सोने का झुमका: जब गुम हो गया तो क्या हुआ?

जगदीश की मां रसोईघर से बाहर निकली ही थी कि कमरे से बहू के रोने की आवाज आई. वह सकते में आ गई. लपक कर बहू के कमरे में पहुंची.

‘‘क्या हुआ, बहू?’’

‘‘मांजी…’’ वह कमरे से बाहर निकलने ही वाली थी. मां का स्वर सुन वह एक हाथ दाहिने कान की तरफ ले जा कर घबराए स्वर में बोली, ‘‘कान का एक झुमका न जाने कहां गिर गया है.’’

‘‘क…क्या?’’

‘‘पूरे कमरे में देख डाला है, मांजी, पर न जाने कहां…’’ और वह सुबकसुबक कर रोने लगी.

‘‘यह तो बड़ा बुरा हुआ, बहू,’’ एक हाथ कमर पर रख कर वह बोलीं, ‘‘सोने का खोना बहुत अशुभ होता है.’’

‘‘अब क्या करूं, मांजी?’’

‘‘चिंता मत करो, बहू. पूरे घर में तलाश करो, शायद काम करते हुए कहीं गिर गया हो.’’

‘‘जी, रसोईघर में भी देख लेती हूं, वैसे सुबह नहाते वक्त तो था.’’ जगदीश की पत्नी पूर्णिमा ने आंचल से आंसू पोंछे और रसोईघर की तरफ बढ़ गई. सास ने भी बहू का अनुसरण किया.

रसोईघर के साथ ही कमरे की प्रत्येक अलमारी, मेज की दराज, शृंगार का डब्बा और न जाने कहांकहां ढूंढ़ा गया, मगर कुछ पता नहीं चला.

अंत में हार कर पूर्णिमा रोने लगी. कितनी परेशानी, मुसीबतों को झेलने के पश्चात जगदीश सोने के झुमके बनवा कर लाया था.

तभी किसी ने बाहर से पुकारा. वह बंशी की मां थी. शायद रोनेधोने की आवाज सुन कर आई थी. जगदीश के पड़ोस में ही रहती थी. काफी बुजुर्ग होने की वजह से पासपड़ोस के लोग उस का आदर करते थे. महल्ले में कुछ भी होता, बंशी की मां का वहां होना अनिवार्य समझा जाता था. किसी के घर संतान उत्पन्न होती तो सोहर गाने के लिए, शादीब्याह होता तो मंगल गीत और गारी गाने के लिए उस को विशेष रूप से बुलाया जाता था. जटिल पारिवारिक समस्याएं, आपसी मतभेद एवं न जाने कितनी पहेलियां हल करने की क्षमता उस में थी.

‘‘अरे, क्या हुआ, जग्गी की मां? यह रोनाधोना कैसा? कुशल तो है न?’’ बंशी की मां ने एकसाथ कई सवाल कर डाले.

पड़ोस की सयानी औरतें जगदीश को अकसर जग्गी ही कहा करती थीं.

‘‘क्या बताऊं, जीजी…’’ जगदीश की मां रोंआसी आवाज में बोली, ‘‘बहू के एक कान का झुमका खो गया है. पूरा घर ढूंढ़ लिया पर कहीं नहीं मिला.’’

‘‘हाय राम,’’ एक उंगली ठुड्डी पर रख कर बंशी की मां बोली, ‘‘सोने का खोना तो बहुत ही अशुभ है.’’

‘‘बोलो, जीजी, क्या करूं? पूरे तोले भर का बनवाया था जगदीश ने.’’

‘‘एक काम करो, जग्गी की मां.’’

‘‘बोलो, जीजी.’’

‘‘अपने पंडित दयाराम शास्त्री हैं न, वह पोथीपत्रा विचारने में बड़े निपुण हैं. पिछले दिनों किसी की अंगूठी गुम हो गई थी तो पंडितजी की बताई दिशा पर मिल गई थी.’’

डूबते को तिनके का सहारा मिला. पूर्णिमा कातर दृष्टि से बंशी की मां की तरफ देख कर बोली, ‘‘उन्हें बुलवा दीजिए, अम्मांजी, मैं आप का एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगी.’’

‘‘धैर्य रखो, बहू, घबराने से काम नहीं चलेगा,’’ बंशी की मां ने हिम्मत बंधाते हुए कहा.

बंशी की मां ने आननफानन में पंडित दयाराम शास्त्री के घर संदेश भिजवाया. कुछ समय बाद ही पंडितजी जगदीश के घर पहुंच गए. अब तक पड़ोस की कुछ औरतें और भी आ गई थीं. पूर्णिमा आंखों में आंसू लिए यह जानने के लिए उत्सुक थी कि देखें पंडितजी क्या बतलाते हैं.

पूरी घटना जानने के बाद पंडितजी ने सरसरी निगाहों से सभी की तरफ देखा और अंत में उन की नजर पूर्णिमा पर केंद्रित हो गई, जो सिर झुकाए अपराधिन की भांति बैठी थी.

‘‘बहू का राशिफल क्या है?’’

‘‘कन्या राशि.’’

‘‘ठीक है.’’ पंडितजी ने अपने सिर को इधरउधर हिलाया और पंचांग के पृष्ठ पलटने लगे. आखिर एक पृष्ठ पर उन की निगाहें स्थिर हो गईं. पृष्ठ पर बनी वर्गाकार आकृति के प्रत्येक वर्ग में उंगली फिसलने लगी.

‘‘हे राम…’’ पंडितजी बड़बड़ा उठे, ‘‘घोर अनर्थ, अमंगल ही अमंगल…’’

सभी औरतें चौंक कर पंडितजी का मुंह ताकने लगीं. पूर्णिमा का दिल जोरों से धड़कने लगा था.

पंडितजी बोले, ‘‘आज सुबह से गुरु कमजोर पड़ गया है. शनि ने जोर पकड़ लिया है. ऐसे मौके पर सोने की चीज खो जाना अशुभ और अमंगलकारी है.’’

पूर्णिमा रो पड़ी. जगदीश की मां व्याकुल हो कर बंशी की मां से बोली, ‘‘हां, जीजी, अब क्या करूं? मुझ से बहू का दुख देखा नहीं जाता.’’

बंशी की मां पंडितजी से बोली, ‘‘दया कीजिए, पंडितजी, पहले ही दुख की मारी है. कष्ट निवारण का कोई उपाय भी तो होगा?’’

‘‘है क्यों नहीं?’’ पंडितजी आंख नचा कर बोले, ‘‘ग्रहों को शांत करने के लिए पूजापाठ, दानपुण्य, धर्मकर्म ऐसे कई उपाय हैं.’’

‘‘पंडितजी, आप जो पूजापाठ करवाने  को कहेंगे, सब कराऊंगी.’’ जगदीश की मां रोंआसे स्वर में बोली, ‘‘कृपा कर के बताइए, झुमका मिलने की आशा है या नहीं?’’

‘‘हूं…हूं…’’ लंबी हुंकार भरने के पश्चात पंडितजी की नजरें पुन: पंचांग पर जम गईं. उंगलियों की पोरों में कुछ हिसाब लगाया और नेत्र बंद कर लिए.

माहौल में पूर्ण नीरवता छा गई. धड़कते दिलों के साथ सभी की निगाहें पंडितजी की स्थूल काया पर स्थिर हो गईं.

पंडितजी आंख खोल कर बोले, ‘‘खोई चीज पूर्व दिशा को गई है. उस तक पहुंचना बहुत ही कठिन है. मिल जाए तो बहू का भाग्य है,’’ फिर पंचांग बंद कर के बोले, ‘‘जो था, सो बता दिया. अब हम चलेंगे, बाहर से कुछ जजमान आए हैं.’’

पूरे सवा 11 रुपए प्राप्त करने के पश्चात पंडित दयाराम शास्त्री सभी को आसीस देते हुए अपने घर बढ़ लिए. वहां का माहौल बोझिल हो उठा था. यदाकदा पूर्णिमा की हिचकियां सुनाई पड़ जाती थीं. थोड़ी ही देर में बंशीं की मां को छोड़ कर पड़ोस की शेष औरतें भी चली गईं.

‘‘पंडितजी ने पूरब दिशा बताई है,’’ बंशी की मां सोचने के अंदाज में बोली.

‘‘पूरब दिशा में रसोईघर और उस से लगा सरजू का घर है.’’ फिर खुद ही पश्चात्ताप करते हुए जगदीश की मां बोलीं, ‘‘राम…राम, बेचारा सरजू तो गऊ है, उस के संबंध में सोचना भी पाप है.’’

‘‘ठीक कहती हो, जग्गी की मां,’’ बंशी की मां बोली, ‘‘उस का पूरा परिवार ही सीधा है. आज तक किसी से लड़ाईझगड़े की कोई बात सुनाई नहीं पड़ी है.’’

‘‘उस की बड़ी लड़की तो रोज ही समय पूछने आती है. सरजू तहसील में चपरासी है न,’’ फिर पूर्णिमा की तरफ देख कर बोली, ‘‘क्यों, बहू, सरजू की लड़की आई थी क्या?’’

‘‘आई तो थी, मांजी.’’

‘‘लोभ में आ कर शायद झुमका उस ने उठा लिया हो. क्यों जग्गी की मां, तू कहे तो बुला कर पूछूं?’’

‘‘मैं क्या कहूं, जीजी.’’

पूर्णिमा पसोपेश में पड़ गई. उसे लगा कि कहीं कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए. यह तो सरासर उस बेचारी पर शक करना है. वह बात के रुख को बदलने के लिए बोली, ‘‘क्यों, मांजी, रसोईघर में फिर से क्यों न देख लिया जाए,’’ इतना कह कर पूर्णिमा रसोईघर की तरफ बढ़ गई.

दोनों ने उस का अनुसरण किया. तीनों ने मिल कर ढूंढ़ना शुरू किया. अचानक बंशी की मां को एक गड्ढा दिखा, जो संभवत: चूहे का बिल था.

‘‘क्यों, जग्गी की मां, कहीं ऐसा तो नहीं कि चूहे खाने की चीज समझ कर…’’ बोलतेबोलते बंशी की मां छिटक कर दूर जा खड़ी हुई, क्योंकि उसी वक्त पतीली के पीछे छिपा एक चूहा बिल के अंदर समा गया था.

‘‘बात तो सही है, जीजी, चूहों के मारे नाक में दम है. एक बार मेरा ब्लाउज बिल के अंदर पड़ा मिला था. कमबख्तों ने ऐसा कुतरा, जैसे महीनों के भूखे रहे हों,’’ फिर गड्ढे के पास बैठते हुए बोली, ‘‘हाथ डाल कर देखती हूं.’’

‘‘ठहरिए, मांजी,’’ पूर्णिमा ने टोकते हुए कहा, ‘‘मैं अभी टार्च ले कर आती हूं.’’

चूंकि बिल दीवार में फर्श से थोड़ा ही ऊपर था, इसलिए जगदीश की मां ने मुंह को फर्श से लगा दिया. आसानी से देखने के लिए वह फर्श पर लेट सी गईं और बिल के अंदर झांकने का प्रयास करने लगीं.

‘‘अरे जीजी…’’ वह तेज स्वर में बोली, ‘‘कोई चीज अंदर दिख तो रही है. हाथ नहीं पहुंच पाएगा. अरे बहू, कोई लकड़ी तो दे.’’

जगदीश की मां निरंतर बिल में उस चीज को देख रही थी. वह पलकें झपकाना भूल गई थी. फिर वह लकड़ी डाल कर उस चीज को बाहर की तरफ लाने का प्रयास करने लगी. और जब वह चीज निकली तो सभी चौंक पड़े. वह आम का पीला छिलका था, जो सूख कर सख्त हो गया था और कोई दूसरा मौका होता तो हंसी आए बिना न रहती.

बंशी की मां समझाती रही और चलने को तैयार होते हुए बोली, ‘‘अब चलती हूं. मिल जाए तो मुझे खबर कर देना, वरना सारी रात सो नहीं पाऊंगी.’’

बंशी की मां के जाते ही पूर्णिमा फफकफफक कर रो पड़ी.

‘‘रो मत, बहू, मैं जगदीश को समझा दूंगी.’’

‘‘नहीं, मांजी, आप उन से कुछ मत कहिएगा. मौका आने पर मैं उन्हें सबकुछ बता दूंगी.’’

शाम को जगदीश घर लौटा तो बहुत खुश था. खुशी का कारण जानने के लिए उस की मां ने पूछा, ‘‘क्या बात है, बेटा, आज बहुत खुश हो?’’

‘‘खुशी की बात ही है, मां,’’ जगदीश पूर्णिमा की तरफ देखते हुए बोला, ‘‘पूर्णिमा के बड़े भैया के 4 लड़कियों के बाद लड़का हुआ है.’’ खुशी तो पूर्णिमा को भी हुई, मगर प्रकट करने में वह पूर्णतया असफल रही.

कपड़े बदलने के बाद जगदीश हाथमुंह धोने चला गया और जातेजाते कह गया, ‘‘पूर्णिमा, मेरी पैंट की जेब में तुम्हारे भैया का पत्र है, पढ़ लेना.’’

पूर्णिमा ने भारी मन लिए पैंट की जेब में हाथ डाल कर पत्र निकाला. पत्र के साथ ही कोई चीज खट से जमीन पर गिर पड़ी. पूर्णिमा ने नीचे देखा तो मुंह से चीख निकल गई. हर्ष से चीखते हुए बोली, ‘‘मांजी, यह रहा मेरा खोया हुआ सोने का झुमका.’’

‘‘सच, मिल गया झुमका,’’ जगदीश की मां ने प्रेमविह्वल हो कर बहू को गले से लगा लिया.

उसी वक्त कमरे में जगदीश आ गया. दिन भर की कहानी सुनतेसुनते वह हंस कर बिस्तर पर लेट गया. और जब कुछ हंसी थमी तो बोला, ‘‘दफ्तर जाते वक्त मुझे कमरे में पड़ा मिला था. मैं पैंट की जेब में रख कर ले गया. सोचा था, लौट कर थोड़ा डाटूंगा. लेकिन यहां तो…’’ और वह पुन: खिलखिला कर हंस पड़ा.

पूर्णिमा भी हंसे बिना न रही.

‘‘बहू, तू जगदीश को खाना खिला. मैं जरा बंशी की मां को खबर कर दूं. बेचारी को रात भर नींद नहीं आएगी,’’ जगदीश की मां लपक कर कमरे से बाहर निकल गई.

घरौंदा: दोराहे पर खड़ी रेखा की जिंदगी

दिल्ली से उस के पति का तबादला जब हैदराबाद की वायुसेना अकादमी में हुआ था तब उस ने उस नई जगह के बारे में उत्सुकतावश पति से कई प्रश्न पूछ डाले थे. उस के पति अरुण ने बताया था कि अकादमी हैदराबाद से करीब 40 किलोमीटर दूर है. वायुसैनिकों के परिवारों के अलावा वहां और कोई नहीं रहता. काफी शांत जगह है. यह सुन कर रेखा काफी प्रसन्न हुई थी. स्वभाव से वह संकोचप्रिय थी. उसे संगीत और पुस्तकों में बहुत रुचि थी. उस ने सोचा, चलो, 3 साल तो मशीनी, शहरी जिंदगी से दूर एकांत में गुजरेंगे. अकादमी में पहुंचते ही घर मिल गया था, यह सब से बड़ी बात थी. बच्चों का स्कूल, पति का दफ्तर सब नजदीक ही थे. बढि़या पुस्तकालय था और मैस, कैंटीन भी अच्छी थी.

पर इसी कैंटीन से उस के हृदय के फफोलों की शुरुआत हुई थी. वहां पहुंचने के दूसरे ही दिन उसे कुछ जरूरी कागजात स्पीड पोस्ट करने थे, इसलिए उन्हें बैग में रख कर कुछ सामान लेने के लिए वह कैंटीन में पहुंची. सामान खरीद चुकने के बाद घड़ी देखी तो एक बजने को था. अभी खाना नहीं बना था. बच्चे और पति डेढ़ बजे खाने के लिए घर आने वाले थे. सुबह से ही नए घर में सामान जमाने में वह इतनी व्यस्त थी कि समय ही न मिला था. कैंटीन के एक कर्मचारी से उस ने पूछा, ‘‘यहां नजदीक कोई पोस्ट औफिस है क्या?’’

‘‘नहीं, पोस्ट औफिस तो….’’

तभी उस के पास खड़े एक व्यक्ति, जो वेशभूषा से अधिकारी ही लगता था, ने उस से अंगरेजी में पूछा था, ‘‘क्या मैं आप की मदद कर सकता हूं? मैं उधर ही जा रहा हूं.’’ थोड़ी सी झिझक के साथ ही उस के साथ चल दी थी और उस के प्रति आभार प्रदर्शित किया था.

रेखा शायद वह बात भूल भी जाती क्योंकि नील के व्यक्तित्व में कोई असाधारण बात नहीं थी लेकिन उसी शाम को नील उस के पति से मिलने आया था और फिर उन लोगों में दोस्ती हो गई थी.

नील देखने में साधारण ही था, पर उस का हंसमुख मिजाज, संगीत में रुचि, किताबीभाषा में रसीली बातें करने की आदत और सब से बढ़ कर लोगों की अच्छाइयों को सराहने की उस की तत्परता, इन सब गुणों से रेखा, पता नहीं कब, दोस्ती कर उस के बहुत करीब पहुंच गई थी.

नील की पत्नी, अपने बच्चों के साथ बेंगलुरु में रहती थी. वह अपने पिता की इकलौती बेटी थी और विशाल संपत्ति की मालकिन. अपनी संपत्ति को वह बड़ी कुशलता से संभालती थी. बच्चे वहीं पढ़ते थे. छुट्टियों में वे नील के पास आ जाते या नील बेंगलुरु चला जाता.

लोगों ने उस के और उस की पत्नी के बारे में अनेक अफवाहें फैला रखी थीं. कोई कहता, ‘बड़ी घमंडी औरत है, नील को तो अपनी जूती के बराबर भी नहीं समझती.’ दूसरा कहता, ‘नहीं भई, नील तो दूसरी लड़की को चाहता था, लेकिन पढ़ाई का खर्चा दे कर उस के ससुर ने उसे खरीद लिया.’ स्त्रियां कहतीं, ‘वह इस के साथ कैसे खुश रह सकती है? उसे तो विविधता पसंद है.’

लेकिन नील इन सब अफवाहों से अलग था. वह जिस तरह सब से मेलजोल रखता था, उसे देख कर यह सोचना भी असंभव लगता कि उस की पत्नी से पटती नहीं होगी.

रेखा को इन अफवाहों की परवा नहीं थी. दूसरों की त्रुटियों में उसे कोई रुचि नहीं थी. जल्दी ही उसे अपने मन की गहराइयों में छिपी बात का पता लग गया था, और तब गहरे पानी में डूबने वाले व्यक्ति की सी घुटन उस ने महसूस की थी. ‘यह क्या हो गया?’ यही वह अपनेआप से पूछती रहती थी.

रेखा को पति से कोई शिकायत नहीं थी, बल्कि वह उसे प्यार ही करती आई थी. अपने बच्चों से, अपने घर से उसे बेहद लगाव था. शायद इसी को वह प्यार समझती थी. लेकिन अब 40 की उम्र के करीब पहुंच कर उस के मन ने जो विद्रोह कर दिया था, उस से वह परेशान हो गईर् थी.

वह नील से मिलने का बहाना ढूंढ़ती रहती. उसे देखते ही रेखा के शरीर में एक विद्युतलहरी सी दौड़ जाती. नील के साथ बात करने में उसे एक विचित्र आनंद मिलता, और सब से अजीब बात तो यह थी कि नील की भी वैसी ही हालत थी. रेखा उस की आंखों का प्यार, याचना, स्नेह, परवशता-सब समझ लेती थी और नील भी उस की स्थिति समझता था.

वहां के मुक्त वातावरण में लोगों का ध्यान इस तरफ जाना आसान नहीं था. और इसी कारण से दोनों दूसरों से छिप कर मानसिक साहचर्य की खोज में रहते और मौका मिलते ही, उस साहचर्य का आनंद ले लेते.

अजीब हालत थी. जब मन नील की प्रतीक्षा में मग्न रहता, तभी न जाने कौन उसे धिक्कारने लगता. कई बार वह नील से दूर रहने का निर्णय लेती पर दूसरे ही क्षण न जाने कैसे अपने ही निर्णय को भूल जाती और नील की स्मृति में खो जाती. रेखा अरुण से भी लज्जित थी. अरुण की नील से अच्छी दोस्ती थी. वह अकसर उसे खाने पर या पिकनिक के लिए बुला लाता. ऐसे मौकों पर जब वह मुग्ध सी नील की बातों में खो जाती, तब मन का कोई कोना उसे बुरी तरह धिक्कारता.

रेखा के दिमाग पर इन सब का बहुत बुरा असर पड़ रहा था. न तो वह हैदराबाद छोड़ कर कहीं जाने को तैयार थी, न हैदराबाद में वह सुखी थी. कई बार वह छोटी सी बात के लिए जमीनआसमान एक कर देती और किसी के जरा सा कुछ कहने पर रो देती. अरुण ने कईर् बार कहा, ‘‘तुम अपनी बहन सुधा के पास 15-20 दिनों के लिए चली जाओ, रेखा. शायद तुम बहुत थक गई हो, वहां थोड़ा अच्छा महसूस करोगी.’’

रेखा की आंखें, इन प्यारभरी बातों से भरभर आतीं, लेकिन बच्चों के स्कूल का बहाना कर के वह टाल जाती. ऐसे में उस ने नील के तबादले की बात सुनी. उस का हृदय धक से रह गया. इस की कल्पना तो उस ने या नील ने कभी नहीं की थी. हालांकि दोनों में से एक को तो अकादमी छोड़ कर पहले जाना ही था. अब क्या होगा? रेखा सोचती रही, ‘इतनी जल्दी?’

एक दिन नील का मैसेज आया. उस ने स्पष्ट शब्दों में पूछा था, ‘‘क्या तुम अरुण को छोड़ कर मेरे साथ आ सकती हो?’’ बहुत संभव है कि फिर हमें एक साथ, एक जगह, रहने का मौका कभी न मिले. मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा, पता नहीं. पर, मैं तुम्हें मजबूर भी नहीं करूंगा. सोच कर मुझे बताना. सिर्फ हां या न कहने से मैं समझ जाऊंगा. मुझे कभी कोई शिकायत नहीं होगी.’’

रेखा ने मैसेज कई बार पढ़ा. हर शब्द जलते अंगारे की तरह उस के दिल पर फफोले उगा रहा था. आगे के लिए बहुत सपने थे. अरुण से भी बेहतर आदमी के साथ एक सुलझा हुआ जीवन बिताने का निमंत्रण था.

और पीछे…17 साल से तिनकातिनका इकट्ठा कर के बनाया हुआ छोटा सा घरौंदा था. प्यारेप्यारे बच्चे थे, खूबियों और खामियों से भरपूर मगर प्यार करने वाला पति था. सामाजिक प्रतिष्ठा थी, और बच्चों का भविष्य उस पर निर्भर था.

लेकिन उन्हीं के साथ, उसी घरौंदे में विलीन हो चुका उस का अपना निजी व्यक्तित्व था. कितने टूटे हुए सपने थे, कितनी राख हो चुकी उम्मीदें थीं. बहुत से छोटेबड़े घाव थे. अब भी याद आने पर उन में से कभीकभी खून बहता है. चाहे प्रौढ़त्व ने अब उसे उन सब दुखों पर हंसना सिखा दिया हो पर यौवन के कितने अमूल्य क्षणों का इसी पति की जिद के लिए, उस के परिवार के लिए उस ने गला घोंट लिया. शायद नील के साथ का जीवन इन बंधनों से मुक्त होगा. शायद वहां साहचर्य का सच्चा सुख मिलेगा. शायद…

लेकिन पता नहीं. अरुण के साथ कई वर्ष गुजारने के बाद अब वह क्या नील की कमजोरियों से भी प्यार कर सकेगी? क्या बच्चों को भूल सकेगी? नील की पत्नी, उस के बच्चे, अरुण, अपने बच्चे-इन सब की तरफ उठने वाली उंगलियां क्या वह सह सकेगी?

नहीं…नहीं…इतनी शक्ति अब उस के पास नहीं बची है. काश, नील पहले मिलता.

रेखा रोई. खूब रोई. कई दिन उलझनों में फंसी रही.

उस शाम जब उस ने अरुण के  साथ पार्टी वाले हौल में प्रवेश किया तो उस की आंखें नील को ढूंढ़ रही थीं. उस का मन शांत था, होंठों पर उदास मुसकान थी. डीजे की धूम मची थी. सुंदर कपड़ों में लिपटी कितनी सुंदरियां थिरक रही थीं. पाम के गमले रंगबिरंगे लट्टुओं से चमक रहे थे और खिड़की के पास रखे हुए लैंप स्टैंड के पास नील खड़ा था हाथ में शराब का गिलास लिए, आकर्षक भविष्य के सपनों, आत्मविश्वास और आशंका के मिलेजुले भावों में डूबताउतराता सा.

अरुण के साथ रेखा वहां चली गई. ‘‘आप के लिए क्या लाऊं?’’ नील ने पूछा. रेखा ने उस की आंखों में झांक कर कहा, ‘‘नहीं, कुछ नहीं, मैं शराब नहीं पीती.’’

नील कुछ समझा नहीं, हंस कर बोला, ‘‘मैं तो जानता हूं आप शराब नहीं पीतीं, पर और कुछ?’’

‘‘नहीं, मैं फिर एक बार कह रही हूं, नहीं,’’ रेखा ने कहा और वहां से दूर चली गई. अरुण आश्चर्य से देखता रहा लेकिन नील सबकुछ समझ गया था.

सोनिया: राज एक आत्महत्या का

सोनिया तब बच्ची थी. छोटी सी मासूम. प्यारी, गोलगोल सी आंखें थीं उस की. वह बंगाली बाबू की बड़ी बेटी थी. जितनी प्यारी थी वह, उस से भी कहीं मीठी उस की बातें थीं. मैं उस महल्ले में नयानया आया था. अकेला था. बंगाली बाबू मेरे घर से 2 मकान आगे रहते थे. वे गोरे रंग के मोटे से आदमी थे. सोनिया से, उन से तभी परिचय हुआ था. उन का नाम जयकृष्ण नाथ था.

वे मेरे जद्दोजेहद भरे दिन थे. दिनभर का थकामांदा जब अपने कमरे में आता, तो पता नहीं कहां से सोनिया आ जाती और दिनभर की थकान मिनटों में छू हो जाती. वह खूब तोतली आवाज में बोलती थी. कभीकभी तो वह इतना बोलती थी कि मुझे उस के ऊपर खीज होने लगती और गुस्से में कभी मैं बोलता, ‘‘चलो भागो यहां से, बहुत बोलती हो तुम…’’

तब उस की आंखें डबडबाई सी हो जातीं और वह बोझिल कदमों से कमरे से बाहर निकलती, तो मेरा भावुक मन इसे सह नहीं पाता और मैं झपट कर उसे गोद में उठा कर सीने से लगा लेता.

उस बच्ची का मेरे घर आना उस की दिनचर्या में शामिल था. बंगाली बाबू भी कभीकभी सोनिया को खोजतेखोजते मेरे घर चले आते, तो फिर घंटों बैठ कर बातें होती थीं.

बंगाली बाबू ने एक पंजाबी लड़की से शादी की थी. 3 लोगों का परिवार अपने में मस्त था. उन्हें किसी बात की कमी नहीं थी. कुछ दिन बाद मैं उन के घर का चिरपरिचित सदस्य बन चुका था.

समय बदला और अंदाज भी बदल गए. मैं अब पहले जैसा दुबलापतला नहीं रहा और न बंगाली बाबू ही अधेड़ रहे. बंगाली बाबू अब बूढ़े हो गए थे. सोनिया भी जवान हो गई थी. बंगाली बाबू का परिवार भी 5 सदस्यों का हो चुका था. सोनिया के बाद मोनू और सुप्रिया भी बड़े हो चुके थे.

सोनिया ने बीए पास कर लिया था. जवानी में वह अप्सरा जैसी खूबसूरत लगती थी. अब वह पहले जैसी बातूनी व चंचल भी नहीं रह गई थी.

बंगाली बाबू परेशान थे. उन के हंसमुख चेहरे पर अकसर चिंता की रेखाएं दिखाई पड़तीं. वे मुझ से कहते, ‘‘भाई साहब, कौन करेगा मेरे बच्चों से शादी? लोग कहते हैं कि इन की न तो कोई जाति है, न धर्म. मैं तो आदमी को आदमी समझता हूं… 25 साल पहले जिस धर्म व जाति को समुद्र के बीच छोड़ आया था, आज अपने बच्चों के लिए उसे कहां से लाऊं?’’

जातपांत को ले कर कई बार सोनिया की शादी होतेहोते रुक गई थी. इस से बंगाली बाबू परेशान थे. मैं उन्हें विश्वास दिलाना चाहता था, लेकिन मैं खुद जानता था कि सचमुच में समस्या उलझ चुकी है.

एक दिन बंगाली बाबू खीज कर मुझ से बोले, ‘‘भाई साहब, यह दुनिया बहुत ढोंगी है. खुद तो आदर्शवाद के नाम पर सबकुछ बकेगी, लेकिन जब कोई अच्छा कदम उठाने की कोशिश करेगा, तो उसे गिरा हुआ कह कर बाहर कर देगी…

‘‘आधुनिकता, आदर्श, क्रांति यह सब बड़े लोगों के चोंचले हैं. एक 60 साल का बूढ़ा अगर 16 साल की दूसरी जाति की लड़की से शादी कर ले, तो वह क्रांति है… और न जाने क्याक्या है?

‘‘लेकिन, यह काम मैं ने अपनी जवानी में ही किया. किसी बेसहारा को कुतुब रोड, कमाठीपुरा या फिर सोनागाछी की शोभा बनाने से बचाने की हिम्मत की, तो आज यही समाज उस काम को गंदा कह रहा है.

‘‘आज मैं अपनेआप को अपराधी महसूस कर रहा हूं. जिन बातों को सोच कर मेरा सिर शान से ऊंचा हो जाता था, आज वही बातें मेरे सामने सवाल बन कर रह गई हैं.

‘‘क्या आप बता सकते हैं कि मेरे बच्चों का भविष्य क्या होगा?’’ पूछते हुए बंगाली बाबू के जबड़े भिंच गए थे. इस का जवाब मैं भला क्या दे पाता. हां, उन के बेटे मोनू ने जरूर दे दिया. जीवन बीमा कंपनी में नौकरी मिलने के 7 महीने बाद ही वह एक लड़की ले आया. वह एक ईसाई लड़की थी, जो मोनू के साथ ही पढ़ती थी और एक अस्पताल में स्टाफ नर्स थी.

कुछ दिन बाद दोनों ने शादी कर ली, जिसे बंगाली बाबू ने स्वीकार कर लिया. जल्द ही वह घर के लोगों में घुलमिल गई.

मोनू बहादुर लड़का था. उसे अपना कैरियर खुद चुनना था. उस ने अपना जीवनसाथी भी खुद ही चुन लिया. पर सोनिया व सुप्रिया तो लड़कियां हैं. अगर वे ऐसा करेंगी, तो क्या बदनामी नहीं होगी घर की? बातचीत के दौर में एक दिन बंगाली बाबू बोल पड़े थे.?

लेकिन, जिस बात का उन्हें डर था, वह एक दिन हो गई. सुप्रिया एक दिन एक दलित लड़के के साथ भाग गई. दोनों कालेज में एकसाथ पढ़ते थे. उन दोनों पर नए जमाने का असर था. सारा महल्ला हैरान रह गया.

लड़के के बाप ने पूरा महल्ला चिल्लाचिल्ला कर सिर पर उठा लिया था, ‘‘यह बंगाली न जात का है और न पांत का है… घर का न घाट का. इस का पूरा खानदान ही खराब है. खुद तो पंजाबी लड़की भगा लाया, बेटा ईसाई लड़की पटा लाया और अब इस की लड़की मेरे सीधेसादे बेटे को ले उड़ी.’’

लड़के के बाप की चिल्लाहट बंगाली बाबू को भले ही परेशान न कर सकी हो, लेकिन महल्ले की फुसफुसाहट ने उन्हें जरूर परेशान कर दिया था. इन सब घटनाओं से बंगाली बाबू अनापशनाप बड़बड़ाते रहते थे. वे अपना सारा गुस्सा अब सोनिया को कोस कर निकालते.

बेचारी सोनिया अपनी मां की तरह शांत स्वभाव की थी. उस ने अब तक 35 सावन इसी घर की चारदीवारी में बिताए थे. वह अपने पिता की परेशानी को खूब अच्छी तरह जानती थी. जबतब बंगाली बाबू नाराज हो कर मुझ से बोलते, ‘‘कहां फेंकूं इस जवान लड़की को, क्यों नहीं यह भी अपनी जिंदगी खुद जीने की कोशिश करती. एक तो हमारी नाक साथ ले कर चली गई. उसे अपनी बड़ी बहन पर जरा भी तरस नहीं आया.’’

इस तरह की बातें सुन कर एक दिन सोनिया फट पड़ी, ‘‘चुप रहो पिताजी.’’ सोनिया के अंदर का ज्वालामुखी उफन कर बाहर आ गया था. वह बोली, ‘‘क्या करते मोनू और सुप्रिया? उन के पास दूसरा और कोई रास्ता भी तो नहीं था. जिस क्रांति को आप ने शुरू किया था, उसी को तो उन्होंने आगे बढ़ाया. आज वे जैसे भी हैं, जहां भी हैं, सुखी हैं. जिंदगी ढोने की कोशिश तो नहीं करते. उन की जिंदगी तो बेकार नहीं गई.’’

बंगाली बाबू ने पहली बार सोनिया के मुंह से यह शब्द सुने थे. वे हैरान थे. ‘‘ठीक है बेटी, यह मेरा ही कुसूर है. यह सब मैं ने ही किया है, सब मैं ने…’’ बंगाली बाबू बोले.

सोनिया का मुंह एक बार खुला, तो फिर बंद नहीं हुआ. जिंदगी के आखिरी पलों तक नहीं… और एक दिन उस ने जिंदगी से जूझते हुए मौत को गले लगा लिया था. उस की आंखें फैली हुई थीं और गरदन लंबी हो गई थी. सोनिया को बोझ जैसी अपनी जिंदगी का कोई मतलब नहीं मिल पाया था, तभी तो उस ने इतना बड़ा फैसला ले लिया था.

मैं ने उस की लाश को देखा. खुली हुई आंखें शायद मुझे ही घूर रही थीं. वही आंखें, गोलगोल प्यारा सा चेहरा. मेरे मानसपटल पर बड़ी प्यारी सी बच्ची की छवि उभर आई, जो तोतली आवाज में बोलती थी.खुली आंखों से शायद वह यही कह रही थी, ‘चाचा, बस आज तक ही हमारातुम्हारा रिश्ता था.’

मैं ने उस की खुली आंखों पर अपना हाथ रख दिया था.

अगली बार कब: आखिर क्यों वह अपने पति और बच्चों से परेशान रहती थी?

उफ, कल फिर शनिवार है, तीनों घर पर होंगे. मेरे दोनों बच्चों सौरभ और सुरभि की भी छुट्टी रहेगी और अमित भी 2 दिन फ्री होते हैं. मैं तो गृहिणी हूं ही. अब 2 दिन बातबात पर चिकचिक होती रहेगी. कभी बच्चों का आपस में झगड़ा होगा, तो कभी अमित बच्चों को किसी न किसी बात पर टोकेंगे. आजकल मुझे हफ्ते के ये दिन सब से लंबे दिन लगने लगे हैं. पहले ऐसा नहीं था. मुझे सप्ताहांत का बेसब्री से इंतजार रहता था. हम चारों कभी कहीं घूमने जाते थे, तो कभी घर पर ही लूडो या और कोई खेल खेलते थे. मैं मन ही मन अपने परिवार को हंसतेखेलते देख कर फूली नहीं समाती थी.

धीरेधीरे बच्चे बड़े हो गए. अब सुरभि सी.ए. कर रही है, तो सौरभ 11वीं क्लास में है. अब साथ बैठ कर हंसनेखेलने के वे क्षण कहीं खो गए थे.

मैं ने फिर भी जबरदस्ती यह नियम बना दिया था कि सोने से पहले आधा घंटा हम चारों साथ जरूर बैठेंगे, चाहे कोई कितना भी थका हुआ क्यों न हो और यह नियम भी अच्छाखासा चल रहा था. मुझे इस आधे घंटे का बेसब्री से इंतजार रहता था. लेकिन अब इस आधे घंटे का जो अंत होता है, उसे देख कर तो लगता है कि यह नियम मुझे खुद ही तोड़ना पड़ेगा.

दरअसल, अब होता यह है कि हम चारों की बैठक खत्म होतेहोते किसी न किसी का, किसी न किसी बात पर झगड़ा हो जाता है. मैं कभी सौरभ को समझाती हूं, कभी सुरभि को, तो कभी अमित को.

सुरभि तो कई बार यह कह कर मुझे बहुत प्यार करती है कि मम्मी, आप ही हमारे घर की बाइंडिंग फोर्स हो. सुरभि और मैं अब मांबेटी कम, सहेलियां ज्यादा हैं.

जब सप्ताहांत आता है, तो अमित फ्री होते हैं. थोड़ी देर मेल चैक करते हैं, फिर कुछ देर टीवी देखते हैं और फिर कभी सौरभ तो कभी सुरभि को किसी न किसी बात पर टोकते रहते हैं. बच्चे भी अपना तर्क रखते हुए बराबर जवाब देने लगते हैं, जिस से झगड़ा बढ़ जाता और फिर अमित का पारा हाई होता चला जाता है.

मैं अब सब के बीच तालमेल बैठातेबैठाते थक जाती हूं. मैं बहुत कोशिश करती हूं कि छुट्टी के दिन शांति प्यार से बीतें, लेकिन ऐसा होता नहीं है. कोई न कोई बात हो ही जाती है. बच्चों को लगता है कि पापा उन की बात नहीं समझ रहे हैं और अमित को लगता है कि बच्चों को उन की बात चुपचाप सुन लेनी चाहिए. ऐसा नहीं है कि अमित बहुत रूखे, सख्त किस्म के इंसान हैं. वे बहुत शांत रहने और अपने परिवार को बहुत प्यार करने वाले इंसान हैं. लेकिन आजकल जब वे युवा बच्चों को किसी बात पर टोकते हैं, तो बच्चों के जवाब देने पर उन्हें गुस्सा आ जाता है. कभी बच्चे सही होते हैं, तो कभी अमित. जब मेरा मूड खराब होता है, तीनों एकदम सही हो जाते हैं.

वैसे मुझे जल्दी गुस्सा नहीं आता है, लेकिन जब आता है, तो मेरा अपने गुस्से पर नियंत्रण नहीं रहता है. वैसे मेरा गुस्सा खत्म भी जल्दी हो जाता है. पहले मैं भी बच्चों पर चिल्लाने लगती थी, लेकिन अब बच्चे बड़े हो गए हैं, मुझे उन पर चिल्लाना अच्छा नहीं लगता.

अब मैं ने अपने गुस्से के पलों का यह हल निकाला है कि मैं घर से बाहर चली जाती हूं. घर से थोड़ी दूर स्थित पार्क में बैठ या टहल कर लौट आती हूं. इस से मेरे गुस्से में चिल्लाना, फिर सिरदर्द से परेशान रहना बंद हो गया है. लेकिन ये तीनों मेरे गुस्से में घर से निकलने के कारण घबरा जाते हैं और होता यह है कि इन तीनों में से कोई न कोई मेरे पीछे चलता रहता है और मुझे पीछे देखे बिना ही यह पता होता है कि इन तीनों में से एक मेरे पीछे ही है. जब मेरा गुस्सा ठंडा होने लगता है, मैं घर आने के लिए मुड़ जाती हूं और जो भी पीछे होता है, वह भी मेरे साथ घर लौट आता है.

एक संडे को छोटी सी बात पर अमित और बच्चों में बहस हो गई. मैं तीनों को शांत करने लगी, मगर मेरी किसी ने नहीं सुनी. मेरी तबीयत पहले ही खराब थी. सिर में बहुत दर्द हो रहा था. जून का महीना था, 2 बज रहे थे. मैं गुस्से में चप्पलें पहन कर बाहर निकल गई. चिलचिलाती गरमी थी. मैं पार्क की तरफ चलती गई. गरमी से तबीयत और ज्यादा खराब होती महसूस हुई. मेरी आंखों में आंसू आ गए. मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था कि इतनी बहस क्यों करते हैं ये लोग. मैं ने मुड़ कर देखा. सुरभि चुपचाप पसीना पोंछते मेरे पीछेपीछे आ रही थी. ऐसे समय में मुझे उस पर बहुत प्यार आता है, मैं उस के लिए रुक गई.

सुरभि ने मेरे पास पहुंच कर कहा, ‘‘आप की तबीयत ठीक नहीं है, मम्मी. क्यों आप अपनेआप को तकलीफ दे रही हैं?’’

मैं बस पार्क की तरफ चलती गई, वह भी मेरे साथसाथ चलने लगी. मैं पार्क में बेंच पर बैठ गई. मैं ने घड़ी पर नजर डाली. 4 बज रहे थे. बहुत गरमी थी.

सुरभि ने कहा, ‘‘मम्मी, कम से कम छाया में तो बैठो.’’

मैं उठ कर पेड़ के नीचे वाली बेंच पर बैठ गई. सुरभि ने मुझ से धीरेधीरे सामान्य बातें करनी शुरू कर दीं. वह मुझे हंसाने की कोशिश करने लगी. उस की कोशिश रंग लाई और मैं धीरेधीरे अपने सामान्य मूड में आ गई.

तब सुरभि बोली, ‘‘मम्मी, एक बात कहूं मानेंगी?’’

मैं ने ‘हां’ में सिर हिलाया तो वह बोली, ‘‘मम्मी, आप गुस्से में यहां आ कर बैठ जाती हैं… इतनी धूप में यहां बैठी हैं. इस से आप को ही तकलीफ हो रही है न? घर पर तो पापा और सौरभ एयरकंडीशंड कमरे में बैठे हैं… मैं आप को एक आइडिया दूं?’’

मैं उस की बात ध्यान से सुन रही थी, मैं ने बताया न कि अब हम मांबेटी कम, सहेलियां ज्यादा हैं. अत: मैं ने कहा, ‘‘बोलो.’’

‘‘मम्मी, अगली बार जब आप को गुस्सा आए तो बस मैं जैसा कहूं आप वैसा ही करना. ठीक है न?’’

मैं मुसकरा दी और फिर हम घर आ गईं. आ कर देखा दोनों बापबेटे अपनेअपने कमरे में आराम फरमा रहे थे.

सुरभि ने कहा, ‘‘देखा, इन लोगों के लिए आप गरमी में निकली थीं.’’ फिर उस ने चाय और सैंडविच बनाए. सभी साथ चायनाश्ता करने लगे. तभी अमित ने कहा, ‘‘मैं ने सुरभि को जाते देख कर अंदाजा लगा लिया था कि तुम जल्द ही आ जाओगी.’’

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया. सौरभ ने मुझे हमेशा की तरह ‘सौरी’ कहा और थोड़ी देर में सब सामान्य हो गया.

10-15 दिन शांति रही. फिर एक शनिवार को सौरभ अपना फुटबाल मैच खेल कर आया और आते ही लेट गया. अमित उस से पढ़ाई की बातें करने लगे जिस पर सौरभ ने कह दिया, ‘‘पापा, अभी मूड नहीं है. मैच खेल कर थक गया हूं… थोड़ी देर सोने के बाद पढ़ाई कर लूंगा.’’

अमित को गुस्सा आ गया और वे शुरू हो गए. सुरभि टीवी देख रही थी, वह भी अमित की डांट का शिकार हो गई. मैं खाना बना रही थी. भागी आई. अमित को शांत किया, ‘‘रहने दो अमित, आज छुट्टी है, पूरा हफ्ता पढ़ाई ही में तो बिजी रहते हैं.’’

अमित शांत नहीं हुए. उधर मेरी सब्जी जल रही थी, मेरा एक पैर किचन में, तो दूसरा बच्चों के बैडरूम में. मामला हमेशा की तरह मेरे हाथ से निकलने लगा तो मुझे गुस्सा आने लगा. मैं ने कहा, ‘‘आज छुट्टी है और मैं यह सोच कर किचन में कुछ स्पैशल बनाने में बिजी हूं कि सब साथ खाएंगे और तुम लोग हो कि मेरा दिमाग खराब करने पर तुले हो.’’

अमित सौरभ को कह रहे थे, ‘‘मैं देखता हूं अब तुम कैसे कोई मैच खेलते हो.’’

सौरभ रोने लगा. मैं ने बात टाली, ‘‘चलो, खाना बन गया है, सब डाइनिंग टेबल पर आ जाओ.’’

सौरभ ने कहा, ‘‘अभी भूख नहीं है. समोसे खा कर आया हूं.’’

यह सुनते ही अमित और भड़क उठे. इस के बाद बात इतनी बढ़ गई कि मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा.

‘‘तुम लोगों की जो मरजी हो करो,’’ कह लंच छोड़ कर सुरभि पर एक नजर डाल कर मैं निकल गई. मैं मन ही मन थोड़ा चौंकी भी, क्योंकि मैं ने सुरभि को मुसकराते देखा. आज तक ऐसा नहीं हुआ था. मैं परेशान होऊं और मेरी बेटी मुसकराए. मैं थोड़ा आगे निकली तो सुरभि मेरे पास पहुंच कर बोली, ‘‘मम्मी, आप ने कहा था कि अगली बार मूड खराब होने पर आप मेरी बात मानेंगी?’’

‘‘हां, क्या बात है?’’

‘‘मम्मी, आप क्यों गरमी में इधरउधर भटकें? पापा और भैया दोनों सोचते हैं आप थोड़ी देर में मेरे साथ घर आ जाएंगी… आप आज मेरे साथ चलो,’’ कह कर उस ने अपने हाथ में लिया हुआ मेरा पर्स मुझे दिखाया.

मैं ने कहा, ‘‘मेरा पर्स क्यों लाई हो?’’

सुरभि हंसी, ‘‘चलो न मम्मी, आज गुस्सा ऐंजौय करते हैं,’’ और फिर एक आटो रोक कर उस में मेरा हाथ पकड़ती हुई बैठ गई.

मैं ने पूछा, ‘‘यह क्या है? हम कहां जा रहे हैं?’’ और मैं ने अपने कपड़ों पर नजर डाली, मैं कुरता और चूड़ीदार पहने हुए थी.

सुरभि बोली, ‘‘आप चिंता न करें, अच्छी लग रही हैं.’’

वंडरमौल पहुंच कर आटो से उतर कर हम  पिज्जा हट’ में घुस गए.

मैं हंसी तो सुरभि खुश हो गई, बोली, ‘‘यह हुई न बात. चलो, शांति से लंच करते हैं.’’

तभी सुरभि के सैल पर अमित का फोन आया. पूछा, ‘‘नेहा कहां है?’’

सुरभि ने कहा, ‘‘मम्मी मेरे साथ हैं… बहुत गुस्से में हैं… पापा, हम थोड़ी देर में आ जाएंगे.’’

फिर हम ने पिज्जा आर्डर किया. हम पिज्जा खा ही रहे थे कि फिर अमित का फोन आ गया. सुरभि से कहा कि नेहा से बात करवाओ.

मैं ने फोन लिया, तो अमित ने कहा, ‘‘उफ, नेहा सौरी, अब आ जाओ, बड़ी भूख लगी है.’’

मैं ने कहा, ‘‘अभी नहीं, थोड़ा और चिल्ला लो… खाना तैयार है किचन में, खा लेना दोनों, मैं थोड़ा दूर निकल आई हूं, आने में टाइम लगेगा.’’

कुछ ही देर में सौरभ का फोन आ गया, ‘‘सौरी मम्मी, जल्दी आ जाओ, भूख लगी है.’’

मैं ने उस से भी वही कहा, जो अमित से कहा था.

‘पिज्जा हट’ से हम निकले तो सुरभि ने कहा, ‘‘चलो मम्मी, पिक्चर भी देख लें.’’

मैं तैयार हो गई. मेरा भी घर जाने का मन नहीं कर रहा था. वैसे भी पिक्चर देखना मुझे पसंद है. हम ने टिकट लिए और आराम से फिल्म देखने बैठ गए. बीचबीच में सुरभि अमित और सौरभ को मैसज देती रही कि हमें आने में देर होगी… आज मम्मी का मूड बहुत खराब है. जब अमित बहुत परेशान हो गए तो उन्होंने कहा कि वे हमें लेने आ रहे हैं. पूछा हम कहां हैं. तब मैं ने ही अमित से कहा कि मैं जहां भी हूं शांति से हूं, थोड़ी देर में आ जाऊंगी.

फिल्म खत्म होते ही हम ने जल्दी से आटो लिया. रास्ता भर हंसते रहे हम… बहुत मजा आया था. घर पहुंचे तो बेचैन से अमित ने ही दरवाजा खोला. मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, ‘‘ओह नेहा, इतना गुस्सा, आज तो जैसे तुम घर आने को ही तैयार नहीं थी, मैं पार्क में भी देखने गया था.’’

सुरभि ने मुझे आंख मारी. मैं ने किसी तरह अपनी हंसी रोकी. सौरभ भी रोनी सूरत लिए मुझ से लिपट गया. बोला, ‘‘अच्छा मम्मी अब मैं कभी कोई उलटा जवाब नहीं दूंगा.’’

दोनों ने खाना नहीं खाया था, मुझे बुरा लगा.

अमित बोले, ‘‘चलो, अब कुछ खिला दो और खुद भी कुछ खा लो.’’

सुरभि ने मुझे देखा तो मैं ने उसे खाना लगाने का इशारा किया और फिर खुद भी उस के साथ किचन में सब के लिए खाना गरम करने लगी. हम दोनों ने तो नाम के कौर ही मुंह में डाले. मैं गंभीर बनी बैठी थी.

अमित ने कहा, ‘‘चलो, आज से कोई किसी पर नहीं चिल्लाएगा, तुम कहीं मत जाया करो.’’

सौरभ भी कहने लगा, ‘‘हां मम्मी, अब कोई गुस्सा नहीं करेगा, आप कहीं मत जाया करो… बहुत खराब लगता है.’’

और सुरभि वह तो आज के प्रोग्राम से इतनी उत्साहित थी कि उस का मुसकराता चेहरा और चमकती आंखें मानो मुझ से पूछ रही थीं कि अगली बार आप को गुस्सा कब आएगा?

सावित्री और सत्य: त्याग और समर्पण की गाथा

सावित्री को नींद नहीं आ रही थी. अभी पिछले साल ही उस के पति की मौत हुई थी. उस की शादीशुदा जिंदगी का सुख महज एक साल का था. सावित्री ससुराल में ही रह रही थी. उस का पति ही बूढ़े सासससुर की एकलौती औलाद था. ससुराल और मायका दोनों ही पैसे वाले थे. सावित्री अपने मायके में 4 बच्चों में सब से छोटी और एकलौती लड़की थी. मांबाप और भाइयों की दुलारी… मैट्रिक पास होते ही सावित्री की शादी हो गई थी. पति की मौत के बाद उस का बापू उसे लेने आया था, पर वह मायके नहीं गई. उस ने बापू से कहा था कि आप के तो 3 बच्चे और हैं, पर मेरे सासससुर का तो कोई नहींहै. पहाड़ी की तराई में एक गांव में सावित्री का ससुराल था. गांव तो ज्यादा बड़ा नहीं था, फिर भी सभी खुशहाल थे. उस के ससुर उस इलाके के सब से धनी और रसूखदार शख्स थे. वे गांव के सरपंच भी थे.

पहाडि़यों पर रात में ठंडक रहती ही है. थोड़ी देर पहले ही बारिश रुकी थी. सावित्री कंबल ओढ़े लेटी थी, तभी अचानक ही जोर के धमाके की आवाज से वह चौंक पड़ी थी.

वह बिस्तर से नीचे उतर आई. शाल से अपने को ढकते हुए बगल में सास के कमरे में गई. वहां उस ने देखा कि सासससुर दोनों ही जोरदार धमाके की आवाज से जाग गए थे.

उस के ससुर स्वैटर पहन कर टौर्च व छड़ी उठा कर बाहर जाने के लिए निकलने लगे, तो सावित्री ने कहा, ‘‘बाबूजी, मैं आप को रात में अकेले नहीं जाने दूंगी. मैं भी आप के साथ चलूंगी.’’

काफी मना मरने के बावजूद सावित्री भी उन के साथ चल पड़ी थी. जब सावित्री बाहर निकली, तो थोड़ी दूरी पर ही खेतों के बीच उस ने आग की ऊंची लपटें देखीं. गांव के कुछ और लोग भी धमाके की आवाज सुन कर जमा हो चुके थे. करीब जाने पर देखा कि एक छोटे हवाईजहाज के टुकड़े इधरउधर जल रहे थे. लपटें काफी ऊंची और तेज थीं. किसी में पास जाने की हिम्मत नहीं थी. देखने से लग रहा था कि सबकुछ जल कर राख हो चुका है.

तभी सावित्री की नजर मलबे से दूर पड़े किसी शख्स पर गई, जिस के हाथपैरों में कुछ हरकत हो रही थी. वह अपने ससुर के साथ उस के नजदीक गई. कुछ और लोग भी साथ हो लिए थे.

उस नौजवान का चेहरा जलने से काला हो गया था. हाथपैरों पर भी जलने के निशान थे. वह बेहोश पड़ा था, पर रहरह कर अपने हाथपैर हिला रहा था.

तभी एक गांव वाले ने उस की नब्ज देखी और फिर नाक के पास हाथ ले जा कर सावित्री के ससुर से बोला, ‘‘सरपंचजी, इस की सांसें चल रही हैं. यह अभी जिंदा है, पर इस की हालत नाजुक दिखती है. इस को तुरंत इलाज की जरूरत है.’’

सरपंच ने कहा, ‘‘हां, इसे जल्द ही अस्पताल ले जाना होगा. प्रशासन को अभी इस की सूचना भी शायद न मिली हो. सूचना मिलने के बाद भी सुबह के पहले यहां पर किसी के आने की उम्मीद नहीं है. तुम में से कोई मेरी मदद करो. मेरा ट्रैक्टर ले कर आओ. इसे शहर के अस्पताल ले चलते हैं.’’

थोड़ी देर में ही 2-3 नौजवान ट्रैक्टर ले कर आ गए थे. उस घायल नौजवान को ट्रैक्टर से ही शहर के बड़े अस्पताल ले गए. सावित्री भी सरपंचजी के साथ शहर तक गई थी.

अस्पताल में डाक्टर ने देख कर कहा कि हालत नाजुक है. पुलिस को भी सूचित करना होगा. यह काम सरपंच ने खुद किया और डाक्टर को तुरंत इलाज शुरू करने को कहा.

इमर्जैंसी वार्ड में चैकअप करने के बाद डाक्टर ने उसे इलाज के लिए आईसीयू में भेज दिया. पर उस शख्स के पास से कोई पहचानपत्र या बोर्डिंग पास भी नहीं मिला.

हादसे की जगह के पास से एक बुरी तरह जला हुआ पर्स मिला था. उस पर्स में ऐसा कुछ भी सुबूत नहीं मिला था, जिस से उस की पहचान हो सके.

डाक्टर ने इलाज तो शुरू कर दिया था. सरपंचजी खुद गारंटर बने थे यानी इलाज का खर्च उन्हें ही उठाना था.

सुबह होते ही इस हादसे की खबर रेडियो और टैलीविजन पर फैल चुकी थी.

पुलिस भी आ गई थी. पुलिस को सारी बात बता कर उस की सहमति ले कर सरपंचजी अपनी बहू सावित्री के साथ अपने घर लौट आए थे.

शहर के एयरपोर्ट पर अफरातफरी का सा माहौल था. एयरपोर्ट शहर से 20 किलोमीटर दूर और गांव की विपरीत दिशा में था. लोग उस उड़ान से आने वाले अपने रिश्तेदारों का हाल जानने के लिए बेचैन थे.

एयरलाइंस के मुलाजिमों ने तो सभी सवारियों और हवाईजहाज के मुलाजिमों की लिस्ट लगा रखी थी, जिस में सब को ही मरा ऐलान किया गया था.

थोड़ी ही देर में टैलीविजन पर एक ब्रेकिंग न्यूज आई कि एक मुसाफिर इस हादसे में बच गया है, जिस की हालत नाजुक है, पर उस की पहचान नहीं हो सकी है. सब के मन में उम्मीद की एक किरण जग रही थी कि शायद वह उन्हीं का सगा हो.

अस्पताल में भीड़ उमड़ पड़ी थी. डाक्टर ने कहा कि अभी वह वैंटिलेटर पर है और हालत नाजुक है. मरीज के पास तो अभी कोई नहीं जा सकता है, उसे सिर्फ बाहर से शीशे से देखा जा सकता है. लोग बाहर से ही उस को देख कर पहचानने की कोशिश कर रहे थे, पर यह मुमकिन नहीं था. उस का चेहरा काफी जला हुआ था. उस पर दवा का लेप भी लगा था.

इधर सरपंच रोज सुबह अस्पताल आते थे, अकसर सावित्री भी साथ होती थी. वह उन को अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी, क्योंकि सरपंच खुद दिल के मरीज थे.

कुछ दिनों के बाद डाक्टर ने सरपंच से कहा, ‘‘मरीज खतरे से बाहर तो है, पर वह कोमा में जा चुका है. कोमा से बाहर निकलने में कितना समय लगेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता है. कुछ ही दिनों में उसे आईसीयू से निकाल कर स्पैशल वार्ड में भेज देंगे.

‘‘दूसरी बात यह कि उस का चेहरा बहुत खराब हो चुका है. अगर वह कोमा से बाहर भी आता है, तो आईने में अपनेआप को देख कर उसे गहरा सदमा लगेगा.’’

सरपंच ने पूछा, ‘‘तो इस का इलाज क्या है?’’

डाक्टर बोला, ‘‘उस के चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी करनी होगी, पर इस में काफी खर्च होगा. अभी तक के इलाज का खर्च तो आप देते आए हैं.’’

सरपंच ने कहा, ‘‘आप पैसे की चिंता न करें. अगर यह ठीक हो जाता है, तो मैं समझूंगा कि मेरा बेटा मुझे दोबारा मिल गया है.’’

कुछ दिनों के बाद उस मरीज को स्पैशल वार्ड में शिफ्ट किया गया था. वहां उस की देखभाल दिन में तो अकसर सावित्री ही किया करती थी, लेकिन रात में सरपंच के कहने पर गांव से भी कोई न कोई आ जाता था.

तकरीबन 2 महीने बाद उस की प्लास्टिक सर्जरी भी हुई. उस आदमी को नया चेहरा मिल गया था.

इसी बीच सरपंच के ट्रैक्टर की ट्रौली पर एक बैल्ट मिली. हादसे के बाद उस नौजवान को इसी ट्रौली से अस्पताल पहुंचाया गया था. शायद किसी ने उसे आराम पहुंचाने के लिए बैल्ट निकाल कर ट्रौली के एक कोने में रख दी थी, जिस पर अब तक किसी की नजर नहीं पड़ी थी. बैल्ट पर 2 शब्द खुदे थे एसके. उस बैल्ट को देख कर सरपंच को लगा कि उस आदमी की पहचान में यह एक अहम कड़ी साबित हो.

इस की सूचना उन्होंने पुलिस को दे दी. साथ ही, लोकल टैलीविजन चैनल और रेडियो पर भी इसे प्रसारित किया गया.

अगले ही दिन एक बुजुर्ग दंपती उसे देखने अस्पताल आए थे. उन का शहर में काफी बड़ा कारोबार था, पर चेहरा बदल जाने के चलते वे उसे पहचान नहीं पा रहे थे. बैल्ट भी पुलिस को दे दी गई थी.

वहां पर उन्होंने सावित्री को देखा, जो मन लगा कर मरीज की सेवा कर रही थी. अस्पताल से निकल कर वे सीधे पुलिस स्टेशन गए और वहां उस बैल्ट को देख कर कहा कि ऐसी ही एक बैल्ट उन के बेटे की भी थी, जिस पर एसके लिखा था. यह बैल्ट जानबूझ कर उन के बेटे ने खरीदी थी, क्योंकि एसके उस के नाम ‘सत्य कुमार’ से मिलती थी. फिर भी संतुष्ट हुए बिना उसे अपना बेटा मानने में कुछ ठीक नहीं लग रहा था. फिलहाल वे अपने घर लौट गए थे. पर सरपंच का मन कह रहा था कि यह सत्य कुमार ही है.

तकरीबन एक महीना गुजर चुका था. सरपंच और सावित्री दोनों ही सत्य कुमार की देखभाल कर रहे थे.

एक दिन अचानक सावित्री ने देखा कि सत्य कुमार के होंठ फड़फड़ा रहे थे और हाथ से कुछ इशारा कर रहा था. उस ने तुरंत डाक्टर को यह बात कही.

डाक्टर ने कहा कि दवा अपना काम कर रही है और उन्हें पूरी उम्मीद है कि अब वह बिलकुल ठीक हो जाएगा.

कुछ दिन बाद सावित्री उसे जब अपने हाथ से खाना खिला रही थी, सत्य कुमार ने उस का हाथ पकड़ कर कुछ बोलने की कोशिश की थी.

उसी शाम जब सावित्री अपने घर जाने के लिए उठी, तो सत्य कुमार ने उस का हाथ पकड़ कर बहुत कोशिश के बाद लड़खड़ाती जबान में बोला, ‘‘रुको, मैं यहां कैसे आया हूं? मैं तो हवाईजहाज में था. मैं तो कारोबार के सिलसिले में बाहर गया हुआ था.’’

फिर अपने बारे में उस ने कुछ जानकारी दी थी. सरपंच और सावित्री दोनों की खुशी का ठिकाना न था. उन्होंने डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने उसे चैक कर कहा, ‘‘मुबारक हो. अब यह होश में आ गया है. इस के मातापिता को सूचना दे दें.’’

सावित्री और सरपंच अस्पताल में ही रुक कर सत्य कुमार के मातापिता का इंतजार कर रहे थे. वे लोग भी खबर मिलते ही दौड़े आए थे. सत्य कुमार ने अपने मातापिता को पहचान लिया था और हादसे के पहले तक की बात बताई. उस के बाद का उसे कुछ याद नहीं था.

सत्य कुमार के पिता ने सरपंच और सावित्री का शुक्रिया अदा करते हुए कहा, ‘‘आप के उपकार के लिए हम लोग हमेशा कर्जदार रहेंगे. यह लड़की आप की बेटी है न?’’

सरपंच बोले, ‘‘मेरे लिए तो बेटी से भी बढ़ कर है. है तो मेरी बहू, पर शादी के एक साल के अंदर ही मेरा एकलौता बेटा हम लोगों को अकेला छोड़ कर चला गया, पर सावित्री ने हमारा साथ नहीं छोड़ा.

‘‘मैं तो चाहता था कि यह अपने मांबाप के पास चली जाए और दूसरी शादी कर ले, पर यह तैयार नहीं थी.’’

सत्य कुमार के पिता ने कहा, ‘‘अगर आप को कोई एतराज नहीं है, तो मैं सावित्री को अपनी बहू बनाने को तैयार हूं, क्यों सत्य कुमार? ठीक रहेगा न?’’

सत्य कुमार ने सहमति में सिर हिला कर अपनी हामी भर दी थी. फिर सेठजी ने सत्य कुमार की मां की ओर देख कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘अरे सेठानी, तुम भी तो कुछ कहो.’’

सेठानी बोलीं, ‘‘आप लोगों ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली है. मेरे बोलने को कुछ बचा ही नहीं है.’’

फिर वे सावित्री की ओर देख कर बोलीं, ‘‘तुम्हें कोई एतराज तो नहीं है?’’

सावित्री की आंखों से आंसू की कुछ बूंदें छलक कर उस के गालों पर आ गई थीं. वह बोली, ‘‘मैं आप लोगों की भावनाओं का सम्मान करती हूं, पर मैं अपने सासससुर को अकेला छोड़ कर नहीं जा सकती.’’

सरपंच ने सावित्री को समझाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें एतराज नहीं होना चाहिए, क्योंकि हम सभी लोगों की खुशी इसी में है. और हम लोगों को अब जीना ही कितने दिन है, जबकि तुम्हारी सारी जिंदगी आगे पड़ी है.’’

सेठजी ने भी सरपंच की बातों को सही ठहराते हुए कहा, ‘‘तुम जब भी चाहो और जितने दिन चाहो, सरपंचजी के यहां बीचबीच में आती रहना.’’

सावित्री सेठजी से बोली, ‘‘सत्यजी को आप ने जन्म दिया है और बाबूजी ने इन्हें दोबारा जन्म दिया है, तो इन की भी तो कुछ जिम्मेदारी बनती है मेरे ससुरजी के लिए.’’

सेठजी बोले, ‘‘मैं मानता हूं और मेरा बेटा भी इतनी समझ रखता है. सत्य कुमार को तो 2-2 पिताओं का प्यार मिलेगा. सत्य कुमार सरपंचजी का उतना ही खयाल रखेगा, जितना वह हमारा रखता है.’’

सावित्री और सत्य दोनों एकदूसरे को देख रहे थे. उन लोगों की बातें सुन कर वह कुछ संतुष्ट लग रही थी.

उस दिन सारी रात लोगों ने अस्पताल में ही बिताई थी. सावित्री के मायके में भी सरपंच ने यह बात बता दी थी. सभी को यह रिश्ता मंजूर था. सरपंच ने धूमधाम से अपने घर से ही सावित्री की शादी की थी.

निकिता की नाराजगी: कौन-सी भूल से अनजान था रंजन

निकिता अकसर किसी बात को ले कर झल्ला उठती थी. वह चिङचिङी स्वभाव की क्यों हो गई थी, उसे खुद भी पता नहीं था. पति रंजन ने कितनी ही बार पूछा लेकिन हर बार पूछने के साथ ही वह कुछ और अधिक चिड़चिड़ा जाती.

“जब देखो तब महारानी कोपभवन में ही रहती हैं. क्या पता कौन से वचन पूरे न होने का मौन उलाहना दिया जा रहा है. मैं कोई अंतरयामी तो हूं नहीं जो बिना बताए मन के भाव जान लूं. अरे भई, शिकायत है तो मुंह खोला न, लेकिन नहीं. मुंह को तो चुइंगम से चिपका लिया. अब परेशानी बूझो भी और उसे सुलझाओ भी. न भई न. इतना समय नहीं है मेरे पास,” रंजन उसे सुनाता हुआ बड़बड़ाता.

निकिता भी हैरान थी कि वह आखिर झल्लाई सी क्यों रहती है? क्या कमी है उस के पास? कुछ भी तो नहीं… कमाने वाला पति. बिना कहे अपनेआप पढ़ने वाले बच्चे. कपड़े, गहने, कार, घर और अकेले घूमनेफिरने की आजादी भी. फिर वह क्या है जो उसे खुश नहीं होने दे रहा? क्यों सब सुखसुविधाओं के बावजूद भी जिंदगी में मजा नहीं आ रहा.

कमोबेश यही परेशानी रंजन की भी है. उस ने भी लाख सिर पटक लिया लेकिन पत्नी के मन की थाह नहीं पा सका. वह कोई एक कारण नहीं खोज सका जो निकिता की नाखुशी बना हुआ है.

‘न कभी पैसे का कोई हिसाब पूछा न कभी खर्चे का. न पहननेओढ़ने पर पाबंदी न किसी शौक पर कोई बंदिश. फिर भी पता नहीं क्यों हर समय कटखनी बिल्ली सी बनी रहती है…’ रंजन दिन में कम से कम 4-5 बार ऐसा अवश्य ही सोच लेता.

ऐसा नहीं है कि निकिता अपनी जिम्मेदारियों को ठीक तरह से नहीं निभा रही या फिर अपनी किसी जिम्मेदारी में कोताही बरत रही है. वह सबकुछ उसी तरह कर रही है जैसे शादी के शुरुआती दिनों में किया करती थी. वैसे ही स्वादिष्ठ खाना बनाती है. वैसे ही घर को चकाचक रखती है. बाहर से आने वालों के स्वागतसत्कार में भी वही गरमजोशी दिखाती है. लेकिन सबकुछ होते हुए भी उस के क्रियाकलापों में वह रस नहीं है. मानों फीकी सी मिठाई या फिर बिना बर्फ वाला कोल्डड्रिंक… उन दिनों कैसे उमगीउमगी सी उड़ा करती थी. अब मानों पंख थकान से बोझिल हो गए हैं.

रंजन ने कई दोस्तों से अपनी परेशानी साझा की. अपनीअपनी समझ के अनुसार सब ने सलाह भी दी. किसी ने कहा कि महिलाओं को सरप्राइज गिफ्ट पसंद होते हैं तो रंजन उस के लिए कभी साड़ी, कभी सूट तो कभी कोई गहना ले कर आया लेकिन निकिता की फीकी हंसी में प्राण नहीं फूंक सका. किसी ने कहा कि बाहर डिनर या लंच पर ले कर जाओ. वह भी किया लेकिन सब व्यर्थ. किसी ने कहा पत्नी को किसी पर्यटन स्थल पर ले जाओ लेकिन ले किसे जाए? कोई जाने को तैयार हो तब न? कभी बेटे की कोचिंग तो कभी बेटी की स्कूल… कोई न कोई बाधा…

रंजन को लगता है कि निकिता बढ़ते बच्चों के भविष्य को ले कर तनाव में है. कभी उसे लगता कि वह अवश्य ही किसी रिश्तेदार को ले कर हीनभावना की शिकार हो रही है. कभीकभी उसे यह भी वहम हो जाता कि कहीं खुद उसे ही ले कर तो किसी असुरक्षा की शिकार तो नहीं है? लेकिन उस की हर धारणा बेकार साबित हो रही थी.

ऐसा भी नहीं है कि निकिता उस से लड़तीझगड़ती या फिर घर में क्लेश करती, बस अपनी तरफ से कोई पहल नहीं करती. न ही कोई जिद या आग्रह. जो ले आओ वह बना देती है, जो पड़ा है वह पहन लेती. अपनी तरफ से तो बात की शुरुआत भी नहीं करती. जितना पूछो उतना ही जवाब देती. अपनी तरफ से केवल इतना ही पूछती कि खाने में क्या बनाऊं? या फिर चाय बना दूं? शेष काम यंत्रवत ही होते हैं.

कई बार रंजन को लगता है जैसे निकिता किसी गहरे अवसाद से गुजर रही है लेकिन अगले ही पल उसे फोन पर बात करते हुए मुसकराता देखता तो उसे अपना वहम बेकार लगता.
निकिता एक उलझी हुई पहेली बन चुकी थी जिसे सुलझाना रंजन के बूते से बाहर की बात हो गई. थकहार कर उस ने निकिता की तरफ से अपनेआप को बेपरवाह करना शुरू कर दिया. जैसे जी चाहे वैसे जिए.
न जाने प्रकृति ने मानव मन को इतना पेचीदा क्यों बनाया है, इस की कोई एक तयशुदा परिभाषा होती ही नहीं.

मानव मन भी एक म्यूटैड वायरस की तरह है. हरएक में इस की सरंचना दूसरे से भिन्न होती है. बावजूद इस के कुछ सामान्य समानताएं भी होती हैं. जैसे हरेक मन को व्यस्त रहने के लिए कोई न कोई प्रलोभन चाहिए ही चाहिए. यह कोई लत, कोई व्यसन, या फिर कोई शौक भी हो सकता है. या इश्क भी…

बहुत से पुरुषों की तरह रंजन का मन भी एक तरफ से हटा तो दूसरी तरफ झुकने लगा. यों भी घर का खाना जब बेस्वाद लगने लगे तो बाहर की चाटपकौड़ी ललचाने लगती हैं.

पिछले कुछ दिनों से अपने औफिस वाली सुनंदा रंजन को खूबसूरत लगने लगी थी. अब रातोरात तो उस की शक्लसूरत में कोई बदलाव आया नहीं होगा. शायद रंजन का नजरिया ही बदल गया था. शायद नहीं, पक्का ऐसा ही हुआ है. यह मन भी बड़ा बेकार होता है. जब किसी पर आना होता है तो अपने पक्ष में माहौल बना ही लेता है.

“आज जम रही हो सुनंदा,” रंजन ने कल उस की टेबल पर ठिठकते हुए कहा तो सुनंदा मुसकरा दी.

“क्या बात है? आजकल मैडम घास नहीं डाल रहीं क्या?” सुनंदा ने होंठ तिरछे करते हुए कहा तो रंजन खिसिया गया.

‘ऐसा नहीं है कि निकिता उस के आमंत्रण को ठुकरा देती है. बस, बेमन से खुद को सौंप देती है,’ याद कर रंजन का मन खट्टा हो गया.

“लो, अब सुंदरता की तारीफ करना भी गुनाह हो गया. अरे भई, खूबसूरती होती ही तारीफ करने के लिए है. अब बताओ जरा, लोग ताजमहल देखने क्यों जाते हैं? खूबसूरत है इसलिए न?” रंजन ने बात संभालते हुए कहा तो सुनंदा ने गरदन झुका कर दाहिने हाथ को सलाम करने की मुद्रा में माथे से लगाया. बदले में रंजन ने भी वही किया और एक मिलीजुली हंसी आसपास बिखर गई.

रंजन निकिता से जितना दूर हो रहा था उतना ही सुनंदा के करीब आ रहा था. स्त्रीपुरुष भी तो विपरीत ध्रुव ही होते हैं. सहज आकर्षण से इनकार नहीं किया जा सकता. यदि उपलब्धता सहज बनी रहे तो बात आकर्षण से आगे भी बढ़ सकती है. सुनंदा के साथ कभी कौफी तो कभी औफिस के बाद बेवजह तफरीह… कभी साथ लंच तो कभी यों ही गपशप… आहिस्ताआहिस्ता रिश्ते की रफ्तार बढ़ रही थी.

सुनंदा अकेली महिला थी और अपने खुद के फ्लैट में रहती थी. जाने पति से तलाक लिया था या फिर स्वेच्छा से अलग रह रही थी, लेकिन जीवन की गाड़ी में बगल वाली सीट हालफिलहाल खाली ही थी जिस पर धीरेधीरे रंजन बैठने लगा था.

रंजन हालांकि अपनी उम्र के चौथे दशक के करीब था लेकिन इन दिनों उस के चेहरे पर पच्चीसी वाली लाली देखी जा सकती थी. प्रेम किसी भी उम्र में हो, हमेशा गुलाबी ही होता है.
सुनंदा के लिए कभी चौकलेट तो कभी किसी पसंदीदा लेखक की किताब रंजन अकसर ले ही आता था.

वहीं सुनंदा भी कभी दुपट्टा तो कभी चप्पलें… यहां तक कि कई बार तो अपने लिए लिपस्टिक, काजल या फिर बालों के लिए क्लिप खरीदने के लिए भी रंजन को साथ चलने के लिए कहती. सुन कर रंजन झुंझला जाता. सुनंदा उस की खीज पर रीझ जाती.

“ऐसा नहीं है कि मैं यह सब अकेली खरीद नहीं सकती बल्कि हमेशा खरीदती ही रही हूं लेकिन तुम्हारे साथ खरीदने की खुशी कुछ अलग ही होती है. चाहे पेमेंट भी मैं ही करूं, तुम्हारा केवल पास खड़े रहना… कितना रोमांटिक होता है, तुम नहीं समझोगे,” सुनंदा कहती तो रंजन सुखद आश्चर्य से भर जाता.

मन की यह कौन सी परत होती है जहां इस तरह की इंद्रधनुषी अभिलाषाएं पलती हैं. इश्क की रंगत गुलाबी से लाल होने लगी. रंजन पर सुनंदा का अधिकार बढ़ने लगा. अब तो सुनंदा अंडरगारमैंट्स भी रंजन के साथ जा कर ही खरीदती थी. सुनंदा के मोबाइल का रिचार्ज करवाना तो कभी का रंजन की ड्यूटी हो चुकी थी. मिलनामिलाना भी बाहर से भीतर तक पहुंच गया था. यह अलग बात है कि रंजन अभी तक सोफे से बिस्तर तक का सफर तय नहीं कर पाया था.

आज सुबहसुबह सुनंदा का व्हाट्सऐप मैसेज देख कर रंजन पुलक उठा. लिखा था,”मिलो, दोपहर में.”

ऐसा पहली बार हुआ है जब सुनंदा ने उसे छुट्टी वाले दिन घर बुलाया है.
दोस्त से मिलने का कह कर रंजन घर से निकला. निकिता ने न कोई दिलचस्पी दिखाई और न ही कुछ पूछा. कुछ ही देर में रंजन सुनंदा के घर के बाहर खड़ा था. डोरबेल पर उंगली रखने के साथ ही दरवाजा खुल गया.

“दरवाजे पर ही खड़ी थीं क्या?” रंजन उसे देख कर प्यार से मुसकराया.

सुनंदा अपनी जल्दबाजी पर शरमा गई. रंजन हमेशा की तरह सोफे पर बैठ गया. सुनंदा ने अपनी कुरसी उस के पास खिसका ली.

“आज कैसे याद किया?” रंजन ने पूछा. सुनंदा ने कुछ नहीं कहा बस मुसकरा दी.

चेहरे की रंगत बहुतकुछ कह रही थी. सुनंदा उठ कर रंजन के पास सोफे पर बैठ गई और उस के कंधे पर सिर टिका दिया. रंजन के हाथ सुनंदा की कमर के इर्दगिर्द लिपट गए और चेहरा चेहरे पर झुक गया. थोड़ी ही देर में रंजन के होंठ सुनंदा के गालों पर थे. वे आहिस्ताआहिस्ता गालों से होते हुए होंठों की यात्रा कर अब गरदन पर कानों के जरा नीचे ठहर कर सुस्ताने लगे थे. सुनंदा ने रंजन का हाथ पकड़ा और भीतर बैडरूम की तरफ चल दी. यह पहला अवसर था जब रंजन ने ड्राइंगरूम की दहलीज लांघी थी.

साफसुथरा बैड और पासपास रखे जुड़वां तकिए… कमरे के भीतर एक खुमारी सी तारी थी. तापमान एसी के कारण सुकूनभरा था. खिड़कियों पर पड़े मोटे परदे माहौल की रुमानियत में इजाफा कर रहे थे. अब ऐसे में दिल का क्या कुसूर? बहकना ही था.

सुनंदा और रंजन देह के प्रवाह में बहने लगे. दोनों साथसाथ गंतव्य की तरफ बढ़ रहे थे कि अचानक रंजन को अपनी मंजिल नजदीक आती महसूस हुई. उस ने अपनी रफ्तार धीमी कर दी और अंततः खुद को निढाल छोड़ कर तकिए के सहारे अपनी सांसों को सामान्य करने लगा. तृप्ति की संतुष्टि उस के चेहरे पर स्पष्ट देखी जा सकती थी. सुनंदा की मंजिल अभी दूर थी. बीच राह अकेला छुट जाने की छटपटाहट से वह झुंझला गई मानों मगन हो कर खेल रहे बच्चे के हाथ से जबरन उस का खिलौना छीन लिया गया हो.

नाखुशी जाहिर करते हुए उस ने रंजन की तरफ पीठ कर के करवट ले ली. रंजन अभी भी आंखें मूंदे पड़ा था. जरा सामान्य होने पर रंजन ने सुनंदा की कमर पर हाथ रखा. सुनंदा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. हाथ को धीरे से परे खिसका दिया. वह कपड़े संभालते हुए उठ बैठी.

“चाय पीओगे?” सुनंदा ने पूछा. रंजन ने खुमारी के आगोश में मुंदी अपनी आंखें जबरन खोलीं.

“आज तो बंदा कुछ भी पीने को तैयार है,” रंजन ने कहा.

उस की देह का जायका अभी भी बना हुआ था. सुनंदा के चेहरे पर कुछ देर पहले वाला उत्साह अब नहीं था. उस की चाल में गहरी हताशा झलक रही थी. रंजन की उपस्थिति अब उसे बहुत बोझिल लग रही थी.

“थैंक्स फौर सच ए रोमांटिक सिटिंग,” कहता हुआ चाय पीने के बाद रंजन उस के गाल पर चुंबन अंकित कर चला गया. सुनंदा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

कुछ दिनों से रंजन को सुनंदा के व्यवहार का ठंडापन बहुत खल रहा है. 1-2 बार दोनों अकेले में भी मिले लेकिन वही पहले वाली कहानी ही दोहराई गई. हर बार समागम के बाद रंजन का चेहरा तो खिल जाता लेकिन सुनंदा के चेहरे पर असंतुष्टि की परछाई और भी अधिक गहरी हो जाती. धीरेधीरे सुनंदा रंजन से खिंचीखिंची सी रहने लगी. अब तो उस के घर आने के प्रस्ताव को भी टालने लगी.

रंजन समझ नहीं पा रहा था कि उसे अचानक क्या हो गया? वह कभी उस के लिए सरप्राइज गिफ्ट ले कर आता, कभी उस के सामने फिल्म देखने चलने या यों ही तफरीह करने का औफर रखता लेकिन वह किसी भी तरह से अब सुनंदा की नजदीकियां पाने में सफल नहीं हो पा रहा था.

‘सारी औरतें एकजैसी ही होती हैं. जरा भाव दो तो सिर पर बैठ जाती हैं…’ निकिता के बाद सुनंदा को भी मुंह फुलाए देख कर रंजन अकसर सोचता. सुनंदा का इनकार वह बरदाश्त नहीं कर पा रहा था.

“आज छुट्टी है, निकिता को उस के घर जा कर सरप्राइज देता हूं. ओहो, कितनी ठंड है आज,” निकिता के साथ रजाई में घुस कर गरमगरम कौफी पीने की कल्पना से ही उस का मन बहकने लगा.

निकिता के घर पहुंचा तो उस ने बहुत ही ठंडेपन से दरवाजा खोला. बैठी भी उस से परे दूसरे सोफे पर. बैडरूम में जाने का भी कोई संकेत रंजन को नहीं मिला. थोड़ी देर इधरउधर की बातें करने के बाद सुनंदा खड़ी हो गई.

“रंजन, मुझे जरा बाहर जाना है. हम कल औफिस में मिलते हैं,” सुनंदा ने कहा. रंजन अपमान से तिलमिला गया.

“क्या तुम मुझे साफसाफ बताओगी कि आखिर हुआ क्या है? क्यों तुम मुझ से कन्नी काट रही हो?” रंजन पूछ बैठा.

“आई वांट ब्रैकअप,” सुनंदा ने कहा.

“व्हाट? बट व्हाई?” रंजन ने बौखला कर पूछा.

“सुनो रंजन, हमारे रिश्ते में मैं ने बहुतकुछ दांव पर लगाया है. यहां तक कि अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा भी. मैं तुम से कोई अपेक्षा नहीं रखती सिवाय संतुष्टि के. यदि वह भी तुम मुझे नहीं दे सकते तो फिर मुझे इस रिश्ते से क्या मिला? सिर्फ बदनामी? अपने पैसे, समय और प्रतिष्ठा की कीमत पर मैं बदनामी क्यों चुनूं?” सुनंदा ने आखिर वह सब कह ही दिया जिसे वह अब तक अपने भीतर ही मथ रही थी. उस के आरोप सुन कर रंजन अवाक था.

“लेकिन हमारा मिलन तो कितना सफल होता था,” रंजन ने उसे याद दिलाने की कोशिश की.

“नहीं, उस समागम में केवल तुम ही संतुष्ट होते थे. मैं तो प्यासी ही रह जाती थी. तुम ने कभी मेरी संतुष्टि के बारे में सोचा ही नहीं. ठीक वैसे ही जैसे अपना पेट भरने के बाद दूसरे की भूख का एहसास न होना,” सुनंदा बोलती जा रही थी और रंजन के कानों में खौलते हुए तेल सरीखा कुछ रिसता जा रहा था.

सुनंदा के आक्रोश में उसे निकिता का गुस्सा नजर आ रहा था. निकिता में सुनंदा… सुनंदा में निकिता… आज रंजन को निकिता की नाराजगी समझ में आ रही थी.

थके कदमों से रंजन घर की तरफ लौट गया. मन ही मन यह ठानते हुए कि यदि यही निकिता की नाराजगी की वजह है तो वह अवश्य ही उसे दूर करने की कोशिश करेगा. अपने मरते रिश्ते को संजीवनी देगा.

कहना न होगा कि इन दिनों निकिता हर समय खिलखिलाती रहती है. एक लज्जायुक्त मुसकान हर समय होंठों पर खिली रहती है.

रंजन मन ही मन सुनंदा का एहसानमंद है, इस अनसुलझी पहेली को सुलझाने का रास्ता दिखाने के लिए.

विश्वासघात : अमृता ने कैसे लिया पति और बहन से बदला

एक शाम मैं सीडी पर अपनी मनपसंद फिल्म ‘बंदिनी’ देख रही थी कि अपने सामने के खाली पड़े दोमंजिले मकान के सामने ट्रक रुकने और कुछ देर बाद अपने दरवाजे पर दस्तक पड़ते ही समझ गई कि अब मैं फिल्म पूरी नहीं देख पाऊंगी. खिन्नतापूर्वक मैंने दरवाजा खोला तो सामने ट्रक ड्राइवर को खड़े पाया. वह कह रहा था, ‘‘सामने जब रस्तोगी साहब आ जाएं तो उन्हें कह दीजिएगा, मैं कल आ कर किराया ले जाऊंगा.’’

मैं कुछ कहती, इस से पहले वह चला गया.

मैं बालकनी में ही कुरसी डाल कर बैठ गई. शाम को सामने वाले घर पर आटोरिकशा रुकते देख मैं समझ गई कि वे लोग पहुंच गए हैं.

घंटे भर में नमकीन-पूरी और आलू-मटर की सब्जी बना कर टिफिन में पैक कर के मैं अपने नौकर के साथ सामने वाले घर पहुंची. कालबैल बजाने पर 5 साल की बच्ची ने दरवाजा खोला. तब तक रस्तोगीजी अपनी पत्नी सहित वहीं आ पहुंचे.

मैंने बताया कि मैं सामने के मकान में रहती हूं. मिसेज रस्तोगी ने नमस्कार किया और बताया कि उन का मेरठ से दिल्ली स्थानांतरण हुआ है. सफर से थकी हुई हैं,

घर भी व्यवस्थित करना है और बच्चे भूखे हैं, अभी तुरंत तो गैस का कनैक्शन नहीं मिलेगा. कुछ समझ में नहीं आ रहा है, क्या करूं?

मैंने कहा, ‘‘घबराइए नहीं. मैं घर से खाना बना कर लाई हूं. नहा-धो कर खाना वगैरह खा लीजिए. वैसे मेरे घर में 1 अतिरिक्त सिलेंडर है, फिलहाल उस से काम चला लीजिए. बाद में कनैक्शन मिलने पर वापस कर दीजिएगा.’’

इस तरह मेरा परिचय रस्तोगी परिवार से हुआ. उन्होंने अपने तीनों बच्चों का नाम पास के मिशनरी स्कूल में लिखवा दिया था. धीरे-धीरे वे नए माहौल में एडजस्ट हो गए.

मेरे चारों बच्चे अपनी पढ़ाई में लगे रहते थे. बेटी पारुल ने मैट्रिक का इम्तहान दिया था, प्रिया आई.काम. कर रही थी. पीयूष एम.बी.ए. और अनुराग मैकेनिकल इंजीनियरिंग कर रहा था. इस तरह सभी व्यस्त थे.

कभीकभार मैं सामने रस्तोगीजी के घर उन की पत्नी से गपशप करने पहुंच जाती, कभी वह मेरे घर आ जाती. 27 वर्षीय अमृता बहुत जिंदादिल औरत थी, हमेशा हंसती और हंसाती रहती. मैंने घर में ही बाहर के कमरे में ब्यूटीपार्लर खोल रखा था. अमृता पार्लर के कामों में मेरी मदद भी कर देती थी.

इधर 3-4 दिनों से वह मेरे घर नहीं आ रही थी तो मैं उस के घर पहुंच गई. कालबैल बजाने पर एक अपरिचित चेहरे ने दरवाजा खोला. मैं अंदर गई. तभी किचन से ही अमृता ने आवाज लगा कर मुझे वहीं बुला लिया. मैं किचन में गई. अमृता आलूगोभी के पकौड़े  तल रही थी. उसी ने बताया कि उस की छोटी बहन रति का दाखिला उन लोगों ने यहीं कराने का फैसला किया है. कालेज के होस्टल में रहने के बजाय वह उन के साथ ही रहेगी.

अमृता का अब पार्लर या मेरे घर आना बहुत कम हो गया था. अब वह बहन, बच्चे और पति की तीमारदारी में ही लगी रहती. कभी घर आती भी तो अपनी बहन रति को फेशियल या हेयर कटिंग कराने. मैं उस से कहती, ‘‘अमृता, कभी अपनी तरफ भी ध्यान दिया करो.’’

अपने चिरपरिचित हंसोड़ अंदाज में वह कहती, ‘‘मुझे कौन सा किसी को दिखाना है. रति को कालेज जाना पड़ता है, इसे ही ब्यूटी ट्रीटमेंट दीजिए.’’

रति नाम के ही अनुरूप खूबसूरत थी, गोरी, लंबी, सुराहीदार गरदन और छरहरा बदन. उस के जिस्म पर पाश्चात्य पोशाकें भी बहुत फबती थीं.

दिन बीतते गए, मैं अपने घर और पार्लर में व्यस्त थी. अमृता का आना बिलकुल खत्म हो गया था. एक दिन मैं पारुल के साथ शौपिंग के लिए निकली हुई थी, कि मार्केट से सटे गायनोकोलोजिस्ट के क्लीनिक की सीढि़यों से उतरते अमृता को देखा. शुरू में तो मैं उसे पहचान भी नहीं पाई. कभी गदराए जिस्म वाली अमृता सिर्फ हड्डियों का ढांचा नजर आ रही थी. जब तक मैं उस तक पहुंचती, उस की टैक्सी दूर निकल गई थी.

शाम को मैंने उस के घर जाने का निश्चय किया. मैं उस के घर गई तो मुझे देख कर उसे प्रसन्नता नहीं हुई. वह दरवाजे पर ही खड़ी रही तो मैंने ही कहा, ‘‘क्या अंदर नहीं बुलाओगी?’’

हिचकते हुए वह दरवाजे से हट गई. मैं अंदर घुसी ही थी कि रस्तोगी और रति की सम्मिलित हंसी गूंज उठी. अमृता लगभग खींचते हुए मुझे अपने कमरे में ले आई.

मैंने ही शुरुआत की, ‘‘सचसच बताना अमृता, क्या बात है?’’

जोर देने पर जैसे रुका हुआ बांध टूट पड़ा. उसने कहा, ‘‘दीदी, आप ने सही कहा था, मुझे खुद पर भी ध्यान देना चाहिए था. मैंने कभी जिस बात की कल्पना भी नहीं की थी, वह हुआ. रति और विजय में नाजायज संबंध हैं. मैं जब रति को वापस भेजने की बात करती हूं तो रति तो कुछ नहीं कहती पर विजय मुझे मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से प्रताडि़त करते हैं. कहते हैं, ‘रति नहीं जाएगी, तुम्हें जहां जाना हो जाओ.’ रति प्रत्यक्ष में कुछ नहीं कहती पर अकेले में मुझे घर से बाहर निकालने की जिद विजय से करती है.’’ मैं सुन कर स्तब्ध रह गई.

‘‘मैं तो डाक्टर के पास भी गई थी. घर में यह स्थिति है और मैं प्रैगनेंट हूं. मैं इससे छुटकारा चाहती थी, पर डाक्टर ने कहा, ‘‘तुम बहुत कमजोर हो, ऐसा नहीं हो सकता,’’

मैंने कहा, ‘‘तुम इतनी कमजोर कैसे हो गई हो?’’

उसने कहा, ‘‘सब समय की मार है.’’

6 महीने बीत गए. एक रात 12 बजे विजय रस्तोगी हांफता हुआ मेरे घर आया. उसने बताया, ‘‘अमृता को ब्लीडिंग हो रही है, वह तड़प रही है. उसे हास्पिटल ले जाना है, प्लीज अपनी गाड़ी दीजिएगा.’’

यह सुनते ही हम आननफानन उसे गाड़ी पर लाद कर साथ ही अस्पताल पहुंचे. तुरंत उसे आई.सी.यू. में भरती किया गया, सिजेरियन द्वारा उसने एक पुत्र को जन्म दिया, 4 घंटे बाद वह होश में आई तो उसने सिर्फ मुझ से मिलना चाहा. नर्स ने सब को बाहर रोक दिया. मैं जब अंदर पहुंची तो उसने अटकते हुए कुछ कहना चाहा और इशारे से अपने पास बुलाया. मैं पहुंची तो बगल ही में फलों के पास रखी हुई अत्याधुनिक टार्च को उठाने को कहा. उसने इशारे से फोटो खींचने की बात जैसे ही की कि उस के प्राण पखेरू उड़ गए. मैंने उस टार्च को अपने बैग में रख लिया.

सभी लोग रोने लगे. रति रोते हुए कह रही थी, ‘‘दीदी का पैर फिसलना उन के लिए काल हो गया. काश, उन का पैर न फिसला होता.’’ अमृता के घर मातमी माहौल था. क्रियाकर्म से निबटने के बाद मैं घर में बैठी आया हुआ ईमेल चेक कर रही थी. उस में मुझे अमृता का मेल मिला, जिस में मुझे पता चला कि हादसे वाले दिन उसने सेल्समैन से सिस्टेमैटिक टार्च कम वीडियो कैमरा खरीदा था, जो देखने साधारण टार्च लगता था, परंतु वह वीडियोग्राफी और रोशनी दोनों का काम करता था. वह मुझसे मिल तो नहीं सकती थी, इसलिए मुझे मेल किया था.

मैंने उसकी टार्च को उलटपुलट कर देखा, तो उस में मुझे एक कैसेट मिला. मैंने उसे सीडी में लगाया. औन करने पर मैं यह देख कर दंग रह गई कि उस में विजय रस्तोगी और रति लात-घूंसों से अमृता की पिटाई कर रहे थे. रस्तोगी की लात जोर से पेट पर पड़ने से अमृता छटपटाती हुई फर्श पर गिर कर बेहोश हो गई. पूरा फर्श खून से लाल होने लगा था. महंगी टार्च की असलियत जाने बगैर दोनों ने अमृता को फिजूलखर्ची के लिए पिटाई की थी.

मैंने तुरंत हरिया को भेज कर अमृता के मम्मी-पापा को अपने घर बुला कर उन्हें कैसेट दिखलाया, जिसे देख कर उन्होंने सिर पीट लिया. सहसा उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि रति ऐसा घृणित कार्य कर सकती है, परंतु आंखों देखी को झुठलाया नहीं जा सकता था.

रति और विजय से पूछने पर दोनों बिफर पड़े. तब अमृता के पापा ने उन्हें सीडी औन कर उन की करतूतों का कच्चा चिट्ठा उन्हें दिखा दिया. शर्म, ग्लानि और क्षोभ से रति ने कीटनाशक पी लिया. अस्पताल ले जाने के क्रम में ही रति की मौत हो गई.

अमृता के मातापिता ने तुरंत विजय के नाम केस फाइल किया और सबूत के तौर पर सीडी को पेश किया गया, जिस के आधार पर अमृता की हत्या के जुर्म में विजय रस्तोगी को जेल की सजा हो गई. बच्चों को नाना-नानी अपने साथ ले गए. मुझे इस बात की बेहद खुशी हुई कि अमृता को तड़पा-तड़पा कर मारने वाले भी अपने अंजाम को पहुंच गए.

पगली: कैसे पति के धोखे का शिकार हुई नंदिनी

‘‘आजकल आप के टूर बहुत लग रहे हैं. क्या बात है जनाब?’’ नंदिनी संजय से चुहलबाजी कर रही थी.

‘‘क्या करूं, नौकरी का सवाल है, नहीं तो तुम्हें छोड़ कर जाने का मेरा मन बिलकुल भी नहीं करता है,’’ संजय ने भी हंसी का जवाब हंसी में दे दिया.

‘‘पहले तो ऐसा नहीं था, फिर अचानक इतने ज्यादा टूर क्यों हो रहे हैं?’’ इस बार नंदिनी ने संजीदगी से पूछा था.

‘‘तो क्या घर बैठ जाऊं?’’ संजय को गुस्सा आ गया.

‘‘इस में इतना गुस्सा होने की क्या बात है? मैं तो यों ही पूछ रही थी,’’ नंदिनी बोली.

‘‘जैसा कंपनी कहेगी, वही करना पड़ेगा.’’

‘‘ठीक है, पर…’’

‘‘तुम मु?ा पर शक कर रही हो…’’ संजय ने कहा, ‘‘जैसे मैं किसी और से मिलने जाता हूं… है न?’’

‘‘अरे, मैं तो मजाक कर रही थी,’’ नंदिनी ने कहा.

‘‘तुम्हारे मन में ऐसेऐसे खयाल आ जाते हैं, जिन का कुछ भी मतलब नहीं होता है.’’

‘‘अच्छा बाबा, माफ कर दो. मैं तो इसलिए कह रही थी कि गरमी की छुट्टियों में हम सब बच्चों के साथ कहीं बाहर घूमने चलें,’’ नंदिनी जैसे अपनी सफाई पेश कर रही थी.

‘‘ठीक है, देखते हैं,’’ संजय ने कहा.

एक दिन घर के कामकाज निबटा कर नंदिनी छत पर चली गई थी, तभी दरवाजे की घंटी बजी.

जब दरवाजा खोला, तो सामने पड़ोसन रागिनी खड़ी थी.

‘‘आओ रागिनी भाभी, अचानक कैसे आना हुआ?’’ नंदिनी ने पूछा.

‘‘तुम्हें पता है नंदिनी कि आजकल कालोनी में क्या हो रहा है.’’

‘‘ऐसा क्या हो रहा है, जो मु?ो नहीं पता?’’

‘‘अरे, पिछले कई दिनों से एक पगली इस कालोनी में आई हुई है और सब बच्चे उसे छेड़ते रहते हैं.’’

‘‘हां, मैं ने भी उसे देखा है, पर बच्चों को ऐसा नहीं करना चाहिए.’’

अभी वे दोनों बातें कर ही रही थीं कि बाहर बहुत शोर सुनाई दिया. दोनों घर के बाहर आ गईं.

नंदिनी ने देखा कि एक लड़की भाग रही थी और कुछ बच्चे उस के पीछे भाग रहे थे.

नंदिनी ने उन बच्चों को डांट लगाई और उसे अपने साथ घर में ले आई.

अंदर आते ही वह लड़की बेहोश हो गई. नंदिनी ने उस के चेहरे पर पानी के छींटे मारे. होश में आने पर वह नंदिनी से लिपट कर रोने लगी.

नंदिनी ने लड़की से उस का नाम पूछा, लेकिन वह चुप रही, फिर वह जोरजोर से चिल्लाने लगी और नंदिनी से ऐसे लिपट गई, जैसे उसे कुछ याद आ गया हो.

नंदिनी ने उसे आराम से बैठाया और उसे खाने को दिया, तो वह फटाफट    5-6 रोटियां खा गई, जैसे बहुत दिनों से भूखी हो.

‘‘कौन हो तुम?’’ पड़ोसन रागिनी ने उस लड़की से पूछा, तो वह चुप रही. कई बार पूछने पर वह बोली, ‘रेवा…रेवा…रेवा.’

‘‘नंदिनी, पता नहीं यह कहां से आई है? अब इसे यहां से जाने को कह दे,’’ रागिनी ने नंदिनी को सलाह दी.

‘‘कैसी बातें कर रही हो भाभी?  कुछ देर आराम कर ले, फिर जाने को कह दूंगी,’’ नंदिनी बोली.

‘‘देख, मैं कह रही हूं कि ऐसे लोगों से दूर ही रहना चाहिए,’’ रागिनी ने उसे फिर से सम?ाने की कोशिश की.

‘‘भाभी, आप को पता है कि मैं एक एनजीओ के साथ काम कर रही हूं. मैं उन से बात करूंगी. आप परेशान न हों,’’ नंदिनी बोली.

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ कह कर रागिनी चली गई.

नंदिनी जब वापस आई, तो देखा कि वह लड़की कमरे के एक कोने में दुबकी डरीसहमी बैठी थी.

नंदिनी ने उसे आवाज लगाई, ‘‘रेवा…’’

वह कुछ नहीं बोली, बल्कि और सिमट कर बैठ गई.

नंदिनी उस के पास गई और पूछा, ‘‘रेवा नाम है न तुम्हारा?’’

उस लड़की ने धीरे से अपना सिर ‘हां’ में हिला दिया.

नंदिनी ने उस से कहा, ‘‘देखो, डरो नहीं. बताओ, तुम कहां से आई हो? हम तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा देंगे.’’

वह लड़की इतना ही बोली, ‘‘मेरा कोई घर नहीं है बीबीजी.’’

नंदिनी को हैरानी हुई कि यह तो कहीं से पागल नहीं लग रही है.

अचानक उस लड़की ने नंदिनी के पैर पकड़ लिए. नंदिनी को उस का बदन गरम लगा. ऐसा लगता था, जैसे उसे बुखार हो.

‘‘अच्छा ठीक है, आज की रात तुम यहीं रह जाओ. कल मैं तुम्हें अपनी संस्था में ले जाऊंगी.’’

‘‘बीबीजी, आप मु?ो अपने पास रख लो. मैं घर का सारा काम करूंगी,’’ कह कर वह फिर से रोने लगी.

‘‘अच्छा, आज तो तुम यहीं रहो, फिर कल देखेंगे,’’ नंदिनी बोली.

संजय रात को काफी देर से आया था. सो, उसे उस लड़की के बारे में कुछ नहीं पता था.

अगली सुबह नंदिनी ने संजय को उस लड़की के बारे में बताया.

संजय ने साफ शब्दों में कह दिया, ‘‘नंदिनी, इस को अभी घर से निकालो, पता नहीं कौन है….’’

‘‘हां संजय, लेकिन अभी मैं इसे अपनी संस्था में ले जाती हूं.’’

‘‘मैं रात को घर आऊं, तो मु?ो कोई बखेड़ा नहीं चाहिए,’’ कह कर संजय चला गया.

नंदिनी नीचे आई, तो देखा कि उस लड़की को तेज बुखार था.

रात को संजय ने नंदिनी से पूछा, ‘‘क्या वह लड़की चली गई?’’

नंदिनी ने कहा, ‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों…?’’ संजय बोला.

‘‘संजय, उसे बहुत तेज बुखार है और ऐसी हालत में वह लड़की कहां जाएगी? अगर वह मर गई तो…’’

‘‘मु?ो नहीं पता,’’ कहते हुए संजय नीचे चला गया.

वहां वह लड़की बेहोश पड़ी थी. पता नहीं क्यों संजय उसे देख कर हैरानी में पड़ गया.

‘‘नंदिनी, शायद तुम ठीक कह रही हो. अगर यह यहां से गई और मर गई, तो क्या होगा?’’

‘‘फिर क्या करें?’’

‘‘ऐसा करते हैं, जब तक यह ठीक नहीं हो जाती, इसे अपने पास ही रख लेते हैं.’’

‘‘ठीक है.’’

आजकल करतेकरते कई दिन हो गए, पर रेवा वहां से न जा सकी.

वैसे, नंदिनी अब तक सिर्फ इतना ही जान पाई कि वह एक पहाड़ी लड़की थी और किसी बाबूजी से मिलने आई थी.

‘‘तुम्हें यहां कौन छोड़ गया है?’’ नंदिनी ने पूछा.

‘‘मेरे गांव में कई लोग यहां पर फेरी लगाने आते हैं. उन्हीं लोगों के साथ मैं भी आ गई.’’

‘‘देखो, अगर तुम हमें अपने गांव का नामपता बता दोगी, तो हम तुम्हें वहां पहुंचा देंगे,’’ नंदिनी ने कहा.

‘‘मैं पहली बार अपने गांव से बाहर निकली हूं और मु?ो तो यह भी नहीं पता कि मेरे गांव का क्या नाम है.’’

पता नहीं, वह सच बोल रही थी या ?ाठ, पर नंदिनी को उस की बातों पर कभी भरोसा हो जाता, तो कभी नहीं.

अभी रेवा को आए हुए कुछ समय ही बीता था कि नंदिनी को पता चला कि वह मां बनने वाली है.

नंदिनी हैरानी में पड़ गई कि अब वह क्या करे. उस ने रेवा से पूछा कि यह सब क्या है? कौन है इस बच्चे का पिता? लेकिन रेवा का एक ही जवाब होता, ‘‘बीबीजी, मु?ो नहीं पता. शायद पागलपन के दौरे में मेरा किसी ने फायदा उठा लिया होगा.’’

‘‘तू याद करने की कोशिश तो कर, शायद याद आ जाए.’’

‘‘नहीं बीबीजी, क्योंकि जब मु?ो दौरा पड़ता है, तो उस वक्त की सारी बातें मैं भूल जाती हूं.’’

नंदिनी को कुछ भी सम?ा नहीं आ रहा था कि वह क्या करे.

उस ने संजय से बात की. यह सब सुन कर वह भड़क उठा, ‘‘मैं ने तो पहले ही कहा था कि इस ?ां?ाट में मत फंसो. अब भुगतो.’’

‘‘तो क्या उसे घर से निकाल दूं?’’

‘‘अब क्या घर से निकालोगी? रहने दो अब.’’

नंदिनी ने अपने पड़ोसियों से बात की. सब ने यही राय दी कि उसे फौरन घर से निकाल देना चािहए.

पर नंदिनी रेवा को वहां से जाने के लिए एक बार भी नहीं कह पाई.

रेवा के मां बनने का समय भी आ गया था. नंदिनी अब तक एक बड़ी बहन की तरह रेवा की देखभाल कर रही थी.

रेवा को एक बहुत ही प्यारा बेटा हुआ. उस बच्चे को देख कर नंदिनी को अपने बच्चों के बचपन याद आ गए.

ठीक होने के बाद रेवा ने फिर से घर के काम करने शुरू कर दिए थे. सबकुछ ठीक चल रहा था कि अचानक एक दिन सुबह नंदिनी ने देखा कि रसोई बिखरी पड़ी है. इस का मतलब अभी तक रेवा नहीं आई थी.

कुछ देर उस का इंतजार करने के बाद नंदिनी उस के कमरे में आई, तो देखा कि रेवा कमरे में नहीं थी और उस का बच्चा पलंग पर सो रहा था.

नंदिनी ने बच्चे को गोद में उठा लिया. बच्चे के पास एक चिट्ठी रखी  थी. नंदिनी ने उसे पढ़ना शुरू किया:

‘दीदी, मैं पागल नहीं हूं, लेकिन मु?ो पागल बनना पड़ा, क्योंकि अगर मैं ऐसा नहीं करती, तो आप मु?ो अपने घर में नहीं रखतीं.

‘मैं बहुत गरीब घर से हूं. कुछ समय पहले संजय साहब मेरे गांव आए थे. उन्होंने मु?ो एक अच्छी जिंदगी के सपने दिखाए, लेकिन बदले में आप ने जान ही लिया होगा कि मैं ने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है.

‘दीदी, मैं ने ही साहब को मजबूर किया था कि अगर वे मु?ो अपने घर में नहीं रहने देंगे, तो मैं आप को सबकुछ सच बता दूंगी.

‘साहब जैसे भी हैं, लेकिन वह अपना घर नहीं तोड़ना चाहते हैं. अगर मैं चाहती, तो आप के घर रह सकती थी, लेकिन मैं जानती हूं कि सच को ज्यादा दिनों तक नहीं छिपाया जा सकता.

‘दीदी, आप इतनी अच्छी हैं कि कभीकभी मु?ो लगता था कि मैं आप के साथ बेईमानी कर रही हूं, लेकिन इस बच्चे की वजह से चुप कर जाती थी.

‘दीदी, अब यह आप का बच्चा है. आप जैसे चाहें इस की परवरिश कर सकती हैं.

‘मैं ने साहब को माफ कर दिया है. आप भी उन को माफ कर दो.’

नंदिनी चिट्ठी पढ़ कर मानो आसमान से नीचे गिर पड़ी. इतना बड़ा धोखा, इतना बड़ा गुनाह. उस की आंखों के सामने सबकुछ होता रहा और उसे पता भी नहीं चला.

उस ने कभी भी संजय और रेवा को एकसाथ नहीं देखा था और न ही दोनों को कभी बातें करते सुना था, तो फिर कब…?

नंदिनी को लगा कि कमरे की दीवारें चीखचीख कर कह रही हैं, ‘नंदिनी, पगली वह नहीं तू थी, जो अपने पति और एक अनजान लड़की पर भरोसा कर बैठी. पगली…पगली…पगली…’

पिंकी खुराना

मजबूरी: समीर को फर्ज निभाने का क्या इनाम मिला?

समीर एक कोने में चुपचाप बैठा हुआ था. उस की आंखों के आंसू बह कर सूख चुके थे. कुछ ही दूरी पर पड़ोसियों ने सर्दी के सितम को देख कर आग जलाने के लिए लकड़ियों का इंतजाम कर के आग जला दी थी. सामने ही एक टूटी खाट पर समीर की बेटी शाहीन की लाश पड़ी हुई थी, जिस के शरीर पर लिबास के नाम पर जगहजगह से फटापुराना एक सूट ही था.

समीर के पास ही बैठी उस की बीवी रजिया का रोना उस के कलेजे में तीर की तरह चुभ रहा था. घर में पासपड़ोस वालों की भीड़ बढ़ने लगी थी और औरतें लगातार रजिया को दिलासा दे रही थीं. देर रात से रोतीबिलखती रजिया के आंसू भी अब सूख चुके थे.

सुबह सूरज की किरणें धूप के रूप में समीर के आंगन में उतर चुकी थीं और शाहीन की मुरदा देह को न जाने कैसी तपिश देने की कोशिश कर रही थीं. धूप से सर्दी का सितम थोड़ा सा कम हो गया था, पर यह सब हुआ समीर की बेटी शाहीन के जाने के बाद. अगर उस के पास भी पहननेओढ़ने के लिए कुछ होता, तो शायद शाहीन जिंदा होती.

समीर ने लाख कोशिश की कि कहीं से पैसों का इंतजाम कर गरम कपड़े खरीद ले, लेकिन कुछ भी मुमकिन न हो सका. उस की झोंपड़ी भी ऐसी न थी कि ठंड से बचाव हो सके.

समीर अब उस दिन को कोस रहा था जब उस ने एक मासूम बच्चे की जान बचाने का फर्ज निभाया था. कितना खुश था वह अपनी बीवी रजिया और बेटी शाहीन के साथ.

समीर एक ईंटभट्ठे पर मजदूरी करता था. हर रोज उसे मजदूरी में ज्यादा रुपए तो नहीं मिल पाते थे, लेकिन फिर भी वह अपना और अपने परिवार का भरणपोषण किसी तरह सुकून से कर लेता था. उस के मजदूर साथी हमेशा यही कहते थे कि समीर जितना भी परेशान रहता हो, पर हमेशा हंसता ही रहता है, पर उस की खुशियों भरी जिंदगी में ऐसा बवाल मचा कि उस के चेहरे से हंसी हमेशा के लिए गायब हो गई.

समीर उस दिन भी हमेशा की तरह मजदूरी करने ईंटभट्ठे पर जा रहा था कि तभी उस ने देखा सामने की कालोनी से निकल कर एक बच्चा अपनी छोटी सी साइकिल चलाता हुआ सड़क पर आ गया था. शायद उस बच्चे की देखभाल करने वाली आया उसे छोड़ कर अंदर चली गई थी.

इन बड़े लोगों के ठाठ भी बड़े अजीब होते हैं कि अपने खुद के बच्चे को पालने के लिए भी इन्हें किसी और की जरूरत पड़ती है, शायद अपने पैसों का रुतबा दिखाने के लिए ये लोग ऐसा करते हैं.

तभी तेज बजते हौर्न से समीर का ध्यान सड़क की तरफ गया. एक ट्रक तेजी से उस बच्चे की ओर आ रहा था. समीर समझ गया कि उस बच्चे को बचाने के लिए शोर मचाना फुजूल है और वह उसे बचाने के लिए दौड़ पड़ा. जैसे ही वह बच्चे के करीब पहुंचा और उसे उठा कर दौड़ा कि तभी उसे ट्रक की एक जोरदार टक्कर लगी और उस के हाथ से बच्चा उछल कर दूर जा गिरा. समीर चीख पड़ा. उसे कुछ शोर सुनाई दिया और उस के बाद वह बेहोश हो गया.

जब समीर को होश आया तो उस के नथुनों में दवाओं की अजीब सी गंध भर गई. उस ने एक नजर कमरे के चारों ओर डाली और दीवार पर लगे खस्ताहाल कलैंडर से अंदाजा लगा लिया कि वह किसी सरकारी अस्पताल में है. तभी उस ने हिलने की कोशिश की, तो उस के शरीर में एक दर्द की लहर सी दौड़ गई. इस के बाद उसे बच्चे की याद आई.

कुछ ही पलों में कमरे में रजिया शाहीन को ले कर आ गई. रजिया के उलझे बाल और सूजी आंखें देख कर ऐसा लग रहा था कि वह कई रातों से सोई नहीं थी.

समीर को नहीं पता था कि वह कितने दिनों से अस्पताल में था और रजिया ने कैसे उस के इलाज के लिए पैसों का इंतजाम किया होगा. तभी उस के पैर में तेज दर्द उठा. उस ने पैर हिलाने की कोशिश की, तो पाया कि उस का पैर था ही नहीं. यह महसूस होते ही वह अंदर तक सिहर गया.

“मेरा पैर…” समीर के मुंह से बहुत ही मुश्किल से ये 2 शब्द निकले.

“ट्रक की टक्कर से आप का एक पैर कई जगह से फैक्चर हो गया था, जो किसी तरह से भी जुड़ने के हालात में नहीं था, लिहाजा हमें आप का पैर काट कर अलग करना पड़ा वरना शरीर में जहर फैलने की वजह से आप की जान भी जा सकती थी,” अंदर आते हुए एक डाक्टर ने बताया.

कुछ दिनों बाद ही समीर को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. घर के हालात बद से बदतर हो चुके थे. रजिया भी अब आसपड़ोस के घरों में चौकाबरतन करने लगी थी, जिस से जैसेतैसे गुजरबसर हो रही थी.

रजिया ने ही समीर को बताया कि ट्रक ड्राइवर ट्रक ले कर वहां से भाग गया था. उस बच्चे के मातापिता ने यह एहसान कर दिया था कि ऊंची पहुंच के चलते उसे उठा कर सरकारी अस्पताल में भरती करा दिया था, पर उस के बाद उन लोगों ने उस का हालचाल पूछने की भी जरूरत नहीं समझी और नातेरिश्तेदारों ने तो 2-4 दिन के बाद ही आना बंद कर दिया था कि कहीं कुछ देना न पड़ जाए.

समीर अब बैसाखियों के सहारे ही था. रजिया को देख कर उसे ऐसा लग रहा था जैसे उस ने खुद अपने हाथों उस की खुशियों और जवानी दोनों पर ग्रहण लगा दिया था. 26 साल की उम्र में वह 46 साल की लगने लगी थी. उस के शरीर में अब हड्डियों के अलावा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था.

घर की हालत कुछ ज्यादा ही खराब हो चुकी थी. रजिया द्वारा कमाए गए रुपयों से जैसेतैसे दो वक्त का खाना ही मिल पा रहा था. इसी बीच समीर को घने अंधकार के बीच रोशनी की एक किरण चमकती दिखाई दी. पता चला कि सरकार की ओर से जरूरतमंदों और गरीबों के लिए कई योजनाएं शुरू कर दी गई हैं, जिस के लिए वह सभासद, चेयरमैन से ले कर विधायक और सरकारी अफसरों की चौखट के चक्कर लगाता रहा, लेकिन हर जगह उसे बस आश्वासन ही दिया गया कि जल्द ही आप को सरकारी सुविधाएं दे दी जाएंगी, पर उसे कुछ नहीं मिल पाया, क्योंकि वह किसी भी जांच अधिकारी को अपनी बेबसी और मजबूरी के अलावा और कुछ न दे सका.

इस बार की सर्दी समीर की परेशानियों को बढ़ाने आई थी. कड़ाके की सर्दी होने के बावजूद उस के पास गरम कपड़े के नाम पर कुछ भी नहीं था. और तो और उस की बेटी शाहीन के लिए भी कुछ नहीं था. रजिया ने बहुत कोशिश की थी कि गरम कपड़ों का इंतजाम हो सके, लेकिन कुछ न हो सका.

सर्दी का कहर सितम पर था. घना कोहरा और चल रही शीतलहर समीर के परिवार पर पूरी तरह से कहर बरपा कर रही थी. इसी बीच शाहीन को सर्दी ने अपने आगोश में ले लिया. रजिया जैसेतैसे पैसों का इंतजाम कर महल्ले के नीमहकीम डाक्टर से दवा ले कर शाहीन को खिला रही थी, लेकिन तबीयत में सुधार न होते देख उस डाक्टर ने भी हाथ खड़े कर दिए और शाहीन को किसी बड़े डाक्टर को दिखाने के लिए कहा, जिस के बाद समीर शाहीन के इलाज के लिए सरकारी अस्पताल भी गया, पर वहां भी सही इलाज न हो पाया, क्योंकि सरकारी डाक्टर बाहर की दवा ही लिख कर देते थे, जिन्हें खरीदने में वह पूरी तरह नाकाम था.

रजिया ने डाक्टर साहब से विनती भी की थी कि उस की बेटी को बाहर की दवा न लिख कर अंदर से ही दवा दे दी जाए, लेकिन डाक्टर ने उस की एक न सुनी.

समीर अपने बचपन के दोस्त शफीक से रुपए उधार लेने गया, लेकिन उस ने भी कामधंधा न चलने का बहाना बना कर उसे टाल दिया. वह बुझे मन से वापस चला आया. उस का मन कर रहा था कि इस से अच्छा तो वह उसी दिन मर गया होता, जब वह सड़क हादसा हुआ था.

आज जब समीर ने घर की चौखट पर कदम रखा तभी रजिया की जोर से रोने की आवाज सुनाई दी. उस ने अंदर जा कर देखा कि शाहीन अपना इलाज होने का इंतजार करतेकरते हमेशा के लिए सो गई थी. यह देख कर वह वहीं जमीन पर बैठ गया. वह खुद को ही शाहीन का कातिल समझ रहा है. उस के पास तो शाहीन के कफनदफन के लिए भी पैसे नहीं थे.

“अरे, यह सब कैसे हो गया… हमें तो पता ही नहीं चला. एक बार कुछ बताया तो होता,” तभी किसी के ऊंचे स्वर में बोलने की आवाज सुन कर समीर की तंद्रा टूटी.

समीर ने देखा कि महल्ले का सभासद किसी बड़े नेता को अपने साथ लाया था. उस नेता के साथ उस के कुछ कार्यकर्ता भी थे, जो रजिया से पूछ रहे थे. दूसरी ओर कुछ लोग मोबाइल फोन से धड़ाधड़ उन के फोटो खींच रहे थे.

“ये लो 5,000 रुपए और बच्ची के कफनदफन का इंतजाम करो,” उस नेता जैसे दिखने वाले आदमी ने पैसे समीर के हाथ में पकड़ा दिए.

‘निकल जाओ यहां से… कोई जरूरत नहीं यह सब दिखावा करने की और ले जाओ अपने ये रुपए…’ समीर का मन जोर से चीखने को कर रहा था, पर सामने पड़ी बेटी की लाश को देख कर उस की चीख न जाने कहां गुम हो गई थी.

प्रेरणा: क्या अंकिता ने अपने सपनों को दोबारा पूरा किया?

‘‘बड़ी मुद्दत हुई तुम्हारा गाना सुने. आज कुछ सुनाओ. कोई भी राग उठा लो,  बागेश्वरी, विहाग या मालकोश, जो इस समय के राग हैं,’’ रात का भोजन करने के बाद मनोहर लाल ने अंकिता से इच्छा व्यक्त की. वे बड़े लंबे समय के बाद अपनी बेटी और दामाद के यहां उन से मिलने आए थे.

इस से पहले कि अंकिता कुछ कहती, उस की 14 साल की बेटी चहक पड़ी, ‘‘सुना तो है कि मां बड़ा अच्छा गाती थीं, संगीत विशारद भी हैं, लेकिन मैं ने तो आज तक इन के मुख से कोई गाना नहीं सुना.’’

‘‘यह मैं क्या सुन रहा हूं? तुम तो इतना बढि़या गाती थीं. कुछ और समय लखनऊ में रहना हो गया होता तो तुम ने संगीत में निपुणता प्राप्त कर ली होती.’’

‘‘अभ्यास छूटे एक युग बीत गया. अब गला ही नहीं चलता. मेरे पास शास्त्रीय संगीत के अनेक कैसेट पड़े हैं, उन में से कोई लगा दूं?’’

‘‘नहीं, वह सब कुछ नहीं. इतने परिश्रम से सीखी हुई विद्या तुम ने गंवा कैसे दी? शाम 4 बजे के बाद कालेज से लौटती थीं तो जल्दीजल्दी कुछ नाश्ता कर रिकशे से भातखंडे कालेज चल देती थीं. वहां से लौटतेलौटते रात के साढ़े 7 बज जाते थे. थक जाने पर भी रियाज करती थीं. जाड़ों में रात जल्दी घिर आती है. तब मैं तुम्हें लेने साइकिल से कालेज पहुंचता था. उस ओर से रिकशे के पैसे बचाने के लिए तुम कितने उत्साह से पैदल ही उछलतीकूदती चली आती थीं. हम लोगों के कैसे कठिन दिन थे वे. वह सारी साधना धूल में मिल गई.’’

‘‘पिताजी, आप तो समझते नहीं. शादी के बाद बराबर तो असम में रहना पड़ा. उस पर नौकरी के आएदिन के तबादले और दौरे. उस अनजाने क्षेत्र में अकेली कलपती मैं क्या अभ्यास करती. मुझे तो हर समय डर लगा रहता था. आप ने देख तो लिया, इतने सालों के बाद आप आए हैं, लेकिन फिर भी इन का दौरे पर जाना जरूरी है.’’

‘‘यह तो नौकरी की विवशता है. इस में तुम दोनों क्या कर सकते हो? अकेलेपन की जो समस्या तुम ने उठाई, उस में तो संगीत या पुस्तकों से उत्तम और कोई साथी होता ही नहीं. अच्छा, यह बताओ कि तुम ने संगीत सीखा क्यों था?’’

‘‘मां और आप को शास्त्रीय संगीत का शौक था. जिस काम से आप लोग प्रसन्न हों उसे करने में हम सभी भाईबहनों को तब आनंद आता था.’’

‘‘यह सही नहीं है. रुचि न होने पर कहीं पुरस्कार जीते जाते हैं? अच्छा, अब कुछ शुरू करो.’’

‘‘पिताजी, घर में तानपूरा तक तो है नहीं.’’

‘‘कोई बात नहीं, बिना तानपूरे के भी चलेगा. किसी संगीत सभा में थोड़े ही गा रही हो?’’

कुछ देर शांत रहने के बाद अंकिता ने गला साफ कर के खांसा. तुहिना किलक उठी, ‘‘आज आईं मां पकड़ में.’’

कुछ गुनगुनाने के बाद अंकिता का स्वर उभरा :

‘कौन करत तोसों विनती पियरवा,

मानो न मानो मोरी बात.’

गाने की इस प्रथम पंक्ति को 3-4 बार दोहराने के बाद अंकिता ने राग के अंतरे को उठाया :

‘जब से गए मोरी सुधि हू न लीनी,

कल न परत दिनरात.’

लेकिन वह खिंच नहीं सका और अंकिता हताशा में सिर झटकते हुए चुप हो गई.

मनोहर लाल, जो आंखें बंद किए बेटी का गायन सुन रहे थे, बोले, ‘‘अगर मुझे ठीक याद है तो बागेश्वरी के इसी गीत पर तुम्हें अंतरविद्यालय संगीत समारोह में पुरस्कार मिला था. आज यह हालत है कि तुम यह भी भूल गईं कि बागेश्वरी में 2 स्वर कोमल लगते हैं. तुम ने तो उन की जगह शुद्ध स्वर लगा दिए. अंतरा भी तुम इसलिए नहीं खींच पाईं क्योंकि अभ्यास छूटा हुआ है.’’

‘‘अब क्या करूं, पिताजी?’’ अंकिता ने झींक कर कहा.

‘‘मेरी बात मानो तो एक तानपूरा खरीद लो. तुहिना अब बड़ी हो गई है. उसे तबला सिखवा दो. मैं सच कहता हूं कि यह जो तुम्हें हर समय बोरियत सी महसूस होती रहती है, सब दूर भाग जाएगी.’’

‘‘कोशिश करूंगी.’’

‘‘कोशिश नहीं, समझ लो कि यह तो करना ही है. लोग इस देश से प्रतिभा पलायन को ले कर हंगामा खड़ा करते हैं. लेकिन यहां तो प्रत्यक्ष प्रतिभा पराभव को देख रहा हूं. यह कहां तक उचित है?’’

अगले दिन अचल भी दौरे से लौट आए. उन्होंने जब तुहिना से अंकिता की छीछालेदर की बात सुनी तो अपने ससुर को सफाई देने लगे, ‘‘पिताजी, मैं ने तो न जाने कितनी बार इन से कहा कि अपने संगीत ज्ञान को नष्ट न होने दें और रुचि बनाए रखें. कैसेट तो घर में दर्जनों आ गए हैं लेकिन गाने के नाम पर हमेशा यही सुनने को मिला कि गला ही साथ नहीं देता. शायद अब आप के कहने का कुछ असर पड़े.’’

मनोहर लाल तो 4 दिन रहने के बाद लौट गए परंतु अपने पीछे बेटी के घर में मोटरकार के पीछे उठे धूल के गुबार जैसा वातावरण छोड़ गए. अंकिता खिसियानी बिल्ली की तरह कई दिनों तक बातबात पर नौकर और तुहिना पर बरसती रही.

अभी इस घटना को बीते एक पखवाड़ा भी नहीं हुआ था कि एक शाम चपरासी ने अंदर आ कर अंकिता को सूचना दी, ‘‘छोटे साहब आए हैं. साथ में उन की पत्नी भी हैं. उन को बैठक में बैठा दिया है.’’

‘‘ठीक किया. हम लोग अभी आते हैं. रसोई में चंदन से कहना कि कुछ खाने की चीजें और 4 गिलास शरबत बैठक में पहुंचा जाए.’’

ठीक है कहता हुआ चपरासी रसोईघर की ओर चला गया.

‘‘अभी नए असिस्टैंट इंजीनियर की नियुक्ति हुई है. शायद वही मिलने आए होंगे,’’ अचल ने अंकिता को बताया.

अचल और अंकिता ने बैठक में जा कर देखा कि एक आकर्षक युवा दंपती बैठे प्रतीक्षा कर रहे हैं. शुरुआती शिष्टाचार के बाद दोनों पुरुषों में तो बातचीत शुरू हो गई लेकिन आगंतुक महिला को चुप देख अंकिता ने उस से पूछा, ‘‘आप कहां की हैं?’’

‘‘मेरी ससुराल तो बरेली में है लेकिन मायका लखनऊ में है.’’

‘‘मैं भी लखनऊ की हूं. इसलिए तुम मुझे ‘दीदी’ कह सकती हो. वैसे तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘जी, सिकता.’’

फिर तो अंकिता ने उस से उस के महल्ले, स्कूल, कालेज आदि सभी के बारे में पूछ डाला. यह भी पता चला कि सिकता ने भी भातखंडे संगीत विद्यालय में संगीत की शिक्षा पाई थी.

‘‘जब भी खाली समय हुआ करे और मन न लगे तो मेरे पास चली आया करो. अब संकोच न करना.’’

‘‘खाली समय तो बहुत रहता है क्योंकि ये तो जब देखो तब दौरे पर जाते रहते हैं और मैं अकेली घर में पड़ी ऊबती रहती हूं. अकेले घर में गाया भी नहीं जा सकता. नौकरचाकर न जाने क्या सोचें?’’

अंकिता के मस्तिष्क में सहसा बिजली सी कौंधी. वह बोली, ‘‘हम लोगों के क्लब में एक महिला समिति भी है, जिस में अफसरों की पत्नियां या तो ताश खेलती रहती हैं या फिर कभी ‘हाउसी’. क्यों न हम दोनों मिल कर कालोनी की लड़कियों के लिए संगीत की कक्षाएं शुरू करें. तुम्हारा तो अभी सबकुछ नया सीखा हुआ है. तुम्हारे सहारे मैं भी अपने पुराने अभ्यास पर धार लगाने का प्रयास करूंगी.’’

‘‘सच दीदी, आप ने तो मेरी बिन मांगी मुराद पूरी कर दी. आप जैसा भी कहेंगी, मैं करती रहूंगी. आप शुरू तो करें,’’ सिकता उत्साह से चहक उठी.

अंकिता ने अपने प्रभाव से क्लब की महिला समिति में एक कमरे में संगीत कक्षाएं चालू करा दीं, लेकिन शुरूशुरू में तथाकथित संभ्रांत महिलाओं ने खूब नाकभौं सिकोड़ी. कुछ ने तो यहां तक कह डाला कि यह 4 दिन की चांदनी है, फिर तो टांयटांय फिस्स होना ही है.

परंतु अंकिता को यह सब सुनने की फुरसत नहीं थी. सिकता और स्वयं के अतिरिक्त उस ने एक अन्य अध्यापक तथा तबलावादक को वेतन दे कर 3 घंटे प्रतिदिन के लिए नियुक्त कर लिया. कालोनी से संगीत सीखने की इच्छुक 10-12 लड़कियां और महिलाएं भी एकत्र हो गईं.

सिकता को तो संगीत सिखाना सहज लगता था लेकिन अंकिता को कुछ कक्षाएं पढ़ाने के लिए पहले घर पर घंटों अभ्यास करना पड़ा. उस पर एक नशा सा छाया हुआ था और वह जीतोड़ परिश्रम में लगी हुई थी. महिला समिति के फंड के अलावा वह अपने पास से भी काफी धन संगीत विद्यालय के लिए खर्च कर चुकी थी.

अंकिता को जैसेजैसे संगीत विद्यालय की आलोचना सुनने को मिलती, वैसेवैसे उस का संकल्प और दृढ़ होता जाता. देखतेदेखते 2 साल के अंदर ही इस संगीत विद्यालय ने अपनी पहचान बनानी आरंभ कर दी. महल्ले में क्या, पूरे शहर में उस की चर्चा होने लगी.

जहां किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन होता वहां संगीत विद्यालय की छात्राओं को भेजने के अनुरोध भी अंकिता को प्राप्त होने लगे. उस को इस से काफी आत्मसंतोष मिलता. वह इस तरह के सभी प्रस्तावों का स्वागत करती और हरेक कार्यक्रम को प्रस्तुत करने से पहले भाग लेने वाली छात्राओं को जम कर अभ्यास कराती. अधिकांश कार्यक्रमों का संचालन वह खुद ही करती.

क्लब में होली, तीज, ईद, दीवाली तथा राष्ट्रीय पर्वों पर होने वाले समारोहों में वह संगीत विद्यालय के विशेष कार्यक्रम रखती, जिन की सभी प्रशंसा करते. स्थानीय अखबारों में उन की रिपोर्ट छपती. कभीकभी आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी निमंत्रण मिलने लगा.

अचल का जल्द ही होने वाला तबादला अंकिता को अब चिंतित करने लगा था क्योंकि इस स्थान पर उन के 4 साल पूरे हो चुके थे. उसे डर था कि कहीं उस के जाने के बाद विद्यालय बंद न हो जाए, इसलिए अंकिता ने संगीत विद्यालय की संचालन समिति के मुख्य पदों को पदेन रूप से परिवर्तित कर दिया था, जिस से किसी व्यक्ति विशेष के रहने अथवा न रहने से विद्यालय के संचालन पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े. स्थानीय वेतनभोगी अध्यापकों की संख्या भी बढ़ा दी थी. कुछ प्रमुख रुचिसंपन्न महिलाओं को उस ने विद्यालय का संरक्षक भी बना दिया था.

अचल अकसर अंकिता को खिजाते, ‘‘तुम तो अब पूरी तरह संगीत विद्यालय को समर्पित हो गई हो. कहीं ऐसा न हो कि मैं भी काट दिया जाऊं.’’

‘‘कैसी बात करते हैं. आप के ही सहयोग से तो मुझे सार्थक जीवन की ये घडि़यां देखने को मिली हैं.’’

‘‘मेरे कहने की तुम ने कब चिंता की? यह तो पिताजी की झिड़की का प्रभाव है.’’

‘‘सच, हमारे विद्यालय के कार्यक्रमों में बड़ा निखार आ रहा है. डर यही लगता है कि कहीं हमारे तबादले के बाद यह उत्साह ठंडा न पड़ जाए.’’

‘‘तुम ने नींव तो इतनी मजबूत डाली है कि अब उसे चलते रहना चाहिए.’’

‘‘क्यों जी, हम लोगों का तबादला 1-2 साल के लिए रुक नहीं सकता?’’

‘‘इस बार तबादला तरक्की के साथ होगा. उसे रुकवाना हानिकारक होगा. चिंता क्यों करती हो, जिस जगह भी जाएंगे, वहां एक नया विद्यालय शुरू किया जा सकता है.’’

‘‘यहां सब जम गया था. कहांकहां नए गड्ढे खोदें और पौधे रोपें.’’

‘‘तो क्या हुआ? अब तो माली निपुण हो गया है. फिर वहां तुम्हारा स्तर ऊंचा होने का भी तो लाभ मिलेगा. वहां कौन काट सकेगा तुम्हारी बात?’’

‘‘अब जो होगा, देखूंगी. पर जगहजगह तंबू गाड़ना मुझे भाता नहीं.’’

‘‘भई, हम लोग तो गाडि़या लुहार हैं. दिन में सड़क किनारे गाड़ी रोकी, कुदाल, खुरपी, हंसिए बनाए, बेचे और बढ़ चले. इस जीवन का अपना अलग रस है.’’

‘‘हर कोई आप की तरह दार्शनिक नहीं होता.’’

बात पर तो विराम लग गया परंतु अंकिता के मन की चंचलता बनी रही.

वसंतपंचमी के अवसर पर दूरदर्शन के प्रादेशिक प्रसारण में संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत करने के प्रस्ताव को अंकिता ने स्वीकार तो कर लिया परंतु उस के लिए 2 गीत तैयार कराने में उसे और छात्राओं को बड़ा परिश्रम करना पड़ा. कार्यक्रम का सफल मंचन हो जाने पर उसे बड़ा संतोष मिला.

अंकिता अभी वसंत के कार्यक्रम की अपनी थकान उतार भी नहीं पाई थी कि उसे अपने पिता का पत्र मिला.

‘‘टीवी के प्रादेशिक कार्यक्रम में तुम्हारे विद्यालय द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम देखा. संचालिका के रूप में तुम्हें पहचान लिया. कार्यक्रम बहुत अच्छा था. मन बहुत प्रसन्न हुआ. लेकिन बेटी, एक बात याद रखना कि विद्या के क्षेत्र में प्रसाद वर्जित है.’’

पत्र पाने के बाद अंकिता आत्मसंतोष से भर उठी.

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