बिफर पड़ी, ‘‘वे तो न जाने कहां से तुम्हारी बूआ बन बैठीं. हर कोई चाची, बूआ बन कर पहुंचता रहता है और तुम उन्हें अपना करीबी कहते रहते हो. इन बूढ़ी विधवाओं के खानेपीने में और झंझट है. जरा कहीं भी लहसुन व प्याज की गंध मिली नहीं कि खाना नहीं खाएंगी. मैं ने तो तुम्हारी इस बूआ को कभी देखा नहीं. बिना पूछे कैसे लोग मुंह उठाए चले आते हैं, जैसे हम ने पुण्य कमाने का ठेका ले रखा हो.’’

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विकास शांत स्वर में बोले, ‘‘उस बेचारी के लिए कुछ न कहो. उस दुखियारी ने घरगृहस्थी का सुख देखा ही नहीं. बचपन में शादी हो गई थी. गौना हुआ भी नहीं था कि पति की मृत्यु हो गई. शादी का अर्थ भी नहीं समझा और विधवा का खिताब मिल गया. अपने ही गांव की बेटी थी. ससुराल में स्थान नहीं मिला. सब उन्हें अभागी और मनहूस समझने लगे. मायके में भी इज्जत कम हो गई.

‘‘जब भाइयों ने दुत्कारना शुरू कर दिया तो एक दिन रोतीकलपती हमारे दरवाजे आ पहुंचीं. बाबूजी से उन का दुख न देखा गया. उसी क्षण उन्होंने फैसला किया कि सरस्वती मुंहबोली बहन बन कर इस घर में अपना जीवन गुजार सकती है. उन के इस फैसले से थोड़ी देर के लिए घर में हंगामा मच गया कि एक जवान लड़की को सारा जीवन ढोना पड़ेगा, पर बाबूजी के दृढ़ व्यक्तित्व के सामने फिर किसी की जबान न हिली.

‘‘दादादादी ने भी सहर्ष सरस्वती को अपनी बेटी मान लिया और इस तरह एक दुखी, लाचार लड़की अपना परिवार रहते दूसरे के घर में रहने को बाध्य हुई. हमारी शादी में उन्होंने बहुत काम किया था. तुम ने देखा होगा, पर शायद अभी याद नहीं आ रहा. करीब 10 साल वे हमारे घर में रहीं. फिर एक दिन उन के भाईभतीजों ने आ कर क्षमा मांगी. पंचायत बैठी और सब के सामने आदरसहित सरस्वती बूआ को वे लोग अपने घर ले गए.

‘‘सरस्वती बूआ इज्जत के साथ अपने मायके में रहने लगीं. पर खास मौकों पर वे जरूर हमारे घर आतीं. इस तरह भाईबहन का अटूट बंधन अभी तक निभता चला आ रहा है. सो, सरस्वती बूआ को यहां किसी बात की तकलीफ नहीं होनी चाहिए.’’

सपना का गुस्सा फिर भी कम न हुआ था. वह भुनभुनाती हुई रसोई की तरफ चली गई.

12 जनवरी को सुबह वाली गाड़ी से सरस्वती बूआ के साथ 2 अन्य बुजुर्ग भी आ पहुंचे. नहानाधोना, खानापीना हुआ और विकास बैठ गए गांव का हालचाल पूछने. सरस्वती बूआ सपना के साथ रसोई में चली गईं तथा खाना बनाने में कुछ मदद करने का इरादा जाहिर किया.

सपना रूखे स्वर में कह उठी, ‘‘आप आराम कीजिए, थकीहारी आई हैं. मेरे साथ महरी है. हम दोनों मिल कर सब काम कर लेंगी. आप से काम करवाऊंगी तो ये नाराज हो जाएंगे. वैसे भी यह तो हर साल का नियम है. आखिर सब अकेले ही करती हूं. आप आज मदद कर देंगी, अगले साल कौन करेगा?’’

सरस्वती बूआ को सपना का लहजा कड़वा लगा. वे बड़े शौक से आई थीं, पर मुंह लटका कर वापस बैठक में चली गईं. एक कोने में उन की खाट लगी थी. खाट की बगल में छोटा स्टूल रखा था, जिस पर उन की गठरी रखी थी. वे चुपचाप गईं और अपने बिस्तर पर लेट गईं. विकास की घरगृहस्थी देखने की उन की बड़ी साध थी. बचपन में विकास ज्यादातर उन के पास ही सोता था. बूआ की भतीजे से खूब पटती थी.

बूआ की इच्छा थी, गंगासागर घूमने के बाद कुछ दिन यहां और रहेंगी. जीवन में गांव से कभी बाहर कदम नहीं रखा था. कलकत्ता का नाम बचपन से सुनती आई थीं, पूरा शहर घूमने का मन था. परंतु बहू की बातों से उन का मन बुझ गया था.

पर विकास ताड़ गए कि सपना ने जरूर कुछ गलत कहा होगा. बात को तूल न देते हुए वे खुद बूआ की खातिरदारी में लगे रहे. शाम को उन्होंने टैक्सी ली तथा बूआ को घुमाने ले गए. दूसरे दोनों बुजुर्गों को भी कहा, पर उन्होंने अनिच्छा दिखाई.

विकास बूआ को घुमाफिरा कर रात 10 बजे तक लौटे. बूआ का मन अत्यधिक प्रसन्न था. बिना कहे विकास ने उन के मन की साध पूरी कर दी थी. महानगर कलकत्ता की भव्यता देख कर वे चकित थीं.

इधर सपना कुढ़ रही थी. बूआ को इतनी तरजीह देना और घुमानाफिराना उसे रत्तीभर नहीं सुहा रहा था. वह क्रोधित थी, पर चुप्पी लगाए थी. मौका मिलते ही पति को आड़ेहाथों लिया, ‘‘अब तुम ने सब के सैरसपाटे का ठेका भी ले लिया? टैक्सी के पैसे किस ने दिए थे? जरूर तुम ने ही खर्च किए होंगे.’’

विकास खामोश ही रहे. इतनी रात को बहस करने का उन का मूड नहीं था. वे समझ रहे थे कि बूआ को घुमाफिरा कर उन्होंने कोई गलती नहीं की है, आखिर पत्नी उस त्यागमयी औरत को कितना जानती है. मैं जितना बूआ के करीब हूं, पत्नी उतनी ही दूर है. बस, 2-4 दिनों की बात है, बूआ वापस चली जाएंगी. न जाने फिर कभी उन का दोबारा कलकत्ता आना हो या नहीं.

खैर, 3-4 दिन गुजर गए. गांव से आए सभी लोगों का गंगासागर तीर्थ पूरा हुआ. शाम की गाड़ी से सब को लौटना था. रास्ते के लिए पूड़ी, सब्जी के पैकेट बनाए गए.

बूआ का मन बड़ा उदास हो रहा था. बारबार उन की आंखों से आंसू छलक पड़ते. विकास और उस के बच्चों से उन का मन खूब हिलमिल गया था. बहू अंदर ही अंदर नाखुश है, इस का एहसास उन्हें पलपल हो रहा था, पर उसे भी वह यह सोच कर आसानी से पचा गई कि नई उम्र है, घरगृहस्थी के बोझ के अलावा मेहमानों का अलग से इंतजाम करना,  इसी सब से चिड़चिड़ी हो गई है. वैसे, सपना दिल की बुरी नहीं है.

बूआ के कारण सपना को भी स्टेशन जाना पड़ा. निश्चित समय पर प्लेटफौर्म पर गाड़ी आ कर लग गई. चूंकि गाड़ी को हावड़ा से ही बन कर चलना था, इसलिए हड़बड़ी नहीं थी. विकास ने आराम से आरक्षण वाले डब्बे में सब को पहुंचा दिया. सामान वगैरा भी सब खुद ही संभाल कर रखवा दिया ताकि उन बुजुर्गों को सफर में कोईर् तकलीफ न हो.

गाड़ी चलने में थोड़ा वक्त रह गया था. विकास और उन की पत्नी डब्बे से नीचे उतरने लगे. बूआ को अंतिम बार प्रणाम करने के लिए सपना आगे बढ़ी और उन के पैरों पर झुक गई. जब उठी तो बूआ ने एक रूमाल उस के हाथों में थमा दिया. कहा, ‘‘बहू, इसे तू घर जा कर खोलना, गरीब बूआ की तरफ से एक छोटी सी भेंट है.’’

सिगनल हो गया था. दोनों पतिपत्नी नीचे उतर पड़े. गाड़ी चल पड़ी और धीरेधीरे उस ने गति पकड़ ली.

सपना को बेचैनी हो रही थी कि आखिर बूआ ने अंतिम समय में क्या पकड़ाया है? वे टैक्सी से घर लौट रहे थे. रास्ते में सपना ने रूमाल खोला तो उस की आंखें फटी की फटी रह गईं. अंदर सोने का सीताहार अपनी पूरी आभा के साथ चमचमा रहा था.

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सपना उस हार को देख कर सुखद आश्चर्य से भर उठी, ‘बूआ ने यह क्या किया? इतना कीमती हार इतनी आसानी से पकड़ा कर चली गईं. क्या अपनी सगी बूआ भी ऐसा उपहार दे सकती हैं? धिक्कार है मुझ पर, सिर्फ एक बार ही सही, बूआ को कहा होता… ‘कुछ दिन यहां और ठहर जाइए,’ यह सोचते हुए सपना की आंखों से आंसू बहने लगे.

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