दबी आवाजों का गुस्सा

‘‘आज मंदिर में प्रोग्राम है न?’’

‘‘हां है.’’

‘‘देखिए, मुझे भी ले चलिएगा. मैं जब से यहां आई हूं, आप मुझे कहीं भी ले कर नहीं गए हैं. कंपनी में फिल्म होती है, वहां भी नहीं.’’

पत्नी के चेहरे पर रूठने के भाव साफ दिख रहे थे और बात भी सही थी. ब्याह के बाद जब से वह आई है, मैं उसे कहीं भी ले कर नहीं गया, क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मेरे फौजी माहौल का उस पर असर पड़े.

‘‘ले चलिएगा न?’’

‘‘हां राजी, ले चलूंगा, पर…’’

‘‘परवर कुछ नहीं, आज तो मैं आप की एक न मानूंगी.’’

‘‘ठीक है, तुम तैयार हो जाओ.’’

थोड़ी देर बाद हम मंदिर की ओर जा रहे थे. मंदिर के नजदीक पहुंच कर राजी की खुशी देखते ही बनती थी.

‘‘देखिए न, मंदिर दुलहन की तरह सजा हुआ कितना अच्छा लग रहा है.’’

‘‘हां राजी, सचमुच अच्छा लग रहा है, लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या?’’

‘‘कुछ नहीं राजी… आओ, लौट चलें.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हैं जी? मंदिर के पास आ कर भी भला लौटा जा सकता है? आप भी कभीकभी बेकार की बातें सोचने लगते हैं. चलिए, मंदिर आ गया है, जूते उतारिए.’’

‘‘यहां नहीं राजी, हम लोगों के लिए जूते उतारने की जगह दूसरी ओर है. यहां अफसर उतारेंगे.’’

‘‘क्या…’’

‘‘हां, राजी.’’

‘‘ओह…’’

तय जगह पर जूते उतार कर हम भीतर चले जाते हैं. भीतर चारों ओर एक खामोशी है. एक ओर जवान बैठे हैं, दूसरी ओर औरतें और बच्चे. बीचोंबीच मूर्ति तक जाने का रास्ता है.

हम दोनों हाथ जोड़ने के बाद लौटे, तो पंडाल से हट कर बैठी हमारी पड़ोसन मिसेज शर्मा ने राजी के लिए जगह बना दी. मैं रास्ते के पास जवानों के बीच बैठ गया. मु?ो राजी और मिसेज शर्मा की बातें साफ सुनाई दे रही थीं.

‘‘आओ बहन, आओ. शुक्र है, तुम घर से बाहर तो निकलीं.’’

‘‘क्या बात है बहनजी, मंदिर में बड़ी खामोशी है. न भजन, न कीर्तन,’’ राजी कह रही थी.

‘‘कोई मन से आए, तो भजन भी होए. बाई और्डर कौन भजन करे,’’ मिसेज शर्मा के बगल में बैठी औरत ने कहा.

‘‘बाई और्डर…?’’

‘‘हां बहन, आदेश न हो, तो यहां कोई भी न आए,’’ मिसेज शर्मा ने कहा.

‘‘मंदिर में भी…?’’

‘‘हां बहन, मंदिर में भी… न आएं तो मर्द लोगों के खिलाफ ऐक्शन लिया जाता है. कोई ज्यादा अकड़े तो कहा जाता है कि जाओ, फैमिली डिस्पैच कर दो. भला बालबच्चों को ले कर मर्द लोग कहां जाएं? इसी गम के मारे तो कितने मर्द क्वार्टरों में अपनी फैमिली लाना नहीं चाहते. उन के बीवीबच्चे भी क्या सोचते होंगे, इसीलिए यह खामोशी है… न भजन, न कीर्तन.

‘‘वह खूबसूरत पंडाल देख रही हो बहन, जिस के नीचे बैठा पंडित इस बात का इंतजार कर रहा है कि कब सीओ साहब यानी कमांडिंग अफसर और उन की मेम साहब आएं, तो पूजा शुरू हो.’’

थोड़ी देर बाद मिसेज शर्मा बोलीं, ‘‘पिछली बार मैं गलती से उस पंडाल में बैठ गई थी. मु?ो वहां पर बड़ा बेइज्जत होना पड़ा था…’’

‘‘हमारी इज्जत ही कहां है, जो बेइज्जत हों,’’ मिसेज शर्मा के पीछे बैठी एक गोरी औरत ने कहा, ‘‘कभी कंपनी में फिल्म देखने आई हो बहन?’’ राजी ने न में सिर हिला दिया.

‘‘अच्छा करती हो, नहीं तो बड़ी बेइज्जती सहनी पड़ती है. ये अफसर लोग हमारे मर्दों के कमांडर हैं. उन के साथ कैसा भी बरताव करें, सहन किया जा सकता है, पर हम औरतों में भला क्या फर्क है?

‘‘अफसरों और उन की बीवियों के लिए सोफे लगते हैं, जेसी ओज (जूनियर कमीशंड अफसर) और परिवारों के लिए कुरसियां और हम लोगों के लिए थोड़े से बैंच. जो पहले आए बैठ जाए. बाकी सब औरतें नीचे बैठ कर फिल्म देखती हैं.

‘‘और तो और, गरमियों में उन के लिए पंखों का इंतजाम होता है और सर्दियों में सिगड़ी का, जैसे हम लोहे की बनी हों, जिन पर गरमीसर्दी का कोई असर ही न होता हो…’’

‘‘हम अफसरों के साथ नहीं बैठना चाहतीं…’’ थोड़ी देर बाद उसी औरत ने कहा, ‘‘अनुशासन बनाए रखने के लिए अलगअलग इंतजाम अच्छा है, पर सब के लिए कुरसियां तो लग ही सकती हैं.’’

‘‘हमारे ही आदमी सोफे और कुरसियां लगाते हैं और उन्हीं के बीवीबच्चे उन पर नहीं बैठ सकते,’’ गोरी औरत के पास बैठी दूसरी औरत ने कहा.

‘‘7 बजे फिल्म शुरू होने का समय है, पर जब तक सीओ साहब और उन की मेम साहब न आएं, फिल्म शुरू नहीं होती. बच्चे मुंह उठाउठा कर देखते रहते हैं कि कब सीओ साहब आएं, तो फिल्म शुरू हो…

‘‘काश, सीओ साहब जान पाते कि बच्चे तालियां क्यों बजाते हैं… क्यों बजा रहे हैं?’’ पीछे बैठी गोरी औरत ने एक लंबी सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘पर कौन जानता है? कौन परवाह करता है?’’

‘‘सच कहती हो बहन, कोई परवाह नहीं करता…’’ अभीअभी आ कर बैठी सांवली औरत ने शायद गोरी औरत की बात सुन ली थी, ‘‘मेरा पति ड्राइवर है. आजकल स्कूल बस में बच्चों को ले कर जाता है. यहां से बस ठीक समय पर जाती है, पर सीओ साहब के बंगले पर जा कर खड़ी हो जाती है. जब तक उन के बच्चे नहीं आ जाते, तब तक वहां से नहीं चलती.

‘‘उन का स्कूल तो 8 बजे लगता है, पर मेरे पप्पू का तो स्कूल साढ़े 7 बजे ही लग जाता है. 3 दिन से पप्पू को टीचर सजा दे रही हैं. भला कोई सीओ साहब से पूछे कि हाजिरी कम होने पर वे बच्चों को इम्तिहान में बिठवा देंगे?’’

इतने में पीछे से एक शोर उठा कि सीओ साहब और मेम साहब आ गईं. सांवली औरत की बातें इस शोर में गुम हो कर रह गईं.

पंडितजी सीओ साहब और उन की मेम साहब के गले में फूलों की मालाएं डाल कर मंत्र बोलने लगे. पीछे से कोई बच्चा पूछ रहा था, ‘‘पंडितजी ने सीओ साहब के गले में माला क्यों डाली?’’

‘‘वे भी भगवान हैं बेटे…भगवान, फौजी भगवान…’’

राजी ने एक बार फिर पीछे मुड़ कर मेरी ओर देखा था, पर मैं उस की नजरों को सहन नहीं कर पाया.

यादों की चिनगारी : ट्रेन की वह मुलाकात

गाड़ी अभीअभी आ कर स्टेशन पर रुकी थी. मुझे इसी गाड़ी से तकरीबन  2 घंटे बाद दूसरा इंजन लगने पर अपने शहर जाना था. मैं डब्बे के दरवाजे पर खड़ा हो कर प्लेटफार्म की भीड़ को देख रहा था.

अचानक मेरे सामने से एक जानापहचाना चेहरा गुजरा. उस चेहरे को देखते ही मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘नसरीन.’’ वह रुकी और एक भरपूर नजर मेरे चेहरे पर डाली. मुझे देख कर उस का चेहरा खिल उठा, पर कोई भी लफ्ज उस के होंठों से नहीं निकला.

मेरे हाथ बढ़ाने पर उस ने फौरन अपना हाथ मेरे हाथ में दे दिया और मैं ने उसे डब्बे के अंदर खींच लिया. वह चुपचाप मेरे साथसाथ मेरी सीट तक आई. मैं ने अपनी बीवी और बच्चे से उसे मिलवाया. फिर धीरेधीरे नसरीन खुले दिल से बातें करने लगी.

वह बारबार एक ही जुमला कहे जा रही थी, ‘‘आप ने इतने बरसों बाद भी मुझे एकदम पहचान लिया. इस का मतलब मेरी तरह आप भी मुझे भूले नहीं थे?’’ वह मेरी बीवी से बातें करती जाती, मगर उस की नजरें मुझ पर टिकी हुई थीं.

नसरीन बरसों पहले कालेज के जमाने में हमारे पड़ोस में रहती थी. मुझ से वह 1-2 दर्जा पीछे ही थी,  मगर फिल्में देखने और सैरसपाटे में मुझ से कहीं आगे थी. उसे फिल्म देखने की लत थी. मैं ने शायद अपनी जिंदगी की ज्यादातर फिल्में उस के साथ ही देखीं.

उसे घूमने का भी बेहद शौक था. शाम को स्टेशन के पास वाली सड़क पर वह मुझे जबरदस्ती ले जाती, इधरउधर की फालतू बातें करती और फिर हम दोनों वापस आ जाते. उसे मेरी क्या बात पसंद थी, मालूम नहीं, मगर मुझे उस के बात करने का अंदाज और खरीदारी करने का सलीका बहुत पसंद था.

नसरीन के साथ चलने में मुझे लगता कि उस की वजह से मैं बिलकुल महफूज हूं. फिर वह आगे की पढ़ाई करने के लिए एक साल के लिए दूसरे शहर में चली गई और मैं भी नौकरी की तलाश में कई शहरों की खाक छानता रहा.

वह जब वापस आई थी, उस समय मैं नौकरी न मिलने की वजह से बेहद परेशान और दुखी था. नौकरी के लिए नसरीन भी हाथपैर मार रही थी. वह हमेशा मेरा हौसला बढ़ाया करती थी.

एक दिन उस ने मुझ से कहा था, ‘‘दुनिया में बड़े सुख जैसी कोई चीज नहीं है… छोटेछोटे सुख, जो हमें जानेअनजाने में मिलते रहते हैं, उन्हीं से खुश रहना चाहिए.’’ मैं उस शहर में ज्यादा दिन न ठहर सका. बाद में कई शहरों में छोटीमोटी नौकरियां करने के बाद मुझे सरकारी नौकरी मिली और मेरी जिंदगी में ठहराव सा आ गया.

बाद में नसरीन का परिवार भी वह शहर छोड़ गया था और उस का नया पता मुझे मालूम नहीं हो सका था. कई साल गुजर गए थे, मगर नसरीन की याद राख में दबी चिनगारी की तरह गरम ही रही, कभी बुझी नहीं.

जब उस का चेहरा मेरी नजरों के सामने आया, तो मैं अपनेआप को रोक न सका. वह भी बेहद खुश थी. बोली, ‘‘इत्तिफाक की बात है कि मैं भी इसी गाड़ी में बैठी थी और रास्तेभर आप की याद आती रही.’’

चूंकि बीवी को मैं ने नसरीन के बारे में कई बार बताया था, इसलिए वह भी उस से खूब दिलचस्पी से बातें कर रही थी. मैं उन दोनों के पास से उठ कर रिसाला यानी पत्रिका खरीदने नीचे उतर गया.

वापस आने पर मैं ने देखा कि नसरीन की बातें तो मेरी बीवी से हो रही थीं, मगर उस की नजरें मुझ पर जमी थीं. नसरीन अपनी बड़ी बहन से मिलने जा रही थी, जो कि इसी शहर में मास्टरनी थी. नसरीन अभी तक कोई नौकरी न पा सकी थी.

मुझे यह जान कर बहुत अफसोस और इस से भी ज्यादा अफसोस इस बात का हुआ कि वह अब बुरी तरह नाउम्मीद हो चुकी थी. उस ने मुझ से कहा कि मैं कहीं उस के लिए नौकरी का बंदोबस्त करूं. मगर, मैं उस के लिए क्या और कहां कोशिश करता.

उसे मेरी नौकरी के बारे में कहीं से पता चल गया था. मगर उसे यह नहीं मालूम था कि मैं छुट्टी खत्म कर के बीवीबच्चों के साथ वापस जा रहा हूं तो वह भी हमारे साथ चिपकी चली आई. मेरी बीवी ने उस से सिर्फ एक बार दिखाने के लिए साथ चलने को कहा था.

नसरीन बिना किसी झिझक या शर्म के तुरंत मान गई. उस के साथ चलने की बात पर मेरी बीवी के चेहरे पर नाराजगी सी दिखाई देने लगी, लेकिन फिर वह हंसनेबोलने लगी. 4-5 घंटे का सफर बातों में कितनी जल्दी गुजर गया था, कुछ पता ही नहीं चला. घर पहुंच कर मेरी बीवी के साथ उस ने भी खाना पकाने से ले कर घर की सफाई वगैरह में पूरा साथ दिया.

नसरीन 2 दिन रही. तीसरे दिन खरीदारी करने मेरी बीवी के साथ गई. मगर शाम को जब मैं दफ्तर से वापस आया, तो बीवी ने बताया कि वह 4 बजे वाली गाड़ी से बड़ी मुश्किल से वापस गई है. बाजार  में मेरे सामान की सारी खरीदारी भी उस ने अपनी पसंद से की थी, जैसे कि वह मेरी पसंदनापसंद को अच्छी तरह से जानती हो. काफी दिन बीत गए.

उस के 2-3 खत आए, मगर मैं जवाब न दे सका. इधर बीवी भी बीमार थी और वह अपने पीहर गई हुई थी. एक दिन शाम के समय मैं अपने दफ्तर के एक साथी के घर दावत में जाने के लिए तैयार हो रहा था कि अचानक दरवाजा खुला और नसरीन अंदर दाखिल हुई.

मैं हैरान रह गया. आते ही वह बोली, ‘‘अरे, आप कहीं जाने की तैयारी कर रहे हैं?’’ मैं ने तब दावत में जाना ठीक न समझा. मगर बिना किसी खबर के वह भी मेरी बीवी की गैरहाजिरी में उस का आना मुझे अखर सा गया. वह मेरी खामोशी भांप गई और बोली, ‘‘क्या आप को मेरे इस तरह से अचानक आ जाने से खुशी नहीं हुई?  ‘‘मैं तो कई दिन पहले से बाजी के घर आई हुई थी.

आज वापसी के लिए स्टेशन पर पहुंची, तो खुद से एक शर्त लगा ली कि अगर आप की ओर जाने वाली गाड़ी पहले आएगी, तो आप के यहां चली आऊंगी और अगर मेरे घर की तरफ जाने वाली गाड़ी पहले आई, तो वापस अपने घर चली जाऊंगी.

‘‘अब शर्त की बात थी, आप की ओर आने वाली गाड़ी पहले आई और मुझे मजबूरन आप के पास आना पड़ा.’’ यह सुन कर मैं हंस पड़ा, और बोला ‘अरे, शर्त की क्या बात थी… यह घर तुम्हारा नहीं है क्या?’’ यह जान कर कि मेरी बीवी घर पर नहीं है, नसरीन काफी खुश हुई थी.

फिर देर रात तक वह मुझ से इधरउधर की बातों के बीच अपने शिकवेशिकायतें ले बैठी कि आप मुझे भूल गए. आप ने मुझ से क्याक्या बातें की थीं? मैं ने उसे समझाया कि अगर मैं उसे भूल जाता तो शायद उस दिन पहचान भी न पाता. हां, मैं ने उस से कभी कोई वादा नहीं किया था.

दूसरे दिन सवेरे ही मैं ने नसरीन को विदा कर दिया. वह जाने को तैयार नहीं थी, मगर मैं ने उसे लोकलाज का वास्ता दिया तो वह चली गई.  कुछ दिन बाद पत्नी के लौटने पर जब मैं ने उसे नसरीन के आने की खबर दी, तो उस के चेहरे पर नाराजगी और गुस्से के कई रंग नजर आए.

मगर वह उस कड़वाहट को खामोशी से पी गई. तकरीबन 2-3 महीने बाद नसरीन की चिट्ठी आई. मैं ने उसे जवाब देने के लिए रख लिया. मगर बाद में न तो वह चिट्ठी ही फिर दिखाई दी और न ही मुझे जवाब देना याद रहा. 2 महीने बाद उस की चिट्ठी फिर आई.

मैं ने सोचा, अब की बार उसे जरूर खत लिखूंगा. मगर वह खत भी 10-15 दिन तक आंखें बिछाए मेरी तरफ देखता रहा और फिर नजरों से ओझल हो गया. एक दिन फिर उस का खत आया, जिस में लिखा था कि अगर इस बार भी आप लोगों ने जवाब नहीं दिया, तो वह फिर कभी खत नहीं लिखेगी.

एक दिन शाम को मैं ने बीवी से कहा, ‘‘क्यों न हम अपने बंटी की तरफ से नसरीन को अपनी खैरियत का जवाब दे दें?’’ ‘‘क्यों…?’’ बीवी ने इस छोटे से लफ्ज के जरीए अपनी सारी कड़वाहट मेरे मुंह पर थूक दी. मैं ने धीरे से कहा, ‘‘किसी के खत का जवाब न देना मुझे जरा ठीक नहीं लगता.’’ ‘‘अच्छा…’’ उस ने हैरानी से चौंकते हुए जवाब दिया, ‘‘और किसी कुंआरी लड़की का किसी शादीशुदा आदमी को खत लिखना या किसी शादीशुदा आदमी का किसी कुंआरी लड़की के खत का जवाब देना या दिलवाना क्या ठीक लगता है?

अगर यह सब ठीक है, तो मेरी नजर में ऐसे किसी भी खत का जवाब न देना भी गलत नहीं हो सकता.’’ बीवी के हांफते हुए चेहरे को मैं ने आहिस्ता से अपने सीने से लगा लिया. उस के चेहरे पर उभर आई पसीने की बूंदें मेरे सीने को भिगो रही थीं.

ज्वर: लड़कियों के जिस्म का शौकीन ऋषि – भाग 5

बाद तुम्हारी राह देखी थी, तुम्हारा इंतजार किया था, पर तुम्हें आज यों पा कर मैं तुम से नफरत करता हूं. तुम तो वेश्या निकली ज्योति… वेश्या.’’

मेरी बात सुन कर वह कुछ पल खामोश मुझे देखती रही, फिर अचानक खड़े हो कर बिफरते हुए वह बोली, ‘‘ऋषि, मैं वेश्या हूं ठीक कहा, पर तुम यहां एक वेश्या के घर क्या करने आए थे? तुम भी तो उतने ही गिरे हुए हो, जितना मैं, बल्कि मुझ से भी ज्यादा.

‘‘और अब मैं खुद को वेश्या कहने वाले को यहां एक पल भी बरदाश्त नहीं कर सकती, दफा हो जाओ यहां से,’’ इतना कह कर उस ने मुझे धक्का देते हुए वहां से बाहर निकाल कर दरवाजा बंद कर लिया. सच तो यह था कि ज्योति ने आज मुझे आईना दिखा दिया था.

ज्योति के दिखाए गए आईने ने मुझे झकझोर कर रख दिया. मैं ने खुद को बड़ी तेजी से बदल लिया. अब मैं सिर्फ और सिर्फ अपनी पढ़ाई और अस्मिता को समर्पित था.

बीटैक कर के मुझे एक नौकरी मिल गई थी और मैं ने अस्मिता के लास्ट सैमेस्टर के एग्जाम होने के बाद शादी का ऐलान कर दिया. हम दोनों के घर वालों ने हमारी होने वाली शादी को मंजूरी दे दी.

पर हमारे परिवार की एक परंपरा के मुताबिक थोड़ी सी अड़चन आ गई. मेरे ताऊजी के बेटे विवेक भैया, जो जन्म से हमेशा गांव से बाहर ही रहे थे, ने अब तक शादी नहीं की थी और परिवार की परंपरा के मुताबिक जब तक किसी बड़े की शादी न हुई हो छोटे की शादी नहीं हो सकती.

पर यह अड़चन भी जल्दी ही खत्म हो गई थी. एक दिन विवेक भैया ने फोन कर के कहा कि उन्होंने लखनऊ में एक जूनियर साइंटिस्ट से शादी कर ली है, जो उन के ही डिपार्टमैंट में इस साल आई थी. विवेक भैया वनस्पति अनुसंधान संस्थान में वैज्ञानिक थे.

यों बिना किसी को बताए शादी कर लेने से परिवार के लोग विवेक भैया से थोड़ा नाराज हुए, फिर स्वीकार करते हुए उन्हें बहू के साथ तुरंत घर आने की ताकीद की.

हां, विवेक भैया के इस तरह शादी कर लेने से मैं बहुत खुश था, मेरा रास्ता जो अब साफ हो गया था. यह खबर मैं ने अस्मिता को भी दे दी थी.

मैं और अस्मिता बाजार से भैया और भाभी के स्वागत के लिए जब गुलदस्ता ले कर घर पहुंचे, तो विवेक भैया और भाभी घर आ चुके थे. लोग उन के स्वागत में बिजी थे. लोगों के मुंह से भाभी की खूबसूरती के कसीदे गढ़े जा रहे थे.

मैं ने भाभी को देखने की कोशिश तो की, पर लोगों से घिरे होने की वजह से उन्हें देख ही नहीं पाया. तभी विवेक भैया की नजर मुझ पर पड़ी और वे चिल्ला कर बोले, ‘‘आओ ऋषि, कैसे हो? आ कर अपनी भाभी से मिलो.’’

भाभी से मिलने की खुशी में मैं तेजी से आगे बढ़ा, पर जल्दी ही ठिठक कर खड़ा हो गया.

‘‘ज्योति…’’ मेरे होंठ हलके से हिले. शरीर पूरी तरह से कांप कर रह गया.

हाथ में पकड़े गुलदस्ते को मेरे हाथ से लेते हुए विवेक भैया बोले, ‘‘यह तो मेरे लिए है, अब बोल अपनी भाभी को क्या दोगे?’’

तभी मां ने कहा, ‘‘चलो ऋषि, भाभी के पैर छू कर आशीर्वाद लो… और देख, तो विवेक किस खूबसूरत लड़की को हमारी बहू बना कर लाया है.’’

मैं ने खामोश हो कर ज्योति की तरफ देखा, तो उस ने हलके से बाईं आंख दबा दी.

मुझे खड़ा देख कर मेरी बहन ने हलके से धक्का मार के कहा, ‘‘भैया, अब जल्दी पैर छू कर यहां से हटो. और भी लोग लाइन में लगे हैं भाभी से मिलने को.’’

ज्योति के रूप में भाभी को देख कर सब बहुत खुश हो रहे थे. मैं न चाहते हुए भी आगे बढ़ा और झुक कर अपने हाथ की उंगली को ज्योति के पैर पर टिका दिया.

ज्योति के पैर छूते ही मुझे लगा कि वह ज्वर मेरे शरीर से उतर गया, जो कभी ज्योति ने मेरे शरीर को छू कर दिया था. मैं पलट कर जब वहां से हटा, तो मेरे कानों में ये शब्द गूंज उठे, ‘एक दिन किसी हमजैसी के पैर तू भरी महफिल में छुएगा, उस दिन मुझे याद करना’.

आज मुझे गुंजा की मां याद आ गई थी.

Friendship Day Special : पोलपट्टी- क्यों मिताली और गौरी की दोस्ती टूट गई?

आज अस्पताल में भरती नमन से मिलने जब भैयाभाभी आए तो अश्रुधारा ने तीनों की आंखों में चुपके से रास्ता बना लिया. कोई कुछ बोल नहीं रहा था. बस, सभी धीरे से अपनी आंखों के पोर पोंछते जा रहे थे. तभी नमन की पत्नी गौरी आ गई. सामने जेठजेठानी को अचानक खड़ा देख वह हैरान रह गई. झुक कर नमस्ते किया और बैठने का इशारा किया. फिर खुद को संभालते हुए पूछा, ‘‘आप कब आए? किस ने बताया कि ये…’’

‘‘तुम नहीं बताओगे तो क्या खून के रिश्ते खत्म हो जाएंगे?’’ जेठानी मिताली ने शिकायती सुर में कहा, ‘‘कब से तबीयत खराब है नमन भैया की?’’

‘‘क्या बताऊं, भाभी, ये तो कुछ महीनों से… इन्हें जो भी परहेज बताओ, ये किसी की सुनते ही नहीं,’’ कहते हुए गौरी की आंखें भीग गईं. इतने महीनों का दर्द उमड़ने लगा. देवरानीजेठानी कुछ देर साथ बैठ कर रो लीं. फिर गौरी के आंसू पोंछते हुए मिताली बोली, ‘‘अब हम आ गए हैं न, कोई बदपरहेजी नहीं करने देंगे भैया को. तुम बिलकुल चिंता मत करो. अभी कोई उम्र है अस्पताल में भरती होने की.’’

मिताली और रोहन की जिद पर नमन को अस्पताल से छुट्टी मिलने पर उन्हीं के घर ले जाया गया. बीमारी के कारण नमन ने दफ्तर से लंबी छुट्टी ले रखी थी. हिचकिचाहटभरे कदमों में नमनगौरी ने भैयाभाभी के घर में प्रवेश किया. जब से वे दोनों इस घर से अलग हुए थे, तब से आज पहली बार आए थे. मिताली ने उन के लिए कमरा तैयार कर रखा था. उस में जरूरत की सभी वस्तुओं का इंतजाम पहले से ही था.

‘‘आराम से बैठो,’’ कहते हुए मिताली उन्हें कमरे में छोड़ कर रसोई में चली गई.

रात का खाना सब ने एकसाथ खाया. सभी चुप थे. रिश्तों में लंबा गैप आ जाए तो कोई विषय ही नहीं मिलता बात करने को. खाने के बाद डाक्टर के अनुसार नमन को दवाइयां देने के बाद गौरी कुछ पल बालकनी में खड़ी हो गई. यह वही कमरा था जहां वह ब्याह कर आई थी. इसी कमरे के परदे की रौड पर उस ने अपने कलीरे टांगी थीं. नवविवाहिता गौरी इसी कमरे की डै्रसिंगटेबल के शीशे पर बिंदियों से अपना और नमन का नाम सजाती थी.

मिताली ने उस का पूरे प्यारमनुहार से अपने घर में स्वागत किया था. शुरू में वह उस से कोई काम नहीं करवाती, ‘यही दिन हैं, मौज करो,’ कहती रहती. शादीशुदा जीवन का आनंद गौरी को इसी घर में मिला. जब से अलग हुए, तब से नमन की तबीयत खराब रहने लगी. और आज हालत इतनी बिगड़ चुकी है कि नमन ठीक से चलफिर भी नहीं पाता है. यह सब सोचते हुए गौरी की आंखों से फिर एक धारा बह निकली. तभी कमरे के दरवाजे पर दस्तक हुई.

दरवाजे पर मिताली थी, ‘‘लो, दूध पी लो. तुम्हें सोने से पहले दूध पीने की आदत है न.’’

‘‘आप को याद है, भाभी?’’

‘‘मुझे सब याद है, गौरी,’’ मिताली की आंखों में एक शिकायत उभरी जिसे उस ने जल्दी से काबू कर लिया. आखिर गौरी कई वर्षों बाद इस घर में लौटी थी और उस की मेहमान थी. वह कतई उसे शर्मिंदा नहीं करना चाहती थी.

अगले दिन से रोहन दफ्तर जाने लगे और मिताली घर संभालने लगी. गौरी अकसर नमन की देखरेख में लगी रहती. कुछ ही दिनों में नमन की हालत में आश्चर्यजनक सुधार होने लगा. शुरू से ही नमन इसी घर में रहा था. शादी के बाद दुखद कारणों से उसे अलग होना पड़ा था और इस का सीधा असर उस की सेहत पर पड़ने लगा था. अब फिर इसी घर में लौट कर वह खुश रहने लगा था. जब हम प्रसन्नचित्त रहते हैं तो बीमारी भी हम से दूर ही रहती है.

‘‘प्रणाम करती हूं बूआजी, कैसी हैं आप? कई दिनों में याद किया अब की बार कैसी रही आप की यात्रा?’’ मिताली फोन पर रोहन की बूआ से बात कर रही थी. बूआजी इस घर की सब से बड़ी थीं. उन का आनाजाना अकसर लगा रहता था. तभी गौरी का वहां आना हुआ और उस ने मिताली से कुछ पूछा.

‘‘पीछे यह गौरी की आवाज है न?’’ गौरी की आवाज बूआजी ने सुन ली.

‘‘जी, बूआजी, वह नमन की तबीयत ठीक नहीं है, तो यहां ले आए हैं.’’

‘‘मिताली बेटा, ऐसा काम तू ही कर सकती है, तेरा ही दिल इतना बड़ा हो सकता है. मुझे तो अब भी गौरी की बात याद आती है तो दिल मुंह को आने लगता है. छी, मैं तुझ से बस इतना ही कहूंगी कि थोड़ा सावधान रहना,’’ बूआजी की बात सुन मिताली ने हामी भरी. उन की बात सुन कर पुरानी कड़वी बातें याद आते ही मिताली का मुंह कसैला हो गया. वह अपने कक्ष में चली गई और दरवाजा भिड़ा कर, आंखें मूंदे आरामकुरसी पर झूलने लगी.

गौरी को भी पता था कि बूआजी का फोन आया है. उस ने मिताली के चेहरे की उड़ती रंगत को भांप लिया था. वह पीछेपीछे मिताली के कमरे तक गई.

‘‘अंदर आ जाऊं, भाभी?’’ कमरे का दरवाजा खटखटाते हुए गौरी ने पूछा.

‘‘हां,’’ संक्षिप्त सा उत्तर दिया मिताली ने. उस का मन अब भी पुराने गलियारों के अंधेरे कोनों से टकरा रहा था. जब कोई हमारा मन दुखाता है तो वह पीड़ा समय बीतने के साथ भी नहीं जाती. जब भी मन बीते दिन याद करता है, तो वही पीड़ा उतनी ही तीव्रता से सिर उठाती है.

‘‘भाभी, आज हम यहां हैं तो क्यों न अपने दिलों से बीते दिनों का मलाल साफ कर लें?’’ हिम्मत कर गौरी ने कह डाला. वह इस मौके को गंवाना नहीं चाहती थी.

‘‘जो बीत गई, सो बात गई. छोड़ो उन बातों को, गौरी,’’ पर शायद मिताली गिलेशिकवे दूर करने के पक्ष में नहीं थी. अपनी धारणा पर वह अडिग थी.

‘‘भाभी, प्लीज, बहुत हिम्मत कर आज मैं ने यह बात छेड़ी है. मुझे नहीं पता आप तक मेरी क्या बात, किस रूप में पहुंचाई गई. पर जो मैं ने आप के बारे में सुना, वह तो सुन लीजिए. आखिर हम एक ही परिवार की डोर से बंधे हैं. यदि हम एकदूसरे के हैं, तो इस संसार में कोईर् हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता. किंतु यदि हमारे रिश्ते में दरार रही तो इस से केवल दूसरों को फायदा होगा.’’

‘‘भाभी, मेरी डोली इसी घर में उतरी थी. सारे रिश्तेदार यहीं थे. शादी के तुरंत बाद से ही जब कभी मैं अकेली होती. बूआजी मुझे इशारों में सावधान करतीं कि मैं अपने पति का ध्यान रखूं. उन के पूरे काम करूं, और उन की आप पर निर्भरता कम करूं. आप समझ रही हैं न? मतलब, बूआजी का कहना था कि नमन को आप ने अपने मोहपाश में जकड़ रखा है ताकि… समझ रही हैं न आप मेरी बात?’’

गौरी के मुंह से अपने लिए चरित्रसंबंधी लांछन सुन मिताली की आंखें फटी रह गईं, ‘‘यह क्या कह रही हो तुम? बूआजी ऐसा नहीं कह सकतीं मेरे बारे में.’’

‘‘भाभी, हम चारों साथ होंगे तो हमारा परिवार पूरी रिश्तेदारी में अव्वल नंबर होगा, यह बात किसी से छिपी नहीं है. शादी के तुरंत बाद मैं इस परिवार के बारे में कुछ नहीं जानती थी. जब बूआजी जैसी बुजुर्ग महिला के मुंह से मैं ने ऐसी बातें सुनीं, तो मैं उन पर विश्वास करती चली गई. और इसीलिए मैं ने आप की तरफ शुष्क व्यवहार करना आरंभ कर दिया.

‘‘परंतु मेरी आंखें तब खुलीं जब चाचीजी की बेटी रानू दीदी की शादी में चाचीजी ने मुझे बताया कि इन बातों के पीछे बूआजी की मंशा क्या थी. बूआजी चाहती हैं कि जैसे पहले उनका इस घर में आनाजाना बना हुआ था जिस में आप छोटी बहू थीं और उन का एकाधिकार था, वैसे ही मेरी शादी के बाद भी रहे. यदि आप जेठानी की भूमिका अपना लेतीं तो आप में बड़प्पन की भावना घर करने लगती और यदि हमारा रिश्ता मजबूत होता तो हम एकदूसरे की पूरक बन जातीं. ऐसे में बूआजी की भूमिका धुंधली पड़ सकती थी. बूआजी ने मुझे इतना बरगलाया कि मैं ने नमन पर इस घर से अलग होने के लिए बेहद जोर डाला जिस के कारण वे बीमार रहने लगे. आज उन की यह स्थिति मेरे क्लेश का परिणाम है,’’ गौरी की आंखें पश्चात्ताप के आंसुओं से नम थीं.

गौरी की बातें सुन मिताली को नेपथ्य में बूआजी द्वारा कही बातें याद आ रही थीं, ‘क्या हो गया है आजकल की लड़कियों को. सोने जैसी जेठानी को छोड़ गौरी को अकेले गृहस्थी बसाने का शौक चर्राया है, तो जाने दे उसे. जब अकेले सारी गृहस्थी का बोझा पड़ेगा सिर पे, तो अक्ल ठिकाने आ जाएगी. चार दिन ठोकर खाएगी, तो खुद आएगी तुझ से माफी मांगने. इस वक्त जाने दे उसे. और सुन, तू बड़ी है, तो अपना बड़प्पन भी रखना, कोई जरूरत नहीं है गौरी से उस के अलग होने की वजह पूछने की.’

‘‘भाभी, मुझे माफ कर दीजिए, मेरी गलती थी कि मैं ने बूआजी की कही बातों पर विश्वास कर लिया और तब आप को कुछ भी नहीं बताया.’’

‘‘नहीं, गौरी, गलती मेरी भी थी. मैं भी तो बूआजी की बातों पर उतना ही भरोसा कर बैठी. पर अब मैं तुम्हारा धन्यवाद करना चाहती हूं कि तुम ने आगे बढ़ कर इस गलतफहमी को दूर करने की पहल की,’’ यह कहते हुए मिताली ने अपनी बांहें खोल दीं और गौरी को आलिंगनबद्ध करते हुए सारी गलतफहमी समाप्त कर दी.

कुछ देर बाद मिताली के गले लगी गौरी बुदबुदाई, ‘‘भाभी, जी करता है कि बूआजी के मुंह पर बताऊं कि उन की पोलपट्टी खुल चुकी है. पर कैसे? घर की बड़ीबूढ़ी महिला को आईना दिखाएं तो कैसे, हमारे संस्कार आड़े आ जाते हैं.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो, गौरी. परंतु बूआजी को सचाई ज्ञात कराने से भी महत्त्वपूर्ण एक और बात है. वह यह है कि हम आइंदा कभी भी गलतफहमियों का शिकार बन अपने अनमोल रिश्तों का मोल न भुला बैठें.’’

देवरानीजेठानी का आपसी सौहार्द न केवल उस घर की नींव ठोस कर रहा था बल्कि उस परिवार के लिए सुख व प्रगति की राह प्रशस्त भी कर रहा था.

ज्वर: लड़कियों के जिस्म का शौकीन ऋषि – भाग 4

‘‘इस तरह… इस तरह से ज्योति? मैं उस के कंधे झकझोरते हुए बोला, ‘‘यों गंदगी में गिर कर तुम खड़ा होना चाहती हो? कुछ बनना चाहती हो? क्या बनना चाहती हो तुम?’’

मेरे हाथों को अपने हाथों में लेते हुए ज्योति बोली, ‘‘ऋषि, यह ठीक है कि यह रास्ता गलत है, मैं मानती हूं कि मेरे जिस्म को कई मर्दों ने हासिल किया है, पर कोई लड़की उस शख्स को नहीं भूलती जिस ने उसे पहली बार पाया हो. ऋषि, तुम्हीं वह हो जिस ने मुझे पहली बार पाया था. ऋषि तुम अब तक मेरी सांसों में बसे हो. मैं वह पल नहीं भूली जब तारों की रोशनी में तुम ने मेरे कुंआरेपन को हासिल किया था,’’ मेरे हाथों को पकड़े वह और न जाने क्याक्या बोले जा रही थी, पर मैं ने वह सब अनसुना कर के उसे वापस अपने से परे धकेल दिया था. वह अपने घुटनों पर सिर रख कर सिसकने लगी थी.

मैं ने कहा, ‘‘ज्योति, मैं भी तुम्हें याद करता था. मैं ने भी उस रात के बाद तुम्हारी राह देखी थी, तुम्हारा इंतजार किया था, पर तुम्हें आज यों पा कर मैं तुम से नफरत करता हूं. तुम तो वेश्या निकली ज्योति वेश्या.’’

मेरी बात सुन कर वह कुछ पल खामोश मुझे देखती रही, फिर अचानक खड़े हो कर बिफरते हुए बोली, ‘‘ऋषि, मैं वेश्या हूं ठीक कहा, पर तुम यहां एक वेश्या के घर क्या करने आए थे? तुम भी तो उतने ही गिरे हुए हो जितना मैं, बल्कि मुझ से भी ज्यादा. और अब मैं खुद को वेश्या कहने वाले को यहां एक पल भी बरदाश्त नहीं कर सकती, दफा हो जाओ यहां से,’’ इतना कह कर उस ने मुझे धक्का देते हुए वहां से बाहर निकाल कर दरवाजा बंद कर लिया. सच तो यह था कि ज्योति ने आज मुझे आईना दिखा दिया था.

ज्योति के दिखाए गए आईने ने मुझे झकझोर कर रख दिया. मैं ने खुद को बड़ी तेजी से बदल दिया. अब मैं सिर्फ और सिर्फ अपनी पढ़ाई और अस्मिता को समर्पित था.

बीटैक कर के मुझे एक नौकरी मिल गई थी और मैं ने अस्मिता के लास्ट सैमेस्टर के एग्जाम होने के बाद शादी का ऐलान कर दिया. हम दोनों के घर वालों ने हमारी होने वाली शादी को मंजूरी दे दी.

पर हमारे परिवार की एक परंपरा के मुताबिक थोड़ी सी अड़चन आ गई. मेरे ताऊजी के बेटे विवेक भैया, जो जन्म से हमेशा गांव से बाहर ही रहे थे, ने अब तक शादी नहीं की थी और परिवार की परंपरा के मुताबिक जब तक किसी बड़े की शादी न हुई हो छोटे की शादी नहीं हो सकती.

पर यह अड़चन भी जल्दी ही खत्म हो गई थी. एक दिन विवेक भैया ने फोन कर के कहा कि उन्होंने लखनऊ में एक जूनियर सांइटिस्ट से शादी कर ली है, जो उन के ही डिपार्टमैंट में इस साल आई थी. विवेक भैया वनस्पति अनुसंधान संस्थान में वैज्ञानिक थे.

यों बिना किसी को बताए शादी कर लेने से परिवार के लोग विवेक भैया से थोड़ा नाराज हुए, फिर स्वीकार करते हुए उन्हें बहू के साथ तुरंत घर आने की ताकीद की. हां, विवेक भैया के इस तरह शादी कर लेने से मैं बहुत खुश था, मेरा रास्ता जो अब साफ हो गया था. यह खबर मैं ने अस्मिता को भी दे दी थी और उस ने भी खुश हो कर फोन पर ही मुझे चूम लिया था.

मैं और अस्मिता बाजार से भैया और भाभी के स्वागत के लिए जब गुलदस्ता ले कर घर पहुंचे, तो विवेक भैया और भाभी घर आ चुके थे. लोग उन के स्वागत में बिजी थे. लोगों के मुंह से भाभी की खूबसूरती के कसीदे गढ़े जा रहे थे.

मैं ने भाभी को देखने की कोशिश तो लोगों से घिरे होने की वजह से देख ही नहीं पाया. तभी विवेक भैया की नजर मुझ पर पड़ी और वे चिल्ला कर बोले, ‘‘आओ ऋषि, कैसे हो? आ कर अपनी भाभी से मिलो.’’

भाभी से मिलने की खुशी में मैं तेजी से आगे बढ़ा, पर जल्दी ही ठिठक कर खड़ा हो गया.

‘‘ज्योति…’’ मेरे होंठ. हलके से हिले. शरीर पूरी तरह से कांप कर रह गया. हाथ में पकड़े गुलदस्ते को मेरे हाथ से लेते हुऐ विवेक भैया बोले, ‘‘यह तो मेरे लिए है, अब बोल अपनी भाभी को क्या दोगे?’’

तभी मां ने कहा, ‘‘चलो ऋषि, भाभी के पैर छू कर आशीर्वाद लो… और देख तो विवेक किस खूबसूरत लड़की को हमारी बहू बना कर लाया है.’’

मैं ने खामोश हो कर ज्योति की तरफ देखा तो उस ने हलके से बाईं आंख दबा दी.

मुझे खड़ा देख कर मेरी बहन ने हलके से धक्का मार के कहा, ‘‘भैया, अब जल्दी पैर छू कर यहां से हटो. और भी लोग लाइन में लगे हैं भाभी से मिलने को.’’

ज्योति के रूप में भाभी को देख कर सब बहुत खुश हो रहे थे. मैं न चाहते हुए भी आगे बढ़ा और झुक कर अपने हाथ की उंगली को ज्योति के पैर पर टिका दिया.

ज्योति के पैर छूते ही मुझे लगा कि वह ज्वर मेरे शरीर से उतर गया जो कभी ज्योति ने मेरे शरीर को छू कर दिया था. मैं पलट कर जब वहां से हटा तो मेरे कानों में ये शब्द गूंज उठे कि ‘एक दिन किसी हम जैसी के पैर तू भरी महफिल में छुएगा, उस दिन मुझे याद करना’.

आज मुझे गुंजा की मां याद आ गई थी.

मनचाही मंजिल : ठाकुर रंजीर सिंह का आवारापन

‘‘अरे, थोड़ा ‘आहऊह’ तो करो, तब तो मजा आए. क्या एकदम ठंडी लाश की तरह पड़ी रहती हो,’’ ठाकुर रंजीर सिंह अपनी बीवी सुमन के बदन से अलग होता हुआ बोला और इस के बाद अपना मोबाइल फोन उठा कर एक पोर्न साइट खोल दी.

सुमन ने शरमा कर आंखें बंद कर लीं तो रंजीर सिंह उसे जबरदस्ती फिल्म दिखाने लगा और फिल्म की हीरोइन के बड़े उभारों की ओर इशारा कर के बोला, ‘‘इसे देखो, कितना भरा हुआ शरीर है. जमीन पर लिटा दो तो गद्दे का कोई काम ही नहीं है… और एक तुम हो कि शरीर में बिलकुल मांस ही नहीं है.’’

सुमन की सपाट छाती की ओर हिकारत भरी नजरों से देखते हुए रंजीर सिंह ने कहा और बेमन से उस के ऊपर चढ़ गया और अपनी मंजिल को पाने के लिए ताबड़तोड़ जोर लगाने लगा.

रंजीर सिंह के पिता ठाकुर राजेंद्र सिंह चाहते थे कि उन का बेटा खूब पढ़ाई करे और इस के लिए उन्होंने रंजीर सिंह को अपने गांव से 400 किलोमीटर दूर लखनऊ यूनिवर्सिटी में भेजा भी, पर रंजीर का मन वहां पढ़ाई में नहीं लगा. वह या तो लड़कियों के आगेपीछे घूमता, उन्हें छेड़ता और बाकी समय में कैंपस की राजनीति के चक्कर में पड़ गया.

देरसवेर ठाकुर राजेंद्र सिंह यह बात समझ गए थे कि रंजीर पढ़ाई की जगह आवारागर्दी और मौजमस्ती कर रहा है. उन का यह एकलौता लड़का था, इसलिए उन्होंने उसे वापस गांव बुला लिया.

गांव आ कर भी रंजीर सिंह की हरकतें नहीं छूटी थीं. वह यहां भी आ कर राजनीति करता और अपने पीछे लड़कों की भीड़ ले कर चलता और जिन भी औरतों और लड़कियों को छेड़ने का मन करता, उन्हें छेड़ देता.

रंजीर सिंह की ऐसी हरकतों से तंग आ कर ठाकुर राजेंद्र सिंह ने उस की शादी करा दी.

शादी के बाद रंजीर भोगविलास में डूब गया था. वह कई दिन तक अपने कमरे से बाहर ही नहीं निकला था, पर जल्दी ही पत्नी से उस का मोह भंग हो गया, क्योंकि सुमन काफी दुबलीपतली थी.

पोर्न फिल्मों के शौकीन रंजीर सिंह के अंदर बैठे हवसी को मजा नहीं मिल पा रहा था और वैसे भी जिस की हर जगह मुंह मारने की आदत पड़ चुकी हो, उसे भला घर में कहां संतुष्टि मिलने वाली थी.

रंजीर सिंह अपने 4-5 दोस्तों के साथ गांव के चौराहे पर बैठता और आनेजाने वाली औरतों के भरे उभारों और उन के कूल्हों को देखता रहता.

पिछले कुछ दिनों से रंजीर सिंह की नजर गांव की एक औरत पर थी. तकरीबन 40 साल की उस औरत का नाम बिजली था.

जैसा नाम था वैसी ही बिजली की काया थी. साड़ी नीचे बांधने के चलते बिजली की गहरी नाभि हमेशा दिखती रहती थी. बिजली भी अपनी नाभि का प्रदर्शन जानबूझ कर करती थी. मर्दों की लालची निगाहों को परखने का हुनर खूब जानती थी बिजली.

बिजली के पति किशोर ने पाईपाई जोड़ कर उसे एक कैमरे वाला मोबाइल फोन दिला दिया था, ताकि बिजली उस पर दक्षिण भारत की फिल्में देख सके. बिजली को वहां की भरीपूरी हीरोइनें देखने का चसका लगा था.

आज जब बिजली कमर मटकाते हुए घर से बाहर जा रही थी, तब उस ने रंजीर सिंह को अपनी ओर घूरते हुए देखा. बिजली ने तुरंत अपनी साड़ी का पल्लू गिरा दिया और ब्लाउज के अंदर से उस के उभार की गोलाइयां बाहर आने को मचल उठीं.

‘‘वाह, माल हो तो ऐसा,’’ रंजीर सिंह बुदबुदा उठा था.

‘‘मालिक, कहो तो अभी उठा ले आएं आप की खातिर?’’ मनकू ने रंजीर सिंह की चापलूसी करते हुए कहा.

बदले में पकिया ने मनकू की तरफ आंखें तरेरते हुए कहा, ‘‘अरे, जानते नहीं कि बिजली दलित है और हमारे साहब तो खानदानी ठाकुर हैं. वे भला इस दो कौड़ी की अछूत औरत के साथ संबंध क्यों बनाएंगे…’’

पकिया की यह बात सुन कर रंजीर सिंह जोर से हंसने लगा और कहा, ‘‘औरतों के मामले में हम जातिवाद का विरोध करते हैं. भले ही वह औरत दलित है, पर,’’ अचानक से रंजीर सिंह शायराना हो गया था. वह बोला, ‘‘जिस तरह से ठाकुरों की ताकत कभी कम नहीं मानी जाती, चिलम, दारू और औरत कभी जूठी नहीं मानी जाती, इसलिए हम बिजली नाम की इस औरत का करंट जरूर चैक करना चाहेंगे.’’

बिजली का पति शहर जा कर एक दुकान पर नलसाजी का काम करता था. वह सुबह निकल जाता और देर रात तक वापस आ पाता. बिजली बड़ेबड़े सपने देखने वाली औरत थी. उस के मन में आगे बढ़ने की ललक भी थी.

बिजली के बच्चे नहीं थे, इसलिए उस ने अपनेआप को बिजी रखने के लिए आंगनबाड़ी में काम करना शुरू कर दिया था, जिस से चार पैसे भी आते थे और गांव की औरतों से भी मिलना हो जाता था.

सरकारी आंकड़े भले ही कुछ कहते हों, पर सचाई तो यह थी कि इस गांव में तरक्की के नाम पर कुछ भी नहीं हुआ था. सड़कें टूटी हुई थीं. अब भी जगहजगह पानी भर जाता था और गांव में बिजली न रहने के चलते अंधेरा ही रहता था.

गांव की औरतों और मर्दों ने कई बार अपनी सारी मांगें सरपंच के सामने रखी थीं, पर कोई फायदा नहीं हुआ.

‘‘यह खड़ूस सरपंच जब बदलेगा, तभी इस गांव का कुछ भला हो पाएगा,’’ आंगनबाड़ी की औरतें आपस में बातें कर रही थीं. उन में से एक की आवाज बिजली के कान में भी पड़ रही थी.

दूसरी औरत ने बताया कि किस तरह से एक बार सड़क के किनारे से आते समय अंधेरे का फायदा उठा कर किसी आदमी ने उसे छेड़ने और उस के उभारों को मसलने की कोशिश की थी.

आज बिजली दूसरे गांव से वापसी कर रही थी. वह बस से उतर कर अभी गांव में घुसी ही थी कि उस के पति का फोन आ गया. बिजली ने ब्लाउज के अंदर हाथ डाल कर मोबाइल निकाला और बात करना शुरू किया.

उस के पति ने बताया कि आज रात उसे वापस आने में देर हो जाएगी, इसलिए वह खाना समय से खा ले.

अपने पति से बातें करने के बाद बिजली ने मोबाइल को वापस अपने उभारों में छिपा लिया. दूर खड़े रंजीर सिंह ने बिजली को ऐसा करते देखा तो वह हवस से भर गया.

रंजीर सिंह बिजली के पीछेपीछे चलने लगा और मौका देख कर उस ने बिजली को पीछे से अपने हाथों से दबा दिया.

बिजली एक पल को जरूर चौंकी थी, पर रंजीर सिंह को देख कर वह मुसकरा पड़ी.

बिजली की इस मुसकराहट से रंजीर सिंह को समझते देर नहीं लगी कि उस का रास्ता साफ है, इसलिए बातचीत करने के बाद उस ने बिजली से उस का मोबाइल नंबर ले लिया.

रंजीर सिंह अब बिजली के मोबाइल फोन पर गंदे चुटकुले भेजने लगा. कभीकभी वह कोई पोर्न क्लिप भी भेज देता था.

एक दिन बिजली ने रंजीर सिंह से पूछ ही लिया कि वह ऐसी फिल्में क्यों भेजता है, तो रंजीर ने उसे बताया कि वह बिजली के मांसल अंगों को ऐसे ही नोचना और चूसना चाहता है जैसे कि इन फिल्मों में दिखाया गया है और घर में उसे अपनी पत्नी से यह सब सपोर्ट नहीं मिलता है.

‘‘पर हर चीज की कीमत होती है ठाकुर साहब,’’ बिजली एक ठाकुर को अपने पीछे लट्टू देख कर खुश हो रही थी. उस ने कीमत मांगी तो पैसे के घमंड में चूर रंजीर सिंह ने हर कीमत चुकाने का वादा कर दिया.

इस के बाद उन दोनों की बातें और मुलाकातें बढ़ती गईं और एक दिन रंजीर सिंह बिजली को ले कर गांव से 10 किलोमीटर दूर अपने फार्महाउस पर आया. वह अपने साथ शराब की 2 बोतलें भी लाना नहीं भूला था.

बिजली के हाथों से जी भर कर शराब पी गया था रंजीर सिंह. उस के बाद वह बिस्तर पर लेट गया और बिजली को अपने ऊपर आने को कहा.

शरीर से थोड़ी मोटी बिजली ठाकुर के ऊपर बैठी तो रंजीर सिंह को जन्नत का वह सुख मिला जो उसे आज तक अपनी पत्नी से नहीं मिला था. दोनों ने फार्महाउस पर जी भर कर सैक्स का मजा लिया और उस दिन के बाद से बिजली और रंजीर सिंह अकसर यहां आते, खातेपीते और जिस्मानी सुख का मजा लेते.

कुछ महीने के बाद बिजली ने जब अपना मेहनताना मांगा, तो ठाकुर रंजीर सिंह ने उसे 5,000 रुपए दे दिए, जिसे बिजली ने लेने से मना कर दिया

और अपने शरीर के बदले में बिजली ने उसे गांव का सरपंच बना देने की मांग कर डाली.

‘‘पगला गई हो क्या… तुम्हारे कहने से हम तुम्हें सरपंच बनवा देंगे… नीच जात को थोड़ा सा मुंह क्या लगा लिए, तुम तो सिर पर चढ़ कर नाचने लगी,’’ चीख रहा था रंजीर सिंह. पर बिजली खामोश थी, जैसे उसे इन सब बातों का अंदाजा पहले से ही था.

उस ने मुसकराते हुए अपना मोबाइल फोन रंजीर सिंह की ओर बढ़ा दिया, जिस में उन दोनों की बिस्तरबाजी की वीडियो क्लिप थीं, जो खुद बिजली ने बना ली थीं.

बिजली ने कहा कि अगर ये वीडियो क्लिप गांव में लोगों को दिखाई गईं, तो एक नीच जाति की औरत के साथ सोने से ठाकुर की कितनी बेइज्जती हो जाएगी, यह सोच लेना. और फिर बिजली ने एक क्लिप को इंटरनैट पर डाल देने की धमकी भी दे दी.

रंजीर सिंह की समझ में आ गया था कि वह गलती कर बैठा है, पर अब पछताने से क्या फायदा था. बिजली को खामोश रखने के लिए उसे वह देना ही होगा, जो उसे चाहिए था यानी गांव के सरपंच का पद.

ठीक समय आने पर रंजीर सिंह इस कोशिश में जुट गया और इस के लिए उस ने बिजली की जाति को ही हथियार बनाया और जोरशोर से गरीब और नीची जाति की बिजली को ही सरपंच बनाए जाने की बात कही.

बिजली थोड़ीबहुत पढ़ीलिखी थी, आंगनबाड़ी में काम भी करती थी और वह मोबाइल फोन का इस्तेमाल करना भी जानती थी, इसलिए उस से बेहतर सरपंच गांव के लिए नहीं हो सकता

था. रंजीर सिंह की इन्हीं दलीलों के चलते  बिजली को गांव का सरपंच चुन लिया गया.

सरपंच बनने के बाद भी रंजीर और बिजली ने फार्महाउस पर जाना नहीं छोड़ा. दोनों साथ मिल कर ही ग्राम पंचायत भी जाते और गांव में भी साथसाथ घूमते.

एक गांव का ठाकुर था, तो दूसरी गांव की सरपंच. अब ये दोनों गांव की तरक्की करने के नाम पर साथ रहते थे और गांव वाले कुछ नहीं कह पाते थे, जिस की बड़ी वजह यह भी थी कि सरपंच बनने के बाद बिजली ने गांव और औरतों की भलाई के बहुत सारे काम करा दिए थे.

जहां पर अंधेरा रहता था, वहां अब स्ट्रीट लाइट लग रही थी. जहां पर

टूटी सड़कों के चलते जलभराव रहता था, वहां पर अब सड़क बन गई थी. गरीब और दलित बेटियों का सामूहिक विवाह का आयोजन कराती थी सरपंच बिजली.

तेज और चतुर बिजली के सरपंच बनने के बाद अब गांव में घरेलू हिंसा के मामलों में भी कमी आ रही थी. बिजली ने गांव में इस तरह के नारे भी लिखवा दिए : ‘बेटी होती घर की शान बेटी से बढ़ता है मान. बेटी कहती बातें सच्ची बेटी होती घर में अच्छी.’ दीवारों पर गांव की साफसफाई की बातें लिखी थीं : ‘साफसुथरा हो गांव हमारा यह तो है परिवार हमारा. धीरेधीरे करें तैयारी सफाई से भागे सब बीमारी.’

इस में शक नहीं था कि सरपंच के रूप में बिजली की छवि निखर कर आ रही थी, पर जैसा कि हर किसी के विरोधी होते ही हैं, इसी तरह बिजली से जलने वाली औरतों का एक गुट भी था, जिस में से एक ने बिजली पर तंज कसते हुए कहा, ‘‘ठाकुर के साथ सो कर तो कोई भी सरपंच बन सकता है.’’

यह बात सुन कर बिजली को बहुत गुस्सा आया. उसे लगा कि वह उन सब का मुंह नोच ले, पर उस ने शांति से जवाब देना ही उचित समझा, ‘‘हो सकता है, लोगों को मेरा यह तरीका गलत लगे, पर कभीकभी अपनी मांगों को ले कर सिर्फ आंदोलन करना ही काफी नहीं होता…

‘‘और फिर जिस जाति व्यवस्था के भंवरजाल में हम फंसे हैं, उस से निकलने के लिए हमें कई रास्ते खोजने पड़ते हैं… क्या पता, कौन सा रास्ता हमें हमारी मनचाही मंजिल तक पहुंचा दे,’’ बिजली बोले जा रही थी.

‘‘और फिर पैसे वाले ठाकुर तो जबरदस्ती हमारे शरीर को भोगते आए हैं… हम भले ही अछूत हों और वे हमारे हाथ का पानी न पिएं, पर वे हमारे अंगों पर मुंह मारने से गुरेज नहीं करते और अगर हम अपने शरीर का इस्तेमाल कर के अपना कुछ फायदा करते हैं, तो हर्ज ही क्या है…’’

बिजली की बुराई करने वाली औरतों को लगा था कि बिजली उन के आरोप लगाने से सहम जाएगी, पर बिजली के ऐसा कह देने से उन सब का मुंह बंद हो गया.

बिजली ने आंदोलन तो नहीं किया, पर अपने खूबसूरत शरीर का इस्तेमाल कर के अपनी मनचाही मंजिल को पा ही लिया था.

गऊदान : ऐसी कौन सी सोच थी जो भरतरी को परेशान कर रही थी

भरतरी को मन ही मन किसी भारी मुसीबत की चिंता खाए जा रही थी. जिस लहजे में पंडितजी का संदेश मिला था, वही उस की चिंता की अहम वजह थी.

पंडितजी बरामदे में खड़े थे. उन्हें देखते ही भरतरी का दिल जोरजोर से धड़कने लगा, पर वह हिम्मत जुटा कर बोली, ‘‘नमस्ते पंडितजी.’’

सोम शास्त्री ने नजरें उठा कर भरतरी की तरफ घूमते हुए उस से पूछा, ‘‘भरतरी, सुना है कि तुम्हारे घर लड़का पैदा हुआ?है?’’

‘‘हां पंडितजी, आप ने सच सुना है,’’ भरतरी बोली.

‘‘कल तुम आई नहीं, फिर भी मैं ने बच्चे के पैदा होने का समय पूछ कर मुहूर्त देखा है. लड़का मूल नक्षत्र में पैदा हुआ है और उस पर शनि का प्रकोप भी है.

‘‘इस से बचने का सिर्फ एक ही तरीका है कि 5 पंडितों को खाना खिलाओ और गऊदान करो.

‘‘साथ ही, मूल नक्षत्र का पूजन होगा, जिस में बिरादरी के लोगों को भोजन कराना पड़ेगा…’’ सोम शास्त्री ने भरतरी को बताते हुए पूछा, ‘‘बता, लड़के का नाम क्या रखा है?’’

‘‘अभी तो कुछ सोचा नहीं पंडितजी. हां, समशेरू ने बच्चे का नाम महावीर रखने के लिए सोचा है.’’

‘‘महावीर…’’ हैरान सोम शास्त्री के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘छोटे लोगों का छोटा नाम ही ठीक रहता है. वैसे, बच्चे का नाम ‘प’ अक्षर से पड़ता?है, अब तुम जो चाहे नाम रख लो.’’

पंडितजी महावीर नाम इसलिए मना कर रहे थे, क्योंकि यह नाम तो उन के कुनबे में किसी का था. अब भला पिछड़ी जाति के लोग पंडितों के नाम भी रखने लगेंगे.

30-35 घरों का छोटा सा गांव, जहां गिनती में पासी ज्यादा थे, पर सब अनपढ़ थे, इसीलिए वे मुट्ठीभर पंडितों की गुलामी करते थे. पर समशेरू ऐसा नहीं था, क्योंकि वह थोड़ा पढ़ालिखा था और एक डाक्टर के साथ कुछ दिनों तक उस की दुकान पर कंपाउंडर रहा था.

अब वह खुद ही एक छोटी सी दुकान खोल कर डाक्टरी का काम कर रहा था, फिर भी उस की मां गाहेबगाहे खर्च को देखते हुए पंडितों के खेत में मजदूरी कर लिया करती थी.

इस के बाद भी पूरा परिवार गरीबी में जी रहा था, इसीलिए सोम शास्त्री की बात भरतरी को सोच में डाले हुए थी. कहां से हो सकेगा इतना जुगाड़? घर के दरवाजे पर बंधी गाय की तरफ नजर गई, तो वह मन ही मन सिहर उठी.

समशेरू ने सुना, तो वह बिफर पड़ा, ‘‘मैं कुछ नहीं करूंगा. मैं न तो गऊदान करूंगा और न ही पंडितों को भोजन कराऊंगा.’’

बेटे के मुंह से ऐसी बात सुन कर भरतरी बोली, ‘‘पहला लड़का है, कुछ तो कराना ही पड़ेगा.’’

‘‘तब जा कर घर गिरवी रख के पंडित और बिरादरी को भातभोज दो, यहां तो दालरोटी के लाले पड़ रहे हैं. मां, तुम जो बता रही हो, उस पर तकरीबन

5 हजार रुपए का खर्च बैठेगा. इतना रुपया कहां से आएगा.’’

‘‘लेकिन समाज और जातिबिरादरी के लोग क्या कहेंगे?’’

‘‘लोग क्या कहते हैं, हम यह देखें या अपनी गांठ देखें. मैं भी तो मूल नक्षत्र में पैदा हुआ था. तुम ने मूल नक्षत्र की पूजा कर के कौन सा सुख उठा लिया.

‘‘मेरी बात छोड़, सुखई को देख. उस की बीवी बच्चा पैदा होते ही मर गई.

‘‘उस ने तो मूल नक्षत्र नहीं पूजा, पर हम से ज्यादा सुखी है.’’

समशेरू बहुत देर तक सोम शास्त्री पर बड़बड़ाता रहा, ‘‘ये सब पंडित के चोंचले हैं. मैं तो अपने बेटे का नाम महावीर ही रखूंगा.’’

समशेरू का फैसला सोम शास्त्री के लिए ही नहीं, बल्कि ब्राह्मणों की बनाई व्यवस्था के लिए एक चुनौती था, इसीलिए सोम शास्त्री समशेरू का रास्ता रोक कर खड़े हो गए और बोले, ‘‘समशेरू, सुना है कि तुम ने गऊदान न करने और बच्चे का मूल नक्षत्र भी न पूजने का फैसला लिया है?’’

‘‘पंडितजी, हम तो धर्मकर्म में विश्वास नहीं रखते.’’

‘‘नास्तिक… धर्म के नाम पर कलंक,’’ गुस्से में चीखते हुए सोम शास्त्री ने समशेरू के गाल पर एक थप्पड़ मारा.

सोम शास्त्री द्वारा समशेरू को थप्पड़ मारने की बात पूरे गांव में फैल गई.

पासियों के टोले में ब्राह्मणों के विरोध में बुलबुले उठने लगे. गांव में तनाव की हालत बन गई. पासियों ने पंडितों के खेत में काम करना बंद कर दिया.

एक दिन तो तनाव इतना बढ़ गया कि दोनों ओर से लाठियां और कट्टे निकल आए और मारामारी की नौबत आ गई. दोनों टोले के लोग गोलबंद हो कर घूमने लगे.

हालांकि पासी टोला एकमत था, पर गरीबों का संगठन कब तक बगैर मजदूरी किए संगठित रह सकता है

और मजदूरी पंडितों के खेतों में ही हो सकती थी, इसलिए सोम शास्त्री का पक्ष ज्यादा मजबूत था. किसी को भी अपनी ओर करना उन के लिए ज्यादा मुश्किल न था.

एक रात पंडितों की तरफ से पासी टोले पर पत्थर फेंके गए और रात में गाय के हौद में गोबर व कंकड़पत्थर भर दिए गए, तो दूसरी रात सोम शास्त्री की फसल खेत में से रातोंरात काट ली गई.

उसी दिन ब्राह्मण टोले की बैठक हुई और सभी ने एकमत से फैसला सोम शास्त्री के ऊपर छोड़ दिया.

सोम शास्त्री ने सब से पहले कूटनीति का सहारा लेते हुए पासी टोले के रमई को फोड़ने का इंतजाम किया.

पहले तो रमई नानुकर करता रहा, पर जब सौसौ के नोट देखे, तो झोंपते हुए वह बोला, ‘‘पंडितजी, आप लोग तो महान हो. आप जो भी कहेंगे, हम सब वही करेंगे.’’

सोम शास्त्री मन ही मन बहुत खुश थे, क्योंकि उन की चाल कामयाब रही थी और तीर निशाने पर लगा था. वे समय का इंतजार कर रहे थे.

शाम ढल चुकी थी. समशेरू अपनी दुकान में बैठा हुआ मरीजों को देख रहा था. कुछ देर बाद रमई की बेटी कबूतरी का नंबर आया. समशेरू उसे दवा देने लगा.

अचानक कबूतरी चिल्लाने लगी, ‘‘अरे देखो, यह डाक्टर हमारी इज्जत पर हाथ डाल रहा है.’’ वह जोरजोर से समशेरू को गालियां देने लगी. थोड़ी ही देर में दुकान के बाहर भीड़ जमा हो गई.

दुकान के आगे जमा भीड़ में से एक ने कहा, ‘‘मारो इस को. यह तो समाज के ऊपर कलंक है.’’ उस के इतना कहते ही ‘मारोमारो’ की आवाजें आने लगीं.

देखते ही देखते राहगीरों ने बेकुसूर समशेरू को दुकान से बाहर खींच लिया और लातघूंसों से पीटने लगे. अचानक तेजाब से भरी एक बोतल समशेरू के सिर से टकराई और फूट गई, जिस से समशेरू का चेहरा बुरी तरह जल गया.

दूसरे दिन अखबार में छपा था कि अपनी एक महिला मरीज को छेड़ने पर भीड़ ने डाक्टर को पीटपीट कर मार डाला.

बाजी सोम शास्त्री के हाथ लग चुकी थी. जब राहगीर समशेरू को पीट रहे थे, तब सोम शास्त्री और रमई तेजी से गांव की तरफ जा रहे थे, क्योंकि भरतरी की गाय जो लेनी थी. लेकिन गाय पंडित को अपनी तरफ आता देख कर बिदक गई और खूंटा उखाड़ कर जंगल की ओर भाग गई.

ज्वर: लड़कियों के जिस्म का शौकीन ऋषि- भाग 3

लगातार 2 साल तक क्लास में टौप आ कर मैं ने अपनी धाक पूरे कालेज में बैठा ली. अब न सिर्फ मेरी क्लास की, बल्कि पूरे कालेज की कई लड़कियां मेरी दोस्त थीं. उन में से कई लड़कियां अपनी मरजी से तनहाई में मेरे करीब आ कर मेरे साथ हमबिस्तर हुईं.

वह खिलते गुलाब के ताजा फूल की तरह थी. मुझ से 2 साल जूनियर. अस्मिता कटियार, बीटैक इलैक्ट्रोनिक्स फर्स्ट ईयर. उस खिलते गुलाब के आसपास मैं अपनी आदत के मुताबिक मंडराने लगा था. बहुत जल्द मैं ने अस्मिता से अपनी दोस्ती और फिर प्यार का इजहार किया, जिसे उस ने शरमा कर कबूल कर लिया था.

हां, यह सच था कि मुझे अस्मिता से प्यार हो गया और जल्द ही हमारे प्यार के अफसाने सारे कालेज में चर्चा की बात हो गए थे.

अस्मिता भी अपना पूरा प्यार मुझ पर उड़ेल रही थी और यह उस के प्यार का ही असर था कि मैं अब उस से मिलने के बाद किसी दूसरी लड़की के साथ बिस्तर पर नहीं गया.

भले ही अस्मिता ने मुझे प्यार सिखा दिया हो, पर मेरे जिस्म को दिया गया ज्योति का ज्वर उतरा न था और इस ज्वर ने उस दिन अपना असर दिखाया, जब अस्मिता दोपहर की तनहाई में मुझ से मिलने मेरे कमरे पर आई.

आज उस ने मटमैले ग्रे रंग का कुरता पहना था, जिस पर काले रंग की गुड़हल की पत्तियों की तरह बनावट थी और उस कुरते के नीचे काली सलवार. उस का गोरा बदन इस लिबास में उबलउबल पड़ रहा था.

आज पहली बार अस्मिता मेरे साथ बिस्तर पर थी. उस के नाजुक अंगों से होता हुआ मेरा हाथ उस की सलवार तक पहुंचा ही था कि तभी मेरा हाथ पकड़ कर वह बोली, ‘‘नहीं ऋषि, यह नहीं.’’

उस के हाथ से अपना हाथ छुड़ाते हुए मैं बोला, ‘‘अस्मिता, क्या हुआ? मुझ से प्यार नहीं करती?’’

ऋषि ने ‘‘बहुतबहुत प्यार करते हैं हम आप से,’’ इतना कह कर मेरे हाथ को उस ने अपनी छाती पर रख लिया.

अस्मिता के उभारों को सहला कर मैं वापस उस की सलवार खोलने की कोशिश करते हुए बोला, ‘‘जब हम एकदूसरे से प्यार करते हैं, तो फिर जिस्मों में दूरियां क्यों?’’

अस्मिता बोली, ‘‘जिस्मों में दूरियां इसलिए क्योंकि अभी हमारी शादी नहीं हुई है,’’ फिर मेरे हाथ को अपने उभारों पर रखते हुए वह बोली, ‘‘मेरे प्यारे प्रेमी, जब तक आप हमारे पति नहीं बन जाते तब तक इसी से काम चलाओ.’’

इतना कह कर अस्मिता खिलखिला कर हंस पड़ी और मैं उस निश्छल हंसी में डूब गया.

अस्मिता वह पहली लड़की थी जो मेरे साथ बिस्तर पर लेट कर भी उतनी ही दूर थी जितनी लड़की किसी मर्द के साथ बिस्तर पर बिना लेटे हुए होती है.

भले ही मैं अस्मिता से टूट कर प्यार करने लगा था, पर ज्योति के दिए ज्वर से आजाद न हो सका था. उस शाम अस्मिता के जाने के बाद इस ज्वर ने अपना भयंकर रूप दिखाया और मैं इसे शांत करने के लिए जिस्म की तलाश करने लगा.

इसी हाल में मुझे अपना दोस्त रतन मिला. मेरा चेहरा देख कर ही वह मेरी हालत समझ गया और मेरे कुछ कहने से पहले ही बोला, ‘‘देख ऋषि, कालेज की किसी लड़की से कतई नहीं वरना अस्मिता भाभी का दिल टूट जाएगा.’’

‘‘फिर?’’ मैं ने बेचैनी से पूछा.

‘‘एक लड़की को मैं जानता हूं जो यूनिवर्सिटी में पीएचडी कर रही है. खूबसूरत इतनी कि अप्सरा शरमा जाए. अपने खर्चे के लिए कभीकभी किसी लड़के को बुला लेती है. एक बार मैं गया था, जन्नत का मजा मिला था.

‘‘तू कहे तो मैं बात करूं. अगर उसे जरूरत होगी तो बुला लेगी. हां, थोड़ी उम्र में ज्यादा है हम से.’’

मैं कुछ बोल न सका, बस इकरार में सर हिला कर रह गया. फिर रतन पास के पीसीओ में जा कर किसी से बात करता रहा. कोई 2-3 बार फोन किया, फिर मेरे पास आ कर एक आंख दबाते हुए बोला, ‘‘चल उठ, जा तेरा काम हो गया. उस ने बुलाया है.’’

अगले ही पल उस ने कागज पर उस लड़की का पता लिख कर थमा दिया और बोला कि पैसे ले कर जाना.

दरवाजे पर लगी कुंडी मैं ने 2-3 बार खटखटाई. उस के बाद जब दरवाजा खुला तो एक सांवली सी ठिगनी लड़की सामने खड़ी थी. होंठों पर सवाल लिए, ‘‘किस से मिलना है?’’

‘‘जी… जी…,’’ मैं हकला कर रह गया. वैसे भी सामने खड़ी लड़की को देख कर मैं मन ही मन रतन को हजार गालियां दे चुका था.

मुझे हकलाते हुए देख कर वह गुस्से से बोली, ‘‘ओह, यह लड़की बाज नहीं आने वाली.’’

फिर वह चिल्ला कर बोली, ‘‘ओय बाहर आ,’’ इतना कह कर वह कमरे से बाहर चली गई. जातेजाते उस ने दरवाजे को भी बंद कर दिया था.

मुझे अभी कमरे में खड़े 1-2 मिनट ही हुए थे कि अपने गीले बालों को तौलिए से सुखाते हुए वह आ गई. जैसे ही उस ने बाल पीछे कर के सिर उठा कर मुझे देखा, मेरे मुंह से निकला, ‘‘ज्योति.’’

कुछ पल वह मुझे खामोश खड़ी निहारती रही फिर दौड़ कर मुझे गले लगा कर बोली, ‘‘ओह ऋषि, तुम हो?’’

‘‘हां, मैं हूं,’’ मैं उसे अपने से परे धकेलते हुए बोला.

ज्योति वापस आ कर मेरे गले से लगते हुए बोली, ‘‘ऋषि, कितने दिनों बाद हम देख रहे हैं आप को, यकीन ही नहीं होता…’’

‘‘यकीन तो मुझे भी नहीं होता ज्योति कि तुम इस हद तक गिर गई हो.’’

‘‘किस हद तक ऋषि… ओह, यह तुम क्या कह रहे हो. आज कितने दिनों बाद मिले और ये क्या बातें करने लगे.’’

‘‘वही बातें ज्योति जो करनी चाहिए. तुम अपने जिस्म का ज्वर उतारने के लिए उस जिस्म को मर्दों के आगे बेचती हो, क्या इसे गिरना नहीं कहते?’’

‘‘ऋषि, तुम समझ नहीं रहे. तुम्हें कैसे कहें कि यह पढ़ाई, यह पीएचडी इस में कितने पैसे लगते हैं… यह सब कहां से आता जबकि घर वाले मेरी शादी बीए के बाद ही कर देना चाहते थे. पर मैं पढ़ना चाहती थी, कुछ करना चाहती थी. अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी.’’

ज्वर: लड़कियों के जिस्म का शौकीन ऋषि – भाग 2

थोड़ी देर के बाद मैं ज्योति का हाथ पकड़ कर नीचे आ गया. मेरा हाथ छुड़ा कर वह जाते हुए बोली, ‘‘ऋषि, एक काम करना.’’

मैं ने पूछा, ‘‘क्या?’’

‘‘छत पर पड़ी खून की बूंदों को पानी से साफ कर देना,’’ इतना कह कर वह चली गई और मैं हाथ में बालटी ले कर छत की ओर चल दिया.

ज्योति उस रात के बाद फिर मुझे दिखाई न दी. उस की छुट्टियां खत्म हो गई थीं. मैं ने कई दिन की तड़प के बाद अपने दिल को तसल्ली दी कि वह जब अगले साल गरमियों की छुट्टियां बिताने आएगी तो जीभर के उस से बात करूंगा, उसे आगोश में लूंगा, मगर मेरे लाख इंतजार के बाद वह फिर कभी गरमी की छुट्टियां बिताने के लिए हमारे गांव नहीं आई.

मैं अपनी टीनएज में एक लड़की की तरफ आकर्षित हुआ, उस के जिस्म को मैं ने हासिल किया था. मैं जब भी तनहा लेटता, मुझे लगता कि मैं किसी हसीना के जिस्म से लिपटा हुआ हूं. मेरी नसनस कामज्वर से जल उठती. मैं बेचैन हो जाता. मैं कोशिश करता कि रात में अकेला न रहूं, बस इसलिए दोस्तों के साथ देर रात तक घूमा करता.

ऐसे ही एक रात मैं पास के एक गांव की महफिल में पहुंच गया, जहां तवायफें अपने हुस्न से अजब समां बांध रही थीं. लोग उन के थिरकते कदमों की लय पर वाहवाह कर रहे थे.

मेरी नजर भी ऐसे ही लयबद्ध थिरकते एक जोड़ी पांव पर टिक गई थी. वह एक मेरी उम्र की सुंदर नैननक्श वाली तवायफ थी, जिसे लोग गुंजा के नाम से पुकार रहे थे.

जब तक गुंजा उस गांव में रही, मैं रोज उस की महफिल में हाजिर होता रहा. मेरी इस हाजिरी को यकीनन उस ने तवज्जुह दी थी और यह तवज्जुह इतनी गहरी थी कि एक रात जब वह रक्स की महफिल के बाद कमरे में आराम कर रही थी, तो मैं उस के पास पहुंच गया और उस ने मुझे देखते ही अपने पास लेटी दूसरी तवायफ को बाहर जाने का इशारा कर के मेरी ओर अपनी मरमरी बांहें फैला दीं.

जिस कामज्वर को ज्योति ने मेरे शरीर में जगाया था, उसे मैं गुंजा की बांहों में शांत करने लगा. यहां तक कि जब वह अपने गांव गई, तो मैं अपने एक दोस्त के साथ वहां भी जा पहुंचा और वहीं पर मैं ने शालू को देखा.

शालू गुंजा की छोटी बहन थी और उस से भी ज्यादा हसीन. शालू को देखने के बाद जब मैं गुंजा के साथ लेटता तो मुझे लगता कि मैं शालू के साथ लेटा हूं. शालू के प्रति मेरी आकर्षित निगाहों को शायद गुंजा और उस की मां ने समझ लिया था, इसलिए वे दोनों गाहेबगाहे मुझे शालू से दूर रहने की हिदायत देती रहती थीं.

शालू अब मेरे ख्वाबों में आने लगी थी. इसी बीच मुझे लखनऊ के एक कालेज में बीटैक में एडमिशन मिल गया. लखनऊ जाने से पहले मैं शालू को पाना चाहता था. उस की गोद में सिर रख कर सोना चाहता था. अपनी इसी सोच को लिए मैं उस रात गुंजा के घर जा पहुंचा.

एक बड़ी महफिल उस रात गुंजा के घर सजी हुई थी. मुझे देख कर गुंजा मुसकरा उठी. मेरे पास आ कर वह बोली, ‘‘आओ ऋषि, बैठो.’’

मैं ने पूछा, ‘‘गुंजा, यह महफिल, ये इतने लोग किसलिए?’’

‘‘शालू के लिए,’’ वह मुसकराई.

‘‘मैं समझा नहीं,’’ शालू का नाम आते ही मैं उतावलेपन से बोला.

‘‘आज उस की नथ उतराई है,’’ गुंजा मेरे करीब आ कर मेरी कमीज के बटन खोलते हुए बोली.

‘नथ उतराई. कोठों की इस भाषा से मैं अब तक बखूबी परिचित हो चुका था और अच्छे से इस का मतलब भी जानता था.

मैं ने एक झटके से गुंजा को अपने से परे ढकेल दिया था. जमीन पर गुंजा के गिरने की आवाज सुन कर वहां पान चबाते हुए उस की मां आ गई थीं.

जमीन पर गुंजा को गिरा देख कर वह हाथ नचा कर बोली, ‘‘यह क्या हो रहा है?’’

मैं भी तनिक तेज आवाज में बोला, ‘‘मुझे शालू से दूर रहने की हिदायत दे कर तुम लोग उस की नथ उतराई की रस्म कर रहे हो.’’

‘‘हां तो… तुम्हें एतराज काक्या हक?’’ गुंजा की मां एक कोने में रखे पीकदान में पान की पीक थूकते हुए बोली.

‘‘मैं शालू को चाहता हूं.’’

‘‘तुम शालू को नहीं, बल्कि उस के जिस्म को चाहते हो, जिस की कीमत किसी ने 25,000 रुपए दी है. सौदा हो चुका है.’’

‘‘सौदा…’’ मैं तनिक रोब से बोला, ‘‘एक मासूम लड़की का सौदा कर के तुम्हें शर्म नहीं आती…’’

मेरी बात सुन कर वह अधेड़ औरत बिफर गई थी. न जाने कितनी बातों की बौछार उस ने मुझ पर कर दी. बस मुझे उस की आखिरी बात याद रही, ‘‘दफा हो जाओ यहां से, तुम्हारे जैसे लोग यहां आ कर घुटनों पर बैठ कर हमारे पैर चूमते हैं.’’

वहां से निकलते हुए मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारे पैर चूमे हमारा जूता.’’

मेरी बात सुनते ही वह दहाड़ कर बोली, ‘‘एक दिन किसी हम जैसी के पैर तू भरी महफिल में छुएगा, उस दिन मुझे याद करना.’’

वह चिल्ला रही थी. उस के वह शब्द पिघलते सीसे की तरह मेरे कानों में उतर रहे थे. मैं ने पलट कर भी नहीं देखा और तेज कदमों से वहां से निकल आया था.

लखनऊ शहर ने मेरे जवान होते जिस्म में अंगड़ाई भर दी थी. जिधर देखो उधर खूबसूरती बिखरी पड़ी थी. अब मैं 19 साल का सजीला नौजवान था, जो लखनऊ के एक मशहूर कालेज से बीटैक कर रहा था.

मैं पढ़ने में तो बचपन से ही होशियार था और इसी वजह से क्लास में मेरी धाक बैठ गई थी. लड़के और लड़कियां सब मेरी तरफ आकर्षित थे, पर मैं सिर्फ लड़कियों की तरफ आकर्षित था.

जब खूबसूरत लड़कियां स्लीवलैस टौप और स्किन टाइट जींस पहन कर खूबसूरती की गुडि़या बन कर मेरे सामने आतीं और होंठों पर मुसकान ला कर ‘हाय ऋषि’ कहतीं, तो मेरा दिल बल्लियों उछल जाता.

मेरे मन और शरीर में जो ज्वर ज्योति ने भरा था, न तो वह उतरा था और न ही गुंजा और उस की मां का दिया हुआ दंश कम हुआ था, बल्कि यों कहें तो और उफन उठा था.

अंदर बाहर : जब पीछे पड़ गया सांड

‘‘मिल गया. 15 रुपए की एक बता रहा था. 20 रुपए में 2 दे दी. यानी 10 रुपए की एक फूलगोभी,’’ कहते हुए बेनी बाबू जंग जीतने वाले सेनापति के अंदाज में खुश हो गए.

आलू, बैगन, अदरक, बंदगोभी वगैरह सब्जियों से भरे झोले को संभालते हुए वे जल्दीजल्दी घर लौट रहे थे. सड़क पर दोनों तरफ सब्जी वाले बैठे थे. कोई हांक लगा रहा था, ‘‘20 में डेढ़, टमाटर ढेर.’’

फल वाला नारा बुलंद कर रहा था, ‘‘बहुत हो गया सस्ता, अमरूद ले भर बस्ता.’’ बिजली के तार पर बैठे बंदर सोच रहे थे, ‘मौका मिले, तो झपट कर अमरूद उठा लें. सौ फीसदी मुफ्त में.’

वैसे, भाषा विज्ञान का एक सवाल है कि पेड़ की शाखा पर चलने के कारण अगर बंदरों का नाम ‘शाखामृग’ पड़ा, तो आजकल के टैलीफोन और बिजली के तारों पर चलने के कारण उन का नाम ‘तारमृग’ भी क्यों न हो? उधर बेनी बाबू ने यह खयाल नहीं किया था कि भीड़ में कोई उन के पीछेपीछे चल रहा है. वह था एक भारीभरकम काला सांड़, जो शायद सोच रहा था, ‘बच्चू, तू अकेलेअकेले सब खाएगा? हजम नहीं होगा बे. एक फूलगोभी तो मुझे देता जा.’

पीछे से आती आवाज से चौंक कर बेनी बाबू ने पीछे मुड़ कर देखा और उन के मुंह से निकला, ‘‘अरे, सत्यानाश हो.’’ वे सिर पर पैर रख कर भागे. कुछकुछ उड़ते हुए.

‘अबे भाग कहां रहा है? सरकार का टैक्स है. पुलिसगुंडे सब का टैक्स है. हमारा टैक्स नहीं देगा क्या? चल, फूलगोभी निकाल,’ मानो सांड़ यह सोच कर उन के पीछे दौड़ने लगा. बेनी बाबू मानो यह सोचते हुए आगे भागे, ‘न मानूं, न मानूं, न मानूं रे. दगाबाज, तेरी बतिया न मानूं रे.’

‘अबे तुझे हजम नहीं होगा. तेरे पेट से निकलेगी गंगा. तेरा खानदान न रहेगा चंगा,’ सांड़ को जैसे गुस्सा आ गया.

एक राही ने जोरदार आवाज में कहा, ‘‘भाई साहब, जल्दीजल्दी भागिए.’’ दूसरे आदमी ने यूएनओ स्टाइल में समझौता कराना चाहा, ‘‘एक फूलगोभी उस के आगे फेंक कर घर जाइए.’’

‘जाऊं तो जाऊं कहां ऐ दिल, कहां है तेरी मंजिल?’ यह सोचते हुए तड़पने लगे बेनी बाबू. तभी ध्यान आया कि दाहिने हाथ की गली के ठीक सामने पुलिस चौकी है. और कोई न बचाए, खाकी, अपनी रख लो लाज. बचा लो मुसीबत से आज. दौड़तेहांफते हुए हाथ में थैला लटकाए बेनी बाबू थाने में दाखिल हुए.

बेनी बाबू को भीतर आता देख दारोगा बलीराम चिल्लाए, ‘‘अरे, यह क्या हो रहा है? तुम… आप कौन हैं? ऐ गिरधारी, यह कौन अंदर दाखिल हो गया? देख तो…’’ ‘‘एक सांड़ मेरे पीछे पड़ा है,’’ बेनी बाबू ने अपनी समस्या बताई.

‘‘सांड़? पीछा कर रहा है? कोई गुंडाबदमाश होता तो कोई बात होती,’’ दारोगा बलीराम ने कहा. ‘‘अरे साहब, यह सांड़ तो गुंडेबदमाश से भी दो कदम आगे है.’’

बाहर से गिरधारी ने मुनादी कर दी, ‘‘लीजिए, वे भी पधार चुके हैं.’’ इसी बीच थाने के अंदर काले पहाड़ जैसे सांड़ की ऐंट्री.

दारोगा बलीराम चौंक गए और बोले, ‘‘सुबहसुबह यह क्या बला आ गई?’’ इतने में सांड़ झपटा बेनी बाबू की ओर. वे छिप गए दारोगा बलीराम के पीछे. शुरू हो गई म्यूजिकल चेयर

रेस. टेबिल के चारों ओर चक्कर लगा रहे थे तीनों. सब से पहले बेनी, उन के पीछे दारोगा बलीराम और उन

दोनों को खदेड़ता हुआ काला पहाड़ जैसा वह सांड़… ‘‘अरे गिरधारी, इस को भगाओ, नहीं तो तुम सब को लाइन हाजिर कराऊंगा,’’ फौजी स्टाइल में दारोगा बलीराम चिल्लाए.

‘‘साहब, हम क्या करें? मामूली चोरउचक्के तो हाथ से छूट जाते हैं, ये तो बौखलाए सांड़ हैं. कैसे संभालें?’’ गिरधारी ने सच कहा. उधर झूमझूम कर, घूमघूम कर चल रहा था तीनों का चक्कर. बीच में टेबिल को घेर कर.

दारोगा बलीराम ने आदेश दिया, ‘‘हवालात का दरवाजा खोल कर इसे अंदर करो.’’ ‘‘हम लोग दरवाजा खोल रहे हैं हुजूर. आप अंदर से उसे बाहर हांकिए,’’ गिरधारी ने जोरदार आवाज में कहा.

‘‘यह तो मुझे दौड़ा रहा है. मैं कैसे हांकूंगा? इस आदमी को यहां से निकाल बाहर करो.’’ ‘‘आप ही लोग जनता की हिफाजत नहीं करेंगे, तो कौन हमें बचाएगा?’’ बेनी बाबू बोले.

‘‘निकलते हो कि नहीं…’’ दारोगा बलीराम बेनी बाबू पर यों झपटे कि झोला समेत उसे निकाल बाहर करें. सांड़ उन पर लपका. बेनी बाबू ने तुरंत टेबिल के नीचे हाथ में झोला संभालते हुए आसन जमा लिया.

सांड़ हैरान रह गया. गोभी वाला बाबू गया कहां? उसे दारोगा पर गुस्सा आ गया कि कहीं इसी ने तो गोभी नहीं खा ली? वह सांड़ दारोगा बलीराम के पीछे दौड़ता हुआ मानो बोला, ‘छुप गए तारे नजारे सारे, ओए क्या बात हो गई. तू ने गोभी चुराई तो दिन में रात हो गई.’ हवालात का दरवाजा खुला था. बलीराम पहुंचे अंदर और चिल्लाए, ‘‘अरे गिरधारी, हवालात का दरवाजा बंद कर… जल्दी से.’’

गिरधारी ने तभी आदेश का पालन किया. सांड़ बंद हवालात के सामने फुफकारने लगा और मानो बोला, ‘हुजूर, अब खोलो दरवाजा. मैं प्रजा हूं, तुम हो राजा. भूखे की गोभी मत छीनो. सुना नहीं क्या अरे कमीनो?’

इस के बाद क्या हुआ, मत पूछिए. दूसरे दिन अखबार में इस सीन की फोटो समेत खबर छपी थी. हां, इतना बता सकता हूं कि मिसेज बेनी को दोनों फूलगोभी मिल गई थीं. सहीसलामत.

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