अंधविश्वास की बलिवेदी पर : बाबा की गंदी हरकत

‘‘अरे बावली, कहां रह गई तू?’’ रमा की कड़कती हुई आवाज ने रूपल के पैरों की रफ्तार को बढ़ा दिया.

‘‘बस, आ रही हूं मामी,’’ तेज कदमों से चलते हुए रूपल ने मामी से आगे बढ़ हाथ के दोनों थैले जमीन पर रख दरवाजे का ताला खोला.

‘‘जल्दी से रात के खाने की तैयारी कर ले, तेरे मामा औफिस से आते ही होंगे,’’ रमा ने सोफे पर पसरते हुए कहा.

‘‘जी मामी,’’ कह कर रूपल कपड़े बदल कर चौके में जा घुसी. एक तरफ कुकर में आलू उबलने के लिए गैस पर रखे और दूसरी तरफ जल्दी से परात निकाल कर आटा गूंधने लगी.

आटा गूंधते समय रूपल का ध्यान अचानक अपने हाथों पर चला गया. उसे अपने हाथों से घिन हो आई. आज भी गुरु महाराज उस

के हाथों को देर तक थामे सहलाते रहे और वह कुछ न कह सकी. उन्हें देख कर कितनी नफरत होती है, पर मामी को कैसे मना करे. वे तो हर दूसरेतीसरे दिन ही उसे गुरु कमलाप्रसाद की सेवादारी में भेज देती हैं.

पहली बार जब रूपल वहां गई थी तो बड़ा सा आश्रम देख कर उसे बहुत अच्छा लगा था. खुलीखुली जगह, चारों ओर हरियाली ही हरियाली थी.

खिचड़ी बालों की लंबी दाढ़ी, कुछ आगे को निकली तोंद, माथे पर बड़ा सा तिलक लगाए सफेद कपड़े पहने, चांदी से चमकते सिंहासन पर आंखें बंद किए बैठे गुरु महाराज रूपल को पहली नजर में बहुत पहुंचे हुए महात्मा लगे थे जिन के दर्शन से उस की और उस के घर की सारी समस्याओं का जैसे खात्मा हो जाने वाला था.

अपनी बारी आने पर बेखौफ रूपल उन के पास जा पहुंची थी. महाराज उस के सिर पर हाथ रख आशीर्वाद देते हुए देर तक उसे देखते रहे.

मामी की खुशी का ठिकाना नहीं था. उस दिन गुरु महाराज की कृपा उस पर औरों से ज्यादा बरसी थी.

वापसी में महाराज के एक सेवादार ने मामी के कान में कुछ कहा, जिस से उन के चेहरे पर एक चमक आ गई. तब से हर दूसरेतीसरे दिन वे रूपल को महाराज के पास भेज देती हैं.

मामी कहती हैं कि गुरु महाराज की कृपा से उस के घर के हालात सुधर जाएंगे जिस से दोनों छोटी बहनों की पढ़ाईलिखाई आसान हो जाएगी और उन का भविष्य बन जाएगा.

रूपल भी तो यही चाहती है कि मां की मदद कर उन के बोझ को कुछ कम कर सके, तभी तो दोनों छोटी बहनों और उन्हें गांव में छोड़ वह यहां मामामामी के पास रहने आ गई है.

पिछले साल जब मामामामी गांव आए थे तब अपने दुखड़े बताती मां को आंचल से आंखों के गीले कोर पोंछते देख रूपल को बड़ी तकलीफ हुई थी.

14 साल की हो चुकी थी रूपल, पर अभी भी अपने बचपने से बाहर नहीं निकल पाई थी. माली हालत खराब होने से पढ़ाई तो छूट गई थी, पर सखियों के संग मौजमस्ती अभी भी चालू थी.

ठाकुर चाचा के आम के बगीचे से कच्चे आम चुराने हों या फुलवा ताई के दालान से कांटों की परवाह किए बगैर बारबेरी के बेर तोड़ने में उस का कहीं कोई मुकाबला न था.

पर उस दिन किवाड़ के पीछे खड़ी रूपल अपनी मां की तकलीफें जान कर हैरान रह गई थी. 4 साल पहले उस के अध्यापक बाऊजी किसी लाइलाज बीमारी में चल बसे थे.

मां बहुत पढ़ीलिखी न थीं इसलिए स्कूल मैनेजमैंट बाऊजी की जगह पर उन के लिए टीचर की नौकरी का इंतजाम न कर पाया. अलबत्ता, उन्हें चपरासी और बाइयों के सुपरविजन का काम दे कर एक छोटी सी तनख्वाह का जुगाड़ कर दिया था.

इधर बाऊजी के इलाज में काफी जमीन बेचनी पड़ गई थी. घर भी ठाकुर चाचा के पास ही गिरवी पड़ा था. सो, अब नाममात्र की खेतीबारी और मां की छोटी सी नौकरी 4 जनों का खर्चा पूरा करने में नाकाम थी.

रूपल को उस वक्त अपने ऊपर बहुत गुस्सा आया था कि वह मां के दुखों से कैसे अनजान रही, इसीलिए जब मामी ने अपने साथ चलने के लिए पूछा तो उस ने कुछ भी सोचे समझे बिना एकदम से हां कर दी.

तभी से मामामामी के साथ रह रही रूपल ने उन्हें शिकायत का कोई मौका नहीं दिया था. शुरुआत में मामी ने उसे यही कहा था, ‘देख रूपल, हमारे तो कोई औलाद है नहीं, इसलिए तुझे हम ने जिज्जी से मांग लिया है. अब से तुझे यहीं रहना है और हमें ही अपने मांबाप समझना है. हम तुझे खूब पढ़ाएंगे, जितना तू चाहे.’

बस, मामी के इन्हीं शब्दों को रूपल ने गांठ से बांध लिया था. लेकिन उन के साथ रहते हुए वह इतना तो समझ गई थी कि मामी अपने किसी निजी फायदे के तहत ही उसे यहां लाई हैं. फिर भी उन की किसी बात का विरोध करे बगैर वह गूंगी गुडि़या बन मामी की सभी बातों को मानती चली जा रही थी ताकि गांव में मां और बहनें कुछ बेहतर जिंदगी जी सकें.

रूपल को यहां आए तकरीबन 6-8 महीने हो चुके थे, लेकिन मामी ने उस का किसी भी स्कूल में दाखिला नहीं कराया था, बल्कि इस बीच मामी उस से पूरे घर का काम कराने लगी थीं.

मामा काम के सिलसिले में अकसर बाहर रहा करते थे. वैसे तो घर के काम करने में रूपल को कोई तकलीफ नहीं थी और रही उस की पढ़ाई की बात तो वह गांव में भी छूटी हुई थी. उसे तो बस मामी के दकियानूसी विचारों से परेशानी होती थी, क्योंकि वे बड़ी ही अंधविश्वासी थीं और उस से उलटेसीधे काम कराया करती थीं.

वे कभी आधा नीबू काट कर उस पर सिंदूर लगा कर उसे तिराहे पर रख आने को कहतीं तो कभी किसी पोटली में कुछ बांध कर आधी रात को उसे किसी के घर के सामने फेंक कर आने को कहतीं. महल्ले में किसी से उन की ज्यादा पटती नहीं थी.

मामी की बातें रूपल को चिंतित कर देती थीं. वह भले ही गांव की रहने वाली थी, पर उस के बाऊजी बड़े प्रगतिशील विचारों के थे. उन की तीनों बेटियां उन की शान थीं.

गांव के माहौल में 3-3 लड़कियां होने के बाद भी उन्हें कभी इस बात की शर्मिंदगी नहीं हुई कि उन के बेटा नहीं है. उन के ही विचारों से भरी रूपल इन अंधविश्वासों पर बिलकुल यकीन नहीं करती थी. पर न चाहते हुए भी उसे मामी के इन ढकोसलों का न सिर्फ हिस्सा बनना पड़ता, बल्कि उन्हें मानने को भी मजबूर होना पड़ता. क्योंकि अगर वह इस में जरा भी आनाकानी करती तो मामी तुरंत उस की मां को फोन लगा कर उस की बहुत चुगली करतीं और उस के लिए उलटासीधा भिड़ाया करतीं.

पर अभी जो रूपल के साथ हो रहा था, वह तो और भी बुरा था. पिछले कुछ वक्त से उस ने महसूस किया था कि आश्रम के काम के बहाने उसे गुरुजी के साथ जानबूझ कर अकेले छोड़ा जाता है.

रूपल छोटी जरूर थी, पर इतनी भी नहीं कि अपने शरीर पर रेंगते उन हाथों की बदनीयती पहचान न सके. वैसे भी उस ने गुरुदेव को अपने खास कमरे में आश्रम की एक दूसरी सेवादारिन के साथ जिन कपड़ों और हालात में देखा था, वे उसे बहुत गलत लगे थे. गुरुदेव के प्रति उस की भक्ति और आस्था उसी वक्त चूर हो चुकी थी.

मगर उस ने यह बात जब मामी को बताई तो उन्होंने इसे नजर का धोखा कह कर बात वहीं खत्म करने को कह दिया था.

तब से रूपल के मन में एक दहशत सी समा गई थी. वह बिना मामी के उस आश्रम में पैर भी नहीं रखना चाहती थी. सपने में भी वह बाबा अपनी आंखों में लाल डोरे लिए अट्टहास लगाता उस की ओर बढ़ता चला आता और नींद में ही डर से कांपते हुए रूपल की चीख निकल जाती. पर मामी का गुस्सा उसे वहां जाने पर मजबूर कर देता.

‘आखिर इस हालत में कब तक मैं बची रह सकती हूं. काश, मैं मां को बता सकती. वे आ कर मुझे यहां से ले जातीं…’ रूपल का दर्द आंखों से बह निकला.

‘‘बहरी हो गई क्या. कुकर सीटी पर सीटी दिए जा रहा?है, तुझे सुनाई नहीं देता?’’ अचानक मामी के चिल्लाने पर रूपल ने गालों पर ढुलक आए आंसू आहिस्ता से पोंछ डाले, ‘‘जी मामी, यहीं हूं,’’ कह कर उस ने गैस पर से कुकर उतारा.

‘‘सुन, आज गुरुजी का बुलावा है. सब काम निबटा कर वहां चली जाना,’’ सुबह मामा के औफिस जाते ही मामी ने रूपल को फरमान सुनाया.

‘‘मामीजी, एक बात कहनी थी आप से…’’ थोड़ा डरते हुए रूपल के मुंह से निकला, ‘‘दरअसल, मैं उन बाबा के पास नहीं जाना चाहती. वह मुझे अकेले में बुला कर यहांवहां छूने की कोशिश करता है. मुझे बहुत घिन आती है.’’

‘‘पागल हुई है लड़की… इतने बड़े महात्मा पर इतना घिनौना इलजाम लगाते हुए तुझे शर्म नहीं आती. उस दिन भी तू उन के बारे में अनापशनाप बके जा रही थी. तू बखूबी जानती भी है कि वे कितने चमत्कारी हैं.’’

‘‘मामीजी, मैं आप से सच कह रही हूं. प्लीज, आप मुझ से कोई भी काम करा लो लेकिन उन के पास मत भेजो,’’ रूपल की आंखों में दहशत साफ दिखाई दे रही थी.

‘‘देख रूपल, अगर तुझे यहां रहना है, तो फिर मेरी बात माननी पड़ेगी, नहीं तो तेरी मां को फोन लगाती हूं और तुझे यहां से ले जाने के लिए कहती हूं.’’

‘‘नहीं मामी, मां पहले ही बहुत परेशान हैं, आप उन्हें फोन मत करना. आप जहां कहेंगी मैं चली जाऊंगी,’’ रूपल ने दुखी हो कर हथियार डाल दिए.

यह सुन कर मामी के होंठों पर एक राजभरी मुसकान बिखर गई.

पता नहीं पर उस दिन रूपल की मामी भी उस के साथ गुरुजी के आश्रम पहुंचीं. कुछ ही देर में बाबा भक्तों को दर्शन देने वाले थे.

‘‘तू यहीं बैठ, मैं अंदर कुछ जरूरी काम से जा रही हूं,’’ मामी बोलीं.

रूपल को सब से अगली लाइन में बिठा कर मामी ने उसे अपना मोबाइल फोन पकड़ाया.

‘‘बाबा, मैं ने अपना काम पूरा किया. आप को एक कन्या भेंट की है. अब तो मेरी गोदी में नन्हा राजकुमार खेलेगा न?’’ मामी ने बाबा के सामने अपना आंचल फैलाते हुए कहा.

‘‘अभी देवी से प्रभु का मिलन बाकी है. जब तक यह काम नहीं हो जाता, तू कोई उम्मीद लगा कर मत बैठना,’’ बाबा के पास खड़े सेवादार ने जवाब दिया.

‘‘लेकिन, मैं ने तो अपना काम पूरा कर दिया…’’

‘‘हम ने तुझे पहले ही कहा था कि प्रभु और देवी के मिलन में कोई अड़चन नहीं आनी चाहिए. तुझे उसे खुद तैयार करना होगा. इस काम में प्रभु को जबरदस्ती पसंद नहीं.’’

‘‘ठीक है, कल तक यह काम भी हो जाएगा,’’ मामी ने बाबा के पैरों को छूते हुए कहा. उधर तुरंत ही किसी काम से मामा का फोन आने से मामी के पीछे चल पड़ी रूपल ने जैसे ही ये बातें सुनीं, उस के पैरों तले जमीन सरक गई.

मामी को आते देख रूपल थोड़ी सी आड़ में हो गई.

‘‘कहां गई थी?’’ उसे अपने पीछे से आते देख मामी हैरान हो उठीं.

‘‘बाथरूम गई थी…’’ रूपल ने धीरे से इशारों में बताया.

रूपल बुरी तरह डर चुकी थी. अपनी मामी का खौफनाक चेहरा उस के सामने आ चुका था. अब तक उसे यही लगता था कि मामी भले ही तेज हैं, पर वे अच्छी हैं और बाबा की सचाई से बेखबर हैं, जिस दिन उन्हें गुरुजी की असलियत पता चलेगी वे उसे कभी आश्रम नहीं भेजेंगी. पर अब खुद उस की आंखों पर पड़ा परदा उठ गया था. उसे मामी की हर चाल अब समझ आ चुकी थी.

शादी के 10 साल तक बेऔलाद होने का दुख उन्होंने इस तरह दूर करने की कोशिश की. गांव में आ कर उन की गरीबी पर तरस खा कर उसे यहां एक साजिश के तहत लाना और बाबा के आश्रम में जबरदस्ती भेजना. इन बातों का मतलब अब वह समझ चुकी थी.

लेकिन अब रूपल क्या करे. उसे अपनी मां की बहुत याद आ रही थी. वह बस हमेशा की तरह उन के आंचल के पीछे छिप जाना चाहती थी.

‘मैं मां से इस बारे में बात करूं क्या… पर मां तो मामी की बातों पर इतना भरोसा करती हैं कि मेरी बात उन्हें हाठी ही लगेगी. और फिर घर के हालात… अगर मां जान भी जाएं तो क्या उस का गांव जाना ठीक होगा. वहां मां अकेली 4-4 जनों का खानाखर्चा कैसे संभालेंगी?’ बेबसी और पीड़ा से उस की आंखें भर आईं.

‘‘रूपल… 2 लिटर दूध ले आना, आज तेरी पसंद की सेवइयां बना दूंगी. तुझे मेरे हाथ की बहुत अच्छी लगती हैं न,’’ बातों में मामी ने उसे भरपूर प्यार परोसा.

खाना खा कर रात को बिस्तर पर लेटी रूपल की आंखों से नींद कोसों दूर थी. मामी ने आज उसे बहुत लाड़ किया था और मांबहनों के सुखद भविष्य का वास्ता दे कर सच्चे भाव से बाबा की हर बात मान कर उन की भक्ति में डूब जाने को कहा था. पर अब वह बाबा की भक्ति में डूब जाने का मतलब अच्छी तरह समझाती थी.

अगले दिन मामी की योजना के तहत रूपल बाबा के खास कमरे में थी. दूसरी सेवादारिनों ने उसे देवी की तरह कपड़े व गहने वगैरह पहना कर दुलहन की तरह सजा दिया था.

पलपल कांपती रूपल को आज अपनी इज्जत लुट जाने का डर था. लेकिन वह किसी भी तरह से हार नहीं मानना चाहती थी. अभी भी वह अपने बचाव की सारी उम्मीदों पर सोच रही थी कि गुरु कमलाप्रसाद ने कमरे में प्रवेश किया. आमजन का भगवान एक शैतान की तरह अट्टहास लगाता रूपल की तरफ बढ़ चला.

‘‘बाबा, मैं पैर पड़ती हूं आप के, मुझ पर दया करो. मुझे जाने दो,’’ उस ने दौड़ कर बाबा के चरण पकड़ लिए.

‘‘देख लड़की, सुहाग सेज पर मुझे किसी तरह का दखल पसंद नहीं. क्या तुझे समर्पण का भाव नहीं समझाया गया?’’

बाबा की आंखों में वासना का ज्वार अपनी हद पर था. उस के मुंह से निकला शराब का भभका रूपल की सांसों में पिघलते सीसे जैसा समाने लगा.

‘‘बाबा, छोड़ दीजिए मुझे, हाथ जोड़ती हूं आप के आगे…’’ रूपल ने अपने शरीर पर रेंग रहे उन हाथों को हटाने की पूरी कोशिश की.

‘‘वैसे तो मैं किसी से जबरदस्ती नहीं करता, पर तेरे रूप ने मुझे सम्मोहित कर दिया है. पहले ही मैं बहुत इंतजार कर चुका हूं, अब और नहीं… चिल्लाने की सारी कोशिशें बेकार हैं. तेरी आवाज यहां से बाहर नहीं जा सकती,’’ कह कर बाबा ने रूपल के मुंह पर हाथ रख उसे बिस्तर पर पटक दिया और एक वहशी दरिंदे की तरह उस पर टूट पड़ा.

तभी अचानक ‘धाड़’ की आवाज से कमरे का दरवाजा खुला. अगले ही पल पुलिस कमरे के अंदर थी. बाबा की पकड़ तनिक ढीली पड़ते ही घबराई रूपल झटक कर अलग खड़ी हो गई.

पुलिस के पीछे ही ‘रूपल…’ जोर से आवाज लगाती उस की मां ने कमरे में प्रवेश किया और डर से कांप रही रूपल को अपनी छाती से चिपटा लिया.

इस तरह अचानक रंगे हाथों पकड़े जाने से हवस के पुजारी गुरु कमलाप्रसाद के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. फिर भी वह पुलिस वालों को अपने रोब का हवाला दे कर धमकाने लगा.

तभी उस की एक पुरानी सेवादारिन ने आगे बढ़ कर उस के गाल पर एक जोरदार तमाचा रसीद किया. पहले वह भी इसी वहशी की हवस का शिकार हुई थी. वह बाबा के खिलाफ पुलिस की गवाह बनने को तैयार हो गई.

बाबा का मुखौटा लगाए उस ढोंगी का परदाफाश हो चुका था. आखिरकार एक नाबालिग लड़की पर रेप और जबरदस्ती करने के जुर्म में बाबा को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया. उस के सभी चेलेचपाटे कानून के शिकंजे में पहले ही कसे जा चुके थे.

मां की छाती से लगी रूपल को अभी भी अपने सुरक्षित बच जाने का यकीन नहीं हो रहा था, ‘‘मां… मामी ने मुझे जबरदस्ती यहां…’’

‘‘मैं सब जान चुकी हूं मेरी बच्ची…’’ मां ने उस के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा. ‘‘तू चिंता मत कर, भाभी को भी सजा मिल कर रहेगी. पुलिस उन्हें पहले ही गिरफ्तार कर चुकी है.

‘‘मैं अपनी बच्ची की इस बदहाली के लिए उन्हें कभी माफ नहीं करूंगी. तू मेरे ही पास रहेगी मेरी बच्ची. तेरी मां गरीब जरूर है, पर लाचार नहीं. मैं तुझ पर कभी कोई आंच नहीं आने दूंगी.

‘‘मेरी मति मारी गई थी कि मैं भाभी की बातों में आ गई और सुनहरे भविष्य के लालच में तुझे अपने से दूर कर दिया.

‘‘भला हो तुम्हारे उस पड़ोसी का, जिस ने तुम्हारे दिए नंबर पर फोन कर के मुझे इस बात की जानकारी दे दी वरना मैं अपनेआप को कभी माफ न कर पाती,’’ शर्मिंदगी में मां अपनेआप को कोसे जा रही थीं.

‘‘मुझे माफ कर दो दीदी. मैं रमा की असलियत से अनजान था. गलती तो मुझ से भी हुई है. मैं ने सबकुछ उस के भरोसे छोड़ दिया, यह कभी जानने की कोशिश नहीं की कि रूपल किस तरह से कैसे हालात में रह रही है,’’ सामने से आ रहे मामा ने अपनी बहन के पैर पकड़ लिए.

बहन ने कोई जवाब न देते हुए भाई पर एक तीखी नजर डाली और बेटी का हाथ पकड़ कर अपने घर की राह पकड़ी.

रूपल मन ही मन उस पड़ोसी का शुक्रिया अदा कर रही थी जिसे सेवइयों के लिए दूध लाते वक्त उस ने मां का फोन नंबर दिया था और उस ने ही समय रहते मां को मामी की कारगुजारी के बारे में बताया था जिस के चलते ही आज वह अंधविश्वास की बलिवेदी पर भेंट चढ़ने से बच गई थी.

मां का हाथ थामे गांव लौटती रूपल अब खुली हवा में एक बार फिर सुकून की सांसें ले रही थी.

बेईमानी का नतीजा : गड्ढे में नारायण

आधी रात का समय था. घना अंधेरा था. चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था. ऐसे में रामा शास्त्री के घर का दरवाजा धीरे से खुला. वे दबे पैर बाहर आए. उन का बेटा कृष्ण भी पीछेपीछे चला आया. उस के हाथ में कुदाली थी.

रामा शास्त्री ने एक बार अंधेरे में चारों ओर देखा. लालटेन की रोशनी जहां तक जा रही थी, वहां तक उन की नजर भी गई थी. उस के आगे कुछ भी नहीं दिख रहा था.

रामा शास्त्री ने थोड़ी देर रुक कर कुछ सुनने की कोशिश की. कुत्तों के भूंकने की आवाज के सिवा कुछ भी नहीं सुनाई दे रहा था.

रामा शास्त्री ने अपने घर से सटे हुए दूसरे घर का दरवाजा खटखटाया और पुकारा, ‘‘नारायण.’’

नारायण इसी इंतजार में था. आवाज सुनते ही वह फौरन बाहर आ गया.

‘‘सबकुछ तैयार है. चलें क्या?’’ रामा शास्त्री बोले.

‘‘हां चलो,’’ कह कर नारायण ने घर में ताला लगा दिया और उन के पीछे हो लिया. उस के हाथ में टोकरी थी. उस की बीवी और बच्चे मायके गए थे.

रामा शास्त्री लालटेन ले कर आगेआगे चलने लगे और कृष्ण व नारायण उन के पीछे चल पड़े.

रामा शास्त्री और उन का छोटा भाई नारायण पहले एक ही घर में रहते थे. छोटे भाई की 2 बेटियां थीं. रामा शास्त्री का बेटा कृष्ण 25 साल का था. उस की शादी अभी नहीं हुई थी. नारायण की बेटियां अभी छोटी थीं.

घर में जेठानी और देवरानी में पटती नहीं थी. उन दोनों में हमेशा किसी न किसी बात को ले कर झगड़ा होता रहता था. अपने मातापिता के जीतेजी नारायण व रामा शास्त्री बंटवारा नहीं करना चाहते थे.

मातापिता की मौत के बाद दोनों भाइयों और उन की बीवियों के बीच मनमुटाव बढ़ गया. अंदर सुलगती आग अब भड़क उठी थी.

नारायण का मिजाज कुछ नरम था पर रामा शास्त्री चालबाज थे. भाई और भाभी की बातों में आ कर नारायण अपनी बीवी को अकसर पीटता रहता था. उस की नासमझ का फायदा उठा कर रामा शास्त्री ने चोरीछिपे कुछ रुपए भी जमा कर रखे थे.

नारायण के साथ जो नाइंसाफी हो रही थी, उसे देख कर गांव के कुछ लोगों को बुरा लगता था. उन्होंने नारायण को बड़े भाई के खिलाफ भड़का दिया.

नतीजतन एक दिन दोनों के बीच जबरदस्त झगड़ा हुआ और घर व जमीनजायदाद का बंटवारा हो गया. मातापिता की मौत के बाद 3 महीने के अंदर ही वे अलग हो गए.

सब बंटवारा तो ठीक से हो गया, मगर बाग को ले कर फिर झगड़ा शुरू हो गया. रामा शास्त्री बाग को अपने लिए रखना चाहते थे. इस के बदले में वे सारी जायदाद छोड़ने के लिए तैयार थे. लेकिन 6 एकड़ के बाग में नारायण अपना हिस्सा छोड़ने को तैयार नहीं था.

बाग में 3 सौ नारियल के पेड़ और सौ से ज्यादा सुपारी के पेड़ थे. उस से सटी हुई 6 एकड़ खाली जमीन भी थी. बाकी जमीन भी बहुत उपजाऊ थी.

बाग से जितनी आमदनी होती थी, उतनी बाकी जमीन में भी होती थी. लेकिन नारायण की जिद की वजह से बाग का भी 2 हिस्सों में बंटवारा हो गया.

रामा शास्त्री ने अपने हिस्से के बाग में जो खाली जगह थी, वहां रहने के लिए मकान बनवाना शुरू कर दिया.

इसी चक्कर में एक दिन शाम को मजदूरों के जाने के बाद कृष्ण नींव के लिए खोदी गई जगह का मुआयना कर रहा था. वह एक जगह पर कुदाली से मिट्टी हटाने लगा, क्योंकि वहां मिट्टी अंदर से खिसक रही थी.

कृष्ण ने 2 फुट गहराई का गड्ढा खोद डाला. नीचे एक बड़ा चौकोर पत्थर था. उस के नीचे एक लोहे का जंग लगा ढक्कन था, मगर वह उसे खोल नहीं सका. उस ने सोचा कि वहां कोई राज छिपा हुआ होगा. वह मिट्टी से गड्ढा भर कर वापस घर लौट गया. उस ने अपने पिता को सबकुछ बताया.

रामा शास्त्री ने बेटे के साथ आ कर अच्छी तरह से गड्ढे की जांच की. देखते ही देखते उन का चेहरा खिल उठा. उन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वे कुछ पलों तक सुधबुध खो कर बैठ गए.

कुछ देर बाद रामा शास्त्री ने इधरउधर देखा और कहा, ‘‘कृष्ण, मिल गया… मिल गया.’’

4-5 पीढ़ियों पहले रामा शास्त्री का कोई पुरखा किसी राजा का खजांची रह चुका था. वह अपने एक साथी के साथ राजा के खजाने का बहुत सा धन चुरा कर भाग गया था. राजा को इस बात का पता चल गया था.

राजा ने सैनिकों को चारों ओर भेजा, लेकिन वे चोर तलाशने में नाकाम रहे. राजा ने चोरों के घर वालों को तमाम तकलीफें दीं, मगर कुछ भी नतीजा नहीं निकला.

इस के बाद सभी पीढ़ी के लोग मरते समय अपने बेटों को यह बात बता कर जाते. लेकिन किसी को भी वह छिपाया गया खजाना नहीं मिला था.

रामा शास्त्री ने तय किया था कि अगर उन्हें खजाना मिल गया तो वे एक मंदिर बनवाएंगे. उन का सपना अब पूरा होने वाला था.

बापबेटा दोनों लोहे का ढक्कन हटाने की कोशिश कर रहे थे कि उसी समय नारायण भी वहां आ गया. उस का आना रामा शास्त्री व कृष्ण दोनों को अच्छा नहीं लगा.

उन की बेचैनी देख कर नारायण को कुछ शक हुआ और इस काम में वह भी शामिल हो गया.

तीनों ने मिल कर उस ढक्कन को हटा दिया. उस के नीचे भी मिट्टी ही थी. लेकिन वहां कुछ खोखला था. लकड़ी के तख्त पर मिट्टी बिछी हुई थी. उन को यकीन हो गया कि अंदर कोई खजाना है.

इतने में दूर से किसी की बातचीत सुनाई पड़ी, इसलिए उन्होंने गड्ढे पर पत्थर रख दिया. फिर रात को दोबारा आ कर खजाना निकालने की योजना बनाई गई.

आधी रात को कुदाली ले कर तीनों चल पड़े. वे गांव के मंदिर के पास वाली पगडंडी से होते हुए बाग की ओर चल पड़े. वे चारों ओर सावधानी से देखते हुए चल रहे थे.

दूर से किसी की आहट सुन कर वे लालटेन बुझ कर पास के इमली के पेड़ की आड़ में छिप गए.

पड़ोस के गांव गए 2 लोग बातें करते हुए वापस आ रहे थे. नजदीक आतेआते उन की बातें साफ सुनाई दे रही थीं.

एक ने कहा, ‘‘इधर कहीं आग की लपट दिखाई दी थी न?’’

दूसरे ने कहा, ‘‘हां, मैं ने भी देखी थी… आग का भूत होगा.’’

पहला आदमी बोला, ‘‘सचमुच भूत ही होगा. उसे परसों रंगप्पा ने यहीं देखा था. इस इमली के पेड़ में मोहिनी भूत है.

‘‘रंगप्पा अकेला आ रहा था. पेड़ के पास कोई औरत सफेद साड़ी पहने खड़ी थी. उसे देख कर रंगप्पा डर कर घर भाग गया था. उस के बाद वह 3 दिनों तक बीमार पड़ा रहा.’’

तभी इमली के पेड़ से सरसराहट की आवाज सुनाई दी.

‘भूत… भूत…’ चिल्ला कर वे दोनों तेजी से भागे.

कुछ देर बाद रामा शास्त्री, नारायण और कृष्ण पेड़ की आड़ से बाहर निकल कर बाग की ओर चल पड़े. बाग के पास पहुंच कर उन्होंने कुछ देर तक आसपास का जायजा लिया. वहां कोई न था. दूर से सियारों की आवाज आ रही थी. फिर तीनों वहां खड़े हो गए, जहां खजाना गड़ा होने की उम्मीद थी.

कृष्ण कुदाली से मिट्टी खोदने लगा, तो नारायण टोकरी में भर कर मिट्टी एक तरफ डालता रहा. रामा शास्त्री आसपास के इलाके पर नजर रखे हुए थे.

लोहे का ढक्कन हटा कर नीचे की मिट्टी निकाल कर एक ओर फेंक दी गई. उस के नीचे मौजूद लकड़ी के तख्त को भी हटा दिया गया, तख्त के नीचे एक गोलाकार मुंह वाला गहरा गड्ढा नजर आया. उस की गहराई करीब 6 फुट थी. लालटेन की रोशनी में अंदर कुछ कड़ाहियां दिखाई पड़ीं.

नारायण गड्ढे के अंदर झांक कर देख रहा था तभी रामा शास्त्री ने कृष्ण को कुछ इशारा किया. अचानक नारायण के सिर पर एक बड़े पत्थर की मार पड़ी. वह बिना आवाज किए वहीं लुढ़क गया.

दोबारा पत्थर की मार से उस का काम तमाम हो गया. उस की लाश को बापबेटे ने घसीट कर एक ओर फेंक दिया.

रामा शास्त्री लालटेन हाथ में ले कर खड़े हो गए. कृष्ण गड्ढे में कूद पड़ा. गड्ढे में जहरीली गैस की बदबू भरी थी. कृष्ण को सांस लेने में मुश्किल हो रही थी. उस ने लालटेन की रोशनी में अंदर चारों ओर देखा.

दीवार से सटी हुई 6 ढकी हुई कड़ाहियां रखी हुई थीं. कृष्ण ने कुदाली से एक कड़ाही के मुंह पर जोर से मारा, तो उस का ढक्कन खुल गया. उस में चांदी के सिक्के भरे थे. दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वे उस सारे खजाने के मालिक थे.

तभी कृष्ण की नजर वहां एक कोने में पड़ी हुई किसी चीज पर पड़ी. वह जोर से चीख उठा. डर से उस का जिस्म कांपने लगा.

रामा शास्त्री ने परेशान हो कर भीतर झांक कर देखा तो वे भी थरथर कांपने लगे. वहां 2 कंकाल पड़े थे. वे शायद खजांची और उस के साथी के रहे होंगे.

रामा शास्त्री ने किसी तरह खुद को संभाला और बेटे को हौसला बंधाते हुए एकएक कर सभी कड़ाहियां ऊपर देने को कहा.

कड़ाहियां भारी होने की वजह से उन्हें उठाना कृष्ण के लिए मुश्किल हो रहा था. जहरीली गैस की वजह से उसे सांस लेने में भी तकलीफ हो रही थी.

कृष्ण ने बहुत कोशिश कर के एक कड़ाही को कमर तक उठाया ही था कि उस का सिर चकरा गया और आंखों के सामने अंधेरा छा गया. वह कड़ाही लिए हुए नीचे गिर गया.

रामा शास्त्री घबरा कर कृष्ण को पुकारने लगे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. परेशान हो कर वह भी गड्ढे में कूद पड़े.

जहरीली गैस की वजह से उन से भी वहां सांस लेना मुश्किल हो गया. उन्होंने कृष्ण को उठाने की कोशिश की, लेकिन उठा न सके. वह भी बेदम हो कर नीचे गिर पड़े. बाप और बेटे फिर कभी नहीं उठे. वे मर चुके थे.

बदनाम गली : राजू क्यों गया था वेश्या के पास

‘‘हर माल 10 रुपए… हर माल की कीमत 10 रुपए… ले लो… ले लो… बिंदी, काजल, पाउडर, नेल पौलिश, लिपस्टिक…’ जोर से आवाज लगाते हुए राजू अपने ठेले को धकेल कर एक गली में घुमा दिया और आगे बढ़ने लगा. वह एक बदनाम गली थी.

कई लड़कियां व औरतें खिड़की, दरवाजों और बालकनी में सजसंवर कर खड़ी थीं. कुछ लड़कियां खिलखिलाते हुए राजू के पास आईं और ठेले में रखे सामान को उलटपुलट कर देखने लगीं.

‘वह वाली बिंदी निकालो… यह कौन से रंग की लिपस्टिक है… बड़ी डब्बी वाला पाउडर नहीं है क्या…’ एकसाथ कई सवाल होने लगे.

राजू जल्दीजल्दी उन सब की फरमाइशों के मुताबिक सामान दिखाने लगा.

जब राजू कोई सामान निकाल कर उन्हें देता तो वे सब उसे आंख मार देतीं और कहतीं, ‘पैसा भी चाहिए क्या?’

‘‘बिना पैसे के कोई सामान नहीं मिलता,’’ राजू जवाब देता.

‘‘तू पैसा ही ले लेना. और कुछ चाहिए तो वह भी तुझे दे दूंगी,’’ तभी किसी लड़की ने ऐसा कहा तो बाकी सब लड़कियां भी खिलखिला कर हंस पड़ीं.

राजू ने उन लड़कियों के ग्रुप के पीछे थोड़ी दूरी पर एक दरवाजे पर खड़ी एक लड़की को देखा.

घनी काली जुल्फें, दमकता हुआ गोरा रंग, पतली आकर्षक देह. राजू को लगा कि उस ने कहीं इस लड़की को देखा है.

राजू सामान बेचता रहा, पर लगातार उस लड़की के बारे में सोचता रहा. वह बारबार उसे अच्छी तरह देखने की कोशिश करता रहा, लेकिन सामान खरीदने वाली लड़कियों के सामने रहने की वजह से अच्छी तरह देख नहीं पा रहा था.

तभी राजू ने देखा कि एक बड़ीबड़ी मूंछों वाला अधेड़ आदमी आया और उस लड़की को ले कर मकान के अंदर चला गया. शायद वह आदमी ग्राहक था.

थोड़ी देर बाद राजू सामान बेच कर आगे बढ़ गया, लेकिन वह लड़की उस के ध्यान से हट ही नहीं रही थी.

धीरेधीरे शाम होने को आई. जब वह घर के करीब एक दुकान के पास से गुजरा तो उस ने देखा कि दुकान पर रामू चाचा के बजाय उन की 10 साला बेटी काजल बैठी थी और ग्राहकों को सामान दे रही थी. यह देख उसे कुछ याद आया.

आधी रात हो गई थी. राजू अब फिर उस बदनाम गली में था. उस की आंखें उसी लड़की को ढूंढ़ रही थीं. वहां कई लड़कियां सजसंवर कर ग्राहकों के आने का इंतजार कर रही थीं. राजू को देख कर वे उस से नैनमटक्का करने लगीं.

‘‘क्या रे, तू फिर आ गया… रात को भी सामान बेचेगा क्या?’’ एक लड़की मुसकरा कर बोली.

‘‘नहीं, अब मैं ग्राहक बन कर आया हूं,’’ राजू ने कहा.

‘‘अच्छा तो यह बात है. फिर बता, तुझे कौन सी वाली पसंद है?’’ एक लड़की ने पूछा.

राजू ने जवाब दिया, ‘‘मुझे तो सब पसंद हैं, लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या…? चल मेरे साथ. मुझे सब रंगीली बुलाते हैं,’’ एक लड़की ने आगे आ कर राजू का हाथ पकड़ लिया.

‘‘आज रहने दे रंगीली. मु झे तो वह पसंद है…’’ राजू ने अपना हाथ छुड़ाते हुए दिन में जिस लड़की को देखा था, उस के बारे में पूछा.

‘‘बहुत पूछ रहा है उसे. नई है न…’’ रंगीली बोली, ‘‘एक आशिक उसे ले कर कमरे में गया है. वह उस का रोज का ग्राहक है. खूब पसंद करता है उसे. तु झे चाहिए तो थोड़ी देर ठहर. वह उसे निबटा कर आ जाएगी यहीं.’’

राजू बेचैनी से उस लड़की के बाहर आने का इंतजार करने लगा.

तकरीबन आधा घंटे बाद एक ग्राहक कमरे से बाहर निकल कर एक तरफ चला गया.

कुछ देर बाद उस कमरे से एक लड़की बाहर आई और दरवाजे पर खड़ी हो गई.

राजू ने उसे देखा तो पहचान गया. वह वही लड़की थी, जिस की तलाश में वह आया था.

‘‘जा मस्ती कर. तेरी महबूबा आ गई,’’ रंगीली ने कहा.

राजू उस लड़की के पास जा कर बोला, ‘‘जब से तुम्हें देखा है, तब से मैं तुम्हारा दीवाना हो गया हूं इसीलिए अभी आया हूं.’’

‘‘तो चलो,’’ वह लड़की राजू का हाथ पकड़ कर कमरे में ले जाने लगी.

‘पुलिस… पुलिस… भागो… भागो…’ तभी जोरदार शोर हुआ और चारों तरफ भगदड़ मच गई. सभी लड़कियां, ग्राहक और दलाल इधरउधर भाग कर छिपने की कोशिश करने लगे.

थोड़ी देर में ही पुलिस ने कोठेवाली, दलाल और कई ग्राहकों को गिरफ्तार कर लिया और थाने ले गई. कई लड़कियों को पुलिस ने आजाद करा कर नारी निकेतन भेज दिया.

राजू को भी पुलिस ने उस लड़की के साथ गिरफ्तार कर लिया था, पर उस लड़की को नारी निकेतन नहीं भेजा गया. वह डर से थरथर कांप रही थी.

‘‘डरो नहीं खुशबू, अब तुम आजाद हो,’’ थाने पहुंच कर राजू ने उस लड़की से कहा.

‘‘तुम मेरा नाम कैसे जानते हो?’’ उस लड़की ने चौंक कर पूछा.

‘‘खुशबू, मेरी बेटी. कहांथी तू अब तक,’’ राजू के कुछ कहने से पहले वहां एक अधेड़ औरत आई और उस लड़की को अपने गले से लगा कर फफकफफक कर रोने लगी.

‘‘मां, मुझे बचा लो. मैं उस नरक में अब नहीं जाऊंगी,’’ खुशबू भी उस औरत से लिपट कर रोने लगी और अपनी आपबीती सुनाने लगी कि कैसे 6 महीने पहले कुछ गुंडों ने उस की दुकान के आगे से रात 9 बजे उठा लिया था और कुछ दिन उस की इज्जत से खेलने के बाद चकलाघर में बेच दिया था.

‘‘अब आप के साथ कुछ गलत नहीं होगा. सारे बदमाशों को गिरफ्तार कर मैं ने जेल भेज दिया है…’’ तभी थानेदार ने कहा, ‘‘बस आप लोगों को कोर्ट आना होगा मुकदमे की कार्यवाही को आगे बढ़ाने के लिए.’’

‘‘मैं कोर्ट जाऊंगी. उन सभी बदमाशों को सजा दिलवा कर रहूंगी जिन्होंने मेरी बेटी की जिंदगी खराब की है…’’ वह औरत आंसू पोंछते हुए बोली.

‘‘अब मेरी बेटी से कौन ब्याह करेगा?’’ खुशबू की मां ने कहा.

‘‘अब आप लोग घर जा सकते हैं. जाने से पहले इन कागजात पर दस्तखत कर दें,’’ थानेदार ने कहा तो खुशबू, उस की मां और राजू ने दस्तखत कर दिए.

‘‘पर, आप लोगों को मेरे बारे में कैसे पता चला?’’ थाने से बाहर निकल कर खुशबू ने पूछा.

‘‘यह सब राजू के चलते मुमकिन हुआ. इसी ने मुझे बताया कि तुम्हें एक कोठे पर देखा है…

‘‘फिर मैं राजू के साथ पुलिस स्टेशन गई. जहां तुझे छुड़ाने की योजना बनी,’’  खुशबू की मां बोली.

‘‘राजू मुझे कैसे जानता है?’’ खुशबू ने हैरानी से पूछा.

‘‘तुम्हारी मां की परचून की दुकान पर मैं अकसर सौदा लेने जाता था वहीं तुम्हें देखा था. तब से ही मैं तुम्हें पहचानता था. जब तुम गायब हो गईं तो तुम्हारी मां दुकान पर हमेशा रोती रहती थीं. कहती थीं कि तुम्हारे बाबा जिंदा होते तो तुम्हें ढूंढ़ लाते. लेकिन वह अकेली कहां ढूंढ़ती फिरेंगी.

‘‘आज जब मैं अपना ठेला ले कर सामान बेचने गया तो कोठे पर तुम्हें देख कर तुम्हारी मां को सब बता दिया,’’ राजू बोल पड़ा.

‘‘आप का यह एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी,’’ खुशबू ने रुंधे गले से शुक्रिया अदा करते हुए कहा.

तभी राजू  झिझकते हुए खुशबू की मां से बोला, ‘‘आप एक एहसान मुझ पर भी कर दीजिए.’’

‘‘कहो बेटा, मैं क्या कर सकती हूं तुम्हारे लिए?’’ खुशबू की मां ने पूछा.

‘‘मुझे खुशबू का हाथ दे दीजिए,’’ राजू अटकअटक कर बोला.

राजू की मांग सुन कर दोनों मांबेटी की आंखों में आंसू आ गए. खुशबू ने आगे बढ़ कर राजू के पैर छू लिए.

‘‘तेरे जैसा बेटा पा कर मैं धन्य हो गई. पर यह तो बता कि तुझे जातपांत का वहम तो नहीं.’’

‘‘नहीं जी, हम गरीबों की क्या जाति. हमें तो दूसरों के लिए हड्डी तोड़नी ही है. फिर यह जाति का दंभ क्यों पालें. खुशबू जो भी हो, मुझे पसंद है,’’ राजू तमक कर बोला.

नई सुबह के इंतजार में उन तीनों के कदम घर की ओर तेजी से बढ़ने लगे.

अच्छा अफसर: ढलती उम्र में क्यों बदल गए नारायणदास

‘‘सर, पिताजी को शहर जा कर हार्ट स्पैशलिस्ट को दिखाना है,’’ एक मुलाजिम ने अपने बड़े अफसर नारायणदास को अर्जी दे कर कहा.

‘‘ठीक है जाओ,’’ अर्जी पर मंजूरी देते हुए नारायणदास ने कहा.

‘‘थैंक्स सर,’’ उस मुलाजिम ने दिल से शुक्रिया अदा करते हुए कहा.

‘‘सर, मेरी यह भविष्य निधि से पैसा निकालने की अर्जी है. बेटी का पहला बच्चा हुआ है,’’ चपरासी रामावतार ने नारायणदास से कहा.

‘‘कितने पैसे चाहिए?’’ नारायणदास ने रामावतार के भविष्य निधि अकाउंट में बैलेंस देखते हुए पूछा.

‘‘10,000 रुपए.’’

‘‘ठीक है, मैं पैसे वापस भरने की शर्त पर मंजूर करता हूं. मैं कैशियर से कह देता हूं, तुम्हें अगले हफ्ते पैसे मिल जाएंगे. हां, बेटी का प्रसूति प्रमाणपत्र दफ्तर में जमा करा देना,’’ नारायणदास ने अर्जी पर दस्तखत करते हुए कहा.

जिला कक्षा के अफसर नारायणदास के पास कोई भी मुलाजिम अपना काम ले कर आता तो वे कर देते या फिर भरोसा देते कि वे कोशिश करेंगे. सारे मुलाजिम उन के काम और बरताव से बहुत ही खुश थे और उन्हें गर्व होता था कि उन के ऐसे अफसर हैं. इस वजह से वे उन्हें दिल से मान देते थे.

पर इन्हीं नारायणदास को किसी ने एक साल पहले देखा होता तो किसी को भी यकीन नहीं होता कि कोई इनसान इस उम्र में भी इतना बदल सकता है.

नारायणदास के इस बदलाव की वजह सिर्फ 2 ही लोग जानते हैं. एक खुद नारायणदास और दूसरे उन के रिटायर्ड दोस्त मोहन राणा.

तकरीबन एक साल पहले की बात है. रिटायर्ड अफसर मोहन राणा अपने बेटे की शादी का कार्ड देने नारायणदास के औफिस आए थे.

मोहन राणा नारायणदास के कालेज के समय के दोस्त थे और उन के ही गांव से थे. हालांकि वे उम्र में नारायणदास से 2 साल बड़े थे, पर उन की दोस्ती अब तक बरकरार रही.

‘‘सर, 3 दिन की छुट्टी चाहिए. मां बीमार हैं,’’ तकरीबन गिड़गिड़ाने की आवाज में नारायणदास के मुलाजिम ने अर्जी देते हुए कहा था.

‘‘अभी पिछले महीने ही तो गए थे. वैसे, यह बहाना कब तक चलेगा?’’ फाइल में ही नजरें गड़ाते हुए नारायणदास ने पूछा था.

‘‘सर, यह बहाना नहीं हकीकत है. मैं ने मां की बीमारी का मैडिकल सर्टिफिकेट भी दिखाया था. उन्हें पिछले 2 साल से हार्ट की बीमारी है. मैं उन का एकलौता बेटा हूं, इसलिए सारी जवाबदारी मेरी ही बनती है,’’ उस मुलाजिम ने बेबसी से कहा था.

‘‘तो यहां के काम का कौन ध्यान रखेगा? पता है न कि क्वार्टर ऐंडिंग है. और कितनी सारी रिपोर्ट बिना देरी किए हैडक्वार्टर भेजनी होती हैं. इस तरह बारबार छुट्टी लोगे तो तुम्हारी सालाना गुप्त रिपोर्ट में नोटिंग होगी. और तुम्हारी प्रमोशन बाकी ही है,’’ नारायणदास ने उसे सालाना गुप्त रिपोर्ट बिगड़ने की धमकी दी.

वह मुलाजिम मन मसोस कर रह गया. मां की बीमारी के दर्द की बेचैनी उस के चेहरे पर पढ़ी जा सकती थी.

मोहन राणा अपने दोस्त नारायणदास को जानते थे कि उन का अपने नीचे काम करने वाले मुलाजिमों के साथ रिश्ता गुलाम और राजा जैसा था. इस बात को नारायणदास दोस्तों और रिश्तेदारों में गर्व से कहते भी थे.

औफिस का समय पूरा हो चुका था. नारायणदास अपने दोस्त मोहन राणा को इज्जत के साथ सरकारी गाड़ी में सरकारी बंगले में ले कर आए.

‘‘राणा, रिटायरमैंट जिंदगी कैसी चल रही है? बड़े ठसके और आराम से चल रही होगी?’’ नारायणदास ने जैसे जलन के भाव से पूछा.

‘‘सच बताऊं नारायण, बहुत ही बुरी तरह से कट रही है. हम रिटायरमैंट का बेसब्री से इंतजार करते हैं. जैसे हम सोचते हैं कि रिटायरमैंट के बाद कोई जवाबदारी नहीं, कोई भागमभाग नहीं. बस सब से मिलो, पुरानी बातें याद करो और मस्ती से जिंदगी का मजा लो. पर मेरे साथ ऐसा कुछ भी नहीं है,’’ मोहन राणा ने बेहद हताशा, दुख और अफसोसजनक शब्दों से कहा.

‘‘क्या मतलब राणा?’’ नारायणदास ने हैरानी से पूछा. वे तो यही सोच रहे थे कि पैंशन के साथ आराम, कोई जवाबदारी नहीं. जिंदगी में कोई किचकिच नहीं. मैं खुद भी अपनी रिटायरमैंट का बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं.’’

‘‘मेरे ही काम मुझ पर भारी पड़ गए. अपने हकों का हद से ज्यादा भोगना और अपनेआप को बहुत बड़ा समझना ही, आज मुझे बहुत छोटा कर रहा है,’’ मोहन राणा ने कचौड़ी का टुकड़ा हाथ में लेते हुए कहा.

‘‘मैं समझा नहीं…’’ नारायणदास ने उन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

‘‘नारायण, मैं भी तुम्हारी तरह कड़क और अपने हकों को पूरा भोगने वाला अफसर था. अपने नीचे काम करने वाले किसी भी मुलाजिम की छोटी सी गलती निकालने के लिए बेसब्र रहता था. गलतियां निकाल कर और बाद में सब के सामने उसे बेइज्जत करना मेरा एक तरह से शौक या यों कहो कि जुनून हो गया था.

‘‘वे हमारे नीचे काम करने वाले मुलाजिम थे. उन की छुट्टियां, उन की सालाना गुप्त रिपोर्ट, जिस की वजह से उन की प्रमोशन होती है, हमारे हाथ में था. मतलब कि हमारा एक गलत शब्द भी उन के भविष्य के लिए काला धब्बा बन सकता है. ये सब बातें वे लोग समझते हैं, इसलिए हमारे घटिया बरताव को कड़वा घूंट पी कर चुपचाप सहन कर जाते हैं.

‘‘उन की छुट्टियां, जो सरकार ने दी हुई थीं, जो उन का हक था, उन्हें मैं किसी न किसी वजह से रद्द कर देता था.

‘‘उन की ही पगार से काटी गई भविष्य निधि की रकम उन्हीं को देने से मना कर देता था, जैसे कि वह मेरा पैसा हो और मैं दान देने से मना कर रहा हूं.’’

नारायणदास मन ही मन सोच रहे थे कि वे भी तो पूरी जिंदगी यही करते रहे हैं.

मोहन राणा ने आगे कहा, ‘‘इस वजह से मेरे किसी भी मुलाजिम के साथ अच्छे संबंध नहीं रहे. पर हैरानी तो यह कि मुझे इस बात का गर्व होता था.

‘‘इतना ही नहीं, पूरे दिन औफिस की साहबी घर जा कर भी नहीं मिटती थी. वहां भी मैं जिला अफसर ही था. घर पर सरकारी चपरासी और दूसरे नौकरों के साथसाथ मेरी साहबी अपने घर वालों पर भी निकलती थी.

‘‘बच्चे रविवार की छुट्टी से डरते थे, क्योंकि मैं उस दिन पूरा समय घर पर ही रहता था. मेरी टोकाटोकी और रोब के चलते वे ऐक्स्ट्रा क्लास या ट्यूशन के नाम से घर के बाहर रहना पसंद करते थे. पत्नी के बनाए खाने में मीनमेख निकालना तो जैसे मेरा रोज का नियम हो गया था.

‘‘मैं अपने बड़े पद के घमंड के चलते दोस्तों व रिश्तेदारों के यहां जाना जैसे अपनी बेइज्जती समझता था, जबकि बड़ा अफसर होने के चलते वे मुझे गर्व से बुलाते थे और अपने पहचान वालों से मिलवाते थे.

‘‘वह तो ठीक है राणा, पर इन सब बातों का हमारी रिटायरमैंट से क्या लेनादेना?’’ नारायणदास को समझ में नहीं आया कि उन का दोस्त क्यों अपनी पर्सनल बातें उन्हें बता रहा है.

‘‘क्योंकि, इन्हीं बातों के चलते मेरी जिंदगी नरक जैसी हो गई है.’’

‘‘मतलब…?’’ नारायणदास चौंके.

‘‘रिटायरमैंट के कुछ समय बाद मैं अपनी पैंशन के सिलसिले में अपने पुराने औफिस गया था, जहां मेरा कभी एकछत्र राज चलता था. जहां मेरी इजाजत के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता था. वहां गेट पर खड़े चौकीदार न सिर्फ सावधान हो जाते थे, बल्कि जोर से मुझे सैल्यूट भी मारते थे.

‘‘पर, उस दिन उस चौकीदार ने सलामी तो क्या दी, बल्कि वह अपनी कुरसी से उठा तक नहीं. औफिस के अंदर चपरासी और दूसरे मुलाजिमों ने मुझे देख कर भी अनदेखा कर दिया. यह देख कर मैं खुद को बेइज्जत और दुखी महसूस कर रहा था.

‘‘मैं अपना काम पूरा कर के निकल ही रहा था कि गैलरी की खिड़की से किसी की धीरे से आवाज आ रही थी. अपना नाम सुन कर मैं ठिठक गया.

‘‘कोई बोल रहा था, ‘राणा आया है. बहुत परेशान किया था इस ने पूरे 3 साल तक…’

‘‘यह शायद कार्तिक की आवाज थी, जो अकाउंट क्लर्क था. उस के बेटे को पढ़ने के लिए बाहर जाना था, पर मैं ने अड़ंगा लगा दिया था.

‘‘इतने में कोई और बोला, ‘यह तो कुछ भी नहीं है मेरी तकलीफ के सामने. मेरे पिताजी अंतिम समय में थे. इस राणा से खूब गुजारिश की, पर इस ने ‘मंत्रीजी आ रहे हैं’ के नाम पर छुट्टी नहीं दी, तो नहीं ही दी. मैं पिता के अंतिम दर्शन पर ही पहुंच सका था…’

‘‘फिर किसी तीसरे ने कहा, ‘मेरी खुद की भविष्य निधि के पैसे से घर की जरूरी मरम्मत करनी थी, क्योंकि बारिश सिर पर खड़ी थी, पर इस राणा के बच्चे ने आधी रकम ही मंजूर की और मुझे पहली बार किसी से पैसे उधार लेने पड़े थे…’

‘‘फिर किसी की इस बात ने मुझे चौंका दिया, ‘और एक तरफ हमारे नए साहब हैं, जो हमारी समस्या सुन कर उसे हल करते हैं… और नहीं तो कम से कम कोशिश तो करते हैं कि हमारी समस्या को हल कर सकें. मैं ने तो सर को कह दिया कि कभी रविवार या छुट्टी के दिन भी जरूरत पड़े तो हमें बुला लिया करें…’

‘‘उन तकरीबन सभी के पास मेरे दिए कुछ जख्म थे और नए अफसर के लिए अपनापन था. मैं ज्यादा न सुन सका, क्योंकि मैं इतने में ही समझ गया था कि मैं ने अपनी ताकत का बेजा इस्तेमाल किया था.’’

‘‘यही हालत मेरे घर, दोस्तों और समाज में हो गई है. अब मेरा बेटा खुद कमाने लगा है. वह मुझे खुल कर जवाब देता है. अब कोई रिश्तेदार मुझे अपने यहां नहीं बुलाता है. मैं ने हर जगह अपनी इज्जत खो दी है,’’ नारायणदास ने कहा.

‘‘नारायण, मैं तुम्हें यह सब इसलिए कह रहा हूं कि मैं ने आज तुम्हारे औफिस में वही सब देखा, जो मैं करता था. मैं उस वक्त वापस जा कर खुद को अच्छा अफसर साबित नहीं कर सकता, पर तुम्हारे पास अभी भी 2 साल से ज्यादा का समय है,’’ कहते हुए मोहन राणा चाय पीने लगे.

नारायणदास ने अपने दोस्त मोहन राणा के जाने के बाद बहुत सोचा और पाया कि उन की कहानी भी उन के दोस्त मोहन राणा से अलग नहीं है. वे अपनी रिटायर्ड जिंदगी बरबाद नहीं करना चाहते थे. अगले दिन ही वे मीठा बोलने वाले और अच्छा अफसर बनने में लग गए थे.

अनुभव: क्यों थी परेश की जिंदगी अजीब

सूरज तेजी से डूबने वाला था. परेश का मन भी शायद सूरज की तरह ही बैठा हुआ था, लेकिन पहाड़ों की जिंदगी उसे बहुत सुकून देती आई थी. जब भी छुट्टी मिलती वह भागा चला जाता था.

परेश की जिंदगी बहुत अजीब थी. नाम, पैसा, शोहरत सब था लेकिन मन के अकेलेपन को दूर करने वाला साथी कोई नहीं था.

पहाड़ों पर सूरज छिपते ही अंधेरा तेजी से पसरने लगता है. जल्दी ही रात जैसा माहौल छाने लगता है. अचानक एक मोड़ पर जैसे ही कार तेजी से घूमी, परेश की नजर घाटी की एक चट्टान पर पड़ी. एक लड़की वहां खड़ी थी. इस मौसम में अकेली लड़की की यह हालत परेश को खटक गई.

उस ने ड्राइवर को कार रोकने को कहा. ड्राइवर ने फौरन कार रोक दी. ‘चर्र… चर्र…’ की तेज आवाज पहाड़ों के शांत माहौल को चीर गई.

ड्राइवर ने हैरानी से परेश की ओर देखा और पूछा, ‘‘क्या हुआ साहबजी?’’

परेश ने बिना कोई जवाब दिए कार का दरवाजा खोला और बिजली की रफ्तार से उस ओर भागा जहां वह लड़की खड़ी दिखी थी.

परेश ज्यों ही वहां पहुंचा लड़की ने नीचे छलांग लगा दी. लेकिन परेश ने गजब की फुरती दिखाते हुए उसे नीचे गिरने से पहले ही पकड़ लिया.

परेश ने फौरन उस लड़की को पीछे खींचा. वह पलटी तो परेश की ओर अजीब सी नजरों से देखने लगी.

‘‘क्या कर रही थी?’’ परेश ने उस लड़की का हाथ पकड़े हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं…’’ लड़की बोली.

‘‘कहां जाना है? इस वक्त सुनसान इलाके में इतनी खतरनाक जगह… क्या करना चाहती थी?’’ परेश ने फिर गुस्से से पूछा.

‘‘अरे, मैं तो सैरसपाटे के लिए… बस यों ही… पैर फिसल गया शायद…’’ कहते हुए लड़की ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया.

परेश उस लड़की को अपनी कार की ओर ले आया. लड़की ने कोई विरोध भी नहीं किया. ड्राइवर उस लड़की को शक भरी नजरों से घूरने लगा. परेश की पूछताछ अभी भी जारी थी. थोड़ी देर बाद वह लड़की अपने मन का गुबार निकालने लगी.

परेश यह जान कर हैरान हुआ कि वह घर से भागी हुई थी और किसी भी कीमत पर वापस लौटने को तैयार नहीं थी. उस के अशांत मन का गुस्सा साफ झलक रहा था.

‘‘अब कहां ठहरी हो आप?’’ परेश ने पूछा.

‘‘मैं… अरे, मुझे मरना है, जीना ही नहीं, इसलिए ठहरने की क्या बात आई?’’ इतना कह कर वह लड़की खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘यह क्या बात हुई. आप को पता है कि आप के मातापिता कितना परेशान होंगे…’’ परेश ने शांत लहजे में उसे समझाते हुए कहा.

‘‘मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता,’’ वह लड़की बेतकल्लुफ अंदाज से बोली.

‘‘मैं परेश… लेखक. यहां किताब पूरी करने आया हूं.’’

‘‘अच्छा, आप लेखक हैं? फिर तो मेरी कहानी भी जरूर लिखना… एक पागल लड़की, जिस ने किसी की खातिर खुद को मिटा दिया.’’

‘‘आप ऐसी बातें न करें. जिंदगी बेशकीमती है, इसे खत्म करने का हक किसी को नहीं,’’ परेश ने कहा.

‘‘मेरा नाम है गरिमा सिंह… एक हिम्मती लड़की जिसे कोई नहीं हरा सकता, पर नकार जरूर दिया.’’

‘‘आप ऐसा मत कहिए…’’ परेश अपनी बात पूरी करता उस से पहले ही गरिमा ने उस की बात काट दी, ‘‘आप मु  झे यहीं उतार दीजिए…’’

‘‘मैं आप को अब कहीं नहीं जाने दूंगा. क्या आप मेरे साथ रहेंगी?’’

गरिमा ने पहले परेश की तरफ देखा, फिर अचकचा कर हंस पड़ी, ‘‘देख लीजिए, कोई नई कहानी न बन जाए?’’

परेश को शायद ऐसे सवाल की उम्मीद न थी. उस की सोच अचानक बदल गई. आखिर था तो वह भी मर्द ही. जोश को दबाते हुए वह बोला, ‘‘कोई नहीं जो कहानी बने, लेकिन अब अपने साथ और खिलवाड़ मत कीजिए.’’

‘‘मरने वाला कभी किसी चीज से डरा है क्या सर…?’’ इस बार गरिमा की आवाज में गंभीरता झलक रही थी.

अचानक ड्राइवर ने कार रोकी. दोनों ने सवालिया नजरों से उसे देखा. कार में कोई खराबी आ गई थी जिसे वह ठीक करने में जुटा था.

अब रात होने लगी थी. तभी ड्राइवर ने परेश को आवाज लगाई, ‘‘साहब, बाहर आइए.’’

परेश हैरानी से कार से बाहर निकला. ड्राइवर बोनट खोले इंजन को दुरुस्त करने में बिजी था. उस ने गरदन ऊपर उठाई और परेश के कान में फुसफुसा कर कहा, ‘‘साहबजी, कार को कुछ नहीं हुआ है. आप को एक बात बतानी थी, इसलिए यह ड्रामा किया.’’

‘‘क्या?’’ परेश ने पूछा.

‘‘साहबजी, यह लड़की मुझे सही नहीं लग रही. आजकल पहाड़ों में… मुझे डर है कि कहीं आप के साथ कुछ गलत न हो जाए.’’

‘‘अरे, तुम चिंता मत करो… मैं सब समझता हूं.’’

‘‘ठीक है साहब, आप की जैसी मरजी,’’ ड्राइवर ने लाचारी से कहा.

‘‘अच्छा, हमें ऐसी जगह ले चलो जहां भीड़भाड़ न हो,’’ परेश ने कहा.

सीजन नहीं होने से भीड़भाड़ नहीं थी. शहर से थोड़ा दूर एक बढि़या लोकेशन पर उन्हें ठहरने की शानदार जगह मिल गई. ड्राइवर उन्हें होटल में छोड़ कर वापस चला गया.

कमरे में आते ही गरिमा का अल्हड़पन दिखने लगा था. अब ऐसा कुछ नहीं था जिस से लगे कि वह थोड़ी देर पहले जान देने जा रही थी.

रात के 9 बज रहे थे. डिनर आ गया था. गरिमा बाथरूम में थी. थोड़ी देर बाद परेश की ड्रैस पहन कर वह बाहर निकली तो एकदम तरोताजा लग रही थी. उस की खूबसूरती परेश को मदहोश करने लगी.

डिनर निबट गया. एक बैड पर लेटे दोनों उस मुद्दे पर चर्चा कर रहे थे जिस की वजह से गरिमा इतनी परेशान थी.

गरिमा की कहानी बड़ी अजीब थी. कालेज के बाद उस ने जिस कंपनी में काम शुरू किया वहीं उस के बौस ने उसे प्यार के जाल में ऐसा फंसाया कि वह अभी तक उस भरम से बाहर नहीं निकल पा रही थी. अधेड़ उम्र का बौस उसे सब्जबाग दिखाता रहा और उस से खेलता रहा.

जब गरिमा के मम्मीपापा को इस बात की भनक लगी तो उन्होंने उसे बहुत सम  झाया. सख्ती भी की लेकिन एक बार तीर कमान से निकल जाए तो फिर उसे वापस कमान में लौटाना मुमकिन नहीं होता. कुछ परवरिश में भी कमी रही. न पापा को फुरसत और न मम्मी को.

गरिमा को पुलिस का डर नहीं था. वह पहले भी 4 बार ऐसा कर चुकी थी, इसलिए उस के मातापिता अब पुलिस में शिकायत करा कर अपनी फजीहत नहीं कराना चाहते थे.

गरिमा सो चुकी थी. परेश उस के बेहद करीब था. उस की सांसों की उठापटक एक अजीब सा नशा दे रही थी. आहिस्ता से उस का हाथ गरिमा की छाती पर चला गया. कोई विरोध नहीं हुआ. कुछ पल ऐसे ही बीत गए.

परेश कुछ और करता, उस से पहले ही गरिमा ने अचानक अपनी आंखें खोल दीं, ‘‘आप की क्या उम्र है सर?’’

‘‘यही कोई 40 साल…’’ परेश ने जवाब दिया.

‘‘गुड, मैच्योर्ड पर्सन… अच्छा, एक बात बताओ… मैं कैसी लग रही हूं?’’ मुसकराते हुए गरिमा ने पूछा.

‘‘बहुत ज्यादा खूबसूरत,’’ परेश ने जोश में कहा.

इस में कोई शक नहीं था कि गरिमा की अल्हड़ जवानी, मासूमियत से लबरेज खूबसूरती सच में बड़ी दिलकश लग रही थी.

‘‘सच में…?’’

‘‘सच में आप बहुत खूबसूरत हैं,’’ परेश ने अपनी बात दोहराई.

‘‘लेकिन मैं खूबसूरत ही होती तो वह मुझे क्यों छोड़ता… दूध में से मक्खी की तरह निकाल बाहर किया उस ने…’’

‘‘प्लीज गरिमा, आप हकीकत को मान क्यों नहीं लेतीं? जो हुआ सही हुआ. पूरी जिंदगी पड़ी है आप की. वहां उस के साथ क्या फ्यूचर था, यह भी सोचो?’’

‘‘इतना आसान नहीं है सर, किसी को भुला देना. प्यार किया है मैं ने…’’

‘‘मान लिया लेकिन तुम में समझ ही होती तो क्या ऐसे प्यार को अपनाती?’’

‘‘सर, यह सही है कि हम में थोड़ा उम्र का फर्क था लेकिन उस के बीवीबच्चे थे, यह मुझे अब पता चला… धोखा किया उस ने मेरे साथ…’’

‘‘तो फिर तुम उसे अब क्यों याद कर रही हो? बुरा सपना बीत गया. अब तो वर्तमान में लौट आओ?’’

गरिमा ने कोई जवाब नहीं दिया. वह परेश के बहुत करीब लेटी थी. सच तो यह था कि परेश अब बहुत दुविधा में था.

गरिमा का हाथ परेश की छाती पर था. उस का इस तरह लिपटना उसे असहज कर रहा था. उस के अंदर शांत पड़ा मर्द जागने लगा. गरिमा के मासूम चेहरे पर कोई भाव नहीं थे.

‘‘क्या तुम्हें मुझ से डर नहीं लगता?’’ परेश ने पूछा.

‘‘नहीं, मुझे आप पर भरोसा है,’’ गरिमा ने शांत आवाज में जवाब दिया.

‘‘क्यों… मैं भी मर्द हूं… फिर?’’ परेश ने पूछा.

‘‘कोई नहीं सर… अब मैं इनसान और जानवर में फर्क करना सीख गई हूं.’’

गरिमा के जवाब से परेश को ग्लानि महसूस हुई. वह फौरन संभल गया. गरिमा क्या सोचेगी… हद है मर्द कितना नीचे गिर सकता है? परेश का मन उसे कचोटने लगा.

लेकिन गरिमा का अलसाया बदन परेश में भूचाल ला रहा था. गरिमा का खुलापन अजीब राज बन रहा था. वह सम  झ नहीं पा रहा था कि इस इम्तिहान में कैसे पास हो…

गरिमा अब भी उस से लिपटी हुई थी. उस की आंखों में नींद की खुमारी झलक रही थी.

परेश सोच रहा था कि गरिमा का ऐसा बरताव उस के लिए न्योता था या अपनेपन में खोजता विश्वास…

परेश की दुविधा ज्यादा देर नहीं चली. उस की हालत को समझ कर गरिमा बोली, ‘‘अगर आप इस समय मुझ से कुछ चाहते हैं तो मैं इनकार नहीं करूंगी… आप की मैं इज्जत करती हूं… आप ने मुझे आज नई जिंदगी दी है.’’

‘‘अरे नहीं, प्लीज… ऐसा कुछ भी नहीं… तुम दोस्त बन गई हो… बस यही बड़ा गिफ्ट है मेरे लिए,’’ सकपकाए परेश ने जवाब दिया.

‘‘उम्र में छोटी हूं सर लेकिन एक बात कहूंगी… शरीर का मिलन इनसान को दूर करता है और मन का मिलन हमेशा नजदीक, इसलिए फैसला आप पर है…’’

परेश को महसूस हुआ, सच में समझ उम्र की मुहताज नहीं होती. छोटे भी बड़ी बात कह और समझ सकते हैं. 2 दिन सैरसपाटे में बीत गए. परेश की किताब का काम शुरू ही न हो पाया, लेकिन गरिमा अब बिलकुल ठीक थी. वह वापस अपने घर लौटने को राजी हो गई थी.

परेश ने फोन नंबर ले कर उस के पापा से बात की. घर से गुम हुई जवान लड़की की खबर पा कर गरिमा के मम्मीपापा ने सुकून की सांस ली.

परेश और गरिमा अब दोस्त बन गए थे. पक्के दोस्त, जिन में उम्र का फर्क  तो था लेकिन आपसी समझ कहीं ज्यादा थी. परेश की मेहनत रंग लाई और गरिमा अपने घर वापस लौट गई. कुछ दिन बाद उस की शादी भी हो गई. अब वह अपनी गृहस्थी में खुश थी.

परेश के लिए यह सुकून की बात थी. अकसर उस का फोन आ जाता, वही बिंदास, अल्हड़पन लेकिन अब सच में उस ने जिंदगी जीनी सीख ली थी. दिखावा नहीं बल्कि औरत की सच्ची गरिमा का अहसास और जिम्मेदारी उस में आ गई थी.

परेश सोचता था कि गरिमा को उस ने जीना सिखाया या गरिमा ने उसे? लेकिन यह सच था कि गरिमा जैसी अनोखी दोस्त परेश को औरत के मन की गहराइयों का अहसास करा गई.

ललिता : क्यो गुमसुम रहती थी ललिता

सुनीता बाजार से गुजरी, तो एक सब्जी बेचने वाली की आवाज ने उस का ध्यान खींचा. देखा तो उस की ही हमउम्र एक जवान औरत थी. गरीबी के लिबास में लिपटी एकदम सादा खूबसूरती.

उस औरत को देखते ही सुनीता का मन बरसों लांघ कर चौथी जमात में जा पहुंचा. वहां पहुंच कर मन केवल उसी एक चेहरे को तलाशने लगा. उस मासूम, पर उदास चेहरे को.

वह न सुनीता की दोस्त थी, न ही उसे पसंद थी, फिर भी न जाने कौन सा रिश्ता बना था उन के बीच, जो आज सालों बाद भी वह अकसर अपनी याद के साथ सुनीता के सामने आ जाती थी.

सुनीता को वह तब भी बहुत याद आई थी, जब 8वीं जमात की इंगलिश की किताब में रेशमा की कहानी पढ़ी थी, जिस में लिखा था कि कोई भी देख सकता था कि रेशमा गंदी फ्रौक में भी प्यारी लगती थी और सुनीता को रेशमा का पाठ रटतेरटते लगता था कि वह उसे ही रट रही है.

उस की ही तो कहानी थी यह. हां, उसी की कहानी. उस का नाम ललिता था. वह हफ्ते में 3 दिन ही स्कूल आती थी. पढ़ने में बहुत साधारण, बात करने में पीछे रहना और खेलने से दूर भागना.

ललिता जब भी स्कूल आई, लेट आई. सुनीता ने जब भी उसे देखा, उदास ही देखा. जब भी टीचर ने कुछ पूछा, वह चुप ही रही.

चौथी जमात में सुनीता की ललिता से कभी बातचीत नहीं हुई. जब वह 5वीं जमात में आई, तो एक दिन शनिवार की बालसभा के दौरान कुछ लड़कियां जमीन पर अपनाअपना नाम लिख रही थीं, तो ललिता ने टोका, ‘‘क्या कर रही हो? जमीन पर नाम नहीं लिखते.’’

सुनीता ने पूछा, ‘‘क्यों…?’’

ललिता ने कहा, ‘‘ऐसा करने से पिताजी पर कर्ज चढ़ जाता है.’’

ललिता की इस बात पर कुछ लड़कियां हंस दीं और कुछ लड़कियों ने डर के मारे अपना लिखा नाम मिटा दिया.

सुनीता ने पूछा, ‘‘तुम से यह किस ने कहा?’’

‘‘मेरी मां ने,’’ ललिता ने जवाब दिया.

‘‘उन्हें किस ने बताया?’’ सुनीता की सवाल करने की बुरी आदत बचपन से रही थी.

‘‘मुझे क्या पता…’’ ललिता ने खीज के साथ कहा और चुप हो गई.

उस दिन पहली दफा सुनीता ने ललिता को गौर से देखा था. गोरा मासूम चेहरा, मैले कपड़े, फटेपुराने जूते और बेतरतीब 2 चोटियां.

पता नहीं, क्या था उस पल में कि वह लमहा आज भी तसवीर बन कर यादों की गैलरी में हूबहू सजा है. सुनीता को इसी रूप में ललिता की याद आई.

‘‘तुम नहा कर नहीं आई?’’ सुनीता का अगला सवाल था.

ललिता ने अजीब निगाह से सुनीता को घूरा, जैसे कह रही हो कि तुम्हें

क्या मतलब नहाऊं या न नहाऊं? हो कौन तुम?

लेकिन ऐसा कुछ नहीं कहा ललिता ने और बेहद छोटा सा जवाब दिया, ‘‘रोज नहाती हूं.’’

‘‘तो फिर तुम्हारे कपड़े इतने गंदे क्यों हैं?’’ सुनीता का अगला सवाल इस से भी ज्यादा वाहियात था.

ललिता को सुनीता के इस सवाल पर गुस्सा आया या उबकाई, यह उस के चेहरे के भाव से समझ में नहीं आया, लेकिन उस ने जवाब जरूर दिया, ‘‘मां धोती नहीं हैं मेरे कपड़े  और मुझे इतवार को ही समय मिलता है.’’

‘‘क्यों नहीं धोतीं?’’ सुनीता का सवाल पूछने का रवैया पत्रकारों से भी ज्यादा खतरनाक था.

‘‘वे काम करती हैं,’’ ललिता की तरफ से वही उदासी भरा जवाब आया.

‘‘क्या काम करती हैं?’’ सुनीता का खोजी मन जैसे सब जान लेना चाहता था उस से एक ही दिन में.

‘‘बड़े लोगों के घरों में काम करती हैं, झाड़ूपोंछे का,’’ इस बार जवाब देते समय ललिता के चेहरे पर तल्खी थी.

सुनीता अपने सवालों पर शर्म कर के खुद ही चुप हो गई. उस के बाद कभीकभी ललिता से बात हो जाया करती थी, लेकिन बेहद कम. इस बेहद कम बातचीत से इतनी ही जानकारी

जुटा सकी सुनीता कि वे 6 भाईबहन हैं. पापा की कबाड़ की छोटी सी दुकान है. मम्मी घरों में झाड़ूपोंछे का काम करती हैं.

2 बड़ी बहनों की सगाई कर रखी है. वे दोनों 5वीं जमात तक पढ़ी हैं और ललिता को भी घर वाले 5वीं जमात

तक ही पढ़ाएंगे, ताकि वह कुछ लिखनापढ़ना और पैसों का थोड़ाबहुत हिसाब रखना सीख जाए. 3 छोटे भाई हैं, जिन में 2 अभी स्कूल नहीं जाते, छोटे होने के चलते.

एक दिन ललिता सुबहसुबह स्कूल की प्रार्थना में अपनी आदत के मुताबिक हांफती हुई लेट आई. जब प्रार्थना के बाद सब बच्चों ने आंखें खोलीं, तो वे उसे देख कर हंसने लगे.

ललिता की हालत ही कुछ ऐसी थी. उस की दोनों आंखों में काजल भरा था, जो हाथों की रगड़ से फैल कर पूरे चेहरे पर बिखरा हुआ था. बाल बिना कंघी किए और कपड़े हमेशा की तरह गंदे. जब बच्चे क्लास में जाने लगे, तो सुनीता ने उस से मुंह धो लेने के लिए कहा, तो वह मान गई.

सुनीता और ललिता दोनों पानी के नल तक साथ गईं. सुनीता ने पूछा, ‘‘ललिता, तुम ऐसे क्यों आ जाती हो? कम से कम मुंह तो देख कर आना चाहिए था शीशे में और ये बाल देखो. कंघी तो कर ही सकती हो? तुम्हें अजीब नहीं लगता है?’’

ललिता ने कहा, ‘‘हम तीनों बहनों ने अपनाअपना काम बांट रखा है. मैं आज लेट उठी, तो काम देर से हुआ. कंघी करती तो और ज्यादा देर हो जाती, इसलिए सीधे कपड़े बदल लिए थे, लेकिन पता नहीं था कि काजल इतना ज्यादा चेहरे पर फैला हुआ है.’’

अब जब भी सुनीता ललिता का उस दिन का वह चेहरा याद करती है, तो लगता है जैसे किसी मुझे चित्रकार ने बेहद खूबसूरत चित्र बना कर उस पर गलती से काला रंग गिरा दिया हो.

उस दिन सुनीता ने ललिता से लंच के वक्त पूछा था, ‘‘तुम्हारा सपना क्या है? मतलब, तुम बड़ी हो कर क्या बनना चाहती हो?’’

ललिता ने पलभर के लिए सुनीता को देखा और फिर अपने पैरों से जमी घास को कुरेदने लगी. ऐसा करते हुए उस का जवाब था, ‘‘कुछ नहीं.’’

ऐसे सवाल का ऐसा जवाब सुनीता ने फिर कभी नहीं सुना.

खैर, गरमियां गईं, सर्दियां आईं. एक दिन सुनीता ने ललिता को लंच टाइम में अकेले धूप में बैठे देखा. धूप में बैठी

वह कोई पहाड़ी फूल लग रही थी, जो खिला तो था, पर बस्ती से दूर घने एकांत में होने से उस की खुशबू बस्ती वाले महसूस नहीं कर पा रहे थे.

सुनीता ललिता के बगल में जा कर बैठ गई और पूछा, ‘‘खोखो खेलोगी ललिता?’’

‘‘नहीं,’’ उस की आवाज में कभी भी उल्लास महसूस नहीं किया था सुनीता ने.

‘‘क्यों…?’’ सुनीता ने पूछा.

‘‘मन नहीं है,’’ और ऐसा कह कर ललिता अपने नाखूनों को मुंह से कुतरने लगी.

‘‘अच्छा, तुम कभी खेलती क्यों नहीं?’’ सुनीता सिर्फ सवाल करती थी, ललिता हमेशा जवाब देती थी. उस ने कभी कोई सवाल नहीं किया था.

‘‘बस यों ही. मुझे पसंद नहीं है उछलनाकूदना,’’ इतना कह कर ललिता फिर नाखून कुतरने लगी.

‘‘खेलना पसंद नहीं और हंसना भी पसंद नहीं, है न?’’ सुनीता ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा.

ललिता ने सुनीता इस बात पर चौंक कर उसे ऐसे देखा जैसे किसी ने उस के मन पर मुक्का दे मारा हो.

‘‘तुम हमेशा उदास क्यों रहती हो? बताओ न ललिता,’’ इस बार सुनीता ने उस का हाथ पकड़ कर बड़े प्यार से सवाल किया था.

ललिता ने पहले सुनीता के हाथ को देखा और फिर जमीन को देखते हुए बोली, ‘‘मेरी मां मना करती हैं.’’

‘‘हंसने से…?’’ सुनीता ने बेहद हैरानी से पूछा.

‘‘हां,’’ उस का वही छोटा सा जवाब आया.

‘‘लेकिन क्यों…? वे तुम से ऐसा क्यों कहती हैं?

‘‘मां कहती हैं कि लड़कियों को ज्यादा हंसना नहीं चाहिए. गरीब की बेटी को तो कभी भी नहीं.’’

ललिता ने यह जिस ठंडे भाव से कहा था, वह हमेशा के लिए ठहर गया सुनीता के भीतर.

ललिता की मां की बात का मतलब समझाने की समझ उस समय तो नहीं थी और 5वीं जमात के बाद वे दोनों कभी मिली भी नहीं.

लेकिन उस के बाद जब भी कभी सुनीता के या किसी दूसरी लड़की के खिलखिला कर हंसने के जो अलगअलग मतलब लगाए गए समाज में, ललिता की मां की कही बात के गहरे मतलब समझ आने लगे.

जबतब किसी ने सुनीता को हंसते हुए टोका, तो ललिता ठहर गई उस के जेहन में और कानों में उस की कही बात गूंजती कि ‘मां कहती हैं लड़कियों को ज्यादा नहीं हंसना चाहिए’.

पर क्या कोई बताएगा कि क्यों?

अनोखा बदला : राधिका ने क्यों छोड़ा अपना गांव

‘‘तुम क्याक्या काम कर लेती हो?’’ केदारनाथ की बड़ी बेटी सुषमा ने उस काम वाली लड़की से पूछा.

सुषमा ऊधमपुर से अपने बाबूजी का हालचाल जानने के लिए यहां आई थी.

दोनों बेटियों की शादी हो जाने के बाद केदारनाथ अकेले रह गए थे. बीवी सालभर पहले ही गुजर गई थी. बड़ा बेटा जौनपुर में सरकारी अफसर था.

बाबूजी की देखभाल के लिए एक ऐसी लड़की की जरूरत थी, जो दिनभर घर पर रह सके और घर के सारे काम निबटा सके.

‘‘जी दीदी, सब काम कर लेती हूं. झाड़ूपोंछा से ले कर खाना पकाने तक का काम कर लेती हूं,’’ लड़की ने आंखें मटकाते हुए कहा.

‘‘किस से बातें कर रही हो सुषमा?’’ केदारनाथ अपनी थुलथुल तोंद पर लटके गीले जनेऊ को हाथों से घुमाते हुए बोले. वे अभीअभी नहा कर निकले थे. उन के अधगंजे सिर से पानी टपक रहा था.

‘‘एक लड़की है बाबूजी. घर के कामकाज के लिए आई है, कहो तो काम पर रख लें?’’ सुषमा ने बाबूजी की तरफ देखते हुए पूछा.

केदारनाथ ने उस लड़की की तरफ देखा और सोचने लगे, ‘भले घर की लग रही है. जरूर किसी मजबूरी में काम मांगने चली आई है. फिर भी आजकल घरों में जिस तरह चोरियां हो रही हैं, उसे देखते हुए पूरी जांचपड़ताल कर के ही काम पर रखना चाहिए.’

‘‘बेटी, इस से पूछ कि यह किस जाति की है?’’ केदारनाथ ने थोड़ी देर बाद कहा.

‘‘अरी, किस जाति की है तू?’’ सुषमा ने बाबूजी के सवाल को दोहराया.

‘‘मुझे नहीं मालूम. मां से पूछ कर बता दूंगी. वैसे, मां ने मेरा नाम बेला रखा है,’’ वह लड़की हर सवाल का जवाब फुरती से दे रही थी.

‘‘ठीक है, कल अपनी मां को ले आना,’’ सुषमा ने कहा.

‘‘जी दीदी, मैं कल सुबह ही मां को ले कर आ जाऊंगी,’’ बेला ने कहा और तेजी से वहां से चल पड़ी.

‘‘मां, मु?ो काम मिल गया,’’ खुशी से चीखते हुए बेला अपनी मां राधिका से लिपट गई और बोली, ‘‘बहुत अच्छी हैं सुषमा दीदी.’’

बेला को जन्म देने के बाद राधिका अपने गांव को छोड़ कर शहर में आ गई थी. बेला को पालनेपोसने में उसे बहुत मेहनत करनी पड़ी थी. उसे दूसरों के

घरों की सफाई से ले कर कपड़े धोने तक का काम करना पड़ा था, तब कहीं जा कर वह अपना और बेला का पेट पाल सकी थी.

जब राधिका पेट से थी, तब से अपने गांव में उसे खूब ताने सुनने पड़े थे पर उस ने हिम्मत नहीं हारी थी. वह अपने पेट में खिले फूल को जन्म देने का इरादा कर बैठी थी.

‘अरे, यह किस का बीज अपने पेट में डाल लाई है? बोलती क्यों नहीं करमजली? कम से कम बाप का नाम ही बता दे ताकि हम बच्चे के हक के लिए लड़ सकें,’ राधिका की मां ने उसे बुरी तरह पीटते हुए पूछा था.

मार खाने के बाद भी राधिका ने अपनी मां को कुछ नहीं बताया क्योंकि वह आदमी पैसे वाला था. समाज में उस की बहुत इज्जत थी और फिर राधिका के पास कोई सुबूत भी तो नहीं था. वह किस मुंह से कहेगी कि वह शादीशुदा है, किसी के बच्चे का बाप है.

‘एक तो हम गरीब, ऊपर से बिनब्याही मां का कलंक… हम किसकिस को जवाब देंगे, किसकिस का मुंह बंद करेंगे,’ राधिका की मां ने खीजते हुए कहा था.

‘क्या सोचा है तू ने, चलेगी सफाई कराने को?’ मां ने उस की चोटी मरोड़ते हुए पूछा था.

‘नहीं मां, मैं कहीं नहीं जाऊंगी. मैं इस बच्चे को जन्म दूंगी. चाहो तो तुम लोग मु?ो जान से मार दो, पर जीतेजी मैं इस बेकुसूर की हत्या नहीं होने दूंगी,’ राधिका ने रोते हुए अपनी मां से कहा था.

मां की बातों से तंग आ कर राधिका उसे बिना बताए अपने नानानानी के पास चली गई और उन्हें सबकुछ बता दिया.

राधिका की बातें सुन कर नानी पिघल गईं और गांव वालों के तानों को अनसुना कर उस का साथ देने को तैयार हो गईं.

राधिका की मां व नानी यह नहीं जान पाईं कि आखिर वह चाहती क्या है? बच्चे को जन्म देने के पीछे उस का इरादा क्या था?

‘‘मां, चलना नहीं है क्या? सुबह हो गई है,’’ बेला ने सुबहसुबह मां को नींद से जगाते हुए कहा.

‘‘हां बेटी, चलना तो है. पहले तू तैयार हो जा, फिर मैं भी तैयार हो जाती हूं,’’ यह कह कर राधिका ?ाटपट तैयार होने लगी.

सुषमा ने दरवाजा खोल कर उन दोनों को भीतर बुला लिया. केदारनाथ अभी तक सो रहे थे.

‘‘तो तुम बेला की मां हो?’’ सुषमा ने राधिका की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘जी मालकिन, हम ही हैं,’’ राधिका ने जवाब दिया.

‘‘तुम्हारी बेटी सम?ादार तो लगती है. वैसे, घर का सारा काम कर लेती है न?’’

राधिका ने फौरन जवाब दिया, ‘‘बिलकुल मालकिन, मैं ने इसे सारा काम सिखा रखा है.’’

‘‘तो ठीक है, रख लेते हैं. सारा दिन यहीं रहा करेगी. रात को भले ही अपने घर चली जाए.’’

सुषमा ने बेला को हर महीने 500 रुपए देने की बात तय कर ली.

‘‘कौन आया है बेटी? सुबहसुबह किस से बात कर रही हो?’’ केदारनाथ जम्हाई ले कर उठते हुए बोले.

‘‘कोई नहीं बाबूजी, काम वाली लड़की आई है, उसी से बात कर रही थी,’’ सुषमा ने जवाब दिया.

केदारनाथ बाहर निकले तो राधिका के लंबा सा घूंघट निकालने पर सुषमा को अजीब सा लगा.

‘‘अच्छा तो अब हम चलते हैं,’’ राधिका उठते हुए बोली.

‘‘तो ठीक?है, कल से भेज देना बेटी को,’’ सुषमा ने बात पक्की कर के बेला को आने के लिए कह दिया.

राधिका ने राहत की सांस ली. उसे लगा कि वह कीड़ा जो इतने सालों से उस के जेहन में कुलबुला रहा था, उस से छुटकारा पाने का समय आ गया है.

सुषमा को भी राहत मिली कि बाबूजी की देखभाल के लिए अच्छी लड़की मिल गई है. वह दूसरे दिन ही ससुराल लौट गई.

‘‘ऐ छोकरी, जरा मेरे बदन की मालिश कर दे. सारा बदन दुख रहा है,’’ केदारनाथ ने बादाम के तेल की शीशी बेला के हाथों में पकड़ाते हुए कहा.

बेला ने उन के उघड़े बदन पर तेल से मालिश करनी शुरू कर दी.

‘‘तेरे गाल बहुत फूलेफूले हैं. क्या खिलाती है तेरी मां?’’ केदारनाथ ने अकेलेपन का फायदा उठाते हुए पूछा.

‘‘मां,’’ बेला ने चीख कर अपनी मां को आवाज दी. राधिका वहीं थी.

‘‘शर्म करो केदार,’’ राधिका ने जोर से दरवाजा खोलते हुए कहा, ‘‘अपनी

ही बेटी के साथ कुकर्म. बेटी, हट

वहां से…’’

राधिका बोलती रही, ‘‘हां केदारनाथ, बरसों पहले जो कुकर्म तुम ने मेरे साथ किया था, उसी का नतीजा है यह बेला. तुम ने सोचा होगा कि राधिका चुप बैठ गई होगी, पर मैं चुप नहीं बैठी थी. मैं ने इसे जन्म दे कर तुम तक पहुंचाया है.

‘‘यह मेरी सोचीसम?ा चाल थी ताकि तुम्हारी बेटी भी तुम्हारी करतूत को अपनी आंखों से देख सके.’’

केदारनाथ एक मुजरिम की तरह सिर ?ाकाए सबकुछ सुनता रहा.

राधिका ने बोलना बंद नहीं किया, ‘‘हां केदार, अब भी तुम्हारे सिर से वासना का भूत नहीं उतरा है, तो ले तेरी बेटी तेरे सामने खड़ी है. उतार दे इस की भी इज्जत और पूरी कर ले अपनी हवस.

‘‘मैं भी बरसों पहले तुम्हारी हवस का शिकार हुई थी. तब मैं इज्जत की खातिर कितना गिड़गिड़ाई थी, पर तुम ने मु?ो नहीं छोड़ा था. मैं तभी जवाब देती, पर मालकिन ने मेरे पैर पकड़ लिए थे, इसीलिए मैं चुप रह गई थी.

‘‘यह तो अच्छा हुआ कि बेला ने तुम्हारी नीयत के बारे में मु?ो पहले ही सबकुछ बता दिया. इस बार बाजी मेरे हाथ में है.

‘‘क्या कहते हो केदार? शोर मचा कर भीड़ में तुम्हारा तमाशा बनाऊं,’’ राधिका सुधबुध खो बैठी थी और लगातार बोले जा रही थी.

केदारनाथ की अक्ल मानो जवाब दे गई थी. अपनी इज्जत की धज्जियां उड़ती देख वे छत की तरफ भागे और वहां से कूद कर अपनी जिंदगी खत्म कर ली.

बतूल बी : कैसे छला एक अनपढ़गंवार ने सबको

महल्ले की सभी औरतें अच्छी पढ़ीलिखी थीं, पर फिर भी बतूल बी जैसी अनपढ़गंवार औरत उन्हें छल कैसे लेती थी. वह थी तो घरों का काम करने वाली, पर उन घरों में घुस कर वह उन के बारे में जान लेती थी. फिर कुछ ऐसा कर देती थी कि हर घर में उसी की चर्चा छिड़ी रहती थी. बतूल बी ऐसा क्या करती थी?

ट्रक कब का आ चुका था. सीएनजी की लंबी लाइन के चलते निकलने में देर हो गई. रात को साढ़े 11 बजे हम नए शहर के नए मकान में पहुंचे. खाना रास्ते में ही खा लिया था. किसी तरह पलंग डाले और सो गए.

सवेरे हैदर ने फोन कर के थाने से 3 सिपाहियों को बुला लिया. दोपहर तक बहुत सा सामान उन्होंने तरतीब से लगा दिया. एक सिपाही होटल से खाना ले आया. फिर तीनों को छुट्टी देते हुए वहीदा ने किसी मेड को लाने के लिए कहा. रसोईघर का सब सामान धोपोंछ कर लगाना था, जो उस के अकेले के बस का रोग न था.

आधा घंटा आराम कर के वहीदा आसिया और इमरान को मैसेज करने बैठ गई. बदली का हुक्म आने के तुरंत बाद से पार्टियों और भोज के न्योतों का जो सिलसिला बंधा था, वह ट्रक में सामान भर कर रवाना हो जाने के बाद ही रुका था. सवेर नाश्ता एक के यहां, दोपहर का खाना किसी दूसरी जगह तो रात का भोजन तीसरी जगह. रात में वहीदा इतना थक जाती थी कि बच्चों को लंबा मैसेज लिखना भी उस से नहीं हो पाता था.

वहीदा मोबाइल में बिजी थी कि तभी 2 सिपाही आ गए. एक औरत भी साथ आई थी. वहीदा को हैरानी हुई. सिपाही ने बताया कि वह औरत इसी महल्ले में काम करती है. उस ने खुद ही पुकार कर काम करने की इच्छा जाहिर की, तो वे उसे ले आए.

वहीदा को मोबाइल पर बिजी देख कर हैदर ने उस से पूछताछ शुरू की, ‘‘इस महल्ले में किसकिस के घर काम करती हो?’’

‘‘खान मजिस्ट्रेट के यहां, नीली हवेली वालों के यहां, वे जो बड़े इंजीनियर साहब हैं न, उन के यहां और वे जो दोनों कालेज में पढ़ाते हैं, उन के यहां भी. सच तो यह है कि महल्ले में जितने भी बड़े लोग हैं, उन सब के यहां मैं ही काम करती हूं,’’ उस औरत ने बड़ी शान से बताया.

‘‘सामने वालों के घर काम नहीं करतीं क्या?’’ हैदर ने संकेत से पूछा. उन से हैदर की जानपहचान थी. उन्हीं की मदद से हमें यह मकान मिला था.

बहुत ही राजभरे अंदाज से वह औरत आवाज दबा कर बोली, ‘‘सुना है, साहब के चचा ससुर ने किसी गाने वाली से निकाह किया है. मैं ऐसे घरों में काम नहीं करती.’’

वह खनकती हुई आवाज और राजभरा अंदाज देख कर वहीदा को मोबाइल रख देना पड़ा. नजर उठाई तो देखा, बड़ेबड़े लाल फूलों वाली कसी हुई साड़ी, उसी रंग का फैशन वाला आस्तीन का ब्लाउज, छोटे से जूड़े में फूल लगाया हुआ, आंखों में काजल की गहरी लकीर, होंठ पान की लाली से लाल, एक पैर पीछे कर के दीवार से टिकी वह औरत हथेली पर तंबाकू मलते हुए खड़ी थी.

जब उस ने वहीदा को अपनी ओर देखते पाया, तो बोली, ‘‘मैडमजी, हम सैयदों के खानदान से हैं. हमारा काम भी बहुत अच्छा है. इधर एक जज साहब के यहां मैं काम करती थी. बदली हो जाने से वे चले गए. 4 साल बाद और भी बड़े साहब बन कर लौटे तो बोले, ‘बतूल बी को बुलाओ. हमारे घर का काम तो बस वही कर सकती है.’ ऐसा नाम है हमारा.’’

वहीदा ने अनसुनी करते हुए कहा, ‘‘दोनों समय के बरतन, कपड़े होंगे, रोज पोंछा लगाना होगा. सारी शैल्फें भी साफ करोगी. घर में हम

2 ही लोग हैं, पर बरतन 4 के सम झ कर चलो. छुट्टियों में मेहमान आते हैं. हां, बरतनों में प्लास्टिक की सारी बालटियां, कुरसियां भी चमकानी पड़ेंगी. ऐसा न हो कि बाद में तकरार करो कि ये बरतनों में नहीं आते.’’

‘‘नहीं बीबीजी,’’ कल्ले में तंबाकू भरते हुए वह बोली, ‘‘मैं तकरार नहीं करती. मेरा रिकौर्ड है, एक बार जिस का काम पकड़ लिया, फिर छोड़ा नहीं.’’

तब वहीदा क्या जानती थी कि उस ने यह रिकौर्ड कैसे बनाया है. 1,500 रुपए पर बात तय हो गई. बतूल बी काम पर आने लगी.

हैदर पुलिस महकमे में थे. एक जगह पर 2-3 साल से ज्यादा न रह पाते थे. आसिया और इमरान के स्कूल में जाने के काबिल होते ही वहीदा ने उन्हें बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया. हर शहर के माहौल में जो भिन्नता और शिक्षण संस्थाओं में लैवल का जो फर्क होता है, उस से बच्चे तालमेल नहीं बैठा पाते. बच्चों के जाने से वह अकेली हो जाती, तो किसी न किसी प्राइवेट कालेज में समय गुजारने को नौकरी कर लेती.

दूसरे दिन बतूल बी काम पर आई. आते ही पूछा, ‘‘मैडमजी, आप सैयद हैं या शेख?’’

वहीदा ने तेज आवाज में कहा, ‘‘मैं सैयद हूं या शेख, तुम्हें इस से क्या? काम करना है करो, बेकार की बातें पूछने की कोई जरूरत नहीं,’’ वहीदा को गुस्सा तो बहुत आया. चली है काजल की कोठरी में घुसने और चाहती है कालिख भी न लगे.

तीसरे दिन बतूल बी बोली, ‘‘आप के बच्चे नहीं हैं क्या? कितने साल हुए आप की शादी को? मेरे मामू तावीज देते हैं. कहें तो ले आऊं?’’

वहीदा ने कहा, ‘‘तुम्हें फिक्र करने की जरूरत नहीं. मेरे 2 जुड़वां बच्चे हैं आसिया और इमरान, 10 साल के. बोर्डिंग में पढ़ते हैं. छुट्टियों में यहां आते हैं. हम लोग भी मिलने जाते हैं उन से.’’

फर्श पोंछतेपोंछते वह वहीं बैठ गई. कमर में खोंसी हुई थैली निकाल कर वह तंबाकू रगड़ते हुए बोली, ‘‘आप को बच्चों की याद नहीं आती? मुझे तो कोई लाख रुपए दे, तब भी अपने बच्चों को नजरों से दूर न भेजूं. आप का मन कैसे होता है?’’

वहीदा ने उसे घूर कर देखा, ‘‘मेरे बच्चे पढ़ेंगेलिखेंगे, बड़े आदमी बनेंगे, उन का भविष्य बनाने के लिए कुछ बलिदान तो देना ही होगा. तुम्हारी लड़कियां गंदी बहती हुई नाक लिए तुम्हारे साथ बरतन मांजती फिरती हैं. तुम उन्हें स्कूल क्यों नहीं भेजती?’’

‘‘वे जाती ही नहीं तो मैं क्या करूं?’’ वहीदा की बात उड़ा कर वह अपने काम में लग गई.

धीरेधीरे वहीदा बतूल बी को सम झ रही थी. उसे इधर की उधर और उधर की इधर लगाने का बहुत  शौक था. दोपहर का समय वहीदा का लिखनेपढ़ने का होता. तब इस की कैंची की तरह चलती जबान उसे बहुत बुरी लगती.

एक दिन वह बोली, ‘‘आप 2 लोग हैं घर में. पर इतने सारे बरतन निकलते हैं आप के. खान मजिस्ट्रेट के घर में मियांबीवी और 3 बच्चे हैं. मुट्ठीभर चावल पकाती हैं और बैगन की सब्जी.’’

वहीदा ने टोका, ‘‘बतूल बी, दूसरों के घर में क्या पकता है और क्या नहीं, मु झे इस से कोई मतलब नहीं.’’

वह मन मार कर चुप रह गई. वहीदा ने सोचा कि वह उन का स्वभाव सम झ गईर् होगी, पर कुत्ते की दुम तो टेढ़ी रहती है. 3 दिन बाद फिर वही मुद्दा निकाल बैठी.

‘‘आप की मैं सब जगह तारीफ करती हूं मैडमजी. वह 2 नंबर के मकान वाले हैं न, इमली के पेड़ के सामने वाला मकान है, एक से एक बढि़या सिंगार कर के निकलती हैं मांबेटी. पर मकान देखो तो जैसे कबाड़खाना, रसोईघर के बरतन काले कीट…’’

वहीदा ने उसे डांट दिया, ‘‘बतूल बी, मैं ने कह दिया है न तुम से. मेरी तारीफ कहीं मत करो, न दूसरों की बातें मु झे बताओ. और देखो, मु झे कालेज का बहुत काम रहता है. चुपचाप अपना काम कर के चली जाया करो.’’

वैसे, बतूल बी के काम से वहीदा को कोई शिकायत नहीं थी, इसीलिए एक दिन सामने के मकान वाली मिसेज कादरी ने जब कहा कि आप ने बतूल बी को काम पर लगा कर अच्छा नहीं किया, तो वहीदा चौंक गई.

उन्होंने आगे बताया, ‘‘अभी नयानया आप के घर का काम पकड़ा है, इसलिए कुछ दिन बराबर काम पर आएगी, फिर शादीब्याह या बीमारी का बहाना बना कर चली जाया करेगी. समय पर नहीं आएगी. आप उस से कुछ कहेंगी तो काम छोड़ देगी. दूसरी किसी को अपनी जगह पर काम भी नहीं करने देगी. लड़ झगड़ कर, मार कर भगा देगी.

‘‘आप को उसे उस की सभी गलतियों के साथ स्वीकारना पड़ेगा. बड़ी चच्ची और बेगम खान के साथ यही हुआ. महीनाभर दोनों ने खुद काम किया, फिर हार कर उसे बुलाना पड़ा.’’

वहीदा यह सुन कर दंग रह गई. धीरेधीरे महल्ले की दूसरी औरतों से भी बतूल बी की बातें सुनने को मिलीं.

वहीदा ने सोचा, ‘मैं तो उस से ज्यादा बोलती नहीं. जब तकरार की नौबत  आएगी, तब देखा जाएगा.’

उस दिन मिसेज कादरी के बेटे के जन्मदिन की पार्टी में महल्ले की तकरीबन सभी औरतें आई थीं. वहीदा ने एक खास बात नोट की. बेगम खान और बड़ी चच्ची ने उन से बात नहीं की. खदीजा बेगम के बात करने का ढंग ऐसा था, जैसे किसी बात की टोह में लगी हों.

अगर इन लोगों ने अपने घमंड में ऐसा किया होता तो वहीदा उन को अनदेखा कर देती, पर उन्हें लगा जैसे वे सब उन के बारे में किसी भरम का शिकार हैं.

पार्टी के बाद वहीदा ने मिसेज कादरी को यह बात बता कर सचाई का पता करने को कहा. मिसेज कादरी ने 2 दिन बाद उन्हें जोकुछ बताया, उसे सुन कर वे हैरान रह गई. तुरंत उन्होंने मिसेज खान, बड़ी चच्ची, खदीजा बेगम और उन तीनों को, जिन के घर बतूल बी काम करती थी, अपने घर बुलाया.

कोरोना हटने के बाद जैसे बहुत सारे राज फाश हुए थे, वैसे ही उन सब के मिलबैठने से बतूल बी की लगाईबु झाई के अनेक राज सामने आए. उन सब को मालूम हुआ कि उस अनपढ़गंवार औरत द्वारा वे सब कैसी छली गई हैं.

मिसेज खान को बतूल बी ने बताया कि मैं यानी वहीदा कहती है कि वे एक समय खा कर पैसे बचाती हैं, इसीलिए सोने से लदी रहती हैं, बड़ी चच्ची को बताया कि मैं उन के बनठन कर घूमने पर एतराज करती हूं.

वहीदा ही नहीं, बल्कि सब की पोल वहां खुल गई. जिन घरों में बतूल बी काम करती थी, उन सब की बात वह इधर से उधर करती थी. कभी पूरी सच्ची बात बता कर, कभी बात का बतंगड़ बना कर उस ने सब के मन एकदूसरे की ओर से फेर दिए थे. वैसे भी बात को नमकमिर्च लगा कर बताने की कला पीढ़ी दर पीढ़ी इन लोगों में चली आती है.

सब की बात सुन कर वहीदा ने कहा, ‘‘हमारे लिए यह शर्म की बात है कि एक साधारण मेड द्वारा हम छले जाएं. कुसूर बहुतकुछ हमारा भी है. हम क्यों इसे बढ़ावा देते हैं? हमें चाहिए कि जैसे ही यह दूसरों की बुराइयां करने लगे, इसे रोक दो.

हम दूसरों की बात बड़े शौक से सुनते हैं, पर दूसरे हमारे बारे में कुछ बोलें, यह हमें सहन नहीं होता. हमारी इसी सोच का फायदा बतूल बी ने उठाया है.’’

बड़ी चच्ची ने वहीदा का समर्थन किया. वे बोलीं, ‘‘जो हुआ सो हुआ. अब यह बताओ कि किया क्या जाए? उसे सबक कैसे सिखाया जाए?’’

वहीदा ने कहा, ‘‘हम सब बतूल बी को एक महीने का नोटिस दे दें. इस एक महीने में वह दूसरे महल्ले में काम ढूंढ़ ले. एक महीने में वह अपनी आदतें सुधार लेगी तो उसे काम पर से नहीं हटाएंगे.’’

वहीदा की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि बतूल बी वहां आ गई. सब को वहां देख वह कुछ घबराई, कुछ हैरान हुई.

वह सिर  झुका कर बरतन उठाने चली ही थी कि वहीदा ने पुकार लिया और कहा, ‘‘बतूल बी, हम सब को तुम्हारी लगाईबु झाई का पता चल चुका है. अब तुम कहीं और काम ढूंढ़ लो. ठीक एक महीने बाद तुम को इन सातों घरों से जवाब मिल जाएगा.

रही तुम्हारे इस रिकौर्ड की बात कि तुम किसी दूसरी मेड को काम नहीं करने दोगी, तो अच्छी तरह सुन लो कि हम ने उस का भी इंतजाम कर लिया है. एक महीने बाद मेरे 2 सिपाही तुम्हें इस महल्ले में घुसने भी नहीं देंगे.’’

पासा पलट चुका था. बतूल बी खामोश खड़ी रही.

एक हफ्ते बाद हैदर के नाम क्वार्टर अलौट हो गया. वहीदा ने वह महल्ला छोड़ दिया. कोई 2 महीने बाद ईद

मिलने महल्ले में गई तो पता चला कि बतूल बी अब सीधी हो गई है और उस ने मिसेज कादरी के घर का भी काम पकड़ लिया है.

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