हाय हैंडसम – भाग 1 : प्रेम की दिवानी गौरी का क्या हुआ

प्यार आजाद है, उम्र नहीं देखता. यह किसी भी उम्र में, किसी से भी हो सकता है.  कमसिन उम्र की गौरी दिल लगा बैठी थी अपनी उम्र से ढाईगुना बड़े व्यक्ति से. प्रेम में दीवानी गौरी का यह महज बचपना था या वाकई उस के प्यार में कोई अलग बात थी?

‘प्यार दीवाना होता है, मस्ताना होता है, हर खुशी से हर गम से बेगाना होता है…’ मैं जब इस फिल्मी गाने को सुनता था तो मन में यही सोचता था, क्या वाकई प्यार दीवाना और मस्ताना होता है? लेकिन जब प्यार में दीवानीमस्तानी, हर खुशी हर गम से बेगानी एक लड़की से मुलाकात हुई तो यकीन हो गया, वास्तव में प्यार दीवाना और मस्ताना होता है.

4 साल पहले मैं फेसबुक खूब चलाता था. उसी दौरान मेरे मैसेंजर बौक्स में एक मैसेज आया, ‘हैलो…’

मैं ने मैसेज बौक्स के ऊपर नजर डाली, नाम था गौरी. इतनी देर में दूसरा मैसेज आ गया, ‘हैलो, आप कहां से हैं?’

मैं ने मैसेज में अपने शहर का नाम टाइप किया, साथ ही उस से पूछा, ‘आप कौन?’

‘जी, मेरा नाम गौरी है.’

‘ओके. कहां से हो?’ मैं ने मैसेज का जवाब दिया.

‘जी, मैं मुरादाबाद से हूं. क्या मैं आप से बात कर सकती हूं?’ उस ने अगला मैसेज किया.

‘बात तो आप कर ही रही हैं,’ मैं ने मजाकिया अंदाज में मैसेज किया.

‘जी, मेरा मतलब है, आप मु?ो अपना मोबाइल नंबर देंगे?’

‘मोबाइल नंबर क्यों?’

‘आप से बात करनी है.’

‘तुम करती क्या हो?’ मैं ने पूछा.

‘स्टडी, मैं इंटरमीडिएट के एग्जाम की तैयारी कर रही हूं.’

‘तुम इंटरमीडिएट में पढ़ती हो?’ मैं चौंका.

‘हां, लेकिन आप को हैरानी क्यों हो रही है?’

‘वो… बस, ऐसे ही. तुम मु?ा से क्या बात करोगी, मेरी उम्र मालूम है तुम्हें?’

‘जी, मैं ने आप की प्रोफाइल देखी है, आप की उम्र करीब 50 साल है.’

‘उम्र ही मेरी 50 साल नहीं है, मेरे 2 बच्चे भी हैं, वे भी तुम से बड़े.’

‘इस में आश्चर्य की क्या बात है. शादी के बाद बच्चे तो सभी के होते हैं. आप के भी हैं. एक बात बोलूं, आप बहुत हैंडसम हैं.’

‘फोटो में तो सभी हैंडसम दिखते हैं.’

‘सुनिए, मु?ो आप से प्यार हो गया है.’

‘क्या कहा तुम ने?’ मु?ो अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ.

‘आई लव यू… आई लव यू सो मच,’ उस ने फिर मैसेज किया.

‘तुम पागल तो नहीं हो?’

‘हां, मैं आप की प्रोफाइल फोटो देख कर पागल हो गई हूं.’

‘ज्यादा इमोशनल होने की जरूरत नहीं है. मेरी एक बात ध्यान से सुनो, बेटा.’

‘हाय… क्या कहा, बेटा… कितना अजीब इत्तफाक है, मेरे पापा भी मेरी मम्मी को प्यार से बेटा ही बुलाते हैं. आप के मुंह से बेटा शब्द सुन कर अच्छा लगा,’ उस ने रोमांटिक अंदाज में मैसेज भेजा.

‘तुम नादानी में कुछ भी बोले जा रही हो.’

‘मैं होशोहवास में बोल रही हूं.’

‘चलो, फिर से बेटा, अच्छा चलो, ऐसे ही बोलो आप.’

‘तुम चाहती क्या हो?’

‘इतनी जल्दी है आप को यह सुनने की?’

उस की बात से मैं ?ोंप गया था, फिर संभल कर मैं ने उस से कहा, ‘अगर तुम्हारे मम्मीपापा को तुम्हारे बारे में पता चला कि तुम किसी भी इंसान से ऐसी बातें करती हो तो उन पर क्या…’

‘सुनिए हैंडसम, अब मैं आप को हैंडसम ही बोला करूंगी और आप मु?ो बेटा,’ उस ने मेरी बात को बीच में ही काटते हुए कहा, ‘‘हां तो हैंडसम, मैं कह रही थी, मैं हर किसी से ऐसे नहीं बोलती हूं, आप से ऐसे बोलने का मन हुआ, तो बोल रही हूं. दूसरी बात, मेरे मम्मीपापा के मु?ो ले कर जो भी ड्रीम्स हैं उन्हें तो मैं हंड्रैड परसैंट पूरे करूंगी. पर ड्रीम्स से दिल का क्या लेनादेना. उसे तो इन सब चीजों से दूर रखिए. बेचारा मेरा नन्हामुन्ना, प्यारा सा एक ही तो दिल था उसे भी आप ने चुरा लिया.’

‘फालतू बातें मत करो.’

‘प्लीज हैंडसम, मु?ो अपना नंबर दो न, मु?ो आप से बहुत सारी बातें करनी हैं.’

‘नहीं, मैं तुम्हें नंबर नहीं दूंगा और तुम भी अब मु?ो मैसेज मत करना.’

‘सुनिए, औफलाइन मत होना, प्लीज.’

‘चुप रहो, मु?ो तुम से कोई बात नहीं करनी है.’

‘ऐसा मत कहिए, प्लीज, अपना नंबर दे दो न.’

‘कहा न, मैं तुम्हें नंबर नहीं दूंगा और न ही आज के बाद कोई मैसेज करूंगा,’ यह मैसेज भेजते हुए मैं ने फेसबुक लौगआउट कर दिया.

अगले दिन मैं औफिस टूअर पर कई दिनों के लिए दिल्ली चला गया. इस बीच मैं ने फेसबुक ओपन नहीं किया. दिल्ली से वापस आने के बाद रात को मैं ने लैपटौप पर फेसबुक लौगइन किया. मैसेज बौक्स में कई मैसेज मेरा इंतजार कर रहे थे. उन मैसेजेस में गौरी का मैसेज भी था. उस के मैसेज को देख कर मेरा दिल धक्क से हो गया. मन में सोचने लगा, यह लड़की जरूर सिरफिरी या पागल है. मैं तो इसे भूल गया था और यह? मैं ने उस के मैसेज पर क्लिक कर दिया. वही हंसतामुसकराता मासूम सा चेहरा सामने आ गया. मैसेज में लिखा था, ‘कहां हो हैंडसम, अपना नंबर दो न प्लीज.’ उस के मैसेज का मैं ने कोई रिप्लाई नहीं किया.

कई दिनों बाद मेरे मोबाइल पर एक अनजानी कौल आई. मैं ने कौल रिसीव की. दूसरी तरफ से खिलखिलाती हंसी सुनाई दी. उस के बाद आवाज आई, ‘हाय हैंडसम.’

उस आवाज को सुन कर मैं एकदम सकते में आ गया. दूसरी तरफ से फिर आवाज आई.

‘आप ने क्या सम?ा था, आप फेसबुक से दूर हो गए तो हम आप को अपने दिल से दूर कर देंगे. नहीं हैंडसम, ऐसा नहीं होगा. आप ने गौरी का दिल चुराया है. उस का चैन, उस की रातों की नींद चुराई है तो हम आप को कैसे भूल जाएंगे. हैंडसम, हम ने आप से सच्चा प्यार किया है. आप ने नंबर नहीं दिया तो क्या हुआ, आप फेसबुक से दूर हो गए तो क्या हुआ, हम तो आप से दूर नहीं हुए. हम ने आप का नंबर ढूंढ़ ही लिया. कोई बात नहीं, आप दुखी मत होइए. हम आप को परेशान भी नहीं करेंगे. क्या करें, हम आप पर मरमिटे हैं, इसलिए कभीकभार हम से बात कर लिया करो, ताकि हम जिंदा रह सकें.

क्या करें हैंडसम, हम तो दिल के हाथों मजबूर हो गए. दिल तो दिल ही है, कर बैठा आप से प्यार, तो कर बैठा. वैसे, आप हमारे ऊपर आंख मूंद कर भरोसा कर सकते हैं. हमें गर्व होता है अपनेआप पर जब हम सोचते हैं हमें प्यार भी हुआ तो एक मशहूर लेखक से. कभी तो हम भी उस की कहानी का हिस्सा बनेंगे. क्या हुआ… आप की खामोशी बता रही है, आप हमारी बेस्वादी बातों को सुन कर बोर हो रहे हैं. तभी तो कुछ बोल नहीं रहे हैं, हम ही बोले जा रहे हैं.’

‘क्या चाहती हो तुम?’ मैं ने ?ां?ालाते हुए कहा तो वह तपाक से बोली, ‘आप से मिलना चाहते हैं एक बार बस. एक बार हम से मिल लो, फिर आप जैसा कहोगे, हम वैसा ही करेंगे. हैंडसम प्लीज, न मत करना. हम जानते हैं आप बहुत सज्जन हैं. हम से बात करते हुए आप को ?ि?ाक होती है. पर हम सचमुच आप से प्यार करने लगे हैं.

आप हम से बिलकुल भी न घबराएं. हम न चालबाज हैं, न धोखेबाज. हमें आप से फोन रिचार्ज भी नहीं करवाना है, और न ही आप को ब्लैकमेल करना है. उम्र भी हमारी 20 साल है. आप को हम से कैसी भी कोई टैंशन नहीं मिलेगी. एक बार आप से मिलने की तमन्ना है. बस, वह पूरी कर दीजिए. हैंडसम, हम जानते हैं हमें ऐसी गलती नहीं करनी चाहिए.

‘हम यह भी नहीं चाहते कि हमारी गलती की सजा आप को मिले. आप हमारे बारे में कैसेकैसे अनुमान लगा रहे होंगे, हम कौन हैं, कहीं हम आप को गुमराह तो नहीं कर रहे हैं. हम लड़की हैं भी या नहीं, कहीं हम आप को किसी जाल में तो नहीं फांस रहे हैं. क्योंकि, आजकल ऐसा हो रहा है.

सोशलसाइट पर फेक आईडी बना कर लोग लोगों को ब्लैकमेल करते हैं, पर हम ऐसे नहीं हैं. हम सीधीसादी लड़की हैं. पैसे की भी हमारे पास कमी नहीं है. मम्मीपापा दोनों बिजनैस में हैं. हम उन की इकलौती, वह भी लाड़ली, संतान हैं. बहुत प्यार करते हैं मम्मीपापा हमें. पर क्या करें हम आप को प्यार करने लगे. आप का प्रोफाइल फोटो देख कर हमारा दिल हमारे काबू में नहीं रहा. आप के मन में हमें ले कर जो भी भ्रम हैं, वह हम मिल कर दूर कर लेंगे. हैंडसम, हमें इग्नोर मत करना वरना हमारा नन्हा सा, मासूम सा दिल टूट जाएगा.’

मैं ने उस से पीछा छुड़ाने की गरज से कह दिया, ‘अच्छा ठीक है. मैं अगले सप्ताह औफिस के काम से दिल्ली जाते वक्त तुम से मिल लूंगा.’ इतना सुनते ही वह खुशी से उछल पड़ी और बोली, ‘‘हैंडसम, आना जरूर, धोखा मत देना.’’

‘ठीक है, इस बीच तुम भी मु?ो फोन मत करना, मैं खुद तुम्हें फोन कर लूंगा.’

‘ठीक है, हमे मंजूर है, नहीं करेंगे हम आप को फोन.’

‘हां, मैं ने भी कह दिया तो जरूर आऊंगा.’

मैं ने गौरी से कह तो दिया लेकिन मेरे जेहन में उस की बातें उथलपुथल मचाने लगीं. कभी सोचता, मैं कहां फंस गया, कभी अपने मन में उस की काल्पनिक तसवीर बनाने लगता, वह ऐसी दिखती होगी, वह वैसी दिखती होगी. एक बार मन में आया, मैं घर में पत्नी को बता दूं. फिर सोचा, पत्नी ने मेरी बातों पर यकीन नहीं किया तो… फालतू में बात का बतंगड़ बन जाएगा. घर में हंगामा खड़ा हो जाएगा. नहीं, मैं पत्नी को नहीं बताऊंगा. मु?ो नहीं लगता कि वह लड़की गलत हो. वह भटक गई है, उस से मिल कर मु?ो उस को सम?ाना होगा, वरना उलटेसीधे हाथों में पड़ कर वह अपना जीवन बरबाद कर सकती है.

एक दिन जब मैं ने उस को फोन कर के बताया कि मैं कल सुबह 11 बजे तक उस के पास पहुंच जाऊंगा, मु?ो मिल जाना, तो वह खुशी से जैसे पागल हो गई. कई बार एक सांस में, ‘आई लव यू… आई लव यू सो मच…’ बोलती चली गई. मैं ने बिना किसी प्रतिक्रिया के फोन डिसकनैक्ट कर दिया.

रात को औफिस के ड्राइवर का फोन आया, ‘सर, सुबह को कितने बजे गाड़ी ले कर आऊं?’

मैं ने सोचा, अगर ड्राइवर के साथ मैं गौरी से मिलूंगा तो ड्राइवर औफिस में सब को बता देगा और फिर यह बात घर तक भी पहुंच जाएगी. इसलिए मैं ने ड्राइवर से ?ाठ बोला. मैं ने कहा, ‘मैं तो मुरादाबाद में ही हूं. रात को यहीं रुकना पड़ेगा. ऐसा करो, तुम कल दोपहर को 12 बजे तक यहां आ जाना, हम यहीं से दिल्ली चलेंगे.’

‘ठीक है सर,’ कह कर ड्राइवर ने फोन काट दिया.

खूबसूरत लम्हे – भाग 2 : दो प्रमियों की कहानी

जब मूड होता तो संगीता अपनी मातृभाषा पंजाबी बोलती. तब शेखर वाकई में खुल कर हंस पड़ा. उस के सामने जब संगीता ने टिफिन बौक्स खोला तो परांठों की महक सूंघ कर ही शेखर खुश हो गया.

दोनों ने जी भर कर परांठे खाए. परांठे खाने के बाद संगीता बोली, ‘‘चलो, अब लस्सी पिलाओ.’’

शेखर सकुचाते हुए बोला, ‘‘अभी क्लास शुरू होने वाली है, लस्सी कल पी लेंगे.’’

संगीता बेधड़क बोली, ‘‘बड़े कंजूस बाप के बेटे हो यार, लस्सी पीने का मन आज है और तुम अगले जन्म में पिलाने की बात करते हो. मेरी कुछ कद्र है कि नहीं. अभी यदि एक आवाज दूं तो लस्सी की दुकान से ले कर यहां तक लस्सी लिए लड़कों की लाइन लग जाए.’’

शेखर फिर मुसकरा कर रह गया. संगीता टिफिन बौक्स समेटती हुई बोली, ‘‘ठीक है, चलो मैं ही पिलाती हूं. मेरा बाप बड़े दिल वाला है. मिलिट्री औफिसर है. एक बार पर्स में हाथ डालते हैं और जितने नोट निकल आते हैं, वे मुझे दे देते हैं. किसी की इच्छा पूरी करना सीखो शेखर, बस किताबी कीड़ा बने रहते हो. लाइफ औलवेज नीड्स सम चेंज.’’

‘‘ठीक है, चलो पिलाता हूं लस्सी, अब भाषण देना बंद करो,’’ शेखर आग्रह भरे स्वर में बोला.

‘‘मुझे नहीं पीनी है अब लस्सी,’’ संगीता मुसकराते हुए बोली, ‘‘जिस ने पी तेरी लस्सी वह समझो फंसी, मैं तो नहीं ऐसी.’’

फिर कालेज कंपाउंड से निकल कर दोनों बाजार की ओर चल पड़े. चौक पर ही लस्सी की दुकान थी. कुरसी पर बैठते ही संगीता ने एक लस्सी का और्डर दिया. शेखर तब कुतुहल भरी दृष्टि से संगीता को निहारने लगा. संगीता ने टेबल पर सर्व किए गए लस्सी के गिलास को देख कर शेखर की तरफ देखा और जोर से हंस पड़ी.

शेखर धीरेधीरे उस की शोखी और शरारत से वाकिफ हो गया था. अत: वह लस्सी के गिलास को न देख कर दुकान की छत की ओर निहारने लगा. संगीता ने उस से चुटकी बजाते हुए कहा, ‘‘शेखर, लस्सी इधर टेबल पर है आसमान में नहीं है, ऊपर क्या देख रहे हो.’’

उस ने आवाज दे कर मैनेजर को बुलाया. उस के करीब आते ही वह उस पर बरस पड़ी, ‘‘इस टेबल पर कितने लोग बैठे हैं?’’

‘‘2,’’ मैनेजर ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

‘‘फिर लस्सी एक ही क्यों भेजी, तुम्हारे आदमी को समझ में नहीं आता है,’’ संगीता के तेवर गरम हो गए.

मैनेजर गरजते हुए बोला, ‘‘अरे, ओ मंजीते, तेरा ध्यान किधर है, कुड़ी द खयाल कर और एक लस्सी ला.’’

मंजीत कहना चाहता था कि मैडम ने एक ही और्डर दिया था, पर कह न सका और उसे काफी डांट पड़ी.

शेखर को यह सब पसंद नहीं आया. वह संगीता से नाराजगी भरे लहजे में बोला, ‘‘तुम ने और्डर तो एक ही लस्सी का दिया था फिर उसे डांट क्यों खिलवाई?’’

संगीता शरारती लहजे में बोली, ‘‘तुम्हें इतना बुरा क्यों लगा. वह तुम्हारा सगा है क्या? तुम को मालूम है, मैं जब भी अकेले लस्सी पीने आती हूं तो वह मुझे घूरघूर कर देखता है, लस्सी देर से देता है या फिर स्पर्श के लिए लस्सी हाथ में पकड़वाने की कोशिश करता है. आज उसे सबक मिला. अब लस्सी पीओ और दिमाग बिलकुल कूल करो.’’

शेखर ने लस्सी पीते हुए कहा, ‘‘तुम हो ही इतनी खूबसूरत कि लोग तुम्हें निहारे बिना रह नहीं सकते.’’

‘‘फिर चौराहे पर खड़ा कर के नोच डालो न मुझे, यह समाज तो मर्दों का है न, खूबसूरत होना क्या गुनाह है,’’ संगीता गुस्से में बोली. शेखर तब उसे बहलाने के खयाल से बोला, ‘‘अरे, लस्सी पी कर लोग कूल होते हैं, पर तुम तो गरम हो रही हो.’’

फिर शांत मन से संगीता लस्सी पीते हुए बोली, ‘‘अगर मेरा वश चले तो तुम्हें सिर्फ एक दिन के लिए लड़की बना दूं. तब तुम सब की नजरों को अपने पर देखो, उन के चेहरे के भाव समझो, उन की नीयत पहचानो, क्योंकि अभी तो तुम्हें सिर्फ कजरारे नयन और मधुर मुसकान नजर आती है.’’

शेखर एक कड़वी सचाई को सुन कर एकदम चुप हो गया.

कई दिन से संगीता कालेज में नजर नहीं आई. शेखर काफी परेशान हो गया. न कालेज में, न घर में, न अकेले में, कहीं भी उस का दिल न लगता. किसी तरह उस की एक सहेली से पता चला कि वह बीमार है और नर्सिंगहोम में भरती है. वह दौड़ पड़ा नर्सिंगहोम की ओर, काफी रात हो चुकी थी. संगीता बैड पर लेटी थी. नर्स से पता चला कि वह अभी दवा खा कर सोई है. कई रात से वह सो न सकी, नर्स शेखर की बदहवासी देख पूछ बैठी, ‘‘जगा दूं क्या?’’

पर शेखर का अंतर्मन बोला, ‘सोने दो मेरी जान को, कितनी हसीन लग रही है,’ नींद में भी चेहरे पर मुसकान थी. उस ने नर्स को एक गुलदस्ता और एक छोटी डायरी दे कर कहा, ‘‘जब संगीता नींद से जागे तो उसे दे देना.’’

‘‘आप का नाम?’’ नर्स ने पूछा.

‘‘कहना तुम्हारा मीत आया था,’’ कल फिर आऊंगा.

वह दूसरे दिन भी गया. पता चला कि संगीता को एक्सरे रूम में ले जाया गया है. वहां उस के मम्मीपापा और काफी रिश्तेदार आ गए. अब शेखर को रुकना उचित नहीं लगा. उस ने दोबारा फल, रजनीगंधा के फूल और मैगजीन सब नर्स को सौंपते हुए कहा, ‘‘मेरा कालेज का वक्त हो गया है, ये सब उसे दे दीजिएगा और…’’

‘‘और कह दूंगी तुम्हारे मीत ने दिया है,’’ नर्स ने मुसकराते हुए वाक्य पूरा किया और शेखर भी मुसकराते हुए लौट गया.

2 दिन बाद शेखर दोबारा हौस्पिटल आया. संगीता अपने बैड पर बैठी थी. शेखर को देखते ही उस के चेहरे पर मुसकान खिल उठी. शेखर बैड के करीब आ कर बोला, ‘‘सौरी, मैं 2-3 बार आया पर…’’

संगीता बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘मुझे सब मालूम है, यह डायरी, यह फल, रजनीगंधा के फूल सब मेरे मीत के ही हैं. वैसे भी मैं तुम से सदा अकेले में ही मिलना चाहती हूं, भीड़ में गर तुम न ही मिलो तो अच्छा है.’’

वैसे भी मम्मीडैडी तुम्हें लाइक नहीं करते, वे धर्म के पक्के अनुयायी हैं.

शेखर उस की खैरियत जानना चाहता था. संगीता मुसकराते हुए बोली, ‘‘अरे, मुझे कुछ नहीं हुआ, मैं बिलकुल ठीक हूं, थोड़ा फीवर हुआ था. तुम्हें बहुत परेशान करती रहती हूं न, इसीलिए भुगतना पड़ा.’’

‘‘पर तुम्हारी बीमारी की खबर सुन कर तो मेरी नींद ही उड़ गई,’’ शेखर चिंता भरे लहजे में बोला.

पैर की जूती – भाग 1: क्या बहु को मिल पाया सास-ससुर का प्यार

होली के रंगों की तरह, वह ससुराल में यह उम्मीद ले कर आई थी कि उसे यहां अपने शौहर और सासससुर का प्यार मिलेगा, आने वाला समय इंद्रधनुषी रंगों की तरह आकर्षक और रंगबिरंगा होगा. लेकिन यहां आते ही उस की सारी आशाएं लुप्त हो गईं. हर वक्त ढेर सारा काम और ऊपर से मारपीट व गालियों की बौछार. इन यातनाओं से वह भयभीत हो उठी. न जाने कब ये कयामत के बादल बन कर उस पर टूट पड़ें. करीम से पहले उस के रिश्ते की बात उस के फुफेरे भाई अमजद से चली थी. पर अमजद ने इस रिश्ते को यह कह कर ठुकरा दिया कि वे भाईबहन हैं और वह भाईबहन के निकाह को ठीक नहीं समझता.

करीम से उस के रिश्ते की बात जब महल्ले में उड़ी तो महल्ले के सभी बुजुर्ग खुश हो उठे और बोले, ‘‘वाह, लड़की हो जरीना जैसी. फौरन मांबाप का कहना मान गई. वैसे आजकल की लड़कियां तौबातौबा, कितनी नाफरमान हो गई हैं. सचमुच जरीना जैसी लड़की सब को नहीं मिलती.’’

बुजुर्गों की बातों से छुटकारा मिलता तो सहेलियां उस पर कटाक्ष करतीं, ‘‘वाह बन्नो, अपने हबीब से मिलने की इतनी जल्दी तैयारी कर ली? अरी, थोड़े दिन तो और सब्र किया होता. दीवाली व ईद तो मना ली, होली भी मना कर जाती तो क्या फर्क पड़ जाता? ’’ और वह गुस्से व शर्म से कसमसा कर रह जाती.

कुछ दिनों बाद उस की शादी बड़ी धूमधाम से हो गई. शादी से पहले उस ने एक ख्वाब देखा था. ख्वाब यह था कि वह करीम को अपने मायके लाएगी और होली का त्योहार उल्लास से मनाएगी. पर उस का सपना, सपना ही रह गया.

उस के मायके में मुसलिम त्योहारों को जितनी खुशी से मनाया जाता है उतनी ही हिंदू त्योहारों को भी. वहां त्योहार मनाते समय यह नहीं देखा जाता कि उस का ताल्लुक उन के अपने मजहब से है या किसी दूसरे धर्म से. वे तो इस देश में मनाए जाने वाले प्रत्येक त्योहार को अपना त्योहार मानते हैं पर उस की ससुराल में तो सब उलटा ही था. उसे ऐसा पति मिला, जो पत्नी की इज्जत करना भी नहीं जानता था. वह तो उसे अपने पैर की जूती समझता था.

शादी के कुछ महीने बाद की बात है. उस दिन सब्जी में नमक कुछ ज्यादा हो गया था. करीम के निवाला उठाने से पहले सासससुर ने निवाला उठाया और मुंह में लुकमा डालते ही चीख पड़े, ‘‘यह सब्जी है या जहर? क्या करीम की शादी हम ने यही दिन देखने के लिए की थी?’’

यह सुनते ही करीम भड़क उठा था, ‘‘नालायक, खाना पकाना तक नहीं आता? क्या तेरे मांबाप ने तुझे यही सिखाया था? इस महंगाई के जमाने में इतनी बरबादी. चल, सारी सब्जी तू ही खा, नहीं तो मारमार कर खाल खींच लूंगा.’’

उसे विवश हो कर पतीली की पूरी सब्जी अपने गले से उतारनी पड़ी थी. इनकार करती तो करीम के हाथ में जो आता, उस से मारमार कर उस का भुकस निकाल देता.

इस घटना से भयभीत हो कर वह इतनी बीमार पड़ी कि उस के लिए दो कदम चलना भी मुश्किल हो गया.

पर करीम के मांबाप यही कहते, ‘‘काम के डर से बहाना बना रही है. चल उठ, काम कर, हमारे घर में तेरे ये नखरे नहीं चलेंगे.’’

उसे लाचार हो कर बिस्तर से उठना पड़ता. कदमकदम पर चक्कर आता तो पूरा घर खिल्ली उड़ा कर कहता, ‘‘देखा, कुलच्छन कैसी नजाकत दिखा रही है.’’

अंत में हार कर उस ने करीम से कह दिया, ‘‘देखिए, मुझे कुछ दिनों के लिए मायके भिजवा दीजिए. मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘वाह, क्या मैं तुझे इसलिए निकाह कर के लाया हूं कि तू अपने मांबाप के यहां अपनी हड्डियां गलाए? अगर फिर कभी जाने का नाम लिया तो ठीक नहीं होगा.’’

इन जानवरों के बीच में वह विवश सी हो गई. घर जाने का  नाम उस की जबान पर आते ही ये लोग भूखे गिद्ध की तरह उस के शरीर पर टूट पड़ते. अगर उस की पड़ोसिन निर्मला उस का ध्यान न रखती और उसे वक्त पर चोरीछिपे दवा ला कर न देती तो वह कभी की इस दुनिया से कूच कर गई होती.

करीम ने उस दिन फिर उसे बुरी तरह मारा था. इस स्थिति को सहतेसहते उसे करीब 3 साल हो गए थे. उस की स्थिति उस वहशी कसाई के हाथों में बंधी बकरी की तरह थी जिस का हलाल होना तय था.

इस मुसीबत के समय उसे एक ही हमदर्द चेहरा नजर आता और वह था अमजद का. यह सही था कि उस ने ममेरी बहन होने की वजह से उस से शादी करने से इनकार कर दिया था, पर जब उसे यह पता चला कि जरीना का निकाह करीम से हो रहा है, तो वह दौड़ादौड़ा मामू के पास आया था और उन से बोला था, ‘अरे मामृ, जरीना बहन को कहां दे रहे हो? वह लड़का तो बिलकुल गधा है. अपनी समझ से तो काम ही लेना नहीं जानता. जो मांबाप कहते हैं, बस, आंख मींच कर वही करने लगता है, चाहे वह ठीक हो या गलत. जरीना वहां जा कर कभी खुश नहीं रह सकती. वे लोग उसे अपने पैर की जूती बना कर रखेंगे.’

पर अमजद की बात को किसी ने नहीं माना और जो होना था, वही हुआ. विदा के वक्त अमजद ने उस के सिर पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा था, ‘पगली, तू रोती क्यों है? अगर तुझे कभी जरूरत पड़े तो अपने इस भाई को याद कर लेना. तू फिक्र मत कर, मैं तेरे हर दुखदर्द में काम आऊंगा.’

जरीना ने किसी तरह जीवन के 3 साल बिता दिए पर अब उस से बरदाश्त नहीं होता था. उस ने सोचा, अब उसे उस शख्स का दामन थामना ही होगा, जो सही माने में उस का हमदर्द है. फरजाना भाभी यानी अमजद की बीवी भी कई बार उस के घर आईं. वे उस की खैरियत पूछतीं तो जरीना हमेशा हंस कर यही कहती, ‘ठीक हूं, भाभी.’

और कई बार तो ऐसा हुआ कि जब वह मार खा कर सिसक रही होती, ठीक उसी वक्त फरजाना वहां पहुंच जाती. ऐसे वक्त चेहरे पर मुसकराहट लाना बड़ा कठिन होता है. भाभी भी चेहरा देख कर समझ जाती थीं पर घर के अन्य लोगों की मौजूदगी में कुछ बोल नहीं पाती थीं. आखिर वे चुपचाप चली जातीं. कुछ अरसे बाद अमजद का दूसरे शहर में तबादला हो गया. एक रहासहा आसरा भी दूर हो गया.

उस रोज घर में कोई नहीं था. मार और दर्द से उस का बदन टूट रहा था. गुस्से से उस का शरीर कांपने लगा. उस ने अपने वहशी पति के नाम एक लंबा खत लिखा और उसे मेज पर रख कर घर से निकल गई.

2 बजे की ट्रेन पकड़ कर शाम को वह अमजद के शहर पहुंची. रेलवेस्टेशन से टैक्सी ले कर घर पहुंचतेपहुंचते अंधेरा हो गया था. टैक्सी से उतर कर वह बुझे मन से घर की ड्योढ़ी की ओर बढ़ गई.

सामने से आती फरजाना भाभी उसे देखते ही चौंकीं, ‘‘अरी जरीना, तू कब आई?’’

वह भाभी को सलाम कर सोफे पर बैठते हुए धीमे से बोली, ‘‘बस, सीधे  घर से चली आ रही हूं, भाभी.’’

फरजाना उस के मैले कुचैले कपड़ों और रूखे बालों को एकटक देखती रहीं. फिर क्षणभर बाद बोली, ‘‘यह अपनी क्या हालत बना रखी है, जरीना?’’

भाभी के शब्दों से उस के धैर्य का बांध टूट गया. जो आंसू अब तक जज्ब थे, वे फरात नदी की तरह बह निकले.

‘‘अरी, तू रो रही है,’’ भाभी ने दिलासा देते हुए उस की आंखों से आंसू पोंछ दिए, ‘‘चल जरीना, हाथमुंह धो, कपड़े बदल और जो कुछ हुआ उसे भूल जा.’’

वे 3 दिन – भाग 1 : इंसान अपनी सोच से मौडर्न बनता है

‘‘मेरी प्यार बूआ, आप तो एकदम जंच रही हो, बिलकुल पंजाबी लड़कियों की तरह. पंजाबी सलवार… लिपस्टिक… क्या बात है,’’ नव्या ने दिल्ली से आई अपनी बूआ को कुहनी मारते हुए छेड़ा और फिर उन के गले लग गई और उन के गालों को चूम लिया.

नव्या की बूआ निकिता को उन के भैया ने कल फोन कर तुरंत बुढ़ाना आ जाने को कहा था.

‘हैलो निकिता, हम लोग 3 दिन के लिए शिमला जा रहे हैं. नव्या के फाइनल एग्जाम हैं और साथ में उस की तबीयत भी ठीक नहीं है. तुम हमारे पीछे से उस के पास आ जातीं, तो हमें परेशानी नहीं होती. अब जवान लड़की है, तो अकेले या आसपड़ोस वालों के भरोसे भी छोड़ कर जाने को मन नहीं मान रहा है.’

‘नहीं भाईसाहब, आप बिलकुल बेफिक्र हो कर जाइए, मैं कल सुबह की किसी बस से शाम तक वहां पहुंच जाऊंगी.’

‘‘क्या हुआ री नव्या तुझे? भाई साहब बता रहे थे कि तेरी तबीयत ठीक नहीं है,’’ निकिता बूआ ने आते ही चिंतित आवाज में पूछा, ‘‘और तू ने यह क्या पहन रखा है… यह फटी जींस और कटे शोल्डर वाला टौप. तुम यह सब कब से पहनने लगी?’’

‘‘अरे, कुछ नहीं बूआ, वही मंथली पीरियड…’’

‘‘मतलब, तू टाइम से है?’’ निकिता बूआ उछल कर खड़ी हो गईं और अपना गाल पोंछने लगीं, जहां पर एक मिनट पहले नव्या ने चूमा था. जैसे उन के गाल पर किसी ने कीचड़ मल दिया हो.

‘‘तेरी मां ने तुझे इतना भी नहीं सिखाया है कि इन दिनों में किसी नहाएधोए को छूना नहीं चाहिए. अब मुझे फिर से नहा कर आना पड़ेगा.’’

‘‘सौरी बूआ, आप पहले चाय तो ले लीजिए. मैं ने आप के लिए अदरक वाली चाय बना दी है और साथ में आप की पसंद के पालक के पकौड़े भी हैं,’’ बूआ का मूड अच्छा करने की गरज से नव्या ने बात बदलते हुए कहा.

‘‘तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या? 3 दिन रसोई में जाना तो दूर उस के आसपास भी नहीं फटकना चाहिए. तुझे लगता है कि मैं तेरे हाथ का छुआ पानी भी पीऊंगी?’’ अब निकिता बूआ की आवाज कुछ कठोर हो गई थी.

नव्या को बूआ के गरममिजाज और दकियानूसी विचारों के बारे में मालूम था, जो दिल्ली में रहते हुए भी मानो बुढ़ाना में रह रही थीं, पर उन का ऐसा रूप देखने का मौका पहली बार पड़ा था.

नव्या कुछ समय के लिए सहम गई, फिर माहौल को बदलने के लिए अपनी बूआ को लाड़ लड़ाते हुए उन का हाथ पकड़ कर उन्हें सोफे पर बिठाने लगी.

‘‘अरे, तुझे अभी तो मना किया था मुझे छूने को… पर तू है कि तुझे कोई बात समझ ही नहीं आ रही है,’’ बूआ चिल्लाईं.

‘‘बूआ, मुझे इन सब चीजों की आदत नहीं है न, तो बारबार भूल जाती हूं,’’ नव्या ने निकिता के कंधे से अपना हाथ हटा लिया और उन के साथसाथ खुद भी सोफे पर बैठ गई.

नव्या के बैठते ही बूआ फिर से तुनक गईं, ‘‘अगर ये 3 दिन तुम थोड़ेबहुत नियम मान लोगी, तो तुम पर आसमान टूट कर गिर जाएगा क्या?

‘‘अच्छा है, अम्मां यह सब देखने से पहले ही इस दुनिया से विदा हो गईं, नहीं तो वे यह सब देख कर जीतेजी मर जातीं. तेरी मां का राज आते ही पूरे घर में अपवित्रता आ गई.

‘‘मुझे कहना तो नहीं चाहिए, पर जिस घर में ऐसा पाप हो रहा हो, वहां कहां से कुलदीपक आता. अब चाहे देवीदेवताओं की लाख मन्नतें कर लो, कुछ हासिल नहीं होने वाला है, जब घर में ही ऐसा अनर्थ.

‘‘अम्मां थीं तब तक शहर से ब्याह कर आई तेरी संस्कारहीन मां को सबकुछ मानना पड़ा, चाहे डंडे के जोर पर ही. पर अब तो लगता है, यहां जंगल राज आ गया है.’’

निकिता बूआ इस बार 8-9 साल बाद बुढ़ाना आई थीं. घर का खाका ही बदल गया था. तख्त की जगह सोफा था, टीवी भी नया था.

अब तक सब्र से काम लेती हुई नव्या को भी गुस्सा आ गया. घर से निकलते हुए उस की मम्मी द्वारा दी गई सारी नसीहतों को भी वह भूल गई, क्योंकि अब बात उस की मम्मी के संस्कारों पर आ गई थी.

‘‘बूआ, मम्मी के संस्कारों की तो आप बात न ही करें तो बेहतर होगा. भूल गईं आप अपना समय… जब पहली बार अपने कपड़ों पर धब्बे देख कर कितना डर गई थीं आप.

आप को लगा था कि आप कैंसर जैसी किसी खतरनाक बीमारी की चपेट में आ गई हैं. आप रोतेरोते दादी के पास गई थीं और पूजा करती हुई दादी ने आप के कपड़े देख कर आप को पुचकारने के बजाय अपने से दूर धकेल दिया था.

अब क्या करूं मैं – भाग 1

‘‘भाभी, शीशे पर क्या गुस्सा निकाल रही हो, जो हो रहा है उसे होने दो. मैं तो कई साल पहले से ही जानती थी. आज का यह दिन तुम्हें न देखना पड़े इसीलिए तो सदा टोकती रही हूं कि अपना व्यवहार इतना भी हलका न बनाओ…’’

‘‘मेरा व्यवहार हलका है?’’ सदा की तरह भाभी ने आंखें तरेरीं, ‘‘तू होगी हलकी…तेरा सारा खानदान होगा हलका…’’

भैया और भतीजा पास ही खड़े थे. मेरी आंखें उन से मिलीं. शरम आ रही थी उन्हें अपनी पत्नी और मां के व्यवहार पर. आज बरसों बाद मैं मायके आई हूं. नाराज थी भाभीभाई से, ऐसा कहना उचित नहीं होगा, मैं तो बस, भाभी के व्यवहार से तंग आ कर मायके को त्याग चुकी थी.

भाभी का ओछा व्यवहार और ऊपर से भैया का चुपचाप सब सुनते रहना जब तक सहा गया सहती रही और जब लगा अब नहीं सह सकती, पीठ दिखा दी. उम्र के इस पड़ाव पर, जब मैं भी सास बन चुकी हूं और भाभी भी दादीनानी, बच्चों की तरह उन का लड़ पड़ना अभी गया नहीं है. आज भी उन में परिपक्वता नहीं आई.

‘‘मेरे खानदान को छोड़ो भाभी, तुम्हारामेरा खानदान अलगअलग कहां है, जो खानदान पर उतर आई हो. आधी उम्र मैं इस खानदान की बेटी रही हूं, मेरा खानदान तो यह भी है, जो आज तुम्हारा है. हमारी उम्र इस तरह लड़ने की नहीं रही जो हम ऊलजलूल बकते रहें. आज सवाल हमारे बच्चों का है कि हमारे व्यवहार से उन का अनिष्ट हो, ऐसा नहीं होना चाहिए.’’

‘‘अरे, मेरी बेटी का सर्वनाश तो तेरे कारण हो रहा है चंदा, तेरी ही ससुराल के हैं न उस के ससुराल वाले…तू ही उस का पैर वहां लगने नहीं देती.’’

‘‘मेरी ससुराल में जब बेटी का रिश्ता किया था तब क्या मुझ से पूछा था तुम ने, भाभी? भैया, आप ने भी जरूरी नहीं समझा मुझे बताना कि लड़का कितना पढ़ालिखा है, कोई बुरी आदत तो  नहीं. भला मुझ से बेहतर कौन बताता आप को जिस के सामने वह पलाबढ़ा है… तब तो मैं आप को दुश्मन नजर आती थी कि कहीं रिश्ता ही न तुड़वा दूं.

‘‘मुझे तो पता ही तब चला था जब मेरी चचिया सास ने शादी का कार्ड हाथ में थमा दिया था. क्या कहती मैं तब अपनी ससुराल में कि आने वाली मेरी सगी भतीजी है, जिस की मां और बाप ने मुझे एक बार पूछा तक नहीं.’’

गला भर आया मेरा, ‘‘जानती हो भाभी, मेरी चचिया सास ने भी इसी अनबन का फायदा उठाया और अपना खोटा सिक्का चला लिया. अब जो हो रहा है उस में मेरा दोष क्यों निकाल रही हो. तुम्हारी बच्ची वहां सुखी नहीं है तो उस में मैं क्या करूं? न मैं कल किसी गिनती में थी न ही मैं आज किसी गिनती में हूं.’’

‘‘उसी का बदला ले रही है न चंदा, तू चाहती है कि मेरी बेटी तेरी जूती के नीचे रहे…’’

‘‘मेरा घर तो उस के घर से 50 किलोमीटर दूर है भाभी. भला मेरी जूती के नीचे वह कैसे रह सकती है? सच तो यह है कि जो कलह तुम सदा यहां डालती रही हो उसी को अपनी बच्ची के संस्कारों में गूंथ कर तुम ने साथ बांध दिया है. एक तो सोना उस पर सुहागा. पति अच्छा होता तो पत्नी की आदतों पर परदा डालता रहता…जिस तरह भैया डालते रहे हैं लेकिन वहां वह भी तो सहारा नहीं है… शराबी, चरित्रहीन पति, पत्नी को नंगा करने में लगा रहता है और पत्नी, पति के परदे तारतार करने से नहीं चूकती. उस पर आग में घी का काम तुम करती हो.

‘‘बेटी का घर बसाना चाहती हो तो कम से कम अब तो जागो और बेटी को समझाओ कि समझदारी से काम ले. घर में रुपएपैसे की कमी नहीं है. लड़का अच्छा नहीं, लेकिन सासससुर तो लड़की को सिरआंखों पर रखते हैं. पति को समझाए, उसे सुधारने का प्रयास करे.’’

‘‘कैसे समझाए उसे मेरी बेटी? उस के तो 10-10 हजार चक्कर हैं. कईकई दिन वह घर ही नहीं आता. ऊपर से तू भी उसी को दोष देती है.’’

‘‘तो क्या करूं मैं? कोई बीच का रास्ता निकालना होगा न हमें. कम से कम घर तो संभाल ले तुम्हारी बेटी…सासससुर इज्जतमान देते हैं तो उन्हीं का मान रख कर घर में सुखशांति बनाने की कोशिश करे. मेरे दोष देने या न देने का कोई अर्थ नहीं है भैया, मैं कब उस के घर जाती हूं. तुम ने इतना प्यार ही कहां छोड़ा है कि वह बूआ के घर आना चाहे या मैं ही उसे अपने घर बुलाऊं…तुम्हारे परिवार से दूर ही रहने में मैं अपना भला समझती हूं.’’

मन भर आया मेरा और मैं अतीत में विचरण करने लगी. यही वह घरआंगन है जहां मैं और भैया दिनभर धमाचौकड़ी मचाते थे. अच्छा संस्कारी परिवार था हमारा मगर भाभी के आते ही सब बिखर गया. छोटे दिलोदिमाग की भाभी की जबान गज भर लंबी थी. कुदरत ने शायद लंबी जबान दे कर ही बुद्धि और विवेक की भरपाई करने का प्रयास कर दिया था, जिस का भाभी जम कर इस्तेमाल करती थीं. अवाक् रह जाते थे हम सब. बच्चों की तरह लड़ पड़ती थीं मुझ से. समझ में नहीं आता था कि भाभी का दिमाग इस दिशा में जाता है तो जाता कैसे है.

एक पढ़ालिखा सभ्य इनसान किसी दूसरे पर सीधासीधा आरोप लगाने से पहले हजार बार सोचता है कि बरसों का रिश्ता कहीं टूट ही न जाए, लेकिन भाभी तो अपनी जरा सी चीज आगेपीछे होने पर भी झट से मुझ पर आरोप लगा देती थीं कि मैं ने अपनी आंखों से देखा है.

 

अपने पराए: संकट की घड़ी में किसने दिया अमिता का साथ

सपनों की राख तले

ड्रीम डेट : आरव ने कैसे किया अपने प्यार का इजहार

पहल : क्या तारेश और सोमल के ‘गे’ होने का सच सब स्वीकार कर पाए?

ड्रीम डेट- भाग 3 : आरव ने कैसे किया अपने प्यार का इजहार

‘‘और सुना, क्या हाल है तेरा और तेरे दोनों बौडीगार्ड्स का?’’ आरव ने गरमजोशी से हाथ मिलाते हुए कहा.

‘‘सब सही, भाई.’’

इन को बौडीगार्ड की क्या जरूरत. मैं ने मन ही मन में सोचा, यह कोई फिल्मस्टार तो लग नहीं रहे.

‘‘सुनो, अब तुम वेटिंगरूम में जा कर आराम से बैठो, मैं अपने यार से बातें कर लूं. बड़े दिनों के बाद दिखाई दिया है और सब से ज्यादा खुशी की बात यह है कि उस ने मुझे पहचान लिया है.’’

‘‘जी.’’

अब तो मुझे जाना ही था लेकिन मैं जाना नहीं चाहती थी. इतनी मुश्किल से मिले इस साथ का एकएक पल साथ में ही बिताना चाहती थी. खैर, मैं अंदर आ

गई और अपना मन बाहर आरव के पास  छोड़ आई.

करीब एक घंटा गुजर गया और मैं वहां आसपास के लोगों से बोलती व मोबाइल यूज करती रही. अब मुझे घुटन सी होने लगी. आरव, तुम इतने लापरवाह कैसे हो सकते हो, कोई तुम्हारे इंतजार में बैठा है और तुम करीब हो कर भी मेरे करीब नहीं हो.

मुझे बहुत तेज गुस्सा आ रहा था, नजरें लगातार वेटिंगरूम के गेट की तरफ लगी हुई थीं. आखिर नहीं रहा गया और मैं खुद ही बाहर निकल आई, देखा दूरदूर तक वे कहीं नहीं दिख रहे थे. अब तो ट्रेन के आने का समय भी हो गया है. आधे घंटे में ट्रेन आ जाएगी, मैं ने अपनी नजरें चारों तरफ घुमाईं तो देखा सामने से दोस्त से बतियाते चले आ रहे हैं.

मैं ने उन को देखा और नजरों से ही इशारा किया. वे समझ गए और करीब आते हुए बोले, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, यह बताने आई थी कि ट्रेन के आने का समय हो गया है.’’

‘‘हां यार, पता है.’’

‘‘तो चलिए, सामान ले आएं.’’

‘‘अरे ले आएंगे, अभी बहुत देर है.’’

‘‘जी नहीं, अब देर नहीं है. यहां से सामान ले कर जाने में ही करीबकरीब 10 मिनट लग जाएंगे.’’

‘‘हां, यह ठीक है.’’ उन्होंने आखिर सहमति में सिर हिलाया. भरे हुए वेटिंगरूम में किसी तरह सामान निकाल कर बाहर ले कर आए क्योंकि लोग फर्श तक पर बैठे हुए थे और इस का कारण सिर्फ एक ही था कि ट्रेन हद से ज्यादा लेट थी.

हम लोग हमेशा फ्लाइट ही से जाते हैं परंतु इस बार हमें जाना था ट्रेन के फर्स्ट क्लास के एसी कोच में, कुछ अलग या बिलकुल अलग सा एहसास महसूस करने के लिए. ट्रेन प्लेटफौर्म पर बस आने ही वाली है, अनाउंसमेंट हो गई थी. मैं और आरव अपनेअपने सामान को ले कर प्लेटफौर्म पर खड़े हो गए थे. ‘‘यार, इस सरकार के राज में ट्रेनों ने रुला ही दिया. मैं इतना बड़ा हो गया, लेकिन आज तक कभी भी इतनी लेट ट्रेन नहीं देखी. अनाउंसमैंट हो गई है लेकिन ट्रेन का कहीं अतापता ही नहीं,’’ आरव बोले. सच ही तो कह रहे हैं, जिसे देखो वह परेशान है. वेटिंगरूम भरे हुए हैं, लोग जमीन पर बैठे हुए हैं, क्या करें.

अकेली महिलाएं, बच्चे सफर कर रहे हैं. वे भी ट्रेन के लेट होने से दुखी हैं और उन के साथसाथ घर में बैठे उन के परिवार वाले भी. खैर, ट्रेन प्लेटफौर्म पर लग गई. मानो सब को सांस में सांस आ गई है. एसी कोच के फर्स्ट क्लास वाले कूपे में चढ़ते हुए लगा जैसे किसी घर में प्रवेश कर लिया है जहां हमारा अपना कमरा हर सुविधा से युक्त है. सीनरी, फ्लौवर पौट से सजे हुए उस कूपे में 2 सीटें थीं, एक ऊपर और एक नीचे. नीचे वाली सीट को खींच कर बैड की तरह बना कर हम दोनों बैठ गए, फिल्मों में देखे हुए वे सीन याद आ गए जो पुरानी फिल्मों में हुआ करते थे, जब गाने गाते हुए हीरोहीरोइन अपने हनीमून इसी तरह की ट्रेन के कूपे में मनाते थे.

‘‘सुनो आरव, जब हम बात करते हैं न, तो कितना हलकाहलका सा हो जाता है मन. है न?’’

‘‘हां, तुम सही कह रही हो, एकदम फूल की तरह से. जब मैं तुम से अपने मन की बात कर लेता हूं तो वाकई बहुत ही अच्छा लगता है.’’

‘‘लेकिन मुझे कुछ भी समझ नहीं आता कि दुनिया में ऐसा क्यों होता है?’’ मैं ने कहा.

‘‘ऐसा?’’

‘‘हां, ऐसा ही कि हम जिस से बहुत ज्यादा प्यार करते हैं वह हम से दूर क्यों हो जाता है? क्यों वह उसे दुख देता है जिस ने अपनी पूरी जान सौंप दी. पूरी जिंदगी उस के नाम कर दी? क्या उस का दिल नहीं कसकता? क्या उसे यह एहसास नहीं होता कि वह तो पलपल में उसे जी रही है और वह अपने एहसास तक नहीं दे रहा है, न ही शब्द दे रहा है. क्या यह स्वार्थ नहीं है? चुप क्यों हो? आखिर इंसान ऐसा कर कैसे पाता है? क्या यही प्रेम है? वैसे, प्रेम क्या होता है, मुझे बताओ?’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं होता. कभीकभी परिस्थितियां ऐसी बन जाती हैं कि इंसान मजबूर हो जाता है.’’

‘‘अच्छा, आरव सुनो, मेरा एहसास, प्यार, समर्पण और विश्वास सबकुछ तुम्हारा ही तो है. मेरी कैसे याद नहीं आती, तुम कैसे मुझे भूल जाते हो?’’

‘‘नहीं, भूलता नहीं. कहा न मजबूरी.’’

‘‘इतनी मजबूरी कि कोई घूंटघूंट दर्द पी रही है बिना कहे, बिना सुने. मेरे आंसू तुम्हें क्यों नहीं दिखते क्योंकि मैं छिपछिप कर रोती हूं और सामना होने पर अपने आंसू छिपा लेती हूं ताकि तुम को कोई दुख न हो. क्या मेरी कमजोरी समझते हो, इसलिए ऐसा करते हो?’’

‘‘ समझ नहीं आ रहा, क्या कहूं.’’

‘‘कहो न कुछ, मेरे दर्द को समझे. मैं कुछ कह नहीं पाती हूं.’’

‘‘समझता हूं, सच में. तुम जानती हो कि मैं कभी झठ नहीं बोलता.’’

‘‘तो सब कह देना चाहिए क्योंकि प्रेम कहनेसुनने से और बढ़ता है, है न? जब हम प्रेम करते हैं तो फिर यह क्यों सोचते हैं कि वह कुछ न कहे, बस सामने वाला कहे.

‘‘प्रेम गली अति संकरी जामें दाऊ न समाई.

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहीं.’’

कुछ समझ आया, प्यार में अहं की जगह नहीं.’’

‘‘एक ही बात है, चाहे कोई कह दे.’’

‘‘लेकिन अगर एक ही बारबार कहता रहे, दूसरा कभी पहल न करे तो?’’

‘‘तो भी कोईर् बात नहीं? तुम प्रेम का अर्थ समझती ही नहीं हो?’’

मुझे पता था कि आरव किसी तरह से भी अपनी ही बात रखेंगे चाहे उन से कितनी भी बहस क्यों न कर लूं, जीतेंगे वही और मैं हार जाऊंगी. वैसे, हार जाने में भी जीत छिपी होती है. हार कर जीत जाना बेहतर है, जीत के हार जाने से.

 

खैर, मेरी खवाबोंभरी आंखों में थकान की वजह से नींद भर गईर् थी. कल से आने की तैयारी और आज सुबह ही घर से निकलना और यहां पहुंच कर ट्रेन के इंतजार में शरीर दर्द से जवाब देता लग रहा था, बस, अब सो जाओ.

आरव ने सामान सही से लगाया और मुझे कस कर सीने से लगाते हुए मेरे माथे को चूम लिया. आह, मानो जेठ की तपती हुई रेत पर सागर की शीतल लहर आ कर ठंडक दे रही हो. सच में कितना मुश्किल होता है न? यों महीनों और सालों एकदूसरे से दूर रहना.

‘‘सुनो आरव, तुम अपने दोस्त से क्या कह रहे थे कि दोनों बौडीगार्ड्स ठीक हैं? क्या वह कोई बड़ी हस्ती है जो उसे यों बौडीगार्ड की जरूरत पड़ी?’’

‘‘अरे नहीं यार, उस की 2 प्रेमिकाएं हैं न, उन के बारे में कह रहा था.’’

‘‘2-2 प्रेमिकाएं? लेकिन यह गलत है न? शादी क्यों नहीं कर लेते किसी एक से?’’

‘‘वह पहले से ही शादीशुदा है,’’ आरव मुसकराते हुए बोले.

‘‘शादीशुदा हो कर भी 2-2 प्रेमिकाएं?’’ मैं चौंक सी गई.

‘‘हां यार, आजकल की दुनिया में यही सब चल रहा है, तुझे कुछ पता भी है दुनियादारी के बारे में? खैर छोड़, हम क्यों अपना दिमाग खराब करें? सुनो, मैं तुम्हारे लिए कुछ लाया हूं.’’

‘‘मैं भी.’’

‘‘अच्छा अब पहले तुम दिखाओ.’’

‘‘नहीं, पहले तुम.’’

‘‘अरे, लेडीज फर्स्ट.’’

‘‘नो, बैड मैनर, पहले आप को दिखाना चाहिए.’’

‘‘ठीक है, मैं हारा. वरना पहले आप, पहले आप में रात गुजर जाएगी.’’

मुझे जोर की हंसी आ गई, आरव भी मुसकरा दिए. कितना अच्छा लगता है न, यों हंसते हुए खुशियों को दामन में भरते हुए.

आरव ने अपनी पैंट की जेब से एक डब्बी निकाली और उस में से डायमंड की अंगूठी निकाल कर मुझे पहना दी.

‘‘वाओ, कितनी प्यारी है. और, मैं यह लाई हूं,’’ मैं ने एक गरम शौल उन के गले में डालते हुए कहा, ‘‘देखो, तुम पहाड़ पर रहते हो, तो तुम्हें ठंड भी बहुत लगती होगी. है न?’’

‘‘हां, सच में.’’

‘‘तो अब इसे हमेशा अपने साथ में रखना,’’ कहते हुए मैं उन के गले से लग गई.

ट्रेन अपनी रफ्तार से चल रही थी और हमारी धड़कनें भी साथसाथ धड़क रही थीं जैसे ट्रेन और हमारी सांसों की रफ्तार एक सी हो गई हो.

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