ड्रीम डेट- भाग 2 : आरव ने कैसे किया अपने प्यार का इजहार

चाय वाकई स्वादभरी थी. इंतजार की सारी थकान खत्म हो गई थी. लेकिन यह मेरी अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं था. मैं तो उन के साथ गुजारे एकएक पल को बेहद खूबसूरत और रोमांटिक बना लेना चाहती थी. जैसे, चांद की रोशनी में बैठ कर उन्हें घंटों निहारती रहूं और वे मेरी गोद में सिर रखे, मेरे माथे को चूमते हुए मेरी आंखों में खा जाएं.

‘‘अरे चलना नहीं है? चाय इतनी अच्छी लगी कि और पीने का दिल कर रहा है?’’ आरव ने मुझे सोच में डूबे देख कर टोका.

‘‘नहींनहीं बाबा, ऐसा नहीं है. चलो, चलते हैं.’’

‘‘अब यह बाबा कौन है, यह भी बता दो हमें?’’ वे खूब जोर से खिलखिला कर हंस दिए, कितने प्यारे लगते हैं ये यों हंसते हुए.

‘कहीं किसी की नजर न लग जाए हमारे प्यार को, हमारी मुसकान को.’ मैं ने मन ही मन सोचा.

रात का समय था और ट्रेन अभी 2 घंटे और लेट थी. इस समय को गुजारना अब कोई मुश्किल काम नहीं था, क्योंकि मेरा प्यार, मेरा आरव मेरे साथ है. ‘वह हर जगह बहुत प्यारी है जहां मेरा आरव हो,’ मैं मन ही मन बोली. मैं ने आरव का हाथ अपने हाथ में कस कर पकड़ रखा था, ऐसे जैसे कि अगर पकड़ थोड़ी भी ढीली पड़ी तो वे कहीं मुझ से अलग न हो जाएं. मैं ने उस दूरी के कष्ट को इस कदर सहा है, इतने आंसू बहाए हैं कि अब साथ में हैं तो पलभर को भी उन्हें दूर या अलग नहीं होने देना चाहती थी.

‘‘साथ ही हूं तेरे न, फिर कैसी परवा?’’ आरव ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘हां, मैं इस साथ को महसूस करना चाहती हूं,’’ मैं भी मुसकराते हुए बोली.

‘‘बड़े अच्छे लगते हैं… यह धरती, यह नदिया, यह रैना और तुम…’’ आरव गुनगुना रहे थे और मैं उस मधुर धुन में खोई उन का हाथ थामे हर बात से बेफिक्र सी चाल से चल रही थी.

जनवरी का महीना और सर्द मौसम, इसलिए स्टेशन पर लोग न के बराबर थे, हालांकि ट्रेन बहुत लेट चल रही थी. लोग वेटिंगरूम में ही खुद को किसी तरह से ऐडजस्ट किए हुए थे या जो कुछ लोग बाहर बैठे भी थे वे खुद को खुद में ही सिकोड़ेसमेटे दुबके हुए से बैठे थे. मैं इस सर्द मौसम में अपने आरव का हाथ पकड़े स्टेशन के एक छोर से दूसरे छोर तक घूम रही थी. चांद पूरे निखार के साथ आसमान में चमक रहा था. मैं ने उंगली उठा कर आरव को चांद दिखाते हुए कहा, ‘‘देखो, यह चांद गवाह है न हमारे प्रेम का, कितनी मोहकता से हमें ही देख रहा है.’’

‘‘हमारे प्रेम को किसी गवाह की जरूरत ही कब है?’’ वे बोले.

मैं सिर्फ मुसकरा कर रह गई और उस ताप, उस ऊष्मा में खोती हुई उसे अपने बेहद करीब महसूस करते हुए साथसाथ चलती रही. प्रेम में बिताया और प्रेम के साथ का एकएक पल हमेशा यादगार होता है. उसे हम एक ड्रीम की तरह अपने अंतर्मन में बसाए रहते हैं.

‘‘सुनो, तुम ने खाना खाया?’’ आरव ने मौन तोड़ा और मेरी तरफ मुखातिब होते हुए पूछा.

‘‘हां,’’ मैं ने संक्षिप्त सा जवाब दिया.

‘‘सही,’’ वे संतुष्ट होते हुए बोले.

‘‘आप ने?’’

‘‘हां भाई, मैं तो खा कर ही आया हूं.’’

‘‘सुनो, मेरे पास बिस्कुट और केक रखे हैं, आप खाएंगे?’’

‘‘न, अभी कुछ नहीं खाना. चाय भी पी ली है और सफर भी करना है, रात का सफर है.’’

इस बात पर मैं ने मुसकराते हुए अपना सिर हिलाया.

पूरे एक घंटे तक यों ही दीवानों की तरह हम उस स्टेशन के प्लेटफौर्म पर एकदूसरे का हाथ पकड़े टहलते रहे. आरव ने कुछ इस तरह से मेरे हाथ को अपने हाथ में सहेज रखा था मानो कोईर् फूल. मैं कभी मुसकरा रही थी और कभी आरव की बांहों पर अपना सिर टिका दे रही थी. कितना मजबूती का एहसास मन में भर रहा था, मानो खुशियां सिमट आई हों.

सच में उन के होने से बढ़ कर मेरे जीवन में कोई और खुशी नहीं है. उन के इंतजार में बिताए दिन, आंखों से बहाए गए आंसू, सब न जाने कहां खो गए थे. आज मैं उन के साथ अपने सारे दुख भुला कर सिर्फ मुसकराना चाहती थी. बहुत रो लिए अकेले में, अब साथ में हंसने के दिन आए हैं.

‘‘चलो, अब तुम थक गई होगी, जा कर वेटिंगरूम में बैठ जाओ.’’

‘‘और आप?’’

‘‘मैं यहीं ठीक हूं.’’

‘‘सही है. वैसे, मैं भी यहीं आप के साथ रहना चाहती हूं.’’

‘‘अरे यार, साथ ही तो हैं.’’

‘‘आरव, तुम यहां?’’ किसी ने उन को आवाज लगाते हुए कहा. वे शायद गार्ड थे और आरव के दोस्त. देखा जाए तो आरव का व्यवहार इतना अच्छा है कि वे एक बार किसी से मिलते हैं तो उस के दिल में उतर जाते हैं और फिर सालोंमहीनों न मिलने के बाद भी लोग उन्हें याद रखते हैं.

 

ड्रीम डेट- भाग 1 : आरव ने कैसे किया अपने प्यार का इजहार

सच तो यह है कि आरव से मिलना ही एक ड्रीम है और जब उस डे और डेट को अगर सच में एक ड्रीम की तरह से बना लिया जाए तो फिर सोने पर सुहागा. हां, यह वाकई बेहद रोमांटिक ड्रीम डेट थी, मैं इसे और भी ज्यादा रोमांटिक और स्वप्निल बना देना चाहती थी. कितने महीनों के बाद हमारा मिलना हुआ था. एक ही शहर में साथसाथ जाने का अवसर मिला था. कितनी बेसब्री से कटे थे हमारे दिनरात, आंसूउदासी में. आरव को देखते ही मेरा सब्र कहीं खो गया. मैं उस पब्लिक प्लेस में ही उन के गले लग गई थी. आरव ने मेरे माथे को चूमा और कहा, ‘‘चलो, पहले यह सामान वेटिंगरूम में रख दें.’’

‘‘हां, चलो.’’

मैं आरव का हाथ पकड़ लेना चाहती थी पर यह संभव नहीं था क्योंकि वे तेजी से अपना बैग खींचते हुए आगेआगे चले जा रहे थे और मैं उन के पीछेपीछे.

‘‘बहुत तेज चलते हो आप,’’ मैं नाराज सी होती हुई बोली.

‘‘हां, अपनी चाल हमेशा तेज ही रखनी चाहिए,’’ आरव ने समझने के लहजे में मुझ से कहा.

‘‘अरे, यहां तो बहुत भीड़ है,’’ वे वेटिंगरूम को देखते हुए बोले. लोगों का सामान और लोग पूरे हौल में बिखरे हुए से थे.

‘‘अरे, जब आजकल ट्रेनें इतनी लेट हो रही हैं तो यही होना है न,’’ मैं कहते हुए मुसकराई.

‘‘कह तो सही ही रही हो. आजकल ट्रेनों का कोई समय ही नहीं है,’’ वे मुसकराते हुए बोले.

मेरी मुसकान की छाप उन के चेहरे पर भी पड़ गई. ‘‘फिर कैसे जाएं, क्या घर में बैठें?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अरे नहीं भई, आराम से फ्लाइट से जाओ,’’ उन्होंने जवाब दिया.

‘‘यह भी सही है, आजकल फ्लाइट का सफर राजधानी ऐक्सप्रैस से सस्ता है.’’

वे हंसे, ‘‘बिलकुल ठीक कहा. कुछ समय बाद देखना, फ्लाइट वाले जोरजोर से आवाजें लगाएंगे. आओ, आओ, एक सीट बची है यहां की, वहां की. जैसे बस वाले लगाते हैं.’’

उन की बात सुन कर मैं भी जोर से हंस दी.

इसी तरह से मुसकराते, बतियाते हुए लेडीज वेटिंगरूम आ गया था. किसी तरह से उस में अपने सामान के साथ उन का सामान सैट किया.

‘‘चलो, अब बाहर चलते हैं, यहां बैठना तो बड़ा मुश्किल है. लेकिन बाहर सर्दी लगेगी.’’

‘‘नहीं, कोई सर्दीवर्दी नहीं. आओ,’’ वे मेरा हाथ पकड़ते हुए बोले.

मैं किसी मासूम बच्चे की तरह उन का? हाथ पकड़े बाहर की तरफ चलती चली गई.

‘‘चलो आओ, पहले तुम्हें यहां की फेमस चाय की दुकान से चाय पिलवाता हूं.’’

‘‘आप को यहां की चाय की दुकानें पता हैं?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं पता होंगी, क्या मैं यहां से कहीं आताजाता नहीं?’’

मैं जवाब में सिर्फ मुसकराई.

‘‘सुन भई, जरा 2 बढि़या सी चाय ले कर आओ,’’ उन्होंने वहां पहुंचते ही अपनी ठसकभरी आवाज में और्डर दिया.

कितने अपनेपन से कहा, जैसे जाने कब से उसे जानते हैं. वे शायद मेरे मन की भाषा समझ गए थे.

‘‘अरे, यह अपना यार है, बहुत ही बढि़या चाय बनाता है. मैं तो पहले कई बार सिर्फ चाय पीने के लिए ही यहां चला आता था.’’

वे बोल रहे थे और मैं उन के चेहरे को देख रही थी. न जाने कुछ खोज रही थी या उस चेहरे को अपनी आंखों में और भी ज्यादा भर लेना चाहती थी.

चाय मेज पर रख कर जाते हुए लड़के ने पूछा, ‘‘कुछ और भी चाहिए?’’

‘‘नहीं, बस यहां की चाय से ही तृप्त हो जाता हूं.’’

 

कांटों भरी राह पर नंगे पैर

एक तीर से कई निशाने

सपना: कौनसे सपने में खो गई थी नेहा

पहल -भाग 3 : क्या तारेश और सोमल के ‘गे’ होने का सच सब स्वीकार कर पाए?

सोमल ने कहा, ‘‘तारु, क्या हमारा भी बच्चा हो सकता है?’’

‘‘पता नहीं… मगर बच्चा तो मां के गर्भ में ही पलता है न… फिर कैसे होगा?’’ तारेश ने कहा.

‘‘विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है, कोई तो रास्ता होगा… क्या हम सैरोगेसी तकनीक का सहारा नहीं ले सकते?’’

‘‘हो सकता है यह संभव हो, मगर इस में कई कानूनी अड़चनें भी आ सकती हैं. क्या कानून हम जैसे लोगों को सैरोगेसी की इजाजत देता है और सब से बड़ी बात यह कि हम सैरोगेट मां कहां से लाएंगे? हमारे तो सब रिश्तेदार भी हम से किनारा कर चुके हैं. खैर अभी तुम ये सब बातें छोड़ो… किसी दिन किसी विशेषज्ञ से मिलते हैं,’’ कह कर तारेश ने एक बार तो चर्चा को विराम दे दिया, मगर बात उस के दिमाग से निकली नहीं. उस ने ठान लिया कि अगर संभव हुआ तो वह सोमल की इस इच्छा को जरूर पूरा करेगा.

एक दिन तारेश किसी काम से एक नामी हौस्पिटल गया. वहां आईवीएफ सैंटर देख कर उस के पांव ठिठक गए. उसे सोमल का सपना याद आ गया. उस ने वहां की हैड डा. सरोज से अपौइंटमैंट लिया और सोमल के साथ उन से मिलने पहुंच गया.

डा. सरोज ने उन की पूरी बात ध्यान से सुनी और बताया कि सोमल का सपना आईवीएफ और सैरोगेसी तकनीक के माध्यम से पूरा हो सकता है.

दोनों के चेहरे पर आई उम्मीद की रोशनी को परखते हुए वे आगे बोलीं, ‘‘देखिए, सरकार ने हाल ही में सैरोगेसी बिल पास किया है जिस के अनुसार सिंगल पेरैंट और समलैंगिक जोड़ों को इस की इजाजत नहीं होगी. हालांकि अभी यह कानून नहीं बना है, लेकिन निकट भविष्य में यह परेशानी आ सकती है. वैसे आप ने सुना होगा कि पिछले दिनों ही फिल्म अभिनेता तुषार कपूर इसी तकनीक के माध्यम से पहले सिंगल पिता बने हैं. हमारे पास और भी कई सिंगल महिलाओं और पुरुषों ने मातापिता बनने के लिए रजिस्ट्रेशन करा रखा है. आप भी करवा सकते हैं.’’

‘‘किराए की कोख का इंतजाम कैसे होगा?’’

‘‘इस के लिए आप को अपनी किसी नजदीकी रिश्तेदार की मदद लेनी होगी.’’

‘‘मगर हमारे रिश्तेदारों ने हमारा सामाजिक बहिष्कार कर रखा है.’’

‘‘अब इतनी मेहनत तो आप लोगों को करनी ही होगी,’’ कह कर डा. ने अगले विजिटर को बुलवा लिया.

सोमल को लीना भाभी याद आ गईं. उस ने उन्हें फोन लगाया, ‘‘हाय भाभी, कैसी हैं आप?’’

‘‘सोमल बाबू को आज हमारी याद कैसे आ गई?’’ लीना ने अपनेपन से पूछा तो सोमल मुद्दे पर आ गया और कहा, ‘‘मुझे इस काम के लिए तुम्हारी मदद की जरूरत है.’’

‘‘माफ करना सोमल, मगर इस मसले पर मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकती. तुम्हारे भैया इस के लिए कभी राजी नहीं होंगे और मेरे लिए अपना परिवार बहुत महत्त्वपूर्ण है.’’

लीना के टके से जवाब से सोमल की एकमात्र उम्मीद भी खत्म हो गई.

अब जो आखिरी उम्मीद उन्हें नजर आ रही थी वह था इंटरनैट. कहते हैं यहां खोजो तो सब मिल जाता है. दोनों साथी जोरशोर से इंटरनैट खंगालने लगे. इसी कवायद में उन्हें एक समाचारपत्र रिपोर्टर की कवर स्टोरी पढ़ने को मिली, जिस में उस ने लिखा था कि गुजरात में स्थित आणंद एक ऐसी जगह है जहां सैरोगेट मदर आसानी से उपलब्ध हैं और यही नहीं यहां अब तक सैरोगेसी से लगभग 1,100 बच्चों का जन्म हो चुका है. पढ़ते ही दोनों खिल उठे. फिर क्या था पहुंच गए दोनों आणंद, जहां उन के सपने पर सचाई की मुहर लगने वाली थी. यहां एक टैस्ट ट्यूब बेबी क्लिनिक के बाहर उन का संपर्क एक दलाल से हुआ जोकि सैरोगेसी के लिए किराए की कोख का इंतजाम करता था. उन की स्थिति और बच्चा पाने की प्रबल इच्छा को देखते हुए दलाल ने उन की मजबूरी का पूरापूरा फायदा उठाया और कानूनी अड़चनों का हवाला देते हुए मुंहमांगी कीमत में उन के लिए एक औरत को कोख किराए पर देने के लिए तैयार कर लिया. 2 ही दिन में सभी आवश्यक औपचारिकताएं भी पूरी करवा दीं.

1 महीने बाद उन्हें वापस आना था ताकि आगे की कार्यवाही को अंजाम दिया जा सके. दोनों खुशीखुशी वापस मुंबई आ गए.

तभी अचानक एक दिन यह हादसा हुआ और तारेश की दुनिया में अंधेरा छा गया. दोनों साथी पिता बनने की खुशी सैलिब्रेट करने और मौसम की पहली बारिश में भीगने का मजा लेने खंडाला जा रहे थे. तभी हाईवे पर तेज गति से आ रहे एक ट्रक ने अनियंत्रित हो कर उन की कार को टक्कर मार दी. दोनों को जख्मी हालत में हौस्पिटल ले जाया जा रहा था, मगर रास्ते में सोमल जिंदगी की जंग हार गया. सोमल की मौत पर भी उस के घर से कोई नहीं आया.

1 महीना बीतने पर दलाल का फोन आया तो तारेश ने उसे अपने साथ हुए हादसे के बारे में बताया और सोमल के संरक्षित शुक्राणुओं की मदद से पिता बनने की इच्छा जाहिर की. दलाल ने इस बाबत कुछ और रकम का इंतजाम करने के लिए कहा. तारेश ने अपनी सारी जमापूंजी इस प्रोजैक्ट पर खर्च कर दी.

सभी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद महिला के अंडाणु और सोमल के स्पर्म बैंक में सुरक्षित रखे शुक्राणुओं को प्रयोगशाला में निषेचित करवा कर भ्रूण को सैरोगेट मदर के गर्भ में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया गया और निश्चित समय पर उस बच्ची का जन्म हुआ जिस का जैनेटिक पिता सोमल था.

तारेश जानता था कि इस बच्ची को अकेले पालना आसान काम नहीं है. मगर सोमल का सपना पूरा करना ही अब उस का एकमात्र सपना था और इस के लिए वह किसी नहीं भी हालात का सामना करने के लिए मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार था.

कौंट्रैक्ट के अनुसार 1 महीने तक बच्ची को सैरोगेट मां ने अपना दूध  पिलाया और फिर बच्ची को तारेश के अनाड़ी हाथों में सौंप कर चली गई.

1 महीने की कोमल काया को ले कर तारेश सोमल के घर गया. जब उस ने सोमल के मम्मीपापा को बताया कि यह बच्ची सोमल की है तो राखी उसे गोद में लेने आगे बढ़ी. मगर मम्मीपापा के विरोध के कारण उस के बढ़ते कदम रुक गए.

तारेश ने कहा, ‘‘मैं जानता हूं आप लोग मुझ से नफरत करते हैं, मगर इस बच्ची में तो आप का अपना अंश है… हालांकि मैं अकेला ही इसे बेहतर परवरिश दे सकता हूं, मगर आज अगर सोमल जिंदा होता तो वह भी यही चाहता कि उस की बच्ची को उस के दादादादी का आशीर्वाद और बूआ का स्नेह मिले…’’ कह कर तारेश कुछ देर खड़ा रहा. मगर सामने से कोई पौजिटिव जवाब न पा कर वह बच्ची को गोद में लिए बाहर की ओर पलट गया.

अभी दरवाजे से बाहर नहीं निकला था कि सोमल की मां की आवाज आई, ‘‘रुको.’’

तारेश ने मुड़ कर देखा तो बच्ची के दादादादी अपनी आंखें पोंछते हुए उस की तरफ बढ़ रहे थे.

दादा ने कहा, ‘‘बेटा तो चला गया, लेकिन उस की निशानी को हम अपने से दूर नहीं जाने देंगे. इस बच्ची को हम पालेंगे और हां, मूल न सही सूद ही सही… हम तुम्हारा एहसान नहीं भूलेंगे…’’

‘‘मगर यह बच्ची हम दोनों का सपना है,’’ तारेश को लगा मानो वह बच्ची को हमेशा के लिए खो देगा.

‘‘हांहां, तुम्हीं इस के पिता रहोगे. मगर अभी इसे एक मां की ज्यादा जरूरत है… अगर तुम्हें एतराज न हो तो यह जिम्मेदारी राखी निभा सकती है.’’

‘‘मगर आप लोग तो सचाई जानते हैं… मैं राखी को कभी पति का सुख नहीं दे पाऊंगा.’’

‘‘मैं पत्नी का नहीं मां बनने का सुख चाहती हूं,’’ इस बार राखी ने कहा और बच्ची को अपनी गोद में ले लिया. तारेश को लगा जैसे बच्ची की मासूम मुसकराहट में सोमल खिलखिला रहा है.

पहल -भाग 2 : क्या तारेश और सोमल के ‘गे’ होने का सच सब स्वीकार कर पाए?

दोनों एकदूसरे से लिपट कर देर तक रोते रहे. वे जुदा नहीं होना चाहते… आज रात तारेश और सोमल को पता चल गया कि वे दोनों एकदूसरे के लिए ही बने हैं. इस एक रात ने उन्हें समझा दिया कि क्यों उन्हें एकदूसरे का साथ इतना अच्छा लगता. आज रात दोनों ने अपने प्यार का इजहार कर अपने इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया, जो दुनिया की निगाहों में धर्मविरोधी था, अप्राकृतिक था… हां, वे गे थे और उन्हें इस बात पर कोई शर्म नहीं थी.

दोनों ने अपनाअपना प्लेसमैंट कैंसिल कर तय किया कि वे दिल्ली में ही रह कर काम तलाश करेंगे. कुछ दिनों के प्रयास के बाद तारेश को एक मल्टी नैशनल कंपनी में नौकरी मिल गई. फिर कुछ दिन बाद सोमल को भी. दोनों की जिंदगी फिर से पटरी पर आ गई. सब कुछ पहले जैसा ही चलता रहा.

तारेश की मां अब उस पर शादी के लिए दबाव बनाने लगी थीं और सोमल के घर वाले भी यही चाहते थे कि उस का घर बस जाए. दोनों घरों में जोरशोर से लड़कियां देखी जा रही थीं. मगर वे दोनों लव बर्ड्स इन सब बातों से बेखबर अपने में ही खोए थे. उन की एक अलग ही दुनिया थी. उन्हें बिलकुल अंदेशा नहीं था कि कोई तूफान आने वाला है.

जब बारबार बिना किसी ठोस कारण के लड़कियां रिजैक्ट होने लगीं तो तारेश की मां का माथा ठनका कि कहीं किसी लड़की का चक्कर तो नहीं…

यही हाल सोमल के घर पर भी था. हकीकत जानने के लिए एक दिन बिना बताए तारेश की मां दिल्ली उन के फ्लैट पहुंच गईं. दोनों के हावभाव से उन्हें दाल में कुछ काला लगा. उन्होंने फोन कर के तारेश के पापा और सोमल के घर वालों को भी बुला लिया.

दोनों लड़कों ने साफसाफ कह दिया कि वे एकदूसरे के साथ जिंदगी बिताना चाहते हैं और किसी को भी उन के लिए लड़की ढूंढ़ने की जरूरत नहीं है. पहले तो दोनों के घर वालों ने उन्हें समाज में अपनी इज्जत का हवाला दे कर बहुत समझाया. सोमल की मां ने बहन की शादी में आने वाली परेशानी का वास्ता दिया. वंश बेल के खत्म होने का डर भी दिखाया, मगर जब दोनों अपने फैसले से टस से मस नहीं हुए तो तारेश की मां ने सोमल को और सोमल के घर वालों ने तारेश को जी भर कर कोसा. खूब हंगामा हुआ. मामला फ्लैट से बिल्डिंग में फैला और फिर पूरी सोसाइटी में वायरल हो गया. मकानमालिक ने फ्लैट खाली करने का नोटिस दे दिया.

बात धीरेधीरे दोनों के औफिस में भी पहुंच गई. हर व्यक्ति उन्हें ऐसे देख रहा था जैसे वे किसी दूसरे ही ग्रह के प्राणी हों. कल तक जो साथी उन के साथ काम करते, खातेपीते, उठतेबैठते, पार्टियां करते थे आज अचानक उन से कन्नी काटने लगे, अछूतों सा व्यवहार करने लगे. दोनों को ही घुटन होने लगी.

सोमल के तो बौस ने उसे एकांत में बुला कर समझा भी दिया, ‘‘देखो सोमल, तुम्हारे कारण औफिस का माहौल खराब हो रहा है. कर्मचारी अपने काम पर कम, तुम्हारी स्टोरी पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं. बेहतर होगा तुम इस्तीफा दे दो. अगर रिमार्क के साथ निकाले जाओगे तो तुम्हारे भविष्य के लिए घातक होगा.’’

तूफानों में बहने वालों के लिए वक्त कभी आसान नहीं होता. हार कर दोनों ने शहर छोड़ने का फैसला कर लिया और मुंबई शिफ्ट हो गए. इस बीच सोमल की बहन राखी की भी शादी हो गई. मगर उसे खबर तक नहीं की गई.

घर वालों ने तो पहले ही किनारा कर लिया था. सभी पुराने दोस्त भी छूट चुके थे. बस सोमल की एक चचेरी भाभी लीना ही थी, जिस ने इतना कुछ होने के बाद भी उस से संपर्क बनाए रखा था. अब इस नए शहर में दोनों को कोई नहीं जानता था. फिर से एक नई जिंदगी की शुरुआत हुई.

एक दिन अचानक लीना भाभी ने फोन पर बताया कि सोमल राखी के पति की ऐक्सीडैंट में डैथ हो गई. सोमल तड़प उठा. बहुत प्यार करता था अपनी बहन से.

‘उसे इस मुश्किल घड़ी में अपनी बहन के पास होना चाहिए,’ सोच कर तत्काल में ट्रेन के टिकट ले सोमल पहुंच गया अपनी बहन के पास.

उसे देखते ही राखी दौड़ कर लिपट गई भाई से. तभी उस की सास आई और उसे खींचते हुए भीतर ले गई. साथ ही सोमल को भी एहसास करवा गई कि उस का आना उन्हें जरा भी नहीं भाया. बस यही आखिरी मुलाकात थी सोमल की अपने अपनों से. इस के बाद उस की और तारेश की दुनिया एकदूसरे तक ही सिमट कर रह गई.

एक दिन दोनों फुरसत के पलों में टीवी पर ‘हे बेबी’ फिल्म देख रहे थे, जिस में 3 पुरुष साथी मिल कर एक बच्ची की परवरिश करते हैं.

 

तुम्हें पाने की जिद में – भाग 2 : रत्ना की क्या जिद थी

‘आप ने तो पूर्ण स्वस्थ और सुयोग्य जीतेंद्र से मेरा विवाह किया था न? मैं ने जिंदगी की हर खुशी इन से पाई है. स्वस्थ व्यक्ति कभी बीमार भी हो सकता है तो क्या बीमार को छोड़ दिया जाता है. इन की इस बीमारी को मैं ने एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया है. दुनिया में संघर्षशील व्यक्ति न जाने कितने असंभव कार्यों को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं, तो क्या मैं मानव सेवा परम धर्म के संस्कार वाले समाज में अपने पति की सेवा का प्रण नहीं ले सकती.

‘जीतेंद्र को इस हाल में छोड़ कर आप अपने दिल से पूछिए, क्या वाकई मैं आप के पास खुश रह पाऊंगी. यह मातापिता की अवहेलना से आहत हैं… पत्नी के भी साथ छोड़ देने से इन का क्या हाल होगा जरा सोचिए.

‘मम्मी, आप पुत्री मोह में आसक्त हो कर ऐसा सोच रही हैं लेकिन मैं ऐसा करना तो दूर ऐसा सोच भी नहीं सकती. हां, आप कुछ दिन यहां रुक जाइए… यश और गौरव को नानानानी का साथ अच्छा लगेगा. इन दिनों मैं उन पर ध्यान भी कम ही दे पाती हूं.’

रत्ना धीरेधीरे अपनी बात स्पष्ट कर रही थी. वह कुछ और कहती इस से पहले रत्ना के पापा, जो चुपचाप हमारी बात सुन रहे थे, उठ कर रत्ना को गले लगा कर बोले, ‘बेटी, मुझे तुम से यही उम्मीद थी. इसी तरह हौसला बनाए रहो, बेटी.’

रत्ना के निर्णय ने मेरे अंतर्मन को झकझोर दिया था. ऐसा लगा कि मेरी शिक्षा अधूरी थी. मैं ने रत्ना को जीवन संघर्ष मानने का मंत्र तो दिया मगर सहजता से जिम्मेदारियों का वहन करते हुए कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने का पाठ मुझे रत्ना ने पढ़ाया. मैं उस के सिर पर हाथ फेर कर भरे गले से सिर्फ इतना ही कह पाई थी, ‘बेटी, मैं तुम्हारे प्यार में हार गई लेकिन तुम अपने कर्तव्यों की निष्ठा में जरूर जीतोगी.’

कुछ दिन रत्ना और बच्चों के साथ गुजार कर मैं धीरज के साथ वापस आ गई थी. हम रहते तो ग्वालियर में थे मगर मन रत्ना के आसपास ही रहता था. दोनों बेटे अपने बच्चों और पत्नी के परिवार में खुश थे. मैं उन की तरफ से निश्चिंत थी. हम सभी चिंतित थे तो बस, रत्ना पर आई मुसीबत से. धीरज छुट्टियां ले कर मेरे साथ हरसंभव कोशिश करते जबतब इंदौर पहुंचने की.

रत्ना के ससुर इस मुश्किल समय में रत्ना को सहारा दे रहे थे. उन्होंने बडे़ संघर्षों के साथ अपने दोनों बेटों को लायक बनाया था. जीतेंद्र ही आर्थिक रूप से घर को सुदृढ़ कर रहे थे. हर्ष तब मेडिकल कालिज में पढ़ रहा था. इसलिए घर की आर्थिक स्थिति डांवांडोल होने लगी थी. बीमारी की वजह से जीतेंद्र को महीनों अवकाश पर रहना पड़ता था. अनेक बार छुट्टियां अवैतनिक हो जाती थीं. दवाइयों का खर्च तो था ही. काफी समय आगरा में अस्पताल में भी रहना पड़ता था.

 

एक डाली के तीन फूल- भाग 1: 3 भाईयों ने जब सालो बाद साथ मनाई दीवाली

भाई साहब की चिट्ठी मेरे सामने मेज पर पड़ी थी. मैं उसे 3 बार पढ़ चुका था. वैसे जब औफिस संबंधी डाक के साथ भाई साहब की चिट्ठी भी मिली तो मैं चौंक गया, क्योंकि एक लंबे अरसे से हमारे  बीच एकदूसरे को पत्र लिखने का सिलसिला लगभग खत्म हो गया था. जब कभी भूलेभटके एकदूसरे का हाल पूछना होता तो या तो हम टेलीफोन पर बात कर लिया करते या फिर कंप्यूटर पर 2 पंक्तियों की इलेक्ट्रौनिक मेल भेज देते.

दूसरी तरफ  से तत्काल कंप्यूटर की स्क्रीन पर 2 पंक्तियों का जवाब हाजिर हो जाता, ‘‘रिसीव्ड योर मैसेज. थैंक्स. वी आर फाइन हियर. होप यू…’’ कंप्यूटर की स्क्रीन पर इस संक्षिप्त इलेक्ट्रौनिक चिट्ठी को पढ़ते हुए ऐसा लगता जैसे कि 2 पदाधिकारी अपनी राजकीय भाषा में एकदूसरे को पत्र लिख रहे हों. भाइयों के रिश्तों की गरमाहट तनिक भी महसूस नहीं होती.

हालांकि भाई साहब का यह पत्र भी एकदम संक्षिप्त व बिलकुल प्रासंगिक था, मगर पत्र के एकएक शब्द हृदय को छूने वाले थे. इस छोटे से कागज के टुकड़े पर कलम व स्याही से भाई साहब की उंगलियों ने जो चंद पंक्तियां लिखी थीं वे इतनी प्रभावशाली थीं कि तमाम टेलीफोन कौल व हजार इलेक्ट्रौनिक मेल इन का स्थान कभी भी नहीं ले सकती थीं. मेरे हाथ चिट्ठी की ओर बारबार बढ़ जाते और मैं हाथों में भाई साहब की चिट्ठी थाम कर पढ़ने लग जाता.

प्रिय श्याम,

कई साल बीत गए. शायद मां के गुजरने के बाद हम तीनों भाइयों ने कभी एकसाथ दीवाली नहीं मनाई. तुम्हें याद है जब तक मां जीवित थीं हम तीनों भाई देश के चाहे किसी भी कोने में हों, दीवाली पर इकट्ठे होते थे. क्यों न हम तीनों भाई अपनेअपने परिवारों सहित एक छत के नीचे इकट्ठा हो कर इस बार दीवाली को धूमधाम से मनाएं व अपने रिश्तों को मधुरता दें. आशा है तुम कोई असमर्थता व्यक्त नहीं करोगे और दीवाली से कम से कम एक दिन पूर्व देहरादून, मेरे निवास पर अवश्य पहुंच जाओगे. मैं गोपाल को भी पत्र लिख रहा हूं.

तुम्हारा भाई,

मनमोहन.

दरअसल, मां के गुजरने के बाद, यानी पिछले 25 सालों से हम तीनों भाइयों ने कभी दीवाली एकसाथ नहीं मनाई. जब तक मां जीवित थीं हम तीनों भाई हर साल दीवाली एकसाथ मनाते थे. मां हम तीनों को ही दीवाली पर गांव, अपने घर आने को बाध्य कर देती थीं. और हम चाहे किसी भी शहर में पढ़ाई या नौकरी कर रहे हों दीवाली के मौके पर अवश्य एकसाथ हो जाते थे.

हम तीनों मां के साथ लग कर गांव के अपने उस छोटे से घर को दीयों व मोमबत्तियों से सजाया करते. मां घर के भीतर मिट्टी के बने फर्श पर बैठी दीवाली की तैयारियां कर रही होतीं और हम तीनों भाई बाहर धूमधड़ाका कर रहे होते. मां मिठाई से भरी थाली ले कर बाहर चौक पर आतीं, जमीन पर घूमती चक्कर घिन्नियों व फूटते बम की चिनगारियों में अपने नंगे पैरों को बचाती हुई हमारे पास आतीं व मिठाई एकएक कर के हमारे मुंह में ठूंस दिया करतीं.

फिर वह चौक से रसोईघर में जाती सीढि़यों पर बैठ जाया करतीं और मंत्रमुग्ध हो कर हम तीनों भाइयों को मस्ती करते हुए निहारा करतीं. उस समय मां के चेहरे पर आत्मसंतुष्टि के जो भाव रहते थे, उन से ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि दुनिया जहान की खुशियां उन के घर के आंगन में थिरक रही हैं.

हम केवल अपनी मां को ही जानते थे. पिता की हमें धुंधली सी ही याद थी. हमें मां ने ही बताया था कि पूरा गांव जब हैजे की चपेट में आया था तो हमारे पिता भी उस महामारी में चल बसे थे. छोटा यानी गोपाल उस समय डेढ़, मैं साढ़े 3 व भाई साहब 8 वर्ष के थे. मां के परिश्रमों, कुर्बानियों का कायल पूरा गांव रहता था. वस्तुत: हम तीनों भाइयों के शहरों में जा कर उच्च शिक्षा हासिल करने, उस के बाद अच्छे पदों पर आसीन होने में मां के जीवन के घोर संघर्ष व कई बलिदान निहित थे.

मां हम से कहा करतीं, तुम एक डाली के 3 फूल हो. तुम तीनों अलगअलग शहरों में नौकरी करते हो. एक छत के नीचे एकसाथ रहना तुम्हारे लिए संभव नहीं, लेकिन यह प्रण करो कि एकदूसरे के सुखदुख में तुम हमेशा साथ रहोगे और दीवाली हमेशा साथ मनाओगे.’

हम तीनों भाई एक स्वर में हां कर देते, लेकिन मां संतुष्ट न होतीं और फिर बोलतीं, ‘ऐसे नहीं, मेरे सिर पर हाथ रख कर प्रतिज्ञा करो.’

हम तीनों भाई आगे बढ़ कर मां के सिर पर हाथ रख कर प्रतिज्ञा करते, मां आत्मविभोर हो उठतीं. उन की आंखों से खुशी के आंसू छलक जाते.

मां के मरने के बाद गांव छूटा. दीवाली पर इकट्ठा होना छूटा. और फिर धीरेधीरे बहुतकुछ छूटने लगा. आपसी निकटता, रिश्तों की गरमी, त्योहारों का उत्साह सभीकुछ लुप्त हो गया.

कहा जाता है कि खून के रिश्ते इतने गहरे, इतने स्थायी होते हैं कि कभी मिटते नहीं हैं, मगर दूरी हर रिश्ते को मिटा देती है. रिश्ता चाहे दिल का हो, जज्बात का हो या खून का, अगर जीवंत रखना है तो सब से पहले आपस की दूरी को पाट कर एकदूसरे के नजदीक आना होगा.

हम तीनों भाई एकदूसरे से दूर होते गए. हम एक डाली के 3 फूल नहीं रह गए थे. हमारी अपनी टहनियां, अपने स्तंभ व अपनी अलग जड़ बन गई थीं. भाई साहब देहरादून में मकान बना कर बस गए थे. मैं मुंबई में फ्लैट खरीद कर व्यवस्थित हो गया था. गोपाल ने बेंगलुरु में अपना मकान बना लिया था. तीनों के ही अपनेअपने मकान, अपनेअपने व्यवसाय व अपनेअपने परिवार थे.

तुम्हें पाने की जिद में – भाग 1 : रत्ना की क्या जिद थी

ट्रेन में बैठते ही सुकून की सांस ली. धीरज ने सारा सामान बर्थ के नीचे एडजस्ट कर दिया था. टे्रन के चलते ही ठंडी हवा के झोंकों ने मुझे कुछ राहत दी. मैं अपने बड़े नाती गौरव की शादी में शामिल होने इंदौर जा रही हूं.

हर बार की घुटन से अलग इस बार इंदौर जाते हुए लग रहा है कि अब कष्टों का अंधेरा मेरी बेटी की जिंदगी से छंट चुका है. आज जब मैं अपनी बेटी की खुशियों में शामिल होने इंदौर जा रही हूं तो मेरा मन सफर में किसी पत्रिका में सिर छिपा कर बैठने की जगह उस की जिंदगी की किताब को पन्ने दर पन्ने पलटने का कर  रहा है.

कितने खुश थे हम जब अपनी प्यारी बिटिया रत्ना के लिए योग्य वर ढूंढ़ने में अपने सारे अनुभव और प्रयासों के निचोड़ से जीतेंद्र को सर्वथा उपयुक्त वर समझा था. आकर्षक व्यक्तित्व का धनी जीतेंद्र इंदौर के प्रतिष्ठित कालिज में सहायक प्राध्यापक है. अपने मातापिता और भाई हर्ष के साथ रहने वाले जीतेंद्र से ब्याह कर मेरी रत्ना भी परिवार का हिस्सा बन गई. गुजरते वक्त के साथ गौरव और यश भी रत्ना की गोद में आ गए. जीतेंद्र गंभीर और अंतर्मुखी थे. उन की गंभीरता ने उन्हें एकांतप्रिय बना कर नीरसता की ओर ढकेलना शुरू कर दिया था.

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जीतेंद्र के छोटे भाई चपल और हंसमुख हर्ष के मेडिकल कालिज में चयनित होते ही मातापिता का प्यार और झुकाव उस के प्रति अधिक हो गया. यों भी जोशीले हर्ष के सामने अंतर्मुखी जीतेंद्र को वे दब्बू और संकोची मानते आ रहे थे. भावी डाक्टर के आगे कालिज में लेक्चरर बेटे को मातापिता द्वारा नाकाबिल करार देना जीतेंद्र को विचलित कर गया.

बारबार नकारा और दब्बू घोषित किए जाने का नतीजा यह निकला कि जीतेंद्र गहरे अवसाद से ग्रस्त हो गए. संवेदनशील होने के कारण उन्हें जब यह एहसास और बढ़ा तो वह लिहाज की सीमाओं को लांघ कर अपने मातापिता, खासकर मां को अपना सब से बड़ा दुश्मन समझने लगे. वैचारिक असंतुलन की स्थिति में जीतेंद्र के कानों में कुछ आवाजें गूंजती प्रतीत होती थीं जिन से उत्तेजित हो कर वह अपने मातापिता को गालियां देने से भी नहीं चूकते थे.

शांत कराने या विरोध का नतीजा मारपीट और सामान फेंकने तक पहुंच जाता था. वह मां से खुद को खतरा बतला कर उन का परोसा हुआ खाना पहले उन्हें ही चखने को मजबूर करते थे. उन्हें संदेह रहता कि इस में जहर मिला होगा.

जीतेंद्र को रत्ना का अपनी सास से बात करना भी स्वीकार न था. वह हिंसक होने की स्थिति में उन का कोप भाजन नन्हे गौरव और यश को भी बनना पड़ता था.

मेरी रत्ना का सुखी संसार क्लेश का अखाड़ा बन गया था. अपने स्तर पर प्यारदुलार से जीतेंद्र के मातापिता और हर्ष ने सबकुछ सामान्य करने की कोशिश की थी मगर तब तक पानी सिर से ऊपर जा चुका था. यह मानसिक ग्रंथि कुछ पलोें में नहीं शायद बचपन से ही जीतेंद्र के मन में पल रही थी.

दौरों की बढ़ती संख्या और विकरालता को देखते हुए हर्ष और उन के मातापिता जीतेंद्र को मानसिक आरोग्यशाला आगरा ले कर गए. मनोचिकित्सक ने मेडिकल हिस्ट्री जानने के बाद कुछ परीक्षणों व सी.टी. स्केन की रिपोर्ट को देख कर उन की बीमारी को सीजोफे्रनिया बताया. उन्होंने यह भी कहा कि इस रोग का उपचार लंबा और धीमा है. रोगी के परिजनों को बहुत धैर्य और संयम से काम लेना होता है. रोगी के आक्रामक होने पर खुद का बचाव और रोगी को शांत कर दवा दे कर सुलाना कोई आसान काम नहीं था. उन्हें लगातार काउंसलिंग की आवश्यकता थी.

हम परिस्थितियों से अनजान ही रहते यदि गौरव और यश को अचंभित करने यों अचानक इंदौर न पहुंचते. हालात बदले हुए थे. जीतेंद्र बरसों के मरीज दिखाई दे रहे थे. रत्ना पति के क्रोध की निशानियों को शरीर पर छिपाती हुई मेरे गले लग गई थी. मेरा कलेजा मुंह को आ रहा था. जिस रत्ना को एक ठोकर लगने पर मैं तड़प जाती थी वही रत्ना इतने मानसिक और शारीरिक कष्टों को खुद में समेटे हुए थी.

जब कोई उपाय नहीं रहता था तो पास के नर्सिंग होम से नर्स को बुला कर हाथपांव पकड़ कर इंजेक्शन लगवाना ही आखिरी उपाय रहता था.

इतने पर भी रत्ना की आशा और  विश्वास कायम था, ‘मां, यह बीमारी लाइलाज नहीं है.’ मेरी बड़ी बहू का प्रसव समय नजदीक आ रहा था सो मैं रत्ना को हौसला दे कर भारी मन से वापस आ गई थी.

रत्ना मुझे चिंतामुक्त रखने के लिए अपनी लड़ाई खुद लड़ कर मुझे तटस्थ रखना चाहती थी. इस दौरान मेरे बेटे मयंक और आकाश जीतेंद्र को दोबारा आगरा मानसिक आरोग्यशाला ले कर गए. जीतेंद्र को वहां एडमिट किया जाना आवश्यक था, लेकिन उसे अकेले वहां छोड़ने को इन का दिल गवारा न करता और उसे काउंसलिंग और परीक्षणों के बाद आवश्यक हिदायतों और दवाओं के साथ वापस ले आते थे.

मैं बेटों के वापस आने पर पलपल की जानकारी चाहती थी. मगर वे ‘डाक्टर का कहना है कि जीतेंद्र जल्दी ही अच्छे हो जाएंगे,’ कह कर दाएंबाएं हो जाते थे.

कहां भूलता है वह दिन जब मेरे नाती यश ने रोते हुए मुझे फोन किया था. यश सुबकते हुए बहुत कुछ कहना चाह रहा था और गौरव फुसफुसा कर रोक रहा था, ‘फोन पर कुछ मत बोलो…नानी परेशान हो जाएंगी.’

लेकिन जब मैं ने उसे सबकुछ बताने का हौसला दिया तो उस ने रोतेरोते बताया, ‘नानी, आज फिर पापा ने सारा घर सिर पर उठाया हुआ है. किसी भी तरह मनाने पर दवा नहीं ले रहे हैं. मम्मी को उन्होंने जोर से जूता मारा जो उन्हें घुटने में लगा और बेचारी लंगड़ा कर चल रही हैं. मम्मी तो आप को कुछ भी बताने से मना करती हैं, मगर हम छिप कर फोन कर रहे हैं. पापा इस हालत में हमें अपने पापा नहीं लगते हैं. हमें उन से डर लगता है. नानी, आप प्लीज, जल्दी आओ,’ आगे रुंधे गले से वह कुछ न कह सका था.

तब मैं और धीरज फोन रखते ही जल्दी से इंदौर के लिए रवाना हो गए थे. उस बार मैं बेटी की जिंदगी तबाह होने से बचाने के लिए उतावलेपन से बहुत ही कड़ा निर्णय ले चुकी थी लेकिन धीरज अपने नाम के अनुरूप धैर्यवान हैं, मेरी तरह उतावले नहीं होते.

इंदौर पहुंच कर मेरे मन में हर बार की तरह जीतेंद्र के लिए कोई सहानुभूति न थी बल्कि वह मेरी बेटी की जिंदगी तबाह करने का दोषी था. तब मेरा ध्येय केवल रत्ना, यश और गौरव को वहां से मुक्त करा कर अपने साथ वापस लाना था. जीतेंद्र की इस दशा के दोषी उस के मातापिता हैं तो वही उस का ध्यान रखें. मेरी बेटी क्यों उस पागल के साथ घुटघुट कर अपना जीवन बरबाद करे.

उफ, मेरी रत्ना को कितनी यंत्रणा और दुर्दशा सहनी पड़ रही थी. जीतेंद्र सो रहे थे. उन्हें बड़ी मुश्किल से दवा दे कर सुलाया गया था.

एकांत देख कर मैं ने अपने मन की बात रत्ना के सामने रख दी थी, ‘बस, बहुत हो गई सेवा. हमारे लिए तुम बोझ नहीं हो जो जीतेंद्र की मार खा कर यहां पड़ी रहो. करने दो इस के मांबाप को इस की सेवा. तुम जरूरी सामान बांधो और बच्चों को ले कर हमारे साथ चलो.’

तब यश और गौरव सहमे हुए मेरी बात से सहमत दिखाई दे रहे थे. आखिरकार उन्होंने ही तो मुझे समस्या से उबरने के लिए यहां बुलाया था. ‘क्या सोच रही हो, रत्ना. चलने की तैयारी करो,’ मैं ने उसे चुप देख कर जोर से कहा था.

‘सोच रही हूं कि मां बेटी के प्यार में कितनी कमजोर हो जाती है. आप को इन हालात से निकलने का सब से सरल उपाय मेरा आप के साथ चलना ही लग रहा है. ‘जीवन एक संघर्ष है’ यह घुट्टी आप ने ही पिलाई है और बेटी के प्यार में यह मंत्र आप ही भूले जा रही हैं… और लोगों की तरह आप भी इन्हें पागल की उपमा दे रही हैं जबकि यह केवल एक बीमार हैं.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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