ट्रस्ट एक कोशिश: क्या हुआ आलोक के साथ

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आई हेट हर – भाग 3 : मां से नाराजगी

धीरेधीरे वह अपनेआप में सिमटने लगी थी. उस का आत्मविश्वास हिल चुका था. वह हर समय अपनेआप में ही उलझी रहने लगी थी. क्लास में टीचर जब समझातीं तो सबकुछ उस के सिर के ऊपर से निकल जाता.

वह हकलाने लगी थी. मां के सामने जाते ही वह कंपकंपाने लगती. पिता की अपनी दुनिया थी. वे उसे प्यार तो करते थे, पिता को देख कर गूंज खुश तो होती थी लेकिन बात नहीं कर पाती थी. वह कभीकभी प्यार से उस के सिर पर अपना हाथ फेर देते तो  वह खुशी से निहाल हो उठती थी.

उधर मां की कुंठा बढती जा रही थी. वे नौकरों पर चिल्लातीं, उन्हें गालियां  देतीं और फिर गूंज की पिटाई कर के स्वयं रोने लगतीं,”गूंज, आखिर मुझे क्यों तंग करती रहती हो?‘’

तब वह ढिठाई से हंस देती थी. उसे मालूम था कि ज्यादा से ज्यादा मां फिर से उस की पिटाई कर देंगी और क्या? पिटपिट कर वह मजबूत हो  चुकी थी. अब पिटने को ले कर उस के मन में कोई खौफ नहीं था.

वह कक्षा 7वीं में थी. गणित के पेपर में फेल हो गई थी. जुलाई में उस की फिर से परीक्षा होनी थी. वह स्कूल से अपमानित हो कर आई थी, क्योंकि गणित के कठिन सवाल उस के दिमाग में घुसता ही नहीं था.

घर के अंदर घुसते ही सभी के व्यंग्यबाणों से उस का स्वागत हुआ था,”अब तो घर में नएनए काम होने लगे हैं… गूंज से इस घर में झाड़ूपोंछा लगवाओ. वह इसी के लायक है…”

एक दिन ताईजी ने भी गूंज को व्यंग्य से कुछ बोलीं तो वह उन से चिढ़ कर कुछ बोल पङी. फिर क्या था, उसे जोरदार थप्पड़ पङे थे.

इस घटना के बाद उस की आंखों के आंसू सूख चुके थे… अब वह मां को परेशान करने के नएनए तरीके सोच रही थी. कुछ देर में मां आईं और फूटफूट कर रोने लगीं थीं. कुछ देर तक उस के मन में यह प्रश्न घुमड़ता रहा कि जब पीट कर रोना ही है तो पीटती क्यों हैं?

मां के लिए उस के दिल में क्रोध और घृणा बढ़ती गई थी.

लेकिन उस दिन पहली बार मां के चेहरे पर बेचारगी का भाव देख कर वह व्याकुल हो उठी थी.

व्यथित स्वर में वे बोली थीं, “गूंज, पढ़लिख कर इस नरक से निकल जाओ, मेरी बेटी.‘’

उस दिन मजबूरी से कहे इन प्यारभरे शब्दों ने उस के जीवन में पढ़ाई के प्रति रुचि जाग्रत कर दी थी.

अब पढ़ाई में रुझान के कारण उस का रिजल्ट अच्छा आने लगा तो मां की शिकायत दूर हो गई थी.

वह 10वीं में थी. बोर्ड की परीक्षा का तनाव लगा रहता था… साथ ही अब उस की उम्र की ऐसी दहलीज थी, जब किशोर मन उड़ान भरने लगता है. फिल्म, टीवी के साथसाथ हीरोहीरोइन से जुड़ी खबरें मन को आकर्षित करने लगती हैं.

पड़ोस की सुनिता आंटी का बेटा कमल भैया का दोस्त था. अकसर वह घर आया करता था. वह बीएससी में था, इसलिए वह कई बार उस से कभी इंग्लिश तो कभी गणित के सवाल पूछ लिया करती थी.

वह उस के लिए कोई गाइड ले कर आया था. उस ने अकसर उसे अपनी ओर देख कर मुसकराते हुए देखा था. वह भी शरमा कर मुसकरा दिया करती थी.

एक दिन वह उस के कमरे में बैठ कर उसे गणित के सवाल समझा रहा था. वह उठ कर अलमारी से किताब निकाल रही थी कि तभी उस ने उसे अपनी बांहों में भर लिया था. वह सिटपिटा कर उस की पकड़ से छूटने का प्रयास कर रही थी कि तभी कमरे में कमल भैया आ गए और बस फिर तो घर में जो हंगामा हुआ कि पूछो मत…

वह बिलकुल भी दोषी नहीं थी लेकिन घर वालों की नजरों मे सारा दोष उसी का था…

“कब से चल रहा है यह ड्रामा? वही मैं कहूं कि यह सलिल आजकल क्यों बारबार यहां का चक्कर काट रहा है… सही कहा है… कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना…

मां ने भी उस की एक नहीं सुनी, न ही कुछ पूछा और लगीं पीटने,”कलमुंही, पढ़ाई के नाम पर तुम्हारा यह नाटक चल रहा है…”

वह पिटती रही और ढिठाई से कहती रही,”पीट ही तो लोगी… एक दिन इतना मारो कि मेरी जान ही चली जाए…”

मां का हाथ पकड़ कर अपने गले पर ले जा कर बोलती,”लो मेरा गला दबा दो… तुम्हें हमेशाहमेशा के लिए मुझ मुक्ति मिल जाएगी.”

उस दिन जाने कैसे पापा घर आ गए थे… उस को रोता देख मां से डांट कर बोले,”तुम इस को इतना क्यों मारती हो?”

तो वे छूटते ही बोलीं,”मेरी मां मुझे पीटती थीं इसलिए मैं भी इसे पीटती हूं.”

पापा ने अपना माथा ठोंक लिया था.

अब मां के प्रति उस की घृणा जड़ जमाती जा रही थी. वह उन के साथ ढिठाई से पेश आती. उन से बातबात पर उलझ पड़ती.

मगर गुमसुम रह कर अपनी पढाई में लगी रहती. वह मां का कोई कहना नहीं मानती न ही किसी की इज्जत करती. उस की हरकतों से पापा भी परेशान हो जाते. दिनबदिन वह अपने मन की मालिक होती जा रही थी.

उस के मन में पक्का विश्वास था कि यह पूजापाठ, बाबा केवल पैसा ऐंठने के लिए ही आते हैं… यही वजह थी कि वह पापा से भी जबान लड़ाती. वह किसी भी हवनपूजन, पूजापाठ में न तो शामिल होती और न ही सहयोग करती.

इस कारण अकसर घर में कहासुनी होती लेकिन वह अपनी जिद पर अड़ी रहती.

इसी बीच उस का हाईस्कूल का रिजल्ट आया. उस की मेहनत रंग लाई थी. उस ने स्कूल में टौप किया था. उस के 92% अंक आए थे. बस, फिर क्या था, उस ने कह दिया कि उसे कोटा जा कर आगे की पढ़ाई करनी है. इस बात पर एक बार फिर से मां ने हंगामा करना शुरू कर दिया था,”नहीं जाना है…किसी भी हालत में नहीं…”

लेकिन पापा ने उसे भेज दिया और वहां अपने मेहनत के बलबूते वह इंजीनियरिंग की प्रतियोगिता पास कर बाद में इंजीनियर बन गई.

उधर पापा की अपनी लापरवाही के कारण उन का स्टाफ उन्हें धोखा देता रहा… वे सत्संग में मगन रह कर पूजापाठ में लगे रहे.

जब तक पापा को होश आया उन का बिजनैस बाबा लोगों द्वारा आयोजित पूजापाठ, चढ़ावे के हवनकुंड में स्वाह हो चुका था. अब वे नितांत अकेले हो गए. फिर उन्हें पैरालिसिस का अटैक हुआ. कोई गुरूजी, बाबा या फिर पूजापाठ काम नहीं आया. तब गूंज ने खूब दौड़भाग की लेकिन निराश पापा जीवन की जंग हार गए…

मां अकेली रह गईं तो वह बीना को उन के पास रख कर उस ने अपना कर्तव्य निभा दिया.

गूंज का चेहरा रोष से लाल हो रहा था तो आंखों से अश्रुधारा को भी वह रोक सकने में समर्थ नहीं हो पाई थी.

‘’पार्थ, आई हेट हर…’’

“आई अंडरस्टैंड गूंज, तुम्हारे सिवा उन का इस दुनिया में कोई नहीं है, इसलिए तुम्हें उन के पास जाना चाहिए. शायद उन के मन में पश्चाताप  हो, इसलिए वे तुम से माफी मांगना चाहती हों…यदि तुम्हें मंजूर हो तो उन्हें बैंगलुरू शिफ्ट करने में मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूं. यहां के ओल्ड एज होम का नंबर मुझे मालूम है. यदि तुम कहो तो मैं बात करूं?”

“पार्थ, मैं उन की शक्ल तक देखना नहीं चाहती…”

“मगर डियर, सोचो कि एक मजबूर बुजुर्ग, वह भी तुम्हारी अपनी मां, बैड पर लेटी हुईं तुम्हारी ओर नजरें लगाए तुम्हें आशा भरी निगाहों से निहार रही हैं…”

वह बुदबुदा कर बोली थी, ‘’कहीं पहुंचने में हम लोगों को देर न हो जाए.‘’

गूंज सिसकती हुई मोबाइल से फ्लाइट की टिकट बुक करने में लग गई…

ट्रस्ट एक कोशिश: भाग 3- क्या हुआ आलोक के साथ

‘‘बिलकुल, तभी तो तुम ने मुझ से कल की सारी बातें छिपाईं,’’ उन के दुखी स्वर से मैं और दुखी थी.

‘‘मैं आप को दुखी नहीं करना चाहती थी. बस, इसलिए मैं ने आप को कुछ नहीं बताया,’’ मैं रो पड़ी.

‘‘नैना, मैं पराया नहीं हूं, तुम्हारा अपना…’’ वह आगे नहीं बोल पाए. मैं उन के कंधे पर सिर रख कर सिसक पड़ी थी.

कुछ ही दिन बाद…

‘‘नैना, तैयार रहना, आज कहीं खास जगह चलना है, ठीक 5 बजे,’’ कह कर आलोक ने फोन रख दिया. मैं ने घड़ी देखी तो 4 बज रहे थे.

मैं धीरेधीरे तैयार होने लगी. अपनी शक्ल शीशे में देखी तो चौंक गई. लग ही नहीं रहा था कि मेरा चेहरा है. गुलाबी रंगत गायब हो गई थी. आंखों के नीचे काले गड्ढे पड़ गए थे. कितने ही दिनों से खुद को शीशे में देखा ही नहीं था. सारा दिन भाइयों की बातें ध्यान में आती रहतीं. भाइयों का तो दुख था ही उस पर बाऊजी से मिल न पाने का गम भीतर ही भीतर दीमक की तरह मुझे खोखला करता जा रहा था.

आलोक दुखी न हों इसलिए उन से कुछ न कह कर मैं अपना सारा दुख डायरी में लिखती जा रही थी. बचपन से ही मुझे डायरी लिखने का शौक था. पता नहीं अब शादी से पहले की डायरी किस कोने में पड़ी मेरी तरह जारजार आंसू बहाती होगी. शादी के बाद वह डायरी बाऊजी के पास ही रह गई थी.

‘‘आलोक, हम कहां जा रहे हैं?’’ मैं आलोक के साथ कार में बैठी हुई थी.

‘‘बस, नैना, कुछ देर और फिर सब पता चल जाएगा,’’ आलोक हंस कर बोले.

कार धीरेधीरे शहर से बाहर लेकिन एक खुली जगह पर जा रुकी. मैं हैरानपरेशान कार में बैठी रही. समझ नहीं पा रही थी कि आखिर आलोक चाहते क्या हैं. अभी इसी उधेड़बुन में थी कि सामने खड़ी कार से जिस व्यक्ति को उतरते देखा तो उन्हें देख कर मैं एकदम चौंक पड़ी. मुझ से रहा न गया और मैं भी कार से बाहर आ गई.

‘‘आओ, नैना बिटिया,’’ वर्मा चाचाजी बोले.

‘‘नमस्ते, चाचाजी, आप यहां?’’

‘‘हां, बेटी, अब तो यहां आना लगा ही रहेगा.’’

‘‘आलोक, प्लीज, क्या छिपा रहे हैं आप लोग मुझ से?’’

‘‘नैना, क्या छिपाने का हक सिर्फ तुम्हें ही है, मुझे नहीं.’’

‘‘आलोक, मैं ने आप से क्या छिपाया है?’’ मैं हैरान थी.

‘‘अपना दुख, अपने जज्बात, छिपाए या नहीं वह तो अलमारी में रखी तुम्हारी डायरी पढ़ ली वरना तुम्हारा चेहरा तो वैसे ही सारा हाल बता रहा है. तुम ने क्या सोचा, मुझे कुछ खबर नहीं है?’’

नजरें नीची किए मैं किसी अपराधी की तरह खड़ी रही लेकिन यह समझ अभी भी नहीं आया था कि यहां क्या यही सब कहने के लिए लाए हैं.

‘‘आलोक, बेटा, अब नैना को और परेशान मत करो और सचाई बता ही डालो.’’

‘‘नैना, यह जमीन का टुकड़ा, जहां हम खडे़ हैं, अब से तुम्हारा है.’’

‘‘लेकिन, आलोक, हमारे पास तो अच्छाखासा मकान है, फिर यह सब?’’

‘‘नैना, यह जमीन तुम्हारे बाऊजी ने दी है,’’ चाचाजी भावुक हो कर बोले और फिर बताते चले गए, ‘‘हरिश्चंद्र (बाऊजी) को तुम्हारे विवाह से बहुत पहले ही यह आभास होने लगा था कि बहुओं ने तुम्हें दिल से कभी स्वीकार नहीं किया. उन्होंने कई साल पहले यह प्लाट बुक किया था जिस की भनक उन्होंने किसी को भी नहीं लगने दी. उन्होंने अपने प्लाट और फिक्स्ड डिपोजिट की नामिनी तुम्हें बनाया था. जब वह बीमार रहने लगे तो उन्होंने मुझे सब कागजात दे दिए और तुम्हें देने के लिए कहा. क्या पता था कि वह अचानक हमें यों छोड़ जाएंगे. मैं ने आलोक को वे सब कागजात, एक डायरी और तसवीरें, जो तुम्हारे बाऊजी ने तुम्हें देने को बोला था, क्रिया के बाद भिजवा दीं. आगे आलोक तुम्हें बताएगा.’’

मैं ने प्रश्नसूचक नजरों से आलोक को देखा, ‘‘नैना, याद है जब तुम रजिस्ट्रार आफिस से लौटी थीं तो मैं ने एक पैकेट की बात की थी. लेकिन तुम ने ध्यान नहीं दिया तो उत्सुकतावश मैं ने खोल लिया था, जानती हो उस में क्या था, प्लाट के कागजात के अलावा… तुम्हारी शादी से पहले की डायरी…

‘‘मैं नहीं जानता था कि तुम बचपन से ही इतनी भावुक थीं. उस मेें तुम ने एक सपने का जिक्र किया था. बस, वही सपना पूरा करने का मैं ने एक छोटा सा प्रयास किया है.’’

आलोक और भी पता नहीं क्याक्या बताते चले गए. मेरी आंखों से आंसू बह निकले. लेकिन आज आंसू खुशी के थे, इस एहसास से भरे हुए थे कि मेरा वह सपना जो मैं ने बाऊजी की लिखी हुई एक कहानी ‘ट्रस्ट : एक छोटा सा प्रयास’ से संजोया था, सच बन कर, एक हकीकत बन कर मेरे सामने खड़ा हुआ है.

ट्रस्ट एक कोशिश: भाग 3- क्या हुआ आलोक के साथवह एक ऐसे ट्रस्ट का निर्माण करता है जिस का उद्देश्य अपंग और अपनों से ठुकराए, बेबस, लाचार, बेसहारा लोगों की मदद करना होता है. लेकिन मदद के नाम पर केवल रोटी, कपड़ा या आश्रय देना ही उस का उद्देश्य नहीं होता, वह उन में स्वाभिमान भी जागृत करना चाहता है.

बाऊजी से मुझे क्या नहीं मिला. अच्छी परवरिश, अच्छी शिक्षा, संस्कार, प्यार, आत्मविश्वास और अब एक अच्छे जीवनसाथी का साथ.

चाचाजी ने बताया कि आलोक ने अपनी तरफ से भी बहुत बड़ी रकम ट्रस्ट के लिए दी है. वह चाहते तो प्लाट या बैंक के पैसे अपने इस्तेमाल में ले लेते लेकिन मेरा दुख देख उन्होंने इस कार्य को अंजाम दिया.

‘‘आलोक, आप एक अच्छे जीवनसाथी हैं यह तो मैं जानती थी लेकिन इतने अच्छे इनसान भी हैं, यह आज पता चला.’’

‘‘अब यह तुम्हारा नहीं हमारा सपना है,’’ आलोक ने कहा, ‘‘हम अपने चेरिटेबल ट्रस्ट का नाम ‘प्रयास’ रखेंगे. कैसा लगा?’’

‘‘बहुत अच्छा और सटीक लगा यह नाम,’’ नैना बोली, ‘‘सच ही तो है, जरूरतमंदों की मदद के लिए जितना भी प्रयास किया जाए कम होता है.’’

ट्रस्ट का एक मतलब जहां विश्वास होता है तो दूसरा मतलब अब हमारी जिंदगी का उद्देश्य बन चुका था. यानी कि मानव सेवा. जैसेजैसे हम इस उद्देश्य के निकट पहुंचते गए वैसेवैसे ही मेरे भीतर के दुख दूर होते गए.

आज भी मां और बाऊजी की तसवीरें ‘प्रयास’ के आफिस में हमें आशीर्वाद देती प्रतीत होती हैं. उन दोनों ने मुझे अपनाया और एक पहचान दी. वे दोनों ही मेरे परिवार और मेरी नजरों में अमर हैं. वे हमारे दिलोें में सदा जीवित रहेंगे. मैं, आलोक और मेरी दोनों बेटियां, आन्या और पाखी उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं हर दिन, हर पल लेकिन फूलों से नहीं बल्कि ट्रस्ट  ‘प्रयास’ के रूप में.

घर का चिराग: क्या बेटे और बेटी का फर्क समझ पाई नीता

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ताईजी: भाग 2- गलत परवरिश

पिछली रात जब वे दोनों बातें करने बैठी थीं तो विक्की के उन के पास आ कर चिपट कर बैठने पर रिचा ने उसे वहां से भगाने की चेष्टा की थी. पर वह वहां से जाना नहीं चाहता था. तब रिचा फूट पड़ी थी, ‘‘देखा दीदी, यह तो मेरी जान का दुश्मन बना हुआ है, कभी किसी से दो बातें नहीं कर सकती. देखिए, कैसे मुंह से मुंह जोड़ कर बैठा हुआ है. यहां सब बातें सुनेगा और वहां जा कर मांजी व अपने पिता से एक की दस लगाएगा. हर बात में अपनी टांग अड़ाएगा. मेरी छोटी बहन आई थी, तब भी इस ने बातें नहीं करने दीं. पीहर भी जाती हूं तो मां, बहनों, भाभी व सहेलियों से जरा भी बात नहीं करने देता. सच कहती हूं, बड़ी परेशान हो गई हूं, अब तो इस के मारे कहीं जाने का मन भी नहीं करता.’’

‘‘ठीक है, ठीक है. मैं आप के पास रहना ही कब चाहता हूं. मैं तो अब बड़े ताऊजी के पास बरेली जा रहा हूं. पिताजी ने उन से बात कर ली है,’’ विक्की बेफिक्री से बोला.

‘‘अरे, यह बरेली जाने की क्या बात है?’’ विभा ने पूछा.

‘‘दीदी, यह इतना बिगड़ता जा रहा है, इसी कारण हम लोग इसे बड़े भैया के पास भेजने की सोच रहे हैं.’’

‘‘वहां कोई अच्छा स्कूल है क्या?’’

‘‘न सही, पर उन का अनुशासन तो रहेगा ही. हमारी तो सुनता नहीं है, उन की तो सुनेगा. अब तो 7वीं कक्षा में आ गया है.’’

‘‘मतलब, अपनी बला औरों के सिर डालने से है? जब तुम सारा दिन बच्चे के सामने यही राग अलापती रहोगी कि हमारी तो सुनता नहीं, हमारी तो सुनता नहीं है, तो वह क्यों सुनेगा तुम्हारी?’’ विभा कुछ नाराजगी के साथ बोली.

‘‘दीदी, आप तो हर बात का दोष मुझे ही दे देती हो, बस.’’

‘‘रिचा, समझने की कोशिश तो करो. बच्चे प्यार के भूखे होते हैं. यों थोड़ीबहुत सख्ती कर लो, पर हर समय उसे सुनाते रहना, ताने देना, व्यंग्य कसना, बातबात पर डांटना, मारना, हर एक से उस की बुराई करना, किसी मां को शोभा नहीं देता. दूसरे के पास भेज तो दोगी, पर वे भी इस के साथ क्या सख्ती बरत सकेंगे? और यदि सिखाने के लिए सख्ती करेंगे तो कल को तुम्हें ही नागवार गुजरेगा. इस से तो अच्छा है कि किसी अच्छे होस्टल में इसे डाल दो.’’ ‘‘पहली बात तो यह है कि इसे इतने कम नंबरों पर किसी अच्छे स्कूल में दाखिला मिलेगा ही नहीं, फिर अच्छे महंगे स्कूलों के होस्टलों में ‘ड्रग्स’ का कितना चलन हो गया है आजकल, यह तो कुछ भी कर सकता है. दीदी, आप को पता नहीं है, इसे तो केवल मैं ही समझ सकती हूं. अभी से अपने पास पर्स रखता है, वह भी रुपयों से भरा होना चाहिए, नहीं तो रोनाधोना मचा देता है. इस से बाजार से सब्जी मंगवाती हूं तो बाकी के रुपए वापस नहीं करता. एक मुसीबत है क्या इस लड़के के साथ… अब मैं इस से लिख कर हिसाब मांगती हूं,’’ रिचा सिसकती हुई बोली.

‘बच्चे को मेरे प्रश्न से कितना आघात लगा है,’ सोच कर विभा अनमनी सी हो आई. बच्चे का कोमल हृदय दुखाने के लिए उस ने यह सब नहीं पूछा था, वह तो केवल यही जानना चाहती थी कि बच्चे की मानसिक दशा कैसी है? क्यों वह इस प्रकार का अभद्र व्यवहार अपनी मां के साथ करता है? विभा वहां अपने पति के साथ 8-10 दिन के लिए आई हुई थी. रिचा उस की सब से छोटी देवरानी थी. आयु में भी वह विभा से काफी छोटी थी. इस कारण विभा उस पर अपना अधिकार जमा लेती थी. विभा बहुत समझदार थी और पूरे परिवार में उस का बड़ा मान था. रिचा भी उस से परामर्श लेने हेतु उसे अपने मन की सब बातें बता दिया करती थी. दोनों भाइयों में भी बहुत स्नेहभाव था.

विक्की रिचा के विवाह के कई वर्षों के बाद हुआ था. इस से पूर्व उस के 2 बेटे जन्मते ही जाते रहे थे. सो, विक्की से परिवार के सब ही लोगों का असीम स्नेह था. रिचा हर समय अपने इकलौते बेटे के भविष्य के लिए चिंतित रहती थी. संयुक्त परिवार होने के कारण वह अपने मनोनुकूल अधिक कर नहीं पाती थी. पिछले 2-3 वर्षों से विक्की बिगड़ने लगा था, बड़ों के अत्यधिक लाड़प्यार ने उसे जिद्दी और चटोरा तो बनाया ही था, साथ ही अपनी बात मनवाने के लिए वह झूठ भी बोलने लगा था.

ऐसे में रिचा का दुख क्रोध के रूप में बाहर निकलता था. पति तो बच्चे की शिक्षा पर तनिक भी ध्यान केंद्रित नहीं करते थे, अधिक से अधिक ट्यूटर लगा दिया. पुत्र को अपने पिता द्वारा जिस व्यवहार, शिष्टाचार, शिक्षा, मार्गदर्शन, स्नेह और दुलार की अपेक्षा होती है, विक्की उस से पूर्णतया वंचित रहा था. हां, बच्चे के प्रति उन के लाड़प्यार में कोई कमी नहीं थी, उस की मुंहमांगी वस्तु उसे तत्क्षण प्राप्त हो जाती थी. इस कारण वह और भी अधिक ढीठ और आलसी होता जा रहा था. घर के किसी भी कार्य की आशा उस से नहीं की जा सकती थी, हर समय उस के पीछे होहल्ला मचा ही रहता. एक दिन विभा के काफी समझाने पर रिचा ने बेटे को वह टेपरिकौर्डर दे दिया. तब वह दौड़ता हुआ विभा के पास आया और उन के दोनों गालों की पप्पी लेते हुए बोला, ‘‘धन्यवाद, ताईजी. देखिए, मां ने मुझे टेपरिकौर्डर दे दिया है. सुनेंगी?’’

इतना कह कर विक्की ने टेपरिकौर्डर चला दिया. टेप में से उस की सुमधुर आवाजें सुनाई देने लगीं.

‘‘अरे विक्की, यह तो तुम्हारी आवाज है? तो तुम्हें गाना भी आता है?’’ विभा ने प्रसन्न होते हुए अचरज से पूछा.

‘‘देख लीजिए ताईजी,’’ विक्की मटकते हुए बोला. उस की सुंदर आंखों में उस समय विचित्र चमक भर उठी थी. विभा ने टेपरिकौर्डर को हाथ में ले कर देखा, नन्हा सा लाल रंग का वह जापानी रिकौर्डर बहुत ही प्यारा था. तब विभा को समझ में आया कि बच्चा उसे अपना गायन सुना कर प्रभावित करने के लिए ही टेपरिकौर्डर लेने की जिद कर रहा था. पर रिचा ने मां हो कर भी इस तथ्य को नहीं समझा. वह सोचने लगी, ‘आखिर इतना छोटा भी तो अब विक्की नहीं है, 11 वर्ष का हो चला है.’

विभा को सुबहशाम घूमने की आदत थी. वहां की सड़कों के विषय में अधिक जानकारी न होने के कारण उस ने पहले दिन अपने साथ विक्की को ले लिया था. उस के बाद उस के वहां रहने तक एक दिन भी उसे विक्की को साथ चलने के लिए कहना नहीं पड़ा था. वह स्वयं ही उन के साथ दौड़ा चला आता. विक्की को बिना बताए भी वह घर से निकल पड़ती, तो भी वह जाने कहां से सूंघ लेता और झटपट साथ हो लेता. तब विभा को बराबर लगता रहता था कि विक्की केवल प्यार का भूखा है. यदि उस के साथ प्यार व समझदारी से व्यवहार किया जाए तो वह हर बात मानने व करने को तैयार रहेगा. विभा एवं ताऊजी की तो वह हर बात बड़े ही ध्यान से सुनता था, केवल सुनता ही नहीं, बल्कि उस पर अमल भी करता. जैसे ही कोई काम उसे बताते, वह झटपट कर देता तब क्यों अपनी मां एवं घर के अन्य सदस्यों की बातों की वह इतनी अवहेलना करता है? क्यों सब को इतना छकाता है, इतना परेशान करता है? विभा बारबार सोचती. उधर मांजी कहतीं, ‘‘अरे, क्या बताऊं विभा, रिचा को तो विक्की फूटी आंखों नहीं सुहाता. रातदिन इस के पीछे हाथ धो कर पड़ी रहती है. कभी प्यार से बात नहीं करती. देखो, कब से वह ‘नाइटसूट’ बनवाने को कह रहा है, सारे पजामे फट गए हैं, पर यह है कि कपड़ा घर में ला कर रखा हुआ है, तो भी दरजी को नहीं दे रही, न ही अखिल को बाजार से बनेबनाए सूट लाने देती है. कहती है कि मैं स्वयं सिलूंगी, 6 महीने तो हो गए हैं ऐसे ही कहते…अब तू ही देख कि कितना परेशान हो रहा है बेचारा विक्की, इतनी घोर गरमी में भी पैंट पहन कर सोता है.’’

आई हेट हर – भाग 2 : मां से नाराजगी

गूंज दूसरी क्लास में थी. उस की फ्रैंड हिना का बर्थडे था. वह स्कूल में पिंक कलर की फ्रिल वाली फ्रौक पहन कर आई थी. उस ने सभी बच्चों को पैंसिल बौक्स के अंदर पैंसिल, रबर, कटर और टौफी रख कर दिया था. इतना सुंदर पैंसिल बौक्स देख कर वह खुशी से उछलतीकूदती घर आई और मां को दिखाया तो उन्होंने उस के हाथ से झपट कर ले लिया,’’कोई जरूरत नहीं है इतनी बढ़िया चीजें स्कूल ले जाने की, कोई चुरा लेगा.‘’

वह पैर पटकपटक कर रोने लगी, लेकिन मां पर कोई असर नहीं पड़ा था.

कुछ दिनों के बाद वह एक दिन स्कूल से लौट कर आई तो मां उस पैंसिल बौक्स को पंडित के लड़के को दे रही थीं. यह देखते ही वह चिल्ला कर  उन के हाथ से बौक्स छीनने लगी,”यह मुझे मिला था, यह मेरा है.”

इतनी सी बात पर मां ने उस की गरदन पीछे से इतनी जोर से दबाई कि उस की सांसें रुकने लगीं और मुंह से गोंगों… की आवाजें निकलने लगीं… वह बहुत देर तक रोती रही थी.

लेकिन समय सबकुछ भुला देता है.

वह कक्षा 4 में थी. अपनी बर्थडे के दिन नई फ्रौक दिलवाने की जिद करती रही लेकिन फ्रौक की जगह उस के गाल थप्पड़ से लाल हो गए थे. वह रोतेरोते सो गई थी लेकिन शायद पापा को उस का बर्थडे याद था इसलिए वह उस के लिए टौफी ले कर आए थे. वह स्कूल यूनीफौर्म में ही अपने बैग में टौफी रख कर बेहद खुश थी. लेकिन शायद टौफी सस्ती वाली थी, इसलिए ज्यादातर बच्चों ने उसे देखते ही लेने से इनकार कर दिया था. वह मायूस हो कर रो पड़ी थी. उस ने गुस्से में सारी टौफी कूङेदान में फेंक दी थी.

लेकिन बर्थडे तो हर साल ही आ धमकता था.

पड़ोस में गार्गी उस की सहेली थी. उस ने आंटी को गार्गी को अपने हाथों से खीर खिलाते देखा था. उसी दिन से वह कल्पनालोक में केक काटती और मां के हाथ से खीर खाने का सपना पाल बैठी थी. पर बचपन का सपना केक काटना और मां के हाथों  से खीर खाना उस के लिए सिर्सफ एक सपना ही रह गया .

वह कक्षा 6 में आई तो सुबह मां उसे चीख कर जगातीं, कभी सुबहसुबह थप्पड़ भी लगा देतीं और स्वयं पत्थर की मूर्ति के सामने बैठ कर घंटी बजाबजा कर जोरजोर से भजन गाने बैठ जातीं.

वह अपने नन्हें हाथों से फ्रिज से दूध निकाल कर कभी पीती तो कभी ऐसे ही चली जाती. टिफिन में 2 ब्रैड या बिस्कुट देख कर उस की भूख भाग जाती. अपनी सहेलियों के टिफिन में उन की मांओं के बनाए परांठे, सैंडविच देख कर उस के मुंह में पानी आ जाता साथ ही भूख से आंखें भीग उठतीं. यही वजह थी कि वह मन ही मन मां से चिढ़ने लगी थी.

उस ने कई बार मां के साथ नजदीकी बढ़ाने के लिए उन के बालों को गूंथने और  हेयरस्टाइल बनाने की कोशिश भी की थी मगर मां उस के हाथ झटक देतीं.

मदर्सडे पर उस ने भी अपनी सहेलियों के साथ बैठ कर उन के लिए प्यारा सा कार्ड बनाया था लेकिन वे उस दिन प्रवचन सुन कर बहुत देर से आई थीं. गूंज को मां का इतना अंधविश्वासी होना बहुत अखरता था. वे घंटों पूजापाठ करतीं तो गूंज को कोफ्त होता.

जब मदर्सडे पर उस ने उन्हें मुस्कराते हुए कार्ड दिया तो वे बोलीं,”यह सब चोंचले किसलिए? पढोलिखो, घर का काम सीखो, आखिर पराए घर जाना है… उन्होंने कार्ड खोल कर देखा भी नहीं था और अपने फोन पर किसी से बात करने में बिजी हो गई थीं.

वह मन ही मन निराश और मायूस थी साथ ही गुस्से से उबल रही थी.

पापा अपने दुकान में ज्यादा बिजी रहते. देर रात घर में घुसते तो शराब के नशे में… घर में ऊधम न मचे, इसलिए मां चुपचाप दरवाजा खोल कर उन्हें सहारा दे कर बिस्तर पर लिटा देतीं. वह गहरी नींद में होने का अभिनय करते हुए अपनी बंद आंखों से भी सब देख लिया करती थी.

रात के अंधेरे में मां के सिसकने की भी आवाजें आतीं. शायद पापा मां से उन की पत्नी होने का जजियाकर वसूलते थे. उस ने भी बहुत बार मां के चेहरे, गले और हाथों पर काले निशान देखे थे.

पापा को सुधारने के लिए मां ने बाबा लोगों की शरणों में जाना शुरू कर दिया था… घर में शांतिपाठ, हवन, पूजापाठ, व्रतउपवास, सत्संग, कथा आदि के आयोजन आएदिन होने लगे था. मां को यह विश्वास था कि बाबा ही पापा को नशे से दूर कर सकते हैं, इसलिए वे दिनभर पूजापाठ, हवनपूजन और उन लोगों का स्वागतसत्कार करना आवश्यक समझ कर उसी में अपनेआप को समर्पित कर चुकी थीं. वैसे भी हमेशा से ही घंटों पूजापाठ, छूतछात, कथाभागवत में जाना, बाबा लोगों के पीछे भागना उन की दिनचर्या में शामिल था.

अब तो घर के अंदर बाबा सत्यानंद का उन की चौकड़ी के साथ जमघट लगा रहता… कभी कीर्तन, सत्संग और कभी बेकार के उपदेश… फिर स्वाभाविक था कि उन का भोजन भी होगा…

पापा का बिजनैस बढ़ गया और उस महिला का तबादला हो गया था, जिस के साथ पापा का चक्कर चल रहा था. वह मेरठ चली गई थी… मां का सोचना था कि यह सब कृपा गुरूजी की वजह से ही हुई है, इसलिए अब पापा भी कंठी माला पहन कर सुबहशाम पूजा पर बैठ जाते. बाबा लोगों के ऊपर खर्च करने के लिए पापा के पास खूब पैसा रहता…

इन सब ढोंगढकोसलों के कारण उसे पढ़ने और अपना होमवर्क करने का समय ही नहीं मिलता. अकसर उस का होमवर्क अधूरा रहता तो वह स्कूल जाने के लिए आनाकानी करती. इस पर मां का थप्पड़ मिलता और स्कूल में भी सजा मिलती.

वह क्लास टेस्ट में फेल हो गई तो पेरैंट्स मीटिंग में टीचर ने उस की शिकायत की कि इस का होमवर्क पूरा नहीं रहता और क्लास में ध्यान नहीं देती, तो इस बात पर भी मां ने उस की खूब पिटाई की थी.

ट्रस्ट एक कोशिश: भाग 2- क्या हुआ आलोक के साथ

उफ, बाऊजी ने मुझे इतनी अच्छी परवरिश दी थी लेकिन लानत है मुझ पर जो आखिरी समय उन की सेवा न कर सकी. वह लाड़ करते  हुए मुझ से कहते थे कि किसी ने सच ही कहा है कि बेटी सारी जिंदगी बेटी ही रहती है. लेकिन मैं ने क्या फर्ज पूरे किए बेटी होने के?

आलोक ने मुझे बहुत समझाया कि इस सब में मेरी कोई गलती नहीं थी. हमें यदि समय पर खबर की जाती और तब भी न पहुंचते तब गलत था. उन की बातें ठीक थीं लेकिन दिल को कैसे समझाती.

बहुत गुस्सा था मन में भाइयों के लिए. बाऊजी की क्रिया थी. पगड़ी की रस्म के बाद आलोक किसी जरूरी काम से चले गए पर मैं वहीं रुकी थी. जब सब लोग चले गए तो मैं जा कर भाइयों के पास बैठ गई.

‘भैया, आप लोगों ने मुझे खबर क्यों नहीं की? बाऊजी आखिरी समय तक मेरी राह देखते रहे.’

‘नैना, जो बात करनी है, हम से करो,’ तीखा स्वर गूंजा तो मैं चौंक पड़ी. सामने दोनों भाभियां लाललाल आंखों से मुझे घूर रही थीं.

मैं थोड़ी सी अचकचा कर बोली, ‘भाभी, क्या बात हो गई. आप सब मुझ से नाराज क्यों हैं?’

‘पूछ रही हो नाराज क्यों हैं? पता नहीं तुम ने बाबूजी को क्या पट्टी पढ़ा दी कि उन्होंने हमारा हक ही छीन लिया,’ जवाब में छोटी भाभी बोलीं तो मैं तिलमिला गई.

बस, फिर क्या था, दोनों भाभियों ने मुझे खूब खरीखोटी सुनाईं और उस का सार था कि बाऊजी ने मेरे बहकावे में आ कर मकान में मेरा भी हिस्सा रखा था. बाऊजी के इलाज पर खर्चा उन लोगों ने किया, सेवा उन लोगों ने की इसीलिए केवल उन लोगों का ही मकान पर हक बनता था.

मैं ने भाइयों की ओर देखा तो बडे़ भाई विजय मुझ से नजरें चुरा रहे थे. इस का मतलब था कि मकान के गुस्से में आ कर इन लोगों ने मुझे बाऊजी के बीमार होने की खबर नहीं की थी.

मैं ने बाऊजी की तसवीर की ओर देखा, वह मुसकरा रहे थे. इस से पहले कि मैं कुछ बोल पाती, छोटी भाभी ने ऐसी बात कह दी कि मेरे पांव तले की जमीन खिसक गई. उन्होंने कड़वाहट से कहा, ‘पता नहीं बाबूजी को बाहर वालों पर इतना तरस क्यों आता था. न जात का पता न मांबाप का, बस, ले आए उठा कर.’

मुझ से और नहीं सुना गया. मैं उठ खड़ी हुई. मेरे दोनों बडे़ भाई एकदम से मेरे पास आ कर बोले, ‘नैना, दरअसल हम पर बहुत उधार है और मकान बेच कर हम यह उधार चुकाएंगे, इसलिए ये दोनों परेशान हैं. हम ने तो इन से कहा था कि नैना को हम अपनी परेशानी बताएंगे तो वह हमारे साथ रजिस्ट्रार आफिस जा कर ‘रिलीज डीड’ पर साइन कर देगी. ठीक कहा न?’

सच क्या था, मैं अच्छी तरह समझती थी. मैं मरी सी आवाज में केवल यही पूछ पाई कि कब चलना है, और अगले ही दिन हम रजिस्ट्रार आफिस में बैठे हुए थे.

मेरे आगे कई कागज रखे गए. मैं एकएक कर के सब कागजों पर अंगूठा लगाती गई और अपने हस्ताक्षर भी करती गईर्र्र्र्. हर हस्ताक्षर पर भाई का प्यारदुलार, मेरा रूठना उन का मनाना मेरी आंखों के आगे आता चला गया. वहीं बैठे एक आदमी ने जब मुझ से उन कागजों को पढ़ने के लिए कहा, तो मेरा मन भर आया था. क्या कहती उस से कि मेरा तो मायका ही सदा के लिए छिन गया. बाऊजी क्या गए सब ने मुंह ही फेर लिया. भाभियां तो फिर पराई थीं लेकिन भाइयों की क्या कहूं. वे भी पराए हो गए.

भाइयों को जो चाहिए था वह उन्हें मिल गया लेकिन मेरा सबकुछ छिन गया. मेरे बाऊजी, मेरा मायका, मेरा बचपन. लगा, जैसे अनाथ तो मैं आज हुई हूं.

शायद मैं यानी नैना, जिस पर बाऊजी कितना गर्व करते थे, उस रोज टूट गई थी. घर पहुंची तो आलोक कहीं फोन मिला रहे थे.

‘कहां चली गई थीं तुम? पता है कहांकहां फोन नहीं किए?’ वह चिल्ला पडे़ लेकिन मेरी हालत देख कर कुछ नरम पड़ते हुए पूछा, ‘नैना, कहां थीं तुम?’

क्या कहती उन्हें. वह मेरे पास आए और बोले, ‘तुम्हारे वर्मा चाचाजी ने यह पैकेट तुम्हारे लिए भिजवाया था.’

मैं चुपचाप बैठी रही.

वह आगे बोले, ‘लाओ, मैं खोल देता हूं.’

वह जब पैकिट खोल रहे थे तो मैं अंदर कमरे में चली गई.

कुछ देर बाद वह भी मेरे पीछेपीछे कमरे में आ गए और बोले, ‘नैना, आखिर बात क्या हुई. कल से देख रहा हूं तुम हद से ज्यादा परेशान हो.’

कब तक छिपाती उन से. वैसे छिपाने का फायदा क्या और बताने में नुकसान क्या. रिश्ता तो उन लोगों ने लगभग तोड़ ही दिया था. मैं ने आलोक को एकएक बात बता दी.

वह कुछ देर के लिए सन्न रह गए. कुछ देर बाद बोले, ‘नैना, कितना सहा तुम ने. तुम्हें क्या जरूरत थी उन लोगों के साथ अकेले रजिस्ट्रार आफिस जाने की. मुझे इस लायक भी नहीं समझा. कल रात से मैं तुम से पूछ रहा था लेकिन तुम ने कुछ नहीं बताया. वहां से इतना कुछ सुनना पड़ा फिर भी उन लोगों की हर बात मानती चली गईं. द फैक्ट इज, यू डोंट ट्रस्ट मीं. सचाई तो यह है कि तुम्हें मुझ पर भरोसा ही नहीं है,’ कह कर वह दूसरे कमरे में चले गए.

जेहन में जैसे ही भरोसे की बात आई मुझे लगा जैसे किसी ने झकझोर कर मुझे जगा दिया हो. मैं अतीत से निकल वर्तमान में आ गई.

‘‘आलोक, क्या कह रहे हैं आप. मैं आप पर भरोसा नहीं करती.’’

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