Rakhsha Bandhan : ज्योति- क्यों सगे भाईयों से भी बढ़कर निकले वो तीनों लड़के?

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सौगात: खर्राटों की आवाज से परेशान पत्नी की कहानी -भाग 1

मैं अपनी मां के साथ गरमागरम चाय पी रही थी. मां कुछ दिन पूर्व ही भारत से आई थीं. बातें शुरू होने पर कहां खत्म होंगी, यह हम दोनों को ही पता नहीं होता था. इतने दिनों बाद हम मांबेटी एकदूसरे से मिले थे. तभी दरवाजे की घंटी बजी. रात का 9 बजा था. मां से मैं ने कहा, ‘‘अंकुर के पिताजी होंगे,’’ पर दरवाजा खोला तो पति के स्थान पर उन के मित्र सुहास को खड़े देखा. मैं ने पूछा, ‘‘सुहास भाई साहब, इतनी रात में कैसे कष्ट किया आप ने?’’

मेरे प्रश्न का उत्तर न दे कर उन्होंने ही प्रश्न किया, ‘‘भाभीजी, प्रशांत अब तक आए नहीं क्या?’’

इंगलैंड की नवंबर माह की कंपकंपा देने वाली सर्दी को अपने बदन पर अनुभव करते हुए मैं ने पूछा, ‘‘उन का पता तो आप को होना चाहिए, सुहास भाई, भला मुझ से क्या पूछते हैं?’’

स्ट्रीट लैंप की पीली अलसाई रोशनी में सुहास का चेहरा स्पष्ट नहीं दिख रहा था. पर फिर भी मैं ने उन्हें बुलाने की अपेक्षा जल्दी टाल देना ही उचित समझा.

‘‘उन्हें कल शाम मेरे पास भेज दीजिएगा, भाभीजी, अच्छा नमस्ते,’’ और लंबेलंबे डग भरते हुए वह चले गए.

अब तक मां भी मेरे पीछे आ खड़ी हुई थीं. अंदर आए तो चाय ठंडी हो चुकी थी.

मां ने पूछा, ‘‘और चाय बना दूं तेरे लिए?’’

मैं ने मना कर दिया.

मां बोलीं, ‘‘प्रेरणा, मुझे तो नींद आ रही है अब. तू अभी जागेगी क्या?’’

मैं ने मां से कहा, ‘‘आप सो जाइए, मां. मैं कुछ देर बैठूंगी अभी. आप तो जानती हैं बिना कुछ पढ़े नींद नहीं आएगी मुझे.’’

‘‘जैसी तेरी इच्छा,’’ कह कर मां ऊपर सोने चली गईं.

मां के ऊपर जाने के थोड़ी देर पश्चात ही यह आ गए. बच्चों व मां के बारे में पूछने लगे. मैं ने कहा, ‘‘वे लोग तो सो गए. आप का खाना लगा दूं?’’

यह बोले, ‘‘हां, लगा दो और तुम चाहो तो अब सो जाओ, मैं अभी कपड़े बदल कर आता हूं.’’

जल्दी से इन का खाना गरम कर के मेज पर रखा, तभी यह कपड़े बदल कर आ गए.

खाना खा कर बोले, ‘‘भई, मुझे तो नींद आ रही है, आप को कब आएगी?’’

मैं ने कहा, ‘‘आप चलिए, मैं आ रही हूं.’’

जैसी कि मेरी शुरू से ही आदत है, सोने के लिए जाने से पूर्व बैठक को व्यवस्थित कर देती हूं ताकि सुबह कुछ आराम मिले. ऊपर गई तो कमरे में घुसते ही इन्होंने जानापहचाना प्रश्न मेरी ओर उछाल दिया, ‘‘कोई आया तो नहीं था, प्रेरणा?’’

मैं ने कहा, ‘‘अब सोने भी दीजिए, कल से एक पैड खाने की मेज पर रख दूंगी और उस में रोज आनेजाने वालों के नाम व काम की सूची लिख दिया करूंगी. आखिर मुफ्त की सहायक जो हूं आप की.’’

तब यह हंस कर बोले, ‘‘बता भी दो.’’

मैं ने कहा, ‘‘आप के मित्र सुहास आए थे. उन्होंने आप को कल अपने घर बुलाया है.’’

‘‘ठीक है. मिल लूंगा. मां को कोई तकलीफ तो नहीं है?’’

मैं ने कहा, ‘‘नींद बहुत आती है उन्हें, बाकी सब तो ठीक है.’’

थोड़ी देर बाद इन के खर्राटों की आवाज शांत वातावरण में तैरने लगी. पता नहीं, कुछ लोग बिस्तर पर लेटते ही कैसे सो जाते हैं. खर्राटे सुनते हुए मैं सोने की नाकाम चेष्टा करने लगी और सोचने लगी उस स्त्री के बारे में, जिस से उसी दिन अंकुर के स्कूल में मुलाकात हुई थी. गहरा सांवला रंग, बड़ीबड़ी पर खोईखोई आकर्षक आंखें, घने काले बाल, लंबा कद, अंगरेजी पहनावा और होंठों पर मधुर मुसकान. उसे सुंदर तो नहीं कहा जा सकता था, पर चेहरे पर कुछ ऐसे सात्विक भाव थे कि नजरें हटाने को मन नहीं करता था.

मेरी ही तरह वह भी अपनी बच्ची को ले कर उस कार्यक्रम के अंतर्गत स्कूल आई थी, जिस के तहत सप्ताह में 1 या 2 दिन मां को स्वयं बच्चे के साथ स्कूल में रह कर उस की देखभाल करनी पड़ती है ताकि बच्चा स्कूल आनेजाने में अभ्यस्त हो सके. मैं ने उसे अपनी ओर देखते पाया. मैं यह तो समझ गई कि वह दक्षिण भारतीय है, पर यह पता नहीं था कि वह हिंदी जानती है या नहीं. थोड़ी देर हम दोनों ही चुप रहे. जब स्कूल के सभी बच्चे बाहर बगीचे में पहुंचे तो वह अपनी बच्ची को झूला झूलते हुए देख रही थी और मैं अपने बेटे को लकड़ी की गाड़ी पर बैठा रही थी.

उस की आंखों में मित्रवत भाव देख कर मैं ने ही मौन तोड़ा था और अंगरेजी में पूछा था, ‘क्या आप हिंदी बोल सकती हैं?’ इस पर वह बोली, ‘यस, थोड़ीथोड़ी, बहुत नहीं,’ और उस का प्रमाण भी उस ने फौरन ही यह पूछ कर दे दिया, ‘आप कहां रहते हैं?’

मैं उस के प्रश्न का उत्तर दे कर पूछ बैठी, ‘आप का नाम?’

‘तपस्या,’ वह बोली.

जैसा कि सर्वविदित है, 2 स्त्रियां एकदूसरे का नाम व पता जान कर ही संतुष्ट नहीं होतीं, कम से कम समय में एकदूसरे के बारे में भी कुछ जान लेने की उत्सुकता स्त्री का स्वभाव है. अत: उस ने टूटीफूटी हिंदी में बताया, ‘मैं फिजी की रहने वाली हूं. मेरे विवाह को 3 वर्ष हो चुके हैं, मेरे पति मुसलमान हैं और यहीं एक फैक्टरी में काम करते हैं. मेरी एक बेटी है और इस समय मैं गर्भवती हूं.’

सौगात: खर्राटों की आवाज से परेशान पत्नी की कहानी -भाग 2

जैसा कि यहां प्रचलन है, हर गर्भवती स्त्री से यह अवश्य पूछा जाता है कि वह लड़का चाहती है या लड़की, मैं ने भी पूछ लिया तो उस ने बताया, ‘मैं तो लड़की ही चाहती हूं. मेरे पति व बेटी भी यही चाहते हैं, क्योंकि लड़कियां लड़कों की अपेक्षा अधिक स्नेही व भावुक होती हैं. मैं तो इन्हें ही लड़कों की तरह पालूंगी. इस का भविष्य बनाना ही मेरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य है.’

उस दिन इतनी ही बात हुई और हम अपनेअपने घर चले आए. पर उस स्त्री की आंखों में पता नहीं क्या आकर्षण था कि उस की सूरत मेरे दिमाग पर छाई रही. यही सब सोचतेसोचते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला.

प्रात: 7 बजे नींद खुली. यहां तो डाक सुबह 7 और 9 बजे के बीच बंट जाती है. देखा, मेरे भैया का पत्र आया है. सब को नाश्ता कराया और सब काम निबटा कर फुरसत के क्षणों में सोचने लगी कि तपस्या से फिर मुलाकात होगी तो उसे अपनी सहेली बनाऊंगी. कुछ चेहरे ऐसे होते हैं कि उन्हें देखते ही ऐसा एहसास होता है कि न जाने कब से इन्हें जानते हैं.

शुक्रवार का दिन आया और मैं अपने पुत्र के साथ उस के स्कूल पहुंची. देखा, वह भी वहां पर उपस्थित है. थोड़ी देर बाद ही स्कूल की अध्यापिका रोजी ने मुझ से कौफी के बारे में पूछा तो ठंड से कंपकंपाते हुए अनायास ही मुंह से हां निकल गया. कुछ देर बाद तपस्या भी अपनी कौफी ले कर मेरे ही पास आ गई.

‘‘प्रेरणाजी, कुछ देर आप के पास बैठ सकती हूं मैं?’’

मैं ने मुसकरा कर हामी भर दी. हम दोनों के बच्चे अपनेअपने खेलों में व्यस्त थे. बातों का सिलसिला फिर आरंभ हो गया. मैं ने पूछा, ‘‘तपस्याजी, आप ने दूसरे धर्म वाले व्यक्ति से विवाह किया. आप को क्या लगता है कि आप ने सही कदम उठाया? क्या आप के अभिभावक इस विवाह के लिए सहमत थे? मैं तो सोचती हूं कि विवाह एक जुआ है. खेलने से पहले पता नहीं होता कि जीत होगी या हार और खेलने के बाद अर्थात विवाह के पश्चात ही पता चलता है कि हम जीते हैं या हारे. और वह भी एक लंबे अंतराल के पश्चात ही पता चलता है, क्योंकि विवाह के 1-2 वर्ष तो एकदूसरे को पहचानने में ही व्यतीत हो जाते हैं.’’

इस पर उस ने कहा, ‘‘प्रेरणाजी, आप क्या करेंगी यह सब जान कर? बड़ी लंबी कहानी है, बहुत समय लगेगा.’’

‘‘मैं आप के इस साहसिक कदम की प्रशंसा करती हूं. फिर भी मैं समय अवश्य निकालूंगी.’’

निश्चय हुआ कि स्कूल से निकलने के बाद वह मेरे साथ मेरे घर चलेगी और एक कप चाय पी कर मेरे घर के पास स्थित एक स्टोर से कुछ खरीदारी भी कर लेगी. हम दोनों के पति अपनेअपने काम पर गए हुए थे. स्कूल की छुट्टी होने पर हम अपनेअपने बच्चों के साथ बाहर निकले. रास्ता लंबा था, अत: बातों का क्रम आरंभ हो गया.

तपस्या ने मुझ से पहला प्रश्न किया, ‘‘क्या आप की निगाह में दूसरे धर्म या जाति के व्यक्ति से विवाह करना अपराध है?’’

मैं ने कहा, ‘‘बिलकुल नहीं. मैं तो बहुत खुले विचारों की हूं. और हर इनसान को केवल इनसानियत की कसौटी पर कस कर देखती हूं. न कि उस की जाति व धर्म के आधार पर. अगर आप अपने पति के साथ दुखी हैं तो ऐसी भावना हृदय से निकाल फेंकिए, क्योंकि बहुत से युवकयुवतियां एक ही जाति व धर्म के होते हुए भी विवाह के पश्चात आपस में तालमेल बैठाने में असमर्थ होते हैं. तपस्याजी, इनसान यदि एक अच्छा इनसान ही हो तो इस एक विशेषता के कारण अन्य सभी बातें नगण्य हो जाती हैं.’’

बातें करतेकरते कब घर आ गया, पता ही नहीं चला. हम दोनों के बच्चे एकदूसरे से हिलमिल गए थे. घर में घुसते ही उस ने घर की बड़ी प्रशंसा की. हम लोगों ने अपने कोट, दस्ताने, मफलर इत्यादि उतारे. मां ने पूछा, ‘‘चाय का पानी चढ़ा दूं?’’

मैं ने मां का परिचय तपस्या से कराया और कहा, ‘‘नहीं, मां, आप इन के साथ बैठिए. मैं चढ़ाती हूं चाय का पानी.’’

बच्चों को 1-1 कस्टर्ड केक दे दिया. चाय ले कर मैं बैठक में आ गई. मां भी बच्चों के साथ खेलने में व्यस्त हो गईं और मैं अपनी मात्र एक दिन की जान- पहचान वाली इस नई सखी के समीप बैठ गई. उस ने मेरा हाथ पकड़ कर बड़े ही भावुक अंदाज में मुझे बताया, ‘‘नर्सरी स्कूल में आप को देखते ही मुझे अनुमान हो गया था कि आप अवश्य ही एक संभ्रांत घराने से संबंध रखती हैं. इस देश में भी आप के भारतीय पहनावे साड़ी, माथे पर बिंदी व चेहरे की सौम्यता ने मुझे अंदर तक प्रभावित किया है.’’

फिर तपस्या ने अपनी कहानी आरंभ की. वह मात्र 3 वर्ष पूर्व इस देश में आई है. इस से पूर्व वह फिजी में एक सरकारी कार्यालय में नौकरी करती थी. उस के मामा अपने परिवार के साथ लंदन में रहते हैं. मात्र घूमनेफिरने के विचार से वह 3 माह का टूरिस्ट वीजा ले कर उन के पास आ गई. वहीं पर घूमतेफिरते एक दिन उसे जमील (उस के पति) मिल गए. एशियाई होने के कारण उन दोनों ने एकदूसरे की ओर मित्रवत भाव से देखा. जमील ने पूछा, ‘‘आप यहां घूमने आई हैं?’’

तपस्या ने उत्तर दिया, ‘‘हां, मैं अपने मामाजी के पास आई हूं.’’ बातोंबातों में पता चला कि उस युवक के दादादादी भी कभी फिजी में ही रहते थे और मातापिता बाद में पाकिस्तान में बस गए. उसे बचपन में ही लंदन में बसे चाचाचाची के पास शिक्षा के लिए भेज दिया गया और शिक्षा समाप्त करने के पश्चात उसे यहीं नौकरी भी मिल गई. उस का एक भाई व एक बहन आस्ट्रेलिया में हैं. तपस्या ने बताया कि उस का भी एक भाई आस्ट्रेलिया में इंजीनियर है. इस प्रकार बातें करतेकरते दोनों एकसाथ घूमते रहे. घर जाते जमील ने तपस्या से पूछा, ‘‘आप से फिर मिल सकता हूं?’’

तपस्या ने कहा, ‘‘यह संभव नहीं है. मेरी माताजी इसे पसंद नहीं करेंगी,’’ इस के बाद दोनों विपरीत दिशाओं में चले गए. पर उन्हें क्या पता था कि उन्हें जीवन भर एक ही दिशा में, एक ही मंजिल के लिए, साथसाथ चलना होगा. कुछ समय पश्चात मामाजी के क्लब में क्रिसमस पार्टी का आयोजन था. वहां तपस्या भी उन लोगों के साथ गई. वहां जमील भी था. जमील और तपस्या एकदूसरे को देख कर हतप्रभ रह गए. भीड़भाड़ व अनजाने वातावरण ने दोनों को पुन: बातचीत करने पर विवश कर दिया.

मामाजी अपने मित्रों व मामीजी अपनी सहेलियों में व्यस्त थीं, अत: इन दोनों ने अपनी बातचीत का क्रम, जोकि उस दिन अधूरा छूट गया था, आगे बढ़ाया. तपस्या की शिक्षा, नौकरी, अन्य बातों से जमील बड़ा प्रभावित हुआ. उस ने अपने लिए बीयर व तपस्या के लिए कोक का आर्डर दिया. दोनों ही परत दर परत खुलते जा रहे थे. जमील ने तपस्या के सामने नृत्य करने का प्रस्ताव रखा. तपस्या ने यह कह कर कि मुझे नहीं आता, इनकार कर दिया.

तब जमील ने कहा, ‘‘इस गहमा- गहमी में किसे फुरसत है, जो हमारी ओर देखेगा? जैसेजैसे मैं कदम रखूंगा वैसे ही आप भी रख दीजिएगा.’’

इस तरह उन दोनों ने एकसाथ नृत्य किया, खाना खाया. कहने की बात नहीं कि दोनों अच्छे मित्र बन चुके थे. तभी जमील ने न जाने क्या सोच कर तपस्या के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया, जिसे सुन कर वह हतप्रभ रह गई.

उस ने पूछा, ‘‘2 दिन की मुलाकात में ही ऐसा प्रस्ताव रख दिया आप ने?’’

जमील ने कहा, ‘‘आप के सांवले सौंदर्य व आंखों के मासूम भावों ने मुझे ऐसा प्रभावित किया है कि मैं स्वयं को रोक नहीं सका, वरना मेरे मातापिता तो पाकिस्तान से ठेठ देहाती लड़की को मेरे लिए भेजने की तैयारी कर रहे हैं. वैसी लड़की से विवाह करने से तो बेहतर है कि जिंदगी भर कुंआरा ही रह जाऊं.’’

तपस्या ने कहा, ‘‘मैं जाति, धर्म में विश्वास तो नहीं करती, पर चूंकि यहां पर मेरे अभिभावक मामामामी हैं, अत: उन की राय लेनी होगी. मैं अभी कुछ नहीं कह सकती.’’

जमील ने अपना फोन नंबर दे दिया और कहा, ‘‘मैं आप की स्वीकृति की बेसब्री से प्रतीक्षा करूंगा.’’

घर जा कर अगली सुबह ही तपस्या ने अपने मामा और मामी को जमील से संबंधित सभी बातें बता कर उन की राय मांगी. उन लोगों ने भी धर्म की दीवार खड़ी करनी चाही और कहा, ‘‘तुम एक हिंदू लड़की हो और वह एक पाकिस्तानी. यह विवाह संभव नहीं है.’’

तपस्या ने कहा, ‘‘यदि आप की दृष्टि में उस में यही एक खोट है, तो मुझे इस प्रस्ताव को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है. लड़के को आप लोगों ने क्लब में देखा ही है मेरे साथ. मैं उसे फोन करने जा रही हूं.’’

उन के रोकतेरोकते भी उस ने फोन पर जमील को स्वीकृति दे दी. जमील ने अपनी खुशी में डूबी आवाज में उसे उसी शाम ही पास के एक रेस्तरां में मिलने की दावत दे डाली और शाम को जब तपस्या अपनी सब से सुंदर साड़ी में वहां पहुंची तो देखा, जमील उस की प्रतीक्षा कर रहा है. दोनों ने एकदूसरे को आंखों ही आंखों में मौन बधाई दे डाली और अगले सप्ताह शादी का कार्यक्रम निश्चित कर लिया. निश्चित दिन कोर्ट में दोनों की शादी हो गई. मामामामी को बुझे मन से सम्मिलित होना पड़ा. शादी हो गई और तपस्या अब तपस्या मुदालियर न हो कर तपस्या अली हो गई.

 

सौगात: खर्राटों की आवाज से परेशान पत्नी की कहानी

सीप में बंद मोती

सौगात: खर्राटों की आवाज से परेशान पत्नी की कहानी -भाग 3

उस के इस विद्रोहात्मक कदम ने फिजी में रह रहे उस के मातापिता को बड़ा नाराज किया. मां की नाराजगी तो खैर कुछ दिनों के बाद दूर हो गई, जब उन की नातिन के जन्म पर जमील ने वापसी टिकट भेज कर बुलाना चाहा तो वह अपनी ममता की नदी पर सख्ती का बांध न बांध सकीं और उन के पास 4 माह रह कर अपनी बेटी की सुखी गृहस्थी देख कर, संतुष्ट मन से वापस फिजी चली गईं पर पिता ने उसे आज तक क्षमा नहीं किया है.

वह अपने पति तथा बच्ची के साथ फिजी भी गई, पर पिता ने न तो उस से और न उस के पति से कोई बात की. पर हां, बच्ची को प्यार करने से वह स्वयं को नहीं रोक सके. बच्ची जब उन्हें नाना कहती तो उन की पलकें भीग जातीं. कहा जाता है मूल से प्यारा ब्याज होता है.

आज तपस्या दूसरी बार गर्भवती है. उस के पति ने उस पर कभी भी अनुचित बंधन नहीं लगाया. अलगअलग धर्मों के होते हुए भी उन में विश्वास, प्रेम व स्नेह की डोर दिनप्रतिदिन दृढ़ होती जा रही है. जमील घर के कार्यों में उसे भरसक सहयोग देते हैं. तपस्या शाम को 4 घंटे की नौकरी करती है और उस समय बच्ची व घर की देखभाल उस के पति ही करते हैं. इतना ही नहीं, कभीकभी घर लौटने पर खाना भी तैयार मिलता है. दोनों एकदूसरे की भावनाओं की कद्र करते हैं जोकि वैवाहिक जीवन का आधार है.

ईद पर सेंवइयां व बकरीद पर मीट व अन्य व्यंजन बनाना तपस्या कभी नहीं भूलती और होली, दशहरा, दीवाली पर तपस्या के लिए नई साड़ी या अन्य उपहार लाना जमील को सदा याद रहता है. अभी शादी की पिछली वर्षगांठ पर 550 पौंड का चायना डिनर सेट जमील ने उसे भेंट किया था.

पर तपस्या मुझ से कहने लगी, ‘‘प्रेरणाजी, ये महंगे उपहार उन के प्यार व सहयोग की भावना के समक्ष कुछ भी नहीं हैं. मुझे शायद मेरे मांबाप द्वारा ढूंढ़ा गया मेरी जाति का लड़का इतना सुख न दे पाता जितना कि इस गैरधर्म, गैरदेश के युवक ने मुझे दिया है. मेरा आंचल तो भरता ही जा रहा है इन के प्यार की सौगात से,’’ और तपस्या की आंखें आंसुओं से छलछला गईं.

मैं सोचने लगी कि यदि आज ऐसे उदाहरणों को देखने के पश्चात भी समाज की आंखों पर जाति व धर्म का परदा पड़ा है तो ऐसा समाज किस काम का? आवश्यकता है हमें अपने मन की आंखों को खोल कर अपना भलाबुरा स्वयं समझने की. सच्चा प्यार भी देश, जाति, धर्म व समाज का मुहताज नहीं होता. प्यार की इस निर्मल स्वच्छ धारा को दूषित करते हैं हमारे ही समाज के कठोर नियम व संकीर्ण दृष्टिकोण.

एक दामाद और : पांच बेटी होने के बाद भी उसे कोई दिक्कत नहीं थी क्यों

हम शर्मिंदा हैं उजरिया -भाग 3

जिस के जवाब में उजरिया ने उन्हें बताया, ‘‘भला जिस्म के धंधे में बड़ी उम्र वाली औरतों की पूछ ही कहां होती है…’’ ‘‘पर, तुझे हमारे बारे में इतना सबकुछ कैसे पता?’’ ‘‘मुझे यह सब इसलिए पता है, क्योंकि जिस लड़की के जिस्म को तुम लोग उस दिन चूमचाट और नोच रहे थे, वह और कोई नहीं, बल्कि मेरी सगी बहन थी…

हम दोनों बहनें अपने कैंसर से पीडि़त पिता का इलाज कराना चाहती हैं, इसीलिए,’’ कह कर उजरिया चुप हो गई. एक दलित औरत के हाथ का बना खाना खाने से मना करने वाले लड़कों की समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें अब क्या करना चाहिए? भले ही आज उन्होंने एक दलित औरत के हाथ का खाना खाने से मना किया हो, पर उसी की सगी बहन के साथ तो वे अपना शरीर बांट ही चुके हैं और इन बातों से मैस के अंदर उन लोगों की काफी बेइज्जती तो हो ही चुकी थी. इतना सब कह कर उजरिया बाहर खुली हवा में आ चुकी थी. वहां उसे थोड़ा सुकून मिल रहा था.

, जबकि डिमैलो ग्रुप के लड़कों की नजरें कह रही थीं, ‘हम शर्मिंदा हैं उजरिया…’ उजरिया तेज कदमों से गोमती पुल के नीचे बनी बस्ती में पहुंच जाना चाहती थी और अपनी छोटी बहन और पिता के गले लग कर खूब रोना चाहती थी. किसी के कमरे में रखा टैलीविजन तेज आवाज में चल रहा था, जिस पर कोई नेता बोल रहा था, ‘‘हम सवर्णों की पार्टी आप सब से यह वादा करती है कि हम शोषित, वंचित और दलित लोगों का खास ध्यान रखेंगे और उन्हें समाज में ऊंचा दर्जा दिलाएंगे…’’ उस नेता की आवाज सुन कर उजरिया ने नफरत से सिर झटक दिया और उस के मुंह से निकला, ‘‘हुं…

सीप में बंद मोती : भाग 2

छोटे से बगीचे से फूलपत्तियां तोड़ कर वह रोज पुष्पसज्जा करती. कई बार तो आलोक भी सजे हुए सुंदर से घर को देख कर हैरान रह जाता. तारीफ के बोल  उस के मुंह से निकलने को ही होते पर वह उन्हें अंदर ही घुटक लेता.

पाक कला में निपुण अरुणा रोज नएनए व्यंजन बनाती. उस की तो भूख जैसे दोगुनी हो गई थी. नहाने जाता तो स्नानघर में कपड़े, तौलिया, साबुन सब करीने से सजे मिलते. यह सब देख कर  मन ही  मन अरुणा के प्रति प्यार और स्नेह के अंकुर से फूटने लगते, पर फिर उसी क्षण वही पुरानी कटुता उमड़ कर सामने आ जाती और वह सोचता, ये काम तो कोई नौकर भी कर सकता है.

एक दिन वह दफ्तर से आ कर बैठा ही था कि नरेश, विवेक, राजेश सजीधजी  पत्नियों के साथ उस के घर आ धमके. नरेश बोला, ‘‘आज पकड़े गए, जनाब.’’

उन सब के चेहरे देख कर एक बार तो आलोक सन्न सा रह गया. क्या सोचेंगे ये सब अरुणा को देख कर? क्या यही रूप की रानी थी, जिसे अब तक उस ने छिपा कर रखा हुआ था? पर मन के भाव छिपा कर वह चेहरे पर मुसकान ले आया और बोला, ‘‘आओआओ, यार, धन्यवाद जो तुम सब इकट्ठे आए.’’

‘‘आज तो खासतौर से भाभीजी से मिलने आए हैं,’’ विवेक  बोला और फिर सब बैठक में आ गए. सुघड़ता और कलात्मकता से सजी बैठक में आ कर सभी नजरें घुमा कर सजावट देखने लगे. राजेश बोला, ‘‘अरे वाह, तेरे घर का तो कायाकल्प हो गया है, यार.’’

तभी अंदर से अरुणा मुसकराती हुई आई और सब को नमस्ते कर के बोली, ‘‘बैठिए, मैं आप लोगों के लिए चाय लाती हूं.’’

‘‘आप भी क्या सोचती होंगी कि आप के पति के कैसे दोस्त हैं जो अब तक मिलने भी नहीं आए पर इस में हमारा कुसूर नहीं है. आलोक ही बहाने बनाबना कर हमें आने से रोकता रहा.’’

‘‘अरुणा, तुम्हारी पुष्पसज्जा तो गजब की है,’’ सोनिया प्रंशासात्मक स्वर में बोली, ‘‘हमारे बगीचे में भी फूल हैं पर   मुझे सजाने का तरीका ही नहीं आता. तुम सिखा देना मुझे.’’

‘‘इस में सिखाने जैसी तो कोई बात ही नहीं,’’ अरुणा संकुचित हो उठी. वह रसोई में चाय बनाने चली गई.  कुछ ही देर में प्लेटों में गरमागरम ब्रेडरोल और गुलाबजामुन ले आई.

‘‘आप इनसान हैं या मशीन?’’ विवेक हंसते हुए बोला, ‘‘कितनी जल्दी सबकुछ तैयार कर लिया.’’

‘‘अब आप लोग गरमागरम खाइए मैं ब्रेडरोल तलती जा रही हूं.’’

1 घंटे बाद जब सब जाने लगे तो नरेश आलोक को कोहनी मार कर बोला, ‘‘वाकई यार, तू ने बड़ी सुघड़ और अच्छी बीवी पाई है.’’

आलोक समझ नहीं पाया, नरेश सच बोल रहा है या मजाक कर रहा है. जाते समय सब आलोक और अरुणा को आमंत्रित करने लगे  तो आलोक बोला, ‘‘दिन तय मत करो, यार, जब फुरसत होगी आ जाएंगे और फिर  खाना खा कर ही आएंगे.’’

‘‘फिर तो तुम्हें फीकी मूंग की दाल और रोटी ही मिलेगी,’’ विवेक हंसता हुआ बोला, ‘‘हमारी पत्नी का तो लगभग रोज का यही घिसापिटा मीनू है.’’

‘‘और कहीं हमारे यहां खिचड़ी  ही न बनी हो. सोनिया जब भी थकी होती है खिचड़ी ही बनाती है. वैसे अकसर यह थकी ही रहती है,’’ नरेश टेढ़ी नजरों से सोनिया को देख कर बोला.

सब चले गए तो अरुणा बिखरा घर सहेजने लगी और आलोक आरामकुरसी पर पसर गया. उस ने कनखियों से अरुणा को देखा, क्या सचमुच उसे  सुघड़ और बहुत अच्छी पत्नी मिली है? क्या सचमुच उस के दोस्तों को उस के जीवन पर रश्क है? उस के मन में अंतर्द्वंद्व सा चल रहा था. उसे अरुणा पर दया सी आई. 2 माह होने को हैं. उस ने अरुणा को कहीं घुमाया भी नहीं है. कभी घूमने निकलते भी हैं तो रात को.

एक दिन शाम को आलोक दफ्तर  से आया तो बोला, ‘‘अरुणा, झटपट तैयार हो जाओ, आज नरेश के घर चलते हैं.’’

अरुणा ने हैरानी से उसे देखा और फिर खामोशी से तैयार होने चल पड़ी.  थोड़ी देर में ही वह तैयार हो कर आ गई. जब वे नरेश के घर पहुंचे तो अंदर से जोरजोेर से आती आवाज से चौंक कर दरवाजे पर ही रुक गए. नरेश चीख रहा था, ‘‘यह घर है या नरक, मेरे जरूरी कागज तक तुम संभाल कर नहीं रख सकतीं. मुन्ने ने सब फाड़ दिए हैं. कैसी जाहिल औरत हो, कौन तुम्हें पढ़ीलिखी कहेगा?’’

‘‘जाहिल हो तुम,’’ सोनिया का तीखा स्वर गूंजा, ‘‘मैं तुम्हारी नौकरानी नहीं हूं जो तुम्हारा बिखरा सामान ही सारा दिन सहेजती रहूं.’’

बाहर खड़े अरुणा और आलोक संकुचित से हो उठे. ऐसे हालात में वे कैसे अंदर जाएं, समझ नहीं पा रहे थे. फिर आलोक ने  गला खंखार कर दरवाजे पर लगी घंटी बजाई. दरवाजा सोनिया ने खोला. बिखरे बाल, मटमैली सी सलवटों वाली साड़ी और  मेकअपविहीन चेहरे  में वह काफी फूहड़ और भद्दी लग रही थी. आलोक ने हैरानी से सोनिया को देखा. सोनिया संभल कर बोली, ‘‘आइए… आइए, आलोकजी,’’ और वह अरुणा का हाथ थाम कर अंदर ले आई.

उन्हें सामने देख नरेश झेंप सा गया और वह सोफे पर बिखरे कागजों  को समेट कर बोला, ‘‘आओ…आओ, आलोक, आज कैसे रास्ता भूल गए?’’

आलोक और अरुणा सोफे पर बैठ गए. आलोक ने नजरें घुमा कर देखा, सारी बैठक अस्तव्यस्त थी. बच्चों के खिलौने, पत्रिकाएं, अखबार, कपड़े इधरउधर पड़े थे. हालांकि नरेश के घर आलोक पहले भी आता था, पर अरुणा के आने के बाद वह पहली बार यहां आया था. इन 2 माह में ही अरुणा  के कारण व्यवस्थित रूप से सजेधजे घर में रहने से उसे नरेश का घर बड़ा ही बिखरा और अस्तव्यस्त लग रहा  था.

अनजाने ही वह सोनिया और अरुणा की तुलना करने लगा. सोनिया नरेश से किस तरह जबान लड़ा रही थी. घर भी कितना गंदा रखा हुआ है. स्वयं भी किस कदर फूहड़ सी बनी हुई है. क्या फायदा ऐसे मेकअप और लीपापोती का जिस के उतरते ही औरत कलईर् उतरे बरतन सी बेरंग, बेरौनक नजर आए.

इस  के विपरीत अरुणा कितनी सभ्य और सुसंस्कृत है. उस के साथ कितनी शालीनता से बात करती है. अपने सांवले रंग पर फबने वाले हलके रंग के कपड़े कितने सलीके से पहन कर जैसे हमेशा तैयार सी रहती है. घर भी कितना साफ रखती है. लोग जब उस के घर की तारीफ करते हैं तब गर्व से उस का सीना  भी फूल जाता है.

तभी सोनिया चाय और एक प्लेट में भुजिया लाई तो नरेश बोला, ‘‘अरे, आलोक और उस की पत्नी पहली बार घर आए हैं, कुछ खातिर करो.’’

‘‘अब घर में तो कुछ है नहीं. आप झटपट जा कर बाजार  से ले आओ.’’

‘‘नहीं…नहीं,’’ आलोक बोला, ‘‘इस समय कुछ खाने की इच्छा भी नहीं है,’’ मन ही मन वह सोच रहा था, अरुणा मेहमानों के सामने हमेशा कोई न कोई घर की बनी हुई चीज अवश्य रखती है. जो खाता है, तारीफ किए बिना नहीं रहता. कुछ देर बैठ कर आलोक और अरुणा ने उन से विदा ली. बाहर आ कर आलोक बोला, ‘‘रास्ते में विवेक का घर भी पड़ता है. जरा उस के यहां भी हाजिरी लगा लें.’’

चलतेचलते उस ने अरुणा का हाथ अपने हाथों में ले लिया. अरुणा हैरानी से उसे देखने लगी. सदा उस की उपेक्षा करने वाले पति का यह अप्रत्याशित व्यवहार उस की समझ में नहीं आया.

विवेक के घर जब वे पहुंचे तो दरवाजा खटखटाने पर तौलिए से हाथ पोंछता विवेक रसोई  से निकला और उन्हें  देख कर शर्मिंदा सा हो कर बोला, ‘‘अरे वाह, आज तो जाने सूरज कहां से निकला जो तुम  लोग हमारे घर आए हो.’’

विवेक  के घर का भी वही हाल था.  बैठक इस तरह से अस्तव्यस्त थी  जैसे  अभी तूफान आ कर गुजरा हो. विवेक पत्रिकाएं समेटता हुआ बोला, ‘‘आप लोग बैठो, मैं चाय बनाता हूं. नीलम तो लेडीज क्लब गई हुईर् है.’’

पत्नी क्लब में पति रसोई में. आलोक को मन ही मन हंसी आ गई. तभी अरुणा खड़े हो कर बोली, ‘‘आप बैठिए भाई साहब, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर अरुणा रसोई में चली गई.

तभी विवेक का 1 साल का बेटा भी उठ कर रोने लगा. विवेक उसे हिलाडुला कर चुप कराने का प्रयास करने लगा.

हम शर्मिंदा हैं उजरिया

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