कसौटी : कौन परख रहा था कामना को

प्लेटफार्म पर गाड़ी लगते ही कामना अपने पिता के साथ डब्बे की ओर दौड़ पड़ी. गरमी से उस के होंठ सूख रहे थे. सूती साड़ी पसीने में भीग कर शरीर से चिपक गई थी, पर उसे होश कहां था. यह गाड़ी छूट गई, तो उस का मकसद पूरा नहीं हो पाएगा. किसी भी कीमत पर इस रेल में जगह बनानी ही होगी. बापबेटी दोनों अपनी पूरी ताकत से रेल में चढ़ने की नाकाम कोशिश करने लगे.

उसी डब्बे में एक सज्जन भी चढ़ने की कोशिश कर रहे थे. इसी बीच पैर फिसलने के चलते वे औंधे मुंह प्लेटफार्म पर लुढ़क गए. बापबेटी चढ़ना भूल कर उस गिरे हुए मुसाफिर की मदद को लपके.

दूसरे मुसाफिरों का चढ़नाउतरना लगातार जारी था. किसी ने भी मुड़ कर बेहोश पड़े हुए उन सज्जन को नहीं देखा. न किसी के पास समय था और न इनसानियत. कामना ने आव देखा न ताव और झुक कर उन बुजुर्ग को उठाने लगी.

‘‘पानी… पानी…’’ वे बुजुर्ग बुदबुदाए.

अगर कामना ने उन सज्जन के मुंह पर पानी का छींटा मार कर उन्हें भीड़ से उठा कर सीमेंट की बैंच पर लिटा नहीं दिया होता, तो वे मुसाफिरों के पैरों तले कुचले जाते.

ठंडे पानी के छींटों से वे सज्जन कुनमुनाए और ऊपरी जेब की ओर इशारा किया. कामना ने  झट से जेब में हाथ डाला. दवा की शीशी थी. चंद बूंद होंठों पर पड़ते ही वे बुजुर्ग उठ कर बैठने की कोशिश करने लगे.

इधर गार्ड ने हरी  झंडी दिखाई, सीटी दी और ट्रेन चल पड़ी. बापबेटी हड़बड़ा गए. गाड़ी पकड़ें या अनजान इनसान की मदद करें. मंजिल तक उन का पहुंचना बहुत जरूरी था वे कुछ फैसला लेने ही वाले थे कि उन बुजुर्ग ने कहा, ‘‘बेटी और एक खुराक दवा देना.’’

कामना उन्हें दवा खिलाने लगी. ट्रेन जा चुकी थी. बचे हुए तमाशबीन लोग उन के इर्दगिर्द जमा होने लगे थे.

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कैसे गिर पड़े?’’

‘‘आप लोगों के साथ हैं क्या?’’

तरहतरह के सवाल बापबेटी के कानों से टकराने लगे. कुछ शोहदे नजदीक आने का प्रपंच करने लगे. गाड़ी खुलने के साथ ही बापबेटी के अरमानों का महल ढह गया. वे ठंडी सांस ले कर रह गए. मंजिल हाथ आ कर एक बार फिर फिसल गई थी.

यह अफसोस करने का समय नहीं था. वे दोनों उन सज्जन की तीमारदारी में लग गए. अनजान शहर में किसी तरह पूछताछ करते हुए एक डाक्टर के पास पहुंचे. डाक्टर भले इनसान थे. मुआयना कर के वे बोल उठे, ‘‘दिल का दौरा था. यह तो अच्छा हुआ कि इन्होंने समय पर दवा खा ली, वरना जान भी जा सकती थी.’’

वे बुजुर्ग सज्जन कामना और उस के पिता के प्रति कृतज्ञ हो उठे. डाक्टर ने उन्हें कुछ दवाएं दीं और खतरे से बाहर बताया. कुछ जरूरी हिदायतों के साथ उन्हें घर तक जाने की इजाजत दे दी.

दिल्ली जाने वाली दूसरी ट्रेन रात के 9 बजे थी. कामना और उस के पापा वापस जाने की सोचने लगे.

‘‘क्यों…? आप वापस किसलिए जा रहे हैं?’’ उन सज्जन ने पूछा.

‘‘अब दिल्ली जाने का कोई मतलब नहीं, क्योंकि रात वाली गाड़ी कल शाम को पहुंचेगी और हमारा काम वहां दिन में 10 बजे तक ही था,’’ पिता की आवाज में उदासी थी.

‘‘ऐसा कौन सा काम था, अगर एतराज न हो तो मु झे बताएं,’’ उन सज्जन की उत्सुकता बढ़ गई.

‘‘एतराज कैसा, वहां एक फर्म में बिटिया का इंटरव्यू था. उम्मीद थी कि नौकरी मिल जाएगी, पर लगता है कि अब ऐसा नहीं हो पाएगा. खैर, आप की जान बच गई, यही इस सफर की उपलब्धि रही.’’

कामना उन बुजुर्ग सज्जन की सेवा में लगी थी, अब वापसी के लिए तैयार हो गई. बुजुर्ग सज्जन ने पहली बार बापबेटी को गौर से देखा.

‘‘कौन सी फर्म?’’

कामना से जानकारी पा कर वे सज्जन चिंता में पड़ गए. एक बेरोजगार के हाथ से नौकरी जाने की वजह अपनेआप को सम झ कर उन्हें आत्मग्लानि होने लगी.

‘‘सुनिए, आप दोनों मेरे साथ रात की गाड़ी से दिल्ली चलिए. वहां फर्म में अपनी समस्या बताएंगे तो शायद वे लोग आप को एक मौका दे दें,’’ उन बुजुर्ग ने कहा.

‘‘वहां कौन हमारी बात सुनेगा. इंटरव्यू तो सुबह 10 बजे ही है,’’ कामना ने कहा.

‘‘आप मेरी बात तो मानिए और दिल्ली चलिए. काम नहीं होगा तो लौट आइएगा. क्यों बिटिया, मैं ठीक कह रहा हूं न? नहीं तो मैं अपनेआप को माफ नहीं कर पाऊंगा,’’ अनायास वातावरण गंभीर हो उठा.

‘‘बाबा, चलिए एक बार हो आते हैं,’’ कामना ने अपने पिता से कहा.

‘‘पर, दिल्ली में आप लोग कहां ठहरेंगे?’’ उन बुजुर्ग ने पूछा.

‘‘दिल्ली में हमारा कोई परिचित नहीं है. उस फर्म में मिल कर स्टेशन आ जाएंगे और वापसी के लिए जो भी गाड़ी मिलेगी, पकड़ लेंगे,’’ कामना ने कहा.

‘‘कहीं रुकना पड़ा तो,’’ उन बुजुर्ग ने कहा, तो कामना के पिता का सब्र जवाब दे गया, ‘‘फर्म वाले हमें क्यों रोकेंगे? देर से जाने पर वैसे ही भगा देंगे.’’

बहरहाल, वे तीनों दिल्ली आ पहुंचे.

‘‘कृपया आप लोग मेरी गाड़ी से चलिए. मु झ पर भरोसा कीजिए,’’ उन बुजुर्ग ने हाथ जोड़ कर कहा. इस प्रस्ताव पर बापबेटी चौंक उठे.

‘‘नहींनहीं, हम आटोरिकशा से चले जाएंगे. आप कष्ट न करें,’’ कामना ने कहा.

‘‘इस में कष्ट कैसा? आप ऐसा न सम झें कि मैं आप के एहसान का बदला चुका रहा हूं. मेरी गाड़ी आई है और मैं दिल्ली का रहने वाला हूं, इसलिए आप की मुश्किल हल करने की छोटी सी कोशिश है.’’

उन बुजुर्ग की बातों ने बापबेटी को ज्यादा सोचने का मौका नहीं दिया. वे इनकार नहीं कर सके. नई चमचमाती विदेशी कार, वरदीधारी ड्राइवर को देख कर वे दोनों हैरान थे.

ज्यादा सोचनेसम झने का वक्त नहीं था. एक फाइवस्टार होटल के सामने कार रुकी. ड्राइवर को कोई जरूरी निर्देश दे कर वे बुजुर्ग कामना के पिता से बोले, ‘‘आप के लिए कमरा बुक है. जब तक चाहें रुकें. मेरा ड्राइवर आ कर उस फर्म तक ले जाएगा. गाड़ी आप के पास ही रहेगी. कामना जैसी आप की बेटी, वैसी ही मेरी.’’

कामना भावुक हो कर उन बुजुर्ग के पैरों पर  झुक गई, ‘‘चाचाजी, होटल का खर्चा हम देंगे. आप ने हमारे बारे में सबकुछ जान लिया है, पर अपने बारे में कुछ नहीं बताया.’’

उन बुजुर्ग सज्जन ने कहा, ‘‘बेटी, बातों में समय मत गंवाओ.’’

थोड़ी देर में गाड़ी फर्राटे से लहराती आगे बढ़ गई. फर्म पहुंच कर धड़कते दिल से वे दोनों सीढि़यां चढ़ने लगे.

‘‘कामना सिंह…’’ उस के पहुंचते ही कटे बाल, मिनी स्कर्ट वाली एक लड़की ने पूछा.

‘‘जी हां,’’ कामना ने कहा.

‘‘अंदर आइए, आप का इंतजार हो रहा है,’’ लड़की ने मधुर आवाज में कहा.

‘‘इंतजार और मेरा?’’ कामना बुदबुदाई.

कामना जब इंटरव्यू दे कर निकली तो उस के पैर जमीन पर नहीं थे. हाथ में पकड़ा हुआ नियुक्तिपत्र हवा में फड़फड़ा रहा था.

‘‘पिताजी, मु झे यह नौकरी मिल गई.’’

‘‘सच…’’ पिता को यकीन ही नहीं हुआ.

‘‘हां पिताजी, अच्छी सैलरी, फ्लैट अपने गांव के निकट वाले शहर में पोस्टिंग.’’

कालेसफेद मोतियों की तरह दिनरात बीतने लगे. आज कामना को नौकरी में आए

3 साल बीत गए. उस की शादी के रिश्ते आने लगे.

आज कामना की छुट्टी थी. वह घरेलू काम में जुटी हुई थी. इतने में दरवाजे की घंटी बजी. आया ने किवाड़ खोल कर उसे आवाज दी. वह अपने आंचल से गीले हाथ पोंछ कर पीठ पर लहराते खुले बालों को समेटती हुई बैठक में पहुंची.

‘‘अरे, आप…’’ कामना को अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हो रहा था.

‘‘हां, मैं. कैसी हो बेटी?’’ वे वही बुजुर्ग थे, जिन की कामना ने जान बचाई थी.

भीतर आने के बाद वे बुजुर्ग देर तक उस के पिता से बातें करते रहे.

बात आईगई हो गई. एक जगह कामना के ब्याह की बात पक्की हो गई. ब्याह का न्योता उन बुजुर्ग सज्जन को देने की हार्दिक इच्छा थी, पर उन का अतापता कामना के पास नहीं था.

बरात आ गई. शहनाई की गूंज तेज हो गई. बैंडबाजे की धुन और फिल्मी गीतों पर लड़केलड़कियां डांस करने लगे. दुलहन बनी कामना का दिल तेजी से धड़कने लगा. वरमाला के लिए सहेलियां उसे मंडप की ओर ले चलीं. जयमाल के समय उस की निगाहें बरातियों की ओर उठी गईं. अगली लाइन में वही बुजुर्ग छींटदार साफा बांधे उस की ओर देख कर मंदमंद मुसकरा रहे थे.

कामना चौंक उठी. उसे अपनी आंखों पर यकीन नहीं हुआ.

‘‘यही मेरे दादाजी हैं. इन की ही फर्म में नौकरी करती हैं आप. और इन्होंने ही मेरे लिए आप को पसंद किया है,’’ दूल्हा शरारत से फुसफुसाया.

‘‘मु झे पहले क्यों नहीं बताया?’’

‘‘दादाजी से पूछ लेना.’’

कामना ने हड़बड़ा कर अपने पिता की ओर देखा. उन की आंखों में मौन स्वीकृति थी. तो यह बात है. सभी ने मिल कर यह खूबसूरत नाटक खेला है उस के साथ. एक दिलकश साजिश की शिकार हुई है वह.

शादी के बाद कामना एक दिन दादाजी से पूछ ही बैठी, ‘‘आप ने हमें पहले क्यों नहीं बताया कि वह फर्म आप की है?’’

‘‘बेटी, मैं तुम बापबेटी के अच्छे बरताव से काफी प्रभावित हुआ था. अगर तुम दोनों ने भी मु झे दूसरे मुसाफिरों की तरह तड़पने के लिए प्लेटफार्म पर छोड़ दिया होता, तो निश्चित ही मेरी मौत हो गई होती. मैं तुम दोनों को अच्छी तरह परखना चाहता था, इसीलिए मैं ने 3 साल लिए.

‘‘मेरी जायदाद का एकलौता वारिस मेरा पोता भी तुम्हें जांचपरख ले. कोई जल्दबाजी नहीं. अगर संतुष्ट हो जाए तो तुम्हें अपनी जीवनसंगिनी बना ले. तुम मेरी कसौटी पर खरी उतरी और पोते के सपनों को साकार करने वाली भी.’’

कामना पिछले दिनों की कड़ियों का सूत्र एकदूसरे से जोड़ने की फुजूल की कोशिश करती हुई मन ही मन खुश हो उठी. दादाजी की कसौटी पर खरा उतरने का संतोष उस के चेहरे पर साफ झलक रहा था.

इंतजार : क्या रुक्मी का पति उसके पास लौटा

रुक्मी ने दीवार पर टंगी लालटेन उतार कर जलाई और सदर दरवाजा बंद कर के आंगन में बिछी खटिया पर आ कर बैठ गई. चारों तरफ निगाह घुमाई, तो हर तरफ एक गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था. पिछले 40 सालों से यह सन्नाटा ही तो उस के अकेलेपन का साथी रहा है.

अब तो रुक्मी को इस की इतनी आदत पड़ गई है कि इस सन्नाटे की भी आहटें उसे सुनाई दे जाती हैं, मानो सन्नाटा उस से बात करने की कोशिश करता हो.

रुक्मी ने लौ धीमी कर के लालटेन को फर्श पर टिकाया और खटिया पर लेट कर सोने की कोशिश करने लगी.

55-56 साल पहले जब 12 बरस की रुक्मी इस घर में ब्याह कर आई थी, तब शहर से दूर कुदरत की गोद में बसे इस छोटे से गांव में उस के ससुर की इस पक्की हवेली के अलावा बाकी सभी घर कच्चे थे, लेकिन लोगों का आपसी प्यार बहुत पक्का था.

पूरा गांव एक संयुक्त परिवार की तरह मिलजुल कर रहता था और रुक्मी के ससुर बैजनाथ चौधरी परिवार के मुखिया की तरह ही यहां रहने वाले हर इनसान के सुखदुख का खयाल रखते थे.

परिवार में सासससुर के अलावा रुक्मी का पति गौरीनाथ और 4 ननदें थीं. धीरेधीरे ननदें अपनीअपनी ससुराल चली गईं और रुक्मी अपने सासससुर और पति के साथ इस हवेली में रह गई.

सासससुर ने हमेशा रुक्मी को खूब स्नेह दिया, लेकिन गौरीनाथ जैसेजैसे नौजवान हुआ, उस की उड़ानें अपने घर और गांव से निकल कर शहर तक होने लगीं. कालेज की पढ़ाई करने के लिए उसे शहर क्या भेजा गया कि वह पूरे तौर से शहर का ही हो कर रह गया.

चौधरी साहब ने कई बार बेटे से कहा कि वह गांव वापस आ कर यहां का कारोबार संभाले, लेकिन उस ने साफ कह दिया कि इतना पढ़नेलिखने के बाद अब वह खेतीबारी का देहाती काम नहीं करेगा.

बेटे के इनकार से निराश और अपनी बढ़ती उम्र से लाचार चौधरी साहब अपनी सारी जमीनजायदाद बेचने के बारे में सोचने लगे, तब एक दिन रुक्मी ने थोड़ा सकुचाते हुए कहा, ‘‘बाबूजी, आप अपने पुरखों की जमीन मत बेचिए. मैं आप को वचन देती हूं कि इस की पूरी देखभाल मैं करूंगी.’’

अपनी बहू की बात सुन कर पहले तो बैजनाथ चौधरी ने उसे जमीनजायदाद से जुड़ी जिम्मेदारियों की मुश्किलें बताते हुए इस  झमेले में न पड़ने को कहा, लेकिन रुक्मी ने खेतखलिहानों की देखभाल करते हुए कुछ ही समय में अपनी काबिलीयत का लोहा चौधरी साहब को मनवा दिया और उन्होंने बहू को सारा काम देखने की आजादी दे दी.

शहर जाने के शुरू के दिनों में तो गौरीनाथ महीने 2 महीने में गांव आता रहता था और यहां से अनाज और रुपए भरभर कर शहर ले जाता था, लेकिन जब रुक्मी की बेटी आशा का जन्म हुआ, तब चौधरीजी ने बेटे से कहा कि वह अनाज तो यहां से चाहे जितना ले जा सकता है, लेकिन पैसे पर अब उस का कोई हक नहीं है, क्योंकि यह पैसा रुक्मी की कड़ी मेहनत का फल है, इसलिए उस पर रुक्मी और उस की बेटी का हक है.

बाबूजी की बात सुन कर गौरीनाथ चिढ़ गया, लेकिन पिता पर कोई बस नहीं चलता था, इसलिए रुक्मी को शहर के खर्चों और अपनी परेशानियों के बारे में बता कर रुपए देने के लिए दबाव डालने लगा, लेकिन रुक्मी ने अपने ससुर की बात की इज्जत रखते हुए पति को पैसे देने से साफ इनकार कर दिया.

पैसा मिलना बंद होने के चलते धीरेधीरे गौरीनाथ ने गांव आना बहुत कम कर दिया. चौधरी साहब बेटे की नीयत को सम झ गए थे, इसलिए उन्होंने अपनी जमीन और पुश्तैनी हवेली रुक्मी के नाम कर दी. साथ ही, आशा की पढ़ाईलिखाई का भी पूरा ध्यान रखते हुए उस का नाम गांव के स्कूल में लिखवा दिया और थोड़ी बड़ी होने पर उस के लिए एक मास्टर रख कर घर में भी उस की पढ़ाई का पूरा इंतजाम करा दिया, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि अपनी मां की तरह अनपढ़ रह कर आशा को भी जिंदगी में तकलीफें उठानी पड़ें.

जब आशा 20 साल की थी, तब रुक्मी के ससुर का देहांत हो गया. सास पहले ही नहीं रही थीं. पिता के देहांत के बाद गौरीनाथ ने रुक्मी से कहा कि वह तो गांव में रह नहीं पाएगा, इसलिए यहां की जमीन और हवेली बेच कर शहर में बंगला खरीदेगा, जिस पर रुक्मी ने कहा कि वह बाबूजी को दिए हुए अपने वचन को निभाएगी और मरते दम तक बाबूजी की इस हवेली को बिकने नहीं देगी.

उस समय तो गौरीनाथ शहर वापस लौट गया, लेकिन 2 साल बाद अचानक वह आशा के जन्मदिन पर बेटी के लिए ढेर सारे कपड़े और उपहार ले कर गांव आया और रुक्मी के लिए भी साड़ी, चूडि़यां और लालीपाउडर ले कर आया. वह 4 दिनों तक घर पर रुका था और रुक्मी से ढेरों बातें भी की थीं.

रुक्मी को लगा था कि उस का पुराना गौरी वापस आ गया है, लेकिन वह गलत थी, क्योंकि उस का गौरी तो उस से नाता तोड़ने के लिए आया था.

शहर वापस जाने से एक दिन पहले जब रुक्मी ने रोते हुए गौरी से गांव लौट आने को कहा, तो उस ने रुक्मी को अपने पास बैठा कर बड़े प्यार से उस का हाथ थाम कर कहा था, ‘‘रुक्मी, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं, लेकिन अब शहर छोड़ कर नहीं आ सकता और तुम्हें शहर ले नहीं जा सकता, क्योंकि तुम देहातन हो और शहर के तौरतरीके नहीं जानती, इसलिए मैं अब एक पढ़ीलिखी शहरी लड़की से शादी करूंगा, जो शहर में मेरा साथ दे सके.’’

यह कह कर गौरीनाथ ने एक कानूनी कागज आगे करते हुए रुक्मी से उस पर अंगूठा लगवा कर बताया कि वह रुक्मी से तलाक ले रहा है, इसलिए अब वह यहां के खेतों और हवेली की जिम्मेदारियों से छुटकारा पा कर अपने घर वापस जा सकती है.

गौरीनाथ की पूरी बात रुक्मी ने बड़े आराम से सुनी, मगर जब उस ने गांव छोड़ कर जाने की बात कही, तो रुक्मी अपना आपा खो बैठी और बोली, ‘‘ब्याह से पहले अम्मांबाबू कहते थे कि शादी के बाद तेरी ससुराल ही तेरा घर होगा. मैं तो इसे ही अपना घर सम झती रही हूं और बाबूजी भी मु झे अपनी बिटिया जैसा स्नेह करते रहे.

‘‘अब मैं तुम्हें बता देती हूं कि यह हवेली और खेत बाबूजी ने मेरे नाम लिख दिए हैं, सो अब यही मेरा घर है. तुम मु झे यहां से नहीं निकाल सकते.’’

रुक्मी की बात सुन कर गौरीनाथ बगलें  झांकने लगा. उसे यह आज तक नहीं मालूम था कि उस के बाबूजी ने अपनी जायदाद का हकदार बेटे को नहीं, बल्कि अपनी बहू को बना दिया था.

गौरीनाथ ने रुक्मी से वसीयतनामा दिखाने को कहा, मगर शहरी गौरीनाथ की देहातन पत्नी ने उसे जवाब दिया कि वसीयतनामा तो अब वह तलाक के समय कचहरी में ही दिखाएगी.

अपनी पत्नी के तेवर देख कर गौरीनाथ ने आगे कोई बहस नहीं की. उस का अंगूठा लगा हुआ तलाकनामा ले कर शहर वापस चला गया.

गौरीनाथ को तो जवाब दे दिया था कि रुक्मी इस हवेली को छोड़ कर अब कहीं नहीं जाएगी, लेकिन उस का मन तो अपने पति के बहुत दूर चले जाने के एहसास से तड़प रहा था. जब गौरीनाथ ने ही उसे छोड़ने का फैसला कर लिया है, तो इस हवेली और जमीन से क्या लगाव.

रुक्मी की इच्छा हुई कि सबकुछ छोड़ कर इस दुनिया से ही चली जाए, लेकिन आशा का चेहरा देख कर उस ने खुद को संभाला और कलेजे पर पत्थर रख कर इस सचाई को स्वीकार कर लिया कि पति अब उस का नहीं रहा है.

कुछ ही दिनों में गौरीनाथ द्वारा रुक्मी को छोड़ कर शहरी मेम से ब्याह करने की खबर पूरे गांव में फैल गई, लेकिन गांव वालों ने अपने चौधरी साहब की बहू को पूरा संरक्षण देते हुए उसे बेफिफ्री से हवेली में रहने के लिए कहा और हमेशा उस का साथ देने का वचन दिया.

आज तक गांव वाले अपना वचन निभा रहे हैं और जरूरत पड़ने पर रुक्मी की मदद के लिए पूरा गांव उस के साथ खड़ा हो जाता है.

आज से 40 साल पहले एक बार गौरीनाथ अपनी दूसरी पत्नी और बेटे को ले कर गांव आया था और रुक्मी को जमीनजायदाद अपने बेटे के नाम करने का दबाव डालने लगा था. तब गांव की पंचायत ने गौरीनाथ को अपना फैसला सुनाते हुए कहा था कि गांव की जमीन और हवेली पर केवल रुक्मी बहू का और उस के बाद आशा का हक है, इसलिए वह अपने शहरी परिवार को ले कर यहां से जा सकता है.

उस दिन के बाद गौरीनाथ ने अपनी पत्नी और बेटी की कोई खोजखबर नहीं ली. आशा के ब्याह के समय भी वह नहीं आया था. रुक्मी ने अकेले ही बेटी का कन्यादान किया था.

आशा का ब्याह बगल के गांव में हुआ है और उस के ससुराल वाले और पति बहुत सज्जन लोग हैं, इसलिए आशा अपनी मां से मिलने आती रहती है और दामाद भी जरूरत पड़ने पर रुक्मी की मदद के लिए पहुंच जाता है और फिर पूरे गांव का सहयोग तो है ही रुक्मी को. उस ने भी गांव वालों के लिए अपनी हवेली के फाटक खोल दिए हैं.

हवेली के बड़े कमरे में सुबह बच्चों की पाठशाला लगती है और शाम को उसी जगह प्रौढ़ शिक्षा केंद्र बन जाता है. हवेली का पीछे का हिस्सा और जमीन रुक्मी ने स्कूल के लिए दे दी है, जिस से उस के गांव वालों को खेतीबारी में बहुत मदद मिलती है और इसलिए पूरा गांव रुक्मी बहू के गुणगान करते नहीं थकता है.

लेकिन गांव वालों की इतनी इज्जत और स्नेह पाने के बाद भी कई बार रुक्मी को अकेलापन कचोटने लगता है और वह गौरी को याद कर के बिलखने लगती है. यह बेचैनी तब से और भी बढ़ गई है, जब से उसे खांसीबुखार ने घेरा है.

आशा और उस का पति जब पिछले महीने उस से मिलने आए, तो मां को बीमार और कमजोर देख कर वह लोग जिद कर के उस को पास के कसबे के अस्पताल में जांच करवाने ले गए.

डाक्टर ने बताया कि टीबी के चलते दोनों फेफड़े गल चुके हैं और अब रुक्मी की जिंदगी के कुछ ही दिन बचे हैं. आशा ने रोते हुए मां से अपने साथ चलने की जिद की, तो उस ने प्यार से बेटी को मना करते हुए कहा, ‘‘बिटिया, अब अंत समय में मैं अपनी देहरी छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी. मेरी फिक्र न करो, ये गांव वाले मेरा पूरा खयाल रखते हैं. बस, एक इच्छा रही है कि एक बार तेरे बापू को देख लेती.’’

लाख कहने पर भी जब मां साथ जाने के लिए नहीं मानीं, तो आशा ने इस उम्मीद से पिता को फोन किया कि रुक्मी की हालत के बारे में सुन कर शायद उन का मन पसीज जाए और वे मां से मिलने आ जाएं, पर गौरीनाथ ने बेटी को दोटूक जवाब देते हुए कहा, ‘‘मेरा उस से अब कोई रिश्ता नहीं है. तुम्हारी मां है, तुम जानो.’’

रुक्मी की देखभाल करने के लिए आशा को उस के पास छोड़ कर रुक्मी का दामाद अपने गांव चला गया. शाम को रुक्मी ने आशा से कहा, ‘‘बिटिया, मेरे बक्से में एक लाल साड़ी रखी है, वह मु झे पहना दो और सिंदूर की डिबिया ले आओ.’’

अपनी मां की इस मांग से परेशान आशा ने तुरंत अपने पति को फोन कर के जल्दी आने को कहा और फिर अपने आंसू पोंछते हुए मां के बक्से में से लाल साड़ी निकाल कर रुक्मी को पहना कर उन के बाल संवारे और सिंदूरदानी और आईना मां के सामने कर दिया.

उस समय न जाने कहां से रुक्मी के बेजान शरीर में इतनी ताकत आ गई कि  झट से चारपाई पर बैठ कर उस ने कंघे से अपनी मांग में सिंदूर भरा और फिर उठने की कोशिश में लड़खड़ा कर चारपाई पर गिर गई.

आशा ने मां को ठीक से लिटाना चाहा, तो बेटी का हाथ पकड़ कर वह बोली, ‘‘मु झे जमीन पर बिठा दो.’’

आशा ने बहुत सम झाया और आराम करने को कहा, लेकिन रुक्मी ने जिद पकड़ ली, तो आशा ने अपनी मां को सहारा दे कर फर्श पर बिठाया और तभी रुक्मी की आंखें पलटने लगीं और वह वहीं पर गिर पड़ी.

थोड़ी ही देर में रुक्मी के देहांत की खबर गांवभर में फैल गई और उन के अंतिम दर्शनों के लिए पूरा गांव उमड़ पड़ा, लेकिन रुक्मी को जिंदगीभर जिस का इंतजार रहा, वह गौरीनाथ पत्नी के आखिरी समय पर भी नहीं आया.

जिंदगी औरत की : कल्पना और अहल्या का दर्द

काफी पसोपेश के बाद भी अहल्या तय नहीं कर पाई कि वह कोख में पल रही बच्ची को गिराए या नहीं. वैसे, हालात का खयाल आते ही उसे बच्चा गिराने पर मजबूर हो जाना पड़ता था. वह सोचती कि घर हो या बाहर, गांव हो या शहर, चारों ओर दहशतगर्दी है. दिनदहाड़े हत्याएं और बलात्कार होते हैं. बूढ़ी हो या जवान, किसी भी उम्र की औरत को बलात्कार का शिकार बनना पड़ सकता है.

कुछ दिन पहले ही उस के पिता की उम्र के एक अफसर ने उसे काम के बहाने अपने घर पर बुला कर उस के साथ हमबिस्तरी की ख्वाहिश जाहिर की थी. वह सपने में भी उस बूढ़े से ऐसी हरकत की उम्मीद नहीं कर सकती थी.

तकरीबन 15 बरस पहले उस के ममेरे भाई ने उस के साथ जबरदस्ती की थी, लेकिन वह खामोशी से उस पीड़ा को सह गई थी.

अहल्या सोचती कि लड़की को जन्म देना ही आफत मोल लेना है. लेकिन उस के पेट में पलती बच्ची उस के पति की आखिरी निशानी थी, इसलिए इस बारे में उसे बारबार सोचना पड़ रहा था.

आखिर में उस ने पेट में पल रही बच्ची को गिराने का ही इरादा किया और इस काम में होस्टल की वार्डन कल्पना से मदद मांगी, ‘‘मैडम, आप से एक विनती है.’’

‘‘बोलो, क्या बात है? कैसी मदद चाहती हो?’’ मैडम ने पूछा.

‘‘मुझे पेट गिराना है. मेरे पेट में 3 महीने की बच्ची पल रही है.’’

‘‘तू विधवा है न? क्या किसी ने तुम्हारे साथ बलात्कार किया है?’’

‘‘नहीं मैडम, यह मेरे पति की आखिरी निशानी है. उस को मरे तो सिर्फ 2 महीने हुए हैं.’’

‘‘तो फिर यह बच्चा क्यों गिरवा रही है?’’

‘‘मैं ने जांच करवा ली है. पेट में बच्ची है, बच्चा नहीं.’’

‘‘बच्ची होने से तुझे क्या परेशानी है?’’

‘‘उसे पालनेपोसने से ले कर शादी करने तक झमेला ही झमेला है. हालात इतने खराब हो गए हैं कि ऐसा लगता है, जैसे हम किसी जंगल राज में जिंदगी गुजार रहे हैं. बच्ची जब थोड़ी बड़ी होती है, तो उस की इज्जत बचाने की चिंता हरदम सताती रहती है. इस के अलावा उस की शादी करना भी कितनी बड़ी समस्या होती है.

‘‘औरत की जिंदगी नरक बन कर रह गई है. हमारे जैसे लोग अपनी बच्ची को ऐसी जिंदगी गुजारने को क्यों मजबूर करें. यही सोच कर मैं ने पेट गिराने का फैसला लिया है.’’

होस्टल की वार्डन सोचने लगी कि अहल्या का सोचना बिलकुल सही है. इस में कोई दो राय नहीं है कि औरत को हर उम्र में पीछा करने वालों से सावधान रहना पड़ता है. इस अधेड़ उम्र में भी मेरे जीजा ने किस तरह अपने चंगुल में फंसा कर मेरे साथ बलात्कार किया. उस दिन रात को मैं उस के घर पर मजबूरी में ठहरी थी. दीदी बहुत समय पहले मर चुकी थीं. बालबच्चे सभी दूसरे शहरों में रहते हैं.

मेरे पति ने कहा था कि होटल में न ठहरना, हालांकि मुझे सरकारी खर्चे पर वहां 2 दिन ठहरना था. रात में खाने के बाद जब मैं सोने के लिए दूसरे कमरे में जाने लगी, तो जीजा ने फरमाया, ‘कल्पना, मेरे कमरे में चलो. थोड़ी देर गपशप करेंगे… तुम से बहुत दिनों के बाद भेंट हुई है.’

मैं उन के कमरे में जा कर कुरसी पर बैठ गई. कुछ देर तक बातें करने के बाद उन्होंने पूछा, ‘बहुत ठंड है, मैं तो दूध लेता हूं… तुम क्या लोगी… गरम दूध या चाय?’ मैं ने कहा, ‘कुछ नहीं.’

पर उन्होंने जोर दिया, ‘नहीं, कुछ तो लेना पड़ेगा,’ कहते हुए उन्होंने नौकर को दूध लाने को कहा, लेकिन खुद भी रसोई में चले गए.

मैं ने जैसे ही दूध का गिलास खत्म किया, चक्कर सा आने लगा. उस के बाद मैं होश खो बैठी.

सुबह 4 बजे मेरी नींद टूटी. मैं ने अपने को बिलकुल नंगी हालत में उन की गोद में पाया. मेरे गुस्से और हैरानी की सीमा न रही. अगर मेरे पास पिस्तौल होती, तो मैं उसे गोली मार देती.

मैं ने उसे जगा कर लताड़ा, ‘आप ने यह सब क्या किया…’

‘आप इनसान नहीं, जानवर हैं,’ फिर मैं साड़ी ठीकठाक करने गुसलखाने में चली गई.

गुसलखाने से मैं रोती हुई सीधे दूसरे कमरे में जा कर रजाई ओढ़ कर लेट गई और रोने लगी कि क्या सोचा था और क्या हो गया? अपनी ही बड़ी बहन के घर में मेरा सबकुछ लुट गया.

जी में आया कि अभी इस घर से बाहर चली जाऊं, लेकिन जाड़े के दिन थे. इतनी सुबह बाहर निकलना ठीक नहीं समझा.

फिर मैं सोचने लगी कि कैसा जमाना आ गया है, ऐसी हालत में तो किसी भी मर्द पर यकीन नहीं किया जा सकता. अपनी हवस मिटाने के लिए आदमी कितना नीचे गिर जाता है. उसे अपनी उम्र और रिश्ते का भी खयाल नहीं रहता.

सुबह जब मैं जाने के लिए सामान ठीक करने लगी, तो वह टपक पड़े, ‘कल्पना, कहां जा रही हो?’ मैं ने जवाब दिया, ‘जहन्नुम में.’

उन्होंने माफी मांगी, ‘कल्पना, मुझे अफसोस है.’

‘भाड़ में जाओ.’

‘मुझे तुम से कुछ कहना है.’ ‘मैं अब कुछ सुनना नहीं चाहती.’

‘सिर्फ एक बात सुन लो.’

‘आप को जो नहीं करना चाहिए था, वह तो कर दिया… फिर एक बात कहने में क्यों संकोच है?’

‘तुम्हारी दीदी की मौत के बाद मेरा तो जैसे दिमाग ही खराब हो गया था…’

‘दीदी आप की रंगरलियां मनाने की आदत की वजह से हमेशा दुखी रहा करती थीं… इसी वजह से वे जल्दी ही चल बसीं.’

मेरे तमतमाए चेहरे से आग बरस रही थी. मैं ने नौकर को आदेश दिया, ‘टैक्सी बुलाओ.’

जीजाजी मेरे सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो गए, ‘कल्पना, यह तुम क्या कर रही हो… जाना ही है, तो ड्राइवर के साथ मैं अपनी गाड़ी से भिजवा देता हूं. टैक्सी से क्यों जा रही हो?’

‘अब आप मेरे साथ बात मत कीजिए…’ मैं ने गुस्से से कहा. तभी अहल्या ने वार्डन को टोका, ‘‘मैडम, कुछ बोल नहीं रही हैं?’’

‘खामोश नहीं हूं, तुम्हारे हालात पर गौर कर रही हूं. एक बुजुर्ग के नाते तुम्हें सलाह देना चाहती हूं. इस में कोई दो राय नहीं कि हम औरतों के लिए घर से ले कर बाहर तक खतरा ही खतरा है, लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि हम अपना वजूद ही खो बैठें.

‘‘हमें अपने वजूद के लिए मर्दों के इस समाज से जद्दोजेहद करनी होगी. अगर हम हालात के आगे घुटने टेक कर अपना वजूद खो दें, तो सारी मानव जाति का अंत हो जाएगा.

‘‘इसलिए मैं तुम्हें यही राय दूंगी. कि अपनी कोख में पलती बच्ची को धरती पर आने दो, रोको नहीं, उसे नष्ट मत करो.’’

मैडम की बात पर काफी देर तक गौर करने के बाद अहल्या ने अपना इरादा बदल दिया.

पुरानी यादें, कैसे पढ़ाकू कमला बन गई मजदूरन

आज 2 महीने हो गए थे. देशपांडे साहब ने हमारे घर को बनाने का काम अपने हाथों में लिया था. चूंकि हम जिस घर में रहते थे, वह घर भी हमारे बन रहे घर के सामने ही था, इसलिए वहां पर काम करने वाले मजदूरों, बिल्डर और मैटीरियल सप्लाई करने वाले को मैं अच्छी तरह पहचानने लगा था.

कभीकभार दोपहर के खाने के समय जब वहां पानी नहीं होता था, तब सब मजदूर हमारे घर से ही पीने का पानी ले जाया करते थे.

इन 2 महीनों में मैं ने एक बात पर अच्छी तरह गौर किया कि हर बार मजदूर बदलते रहते हैं, पर एक औरत जो मजदूर का ही काम करती है, पिछले 2 महीने से हमेशा काम पर आ रही है. न जाने क्यों, उसे देखते ही मुझे उस की शक्ल कुछ जानीपहचानी सी लगा करती थी. आज भी वह दूसरे मजदूरों के साथ हमारे घर पानी मांगने आई, ‘‘साहब, जरा पीने का पानी दीजिएगा.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं…’’ उस के लोटे में पानी डालतेडालते मैं ने उस से सवाल किया, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘कमला.’’

‘‘कहां रहती हो? मतलब कौन से गांव की हो?’’ मैं ने एकसाथ 2 सवाल किए.

‘‘मैं केडगांव की हूं. यहां नजदीक ही मालिक के घर के पास रहती हूं,’’ उस औरत ने जवाब दिया.

‘‘तुम्हारे घर में और कौनकौन हैं?’’

‘‘मेरे पति, मैं और डेढ़ साल का एक बेटा है,’’ उस ने जवाब दिया, तभी खाने की छुट्टी खत्म होने की घंटी बजी और दूसरे मजदूरों के साथ वह भी काम पर चली गई. वह औरत तो चली गई, लेकिन मेरे मन में उथलपुथल होने लगी.

मेरा बचपन केडगांव में ही बीता था, इसलिए मैं दिमाग पर जोर डाल कर याद करने की कोशिश करने लगा. इस के बाद भी मुझे कुछ याद नहीं आ रहा था.

दूसरे दिन हमेशा की तरह वह काम पर आई. उसे देखते ही फिर से मेरे दिमाग में हलचल मच गई, ‘कुम्हार महल्ले में रहने वाले यशवंत कुम्हार की बेटी तो नहीं है यह? हां, शायद वही होगी.’

मैं पुराने दिनों में चला गया और मेरी आंखों के सामने घाघराचोली पहने 10-12 साल की एक लड़की का चेहरा उभर आया. सांवला रंग, तीखे नैननक्श, थोड़ी सी शर्मीली, लेकिन होशियार कमला का.

उस समय हम केडगांव में रहते थे. कुम्हार महल्ले के पास ही हमारा घर था. हमारे घर के नजदीक ही येशु यानी यशवंत कुम्हार का छोटा सा घर था. उन की ही बड़ी बेटी थी कमला.

मुझे अच्छी तरह याद है कि उस की चौथी जमात के इम्तिहान का नतीजा आने के बाद वह दौड़ते हुए हमारे घर आई थी और उस ने मेरे पापा को अपना अच्छा रिजल्ट दिखाया था.

इस के बाद मेरे पापा का केडगांव से सोलापुर में तबादला हो गया और हम सब केडगांव का घर छोड़ कर सोलापुर आ गए. कुछ समय बाद पापा की मौत हो गई. मेरी पढ़ाई पूरी हुई. मुझे पूना में नौकरी मिल गई और मैं वहीं का हो कर रह गया.

आज 20 साल बाद वही कमला मुझे फिर से दिखी. उस के काम पर आते ही मैं ने उसे बुलावा भेजा. 30-35 बरस की सांवली, गोल चेहरे वाली, हलके पीले रंग की साड़ी पहने, गले में मंगलसूत्र, हाथों में छोटी सी थैली पकड़े सहमी सी वह मेरे सामने आ खड़ी हुई.

‘‘आओ बैठो,’’ मैं ने कुरसी उस की ओर सरकाते हुए कहा. वह थोड़ी सहम कर चुपचाप कुरसी पर बैठ गई.

‘‘तुम येशु कुम्हार की ही बेटी हो न?’’ मैं ने सच जानने की कोशिश की.

‘‘हां, लेकिन आप को कैसे पता?’’ उस ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘मैं केडगांव के कुलकर्णी का बेटा विजय हूं. हम लोग तुम्हारे घर के सामने ही रहा करते थे,’’ मैं ने खुलासा किया.

‘‘अरे सुलभा, जरा बाहर तो आओ,’’ मैं ने अपनी पत्नी को बुलाया और उस की पहचान कराते हुए बोला, ‘‘यह कमला है, केडगांव में हमारे घर के सामने ही रहती थी.’’

एक मजदूर औरत की इस तरह से पहचान कराना सुलभा को कुछ अटपटा सा लगा.

‘‘यह 10-12 साल की थी, तब मैं ने इसे देखा था. उस के बाद आज देख रहा हूं. कितनी बड़ी हो गई है.’’

तब मेहमाननवाजी के तौर पर सुलभा ने उस के हाथ में चाय का कप थमा दिया. पहले तो उस ने मना किया, लेकिन फिर मेरे कहने पर उस ने चाय ले ली.

चाय पीतेपीते ही मैं ने उस से पूछा, ‘‘क्यों कमला, तुम तो पढ़ने में काफी होशियार थी, फिर तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?’’

यह सुन कर उस की आंखें भर आईं. जैसेतैसे अपनी चाय खत्म कर वह मेरे सवाल को अनसुना कर के बोली, ‘‘अच्छा तो मैं चलती हूं, वरना मालिक गुस्सा करेंगे.’’

‘‘कोई बात नहीं. मैं उस से बात कर लूंगा, तुम बताओ,’’ मैं ने फिर से वही सवाल किया.

वह कहने लगी, ‘‘आप लोगों के केडगांव से चले जाने के बाद 5-6 साल में ही पिताजी की नौकरी छूट गई. उस के एक साल बाद मां भी चल बसीं.

‘‘मां का गुजरना और नौकरी का छूटना इन दोनों के गम में पिताजी ने अपनेआप को शराब में डुबा दिया. ऐसे हालात में भी मैं ने पढ़ाई जारी रखी.

‘‘नगर में मैं ने कालेज की पढ़ाई पूरी करने के साथसाथ घर चलाने के लिए एक दुकान में सेल्स गर्ल की नौकरी भी की, तभी मेरे मामा ने प्रभाकर के साथ मेरी शादी तय कर दी.

‘‘प्रभाकर 10वीं जमात पास थे और उन की अपनी वर्कशौप थी. वर्कशौप और हमारा घर अच्छाभला चल रहा था, तभी श्रीकांत पैदा हुआ. लेकिन कुदरत को कुछ और ही मंजूर था.

‘‘हमेशा की तरह एक दिन वे वर्कशौप में गए थे. उन्हें एक जौब जल्दी पूरा करना था, पर एक मुलाजिम के छुट्टी पर होने की वजह से उन्होंने खुद ही मशीन पर काम शुरू कर दिया. इसी बीच बिजली चली गई और जौब मशीन में ही अटक गया.

‘‘उस जौब मशीन में से हाथ निकालने की कोशिश करते वक्त अचानक बिजली आ गई और इस से पहले कि वे कुछ समझ पाते, उन के दोनों हाथ मशीन में अटक गए और कुहनी के आगे से बेकार हो गए.

‘‘कुछ दिनों बाद वर्कशौप भी बंद हो गई. हम पर भुखमरी की नौबत आ गई. काम की तलाश में हम पूना आ गए. पड़ोस में रहने वाली एक औरत की पहचान से मुझे यहां काम मिल गया,’’ इतना कहतेकहते उस की आंखें भर आईं. फिर आंखें पोंछते हुए वह जातेजाते हमारे मन को हिला गई.

सुलभा को तो उस पर इतना रहम आया कि उस ने झट से मुझ से कहा, ‘‘आप की तो शहर में कितनी जानपहचान है, दिला दीजिए न इसे कहीं अच्छी सी नौकरी.’’

और फिर मैं ने यों ही अपने एक दोस्त का नंबर डायल किया और कमला के बारे में उसे बताया. उस ने भी तुरंत उसे एक बैंक में क्लर्क की नौकरी दिलवा दी.

उस के बाद एक रविवार को छुट्टी के दिन वह अपने पूरे परिवार के साथ हम से मिलने आई और बातोंबातों में कई पुरानी यादें ताजा हो गईं.

 

कैसेकैसे भरोसे : विधवा सुगनी

दिनभर तहसील के चक्कर काटतेकाटते सुगनी की नसनस बोल गई थी. वह मजबूत कदकाठी की थी. उसे हैरानी होती थी कि दुबलापतला दुलाल चश्मे के शीशे पोंछतापोंछता दिनभर तहसील के चक्कर काट कर भी थकता नहीं, बल्कि तरोताजा नजर आता.

वैसे, यह ताजापन कुछ गांव वालों के काम कराने के एवज में दुलाल की जेब में आए नोटों की गरमी का नतीजा होता था. मगर सुगनी को तब और हैरानी होती, जब वह देखती कि गांव में कलक्टर जैसा रोब जमाने वाला लेखपाल बरामदे में टाट बिछा कर बस्ता खोले दुलाल से हंसहंस कर बातें करता. उस का कानूनगो कुरसी पर बैठा हुक्म मारता और जमीन पर बैठा लेखपाल उस की डांट पर ‘जी साहब’ कहता.

सुगनी को लगता कि यह कितना निरीह इनसान है. पर बाद में दुलाल ने उसे बताया था कि लेखपाल का लिखा राजपाल भी नहीं काट पाता.समय की मार खाई सुगनी को बाद में यह बात माननी पड़ी थी.

सालभर पहले पति की मौत के बाद सुगनी को पट्टे के खेत का कब्जा पाने के लिए चूल्हेचौके से निकल कर तहसीलकचहरी करनी पड़ी, वरना 22 साल की उम्र ऐसी नहीं होती कि देखनेसुनने में भली लगने वाली औरत को छलछंदों की इस दुनिया से रूबरू होने का शौक चर्राए.

अकेली गरीब विधवा समझ कर लोगों ने सुगनी पर लालच का चारा डालना चाहा, पर शिकारी से चौकस चिडि़या की तरह उसे जाल के ऊपर से उड़ जाना आता था.

सुगनी धौंकल सिंह के कहने में रहती तो खुश रहती, मगर उस ने तो बंशी के बाग के पास अकेले में हाथ पकड़ने वाले धौंकल सिंह के मुंह पर थप्पड़ मारते हुए कहा था, ‘जाओ ठाकुर, खैर मनाओ. आज इतने पर ही छोड़ दिया आगे से ऐसा कुछ सोचा भी तो सारी मर्दानगी काट कर फेंक दूंगी.’

सुगनी के हाथ में लहराती दरांती देख कर धौंकल सिंह की घिग्घी बंध गई थी. उस की ऊपरनीचे होती तोंद थरथरा रही थी कि सुगनी कहीं उसी पर न फट पड़े.

वे चले भी जाते और मामला ठंडा भी पड़ जाता, लेकिन पीछे से आते भरोसे ने इस बात को पूरे गांव में फैला दिया और बात चर्चा में आ गई.

बस, इसी की रंजिश में ठाकुर ने अपने चक के पड़ोस की सुगनी के पट्टे की जमीन पर ट्रैक्टर चलवा कर उसे अपने खेत में मिला लिया.

खेत जुतने वाले दिन सही माने में सुगनी को लगा कि वह विधवा हो गई है. पूरे गांव में एक से एक मूंछ वाला आदमी, मगर एक गरीब विधवा के लिए धौंकल सिंह से दुश्मनी कौन मोल ले?

सुगनी का मर्द मौजूद होता, तो क्या ऐसा हो पाता?

खैर, जो हुआ सो हुआ. जो सुगनी के वश में है, करेगी और ठाकुर के जूते को गरदन झांका कर नहीं पहनेगी.

दूसरे दिन वह तहसील गई. जिस लेखपाल ने पट्टा दिया है, अभी मर नहीं गया है. वही फिर नापेगा. आखिर इंसाफ भी कोई चीज है.

पति के साथ बिताए 3 साल के समय के सुनहरे सपनों की दुनिया में भटकी सुगनी जान ही न सकी, कब बबुराडीह की पुलिया आ गई, जहां से तांगा मिलता है.

सुगनी तांगे की ओर न जा कर पुलिया के एक ओर ठिठक गई. तांगे पर बैठे दुलाल ने आंखें मिचमिचा कर कहा, ‘‘भाभी, जल्दी आ जाओ, तांगा चलने  वाला है.’’

सुगनी ने तांगे की ओर नजर डाली. सवारी के नाम पर दुलाल ही बैठा था.

तांगा चलने के साथ ही बातचीत चली. जब दुलाल को सुगनी के इरादे का पता चला, तो उस के मन में बताशे फूटने लगे. पर वह अंदरूनी खुशी छिपा कर बोला, ‘‘भाभी, है तो काम खतरे का, पर मैं तुम्हारी मदद करूंगा.

‘‘मेरी यही तो मजबूरी है, गरीब पर होते जुल्म देख नहीं पाता हूं. बाकी, भाभी क्या कहूं, मुल्क ही भ्रष्ट हो गया है. अहलकार ठाकुर के पैसे के गुलाम जरूर हैं, पर तुम्हारा देवर भी कम नहीं है. ऊपर शिकायत करने की एक धौंस से इन के होश फाख्ता कर देता हूं, पर फिर भी जमाने की हवा देख कर कुछ न कुछ खर्च करना ही पड़ता है.

‘‘ऊपर तक खाते हैं, ये भी क्या करें? हां, यह जरूरी है. औरों के 10 का काम तुम्हारे एक रुपए से चलेगा, नहीं तो मैं गरदन पर सवार हो जाऊंगा और काम करवा कर ही चैन लूंगा.’’

सुगनी को लगा, डूबते को सहारा मिल गया है.

सुगनी बोली, ‘‘मैं इन चक्करों से अनजान हूं. तुम मदद कर दोगे, तो मेरी शान रह जाएगी. बात जमीन की नहीं है, यह तुम्हारे भैया की इज्जत की बात है.

‘‘मेरे पास हजार 5 सौ रुपए हैं, जहां कहोगे, खर्च कर दूंगी. अब तुम्हीं चाहे तारो, चाहे बारो.’’

दुलाल ने कहा, ‘‘अब जब तुम से कह दिया है, तो सम?ो कि इज्जत दांव पर लगा दी है. अव्वल तो तुम्हारा पैसा खर्च नहीं होने दूंगा और खर्च हुआ भी, तो इतना तो बहुत है.’’

उस दिन जब दुलाल सुगनी की बात लेखपाल से कराने गया, तो कैंटीन की चकाचकी और दुलाल की जानपहचान से सुगनी हैरत में आ गई. नाश्ते की मेज पर बैठे दुलाल की दुआसलाम वाले ?ाका?ाक कपड़ों वाले 2 बाबू जैसे लोग तो उस के साथ ही बैठ गए.

दुलाल के साथ सब ने नाश्ता किया, चाय पी और पैसे देने के लिए जब दुलाल ने सौ का नोट निकाला, तो वह उसे परोपकार के लिए निछावर होने वाला लगा.

उस ने सोचा, ‘आज तो उसी के काम के सिलसिले में चायनाश्ता हुआ है, खर्चा दुलाल क्यों ?ोले? यह तो सरासर गलत है. फिर जिन्हें दुलाल ‘बाबूबाबू’ कह रहा है, यह भी तहसील के कारिंदे होंगे और क्या पता, किस घाट पर इन पंडों की जरूरत पड़ जाए. पैसे उसे ही देने चाहिए.’

सौ के नोट में बाकी बचे रुपए पानपुडि़या की भेंट चढ़ने के बाद सुगनी को अपना पेट खालीखाली लगने लगा था. मगर पेट की टूटन के बावजूद वह खुश थी. लेखपाल ने भरोसा दिया था कि आज उसे जरूरी काम से तहसीलदार के पास ही रहना है, कल मामले पर नजर डाल दी जाएगी.

दूसरे दिन कानूनगो की मीटिंग थी. काम नहीं चला, मगर 10-20 रुपए खर्च हो ही गए.

तीसरे दिन छुट्टी थी. चौथे दिन बस्ता खुला, तो बोहनी के नाम पर कुछ देना ही था. 20 का नोट हालांकि हैसियत से कम था, पर दुलाल के रसूख के चलते लेखपाल ने उसे माथे से लगा कर कहा, ‘‘अब सब से थोड़े ही कहसुन कर मिलता है.’’

पता चला, खेत तो सुगनी के मर्द के नाम है, मगर नक्शा मालखाने में है. वहां पड़ते तो 2 सौ हैं, मगर सौ रुपए में काम चल जाएगा.

सुगनी को जमीन हिलती सी नजर आई, मगर उस ने कलेजा कड़ा कर के नोट दुलाल के जरीए लेखपाल के हवाले किया.

शाम को लौटते समय वह दुलाल से बोली, ‘‘तुम्हें कब तक काम हो जाने की उम्मीद है?’’

‘‘जल्दी से जल्दी. सरकारी काम में कभीकभार देर हो भी जाती है, पर तुम्हारे मामले में ऐसा नहीं हो पाएगा. मैं जो हूं, इन अहलकारों के सीने पर सवार होने के लिए,’’ दुलाल ने सीना ठोंक कर कहा.

अगले दिन तहसील में हड़ताल थी. संगठन से गद्दारी कोई अच्छी बात है? हां, घर पर यह काम हो सकता है. वहां 5 सौ रुपए ले कर पैमाइश की दरख्वास्त लिखवा दी गई, जिसे पास कराना दुलाल का काम था.

रुपए खर्च होते, तो काम भी होता. मगर दुलाल ने सुगनी को 2-4 दिन की मुहलत देने को कह कर और काम निबटाए. सुगनी के पूछने पर बताया, वह काम उन्हीं रुपयों में लेखपाल के जिम्मे कर दिया था, कल देखेंगे.

अब सुगनी न रह सकी. उसे दुलाल पर भरोसा था, लेकिन लेखपाल उसे हीलाहवाला करता दिखा. नतीजतन, वह अगले दिन तहसील गई. रास्ते में उस ने देखा कि दुलाल की नजर में उस के लिए सराहना के भाव हैं.

वह कुछ कहना चाहता है, पर संकोच उसे चुप किए है. वह मन ही मन भीग गई. दुलाल के घर में भी कोई दीया जलाने वाला नहीं है. कहीं यही भाव उस के मन में भी तो नहीं है.

दुलाल का चेहरा देख कर उसे लगा, उस का सोचना कतई गलत भी नहीं है. पर सुगनी ने अपने चेहरे पर कोमलता को जगह नहीं दी. उस के चेहरे पर सख्ती ही उस की ताकत है. पर मन में कहीं न कहीं बदलाव हो रहा था. अपनेपन में यह दुख कब तक टिक पाएगा?

तहसील में दुलाल और लेखपाल मिले, तो लेखपाल के चेहरे पर रूखापन था. आज वह किसी मोटे आसामी की जुगाड़ में था. दुलाल ने उस के कान में कुछ कहा, तो वह झाझला उठा.

दुलाल ने चिरौरी की, तो बड़ी मुश्किल से पास के खोखे तक जाने को तैयार हुआ.

सुगनी को बड़ा दुख हुआ कि उस के चलते बेचारा दुलाल खिड़की खा रहा है और काम बिगड़ने के डर से बोल भी नहीं रहा है.

खोखे पर पान खाने के बाद गुमटी के पीछे बतियाते इन दोनों को देख कर सुगनी का मन हुआ, वह भी सुने कि दुलाल उस के लिए क्याक्या चिरौरी करता है. सामने जाना ठीक नहीं रहेगा, यह सोच कर वह खोखे के दूसरी ओर खड़ी हो गई.

सुगनी की मौजूदगी से बेखबर लेखपाल कह रहा था, ‘‘यह हम से नहीं होगा. माल मारो तुम और बदनामी हम उठाएं. या तो उस के रुपए लौटा दो या मुझे दे दो, तो काम हो जाएगा, वरना आइंदा मुफ्तखोरी करने मेरे पास न आना.’’

सुगनी दिनभर की दौड़ की हारीथकी थी, किंतु इतनी टूटन उसे तब तक नहीं आई थी. जिस पर भरोसा किया, जिस के लिए जाने क्याक्या सोचा, वह ऐसा निकलेगा, कौन जानता था. वह वहीं बैठ गई. लेखपाल अपने काम में लगा रहा.

इधरउधर घूम कर दुलाल ने सुगनी से कहा, ‘‘ठीक है भाभी, बात हो गई है. तुम फिक्र न करो. मैं गरदन दबा कर काम करा लूंगा. मेरे पास अकेले में गिड़गिड़ाने लगा, तब मैं ने 2 दिन की मुहलत और दे दी है.’’

शांत बैठी सुगनी का निराश चेहरा एकबारगी सुर्ख हो गया. वह बोली, ‘‘तुम ने समय रहते अपनी असलियत खोल दी. मैं तो तुम्हारे ऊपर इतना भरोसा किए थी कि अपने मर्द की खिलाई कसम पूरी करने वाली थी.

‘‘मरतेमरते उस ने कहा था, ‘सुगनी, जिंदगी में तुम्हें कोई सुख न दे सका, मगर असहाय किए जा रहा हूं. तुम्हारी हालत देख कर मेरा मरना बिगड़ रहा है. वचन दो कि कोई भरोसे लायक आदमी मिले, तो घर बसा लोगी?’’’

सुगनी बोलतेबोलते रुक गई. इतनी खूबसूरत सुगनी के मन में क्या था, दुलाल जान ही न सका था. उस ने कागज के चंद टुकड़ों के लिए सुगनी के भरोसे को ठेस पहुंचा कर अपने घर में खुद आगे लगा ली थी. वह सुगनी की ओर दयनीय नजर से देखने लगा.

सुगनी ने उसे देख कर कहा, ‘‘और तुम मुझे वही भरोसे के आदमी लगे थे.’’

‘‘क्या यह सच है?’’ दुलाल सुगनी के सामने हाथ फैला कर जमीन पर बैठ गया.

‘‘नहीं, अब नहीं है, कुछ देर पहले तक था.

‘‘अब मैं अपनी जंग खुद लड़ूंगी और अपने मर्द के भरोसे को टूटने नहीं दूंगी,’’ कह कर सुगनी एक ओर चल दी.

दुलाल की समझ में नहीं आ रहा था कि वह किधर जाए.

26 जनवरी स्पेशल: गरम स्पर्श- तबादले पर क्या था मनीष के दिल का हाल

कैप्टन मनीष को असम से नागालैंड में तबादले का और्डर मिला तो उन का दिल कुछ उदास होने लगा. पर और भी बहुत सारे साथियों के तबादले के और्डर आए थे, यह जान कर कुछ ढाढ़स बंधा. सोचा, कुछ तो दोस्त साथ होंगे, वक्त अच्छा बीतेगा.

नागा विद्रोहियों की सरगर्मियां काफी बढ़ी हुई थीं. यही देखते हुए पहाड़ी फौज की 4 बटालियनों को कोहिमा भेजना जरूरी समझा गया. कैप्टन मनीष कोहिमा रैजिमैंट हैडक्वार्टर पर हाजिर हुए तो उन की कंपनी को कोहिमा से 60 किलोमीटर की दूरी पर खूबसूरत पहाड़ियों के दामन में स्थित फौजी कैंप में पहुंचने का आदेश मिला. जैसे ही वे सब कैंप पहुंचे तो चारों ओर नजर फिराते हुए बहुत प्रसन्न हुए.

चारों तरफ ऊंचे पहाड़, उन पर साल और देवदार के पेड़. नीचे मैदानों में चारों ओर मीलों तक फैली हरियाली और सब्ज मखमली घास. तरहतरह के कुसुमित पुष्पों ने उन का मन मोह लिया. दूसरे दिन शाम को जीप में कैंप से 2 मील की दूरी पर निरीक्षण चौकी का मुआयना कर के लौटे तो रास्ते में एक छोटे रैस्टोरेंट के सामने कौफी पीने के लिए जीप रोक दी.

भीतर कोने में पड़ी टेबल पर कौफी का और्डर दे कर बैठे ही थे कि उन की नजर कुछ दूर बैठे एक जोड़े पर गई. दोनों ने मुसकराते, गरदन हिला कर कैप्टन का अभिवादन किया. कैप्टन ने देखा कि दोनों स्थानीय थे और चेहरेमोहरे से नागालैंड के ही लग रहे थे. लड़की स्कर्ट व ब्लाउज पहने हुए थी. उस का जिस्म खूबसूरत व सुडौल था, नाकनक्श तीखे थे. दोनों ने आपस में कुछ खुसुरफुसुर की और उठ कर कैप्टन के पास आए.

‘‘हैलो सर, मे वी गिव यू कंपनी?’’

‘‘ओह, श्योर,’’ कैप्टन ने चारों तरफ पड़ी कुरसियों की ओर इशारा करते हुए कहा. पहाड़ी वेशभूषा में बैरा कौफी ले कर आया तो कैप्टन ने उसे 2 कप और लाने के लिए कहा. बैरा कौफी रख कर चला गया. आंखों में हलकी मुसकराहट, पर बिना कुछ कहे नागा नौजवान ने कौफी का कप कैप्टन की ओर बढ़ाया.

‘‘थैंक यू,’’ कैप्टन ने कप ले कर उन्हें भी कौफी पीने के लिए इशारा किया.

‘‘डौली वांगजू,’’ नौजवान नागा ने पास बैठी लड़की के कंधे पर हाथ रखते हुए उस का नाम बताया, ‘‘मी फिलिप,’’ फिर अपना नाम दोहराया.

कैप्टन ने मुसकराते हुए अपनी पहचान दी, ‘‘माई सैल्फ मनीष.’’ कुछ देर तक बातचीत होती रही फिर कैप्टन मनीष वहां से चल दिए.

कैंप में लौट कर कैप्टन मनीष हाथमुंह धो कर रात को मेस (भोजन कक्ष) में डिनर करने गए. वहां बातोंबातों में उन्होंने मेजर खन्ना को नागा जोड़े के साथ हुई मुलाकात के बारे में बताया, ‘‘जोड़ी तो बहुत खूबसूरत थी, पर पता नहीं चला कि उन का आपसी रिश्ता क्या है?’’

‘‘पर आप को चिंता क्यों है कि वे आपस में क्या लगते हैं?’’

‘‘नहींनहीं, मुझे इस बात से क्या,’’ कैप्टन ने तत्पर जवाब दे कर बात को टाल दिया.

दूसरे दिन पूर्व निर्धारित प्रोग्राम के अनुसार बागियों के खिलाफ अभियान हेतु 3 दिन के लिए जाने का और्डर मिला. कैंप से गाडि़यों का काफिला उत्तरपूर्व की तरफ रवाना हुआ तो नौजवानों में उत्साह था. उन के चमकते चेहरों से यों जान पड़ रहा था कि वे मैदान मार कर ही लौटेंगे.

कैंप से रवाना होने पर मैदानी इलाके से गुजरता गाडि़यों का काफिला थोड़ी देर के लिए मिट्टी के गुबार में गुम हो गया. सिर्फ गाडि़यों के इंजन की गड़गड़ाहट और जूजू की आवाज सुनाई दे रही थी. कुछ देर के बाद मैदानी इलाका पार कर के काफिला जैसे ही बोम ला पहाड़ी के कच्चे रास्ते से ऊंचाई चढ़ने लगा वैसे ही धूल का गुबार पीछे रह गया.

दूर से टेढ़ीमेढ़ी पहाड़ी पगडंडियों पर गुजरता गाडि़यों का काफिला इतना छोटा सा लग रहा था मानो बच्चों ने अपने लारीनुमा खिलौनों में चाबी भर कर एकदूसरे के पीछे छोड़ दी हो.

कैंप में पीछे रह गए जवान हाथ हिला कर काफिले को देर तक विदा करते रहे. कुछ ही पल में काफिला आंखों से ओझल हो गया. 3 दिन के बाद काफिला लौटा. मुखबिर की सूचनानुसार फौजियों ने बोम ला पहाडि़यों के पीछे बागियों के अड्डों को चारों तरफ से घेर लिया पर घेराव के पहले ही बागी फरार हो गए थे. फौजियों ने सारा इलाका छान मारा फिर भी कोई सुराग न मिला.

कैप्टन मनीष दोस्तों के साथ मैस में गपशप करने के बावजूद बोरियत महसूस करने लगे थे. एक दिन फिर जीप में बैठ कर कैंप से बाहर जा कर उसी रैस्टोरेंट में कौफी पीने के लिए पहुंचे. भीतर पहुंचे तो उन की नजर डौली वांगजू पर पड़ी जो कोने में पड़ी टेबल पर अखबार पढ़ रही थी. इस बार वह अकेली थी. कैप्टन मनीष अभी दूसरे कोने में पड़ी कुरसी पर बैठ ही रहे थे कि डौली वहां से उठ कर उन के पास आई.

‘‘हैलो कैप्टन,’’ डौली ने मुसकराते हुए उन का अभिवादन किया.

‘‘हैलो मैडम, हाउ डू यू डू?’’ मनीष उस का नाम भूल गए थे.

डौली ने उन्हें याद दिलाते हुए कहा, ‘‘डौली, सर.’’

‘‘ओह डौली, प्लीज,’’ कैप्टन ने अपनी गलती स्वीकारते हुए कहा.

डौली फौरन दूसरी कुरसी पर बैठी और उन से 3-4 दिन नजर न आने का कारण पूछा. पर मनीष ने कैंप से आने का मौका न मिलने की वजह बता कर बात वहीं खत्म कर दी. दोनों ने मिल कर कौफी पी. मनीष ने डौली से उस के मांबाप के बारे में जानना चाहा. डौली ने उन्हें बताया कि वह मिशनरी स्कूल से 2 साल पहले मैट्रिक पास कर चुकी है. उस के मातापिता दोनों मिशनरी स्कूल में टीचर थे. स्कूल के बाद दोनों प्रचार का काम करते थे.

मनीष रहरह कर डौली की आंखों में निहारते रहे, उन में बेहिसाब कशिश थी. बौबकट बालों की सुनहरी लटें कभीकभी हवा के झोंके से उस के सुर्ख गालों को चूमने की कोशिश कर रही थीं, जिन्हें डौली बाएं हाथ की कनिष्ठिका के लंबे नाखून से निहायत खूबसूरत अंदाज में हटाती रही.

मनीष उस के चेहरे को बारबार गौर से देख रहे थे. सोच रहे थे कि डौली के नाकनक्श न बर्मी थे, न ही चीनी वंश के. पहाडि़यों की तरह उस की नाक चपटी और समतल भी नहीं थी. बल्कि उत्तरी भारत के मैदानी इलाके के आर्य वंश का सा रूपसौष्ठव था. बेपनाह हुस्न का ऐसा बुत देश के दूरदराज घनी पहाडि़यों व वादियों में भी मिल सकता है, सोच कर वे हैरान थे.

मनीष का जी उठने को नहीं हो रहा था. पर कैंप में वक्त पर पहुंचना था, इसलिए डौली की ओर मुसकरा कर उठने लगे. डौली ने एक अजीब मुसकराहट के साथ कंधे को एक मामूली झटका दे कर इजाजत देनी चाही, तो कैप्टन मनीष से रहा नहीं गया. वे डौली का हाथ थाम कर उस की आंखों में झांकते रहे, जैसे उस के बेपनाह हुस्न को नजरों से एक ही घूंट में पीना चाहते हों.

डौली की मस्तीभरी निगाहों में मनीष पलभर के लिए अपनी सुधबुध भुला बैठे. अचानक हाथ की उंगलियों पर डौली के सुर्ख लबों का स्पर्श महसूस करते हुए होश में आए. उन का चेहरा सुर्ख हो गया. खुद को संभालते हुए अगले दिन मिलने का वादा करते हुए वे मुसकरा कर जीप में सवार हो कर चले गए. पर रास्ते भर एक अनोखा एहसास उन के साथ रहा. एक अजीब मादकता उन पर हावी रही.

कैंप में लौट कर थोड़ी देर के लिए वे अपने तंबू में जा कर लेट गए. काफी देर तक किसी खूबसूरत खयाल ने उन का पीछा नहीं छोड़ा. काश, डौली के साथ ब्याह रचा कर उसे राजस्थान में अपने घर ले कर जा सकते. आकाश की इस अप्सरा को अपनी बांहों में भर कर प्यार करते, या कभी सामने बिठा कर सजदा करते. डौली को हासिल कर के, काश स्वप्निल आनंद का अनुभव कर पाते. पलभर की मुलाकात में मनीष को डौली की शांत नीली आंखों की गहराई में एक अजीब कशिश के साथसाथ नजदीकी और अपनापन भी नजर आया था.

दूसरे दिन फिर बागियों के खिलाफ अभियान का दूसरा चरण उत्तरपश्चिम की तरफ जोला पहाडि़यों की घाटियों में तय हुआ. शाम के वक्त अंधेरा होने के बाद मुखबिरों की गुप्त सूचना के अनुसार फौजी दल जोला पहाडि़यों की तरफ रवाना हुआ. जोला की बड़ी पहाड़ी के पीछे बागियों के दल के छिपे रहने की जानकारी थी. फौजी जवानों ने जोला दर्रे से काफी पहले गाडि़यों को रोका और हथियारों के साथ वे पैदल चल पड़े. चांदनी रात थी. दुश्मन की नजर न पड़े, इसलिए छोटीछोटी टोलियों में जोला दर्रे के नजदीकी द्वार पर पहुंचे और फौरन

2-2 सैनिकों के ग्रुप में तितरबितर हो कर पहाडि़यों के घने झुंड की ओट में छिप कर मोरचा संभाले बैठे रहे. कैप्टन मनीष ने अपने साथ तेजकरन को रख लिया. अमावस के बाद चौथे दिन वाला चांद बहुत देर न रुक सका. अंधेरा जैसेजैसे बढ़ने लगा वैसेवैसे सिपाहियों की बेसब्री बढ़ने लगी.

पता नहीं, शायद सारी रात यों ही टोह में बैठे गुजर जाए. यों ही इंतजार करते रात का अंतिम पहर आ गया. अचानक जोला दर्रे के छोर पर ऐसा लगा जैसे कुछ धुंधली परछाइयां बिना आवाज के आगे बढ़ रही हैं. टोह में बैठे फौजी दल के सिपाही हरकत में आ गए. सभी के हाथ राइफलों और मशीनगनों के ट्रिगरों पर पहुंच गए और कैप्टन मनीष के और्डर का इंतजार करने लगे.

धुंधली परछाइयां काले लिबास में धीरेधीरे उन झाडि़यों के घने झुरमुट की तरफ बढ़ रही थीं, जिन की ओट में कैप्टन मनीष और सूबेदार तेजकरन टोह में बैठे थे. दूसरे दल से एक फौजी की राइफल से अचानक गोली चल जाने से 2 साए एक तरफ दौड़े और 2 कैप्टन के दल की तरफ. कैप्टन की पिस्तौल की गोली से एक गिर पड़ा.

फौजी दस्ते के लिए कैप्टन का यह इशारा जैसे और्डर था. चारों तरफ से मशीनगनों से गोलियों की बौछार शुरू हो गई. जवाब में बागियों ने गोलियां चलाईं. पर कुछ देर के बाद जवाबी गोलियों की आवाज शांत हो गई. फौजी दल की गोलीबारी जारी रही. काफी देर तक जवाबी गोलियों के न आने से फौजी दल ने भी गोलीबारी बंद कर दी.

पौ फटते ही रोशनी का प्रभामंडल बढ़ने लगा. फौजी पहाडि़यों से निकल कर अपने शिकार को कब्जे में करने के लिए उतावले हो रहे थे. पर कैप्टन ने उन्हें रोका, कि कहीं दुश्मन ताक लगाए बैठा हो और अचानक हमला कर दे. इसलिए सिर्फ 2 फौजी जा कर लाशों का निरीक्षण करें. 2 नौजवानों ने आगे बढ़ कर झाडि़यों से लाशें ढूंढ़ निकालीं. कुल 2 लाशें मिलीं.

शिनाख्त करने की कोशिश की गई, पर बेकार. इतने में कैप्टन और साथी भी पहुंच गए. बागियों की लाशों की पहचान कर पाना मुश्किल काम था. शक्ल से एक मर्द लग रहा था तो दूसरी औरत. दोनों ने गहरे नीले रंग की शर्ट और जींस पहनी हुई थी. जैसे ही 2 जवानों ने उलटी पड़ी लाशों को सीधा कर के लिटाया तो कैप्टन अकस्मात चौंक उठे. ‘डौली और फिलिप को देख कर कैप्टन का चेहरा शांत और गंभीर हो गया. झुक कर उन्होंने डौली के सर्द चेहरे से बालों की लट अपनी गरम उंगलियों से हटा कर दूर कर दी. पर डौली का सर्द चेहरा मनीष की उंगलियों का गरम स्पर्श महसूस न कर सका.

प्रिया: क्या हुआ था हेमंत के साथ

हर रोज की तरह आज भी शाम को मर्सिडीज कार लखनऊ के सब से महंगे रैस्तरां के पास रुकी और हेमंत कार से उतर कर सीधे रैस्तरां में गया. वहां पहुंच कर उस ने चारों तरफ नजर डाली तो देखा कि कोने की टेबिल पर वही स्मार्ट युवती बैठी है, जो रोज शाम को उस जगह अकेले बैठती थी और फ्रूट जूस पीती थी. हेमंत से रहा नहीं गया. उस ने टेबिल के पास जा कर खाली कुरसी पर बैठने की इजाजत मांगी.

‘‘हां, बैठिए,’’ वह बोली तो हेमंत कुरसी पर बैठ गया. इस से पहले कि दोनों के बीच कोई बातचीत होती हेमंत ने उसे ड्रिंक औफर कर दिया.

‘‘नो, इस्ट्रिक्टली नो. आई डोंट टेक वाइन,’’ युवती ने विदेशी लहजे में जवाब दिया.

हेमंत को समझते देर नहीं लगी कि युवती विदेश में सैटल्ड है.

वह युवती का नाम जान पाता, इस से पहले युवती ने बात आगे बढ़ाई और बोली, ‘‘मैं कनाडा में सैटल्ड हूं. वहां वाइन हर मौके पर औफर करना और पीना आम बात है, लेकिन मैं अलकोहल से सख्त नफरत करती हूं.’’

‘‘आप का नाम?’’ हेमंत ने पूछा.

‘‘क्या करेंगे जान कर? मैं कुछ महीनों के लिए इंडिया आई हूं और थोड़े दिनों बाद वापस चली जाऊंगी. शाम को यहां आती हूं रिलैक्स होने के लिए. क्या इतना जानना आप के लिए काफी नहीं है?’’ युवती ने जवाब दिया और अपनी घड़ी देख उठने लगी.

‘‘प्लीज, कुछ देर बैठिए. मैं आप के साथ कुछ देर और बैठना चाहता हूं. मुझे गलत मत समझिए. आप के विचारों ने मुझे बहुत इंप्रैस किया है, प्लीज,’’ हेमंत ने कहा.

मौडर्न तरीके से साड़ी में लिपटी हुई उस युवती ने कुछ सोचा फिर बैठ गई और बोली, ‘‘मेरा नाम प्रिया है और मैं एनआरआई हूं. एक टीम के साथ गैस्ट बन कर इंडिया घूमने आई हूं. यहां लखनऊ में मेरे चाचा रहते हैं, इसलिए उन से मिलने आई हूं. मेरे पेरैंट्स वर्षों पहले कनाडा शिफ्ट कर गए थे. वहां वे सरकारी स्कूल में टीचर हैं.’’

इतना कह कर उस ने फिर चलने की बात कही तो हेमंत ने कहा, ‘‘चलिए मैं आप को चाचा के घर छोड़ देता हूं. मुझ पर विश्वास कीजिए और यकीन न हो तो अपने चाचा से इजाजत ले लीजिए. उन से कहिए कि सुपर इंडस्ट्रीज के मालिक की गाड़ी से घर आ रही हूं. सुपर इंडस्ट्रीज लखनऊ और पूरे प्रदेश में प्रसिद्ध है.’’

प्रिया ने उस से विजिटिंग कार्ड मांगा. उसे देखा फिर पर्स में रखा और उस के साथ चलने को राजी हो गई. गाड़ी में बैठते वक्त हेमंत अत्यधिक विचलित सा था. पता नहीं क्यों एक अनजान युवती को वह अपना समझने लगा था. शायद युवती के आकर्षक व्यक्तित्व व अंदाज से प्रभावित हो गया था. गाड़ी में हेमंत ने पारिवारिक बातें छेड़ीं और अपने परिवार और बिजनैस के बारे में बताता रहा. गाड़ी तो चल पड़ी, लेकिन जाना कहां है हेमंत को मालूम नहीं था. उस ने प्रिया से पूछा, ‘‘कहां जाना है?’’

‘‘अमीनाबाद,’’ प्रिया का संक्षिप्त जवाब था.

‘‘तुम्हारे चाचा क्या करते हैं?’’ हेमंत ने फिर सवाल किया.

प्रिया ने बताया कि उस के चाचा इरिगेशन डिपार्टमैंट में जौब करते हैं और अमीनाबाद में उन का फ्लैट है.

‘‘गाड़ी रोकिए , मेरा घर पास ही है,’’ प्रिया ने कहा.

हेमंत ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘‘चलिए घर तक छोड़ देता हूं.’’

‘‘नहींनहीं ठीक है. अब मैं खुद चली जाऊंगी,’’ प्रिया का जवाब था.

फिर मिलने की बात नहीं हो पाई. प्रिया कार से उतर कर रोड क्रौस कर के गायब हो गई. हेमंत उदास सा अपने घर की ओर चल पड़ा. गेट पर दरबान ने विस्मय से हेमंत की ओर देखा और बोला, ‘‘साहब, बड़ी जल्दी घर आ गए.’’ हेमंत बिना कुछ बोले गाड़ी पोर्टिको में रख कर बंगले में पहुंचा. मम्मी अपने कमरे में थीं. उस की इकलौती लाडली छोटी बहन ड्राइंगरूम में बैठ कर एक बुकलेट में हीरों का सैट देख कर पैंसिल से उन्हें टिक कर रही थी.

हेमंत ने पूछा, ‘‘क्या देख रही हो बिन्नी?’’

बिन्नी ने हेमंत के प्रश्न का उत्तर दिए बिना कहा, ‘‘भैया, आज जल्दी आ गए हो तो चलो हीरे का सैट खरीद दो. मेरा बर्थडे भी आ रहा है, वह मेरा गिफ्ट हो जाएगा.’’ हेमंत सोफे पर बैठा ही था कि हाउसमेड ऐप्पल जूस का केन और कुछ ड्राई फ्रूट्स ले कर आ गई. जूस पीते हूए हेमंत समाचारपत्र देखने लगा और बिन्नी से बोला, ‘‘जल्दी रेडी हो जाओ. चलो तुम्हारा सैट खरीद देता हूं.’’

वे डायमंड सैट खरीद कर लौट रहे थे तो बिन्नी ने हिम्मत जुटा कर अपने भैया से पूछा, ‘‘भैया, एक सैट तो मैं ने अपनी पसंद से खरीदा, लेकिन दूसरा सैट तुम ने अपनी पसंद से क्यों खरीदा?’’ हेमंत के पास तुरंत कोई जवाब नहीं था, वह बस मुसकरा कर रह गया. बिन्नी को लगा कि पैरेंट्स 2 वर्षों से जिस दिन का इंतजार कर रहे थे, संभवतया वह दिन आने वाला है. वरना दर्जनों विवाह के रिश्ते को ठुकराने के बाद भैया ने आज क्व18 लाख का डायमंड सैट क्यों खरीदा? जरूर आने वाली भाभी के लिए.

घर जा कर जब बिन्नी ने यह रहस्य खोला तो पूरे घर में उत्सव का माहौल हो गया. हाउसमेड ने मुसकराते हुए रात का खाना परोसा, तो कुक ने एक स्पैशल डिश भी बना डाली. खाना खा कर सभी हंसतेखिलखिलाते अपनेअपने कमरों में चले गए.

सुबह हुई तो हेमंत के डैडी ने कोई गाना गुनगुनाते हुए चाय की चुसकी ली, तो बिन्नी और उस की मम्मी ने दिन भर शादी की तैयारी पर बातचीत की. गैस्ट की लिस्ट भी जुबानी तैयार की.

फिर वही शाम, लखनऊ का वही रैस्तरां. लेकिन घंटों इंतजार के बाद भी प्रिया नहीं आई, तो हेमंत उदास सा देर रात में अपने घर लौटा. अगली शाम कुछ देर के इंतजार के बाद प्रिया ने रैस्तरां में प्रवेश किया, तो हेमंत लगभग दौड़ता हुआ उस के पास गया और पूछा, ‘‘कल क्यों नहीं आईं?’’

‘‘क्या मेरे नहीं आने से आप को कोई प्रौब्लम हुई?’’ प्रिया ने उलटा सवाल किया.

हेमंत ने अपने दिल की बात कह डाली, ‘‘मुझे तुम्हारे जैसी लड़की की तलाश थी, जो मेरे लाइफस्टाइल से मैच करे और मेरी मां और बहन को पूरा प्यार दे सके. यह सिर्फ भारतीय मानसिकता वाली लड़की ही कर सकती है. सच कहूं, यदि तुम्हारी शादी नहीं हुई है तो समझो मैं तुम्हें अपनी बीवी मान बैठा हूं.’’

प्रिया ने प्रश्न किया, ‘‘बिना पूरी तहकीकात किए इतना बड़ा फैसला कैसे ले सकते हैं? आप मेरे नाम के सिवा और कुछ भी जानते हैं? आप के बारे में भी मुझे पूरी जानकारी हासिल नहीं है. मुझे अपने पेरैंट्स की भी सलाह लेनी है. जैसे आप अपने परिवार के बारे में सोचते हैं, वैसे ही मेरे भी कुछ सपने हैं, परिवार के प्रति जवाबदेही है. और इस की क्या गारंटी है कि शादी के बाद सब ठीकठाक होगा?’’

हेमंत ने प्रस्ताव रखा, ‘‘चलो मेरे घर, वहीं पर फैसला होगा.’’

प्रिया घर जाने को राजी नहीं हुई. उस का कहना था कि वह अपने चाचा के साथ उस के घर जा सकती है. कार में बैठ कर अगले दिन अपने चाचा को रैस्तरां में लाने का वादा कर प्रिया नियत मोड़ पर कार से उतर गई.

अगली शाम फिर वही रैस्तरां. प्रिया आज अत्यधिक स्मार्ट लग रही थी. साथ में एक 20-22 वर्ष का लड़का था, जिसे प्रिया ने अपना कजिन बताया. चाचा के बारे में सफाई दी कि चाचा अचानक एक औफिस के काम से चेन्नई चले गए हैं, सप्ताह भर बाद लौटेंगे. हेमंत चुप रहा, लेकिन प्रिया उस के दिलोदिमाग में इस कदर छा गई थी कि वह एक कदम भी पीछे नहीं हटने को तैयार नहीं था. घर में पूरी तैयारी भी हो चुकी थी, ऐसे में उस ने मौके को हाथ से जाने देने को मुनासिब नहीं समझा.

प्रिया और उस के कजिन को ले कर हेमंत अपने घर पहुंच गया. बिन्नी और उस की मां ने घर के दरवाजे पर आ कर दोनों का स्वागत किया. बिन्नी प्रिया का हाथ पकड़ कर अंदर ले गई.

सीधीसाधी किंतु स्मार्ट युवती को देख कर सभी खुश थे पर हेमंत के डैडी इतनी जल्दी फैसला लेने को तैयार नहीं थे. लेकिन हेमंत, बिन्नी और पत्नी के आगे उन की एक न चली. हेमंत की मां बहू पाने की लालसा में अत्यंत उत्साहित थीं. हेमंत द्वारा खरीदा हुआ क्व18 लाख का हीरे का सैट प्रिया को मुंह दिखाई में दे दिया गया. मंगनी की चर्चा होने पर प्रिया ने कहा कि मंगनी 1 महीने बाद की जाए, क्योंकि मेरे पेरैंट्स अभी इंडिया नहीं आ सकते. वैसे मां से मेरी बात हुई है. मां ने मुझ से कह दिया है कि मेरी पसंद उन सब की पसंद होगी.

हेमंत को एक बिजनैस ट्रिप में विदेश जाना था. उस ने इच्छा जताई कि मंगनी की रस्म जल्दी संपन्न कर दी जाए. परिवार वालों ने हामी भर दी, तो मंगनी की तारीख 2 दिन बाद की तय हो गई. फाइव स्टार होटल के अकबर बैंक्वैट हौल में हेमंत का परिवार और तकरीबन 100 गैस्ट आए. प्रिया पर सभी मेहमानों ने भेंट स्वरूप गहनेऔर कैश की वर्षा कर दी. हेमंत ने हीरे की अंगूठी पहनाई, तो प्रिया ने भी एक वजनदार सोने की अंगूठी हेमंत को पहनाई. हेमंत की मां ने फिर क्व25 लाख का हीरों का सैट दिया. डिनर के बाद सभी गैस्ट बधाई देते हुए एकएक कर के विदा हो गए, तो दस्तूर के अनुसार बिन्नी और उस की मां ने गहनों और कैश का आकलन किया. लगभग क्व5 लाख कैश और क्व85 लाख मूल्य के गहने भेंट स्वरूप प्राप्त हुए थे. बिन्नी मुबारकबाद देते हुए प्रिया से गले मिली और एक पैकेट में पैक कर के गिफ्ट उस के हाथों में थमा दिया. हमेशा की तरह हेमंत ने अपने ड्राइवर को प्रिया मैडम को घर तक छोड़ने की हिदायत दी और गार्ड को भी साथ जाने का हुक्म दिया. फिर अगले दिन लंच साथ करने का औफर देते हुए प्रिया को विदा किया. अगली सुबह ब्रेकफास्ट के बाद हेमंत ने औफिस पहुंच कर जल्दी काम निबटाया. औफिस स्टाफ ने बधाइयां दीं और मिठाई की मांग की. तो हेमंत पार्टी का वादा कर प्रिया के घर की ओर चल पड़ा. 20-25 मिनट बाद अमीनाबाद पहुंच कर ड्राइवर ने वहां गाड़ी रोक दी जहां हर बार प्रिया उतरती थी और हेमंत से सवाल किया, ‘‘अब किधर जाना है, साहब?’’

‘‘प्रिया मैडम के घर चलो,’’ हेमंत ने ड्राइवर की ओर देख कर कहा.

‘‘साहब, मैडम रोज यहीं उतर जाती थीं. कहती थीं कि लेन के अंदर कार घुमाने में प्रौब्लम होगी,’’ ड्राइवर ने जवाब दिया.

‘‘अरे, बुद्धू, तुम रोज मैडम को यहीं सड़क पर उतार देते थे. मंगनी की रात गार्ड को भी भेजा था. वह जरूर साथ गया होगा, उसे फोन लगाओ,’’ हेमंत गरजा.

गार्ड बंगले की ड्यूटी पर था. उस ने जवाब दिया, ‘‘मैं ने बहुत जिद की पर मैडम बोलती रहीं कि वे खुद चली जाएंगी. उन के हुक्म और जिद के आगे हमारी कुछ नहीं चली.’’

हेमंत जोर से चिल्लाया, ‘‘बेवकूफ, मैं ने तुम्हें मैडम की सिक्यूरिटी के लिए भेजा था और तुम ने उन्हें आधे रास्ते पर छोड़ कर अकेले जाने दिया? मैं तुम दोनों की छुट्टी कर दूंगा.’’ हेमंत ने अब प्रिया को फोन किया लेकिन उस का स्विच औफ मिला. उस ने अपने औफिस पहुंच कर फिर फोन लगाया. इस बार प्रिया का रेस्पौंस आया. वह धीमी आवाज में बोली, ‘‘मेरे कजिन की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई है. उसे डाक्टरअभी देख रहे हैं. मैं रात में बात करती हूं,’’ इतना कह कर प्रिया ने मोबाइल का स्विच औफ कर दिया.

हेमंत की रात बैचेनी से कटी. अगली सुबह मौर्निंग जौगिंग छोड़ कर हेमंत अमीनाबाद की ओर चल पड़ा. मंगनी के 36 घंटे बीत चुके थे. प्रिया से पूरी तरह संपर्क टूट चुका था. ड्राइवर ने जिस गली को प्रिया मैडम के घर जाने का रास्ता बताया था, दिन के उजाले में हेमंत अनुमान से उस जगह पर पहुंच गया और कार को रुकवा फुटपाथ पर चाय की दुकान पर चाय पीने लगा. हेमंत को हर हाल में आज प्रिया से मिलना था, अत: उस ने चाय वाले से हुलिया बताते हुए पूछताछ की. बाईचांस चाय वाले ने प्रिया को 2 बार कार से उतरते देखा था, लेकिन उस ने भी निराशाजनक जवाब दिया.उस ने हेमंत को बताया, ‘‘आप ने जो हुलिया बताया वैसे हुलिए की अनेक महिलाएं हैं और रात में देखे गए चेहरे की पहचान करना थोड़ा मुश्किल है. लेकिन एक बात पक्की है कि जिस गाड़ी से 2 बार मैं ने उन्हें उतरते देखा, यह वही गाड़ी है जिस से आप आए हैं.’’

हेमंत पैदल चलते हुए गली में प्रवेश कर गया. सुबह का समय था इसलिए प्राय: हर कोई घर में ही था. कुछ लोगों ने प्रिया नाम सुन कर कहा कि इस नाम की किसी लड़की को नहीं जानते, लेकिन एक पढ़ेलिखे नेता टाइप के मौलवी साहब ने जो बातें हेमंत को बताईं, उसे सुन कर हेमंत के पैरों तले मानो जमीन खिसक गई. मौलवी साहब ने कहा, ‘‘बेटे, इस गली में या तो मजदूर या छोटीमोटी नौकरी करने वाले लोग रहते हैं. यहां कभी भी किसी एनआरआई या आप के बताए हुए हुलिए की युवती को कभी नहीं देखा गया है. यह गली जहां खत्म होती है उस से आगे रिहाइशी इलाका भी नहीं है, आप गलत जगह आ गए हैं.’’

हेमंत को महसूस होने लगा कि उस के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है. उस के पास प्रिया के घर के पते के नाम पर सिर्फ अनजान गली की जानकारी भर थी. हेमंत वहां से निकल कर रैस्तरां की ओर चल पड़ा. रैस्तरां में अभी साफसफाई चल रही थी, किंतु हेमंत साहब को सुबहसुबह देख कर सारा स्टाफ बाहर आ गया. हेमंत को वहां जो जानकारी मिली उस ने उस की शंका को हकीकत में बदल दिया. सिक्यूरिटी गार्ड ने बताया कि वे मैडम जब पहली दफा रैस्तरां आई थीं, तब उन्होंने मुझ से पूछा कि सुपर इंडस्ट्रीज वाले हेमंत रस्तोगी कौन हैं? मैं ने आप की ओर इशारा किया था. इस के बाद आप दोनों को साथसाथ निकलते देखा तो हम सब यह समझे कि आप लोग एकदूसरे को जानते हैं.

हेमंत सुन कर लड़खड़ा सा गया, तो स्टाफ ने मिल कर उसे संभाला. हेमंत को प्रिया का तरीका समझ में आ गया था. पूरी योजना बना कर और एक अच्छे होमवर्क के साथ हेमंत को टारगेट बना कर उस के साथ फ्रौड किया गया था. हेमंत संभल कर कार में बैठा और घर जा कर सभी को यह कहानी सुनाई. अपने घबराए हुए बेटे को आराम की सलाह दे कर हेमंत के पापा सिटी एसपी के औफिस पहुंच गए. एसपी ने ध्यान से सारी बातें सुनीं, इंगैजमैंट की तसवीर रख ली और दूसरे दिन आने के लिए कहा. एसपी के कहने पर प्रिया के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज कराई गई.

अगले दिन हेमंत और उस के डैडी सिटी एसपी के औफिस पहुंचे, तो उन्होंने बताया कि दिल्ली क्राइम ब्रांच से खबर मिली है कि इस सूरत की एक लड़की हिस्ट्री शीटर है. फोटो की पहचान पर दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से पता चला है कि बताई गई मंगनी की तारीख के दूसरे दिन वह युवती कनाडा के लिए रवाना हो गई है. यह भी पता चला कि यह युवती बीचबीच में इंडिया आती है और अपना नाम बदल कर विभिन्न शहरों में ऐसा फ्रौड कर के सफाई से विदेश भाग जाती है. एक बार तो जयपुर में शादी रचा डाली और सारा सामान ले कर चंपत हो गई. लेकिन अब वह बच नहीं पाएगी, क्योंकि मैं ने रैडअलर्ट की सिफारिश कर दी है. अगली बार इंडिया आते ही पकड़ी जाएगी. हेमंत को अब यह बात समझ में आ गई कि उस युवती ने कजिन की बीमारी के नाम पर संपर्क तोड़ा और आसानी से भाग निकली.

हेमंत के डैडी ने एसपी साहब से पूछा कि आगे क्या होगा? तो उन्होंने कहा कि अगर लड़की पकड़ी गई तो पहचान के लिए पुलिस थाने आना होगा और केस चलने पर कोर्ट में भी आना होगा. कई तारीखों पर गवाह के रूप में आना आवश्यक होगा. इन सब से पहले तफतीश के समय पुलिस के सामने बयान देना होगा और अपने गवाहों के बयान भी दर्ज कराने पड़ेंगे. हेमंत के डैडी ने टिप्पणी की, ‘‘यानी अपने बिजनैस से टाइम निकाल कर कोर्टकचहरी और पुलिस के चक्कर लगाने होंगे.’’ एसपी साहब ने मुसकरा कर कहा, ‘‘ये तो कानून से जुड़ी बातें हैं. इन का पालन तो करना ही होगा.’’

अब हेमंत ने मुंह खोला और बोला, ‘‘लाखों का फ्रौड और कोर्टकचहरी की दौड़ भी. नुकसान तो बस हमारा ही है.’’ एसपी ने दोबारा पुलिस के संपर्क में बने रहने की बात कही और हेमंत के डैडी से हाथ मिला कुरसी से खड़े हो गए. हेमंत के हिस्से में अब पछतावे और अफसोस के सिवा कुछ भी नहीं बचा था.

अमीर युवकों को अपने हुस्न के जाल में फंसा कर उन्हें लाखों की चपत लगाना और बच निकलना प्रिया का यही काम था. लेकिन जब उस ने हेमंत को अपना शिकार बनाया.

13 साल की वेश्या : शहजाद की रंगरलियां

आज रविवार है यानी छुट्टी का दिन, इसलिए घर वालों की ओर से शहजाद को सुबह ही एक काम की जिम्मेदारी सौंप दी गई है, ईख के खेत में पानी लगाना. उस की 10 बीघा जमीन गांव फौलादपुरा से पूर्व की तरफ 2 किलोमीटर की दूरी पर है, जिसे वह अपना ‘चक’ कहता है.

आबादी और मकानों की लगातार बढ़ती तादाद से शहजाद का गांव फौलादपुरा पश्चिम की ओर देवबंद शहर से मिलने ही वाला है. अगले कुछ सालों में शायद फौलादपुरा देवबंद शहर का एक महल्ला कहलाने लगे.

फौलादपुरा से तकरीबन एक किलोमीटर की दूरी पर राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय है. इस कालेज से शहजाद ने बीए किया है. एक साल एमए हिंदी की भी पढ़ाई की थी, लेकिन फेल हो जाने के चलते बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी.

प्रोफैशनल कोर्स की बहुत ज्यादा डिमांड देख कर शहजाद ने देवबंद के प्राइवेट आईटीआई संस्थान ‘मदनी टैक्निकल इंस्टीट्यूट’ में दाखिला ले लिया.

इंस्टीट्यूट से छुट्टी होने के बाद शहजाद इलैक्ट्रौनिक की एक दुकान पर काम करता है. इस से उस की जेब और पढ़ाई का खर्च निकल आता है.

शहजाद अपनी पढ़ाई और काम में बहुत ज्यादा बिजी रहता है, इसलिए उसे घर और खेती का काम कभीकभार ही करना पड़ता है. लेकिन आज छुट्टी के दिन सुबह ही उस की ड्यूटी पक्की हो गई है कि उसे खेत में पानी लगाना है. पानी रजवाहे से लिया जाएगा, जिस का ओसरा सुबह 11 बजे शुरू हो कर दोपहर के डेढ़ बजे तक रहेगा.

शहजाद ठीक 11 बजे साइकिल से खेत पर पहुंच गया. रजवाहे से पानी चालू कर वह देवबंद घूमने चल दिया, क्योंकि उस का खाने का तंबाकू खत्म हो गया था, जिसे वह और उस के देस्त ‘रोक्कड़’ कहते हैं. वह उस के बिना नहीं रह सकता.

‘जब तक देवबंद से ‘रोक्कड़’ ले कर आऊंगा, खेत भरा मिलेगा,’ यही शहजाद का अंदाजा था.

देवबंद में कई जगहों पर घूमने के बाद एक भी दुकान खुली हुई नहीं दिखाई दी. रविवार के दिन सभी दुकानें बंद रहती हैं. कुछ हफ्ते से एसडीएम के आदेश पर इस नियम का सख्ती से पालन किया जा रहा है. दुकान खोलने पर चालान कटने का डर रहता है. शाम के समय ही कुछ जरूरी सामान की दुकानें खुल सकेंगी.

‘रोक्कड़’ के बिना शहजाद का काम नहीं चलेगा, क्योंकि इस के न खाने पर सारा जबड़ा हिलता हुआ सा महसूस होने लगता है. कभीकभी ऐसा भी लगता है, जैसे सभी दांत तुरंत मुंह से बाहर गिर जाएंगे. अजीब सी कुलबुलाहट होने लगती है, इसलिए दुकान से न मिलने पर किसी न किसी दोस्त से ‘रोक्कड़’ लेना ही पड़ेगा.

एक दोस्त से ‘रोक्कड़’ ले कर शहजाद वापस खेत पर लौटा. अभी केवल एक घंटा ही बीता था. आते ही उस ने चैक किया कि खेत भरा है या नहीं? खेत अभी आधा ही भरा था. वह खेत की मेंड़ पर खड़ा हो कर सोचने लगा कि जब तक खेत पूरी तरह भर नहीं जाता, तब तक क्या किया जाए?

शहजाद सोच ही रहा था कि अचानक उस ने देखा कि एक बेमेल जोड़ा उस की तरफ ही आ रहा है. देवबंद जाने वाली पक्की सड़क से हट कर, कच्चे रास्ते से पैदल ही वह जोड़ा चला आ रहा था. इस रास्ते के दोनों ओर गन्ने के खेत थे. कुछ छिले हुए और कुछ बिना छिले हुए.

लड़की आगे चल रही थी और लड़का उस से कोई 5-7 कदम पीछे. पहले तो शहजाद ने अंदाजा लगाया कि दोनों में कोई चक्कर नहीं. लेकिन ईख की ओट आते ही लड़के ने लड़की के साथ गंदी हरकतें शुरू कर दीं. तब वह समझ गया कि दोनों में कोई चक्कर है.

लड़के ने लड़की के कूल्हे पर चूंटा. लड़की उस लड़के की ओर देख कर मुसकरा दी. कुछ इशारा करते हुए लड़की आगे बढ़ गई. लड़का कुतिया के पीछे कुत्ते के समान उछलकूद सी करते हुए चलने लगा.

लड़का एकदम हट्टाकट्टा था. मैली सी पैंटटीशर्ट पहने हुए, यही कोई 24-25 साल का. इस के उलट लड़की एकदम नादान, कुछ दुबलीपतली सी. न कूल्हों में ज्यादा भारीपन, छाती में हलका सा उभार. सांवला सा रंग, ज्यादा खूबसूरत भी नहीं. बस, कामचलाऊ. छोटा कद, उम्र यही कोई 13-14 साल. उस जोड़ी को देख कर नहीं लगता था कि लड़की लड़के के लिए किसी भी तरह से ठीक है.

उन दोनों को अपनी ओर आता देख शहजाद ईख की ओट में छिप गया. उसे यकीन था कि उन दोनों ने उसे नहीं देखा.

लड़कालड़की शहजाद के खेत के बगल वाले ईख के खेत में घुस गए. शहजाद तुरंत भांप गया कि मामला दूसरा है. शहजाद बहुत ही सावधानी से एकदम चुपचाप उन के पैरों के निशान देखता हुआ उसी जगह पर जा पहुंचा, जहां लड़कालड़की गए थे. उस ने दूर से जोकुछ देखा, उसे अपनी आंखों पर यकीन न हुआ. लड़की उस लड़के से चुंबक के समान चिपकी हुई थी.

शहजाद ने बहुत सी ब्लू फिल्में देखी थीं. रेप के किस्से सुने थे. लेकिन इस तरह का सैक्स देखने का मौका उसे पहली बार मिला था. उस के मन में एक हलचल सी मच गई. शरीर में कुछ हरारत सी होने लगी. लेकिन वह दिमागी रूप से बहुतकुछ चाहते हुए भी जिस्मानी रूप से कुछ न कर सका. पासा उलटा पड़ सकता था.

अगर शहजाद उन दोनों को धमकाता तो उस की भी धुनाई हो सकती थी. लड़का उस से काफी तगड़ा था. साथ ही, उस पर कोई गंदा इलजाम भी लग सकता था, इसलिए वह चुपचाप दबे पैर कुछ सोचते हुए वापस खेत की मेंड़ पर लौटा.

शहजाद ने तुरंत उसी दोस्त को फोन मिलाया, जिस से वह ‘रोक्कड़’ ले कर आया था, ‘‘हैलो, जल्दी आ. जुगाड़ फंसा हुआ है. अगर काम करना है, तो 5 मिनट में रजवाहे वाले खेत पर आ जा. किसी और को भी साथ लेते आना.’’

शहजाद के फोन करने के ठीक 8-10 मिनट बाद ही 2 लड़के बाइक से उस के पास पहुंच गए. उन के उतावलेपन को देख कर ऐसा लगा, जैसे अड्डे पर खड़े शहजाद के फोन का ही इंतजार कर रहे थे. फिर तीनों प्लान बना कर उसी जगह पर धमक पड़े, जहां वह जोड़ा था. शहजाद को वह जगह पता ही थी. लड़कालड़की दोनों अलगअलग लेटे हुए थे, लेकिन एकदूसरे के हाथ पकड़ रखे थे.

शहजाद और उस के दोस्तों ने पुलिस के समान दबिश दी. ‘धबड़धबड़’ की आवाज सुनते ही लड़का गिरतापड़ता भाग गया. लड़की भाग न सकी और फंस गई.

शहजाद ने उस लड़की की ओर आंखें निकाल कर डांटते हुए पूछा, ‘‘क्या कर रही थी? कौन था तेरे साथ?’’

लड़की ने घबराते हुए और तकरीबन भागने की हालत में खड़े हो कर कहा, ‘‘कोई नहीं था. मैं किसी को नहीं जानती. मैं तो अकेली ही शौच करने के लिए आई थी.’’

‘‘तो फिर यह पैंट किस की है? तू तो सलवार पहने हुए है या फिर पैंट भी साथ ले कर आई थी,’’ उन में से एक लड़के ने जमीन पर पड़ी पैंट की ओर इशारा करते हुए पूछा. वह लड़का अपनी पैंट वहीं छोड़ गया था.

‘‘मैं कुछ नहीं जानती. मुझे जाने दो. तुम मुझे मार डालोगे,’’ लड़की डरीसहमी सी बोली. वह उन सब की घूरती आंखें देखते ही उन की नीयत पहचान गई थी. वे तीनों उसे घेरे खड़े ताक रहे थे.

उन में से एक ने अपना रोब जमाते हुए कहा, ‘‘अच्छा, अपनी सलवार खोल कर दिखा, तू ने क्या किया है? अभी सब शीशे के समान साफ हो जाएगा. अभी पता चल जाएगा तेरी करतूतों का.’’

‘‘नहीं, मैं ने ऐसा कुछ नहीं किया, जैसा तुम समझ रहे हो.’’

लड़की कुछ और बोलना चाह ही रही थी कि दूसरे लड़के ने तुरंत उस की कनपटी पर एक थप्पड़ जड़ दिया और बोला, ‘‘दिखा जल्दी, वरना अभी तेरे नाड़े से तेरा गला घोंट दूंगा.’’

लड़की ने डर कर तुरंत अपना नाड़ा खोल दिया और सलवार नीचे खिसका दी.

तभी उन में से एक लड़के ने उस लड़की को गोद में उठाया और उसी ईख में कुछ दूर ले गया.

थोड़ी देर बाद वह लड़का उठ कर आया, तो दूसरे लड़के ने उस लड़की को तुरंत दबा लिया.

थोड़ी देर बाद उस दोस्त ने शहजाद से कहा, ‘‘जा, तू भी अपना जुगाड़ कर ले,’’ लेकिन उस ने यह कहते हुए मना कर दिया, ‘‘नहीं यार, ज्यादा नहीं, बेचारी मर जाएगी.’’

शहजाद दुखी था. उस ने लड़की से पूछा, ‘‘वह लड़का तुझे कितने में तय कर के लाया था?’’ लड़की ने झिझकते हुए बता दिया, ‘‘50 रुपए में.’’

शहजाद ने अपनी जेब से 100 रुपए का नोट निकाला और उस के हाथ में थमा दिया. लड़की के चेहरे से दुख के बादल छंट गए और उस के शरीर में एक खुशी की लहर दौड़ गई. वह इस तरह चल दी जैसे कुछ हुआ ही नहीं. उस की चाल में भी टेढ़ापन नहीं दिखा.

10 दिन बाद देवबंद के पवित्र धार्मिक स्थल देवीकुंड पर ‘मां त्रिपुर बाला सुंदरी’ का मेला शुरू हो गया. यह मेला महीनेभर चलता था. आसपास के गांवों के लोगों के साथ ही दूरदराज की जगहों से भी लोग इस मेले को देखने आते थे. ज्यादा दूर के लोग अपने रिश्तेदारों के यहां ठहरते थे और अकसर रात के समय मेला देखने जाते थे.

जब मेला अपने जोरों पर था, शहजाद की भी मेला देखने की इच्छा हुई. घर पर 2 मेहमान दोस्त भी आए हुए थे, जिन्होंने मेले जाने को कहा था. रात के समय भीड़भाड़ ज्यादा होती थी. रात की भीड़ में लड़कियों के साथ अकसर छेड़छाड़ भी हो जाती थी.

शहजाद मेहमानों के साथ मेले की रंगबिरंगी दुनिया का मजा उठाने में बिजी था. कहीं स्टेज पर जोकर हंसाहंसा कर ग्राहकों को अपना शो देखने के लिए बुला रहे थे, तो कहीं लड़की तख्तों के बनाए स्टेज पर डांस कर के ‘मौत का कुआं’ देखने के लिए लोगों को बुला रही थी, जिस के पास ही बैठा एक छोकरा बड़बड़ा रहा था, ‘‘असली मौत का खेल देखो, नकली में पैसा मत फूंको, चले आओ.’’

किसी जगह पर हिजड़े लड़की के कपड़े पहन कर बिलकुल लड़की जैसे दिखते हुए ग्राहकों को अपनी ओर खींचने में लगे हुए थे. तमाशाई चिल्लाचिल्ला कर अपने शो की ओर बुला रहे थे.

उस भीड़ की दुनिया में शहजाद की नजर अचानक उसी 13-14 साल की लड़की पर पड़ी. उसे ईख के खेत वाली सारी घटना परदे पर चलने वाली फिल्म के समान दिखाई दी. शहजाद ने उस लड़की को मेहमान दोस्तों को दिखाते हुए सारा किस्सा बता दिया.

उस समय वह लड़की आर्य समाज पंडाल के बगल में बैठी हुई एक अधेड़ के साथ कुछ बतिया रही थी. पंडाल के उस तरफ थोड़ा अंधेरा था, इसलिए लोगों का ध्यान उधर कम ही जा रहा था.

एक ठेली से चाऊमीन खा कर वह लड़की उस अधेड़ के साथ प्रसाद ले कर मंदिर की ओर बढ़ी. लेकिन उन दोनों का प्रसाद चढ़ाना तो महज एक बहाना था. वे मंदिर के रास्ते से होते हुए पीछे आम के बाग में पहुंचे. पीछेपीछे शहजाद और उस के मेहमान दोस्त भी थे.

रात के इस पहर इस जगह पर लोगों की आवाजाही बंद हो चुकी थी. इस सूनेपन का फायदा उठा कर उन दोनों ने संबंध बना लिया. लड़की ने बिना चीखेचिल्लाए उस अधेड़ का पूरा साथ दिया.

अचानक शहजाद ने अपने मेहमानों के साथ उन दोनों को घेर लिया. उस अधेड़ की कनपटी पर 2-3 थप्पड़ मार कर उसे चलता कर दिया और लड़की को अपने दोनों मेहमानों के सामने परोस दिया.

काम पूरा हो जाने के बाद शहजाद ने उसे 200 रुपए थमा दिए. लड़की मुसकराती हुई चली गई. शहजाद मेहमानों समेत घर लौट आया.

2 दिन बाद शहजाद फिर मेला देखने पहुंचा. आज वह ‘राष्ट्रीय कवि सम्मेलन’ देखने आया था. उस ने सोचा कि जब तक कवि सम्मेलन ठीक से शुरू नहीं हो जाता, तब तक मेला घूम लिया जाए.

शहजाद घूमतेटहलते मेले के सब से बड़े झाले पर आ पहुंचा. वह खड़ा हो कर झले का टिकट लेने का विचार बना ही रहा था कि वही लड़की 2 होमगार्ड वालों के साथ बात करती हुई दिखाई दी. शहजाद फिर उस लड़की के पीछे हो लिया.

दोनों होमगार्ड उस लड़की को एक शिविर में ले गए. उस समय वहां केवल एक कार्यकर्ता था. एक होमगार्ड ने कुछ समय पहले वहां पहुंच कर उसे कहीं भेज दिया. पीछे से दूसरा होमगार्ड लड़की को ले कर शिविर में घुस गया. उन में से एक बाहर के शिविर में बैठ गया और दूसरा उस शिविर के पीछे छोटे से तंबू में घुस गया. 10-15 मिनट बाद वह बाहर आया, तो दूसरा पहुंच गया. तकरीबन इतने ही समय बाद वह भी बाहर आ गया.

उन दोनों के तंबू से निकल आने के बाद भी वह लड़की बाहर नहीं आई. शहजाद पूरे एक घंटे तक इंतजार करता रहा, लेकिन नतीजा जीरो था. शहजाद मेले में लौट आया, पर उस के दिमाग में वही लड़की घूमती रही.

मेले वाली दूसरी घटना के बाद शहजाद फिर अपने उसी खेत पर पहुंचा, जहां उस ने लड़की को पहली बार देखा था. वह मुख्य रूप से आया तो था कच्ची बस्ती में, जो उस के खेत से तकरीबन 200 मीटर की दूरी पर थी. वह खेत का निरीक्षण करता हुआ उस ओर निकल गया था.

कच्ची बस्ती से शहजाद को देशी मुरगा खरीदना था. शाम को कुछ खास लोग घर पर आने वाले थे. उस ने अपने एक जानकार से बात की, जो शहजाद के खेतों की देखभाल करता था, ईख छिलवाता था, गन्ने की बुग्गी भरवाता था और वक्त पड़ने पर उस की बेगार भी करता था.

बातों ही बातों में उस आदमी से पता चला कि इस बस्ती की एक लड़की 3 दिन से गायब है. पूरा देवबंद, गांवदेहात छान डाले, लेकिन समझ नहीं आ रहा है कि चोरों का माल कौन हजम कर गया?

शहजाद के सामने तुरंत उस मेले वाली लड़की का चित्र सा बन गया. उस ने लड़की के रूपरंग, उम्र, कपड़े, कदकाठी के बारे में पूछा, तो उस का शक यकीन में बदल गया. इस बारे में उस ने आगे बात करना ठीक नहीं समझ, क्योंकि इस मामले में वह भी फंस सकता था.

उस बस्ती के बहुत से लड़के राहजनी, चोरीचकारी करने वाले और गुंडे थे. गुंडों से बच कर निकलना ही सही था. रस्सी का सांप बना कर उस के गले में भी डाला जा सकता था.

समय कब रुका है और उसे कौन रोक सका है. 5 महीने बीतने के बाद शहजाद को अपने एक दोस्त के साथ किसी काम के सिलसिले में दिल्ली जाना पड़ा. एक रात दिल्ली में ही रुकने की योजना थी. नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास दोनों ने एक होटल में कमरा बुक किया और रात को जीबी रोड की तरफ निकल गए.

वे दोनों किसी अच्छे माल की तलाश में घूम रहे थे कि अचानक शहजाद की नजर उसी 13-14 साल वाली लड़की पर पड़ी. इस समय उस का शरीर कुछ भराभरा सा दिखाई दे रहा था. छातियां उठी हुई थीं. शायद उस ने सांस रोक कर थोड़ा फुला भी रखी थीं. बदन के साथ ही कुछ चरबी गालों पर भी चढ़ गई थी.

होंठों पर सुर्खी, नैननक्श तीखे, अच्छे कपड़े, 2 मंजिलों के एक कोठे की खिड़की से मुंह बाहर निकाले हुए वह लड़की राहगीरों को इशारा कर रही थी कि आओ और मुझे अपनी हवस का शिकार बनाओ.

शहजाद को उस लड़की को देख कर यकीन न हुआ कि वह 13-14 की उम्र में वेश्या बन जाएगी. वह अपने दोस्त को नीचे ही छोड़ कर उसी कोठे पर पहुंचा और 1,000 रुपए में सौदा तय कर लिया. उस ने अपना काम निबटा कर लड़की से पूछा, ‘‘मुझे जानती हो?’’

‘‘जानती तो नहीं, शायद पहचानती जरूर हूं.

यहां बहुत से कस्टमर आते हैं. सब को याद रखना मुश्किल है.’’

‘‘तुम मेरे साथ अपने घर चलना चाहोगी?’’ शहजाद ने हमदर्दी दिखाते हुए उस से पूछा.

‘‘नहीं, मैं यहां पहले से ज्यादा खुश हूं. कम से कम यहां मुझे भरपेट खाना तो मिल जाता है. सौतेली मां ने तो मुझे वह भी नहीं दिया और ऊपर से धंधा भी कराया.’’

फिर उस लड़की ने लंबी आह भरते हुए कहा, ‘‘यहां से निकल पाना अब इतना आसान नहीं. पता नहीं यहां कितने दिन सड़ना पड़ेगा…’’

26 जनवरी स्पेशल- जवाबी खत : एक फौजी का अपनी मां को पैगाम

नमस्ते मांजी, चरण स्पर्श.

आप के ‘जवाबी खत’ ने मेरे भटके हुए मन को एकदम सही रास्ता दिखाया है. दिल्ली से तबादला होने पर मैं कश्मीर आया. यहां मुझे आतंकवादियों से निबटने के लिए तैयार किए जा रहे ‘विशेष दल’ के लिए चुना गया.

यहां की रोजमर्रा की जिंदगी में आतंकवाद की काली छाया छाई हुई है. वैसे, मेरी ड्यूटी भारतपाक बौर्डर से सटे एक कसबे में लगी है. यहां बौर्डर पर आएदिन छिटपुट गोलीबारी होती रहती है.

मेरे यहां आने के अगले ही दिन की यह घटना है… शाम को हमें खबर मिली कि कश्मीर में कुछ आतंकवादियों ने शहर के बीच गोलीबारी की है. हम लोग फौरन उस जगह पर पहुंचे. वहां मैं ने देखा कि सड़क के बीच खून से लथपथ कुछ लाशें पड़ी थीं. मशीनगन की गोलियों से छलनी लाशें देख कर मैं भी एक पल के लिए कांप गया.

वहीं एक लाश के पास एक जख्मी औरत बेबस सी बैठी थी. उस की आंखों से आंसू रुक ही नहीं रहे थे. वह लाश उस के पति की थी. पूछने पर उस ने बताया, ‘मेरे पति पर गोलियां दागने के बाद दहशतगर्द मेरी जवान लड़की को जबरदस्ती उठा कर मोटरसाइकिल पर ले गए.’

उस औरत की कहानी सुन कर मैं बहुत दुखी हो गया. मैं ने उसे धीरज बंधाया, लेकिन मन ही मन मैं बेहद डर गया था. सड़क पर मौत का नंगा खेल देख कर मैं इतना डर गया था कि जब अपने कैंप में पहुंचा, तो बिस्तर पर लेटेलेटे सोचने लगा कि जो हादसा मैं ने इन आंखों से देखा है, अगर उस में उस आदमी की जगह आतंकवादियों ने मुझे मार डाला होता, तो आप पर क्या गुजरती? आप की बहू भरी जवानी में विधवा हो जाती.

फिर मैं सोचने लगा कि फौज में भरती होने से बेहतर तो यह होता कि मैं किसी आश्रम में चला जाता. आश्रम की जिंदगी में भागमभाग नहीं होती, कोई किसी का दुश्मन नहीं होता, न ही वहां कोई गलाकाट होड़ ही होती है. आश्रम आमतौर पर कुदरत की गोद में होते हैं, उन के आसपास पहाड़ियां होती हैं. वहां पर ऐसी हरियाली छाई रहती है, मानो कुदरत ने मखमल से धरती का सिंगार किया हो.

आश्रम की हवाओं में आतंकवाद की बू नहीं होती. वहां शांति होती है, सिर्फ शांति. तन की शांति, मन की शांति. जो सुकून आश्रमों में होता है, वह कहीं दूसरी जगह देखनेसुनने को भी नहीं मिलता.

मांजी, दरअसल, आतंकवादियों की इस खूनी कार्यवाही से मैं बेहद डर गया था और उसी डर के बीच मैं ने आप को खत में लिख दिया कि फौज की जिंदगी से तो आश्रम की जिंदगी बहुत सुकून भरी होती है. तब मेरा दिल करने लगा था कि फौज की नौकरी छोड़ कर किसी आश्रम में चला जाऊं.

मांजी, आप का जवाबी खत पढ़ा, तो लगा कि मैं कितना गलत था. मेरे खयालात कितने घटिया और सड़ेगले थे. आप की बातों ने मेरी आंखें खोल दी हैं.

आप ने खत में एकदम सही लिखा था, ‘दुनिया में ऐसा कौन सा आश्रम है, जहां उम्रभर के लिए सुकून मिल सके? दरअसल, तुम्हें अपनी जिंदगी से कुछ ज्यादा ही प्यार हो गया है और तुम मौत से डरने लगे हो, इसीलिए तुम्हें आश्रम की जिंदगी में शांति नजर आ रही है.

‘दरअसल, पहले कुछ दिनों तक हर नई जगह पर अच्छा लगता है, लेकिन उस के बाद वहां से भी मन ऊबने लगता है. मैं भगोड़े या डरपोक फौजी की मां कहलाने के बजाय लड़ाई में मारे गए फौजी की मां कहलाने में अपनेआप को धन्य समझूंगी.

‘अगर तू आतंकवादियों से लड़ते हुए अपनी जान भी गंवा बैठा, तो शहीद कहलाएगा. तब मेरा सिर गर्व से ऊंचा उठ जाएगा. मैं शहीद की मां कहलाऊंगी.’

मांजी, आप का खत पढ़ कर मुझे एक नई रोशनी मिली है. कुछ देर के लिए मैं खुदगर्ज हो गया था, डर गया था, लेकिन अब मेरे दिल से डर कोसों मील दूर चला गया है.

आप का खत पढ़ कर ही तो मैं समझ पाया हूं कि आश्रम की जिस शांति की बात मैं ने मन ही मन सोची थी, वही शांति तो मुझे अपने देश में और खासकर कश्मीर में लानी है.

मांजी, यहां आएदिन आतंकवादियों से हमारी झड़पें हुआ करती हैं. हम लोग जान की बाजी लगा कर उन का मुकाबला करते हैं. नतीजतन, उन को उलटे पैर भागना पड़ता है.

आप को यह जान कर खुशी होगी कि अब कश्मीर में हालात बदल रहे हैं, अमनचैन लौटने लगा है. हम फौजी यहां के लोगों के दिलों में आतंकवादियों का खौफ कम करने में कामयाब हो रहे हैं.

यहां के लोग भी यह बात अच्छी तरह से समझ गए हैं कि आतंकवादियों से डरने से काम नहीं चलेगा, इसीलिए अब वे भी हमारा साथ दे रहे हैं.

मांजी, यहां के लोगों की मदद मिलने के चलते ही कुछ आतंकवादियों ने ‘आत्मसमर्पण’ करना भी शुरू कर दिया है.

अगर हमें इसी तरह इन लोगों का साथ मिलता रहा, तो यकीन करो कि हम कश्मीर की जमीन से आतंकवाद के काले निशान को मिटा कर रख देंगे.

बाकी अगले खत में…

आप का बेटा,

रणवीर सिंह.

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