आखिर क्यों छत्तीसगढ़ के इस समुदाय के बीच खिला ‘कमल’!

आदिवासी अंचल में आर एस एस एक्सप्रेस व्हाया भाजपा छत्तीसगढ़ के जिस सबसे बड़े समुदाय पर कभी कांग्रेस का वर्चस्व हुआ करता था.मगर आजकल वहां ‘कमल’ खिलने लगा है . अनुसूचित जनजाति का प्रदेश की आबादी पर लगभग 31प्रतिशत हिस्सा है और यह बड़ी आबादी अब शनै: शनै: भाजपा की ओर की खिसकती चली गई है. इसकी जानकारी कांग्रेस पार्टी को लगती तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

इस दुसाध्य काम के लिए जो समर्पण, निष्ठा, त्याग और बलिदान की आवश्यकता होनी चाहिए वह कांग्रेस के चिंतन से, दृष्टि से ओझल हो चुका है . यही कारण है कि अगर छत्तीसगढ़ पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं बस्तर, सरगुजा, बिलासपुर संभाग जो पूर्णत: आदिवासी बेल्ट के रूप में जाना जाता है यहां से कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो चुका है .

कांग्रेस का खात्मा और भाजपा की प्रतिष्ठापना कोई दो चार वर्षों का खेल नहीं बल्कि लगभग पांच दशको की अथक मेहनत साधना का, श्रम का परिणाम है . यही कारण है कि 17 वी लोकसभा में कांग्रेस को सिर्फ दो लोकसभा सीटे पर ही संतुष्ट होना पड़ा . जिसमें एक कोरबा लोकसभा है, जो आधी अनुसूचित जनजाति वर्ग की जनसंख्या का आधा सामान्य वर्ग की जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है. दूसरा, बस्तर लोकसभा से कांग्रेस के प्रत्याशी दीपको बैजल को विजय मिली. यह आदिवासी वर्ग के रूप में सुरक्षित क्षेत्र है .

आइए, देखें छत्तीसगढ़ में कैसे आर एस एस एक्सप्रेस के माध्यम से कमल फूल खिलता चला गया. और आदिवासी अंचल में आर एस एस की मेहनत के मायने क्या है .

कहानी लगभग 6 दशक पुरानी है…..

अविभाजित मध्यप्रदेश की राजधानी तब नागपुर में हुआ करती थी . बात विदर्भ के जमाने की है तब के उच्च शिक्षित बालासाहेब देशपांडेे एक दफे छत्तीसगढ़ के घुर आदिवासी क्षेत्र जशपुर पहुंचे और यहां उन्होंने आदिवासियों का दमन देखा. उन्होंने बेहद गहराई से अनुभूत किया की छत्तीसगढ़ के जशपुर अंचल के आदिवासी तो तेजी से ईसाई धर्म स्वीकार करते चले जा रहे हैं और यही हालात रहे तो यहां के आदिवासी शिक्षित जरूर हो जाएंगे.क्योंकि जशपुर में मिशनरी बड़ी तेजी से काम कर रही है मगर हिंदुत्व पर संकट के बादल मंडलाने लगेंगे .
विदर्भ प्रांत के यह शख्स कई दिनों तक जशपुर में रहे और अनुसूचित जनजाति के दर्द को निकटता से अनुभूत किया . उन्होंने देखा कि आदिवासी समुदाय का हर कोण से शोषण जारी है. गांव से लेकर शहर तक आदिवासी की लूट का साजिश का कुचक्र अनवरत रूप से जारी है . इसे महसूस करके उन्होंने आदिवासियों के लिए द्रवित भाव से कुछ करने की योजना बनानी प्रारंभ की .

छत्तीसगढ़ के प्रमुख हिंदी दैनिक मितान के संपादक छेदीलाल अग्रवाल बताते हैं बालासाहब देशपांडेे ने कल्याण आश्रम की स्थापना की और आदिवासियों के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया . मगर अकेले चना कैसे भाड़ फोडेगा, सो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से उन्होंने आदिवासियों के शोषण को रोकने मदद मागी, तब उन्हें पांच स्वयंसेवक मिले. जिन्होंने जशपुर में अपना जीवन समर्पित कर अनुसूचित जनजाति को ईसाईयत के आकर्षण से मुक्त करने का बीड़ा उठाया .

आदिवासी समाज के बीच लंबे समय से काम करने वाले प्रमुख दैनिक नवभारत से जुड़े पत्रकार रमेश पासवान के अनुसार ईसाई मिशनरी जब अनुसूचित जनजाति वर्ग के बीच काम करने पहुंची तो यह लोग भूख,अशिक्षा, और बीमारी के त्रिकोण में फंस कर बिलबिला रहे थे. मिशनरी ने इन्हें अपने पैरों पर खड़ा किया . बहुत बाद में संघ ने इस ‘घांव’ को महसूस किया और कल्याण आश्रम, वनवासी आश्रम जैसी 100 से भी अधिक अनुषंगी संस्थाओं को बीहड आदिवासी अंचल में काम करने के लिए तैयार किया. जो आज भी अनवरत रूप से क्षेत्र में काम कर रही है.

औपरेशन घर वापसी से हीरो बने जूदेव

अविभाजित मध्यप्रदेश के समय छत्तीसगढ़ के जशपुर राजघराने के राजकुमार दिलीप सिंह जूदेव ने आर एस एस के प्रभाव में आकर मिशनरियों के खिलाफ शंखनाद किया.लगभग सौ वर्षों से जिस धैर्य के साथ शिक्षा, चिकित्सा की ज्योति जागृत करके मिशनरी आदिवासियों के बीच काम करके उन्हें ईसाई धर्म की ओर आकर्षित कर रही थी उस मिथक को तोड़ने का काम जूदेव ने प्रारंभ किया .
अस्सी के दशक में दिलीप सिंह जूदेव आर एस एस के चेहरे के रूप में चमके और मूछों पर ताव देकर अनुसूचित समुदाय में “ऑपरेशन घर वापसी” के जरिए हिंदू धर्म मे वापिस लाने लगे उन्हें इससे देशव्यापी ख्याती मिली .

छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के धरमजयगढ़ विकासखंड के ग्राम सुपकालो में 1992 में दिलीप सिंह जूदेव ने ऑपरेशन घर वापसी का कार्यक्रम रखा था. जिसमें यह लेखक स्वयं उपस्थित हुआ था . इस घर वापसी कार्यक्रम में राजकुमार दिलीप सिंह जूदेव ईसाइयों को आदिवासियों को पुन: हिंदू धर्म में ला रहे थे उन्होंने वापिस आ रहे आदिवासियों का पैर धोकर नरियल, गमछा भेंट कर ससम्मान हिंदू बनाने का काम निरंतर जारी रखा . परिणाम स्वरूप जहाँ मिशनरियों पर लगाम लगी, वही आदिवासी समाज के बीच आर एस एस की घुसपैठ होती चली गई इधर कांग्रेस पार्टी हाशिए पर चली गई उसे पता ही नहीं चला .

“हम हिंदू नहीं” कहते हैं हीरा सिंह मरकाम

यहां यह उल्लेखनीय है कि एक तरफ आर एस एस की अवधारणा है कि हिंदुस्तान में रहने वाला हर गैर मुस्लिम गैर ईसाई हिंदू है वहीं मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के संस्थापक हीरा सिंह मरकाम का स्पष्ट मानना है आदिवासी समुदाय हिंदू नहीं है . इस लेखक से अपने बिलासपुर स्थित आवास पर बातचीत के दरमियान उन्होंने कहा- आदिवासी हिंदू नहीं है, हम बूढा- देव की पूजा करते हैं.हम प्रकृति के उपासक हैं. और अपना पूर्वज रावण को मानते हैं . आपका दृढ़ विश्वास है कि आदिवासी संस्कृति हिंदुत्व से एकदम अलग है. गोंडवाना लैंड की अपनी एक अहम भूमिका है. अपनी गोंडी भाषा है, लिपि है.नागपुर में अपनी प्रेस है, अपनी एक घड़ी है जो समय बताती है और एक बड़ा आदिवासी समुदाय उस घड़ी के हिसाब से सब कुछ तय करता है.

हीरा सिंह मरकाम की विचारधारा बिल्कुल अलग है और अपनी विरोधाभासी बातें कहने में कभी गुरेज नहीं करते . आप गोंडवाना संस्कृति के पुरजोर समर्थक हैं. और मानते हैं जब तलक कांग्रेस और भाजपा दोनों शोषक पार्टियों को हटा कर आदिवासी समाज गोंडवाना राज्य की स्थापना, सत्ता की स्थापना नहीं करेगा उनका शोषण बदस्तूर जारी रहेगा . इस तरह आदिवासी समाज में अलग-अलग मान्यताएं हैं. भाजपा के अनुसूचित मोर्चा के नेता श्याम लाल मरावी का कहना है आदिवासियों को हिंदुत्व के बगैर ठौर नही है . यह राष्ट्र हिंदुत्व से ओतप्रोत रहा है और आगामी समय में भी यहां हिंदूवादी संस्कृति का बोलबाला रहना है. ऐसे में हीरा सिंह मरकाम जैसे सोच के नकारात्मक शख्सियतें इस आंधी तूफान में कहां उड जाएंगी कौन जानता है .

छत्तीसगढ़ में इस तरह एक महासंघर्ष जारी है . आज भी आदिवासी अंचल में ईसाई मिशनरी अपना काम निष्ठा पूर्वक कर रही है . आदिवासियों में शिक्षा, चिकित्सा की ज्योति प्रसारित कर रही है दूसरी तरफ आर एस एस का अपना जीव॔त अभियान जारी है .

आदिवासी समाज में शिक्षा और जागृति का अभियान यहां भी सतत चालू आहे . हां, कांग्रेस पार्टी शुतुर मुर्ग की भांती रेत के में ढुये मे सर छिपा कर सोचे, यह मानने में क्या हर्ज है की देश हमारा है, आजादी हमने दिलाई है सभी जाति समुदाय का वोट हमारे हैं.इसी प्रकल्पना में कांग्रेस शनै शनै ही सही सिकुड़ती जा रही है .

अजीत-माया गठबंधन: अगर “हम साथ साथ” होते!

छत्तीसगढ़ में तीसरे मोर्चे के रूप में उभर कर राज्य की सत्ता पर काबिज होने का ख्वाब प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत प्रमोद कुमार जोगी का टूट कर बिखर चुका है . प्रदेश की राजनीति को अपनी उंगलियों पर कठपुतली की भांति नचाने का गुरूर अजीत जोगी की आंखों में, बौडी लैंग्वेज में अब दिखाई नहीं देता…इन दिनों आप प्रदेश की राजनीति मैं हाशिए पर है .

मगर जब अजीत प्रमोद कुमार जोगी ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस आलाकमान के सामने खम ठोंक कर जनता कांग्रेस ( जे ) का गठन किया था तब उनके पंख आकाश की ऊंचाई को छूने बेताब थे . यही कारण है कि अजीत जोगी के विशाल कद को देखकर बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने उनसे हाथ मिलाया और कांग्रेस के खिलाफ दोनों ने मिलकर छत्तीसगढ़ में अपनी अलग जमीन तैयार करने की कोशिश की जो असफल हो गई . अजीत जोगी के सामने 2018 का विधानसभा चुनाव नई आशा की किरणों को लेकर आया था . राजनीतिक प्रेक्षक यह मानने से गुरेज नहीं करते की अजीत जोगी जहां से खड़े हो जाते हैं लाइन वहीं से प्रारंभ होती है . मगर विधानसभा चुनाव के परिणामों ने अजीत जोगी और मायावती दोनों पर मानो “पाला” गिरा दिया. दोनों चुनाव परिणाम से सन्न, भौचक रह गए और अंततः यह गठबंधन आज टूट कर बिखर गया है .

अजीत जोगी : अकेले हम अकेले तुम
विधानसभा चुनाव के परिणाम के पश्चात अजीत जोगी और मायावती की राह जुदा हो गई . यह तो होना ही था क्योंकि अजीत जोगी और मायावती दोनों ही अति महत्वाकांक्षी राजनीतिज्ञ हैं . साथ ही जमीन पर पुख्ताई से पांव रखकर आगे बढ़ने वाले राजनेता भी माने जाते हैं. विधानसभा चुनाव में इलेक्शन गेम में अजीत जोगी ने कोई कमी नहीं की थी. यह आज विरोधी भी मानते हैं उन्होंने अपने फ्रंट को तीसरी ताकत बनाया उन्होंने जनता के नब्ज पर हाथ भी रखा था . संपूर्ण कयास यही लगाए जा रहे थे कि अजीत जोगी के बगैर छत्तीसगढ़ में राजनीतिक हवाओं में पत्ते भी नहीं हिलेंगे.
अगर कांग्रेस को दो चार सीटें कम पड़े तो अजीत जोगी साथ देंगे अगर भाजपा को दो चार सीटे कम मिली तो अजीत जोगी कठिन डगर में साथ देंने हाजिर हो जाएंगे . मगर प्रारब्ध किसको पता है ? छत्तीसगढ़ में अनुमानों को तोड़ते ढहाते हुए छत्तीसगढ़ की आवाम ने कांग्रेस को ऐतिहासिक 68 सीटों पर विजय दिलाई और सारे सारे ख्वाब, सारे मंसूबे चाहे वे अजीत जोगी के हो या मायावती के ध्वस्त हो गए .

अगर “हम साथ साथ होते” !
मायावती ने निसंदेह जल्दी बाजी की और छत्तीसगढ़ की राजनीति में अजीत जोगी और अपनी पार्टी के लिए स्वयं गड्ढा खोदा . विधानसभा चुनाव के अनुभव अगरचे मायावती और अजीत जोगी देश की 17 वीं लोकसभा समर में साथ होते तो कम से कम दो सीटें प्राप्त कर सकते थे . विधानसभा चुनाव में बिलासपुर संभाग की तीन लोकसभा सीटों पर इस गठबंधन को बेहतरीन प्रतिसाद साथ मिला था . और यह माना जा रहा था कि बिलासपुर और कोरबा लोकसभा सीट पर बसपा और जोगी कांग्रेस कब्जा कर सकते हैं . इसके अलावा तीसरी सीट जांजगीर लोकसभा में बहुजन समाज पार्टी के दो विधायक के साथ अच्छी बढ़त मिली जिससे यह माना जा रहा था कि यह गठबंधन बड़ी आसानी से यह लोकसभा सीट पर पताका फहरा सकता है . मगर बहन मायावती ने भाई अजीत जोगी जैसे मजबूत खंबे पर विश्वास नहीं किया और अपने प्रत्याशियों को मैदान-ए-जंग में उतारा . अजीत जोगी मन मसोस कर रह गए .

लोकसभा में दोनों की साख बढ़ती
यहां यह बताना आवश्यक है कि अजीत जोगी और मायावती की पार्टियों को विधानसभा चुनाव में आशा के अनुरूप भले ही परिणाम नहीं मिले मगर यह मोर्चा तीसरे मोर्चे के विरुद्ध समर्पित हो गया अजीत जोगी को 5 सीटें मिली और मायावती को सिर्फ दो विधान सभा क्षेत्रों मैं सफलता मिली . संभवत: इसी परिणाम से मायावती नाराज हो गई . क्योंकि छत्तीसगढ़ में बसपा को 2 से 3 सीटों पर तो विजयश्री मिलती ही रही है . ऐसे में यह आकलन की अजीत जोगी से गठबंधन का कोई लाभ नहीं मिला तो सौ फीसदी सही है मगर इसके कारणों का भी पार्टी को चिंतन करना चाहिए था जो नहीं किया गया और लोकसभा में अपनी-अपनी अलग डगर पकड़ ली गई जो भाजपा और कांग्रेस के लिए मुफीद रही .
लोकसभा समर में बसपा को कभी भी एक सीट भी नहीं मिली है अगरचे यह गठबंधन मैदान में होता तो बसपा आसानी से एक सीट पर विजय होती . यह क्षेत्र है जांजगीर लोकसभा का . मगर बसपा ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली भाजपा के नये चेहरे की राह आसान कर दी . दूसरी तरफ जोगी और उनकी पार्टी का भविष्य भी अंधकारमय हो चला .

नगरीय-निकाय चुनाव में क्या होगा ?
अजीत जोगी ने विधानसभा चुनाव में हाशिए पर जाते ही पार्टी की कमान अपने सुपुत्र अमित ऐश्वर्य जोगी को सौंप दी है . प्रदेश में वे अपना मोर्चा खोलकर आए दिन रूपेश सरकार की नाक में दम किए हुए हैं . अपने हौसले की उड़ान से अमित जोगी ने यह संदेश दिया है कि वे आने वाले समय में एक बड़ी चुनौती भाजपा और कांग्रेस के लिए बनेंगे . उन्होंने अकेले दम पर नगरीय चुनाव पंचायती चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है . इधर बीएसपी ने भी अपने बूते चुनाव लड़ने की घोषणा की है मगर बीएसपी नगरीय चुनाव में कभी भी अपना एक भी महापौर जीता पाने में सफलीभूत नहीं हुई है .

यह तथ्य समझने लायक है कि अजीत जोगी और मायावती की युती छत्तीसगढ़ में बड़े गुल खिला सकती थी. अजीत जोगी की रणनीति और घोषणा पत्र को कांग्रेस ने कापी करना शुरू किया और अपने बड़े संगठनिक ढांचे के कारण कांग्रेस आगे निकल गई अन्यथा अजीत जोगी के 2500 रुपए क्विंटल धान खरीदी और बिजली बिल हाफ फार्मूला को अगर कांग्रेस नहीं चुराती तो जोगी और बसपा की स्थिति आश्चर्यजनक गुल खिला सकती थी . राजनीति में संभावनाओं के द्वार खुले रहते हैं ऐसे में भविष्य में क्या होगा यह आप अनुमान लगा सकते हैं.

नतीजा: लोकसभा चुनाव 2019 फिर लौटी भाजपा

अगर पिछली बार मोदी की लहर थी तो इस बार क्या माना जाए? साल 2014 से अब साल 2019 तक पिछले 5 साल में बहुमत में आए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अगुआ नरेंद्र मोदी को मई की 23 तारीख बहुत रास आई. लोकसभा चुनाव की कुल 542 सीटों में से राजग ने 350 से ज्यादा सीटें जीत कर पूरे विपक्ष को चारों खाने चित कर दिया. अकेली भारतीय जनता पार्टी ने 300 से भी ज्यादा सीटों पर कब्जा जमाया जबकि अपने वजूद से जूझ रही कांग्रेस और उस की सहयोगी पार्र्टियां 86 सीटें ही अपने नाम कर पाईं.

हालांकि कांग्रेस ने 52 सीटें जीत कर उम्मीद से कुछ बेहतर किया, पर वह मोदी और शाह के बनाए इस चुनावी चक्रव्यूह में उलझ कर रह गई. राहुल गांधी इस चक्रव्यूह के भीतर तो चले गए थे, पर भेद नहीं पाए.

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के अलावा बचे अन्य दलों और आजाद उम्मीदवारों के हिस्से में 104 सीटें रहीं. कुलमिला कर पूरा विपक्ष मिल कर भी नरेंद्र मोदी के राष्ट्रवाद के आगे घुटने टेक गया.

ढीला महागठबंधन

सब से बड़ी लड़ाई तो 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में दिखाई दे रही थी. वहां खंडहर हो चुकी समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने दलितों की मसीहा बहुजन समाज पार्टी की मायावती के साथ मजबूत तालमेल किया था ताकि भारतीय जनता पार्टी साल 2014 वाला खेल न खेल जाए. उस समय अकेली भाजपा ही 73 सीटें जीत गई थी, जिस से उस का केंद्र में सरकार बनाना और भी आसान हो गया था.

लेकिन समाजवादी पार्टी के यादव वोटों और बसपा के दलित वोटों का ट्रांसफर पूरी तरह से नहीं हो पाया. भाजपा की सीटें जरूर कम हुईं, लेकिन मायावती और अखिलेश यादव का गठबंधन उसे उतनी ज्यादा चोट नहीं पहुंचा पाया, जो उम्मीद की जा रही थी. समाजवादी पार्टी को 5 सीटें मिलीं तो बसपा को 10 सीटें. हां, मायावती जरूर फायदे में रहीं, क्योंकि पिछली बार तो वे खाता तक नहीं खोल पाई थीं.

कांग्रेस तो उत्तर प्रदेश में उबर ही नहीं पाई. उसे महज 1 सीट मिली. राहुल गांधी जिस जोश के साथ अपनी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को पहले कांग्रेस में और बाद में चुनाव प्रचार में तुरुप का इक्का बना कर लाए थे, वह रणनीति भी काम न आई. अमेठी में भाजपा की स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी को कड़ी टक्कर दी. नतीजे के दिन उन में जीत के लिए चूहेबिल्ली का सा खेल चलता रहा. आखिर में स्मृति ईरानी जीत गईं.

इन चुनावों में राहुल गांधी ने अकेले ही सत्ता पक्ष से लोहा लिया था. उन्होंने राफेल घोटाले के मसले पर मोदी सरकार को खूब घेरा था, पर चूंकि उन्हें बाकी विपक्ष का सही साथ नहीं मिला इसलिए वे जनता को यह समझाने में चूक गए कि देशहित में वे जो कह रहे हैं, वह कितना अहम है.

यहां भी विपक्ष बेहाल

40 सीटों वाले बिहार में इस बार बिना लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल पूरी तरह अनाथ दिखा. उन के परिवार में जबरदस्त गुटबाजी रही. तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव की आपसी रंजिश चुनाव में दिखी. मुसलिम और यादव वोटों की एकता पूरी तरह चरमरा गई. संप्रग खेमे को 1 सीट ही मिल पाई, इस के उलट भाजपाई गठबंधन ने 39 सीटें जीत कर सब को चौंका दिया.

कांग्रेस भी कोई खास करिश्मा नहीं कर पाई, जबकि वाम दल तो जैसे पहले ही हार मान चुके थे.

सब से ज्यादा चौंकाने वाले नतीजे पश्चिम बंगाल में रहे. वहां 42 सीटों पर तृणमूल और भाजपा में टक्कर रही.

चुनाव से पहले भाजपा ने ममता बनर्जी को कमजोर सत्ताधारी साबित करने के लिए पूरा जोर लगा दिया था, क्योंकि भाजपा को यकीन था कि अगर वह उत्तर प्रदेश में ज्यादा सीट नहीं जीत पाएगी तो उन की भरपाई यहां से कर लेगी या कोशिश करेगी.

ममता बनर्जी को भी अंदेशा हो गया था कि जिस तरह अमित शाह उन्हें हिंदुओं की विरोधी साबित करने पर तुले हुए हैं, उस पर बहुत से लोग आंख मूंद कर यकीन कर लेंगे और बाद में हुआ भी यही. भाजपा ने उन के दुर्ग में सेंध लगा दी.

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महाराष्ट्र और गुजरात में तो जैसे विपक्ष का सूपड़ा ही साफ हो गया. वहां कांग्रेस और दूसरे दल राजग के सामने कहीं नहीं ठहरे. महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार ही ऐसे बड़े नेता थे, जो मोदी को टक्कर दे सकते थे. लेकिन महाराष्ट्र में राकांपाकांग्रेस की जोड़ी को मुंह की खानी पड़ी. जिन शरद पवार को प्रधानमंत्री पद की दौड़ में एक भागीदार माना जाता था, वे अपने ही किले को बचाने में नाकाम रहे.

दिल्ली में आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल सियासी बाजीगरी में पूरी तरह से चूक गए. लोकसभा चुनाव से पहले वे दावे कर रहे थे कि ‘आप’ सातों सीटें जीतने वाली है, लेकिन जब उन्हें लगा कि अकेले  भाजपा से लोहा नहीं लिया जा सकता है तो उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन करने की बात कही थी, लेकिन वह नहीं हो सका.

बीएस येदियुरप्पा के कर्नाटक में भाजपा ने बंपर जीत हासिल की, जबकि आंध प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू ने तो विधानसभा चुनाव भी गंवा दिए.

जातिवाद की मची जंग

जिस बात का डर था वही हुआ. साल 2014 का लोकसभा चुनाव जीत कर बतौर प्रधानमंत्री पहली बार संसद पहुंचे नरेंद्र मोदी जब अक्तूबर महीने के खुशनुमा मौसम में दिल्ली की वाल्मीकि बस्ती में पहुंचे थे और वहां झाड़ू लगा कर ‘स्वच्छ भारत’ अभियान की शुरुआत की थी, तब लगा था कि हो न हो, अब देश में अच्छे दिन आ जाएंगे.

तब एक और उम्मीद बंधी थी कि शायद अब देश में जातिवाद के नाम पर जलालत का जहर पी रही दलित जातियों पर हो रहे जोरजुल्म कम हो जाएंगे और अगला लोकसभा चुनाव जातिधर्म की सियासी बाजीगरी से नजात पा लेगा.

पर अफसोस, ऐसा हो न पाया, क्योंकि इस बार का चुनाव, चाहे किसी भी राजनीतिक दल की बात कर लें, सरेआम जाति के नाम पर लड़ा गया. सोशल मीडिया पर उन के आईटी सैल ने जाति को खूब भुनाया.

देश के बड़े राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार के नेता तो जाति और अपने समाज के नाम पर वोट मांगते दिखे ही, दिल्ली और हरियाणा में चुनाव लड़ रही आम आदमी पार्टी भी जाति के जंजाल में उलझती दिखी, तभी तो दिल्ली में आतिशी मार्लेना और हरियाणा में नवीन जयहिंद को भी बताना पड़ा कि वे जाति से राजपूत और ब्राह्मण हैं.

राहुल गांधी और जनेऊ

जब भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में बनी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार अपने पिछले 5 साल की नाकामियों पर विपक्ष खासकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के पूछे गए तल्ख सवालों जैसे नोटबंदी और जीएसटी की नाकामी, बढ़ती बेरोजगारी, किसानों की खुदकुशी, धर्म के नाम पर लोगों में विभाजन, दलितों और आदिवासियों की समस्याओं पर ठोस जवाब नहीं दे पाई तो उस ने राहुल गांधी की जाति का ही जहरीला जुमला उछाल दिया. राहुल गांधी इस चाल में फंस भी गए थे, तभी तो वे मंदिरमंदिर घूमते दिखे. उन्हें अपना गोत्र तक बताना पड़ा.

उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती का महागठबंधन पूरी तरह से जाति के वोटों पर टिका था. दोनों दलों में दलित और यादव समाज के बल पर अपनी लोकसभा सीटों को बढ़ाने की पूरी ललक दिखी.

दलितों में जाटव और अन्य पिछड़ा वर्ग में यादव के अलावा जाट और गुर्जर समाज पर भी सब की नजर रही थी. यह एक तरह का इम्तिहान भी था कि क्या आज भी चुनाव में लोग जाति के नाम पर अपना वोट डालते हैं या नहीं?

इस बार के चुनावी माहौल में इनसानों की तो छोडि़ए, हनुमान की जाति पर भी गरमागरम बहस हुई थी. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने साल 2018 के नवंबर महीने में राजस्थान में चुनाव प्रचार के दौरान हनुमान को दलित बताया था.

योगी आदित्यनाथ ने तब कहा था, ‘बजरंग बली हमारी भारतीय परंपरा में एक ऐसे लोक देवता हैं, जो स्वयं वनवासी हैं, गिरवासी हैं, दलित हैं, वंचित हैं, पूरे भारतीय समुदाय उत्तर से ले कर दक्षिण तक, पूरब से पश्चिम तक सब को जोड़ने का काम बजरंग बली करते हैं.’

योगी आदित्यनाथ का इतना कहना था कि देश के भगवा खेमे में ही बवाल मच गया. ज्योतिष व द्वारिका पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने

दोटूक कहा कि हनुमान की जाति बता कर मुख्यमंत्री ने पाप किया है. जबकि यह एक सोचीसमझी चाल के तहत बोला गया था ताकि दलित और पिछड़े तबके के लोगों को लुभा कर उन के वोट अपनी तरफ खींच लिए जाएं.

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इसी तरह बिहार में भी हर दल जाति के रंग में रंगा दिखा. साल 2015 के विधानसभा चुनावों में उछला ‘जाति तोड़ो, जनेऊ तोड़ो’ बस एक नारा बन कर रह गया. वहां भी एक ही फार्मूला दिखा कि उसी जाति के उम्मीदवार को टिकट दो, जिस के वोट की गारंटी हो. जाति के नाम पर बने सामाजिक समूह पूरे दमखम के साथ सामने आए.

मध्य प्रदेश में तो भोपाल सीट पर लड़ा गया चुनाव पूरे देश में जातिवाद को उभारने की अति कर गया. साध्वी प्रज्ञा और दिग्विजय सिंह के बीच मानो धर्मयुद्ध और हठयुद्ध सा छिड़ गया था.

वोटिंग का दिन आतेआते दिग्विजय सिंह भी हिंदुत्व के रंग में रंगे दिखाई दिए. इन दोनों उम्मीदवारों में खुद को सब से बड़ा हिंदूवादी होने की होड़ सी लग गई थी. दिग्विजय सिंह द्वारा कराया गया कंप्यूटर बाबा का हवन तो अंधविश्वास की हद था. यह नौटंकी जातिवाद की चाशनी में लिपटी ऐसी खतरनाक मिठाई थी जिस से पूरा समाज और देश मधुमेह से पीडि़त होता दिखाई दिया.

भाजपा का छिपा एजेंडा

भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यही छिपा एजेंडा था कि अगर उसे मुसलिम वोट न भी मिलें तो देश में इस तरह का माहौल बना दिया जाए जिस से अगड़े और बाकी निचले समाज में सोच की खाई इतनी बढ़ जाए कि सारे अगड़े वोट उसे मिलें और निचले तबके के वोट बाकी पार्टियों में बंट जाएं.

हरियाणा में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला. भाजपा सरकार ने गैरजाट जातियों के मन में यह बिठा दिया कि जाट समाज के नेता बस अपने लोगों की चौधराहट जमाए रखने की राजनीति करना चाहते हैं. इन चुनावों में जाट बनाम जाति तमाम को ध्यान में रख कर अपनीअपनी गोटियां फिट की गई थीं.

कम शब्दों में कहा जाए तो जम्मूकश्मीर से कन्याकुमारी तक और गुजरात से पश्चिम बंगाल तक हर राज्य में हर सियासी दल ने जाति और धर्म की राजनीति खूब खेली. इस का सब से बुरा नतीजा यह रहा कि गांवदेहात के साथसाथ अब शहरों में भी लोग अपनी जाति की पहचान को अहमियत देने लगे हैं, जो धीरेधीरे नई पीढ़ी को भी अपनी चपेट में ले रहा है.

किस मुंह से मांगेंगे गरीब

अब आगे क्या होगा? जिस तरह से पूरी दुनिया में अति दक्षिणपंथी और बड़बोले नेता सत्ता पर काबिज हो रहे हैं, वह यकीनन चिंता की बात है. भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपना आदर्श मानने वाली भारतीय जनता पार्टी के

लिए देश को सुगमता से चलाने की

सब से बड़ी चुनौती वह भारतीय अर्थव्यवस्था रहेगी जो पूरी तरह से चरमराती दिख रही है.

याद रहे, किसी देश को आगे बढ़ाने में वहां के किसान और मजदूर अपना सब से ज्यादा योगदान देते हैं. भारत में इन दोनों वर्गों में पिछड़े और दलित तबके के लोग ज्यादा हैं. लेकिन अफसोस, इन की हालत बहुत ज्यादा अच्छी नहीं है. जब साल 2014 में मोदी सरकार आई थी तब लगा था कि ‘सब का साथ सब का विकास’ का नारा इन दबेकुचलों के अच्छे दिन तो ले ही आएगा, लेकिन समय के साथसाथ यह जुमला ही

साबित हुआ.

इन चुनावों से पहले जिस तरह से देश में किसानों और दलितपिछड़ों ने अपने हक में आवाज उठाई थी, उस से लगा था कि इस का गंभीर नतीजा सत्ता पक्ष को भुगतना पड़ेगा. लेकिन अब चूंकि राजग सरकार दोबारा केंद्र में आ गई है तो आने वाले कम से कम 3 साल तक तो किसानों और मजदूरों को चुप्पी साध कर रखनी होगी.

हम यह नहीं कह रहे हैं कि हर किसान या मजदूर ने सत्ता पक्ष को वोट दिया होगा, पर जिस तरह से राजग को बहुमत मिला है, अब यह वर्ग मुंह खोल कर अपने हकों को उठा नहीं पाएगा. जो केंद्र सरकार से मिलेगा, उसे अपनी तकदीर मान कर कबूल कर लेना होगा.

लेकिन इस का जो सब से बड़ा नुकसान होगा, वह यह

कि धीरेधीरे यह कमेरा तबका दिशाहीन हो जाएगा. हालफिलहाल तो वह यह समझने की हालत में ही नहीं रहेगा कि कौन उस का हक मार रहा है. वे कौन सी छिपी ताकतें हैं जो उस के मेहनतकश हाथों को कुंद कर रही हैं. पर जब तक वह समझ पाएगा, तब तक देर हो चुकी होगी.

पिछले 5 साल में विपक्ष ने जनता के सामने जो मुद्दे रखे, उन सब पर नरेंद्र मोदी का नाम भारी पड़ता दिखा. लोगों ने हर समस्या को दरकिनार कर बस इस नाम को अहमियत दी. पर याद रखें कि भावनाओं में बह कर वोट करना और चिडि़या का खेत चुगना दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, क्योंकि बाद में पछताने से कोई फायदा नहीं होता है. द्य

…तो इसलिए पूरा जोर नहीं लगा पाया विपक्ष

इस चुनाव में कांग्रेस का जो भी हाल रहा, पर एक बात तो साबित हो गई कि इस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी का खुद पर और अपने नेताओं पर बहुत ज्यादा भरोसा है. यही वजह रही कि कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी के साथ लालच वाला गठबंधन नहीं किया, जबकि अगर ये दोनों दल दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में मिल जाते तो नतीजे कुछ और बेहतर हो सकते थे.

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सब से ज्यादा हैरानी वाला गठबंधन तो उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव के बीच हुआ था. वहां भी उम्मीद की जा रही थी कि चूंकि उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने एकसाथ चुनाव लड़ा था तो अखिलेश यादव कुछ भी कर के कांग्रेस को भी अपने महागठबंधन में आने का न्योता देते. इस से उत्तर प्रदेश में समीकरण ही बदल जाते.

भाजपा की लगातार होती तानाशाही इमेज और धर्मजाति के नाम पर लोगों को बांटने की राजनीति पर यह तिहरी चोट बड़ा असर दिखाती और वोटरों में यह संदेश जाता कि भारत में चुनाव प्रधानमंत्री चुनने के लिए नहीं लड़े जाते हैं, बल्कि अपने इलाके का विकास करने वाले जनप्रतिनिधि को संसद में भेजने का रिवाज है.

सभी विपक्षी दल जानते थे कि नरेंद्र मोदी यह चुनाव अपनी उपलब्धियों पर नहीं लड़ रहे हैं और जहांजहां वे फेल हो रहे हैं या हो चुके हैं जैसे नोटबंदी, जीएसटी, बेरोजगारी, किसानों की अनदेखी, औरतों, दलितों और आदिवासियों की सुरक्षा पर उन को जिस तरह से घेरना चाहिए था वह हो नहीं पाया.

इन चुनावों में क्षेत्रीय दल अपने में ही सिमटे दिखाई दिए. जब सब जानते थे कि लोकसभा चुनाव में नैशनल लैवल के मुद्दों पर वोटिंग होती है तो उन्हें मिल कर हर उस मुद्दे पर पुरजोर बहस करनी चाहिए थी जो पूरे देश के हित से जुड़े थे. लेकिन पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी अपना राज्य बचाती दिखाई दीं तो बिहार में लालू प्रसाद यादव का परिवार अपने वजूद की लड़ाई में ही उलझा रहा. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को अपनी जमीन खिसकती दिखाई दी तो हरियाणा में तमाम जाट नेता ही बंट चुके थे.

महाराष्ट्र, राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस को कोई मजबूत साथी नहीं मिला. दक्षिण भारत के नेताओं का भी कमोबेश यही हाल रहा. विपक्ष की यही कमजोरी नरेंद्र मोदी की सब से बड़ी ताकत बनी और नतीजा आप सब के सामने है.

क्या है राधे मां का भोपाल कनेक्शन

राधे मां के चेहरे पर विकट का तेज है अधिकांश लोगों का यह मानना गलत नहीं है कि यह तेज , वह तेज नहीं है जो तप बल , योग , भक्ति बगैरह के चलते आता है बल्कि इस तेज के लिए वह लाखों रुपये मेकअप पर खर्चती हैं . उनके गोरे गुलाबी चेहरे की लालिमा और होठों पर पुती सुर्ख लिपिस्टिक इस बात की चुगली भी खाती है . उम्र को मात करती इस सन्यासिन को कोई अगर रूबरू देखे तो वह सहज ही इस बात पर यकीन नहीं करेगा कि वह ज़िंदगी के साढ़े पाँच वसंत देख चुकी हैं और उनकी फिटनेस देखते इस बात पर तो कतई कोई यकीन नहीं करेगा कि वह महज 22 साल की उम्र में छह बच्चों की मां बन चुकी थीं.

राधे मां का विवादों से कितना गहरा नाता है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन पर दर्जनों मुकदमे देश भर की अदालतों में चल रहे हैं इनमें से एक भोपाल का भी है जो एक अधिवक्ता रामकुमार पाण्डेय ने दायर कर रखा है . इन वकील साहब ने अदालत में दायर मुकदमे में उन पर आरोप लगाए हैं कि वह समाज में अश्लीलता फैला रही हैं , धार्मिक भावनाएं भड़काती हैं और खुद को देवी का अवतार बताती हैं और मां शब्द को बदनाम कर रही हैं.

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इन बातों या इस तरह के आरोपों से राधे मां और उनकी अरबों की दुकान अप्रभावित ही रहती है . एकाएक ही राधे मां भोपाल आईं तो लोग चौंके थे क्योंकि इस शहर में उनके भक्तों की तादाद न के बराबर है और कभी उन्होने भोपाल में अपनी चौकी नहीं लगाई .  गौरतलब है कि राधे मां की एक चौकी यानि दरबार लगाने की फीस लाखों रु होती है जिसे देश भर में फैले उनके भक्त बिना किसी हिचक या मोल भाव के देते हैं . इन चौकियों में राधे मां आइटम गानों पर नाचती हैं और नाचते नाचते किसी भी भक्त की गोद में चढ़ जाती हैं जो आमतौर पर पुरुष ही होता है . जिसकी गोद में वे चढ़ जाती हैं उसे बड़ा किस्मत बाला माना जाता है और अगर गोद में अठखेलियाँ खाते वे भक्त को चूम भी लें तो माना जाता है कि उस  भक्त की हर मनोकामना पूरी होगी . ( यह कोई नहीं सोचता कि जिसकी गोद में सवार होकर यह अनिद्ध सुंदरी उसे चूम ले उसके दिलोदिमाग में कोई ख़्वाहिश बाकी भी रह पाएगी ) .

चौंकाया शिवराज परिवार को –

   लोगों को लगा था कि राधे मां मुकदमे के सिलसिले में भोपाल आई होंगी लेकिन उनके इने गिने भक्त भी उस वक्त हैरान रह गए जब वे सीधे पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के निवास पर जा पहुँचीं . देशभर के तमाम धर्म गुरुओं से शिवराज सिंह के आत्मीय संबंध जगजाहिर हैं पर इस लिस्ट में राधे मां का नाम अभी तक शुमार नहीं था . दरअसल में पिछले दिनों ही उनके पिता का निधन हुआ है लिहाजा उन्हें व उनके परिवार को सान्त्व्ना देने देश भर सी राजनैतिक और धार्मिक हस्तियाँ आ रहीं हैं .

लेकिन राधे मां के यूं अचानक आ धमकने का अंदाजा शिवराज सिंह को भी नहीं रहा होगा लेकिन जब आ ही गईं थीं तो उन्हें रोका भी नहीं जा सकता था , इसलिए राधे मां को संभालने का जिम्मा उनकी पत्नी साधना सिंह ने उठाया और मिनटों में ही राधे मां को चलता कर दिया . शोक व्यक्त कर और हिम्मत बंधाकर राधे मां रुखसत हुईं तो मीडिया कर्मियों ने उन्हें घेर लिया .  बातचीत में राधे मां ने इस अफवाह को खारिज किया कि वे राजनीति में आ रहीं हैं.

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तो फिर क्यों यह विवादित सन्यासिन भोपाल आई थी इसका जबाब ढूँढे से लोगों को नहीं मिल रहा है और शायद मिलेगा भी नहीं हाँ इतना जरूर पता चला कि वे असल में एक निजी कार्यक्रम में हिस्सा लेने भोपाल से 80 किलोमीटर दूर होशंगाबाद भी गईं थीं . शिवराज सिंह के घर तो वे शायद मीडिया की सुर्खी बनने चली गईं थीं .

सुखाविंदर बनी राधे मां

अपनी ऊटपटाँग हरकतों की वजह से ब्रांडेड सन्यासिन बनी राधे मां की ज़िंदगी किसी फिल्मी कहानी से कमतर नहीं है . पंजाब के गुरुदासपुर के गाँव दोरंगला में साल 1965 में जब एक मामूली सिक्ख परिवार में राधे मां जन्मी थीं तब कोई आकाशवाणी बगैरह नहीं हुई थी कि यह कन्या देवी का अवतार है और कालांतर में इसका भगवान से सीधा कनेकशन होगा . 17 साल की उम्र में ही सुखाविंदर की शादी सरदार मोहन सिंह से हो गई थी . मोहन के परिवार की भी माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी लिहाजा ज्यादा पैसा कमाने की गरज से वह दोहा ( क़तर की राजधानी ) चला गया . ससुराल में रहते सुखाविंदर कपड़े सिलने का काम करती थी .

पहले मां की मौत और फिर पति के विदेश चले जाने से सुखाविंदर डिप्रेशन में आ गई और धर्म कर्म में उसकी दिलचस्पी बढ़ने लगी . इसी दौरान वह एक धर्मगुरु रामाधीन परमहंस के संपर्क में आई जिनहोने उसे 6 महीने तक दीक्षा दी और उसे राधे मां नाम दिया . जल्द ही राधे मां लोगों की व्यक्तिगत , पारिवारिक और कारोबारी समस्याएँ सुलझाने लगीं . अपने देश में कोई और चले न चले लेकिन धर्म का धंधा जरूर चल निकलता है शर्त बस इतनी सी है कि आपको लोगों को बेबकूफ बनाने के तरीके आने चाहिए .

देखते ही देखते राधे मां मशहूर हो गईं और उनकी चौकियाँ पंजाब के अलावा हिमाचल प्रदेश में भी लगने लगीं . पैसा बरसना शुरू हुआ तो राधे मां के रंग ढंग भी बदलने लगे . वह हमेशा लाल सुर्ख कपड़ों में रहती थी और छोटा त्रिशूल हाथ में रखने लगी आज भी वह इसी तरह रहती हैं . साल 2005 के लगभग उनकी मुलाक़ात मुंबई के एक नामी मिठाई व्यापारी एमएम गुप्ता से हुई जो उन्हें इस माया नगरी में ले आए . मुंबई आना राधे मां की ज़िंदगी का टर्निंग पॉइंट साबित हुआ वहाँ वह गुप्ता के आलीशान मकान के ऊपरी हिस्से में रहते अपनी दुकान चलाने लगी . एमएम गुप्ता ने राधे मां के कथित चमत्कारों का खूब प्रचार प्रसार किया . मुंबई के अलावा देश भर में उनके भक्तों की फौज खड़ी हो गई और हर कहीं राधे मां के आश्रम खुलने लगे और चौकियाँ लगने लगीं .

भक्तों का दिल लगाए रखने वह भी उनके साथ नाचने गाने लगीं और उनकी गोद में बैठकर और चूमकर व लिपटकर भी आशीर्वाद देने लगीं . अब राधे मां के पास किसी चीज की कमी नहीं थी पैसा भी खूब बरस रहा था जिसमें गुप्ता का भी हिस्सा होता था . राधे मां का एक महंगा शौक काले रंग की जगुआर कार की सवारी भी था . मौज मस्ती के मामले में वह ओशो यानि रजनीश को भी मात कर रहीं थीं लेकिन उनके पास धर्म और आध्यात्म का कोई विशेष ज्ञान तो क्या बुनियादी जानकारियाँ भी नहीं थी . इन कमियों को वह लटके झटकों और सेक्सी अदाओं से ढकते धर्म की नई परिभाषा भी गढ़ रहीं थीं . कभी किसी ने राधे मां को प्रवचन करते नहीं देखा क्योंकि वे बोलना नहीं जानती थीं .

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सर से लेकर पाँव तक सोने के गहनों से लदी रहने बाली इस देवी को लेकर बड़ा फसाद उस वक्त खड़ा  हुआ जब डोली बिंद्रा नाम की एक महिला ने उन पर अश्लीलता फैलाने और यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए और न केवल लगाए बल्कि उनके सबूत भी पेश करना शुरू कर दिये . इधर उसके मुंबइया गॉड फादर एमएम गुप्ता ने भी उन पर अपना बंगला हड़पने का आरोप लगाया तो घबराई राधे मां पहली बार मीडिया के सामने आकार अपनी सफाई में बोलीं .

फिर बहुत सी और बातें हुईं जिनसे यह भर साबित हुआ कि जब लोग अपनी मर्जी से दैवीय चमत्कारों  के नाम पर मूर्ख बनने और पैसा लुटाने तैयार बैठे रहते हैं तो इसमें राधे मां का क्या कसूर जो दूसरे साधु  संतों की तरह लोगों के लुटने की इच्छा ही पूरी कर रही थी इसलिए वह कुम्भ के मेले में भी अपना शो रूम लगाने लगीं थीं जहां थोक में ग्राहक आते हैं .

भोपाल में लगेगी चौकी –

  भोपाल के संक्षिप्त प्रवास में राधे मां जो सनसनी फैला गईं हैं उससे लगता यही है कि वे इस शहर में भी आउटलेट खोल सकती हैं . भोपाल में साधु संत और सन्यासिने तो बहुत आते हैं लेकिन राधे मां की बात कुछ और है और राधे मां में भी बात कुछ और है.

उम्मीद है जल्द ही भोपाल के धर्म प्रेमियों की गोद में राधे मां बल खाती नजर आएंगी.

Edited By- Neelesh Singh Sisodia

 

पौलिटिकल राउंडअप

आतिशी का गंभीर आरोप

नई दिल्ली. लोकसभा चुनाव के आखिरी दौर में 9 मई को पूर्वी दिल्ली से आम आदमी पार्टी की उम्मीदवार आतिशी मार्लेना ने एक प्रैस कौंफ्रैंस में भावुक होते हुए भाजपा के उम्मीदवार गौतम गंभीर पर अपने खिलाफ ‘अश्लील और अपमानजक परचे’ बंटवाने का आरोप लगाया. इंगलिश भाषा में लिखे इस परचे में अव्वल दर्जे की घटिया भाषा का इस्तेमाल किया गया था. इस के जवाब में गौतम गंभीर ने आतिशी मार्लेना और अरविंद केजरीवाल को खुद पर लगे आरोपों को साबित करने की चुनौती दी और आपराधिक मानहानि का मामला भी दर्ज कराया.

जब मायावती गरजीं

लखनऊ. लोकसभा चुनाव के लिए छठे चरण की वोटिंग से पहले उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी और बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने 9 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोला. उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री राजनीतिक फायदे के लिए जबरदस्ती पिछड़ी जाति के बने हैं. अगर मोदी जन्म से पिछड़ी जाति के होते तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन्हें कभी भी प्रधानमंत्री नहीं बनाता.

मोदी ने तो कभी जातिवाद का दंश नहीं झेला है और ऐसी झूठी बातें करते हैं…

शरद पवार का दावा

मुंबई. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के सर्वेसर्वा शरद पवार ने 9 मई को सातारा में मीडिया से बात करते हुए कहा कि उन्होंने खुद इस बात का अनुभव लिया है कि वोटिंग मशीन का कोई भी बटन दबाओ, वोट भाजपा को ही जा रहा था, इसीलिए वे ईवीएम के चुनाव नतीजों के बारे में चिंतित थे.

शरद पवार ने बताया, ‘मेरे सामने किसी ने हैदराबाद और गुजरात की वोटिंग मशीनें रखीं और मुझ से बटन दबाने को कहा गया. मैं ने अपनी पार्टी के चुनाव चिह्न ‘घड़ी’ के सामने वाला बटन दबाया, लेकिन वोट भाजपा के चुनाव चिह्न ‘कमल’ पर गया. यह मैं ने अपनी आंखों से देखा है.’

सरकार का चमचा

मुंबई. 10 मई को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता संजय निरुपम ने जम्मूकश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक को सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चमचा बताया जो बिलकुल सही है.

सत्यपाल मलिक ने 9 मई को श्रीनगर में मोदी की तर्ज पर कहा था कि प्रधानमंत्री रह चुके राजीव गांधी शुरू में भ्रष्ट नहीं थे, लेकिन कुछ लोगों के असर में आ कर वे बोफोर्स घोटाले के मामले में शामिल हो गए थे.

संजय निरुपम ने इस कथन पर अपनी राय देते हुए कहा, ‘हमारे देश के जितने राज्यपाल होते हैं, वे सरकार के चमचे होते हैं. सत्यपाल मलिक भी चमचा ही है. राजीव गांधी को बोफोर्स केस में अदालतों ने क्लीन चिट दी थी.’

नीतीश का बड़ा बयान

बक्सर. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 10 मई को एक चुनावी सभा में विपक्षी दलों पर आरक्षण को ले कर लोगों को गुमराह करने का आरोप लगाया और कहा कि आज वोट के लिए विपक्षी दल इसे ले कर तरहतरह की बातें कर रहे हैं.

नीतीश कुमार ने कहा, ‘हमारे रहते दलित, महादलित, अल्पसंख्यक, अति पिछड़ों, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण को खत्म करने की किसी भी राजनीतिक दल की औकात नहीं है.’

सब ने की तारीफ

श्रीनगर. मंगलवार, 14 मई को 4 मछुआरे समेत 13 पाकिस्तानी नागरिकों को अटारीवाघा बौर्डर से पाकिस्तान भेजा गया था जबकि अप्रैल महीने में पाकिस्तान ने ‘सद्भावना’ के तहत 55 भारतीय मछुआरों और 5 नागरिकों को रिहा किया था. इस का दोनों देशों के उदार लोगों ने स्वागत किया. दूसरे देश के नागरिकों को बंद रखना कम से कम होना चाहिए.

विद्यासागर की मूर्ति ढहाई

कोलकाता. पश्चिम बंगाल में मंगलवार, 14 मई को लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का रोड शो था जिस में ईश्वरचंद्र विद्यासागर कालेज में हुई तोड़फोड़ में समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर की मूर्ति ढहा दी गई थी. इस के बाद सत्ताधारी तृणमूल और भाजपा ने एकदूसरे पर यह कांड करने का इलजाम लगाया.

इस शर्मनाक घटना ने 50 साल पहले की उस घटना को ताजा कर दिया जब नक्सली मुहिम में शामिल नौजवानों ने विद्यासागर कालेज के आसपास विद्यासागर, राजा राममोहन राय, प्रभुल राय और आशुतोष मुखर्जी की मूर्तियां तोड़ दी थीं.

केस ही केस

तिरुअनंतपुरम. 15 मई. भारतीय जनता पार्टी के केरल के पत्तनमतिट्टा संसदीय क्षेत्र के उम्मीदवार के. सुरेंद्रन पर 240 आपराधिक मामले दर्ज होने से वे सब से ज्यादा आपराधिक मामले वाले उम्मीदवार बन गए हैं.

के. सुरेंद्रन कासरगोड में रहते हैं और वे भाजपा के प्रदेश महासचिवों में से एक हैं. उन पर 240 मामलों में से 129 मामले काफी गंभीर हैं, जबकि ऐसे ही मामलों में दूसरे नंबर पर केरल के इडुक्की क्षेत्र

के कांग्रेस उम्मीदवार डीन कुरियाकोस हैं. उन के खिलाफ 204 आपराधिक मामले पैंडिंग हैं, जिन में से 37 मामले गंभीर हैं.

गोडसे पर सियासी गरमी

चेन्नई. इन चुनावों के दिनों में जब कमल हासन ने तमिलनाडु के करूर जिले में कहा था, ‘आजाद भारत का पहला आतंकवादी एक हिंदू था और उस का नाम नाथूराम गोडसे था…’ तो इस बयान के बाद उन की रैलियों में पत्थर और अंडे फेंके जाने की घटनाएं सामने आईं. कमल हासन ने यह भी कहा कि कोई धर्म यह दावा नहीं कर सकता कि वह किसी और धर्म से बेहतर है और वे अपने बयान पर गिरफ्तार होने से डरते नहीं हैं. दूसरी तरफ जब प्रज्ञा भारती ने नाथूराम गोडसे को देशभक्त कहा तो एक भी हिंदूवादी ने अदालत का बहाना ले कर मुकदमा चला कर परेशान करने की कोशिश नहीं की.

अमिताभ को बना दो

मिर्जापुर. उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार के आखिरी दिन

17 मई को कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अभिनेता बताया. उन्होंने उन पर तंज कसते हुए कहा कि इस से अच्छा तो अमिताभ को ही पीएम बना देते.

प्रियंका गांधी वाड्रा ने आगे कहा, ‘अगर मोदी फिर पीएम बने तो 5 साल और पिक्चर ही देखनी पड़ेगी, इसलिए तय कर लीजिए कि किसे वोट करना है, जमीन पर काम करने वाले नेता को या हवा में उड़ने वाले को… मोदी हर चुनाव में नई कहानी बनाते हैं… इस बार किसानों के लिए नई कहानी बनाई और कहा कि किसान सम्मान योजना लाए हैं.’

रघुवर का तंज

दुमका. झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने

12 मई को झारखंड मुक्ति मोरचा पर हमला बोलते हुए कहा कि यह मोरचा अब बूढ़ा मोरचा हो गया है, जो न चल सकता है, न बोल सकता है, इसे जबरन चलाया जाता है. रघुवर दास ने हेमंत सोरेन पर तंज कसते हुए कहा कि उन्होंने आदिवासियों की जमीन अपने नाम कर ली और आज आदिवासियों के नेता बने हुए हैं.

Edited by – Neelesh Singh Sisodia

हिन्दी पर मोदी का यू-टर्न

हिन्दी अब पूरे मुल्क में पढ़ी-पढ़ाई जाएगी. यह अनिवार्य भाषा होगी. इसके अलावा दूसरी भाषा अंग्रेजी और तीसरी भाषा क्षेत्रीय होगी. देशभर में ‘त्रिभाषा फार्मूला’ लागू होगा. केन्द्र सरकार की नयी शिक्षा नीति के तहत हिन्दी भाषा को पूरे देश में लागू करने के उद्देश्य से बनाया गया नया ड्राफ्ट जैसे ही सामने आया, देशभर में इसका विरोध शुरू हो गया. विरोध के तीव्र स्वर खासतौर पर दक्षिण भारत से उठे. मजे की बात यह कि इस मामले में अपने ही मंत्रियों का विरोध भी प्रधानमंत्री को झेलना पड़ा. हालत यह हो गयी कि लोग मरने-मारने तक की बातें करने लगे. द्रमुक के राज्यसभा सांसद  तिरूचि सिवा ने तो केन्द्र  सरकार को चेतावनी देते हुए यहां तक कह दिया है कि हिन्दी को तमिलनाडु में लागू करने की कोशिश कर केन्द्र-सरकार आग से खेलने का काम कर रही है. हिन्दी भाषा को तमिलनाडु पर थोपने की कोशिश को यहां के लोग बर्दाश्त नहीं करेंगे. हम केन्द्र सरकार की ऐसी किसी भी कोशिश को रोकने के लिए, किसी भी परिणाम का सामना करने के लिए तैयार हैं. वहीं, डीएमके अध्यक्ष एम.के. स्टालिन ने भी ट्वीट कर कहा कि तमिलों के खून में हिन्दी के लिए कोई जगह नहीं है. यह देश को बांटने वाला कदम होगा. यदि हमारे राज्य के लोगों पर इसे थोपने की कोशिश की गयी तो डीएमके इसे रोकने के लिए युद्ध करने को भी तैयार है. नये चुने गये सांसद लोकसभा में अपनी आवाज उठाएंगे. उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू, मक्कल नीधि मय्यम पार्टी के कमल हासन, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे, कांग्रेस नेता शशि थरूर और पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम, कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमार स्वामी, पूर्व मुख्यमंत्री सिद्दरमैया सब एकसुर में चीखे – हिन्दी हमारे माथे पर मत थोपो….

बवाल बढ़ा तो स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए मोदी सरकार को यू-टर्न लेना पड़ा और ड्राफ्ट में बदलाव करते हुए हिन्दी की अनिवार्यता को खत्म कर दिया गया. कहा जा रहा है कि अब संशोधित शिक्षा नीति के मसौदे में ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ को लचीला कर दिया गया है. अब इनमें किसी भी भाषा का जिक्र नहीं है. छात्रों को कोई भी तीन भाषा चुनने की स्वतंत्रता दे दी गयी है. सरकार को मामले की लीपापोती भी करनी पड़ी है. केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने सफाई देते हुए कहा, ‘सरकार अपनी नीति के तहत सभी भारतीय भाषाओं के विकास को प्रतिबद्ध है और किसी प्रदेश पर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी. हमें नयी शिक्षा नीति का मसौदा प्राप्त हुआ है, यह सिर्फ रिपोर्ट है, फाइनल नीति नहीं है. इस पर लोगों एवं विभिन्न पक्षकारों की राय ली जाएगी, उसके बाद ही कुछ होगा. कहीं न कहीं लोगों को गलतफहमी हुई है.’

आखिर जिस मुद्दे पर आजादी के पहले से लेकर आजादी के बाद तक कभी पूरे देश में एकराय नहीं बनी, ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर इतनी जल्दबाजी दिखा कर केन्द्र-सरकार को मुंह की तो खानी ही थी. सरकार की छीछालेदर हुई तो तमिलनाडु से सम्बन्ध रखने वाली देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को भी मोर्चा संभालना पड़ा. गौरतलब है कि तमिलनाडु में मोदी-सरकार के फरमान का सबसे ज्यादा विरोध हो रहा था, लिहाजा सीतारण ने ट्विटर कर कहा कि इस ड्राफ्ट को अमल में लाने से पहले इसकी समीक्षा की जाएगी. जनता की राय सुनने के बाद ही ड्राफ्ट पॉलिसी लागू होगी. सभी भारतीय भाषाओं को पोषित करने के लिए ही प्रधानमंत्री ने ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ योजना लागू की थी. केन्द्र तमिल भाषा के सम्मान और विकास के लिए समर्थन देगा.’

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वहीं विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने भी सरकार के बचाव में ट्वीट किया कि, ‘कोई भी भाषा किसी पर थोपी नहीं जाएगी. इस मुद्दे पर अंतिम फैसला लिए जाने से पहले राज्य सरकारों से परामर्श लिया जाएगा. केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री को सौंपी गयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति महज एक मसौदा रिपोर्ट है. इस  पर आम जनता से प्रतिक्रिया ली जाएगी. राज्य सरकारों से परामर्श किया जाएगा. इसके बाद ही इस मसौदे को अंतिम रूप दिया जाएगा. भारत सरकार सभी भाषाओं का सम्मान करती है. कोई भाषा किसी पर थोपी नहीं जाएगी.’

हिन्दी थोपने और हिन्दी अपनाने में फर्क है

सर्वविदित है कि कोई चीज जबरन थोपा जाना किसी को पसन्द नहीं आता और न ही स्वीकार्य होता है. मगर ‘तानाशाही दिमाग’ इसको समझने में हमेशा नाकाम रहा है और हमेशा मुंह की खायी है. मोदी-सरकार भी इस रोग से अछूती नहीं है. सवाल यह कि हिन्दी की अनिवार्यता को लेकर बना नयी शिक्षा नीति का ड्राफ्ट अगर अभी सिर्फ मसौदा था तो इस पर बिना विचार-विमर्श हुए और बिना परिणाम पर पहुंचे इसका ऐलान ही क्यों हुआ? राज्य सरकारों को तो छोड़िये, इसके लिए सरकार में मौजूद अपने ही मंत्रियों तक से विमर्श नहीं किया गया और देश भर के लिए हिन्दी को अनिवार्य बनाने की घोषणा कर दी गयी? क्या मोदी सरकार को लगता है कि उसने पूरे दमखम के साथ सरकार बना ली है, तो अब उसका हर फैसला सबको मानना ही पड़ेगा? या फिर प्रधानमंत्री पर भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दबाव इतना ज्यादा है, कि अपने मंत्रियों और राज्य सरकारों से विचार-विमर्श करने तक का वक्त उनको नहीं दिया जा रहा है?

दरअसल चाबुक के दम पर धर्म, जाति, भाषा, परिधान, आस्था, प्रेम जैसी चीजो में बदलाव या उसके लिए स्वीकार्यता पैदा नहीं की जा सकती है. थोपी हुई चीजें कभी दिल से स्वीकार्य नहीं होतीं, मगर यह सीधी सी बात दक्षिणपंथी विचारधारा में पगे लोगों की समझ में नहीं आती हैं. मोदी-सरकार को समझना चाहिए कि चीजें तब स्वीकार्य होती हैं, जब उनकी स्वीकार्यता के लिए माकूल वातावरण तैयार किया जाये, लोगों के बीच विचारों का आदान-प्रदान हो, उस पर चर्चा हो, आलोचना हो, उसके प्रति आकर्षण पैदा किया जाये और उससे लोगों को कोई फायदा मिले.

हिन्दी के लिए किया क्या?

हिन्दी को शिक्षा में अनिवार्य भाषा बनाने के लिए उतावली मोदी-सरकार बताये अखिर बीते पांच साल के कार्यकाल में उसने हिन्दी के लिए क्या किया? देशभर में हिन्दी संस्थानों की हालत जर्जर है. हिन्दी के विद्वानों और लेखकों की कहीं कोई पूछ नहीं है. हिन्दी माध्यम से पढ़ने वाले छात्र बेरोजगारी का तमगा गले में डाल कर घूम रहे हैं. किसी प्राइवेट संस्थान में नौकरी के लिए जाते हैं तो उन्हें हिन्दीभाषी होने के कारण खुद पर शर्म आती है. देश भर में उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है. किताबें अंग्रेजी में हैं. शिक्षक अंग्रेजी में पढ़ाते हैं. वे हिन्दी में बात करने वाले छात्रों को हेय दृष्टि से देखते हैं. उनके सवालों का समाधान करना तो दूर, सुनना तक नहीं चाहते. सरकारी संस्थानों का प्राइवेटाइजेशन होता चला जा रहा है, जहां अंग्रेजी का ही बोलबाला है. चाहे चिकित्सा का क्षेत्र हो, इंजीनियरिंग का, बिजनेस का या वकालत का, कहां है हिन्दी?

सच पूछें तो आज हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाएं वे सौतेली बहनें हैं, जिनकी अम्मा अंग्रेजी है. अंग्रेजी में ही देश का राजकाज चलता है, कारोबार चलता है, विज्ञान चलता है, विश्वविद्यालय चलते हैं, मीडिया संस्थान और सारी बौद्धिकता चलती है. अंग्रेजी का विशेषाधिकार या आतंक इतना है कि अंग्रेजी बोल सकने वाला शख्स बिना किसी बहस के ही योग्य मान लिया जाता है. अंग्रेजी में कोई अप्रचलित शब्द आये तो आज भी लोग खुशी-खुशी डिक्शनरी पलटते हैं, जबकि हिन्दी का ऐसा कोई अप्रचलित शब्द अपनी भाषिक हैसियत की वजह से हंसी का पात्र बना दिया जाता है. पिछले तीन दशकों में हिन्दी की यह हैसियत और घटी है. सरकारी स्कूलों की बात छोड़ दें, तो पूरे देश में पढ़ाई-लिखाई की भाषा अंग्रेजी ही है. गरीब से गरीब आदमी अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलाना चाहता है और हिन्दी घर में बोली जाने वाली एक बोली बन कर रह गयी है.

हां, यह कहा जा सकता है कि आज हिन्दी फिल्में विदेशों में खूब देखी जा रही हैं, हिन्दी सीरियल हर जगह देखे जा रहे हैं, कम्प्यूटर और स्मार्टफोन में हिन्दी को जगह मिल गयी है, इंटरनेट पर हिन्दी दिख रही है, मगर ऐसा कहने वाले यह नहीं देख रहे हैं कि यह हिन्दी बाजार की वजह से है, इसे सिर्फ बाजार ही बढ़ावा दे रहा है. यह सिर्फ एक बोली के रूप में इस्तेमाल हो रही है, जो बाजार कर रहा है. हिन्दी विशेषज्ञता की भाषा नहीं रह गयी है क्योंकि देश की सरकारों ने हिन्दी के हित में कभी कोई काम नहीं किया.

दूसरे, यह बात संघ और मोदी-सरकार को समझना चाहिए कि भाषा की विविधता ही इस देश की खूबसूरती है, भारत की पहचान है, उसकी समृद्धि है, उसका सौन्दर्य है और यह विविधता ही हम भारतीयों को एक-दूसरे के प्रति आकर्षण में बांधे रखने का काम भी करती है. हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा हो सकती है, मगर उसके लिए वातावरण तैयार करना होगा ताकि उसकी सहज स्वीकार्यता बन सके. चाबुक के दम पर वह कभी स्वीकार्य नहीं होगी.

दक्षिण का हिन्दी से झगड़ा पुराना है

दक्षिण भारत ने तो अंग्रेजी पर ही निवेश किया है. उन्होंने अंग्रेजी का सामाजिक विकास और आर्थिक समृद्धि की सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल किया है और तरक्की पायी है. सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में दक्षिण भारत का योगदान अतुल्नीय है और यह अंग्रेजी के बिना कभी पूरा नहीं हो सकता था. दूसरी ओर हिन्दी बोलने वाले लोग दक्षिण के राज्यों में खेतिहर मजदूर के रूप में काम करने के लिए जाते थे और आज भी जाते हैं. लिहाजा उनके द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी भाषा को तमिल लोग अपने सिर-माथे पर उठाएंगे, ऐसा सोचना भी मूर्खता है. साउथ में हिन्दी के प्रति उपेक्षा का भाव आज भी कमोबेश वैसा ही है, जैसा नेहरू या इंदिरा के वक्त में था. जवाहरलाल नेहरू ने भी हिन्दी को अनिवार्य बनाने की बहुत कोशिश की और हमेशा मुुंह की खायी. दरअसल जिस देश में हर दो कोस पर पानी और बानी बदलती हो, वहां एक भाषा को अनिवार्य करने का सपना पालना ही मूर्खता है.

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गौरतलब है कि दक्षिण भारत से हिन्दी का झगड़ा बहुत पुराना है. हालांकि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भाषा को लेकर समझ साफ थी. वे इस बात को समझते थे कि अंग्रेजों की मानसिक गुलामी को तोड़ने के लिए भारतीय लोगों को अपनी भाषा बरतनी चाहिए. वे जानते थे कि हिन्दी में वो ताकत है कि वो पूरे देश को एक सूत्र में बांध सकती है और उस वक्त उसने बांधा भी, मगर वह इसलिए क्योंकि तब हम एक विदेशी ताकत से लड़ रहे थे. तब पूरे देश ने ‘हिन्दी’ को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया, मगर उसके बाद इस हथियार को रख दिया गया. कहते हैं जब सन् 1928 में मोतीलाल नेहरू ने हिन्दी को भारत में सरकारी कामकाज की भाषा बनाने का प्रस्ताव रखा था, तो उस वक्त ही तमिल नेताओं ने इसका घोर विरोध किया था. करीब नौ साल बाद सन् 1937 में तमिल नेता चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने मद्रास राज्य में हिन्दी लाने का समर्थन किया और हिन्दी को स्कूलों में अनिवार्य बनाने का प्रस्ताव दिया. अप्रैल 1938 में मद्रास प्रेसिडेंसी की 125 सैकेंडरी स्कूलों में हिन्दी को कम्पलसरी लैंग्वेज के तौर पर लागू भी कर दिया गया. मगर इसके खिलाफ आवाजें उठने लगीं. राजगोपालाचारी के इस फैसले के खिलाफ सबसे पहले मोर्चा लिया तमिल शिक्षाविदों ने. उनका आरोप था कि सूबे की कांग्रेस सरकार हिन्दी के जरिए तमिल का गला घोंट रही है. इस आंदोलन के दौरान तमिल समर्थक उन स्कूलों के दरवाजे घेर कर बैठ गये, जहां हिन्दी पढ़ाये जाने का प्रस्ताव था. प्रदर्शनकारियों का कहना था कि सरकार उन पर जबरन हिन्दी थोपना चाहती है. यह उनकी तमिल संस्कृति पर सीधा हमला है. 1 जून 1938 को सीवी राजगोपालाचारी के घर के सामने बड़ा प्रदर्शन हुआ. देखते ही देखते इस आंदोलन ने राजनीतिक मोड़ ले लिया. जो दो नेता इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे वे आगे आने वाले समय में तमिल अस्मिता आंदोलन का चेहरा बन गये. इसमें पहले थे ईवी रामास्वामी ‘पेरियार’ और दूसरे थे सीएन अन्ना दुरई, जिन्हें उस वक्त गिरफ्तार किया गया था. द्रविड़ कषगम (डीके) की ओर से भी इसका घोर विरोध हुआ है और यह विरोध हिंसक झड़पों में बदल गया, जिसके चलते दो लोगों की मौत भी हुई. दो साल चले आंदोलन के बाद आखिरकार सरकार को अपने पैर पीछे खींचने पड़े और हिन्दी को कम्पलसरी भाषा के तौर पर लागू करने का फैसला वापिस लेना पड़ा.

आजादी के वक्त भाषाओं के आधार पर राज्यों के विभाजन को लेकर कांग्रेस के भीतर आम सहमति बनी थी. महात्मा गांधी ने 10 अक्टूबर 1947 को अपने एक सहयोगी को लिखी चिट्ठी में कहा, ‘मेरा मानना है कि हमें भाषिक प्रांतों के निर्माण में जल्दी करनी चाहिए… कुछ समय के लिए यह भ्रम हो सकता है कि अलग-अलग भाषाएं अलग-अलग संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करती हैं, लेकिन यह भी सम्भव है कि भाषिक आधार पर प्रदेशों के गठन के बाद यह गायब हो जाए.’ पं. जवाहर लाल नेहरू भी भारत की भाषिक विविधता को सम्मान की दृष्टि से देखते थे, लेकिन साम्प्रदायिक आधार पर हुए देश-विभाजन और मार-काट के बाद नेहरू और पटेल दोनों इस राय के हो चुके थे कि अब भाषिक आधार पर किसी विभाजन की जमीन तैयार न हो. मगर हिन्दी को वे तब भी किसी तरह देश की अनिवार्य भाषा के रूप में स्थापित नहीं कर पाये. दक्षिण भारत के तमाम प्रान्त इसका लगातार विरोध करते रहे. वे अपनी क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेजी को ही ज्यादा महत्व देते रहे.

तमिलनाडु के पहले मुख्यमंत्री अन्ना दुरई द्वारा हिन्दी विरोध की कहानी तो बेहद जबरदस्त है. सन् 1960 में अन्ना दुरई ने अपने एक ख्यात भाषण में हिन्दी के संख्या बल के तर्क पर सवाल उठाया और कहा – शेरों के मुकाबले चूहों की संख्या ज्यादा है तो क्या चूहों को राष्ट्रीय पशु बना देना चाहिए? उन्होंने मंच से हिन्दी को ललकारा और जनता से सवाल किया – मोर के मुकाबले कौवों की संख्या ज्यादा है तो क्या कौवों को राष्ट्रीय पक्षी बना देना चाहिए?

वर्ष 1965 में एक बार फिर दक्षिण भारत में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने की कोशिश हुई. मगर इस बार तो हिन्दी के खिलाफ स्थानीय लोगों का पारा बहुत ऊपर चढ़ गया. लोग खिलाफत के लिए सड़कों पर उतर आये और सरकार को काले झंडे दिखाये. पहले ये लोग 26 जनवरी को काले झंडे दिखाने वाले थे, मगर गणतन्त्र दिवस की लाज रखते हुए 25 जनवरी को यह काम किया गया. इस दिन को आज भी वहां ‘बलिदान दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, क्योंकि इस दौरान हुई आगजनी और हिंसक झड़पों में सत्तर से ज्यादा लोगों की जानें गयी थीं. स्थानीय कांग्रेस दफ्तर के बाहर एक हिंसक झड़प में आठ लोगों को जिन्दा जला दिया गया. डीएमके नेता डोराई मुरुगन को मद्रास शहर के पचाइअप्पन कॉलेज से गिरफ्तार किया गया. इसके बाद हजारों लोगों की गिरफ्तारियां हुर्इं. दो सप्ताह चले इस जबरदस्त विरोध को दबाने में सरकार के पसीने छूट गये.

हिन्दी के खिलाफ तमिलनाडु के मुखर विरोध की अभिव्यक्तियां बाद में महाराष्ट्र, गुजरात और बंगाल में भी सुनायी देने लगीं. वे लोग मानते थे और आज भी मानते हैं कि उनके क्षेत्र में उनकी भाषा, हिन्दी के मुकाबले कहीं ज्यादा प्राचीन और समृद्ध है. पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी रॉय भी बांग्ला-भाषियों पर हिन्दी थोपे जाने के सख्त खिलाफ थे. दक्षिण भारत में हिन्दी के खिलाफ उठे इस तूफान को देखते हुए तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी को राजभाषा अधिनियम में तुरंत संशोधन करना पड़ा था और अंग्रेजी को सहायक राजभाषा का दर्जा देकर अमल में लाया गया था. यही नहीं, तमाम विरोध-प्रदर्शनों को देखते हुए उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री को जनता से क्षमायाचना तक करनी पड़ी थी और तमाम तरह के आश्वासन देने पड़े थे.

दक्षिण भारतीय भाषाओं के प्रति उपेक्षा

आजादी के इतने वर्ष बाद भी यदि हिन्दी दक्षिण भारतीयों का मन नहीं मोह पायी है, तो इसके दोषी केन्द्र सरकार ही नहीं, हिन्दी भाषी प्रदेश भी हैं. गैर हिन्दी भाषी प्रदेशों में छात्रों ने तमिल, तेलुगू, मराठी, बांग्ला के साथ अंग्रेजी और हिन्दी पढ़ी, मगर हिन्दी भाषी प्रदेशों में तेलुगू, तमिल, मराठी या बंगाली कोई नहीं पढ़ता, बल्कि यहां के छात्र अपनी तीसरी भाषा के तौर पर संस्कृत को अपनाते हैं, जो देश के किसी भी हिस्से में प्रमुखता से बोली नहीं जाती है. तो जब आप दक्षिण की भाषाओं के प्रति उपेक्षा बरतते हैं तो उनसे कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह आपकी भाषा को सिर-माथे पर लेगा? निस्संदेह संस्कृत एक प्राचीन और समृद्ध भाषा है, जिसका अलग से अध्ययन होना चाहिए, लेकिन इसे ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ में फिट कर हिन्दी भाषी प्रदेशों ने गैर हिन्दी भाषी प्रदेशों से अपनी जो दूरी बढ़ायी, वह लगभग अक्षम्य है. आज अगर हिन्दी भाषी भी बड़ी तादाद में तमिल, तेलुगू, मराठी या बंगाली बोल रहे होते, तो बीते सत्तर सालों में हिन्दी का विरोध काफी कम हो चुका होता, लोग वैचारिक रूप से एक दूसरे के करीब आ गये होते, मगर यह नहीं हुआ, सरकारों ने ऐसा होने नहीं दिया, इसलिए ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ के ताजा प्रस्ताव पर विरोध फिर से भड़क उठा है.

संघ के दबाव में मोदी

संघ के दबाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का सेहरा अपने सिर बांधने को उतावले हैं, इसीलिए पहले कदम के तौर पर हिन्दी को पूरे देश में अनिवार्य करने की तेजी दिखा दी, बगैर जमीनी हकीकत को समझे. वे नहीं जानते कि हिन्दू राष्ट्र की घोषणा करना तो बहुत आसान है, परंतु इसके पेंच बेहद खतरनाक हैं. मुख्य खतरा है कि यह कदम भारत को पाकिस्तान की तरह एक धर्मशासित देश में बदल देगा. यह हमारी राष्ट्रीय एकता को कमजोर करेगा, पृथकतावादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देगा, आंतरिक कलह और हिंसा का कारण बनेगा, भारत के सौन्दर्य को मिटा कर भारत की साख को नुकसान पहुंचाएगा. इससे भी अधिक क्षतिपूर्ण बात यह होगी कि एक हिन्दू राष्ट्र, भारत का विश्वगुरु के रूप में एक वैश्विक नेता बनने का सपना हमेशा के लिए खत्म कर देगा. कोई भी सम्प्रभु देश विशुद्ध धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के अलावा भारत के साथ न किसी संघ में शामिल होगा, न ही उसका अनुसरण करेगा. विडम्बना यह भी कि स्वयं हिन्दुत्व – जिसे इस कदम के समर्थक सबसे अधिक प्रदर्शित करना चाहते हैं, की भावना, परम्परा और प्रतिष्ठा को सबसे अधिक क्षति पहुंचाएगा.

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उल्लेखनीय है कि साल 2008 तक नेपाल देश धरती का इकलौता हिन्दू राष्ट्र था. मगर वहां भी क्षत्रीय राजवंश का खात्मा हुआ और 2008 में नेपाल गणतंत्र बन गया. नेपाल को हिन्दू राष्ट्र भी सिर्फ इसलिए कहा जाता था क्योंकि हिन्दू संहिता मनुस्मृति के अनुसार कार्यकारी सत्ता का स्रोत राजा था. इसके अलावा वहां धार्मिक ग्रंथ की कोई और बात लागू नहीं थी क्योंकि ये ‘मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा’ के खिलाफ होती. बावजूद इसके नेपाल को अपनी हिन्दू राष्ट्र की छवि को तोड़ कर गणतन्त्र का रास्ता इख्तियार करना पड़ा.

हिन्दू राज के खिलाफ थे आंबेडकर

संविधान के रचयिता डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब ‘पाकिस्तान आॅर दि पार्टिशन आफ इण्डिया’ (1940) में चेताया है कि अगर हिन्दू राज हकीकत बनता है, तब वह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ा अभिशाप होगा. हिन्दू कुछ भी कहें, हिन्दू धर्म स्वतन्त्रता, समता और बन्धुता के लिए खतरा है. उस आधार पर वह लोकतन्त्र के साथ मेल नहीं खाता है. हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए. डॉ. आंबेडकर ये बात बहुत साफतौर पर समझते थे कि हिन्दू राष्ट्र का सीधा अर्थ द्विज वर्चस्व की स्थापना था, यानी ब्राह्मण-वाद की स्थापना. वे हिन्दू राष्ट्र को मुसलमानों पर हिन्दुओं के वर्चस्व तक सीमित नहीं करते हैं, जैसा कि भारत का प्रगतिशील वामपंथी या उदारवादी लोग करते हैं. उनके लिए हिन्दू राष्ट्र का मतलब मुसलमानों के साथ दलित, ओबीसी और महिलाओं पर भी द्विजों यानी ब्राह्मणों के वर्चस्व की स्थापना था, जो एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश के लिए, जहां इतनी बोलियां, जातियां और भिन्न्ताएं हैं, कभी भी हितकारी नहीं है.

क्या है त्रिभाषा फार्मूला?

त्रिभाषा फॉर्मूला यानी बारहवीं कक्षा तक के सिलेबस में तीन भाषाओं को शामिल किया जाना. 1948 में भारत में भाषा के आधार पर राज्यों को बांटने के आन्दोलन हो रहे थे. ठीक इसी समय यूनिवर्सिटी एजुकेशन कमीशन ने पढ़ाई-लिखाई के लिए तीन भाषा का फॉर्मूला दिया था. इसके अनुसार अंग्रेजी, हिन्दी के अलावा एक स्थानीय भाषा भी पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने का प्रावधान किया गया. यह व्यवस्था स्विट्जरलैंड और नीदरलैंड के सिलेबस को देखकर तैयार की गयी थी. वर्ष 1964 में यूनिवर्सिटी ग्रांट कमिशन के चेयरमैन दौलत सिंह कोठारी के नेतृत्व में त्रिभाषा फॉर्मूले के लिए एक कमीशन बनाया गया. इस कमीशन ने 1966 में अपनी रिपोर्ट सौंपी. वर्ष 1968 में भारतीय संसद ने कोठारी कमिशन की सिफारिश के आधार पर ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ को स्वीकार कर लिया. उस समय तमिलनाडु के मुख्यमंत्री अन्ना दुरई थे. अन्ना दुरई ने इसके खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और तमिलनाडु की सरकारी स्कूलों से हिन्दी भाषा को हटा दिया.

दक्षिणी राज्यों के कड़े विरोध के चलते एजुकेशन पॉलिसी में ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ को खारिज कर दिया गया. फिर साल 1990 में उर्दू के मशहूर लेखक अली सदर जाफरी के नेतृत्व में ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ पर विशेषज्ञों की एक कमिटी बनायी गयी. इस कमिटी ने अपनी सिफारिश में उत्तर भारत और दक्षिण भारत के लिए अलग-अलग त्रिभाषा फॉर्मूले की सिफारिश की. इसके अनुसार उत्तर भारत में हिन्दी, अंग्रेजी के अलावा तीसरी भाषा के तौर पर उर्दू को शामिल किया गया, वहीं दक्षिण भारत में हिन्दी और स्थानीय भाषा के अलावा अंग्रेजी को शामिल किये जाने की बात कही गयी. वर्ष 1992 में भारत की संसद ने इसको स्वीकार कर लिया. लेकिन गौरतलब बात यह है कि भरतीय संविधान के अनुसार शिक्षा राज्यों का विषय है. ऐसे में कोई भी राज्य ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ को लागू करने के लिए बाध्य नहीं है.

हिन्दी के विरोधी क्यों हैं तमिल

भारत गणराज्य में सैकड़ों भाषाएं हैं. ब्रिटिश राज के दौरान, अंग्रेजी आधिकारिक भाषा थी. जब 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में तेजी आयी, तो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विभिन्न भाषाई समूहों को एकजुट करने के लिए हिन्दी को आम भाषा बनाने के प्रयास किये गये. 1918 की शुरुआत में, महात्मा गांधी ने ‘दक्षिण भारत प्रचार सभा’ (दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार के लिए संस्थान) की स्थापना की. वर्ष 1925 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपनी कार्यवाही करने के लिए अंग्रेजी से हिन्दी की ओर रुख किया. महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू दोनों हिन्दी के समर्थक थे और कांग्रेस भारत के गैर-हिन्दी भाषी प्रांतों में हिन्दी की शिक्षा का प्रचार करना चाहती थी. लेकिन हिन्दी को आम भाषा बनाने का विचार दक्षिण के महान चिन्तक, विचारक और नेता ई.वी. रामासामी ‘पेरियार’ को कभी स्वीकार्य नहीं था. किसी भी किस्म की अंधश्रद्धा, कूपमंडूकता, जड़ता, अतार्किकता और विवेकहीनता पेरियार को स्वीकार नहीं थी. वर्चस्व, अन्याय, असमानता, पराधीनता और अज्ञानता के हर रूप को उन्होंने चुनौती दी. दक्षिण भारत में पेरियार को भगवान की तरह पूजा जाता है और उनके विचारों को बड़ा सम्मान प्राप्त है.

पेरियार ने दक्षिण में हिन्दी के प्रसार को तमिलों को उत्तर भारतीयों के अधीन एक प्रयास के रूप में देखा. उन्होंने कहा कि इस तरह ब्राह्मण तमिलों पर हिन्दी और संस्कृत थोपने का प्रयास कर रहे हैं. उन्होंने इसके खिलाफ आन्दोलन किये, जिन्हें तमिलभाषी मुसलमानों का भी सहयोग मिला. पेरियार के हिन्दी विरोधी विचार के आधार में दरअसल हिन्दुओं का धर्मग्रन्थ रामायण था, जिसे पेरियार ने कभी धार्मिक किताब नहीं माना. उनका कहना था कि यह एक विशुद्ध राजनीतिक पुस्तक है; जिसे ब्राह्मणों ने दक्षिणवासी अनार्यों पर उत्तर के आर्यों की विजय और प्रभुत्व को जायज ठहराने के लिए लिखा है. यह गैर-ब्राह्मणों पर ब्राह्मणों और महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व को कायम करने वाला एक उपकरण मात्र है. उन्होंने कहा कि रामायण को इस चतुराई के साथ लिखा गया है कि ब्राह्मण दूसरों की नजर में महान दिखें; महिलाओं को इनके द्वारा दबाया जा सके तथा उन्हें दासी बनाकर रखा जा सके. रामायण में जिस लड़ाई का वर्णन है, उसमें उत्तर का रहने वाला कोई भी (ब्राह्मण) या आर्य (देव) नहीं मारा गया. वे सारे लोग, जो इस युद्ध में मारे गये; वे तमिल थे. जिन्हें राक्षस कहा गया. रामायण की कथा का उद्देश्य तमिलों को नीचा दिखाना है. तमिलनाडु में इस कथा के प्रति सम्मान जताना तमिल समुदाय और देश के आत्मसम्मान के लिए खतरनाक और अपमानजनक है. उन्होंने कहा कि दक्षिण में हिन्दी का प्रसार ब्राह्मणों के धर्मग्रंथों, रूढ़ियों तथा ‘मनुस्मृति’ को तमिल समाज पर थोपना है; जो कि तमिलों के लिए अपमानजनक है.

हिन्दी की अनिवार्य शिक्षा को लेकर द्रविड़ आंदोलन का दशकों लम्बा विरोध ब्राह्मणवाद, संस्कृत के प्रभुत्व और हिन्दू राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिये जाने के खिलाफ वैचारिक लड़ाई पर आधारित था. दक्षिण भारतीयों ने हमेशा संस्कृत को ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्मग्रंथों के प्रसार की सवारी के तौर पर ही देखा जो जातिगत एवं लैंगिक ऊंच-नीच की व्यवस्था को बनाये रखने का काम करती है. संस्कृत से नजदीकी को देखते हुए हिन्दी को भी जातिगत एवं लैंगिक शोषण की ‘पिछड़ी संस्कृति को बढ़ावा देनेवाली भाषा’ के तौर पर देखा गया.

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तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध इस आधार पर भी है कि आधुनिक, उपयोगी और प्रगतिशील ज्ञान यानी विज्ञान, तकनीक और तार्किक विचारों को हासिल करने की दृष्टि से हिन्दी समर्थ भाषा नहीं है. भले ही तमिलनाडु अपने कुशल श्रमबल के लिए पर्याप्त अच्छी नौकरियां पैदा कर पाने में समर्थ नहीं हो पाया है, लेकिन अंग्रेजी शिक्षा में निवेश ने उनके अंतरराष्ट्रीय प्रवास को मुमकिन बनाया है. सर्वविदित है कि अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के कारण ही भारतीय सॉफ्टवेयर कम्पनियां कम लागत वाले प्रोग्रामिंग पेशेवरों की मौजूदगी का फायदा उठा पायीं और वैश्विक बाजार में अपने लिए जगह बना सकीं. यहां से बड़ी संख्या में लोग अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में गये हैं. भारत में आनेवाले धन (रेमिटेंसेज) के मामले में तमिलनाडु, केरल के बाद दूसरे स्थान पर आता है. राज्य की कुल आय में विदेशों से आनेवाले धन का योगदान 14 फीसदी है.

तमिलनाडु के लोगों की सोच के अनुसार हिन्दी उतनी पुरानी और समृद्ध भाषा नहीं है, जितनी तमिल और बांग्ला भाषाएं हैं. तमिल लोगों को यह भी लगता है कि हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी समझना और सीखना ज्यादा आसान है. उनका कहना है कि आखिर वे अपने पास पहले से मौजूद एक आला दर्जे की भाषा को एक अविकसित और दोयम दर्जे की भाषा के लिए क्यों छोड़ दें?

Edited by – Neelesh Singh Sisodia

मोदी की जीत में मुद्दे गुम

4 विधानसभाओं और कितने ही उपचुनावों की हार ही नहीं देशभर में बढ़ती बेकारी, धौंसबाजी के मामले, नोटबंदी के असर के बाद लग रहा था कि नरेंद्र मोदी जैसेतैसे चुनावों में जगह बना पाएंगे. उन्होंने कांग्रेस को ही नहीं, नवीन पटनायक और ममता बनर्जी को भी पटकनी दे कर साबित कर दिया कि भाजपा का रथ जगन्नाथ पुरी के रथों की तरह सब को एक बार फिर रौंदने की ताकत रखता?है.

नरेंद्र मोदी के पिछले 5 साल कोई बहुत खास नहीं थे, पर इतना जरूर खास रहा कि उन्होंने अपने को लगातार आम जनता से जोड़े रखा. वे लगातार अपने वोटरों व भक्तों से ही नहीं दूसरों से भी बहुत ही ढंग से बोलते रहे, बात करते रहे. लोगों को शायद लगा कि वे उन के आसपास ही कहीं हैं. दूसरी ओर कांग्रेस के राहुल गांधी हों या ममता बनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव, वे उस तरह अपने लोगों से बात न कर सके जैसे नरेंद्र मोदी माहिर हैं.

यही नहीं, भारतीय जनता पार्टी की एक बड़ी फौज है जो कंप्यूटरों पर बैठ कर मोदी की बातों को जनता तक पहुंचाती है तो दूसरों की जम कर खिंचाई भी कर लेती है. राहुल गांधी को तो लगातार निशाने पर रखा और जवाब में कांग्रेस ने तुर्कीबतुर्की जवाब देना सही नहीं समझा. जहां मोदी के चाहने वाले हर तरह की भाषा इस्तेमाल कर सकते थे, वहीं दूसरे दलों के लिए काम करने वाले या तो मोदी की शिकायतें करते नजर आए या अपने 2-4 कामों का गुणगान. उन्हें लोगों से बात करने की कला ही नहीं आती है. यही वह कला है जिस के सहारे गांवों, छोटे शहरों, कसबों के चौराहों पर बोलने वाले इलाके के चौधरी बात करते हैं, फिर नेता बनते हैं.

नरेंद्र मोदी की सरकार इस बार भारी बहुमत से जीती यह थोड़े अचरज की बात है क्योंकि इस बार कम से कम उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने एकसाथ चुनाव लड़ा था. इसी तरह बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस वाले साथ थे. मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस विधानसभाओं में जीत कर आई थी पर इन सब जगह एक पार्टी के वोटरों ने अपनी पार्टी के साथ आई नई पार्टी को वोट देने की जगह भाजपा को वोट देना ठीक समझा, क्योंकि यह पक्का लग रहा था कि उन के वोटों से जीता सांसद उन के काम करा पाएगा, यह पक्का नहीं है.

हमारे देश में वोट काम पर कम चेहरों पर ज्यादा पड़ते रहे हैं. पहले जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के चेहरों पर पड़े, फिर एक बार अटल बिहारी वाजपेयी के चेहरे पर. पर जब 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी के सामने सोनिया गांधी का चेहरा आया तो वह हावी हो गया. इस बार और 2014 में नरेंद्र मोदी के सामने राहुल गांधी जैसों का चेहरा फीका था.

रही बात नीतियों की तो उन की कौन परवाह करता है? इस देश की जनता को अपने वोट से ज्यादा अपने भाग्य की फिक्र होती है. सरकार ने कब कौन से लड्डू दिए हैं? फसल अच्छी हुई तो अनाज ज्यादा, जेब में 4 पैसे आ गए. खराब हुई तो थोड़ा हाहाकार. सरकार का भला क्या दोष? वह भगवान के ऊपर थोड़े ही है? नीतियां चाहे कोई भी हों, नाम तो हो.

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यही वजह है कि नवीन पटनायक को ओडिशा में विधानसभा में अच्छी सीटें मिल गईं पर लोकसभा में चोट पहुंची.

भारतीय जनता पार्टी की जीत के चाहे कुछ भी माने हों, इस का असर देश के रोजमर्रा के काम पर भी पड़ेगा. अब चूंकि देश में 1947 से 1977 तक जैसे एक पार्टी का राज बन गया है, देश के लोगों की सुध लेने वाला अपने ही कामों में फंसा रहेगा. नरेंद्र मोदी को सलाह देने वालों में से कोई भी अब उन्हें कह नहीं सकेगा कि उन का कोई कदम किस तरह पूरा सही नहीं है. सब हां में हां मिलाएंगे.

उन के अपने मंत्री ही नहीं, टीवी, अखबार, सोशल मीडिया हर कोई अलग बात कहने से कतराएगा क्योंकि जनता ने कह दिया है कि सही हैं तो नरेंद्र मोदी. नरेंद्र मोदी की अपनी पार्टी भारतीय जनता पार्टी वैसे ही भारीभरकम है. इस में दिग्गज नेता नहीं हैं, पर रसूखदार लोग हैं. वे अपना वजन कब कहां डालेंगे कहा नहीं जा सकता.

नरेंद्र मोदी को पहले 5 सालों में कई नई बातें सीखनी पड़ीं, बहुतों की सुनी होगी. अब उन्हें कोई सलाह देने की हिम्मत न करेगा. अब उन्हें अपनी बात पर ही, अपने फैसले पर ही देश चलाना होगा. यह काम आसान नहीं होता.

देश की जनता ने नरेंद्र मोदी को एक मजबूत नेता मान कर चुना है और उन्हें वह मजबूती हर कदम पर दिखानी होगी. देश की जो समस्याएं मुंह खोले खड़ी हैं, उन के जवाब उन्हें अकेले ढूंढ़ने होंगे. भारतीय जनता पार्टी इस जीत को अहंकार न समझ ले, तानाशाही न समझ ले, इस पर रोक लगाने का काम नरेंद्र मोदी को ही करना होगा.

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अब तक नरेंद्र मोदी के सामने संसद में कई मजबूत अच्छे नेता थे, कई मुख्यमंत्री अपनी खास पहचान रखते थे. अब उन्होंने सब का मुंह बंद करा दिया है. वे अगर कहीं संसद में लोकसभा में जीत कर या पहले से राज्यसभा में हैं भी तो उन की आवाज में वह तेजी नहीं रहेगी. वे खिसियाए से रस्म अदा करते नजर ही आएंगे.

नरेंद्र मोदी ने एक बड़ा काम किया है. अखिलेश यादव, मायावती, अरविंद केजरीवाल, लालू प्रसाद यादव के बेटे को पूरा सबक सिखा दिया. पार्टियों की यह मेढकीय भीड़ देश को खराब कर रही थी. पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी, हरियाणा का चौटाला परिवार शायद अब राजनीति की धूल में खो जाएं. यह जरूरी है. देश में सामने वाली पार्टी मजबूत होनी चाहिए, बंटी हुई नहीं.                द्य

राजनीतिक रंजिशें किसी की सगी नहीं

लेखक- अक्षय कुलश्रेष्ठ

विपक्षी अमला ही अब हमलावर हो गया और राजनीतिक वजूद की लड़ाई सामने आ गई. चुनचुन कर लोगों की हत्याएं हो रही हैं. राजनीतिक रसूख पर ऐसा बट्टा लगा है जो बहुतों की रातों की नींदें हराम कर रहा है. यह बात राजनीतिक लोगों को हजम नहीं हो पा रही है कि अब विपक्ष नाम की कोई चीज है भी या नहीं.

एक तरफ हापुड़ में एक कांड को अंजाम दिया गया, वहीं अमेठी भी इस से अछूता नहीं रहा. हापुड़ के गांव करनपुर में घर के बाहर सो रहे भारतीय जनता पार्टी के पन्ना प्रमुख चंद्रपाल की 25 मई 2019 की रात गोलियों से भून कर हत्या कर दी गई. पास में ही सो रहे बेटे देवेंद्र ने जब शोर मचाया तो दोनों बदमाश अंधेरे का फायदा उठाते हुए जंगल की ओर भाग गए.

हुआ यों कि हापुड़ के गांव करनपुर के रहने वाले चंद्रपाल सिंह पुत्र पूरन सिंह भाजपा के पन्ना प्रमुख थे. उन के 5 बेटे व एक बेटी हैं. 25 मई 2019 की रात वह घर के बाहर सो रहे थे, वहीं पास में ही दूसरी चारपाई पर उन का बेटा देवेंद्र सो रहा था. देर रात 2 बदमाश वहां आए और चंद्रपाल के पड़ोसी धर्मपाल के घर के बाहर लगे खंभे पर बल्ब फोड़ कर अंधेरा कर दिया. इस के बाद बदमाशों ने चंद्रपाल को आवाज लगाई.

आवाज सुन कर चंद्रपाल जैसे ही उठ कर बैठे, बदमाशों ने उन की कनपटी से सटा कर गोली चला दी, लेकिन निशाना चूक गया. गोली उन की बाईं आंख में जा लगी. इस के बाद वह औंधे मुंह नीचे गिर गए. बदमाशों ने चंद्रपाल की कमर में भी 2 गोलियां मारीं.

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गोलियों की आवाज सुन कर देवेंद्र की नींद खुली तो उस ने शोर मचा दिया. इस के बाद बदमाश पैदल ही अंधेरे का फायदा उठाते हुए जंगल की ओर भाग गए. शोर सुन कर गांव वाले जमा हुए तब तक चंद्रपाल की मौैत हो चुकी थी.

वहीं दूसरी ओर अमेठी के बरौलियां गांव में भी 25 मई 2019 की रात वारदात हुई. वहां भारतीय जनता पार्टी लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से जीत की खुशी मना रही थी. देर रात साढ़े 11 बजे 2 बाइक सवार बदमाश वहां आए. बदमाशों ने पूर्व प्रधान और भाजपा के समर्थक सुरेंद्र सिंह के सिर में गोली मार दी और मौके से फरार हो गए.

हत्या के वक्त सुरेंद्र सिंह घर के बरामदे में सो रहे थे, तभी उन पर गोलियों से हमला हुआ. घायल हालत में सुरेंद्र सिंह को अस्पताल ले गए, जहां डाक्टरों ने उन्हें लखनऊ के लिए रैफर कर दिया. लखनऊ ले जाते समय रास्ते में ही दम तोड़ दिया.

स्मृति ईरानी सुरेंद्र सिंह की शवयात्रा में शामिल हुईं और उन्होंने अर्थी को कंधा भी दिया. उन्होंने कहा कि सुरेंद्र की हत्या करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा. हत्या करने और करवाने वाले दोनों को कड़ी सजा दिलाएंगे. इस के लिए सुप्रीम कोर्ट तक भी जाना पड़ा तो जाएंगे और उन की लड़ाई पार्टी लड़ेगी.

पत्नी रुक्मणि सिंह ने कहा कि स्मृति ईरानी ने भरोसा दिया है कि वे अपने बच्चों की तरह ही मेरे बच्चों का खयाल रखेंगी. स्मृति ईरानी ने कहा कि अब इस परिवार को संभालने की जिम्मेदारी मेरी है. यह मेरी लड़ाई है. मैं सुप्रीम कोर्ट तक जाऊंगी.

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बेटे अभय ने कहा कि मेरे पिता भारतीय जनता पार्टी की नेता स्मृति ईरानी के काफी करीबी थे और लोकसभा चुनाव में प्रचार की जिम्मेदारी निभा रहे थे. जीत के लिए विजय यात्रा निकाली जा रही थी. यह बात कांग्रेस नेताओं को हजम नहीं हुई, शायद इसीलिए उन की हत्या कर दी गई.

सुरेंद्र सिंह ने 2109 लोकसभा चुनाव में स्मृति ईरानी के चुनाव प्रचार में अहम भूमिका निभाई थी. कई गांवों में सुरेंद्र सिंह का अच्छाखासा दबदबा था. इस का फायदा इस चुनाव में स्मृति ईरानी को मिला. कांग्रेस के गढ़  अमेठी में कमल खिलाने का श्रेय काफी हद तक सुरेंद्र सिंह को भी जाता है.

Edited by – Neelesh Singh Sisodia

शत्रुघ्न सिन्हा की राजनीति…

शत्रुघ्न सिन्हा काफी समय से अपनी पार्टी के खिलाफ कुछ न कुछ कह रहे थे. वे लाल कृष्ण आडवाणी के खेमे के माने जाते थे, पर ऊंची जाति के हैसियत वाले थे, इसलिए उन्हें कहा तो खूब गया, लेकिन गालियां नहीं दी गईं. सोशल मीडिया में चौकीदार का खिताब लगाए गुंडई पर उतारू बड़बोले, गालियों की भाषा का जम कर इस्तेमाल करने वाले शत्रुघ्न सिन्हा के मामले में मोदीभक्त होने का फर्ज अदा करते रहे. हां, उदित राज के मामले में वे एकदम मुखर हो गए. एक दलित और दलित हिमायती की इतनी हिम्मत कि पंडों की पार्टी की खिलाफत कर दे. जिस पार्टी का काम मंदिर बनवाना, पूजाएं कराना, ढोल बजाना, तीर्थ स्थानों को साफ करवाना, गंगा स्नान करना हो, उस की खिलाफत कोई दलित भला कैसे कर सकता है?

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वैसे, उदित राज ने 5 साल पहले ही भाजपा में जा कर गलती की थी. दलितों की सदियों से जो हालत है, वह इसीलिए है कि ऊंची जातियों के लोग हर निचले पिछड़े तेज जने को अपने साथ मिला लेते हैं, ताकि वह दलितों का नेता न बन सके. यह समझदारी न भारत के ईसाइयों में है, न मुसलमानों में और न ही सिखों या बौद्धों में. उन्हें अपना नेता चुनना नहीं आता, इसलिए हिंदू पंडों को नेताटाइप लोगों को थोड़ा सा चुग्गा डाल कर अपना काम निकालने की आदत रही है. 1947 से पहले आजादी की लड़ाई में यही किया गया. किसी सिख, ईसाई, बौद्ध, शूद्र, अछूत को अलग नेतागीरी करने का मौका ही नहीं दिया गया. जैसे ही कोई नया नाम उभरता, चारों ओर से पंडों की भीड़ उसे फुसलाने को पहुंच जाती. मायावती के साथ हाल के सालों में ऐसा हुआ, प्रकाश अंबेडकर के साथ हुआ, किसान नेता चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह के साथ हुआ. उदित राज मुखर दलित लेखक बन गए थे. उन्हें भाजपा का सांसद का पद दे कर चुप करा दिया गया. इस से पहले वाराणसी के सोनकर शास्त्री के साथ ऐसा किया गया था. उदित राज का इस्तेमाल कर के, उन की रीढ़ की हड्डी को तोड़ कर घी में पड़ी मरी मक्खी की तरह निकाल फेंका और किसी हंसराज हंस को टिकट दे दिया. अगर वे जीत गए तो वे भी तिलक लगाए दलितवाद का कचरा करते रहेंगे. दलितों की हालत वैसी ही रहेगी, यह बिलकुल पक्का?है. यह भी पक्का है कि जब तक देश के पिछड़ों और दलितों को सही काम नहीं मिलेगा, सही मौके नहीं मिलेंगे, देश का अमीर भी जलताभुनता रहेगा कि वह किस गंदे गरीब देश में रहता?है. अमीरों की अमीरी बनाए रखने के लिए गरीबों को भरपेट खाना, कपड़ा, मकान और सब से बड़ी बात इज्जत व बराबरी देना जरूरी है. यह बिके हुए दलित पिछड़े नेता नहीं दिला सकते हैं. जिस की लाठी उस की भैंस जमीनों के मामलों में आज भी गांवों में किसानों के बीच लाठीबंदूक की जरूरत पड़ती है, जबकि अब तो हर थोड़ी दूर पर थाना है, कुछ मील पर अदालत है. यह बात घरघर में बिठा दी गई है कि जिस के हाथ में लाठी उस की भैंस. असल में मारपीट की धमकियों से देशभर में जातिवाद चलाया जाता है. गांव के कुछ लठैतों के सहारे ऊंची जाति के ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य गांवों के दलितों और पिछड़ों को बांधे रखते हैं. अब जब लाठी और बंदूक धर्म की रक्षा के लिए दी जाएगी और उस से बेहद एकतरफा जातिवाद लादा जाएगा, तो जमीनों के मामलों में उसे इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाएगा. अब झारखंड का ही मामला लें.

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1985 में एक दोपहर को 4 लोगों ने मिल कर खेत में काम कर रहे कुछ किसानों पर हमला कर दिया था. जाहिर है, मुकदमा चलना था. सैशन कोर्ट ने उन चारों को बंद कर दिया. लंबी तारीखों के बाद 2001 में जिला अदालत ने उन्हें आजन्म कारावास की सजा सुनाई. इतने साल जेल में रहने के बाद उन चारों को अब छूटने की लगी. हाथपैर मारे जाने लगे. हाईकोर्ट में गए कि कहीं गवाह की गवाही में कोई लोच ढूंढ़ा जा सके. हाईकोर्ट ने नहीं सुनी. 2009 में उस ने फैसला दिया. अब चारों सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं. क्यों भई, जब लाठीबंदूक से ही हर बात तय होनी है तो अदालतों का क्या काम? जैसे भगवा भीड़ें या खाप पंचायतें अपनी धौंस चला कर हाथोंहाथ अपने मतलब का फैसला कर लेती हैं, वैसे ही लाठीबंदूक से किए गए फैसले को क्यों नहीं मान लिया गया और क्यों रिश्तेदारों को हाईकोर्टों और सुप्रीम कोर्ट दौड़ाया गया, वह भी 34 साल तक? लाठी और बंदूक से नरेंद्र मोदी चुनाव जीत लें, पर राज नहीं कर सकते. पुलवामा में बंदूकें चलाई गईं तो क्या बालाकोट पर बदले की उड़ानों के बाद कश्मीर में आतंकवाद अंतर्ध्यान हो गया? राम ने रावण को मारा तो क्या उस के बाद दस्यु खत्म हो गए? पुराणों के हिसाब से तो हिरण्यकश्यप और बलि भी दस्यु थे, अब वे विदेशी थे या देशी ही यह तो पंडों को पता होगा, पर एक को मारने से कोई हल तो नहीं निकलता. अमेरिका 30 साल से अफगानिस्तान में बंदूकों का इस्तेमाल कर रहा है, पर कोई जीत नहीं दिख रही. बंदूकों से राज किया जाता है पर यह राज हमेशा रेत के महल का होता है. असली राज तब होता है जब आप लोगों के लिए कुछ करो.

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मुगलों ने किले, सड़कें, नहरें, बाग बनवाए. ब्रिटिशों ने रेलों, बिजली, बसों, शहरों को बनाया तो राज कर पाए, बंदूकों की चलती तो 1947 में ब्रिटिशों को छोड़ कर नहीं जाना पड़ता. जहां भी आजादी मिली है, लाठीबंदूक से नहीं, जिद से मिली है. जमीन के मामलों में ‘देख लूंगा’, ‘काट दूंगा’ जैसी बातें करना बंद करना होगा. जाति के नाम पर लाठीबंदूक काम कर रही है, पर उस के साथ भजनपूजन का लालच भी दिया जा रहा है, भगवान से बिना काम करे बहुतकुछ दिलाने का सपना दिखाया जा रहा है. झारखंड के मदन मोहन महतो व उन के 3 साथियों को इस हत्या से क्या जमीन मिली होगी और अगर मिली भी होगी तो क्या जेलों में उन्होंने उस का मजा लूटा होगा?

मोदी की नैया

यह गनीमत ही कही जाएगी कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव जीतने के लिए पाकिस्तान से व्यर्थ का युद्ध नहीं लड़ा.

सेना को एक निरर्थक युद्ध में झोंक देना बड़ी बात न होती. पर जैसा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा था कि युद्ध शुरू करना आसान है, युद्ध जाता कहां है, कहना कठिन है. वर्ष 1857 में मेरठ में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई ब्रिटिशों की हिंदुओं की ऊंची जमात के सैनिकों ने छेड़ी लेकिन अंत हुआ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर एकछत्र ब्रिटिश राज में, जिस में विद्रोही राजा मारे गए और बाकी कठपुतली बन कर रह गए.

आक्रमणकारी पर विजय प्राप्त  करना एक श्रेय की बात है, पर चुनाव जीतने के लिए आक्रमण करना एक महंगा सौदा है, खासतौर पर एक गरीब, मुहताज देश के लिए जो राइफलों तक के  लिए विदेशों का मुंह  ताकता है, टैंक, हवाईजहाजों, तोपों, जलपोतों, पनडुब्बियों की तो बात छोड़ ही दें.

नरेंद्र मोदी के लिए चुनाव का मुद्दा उन के पिछले 5 वर्षों के काम होना चाहिए. जब उन्होंने पिछले हर प्रधानमंत्री से कई गुना अच्छा काम किया है, जैसा कि उन का दावा है, तो उन्हें चौकीदार बन कर आक्रमण करने की जरूरत ही क्या है? लोग अच्छी सरकार को तो वैसे ही वोटे देते हैं. ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक बिना धार्मिक दंगे कराए चुनाव दर चुनाव जीतते आ रहे हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दबदबा बिना सेना, बिना डंडे, बिना खूनखराबे के बना हुआ है.

नरेंद्र मोदी को खुद को मजबूत प्रधानमंत्री, मेहनती प्रधानमंत्री, हिम्मतवाला प्रधानमंत्री, चौकीदार प्रधानमंत्री, करप्शनफ्री प्रधानमंत्री कहने की जरूरत ही नहीं है, सैनिक कार्यवाही की तो बिलकुल नहीं.

रही बात पुलवामा का बदला लेने की, तो उस के बाद बालाकोट पर हमला करने के बावजूद कश्मीर में आएदिन आतंकवादी घटनाएं हो रही हैं. आतंकवादी जिस मिट्टी के बने हैं, उन्हें डराना संभव नहीं है. अमेरिका ने अफगानिस्तान, इराक, सीरिया में प्रयोग किया हुआ है. पहले वह वियतनाम से मार खा चुका है. अमेरिका के पैर निश्चितरूप से भारत से कहीं ज्यादा मजबूत हैं चाहे जौर्ज बुश और बराक ओबामा जैसे राष्ट्रपतियों की छातियां 56 इंच की न रही हों. बराक ओबामा जैसे सरल, सौम्य व्यक्ति ने तो पाकिस्तान में एबटाबाद पर हमला कर ओसामा बिन लादेन को मार ही नहीं डाला था, उस की लाश तक ले गए थे जबकि उन्हें अगला चुनाव जीतना ही नहीं था.

नरेंद्र मोदी की पार्टी राम और कृष्ण के तर्ज पर युद्ध जीतने की मंशा रखती है पर युद्ध के  बाद राम को पहले सीता को, फिर लक्ष्मण को हटाना पड़ा था और बाद में अपने ही पुत्रों लवकुश से हारना पड़ा था. महाभारत के जीते पात्र हिमालय में जा कर मरे थे और कृष्ण अपने राज्य से निकाले जाने के बाद जंगल में एक बहेलिए के तीर से मरे थे. चुनाव को जीतने का युद्ध कोई उपाय नहीं है. जनता के लिए किया गया काम चुनाव जिताता है. भाजपा को डर क्यों है कि उसे युद्ध का बहाना भी चाहिए. नरेंद्र मोदी की सरकार तो आज तक की सरकारों में सर्वश्रेष्ठ रही ही है न!

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