मानसून स्पेशल: आंचल की छांव – भाग 2

अब तो उस नन्ही सी जान को मार खाने की आदत सी हो गई थी. मार खाते समय उस के मुंह से उफ तक नहीं निकलती थी. निकलती थीं तो बस, सिसकियां. वह मासूम बच्ची तो खुल कर रो भी नहीं सकती थी क्योंकि वह रोती तो मार और अधिक पड़ती.

खाने को मिलता बहनों का जूठन. कंचन बहनों को जब दूध पीते या फल खाते देखती तो उस का मन ललचा उठता. लेकिन उसे मिलता कभीकभार बहनों द्वारा छोड़ा हुआ दूध और फल. कई बार तो कंचन जब जूठे गिलास धोने को ले जाती तो उसी में थोड़ा सा पानी डाल कर उसे ही पी लेती. गजब का धैर्य और संतोष था उस में.

शुरू में कंचन मेरे घर आ जाया करती थी किंतु अब सुधा ने उसे मेरे यहां आने पर भी प्रतिबंध लगा दिया. कंचन के साथ इतनी निर्दयता देख दिल कराह उठता था कि आखिर इस मासूम बच्ची का क्या दोष.

उस दिन तो सुधा ने हद ही कर दी, जब कंचन का बिस्तर और सामान बगल में बने गैराज में लगा दिया. मेरी छत से उन का गैराज स्पष्ट दिखाई देता था.

जाड़ों का मौसम था. मैं अपनी छत पर कुरसी डाल कर धूप में बैठी स्वेटर बुन रही थी. तभी देखा कंचन एक थाली में भाईबहन द्वारा छोड़ा गया खाना ले कर अपने गैराज की तरफ जा रही थी. मेरी नजर उस पर पड़ी तो वह शरम के मारे दौड़ पड़ी. दौड़ने से उस के पैर में पत्थर द्वारा ठोकर लग गई और खाने की थाली गिर पड़ी. आवाज सुन कर सुधा दौड़ीदौड़ी बाहर आई और आव देखा न ताव चटाचट कंचन के भोले चेहरे पर कई तमाचे जड़ दिए.

‘कुलटा कहीं की, मर क्यों नहीं गई? जब मां मरी थी तो तुझे क्यों नहीं ले गई अपने साथ. छोड़ गई है मेरे खातिर जी का जंजाल. अरे, चलते नहीं बनता क्या? मोटाई चढ़ी है. जहर खा कर मर जा, अब और खाना नहीं है. भूखी मर.’ आवाज के साथसाथ सुधा के हाथ भी तेजी से चल रहे थे.

उस दिन का वह नजारा देख कर तो मैं अवाक् रह गई. काफी सोचविचार के बाद एक दिन मैं ने हिम्मत जुटाई और कंचन को इशारे से बाहर बुला कर पूछा, ‘क्या वह खाना खाएगी?’

पहले तो वह मेरे इशारे को नहीं समझ पाई किंतु शीघ्र ही उस ने इशारे में ही खाने की स्वीकृति दे दी. मैं रसोई में गई और बाकी बचे खाने को पालिथीन में भर एक रस्सी में बांध कर नीचे लटका दिया. कंचन ने बिना किसी औपचारिकता के थैली खोल ली और गैराज में चली गई, वहां बैठ कर खाने लगी.

धीरेधीरे यह एक क्रम सा बन गया कि घर में जो कुछ भी बनता, मैं कंचन के लिए अवश्य रख देती और मौका देख कर उसे दे देती. उसे खिलाने में मुझे एक आत्मसुख सा मिलता था. कुछ ही दिनों में उस से मेरा लगाव बढ़ता गया और एक अजीब बंधन में जकड़ते गए हम दोनों.

मेरे भाई की शादी थी. मैं 10 दिन के लिए मायके चली आई लेकिन कंचन की याद मुझे जबतब परेशान करती. खासकर तब और अधिक उस की याद आती जब मैं खाना खाने बैठती. यद्यपि हमारे बीच कभी कोई बातचीत नहीं होती थी पर इशारों में ही वह सारी बातें कह देती एवं समझ लेती थी.

भाई की शादी से जब वापस घर लौटी तो सीधे छत पर गई. वहां देखा कि ढेर सारे कागज पत्थर में लिपटे हुए पड़े थे. हर कागज पर लिखा था, ‘आंटी आप कहां चली गई हो? कब आओगी? मुझे बहुत तेज भूख लगी है. प्लीज, जल्दी आओ न.’

एक कागज खोला तो उस पर लिखा था, ‘मैं ने कल मां से अच्छा खाना मांगा तो मुझे गरम चिमटे से मारा. मेरा  हाथ जल गया है. अब तो उस में घाव हो गया है.’

मैं कागज के टुकड़ों को उठाउठा कर पढ़ रही थी और आंखों से आंसू बह रहे थे. नीचे झांक कर देखा तो कंचन अपनी कुरसीमेज पर दुबकी सी बैठी पढ़ रही थी. दौड़ कर नीचे गई और मायके से लाई कुछ मिठाइयां और पूरियां ले कर ऊपर आ गई और कंचन को इशारा किया. मुझे देख उस की खुशी का ठिकाना न रहा.

मैं ने खाने का सामान रस्सी से नीचे उतार दिया. कंचन ने झट से डब्बा खोला और बैठ कर खाने लगी, तभी उस की छोटी बहन निधि वहां आ गई और कंचन को मिठाइयां खाते देख जोर से चिल्लाने ही वाली थी कि कंचन ने उस के मुंह पर हाथ रख कर चुप कराया और उस से कहा, ‘तू भी मिठाई खा ले.’

निधि ने मिठाई तो खा ली पर अंदर जा कर अपनी मां को इस बारे में बता दिया. सुधा झट से बाहर आई और कंचन के हाथ से डब्बा छीन कर फेंक दिया. बोली, ‘अरे, भूखी मर रही थी क्या? घर पर खाने को नहीं है जो पड़ोस से भीख मांगती है? चल जा, अंदर बरतन पड़े हैं, उन्हें मांजधो ले. बड़ी आई मिठाई खाने वाली,’ कंचन के साथसाथ सुधा मुझे भी भलाबुरा कहते हुए अंदर चली गई.

इस घटना के बाद कंचन मुझे दिखाई नहीं दी. मैं ने सोचा शायद वह कहीं चली गई है. पर एक दिन जब चने की दाल सुखाने छत पर गई तो एक कागज पत्थर में लिपटा पड़ा था. मुझे समझने में देर नहीं लगी कि यह कंचन ने ही फेंका होगा. दाल को नीचे रख कागज खोल कर पढ़ने लगी. उस में लिखा था :

‘प्यारी आंटी,

होश संभाला है तब से मार खाती आ रही हूं. क्या जिन की मां मर जाती हैं उन का इस दुनिया में कोई नहीं होता? मेरी मां ने मुझे जन्म दे कर क्यों छोड़ दिया इस हाल में? पापा तो मेरे अपने हैं फिर वह भी मुझ से क्यों इतनी नफरत करते हैं, क्या उन के दिल में मेरे प्रति प्यार नहीं है?

खैर, छोडि़ए, शायद मेरा नसीब ही ऐसा है. पापा का ट्रांसफर हो गया है. अब हम लोग यहां से कुछ ही दिनों में चले जाएंगे. फिर किस से कहूंगी अपना दर्द. आप की बहुत याद आएगी. काश, आंटी, आप मेरी मां होतीं, कितना प्यार करतीं मुझ को. तबीयत ठीक नहीं है…अब ज्यादा लिख नहीं पा रही हूं.’

समय धीरेधीरे बीतने लगा. अकसर कंचन के बारे में अपने पति शरद से बातें करती तो वह गंभीर हो जाया करते थे. इसी कारण मैं इस बात को कभी आगे नहीं बढ़ा पाई. कंचन को ले कर मैं काफी ऊहापोह में रहती थी किंतु समय के साथसाथ उस की याद धुंधली पड़ने लगी. अचानक कंचन का एक पत्र आया. फिर तो यदाकदा उस के पत्र आते रहे किंतु एक अज्ञात भय से मैं कभी उसे पत्र नहीं लिख पाई और न ही सहानुभूति दर्शा पाई.

अचानक कटोरी गिरने की आवाज से मैं अतीत की यादों से बाहर निकल आई. देखा, कंचन सामने बैठी है. उस के हाथ कंपकंपा रहे थे. शायद इसी वजह से कटोरी गिरी थी.

मैं ने प्यार से कहा, ‘‘कोई बात नहीं, बेटा,’’ फिर उसे अंदर वाले कमरे में ले जा कर अपनी साड़ी पहनने को दी. बसंती रंग की साड़ी उस पर खूब फब रही थी. उस के बाल संवारे तो अच्छी लगने लगी. बिस्तर पर लेटेलेटे हम काफी देर तक इधरउधर की बातें करते रहे. इसी बीच कब उसे नींद आ गई पता नहीं चला.

कंचन तो सो गई पर मेरे मन में एक अंतर्द्वंद्व चलता रहा. एक तरफ तो कंचन को अपनाने का पर दूसरी तरफ इस विचार से सिहर उठती कि इस बात को ले कर शरद की प्रतिक्रिया क्या होगी. शायद उन को अच्छा न लगे कंचन का यहां आना. इसी उधेड़बुन में शाम के 7 बज गए.

दरवाजे की घंटी बजी तो जा कर दरवाजा खोला. शरद आफिस से आ चुके थे. पूरे घर में अंधेरा छाया देख पूछ बैठे, ‘‘क्यों, आज तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

कंचन को ले कर मैं इस तरह उलझ गई थी कि घर की बत्तियां जलाना भी भूल गई.

घर की बत्तियां जला कर रोशनी की और रसोई में आ कर शरद के लिए चाय बनाने लगी. विचारों का क्रम लगातार जारी था. बारबार यही सोच रही थी कि कंचन के यहां आने की बात शरद को कैसे बताई जाए. क्या शरद कंचन को स्वीकार कर पाएंगे. सोचसोच कर मेरे हाथपैर ढीले पड़ते जा रहे थे.

शरद मेरी इस मनोदशा को शायद भांप रहे थे. तभी बारबार पूछ रहे थे, ‘‘आज तुम इतनी परेशान क्यों दिख रही हो? इतनी व्यग्र एवं परेशान तो तुम्हें पहले कभी नहीं देखा. क्या बात है, मुझे नहीं बताओगी?’’

मैं शायद इसी पल का इंतजार कर रही थी. उचित मौका देख मैं ने बड़े ही सधे शब्दों में कहा, ‘‘कंचन आई है.’’

मेरा इतना कहना था कि शरद गंभीर हो उठे. घर में एक मौन पसर गया. रात का खाना तीनों ने एकसाथ खाया. कंचन को अलग कमरे में सुला कर मैं अपने कमरे में आ गई. शरद दूसरी तरफ करवट लिए लेटे थे. मैं भी एक ओर लेट गई. दोनों बिस्तर पर दो जिंदा लाशों की तरह लेटे रहे. शरद काफी देर तक करवट बदलते रहे. विचारों की आंधी में नींद दोनों को ही नहीं आ रही थी.

बहुत देर बाद शरद की आवाज ने मेरी विचारशृंखला पर विराम लगाया. बोले, ‘‘देखो, मैं कंचन को उस की मां तो नहीं दे सकता हूं पर सासूमां तो दे ही सकता हूं. मैं कंचन को इस तरह नहीं बल्कि अपने घर में बहू बना कर रखूंगा. तब यह दुनिया और समाज कुछ भी न कह पाएगा, अन्यथा एक पराई लड़की को इस घर में पनाह देंगे तो हमारे सामने अनेक सवाल उठेंगे.’’

मानसून स्पेशल: दिखावे की काट

साथ साथ: कौन-सी अनहोनी हुई थी रुखसाना और रज्जाक के साथ – भाग 3

रज्जाक के साथ गांव से भाग कर रुखसाना अपने मामूजान के घर आ गई. मामीजान ने रज्जाक के बारे में पूछा तो वह बोली, ‘यह मेरे शौहर हैं.’

मामीजान को हैरत में छोड़ कर रुखसाना रज्जाक को साथ ले सीधा मामूजान के कमरे की तरफ चल दी. क्योंकि एकएक पल उस के लिए बेहद कीमती था.

मामूजान एक कीमती कश्मीरी शाल पर नक्काशी कर रहे थे. दुआसलाम कर के वह चुपचाप मामूजान के पास बैठ गई और रज्जाक को भी बैठने का इशारा किया.

बचपन से रुखसाना की आदत थी कि जब भी कोई मुसीबत आती तो वह मामूजान के पास जा कर चुपचाप बैठ जाती. मामूजान खुद ही समझ जाते कि बच्ची परेशान है और उस की परेशानी का कोेई न कोई रास्ता निकाल देते.

कनखियों से रज्जाक को देख मामूजान बोल पड़े, ‘इस बार कौन सी मुसीबत उठा लाई है, बच्ची?’

‘मामूजान, इस बार की मुसीबत वाकई जानलेवा है. किसी को भनक भी लग गई तो सब मारे जाएंगे. दरअसल, मामूजान इन को मजबूरी में जेहादियों का साथ देना पड़ा था पर अब ये इस अंधी गली से निकलना चाहते हैं. हम साथसाथ घर बसाना चाहते हैं. अब तो आप ही का सहारा है मामू, वरना आप की बच्ची मर जाएगी,’ इतना कह कर रुखसाना मामूजान के कदमों में गिर कर रोने लगी.

अपने प्रति रुखसाना की यह बेपनाह मुहब्बत देख कर रज्जाक मियां का दिल भर आया. चेहरे पर दृढ़ता चमकने लगी. मामूजान ने एक नजर रज्जाक की तरफ देखा और अनुभवी आंखें प्रेम की गहराई को ताड़ गईं. बोले, ‘सच्ची मुहब्बत करने वालों का साथ देना हर नेक बंदे का धर्म है. तुम लोग चिंता मत करो. मैं तुम्हें एक ऐसे शहर का पता देता हूं जो यहां से बहुत दूर है और साथ ही इतना विशाल है कि अपने आगोश में तुम दोनों को आसानी से छिपा सकता है. देखो, तुम दोनों कोलकाता चले जाओ. वहां मेरा अच्छाखासा कारोबार है. जहां मैं ठहरता हूं वह मकान मालिक गोविंदरामजी भी बड़े अच्छे इनसान हैं. वहां पहुंचने के बाद कोई चिंता नहीं…उन के नाम मैं एक खत लिखे देता हूं.’

मामूजान ने खत लिख कर रज्जाक को पकड़ा दिया था जिस पर गोविंदरामजी का पूरा पता लिखा था. फिर वह घर के अंदर गए और अपने बेटे की जीन्स की पैंट और कमीज ले आए और बोले, ‘इन्हें पहन लो रज्जाक मियां, शक के दायरे में नहीं आओगे. और यहां से तुम दोनों सीधे जम्मू जा कर कोलकाता जाने वाली गाड़ी पर बैठ जाना.’

जिस मुहब्बत की मंजिल सिर्फ बरबादी नजर आ रही थी उसे रुखसाना ने अपनी इच्छाशक्ति से आबाद कर दिया था. एक युवक को जेहादियों की अंधी गली से निकाल कर जीवन की मुख्यधारा में शामिल कर के एक खुशहाल गृहस्थी का मालिक बनाना कोई आसान काम नहीं था. पर न जाने रुखसाना पर कौन सा जनून सवार था कि वह अपने महबूब और मुहब्बत को उस मुसीबत से निकाल लाई थी.

पता ही नहीं चला कब साल पर साल बीत गए और वे कोलकाता शहर के भीड़़ का एक हिस्सा बन गए. रज्जाक बड़ा मेहनती और ईमानदार था. शायद इसीलिए गोविंदराम ने उसे अपनी ही दुकान में अच्छेखासे वेतन पर रख लिया था और जब रफीक गोद में आया तो उन की गृहस्थी झूम उठी.

शुरुआत में पहचान लिए जाने के डर से रज्जाक और रुखसाना घर से कम ही निकलते थे पर जैसेजैसे रफीक बड़ा होने लगा उसे घुमाने के बहाने वे दोनों भी खूब घूमने लगे थे. लेकिन कहते हैं न कि काले अतीत को हम बेशक छोड़ना चाहें पर अतीत का काला साया हमें आसानी से नहीं छोड़ता.

रोज की तरह उस दिन भी रज्जाक काम पर जा रहा था और रुखसाना डेढ़ साल के रफीक को गोद में लिए चौखट पर खड़ी थी. तभी न जाने 2 नकाबपोश कहां से हाजिर हुए और धांयधांय की आवाज से सुबह का शांत वातावरण गूंज उठा.

उस खौफनाक दृश्य की याद आते ही रुखसाना जोर से चीख पड़ी तो आसपास के लोग उस की तरफ भागे. रुखसाना बिलखबिलख कर रो रही थी. इतने में गोविंदराम की जानीपहचानी आवाज ने उस को अतीत से वर्तमान में ला खड़ा किया, वह कह रहे थे, ‘‘रुखसाना बहन, अब घबराने की कोई जरूरत नहीं. आपरेशन ठीकठाक हो गया है. रज्जाक मियां अब ठीक हैं. कुछ ही घंटों में उन्हें होश आ जाएगा.’’

रुखसाना के आंसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. उसे कहां चोट लगी थी यह किसी की समझ से परे था.

इतने में किसी ने रफीक को उस की गोद में डाल दिया. रुखसाना ने चेहरा उठा कर देखा तो शीला बहन बड़े प्यार से उस की तरफ देख रही थीं. बोलीं, ‘‘चलो, रुखसाना, घर चलो. नहाधो कर कुछ खा लो. अब तो रज्जाक भाई भी ठीक हैं और फिर तुम्हारे गोविंदभाई तो यहीं रहेंगे. रफीक तुम्हारी गोद को तरस गया था इसलिए मैं इसे यहां ले आई.’’

रुखसाना भौचक्क हो कर कभी शीला को तो कभी गोविंदराम को देख रही थी. और सोच रही थी कि अब तक तो इन्हें उस की और रज्जाक की असलियत का पता चल गया होगा. तो पुलिस के झमेले भी इन्होंने झेले होंगे. फिर भी कितने प्यार से उसे लेने आए हैं.

रुखसाना आंखें पोंछती हुई बोली, ‘‘नहीं बहन, अब हम आप पर और बोझ नहीं बनेंगे. पहले ही आप के हम पर बड़े एहसान हैं. हमें हमारे हाल पर छोड़ दीजिए. कुछ लोग दुनिया में सिर्फ गम झेलने और मरने को आते हैं. हम अपने गुनाह की सजा आप को नहीं भोगने देंगे. आप समझती होंगी कि वे लोग हमें छोड़ देंगे? कभी नहीं.’’

‘‘रुखसाना कि वे आतंकवादी गली से बाहर निकल भी न पाए थे कि महल्ले वाले उन पर झपट पड़े. फिर क्या था, जिस के हाथों में जो भी था उसी से मारमार कर उन्हें अधमरा कर दिया, तब जा कर पुलिस के हवाले किया. दरअसल, इनसान न तो धर्म से बड़ा होता है और न ही जन्म से. वह तो अपने कर्म से बड़ा होता है. तुम ने जिस भटके हुए युवक को सही रास्ता दिखाया वह वाकई काबिलेतारीफ है. आज तुम अकेली नहीं, सारा महल्ला तुम्हारे साथ है .’’

शीला की इन हौसला भरी बातों ने रुखसाना की आंखों के आगे से काला परदा हटा दिया. रुखसाना ने देखा शाम ढल चुकी थी और एक नई सुबह उस का इंतजार कर रही थी. महल्ले के सभी बड़ेबुजुर्ग और जवान हाथ फैलाए उस के स्वागत के लिए खड़े थे. वह धीरेधीरे गुनगुनाने लगी, ‘हम साथसाथ हैं.’

मानसून स्पेशल: दिखावे की काट – भाग 1

दीवार से सिर टिका कर अंकिता शून्य में ताक रही थी. रोतेरोते उस की पलकें सूज गई थीं. अब भी कभीकभी एकाध आंसू पलकों पर आता और उस के गालों पर बह जाता. पास के कमरे में उस की भाभी दहाड़ें मारमार कर रो रही थीं. भाभी की बहन और भाभी उन्हें समझा रही थीं. भाभी के दोनों बच्चे ऋषी और रिनी सहमे हुए से मां के पास बैठे थे.

भाभी का रुदन कभी उसे सुनाई पड़ जाता. बूआ अंकिता के पास बैठी थीं और भी बहुत से रिश्तेदार घर में जगहजगह बैठे हुए थे. अंकिता का भाई और घर के बाकी दूसरे पुरुष अरथी के साथ श्मशान घाट अंतिम संस्कार करने जा चुके थे.

अंकिता की आंखों से फिर आंसू बह निकले. मां तो बहुत पहले ही उन्हें छोड़ कर चली गई थीं. पिता ने ही उन्हें मां और बाप दोनों का प्यार दे कर पाला. उन की उंगलियां पकड़ कर दोनों भाईबहन ने चलना सीखा, इस लायक बने कि जिंदगी की दौड़ में शामिल हो कर अपनी जगह बना सके और आज वही पिता अपने जीवन की दौड़ पूरी कर इस दुनिया से चले गए.

वह पिता की याद में फफक पड़ी. पास बैठी बूआ उसे दिलासा देते हुए खुद भी भाई की याद में बिलखने लगीं

घड़ी ने साढ़े 5 बजाए तो रिश्ते की एकदो महिलाएं घर की औरतों के नहाने की व्यवस्था करने में जुट गईं. दाहसंस्कार से पुरुषों के लौटने से पहले घर की महिलाओं का स्नान हो जाना चाहिए. भाभी और बूआ के स्नान करने के बाद बेमन से उठ कर अंकिता ने भी स्नान किया.

‘कैसी अजीब रस्में हैं,’ अंकिता सोच रही थी, ‘व्यक्ति के मरते ही इस तरह से घर के लोग स्नान करते हैं जैसे कि कोई छूत की बीमारी थी, जिस के दूर हटते ही स्नान कर के लोग शुद्ध हो जाते हैं. धर्म और उस की रूढि़यां संस्कार हैं कि कुरीतियां. इनसान की भावनाओं का ध्यान नहीं है, बस, लोग आडंबर में फंस जाते हैं.

औरतों का नहाना हुआ ही था कि श्मशान घाट से घर के पुरुष वापस आ गए और घर के बाहर बैठ गए. घर की महिलाएं अब पुरुषों के नहाने की व्यवस्था करने लगीं. उसी शहर में रहने वाले कई रिश्तेदार और आसपड़ोस के लोग बाहर से ही अपनेअपने घरों को लौट गए. उन्हें विदा कर भैया भी नहाने चले गए. नहा कर अंकिता का भाई आनंद आ कर बहन के पास बैठ गया तो अंकिता भाई के कंधे पर सिर रख कर रो पड़ी. भाई की आंखें भी भीग गईं. वह छोटी बहन के सिर पर हाथ फेरने लगा.

‘‘रो मत, अंकिता. मैं तुम्हें कभी पिताजी की कमी महसूस नहीं होने दूंगा. तेरा यह घर हमेशा तेरे लिए वैसा ही रहेगा जैसा पिताजी के रहते था,’’ बड़े भाई ने कहा तो अंकिता के दुखी मन को काफी सहारा मिला.

‘‘जीजाजी, बाबूजी का बिस्तर और तकिया किसे देने हैं?’’ आनंद के छोटे साले ने आ कर पूछा.

‘‘अभी तो उन्हें यहीं रहने दे राज, यह सब बाद में करते रहना. इतनी जल्दी क्या है?’’ आनंद के बोलने से पहले ही बूआ बोल पड़ीं.

‘‘नहीं, बूआ, ये लोग हैं तो यह सब हो जाएगा, फिर मेहमानों के सोने के लिए जगह भी तो चाहिए न. राज, तुम पिताजी का बिस्तर और कपड़े वृद्धाश्रम में दे आओ, वहां किसी के काम आ जाएंगे,’’ आनंद ने तुरंत उठते हुए कहा.

‘‘लेकिन भैया, पिताजी की निशानियों को अपने से दूर करने की इतनी जल्दबाजी क्यों?’’ अंकिता ने एक कमजोर सा प्रतिवादन करना चाहा लेकिन तब तक आनंद राज के साथ पिताजी के कमरे की तरफ जा चुके थे.

लगभग 15 मिनट बाद भैया की आवाज आई, ‘‘अंकिता, जरा यहां आना.’’

अपने को संभालते हुए अंकिता पिताजी के कमरे में गई.

‘‘देख अंकिता, तुझे पिताजी की याद के तहत उन की कोई वस्तु चाहिए तो ले ले,’’ आनंद ने कहा.

भाभी को शायद कुछ भनक लग गई और वे तुरंत आ कर दरवाजे पर खड़ी हो गईं. अंकिता समझ गई कि भाभी यह देखना चाहती हैं कि वह क्या ले जा रही है. पिताजी की पढ़ने वाली मेज पर उन का और मां का शादी के बाद का फोटो रखा हुआ था. अंकिता ने जा कर वह फोटो उठा लिया. इस फोटो को संभाल कर रखेगी वह.

पिताजी की सोने की चेन और 2 अंगूठियां फोटो के पास ही एक छोटी ट्रे में रखी थीं जिन्हें मां ने घर खर्चे के लिए मिले पैसों में बचाबचा कर अलगअलग अवसरों पर पिताजी के लिए बनाया था. चूंकि ये चेन और अंगूठियां मां की निशानियां थीं. इसलिए पिताजी इन्हें कभी अपने से अलग नहीं करते थे.

अंकिता ने फोटो को कस कर सीने से लगाया और तेजी से पिताजी के कमरे से बाहर चली गई. जातेजाते उस ने देख लिया कि भाभी की नजरें ट्रे में रखी चीजों पर जमी हैं और चेहरे पर एक राहत का भाव है कि अंकिता ने उन्हें नहीं उठाया. उस के मन में एक वितृष्णा का भाव पैदा हुआ कि थोड़ी देर पहले भैया के दिलासा भरे शब्दों में कितना खोखलापन था, यह समझ में आ गया.

भैया के दोनों सालों ने मिल कर पिताजी के कपड़ों और बाकी सामान की गठरियां बनाईं और वृद्धाश्रम में पहुंचा आए. पिताजी का लोहे वाला पुराना फोल्ंडिंग पलंग और स्टूल, कुरसी, मेज और बैंचें वहां से उठा कर सारा सामान छत पर डाल दिया कि बाद में बेच देंगे.

भाभी की बड़ी भाभी ने कमरे में फिनाइल का पोंछा लगा दिया. पिताजी उस कमरे में 50 वर्षों तक रहे लेकिन भैया ने 1 घंटे में ही उन 50 वर्षों की सारी निशानियों को धोपोंछ कर मिटा दिया. बस, उन की चेन और अंगूठियां भाभी ने झट से अपने सेफ में पहुंचा दीं.

रात को भाभी की भाभियों ने खाना बनाया. अंकिता का मन खाने को नहीं था लेकिन बूआ के समझाने पर उस ने नामचारे को खा लिया. सोते समय अंकिता और बूआ ने अपना बिस्तर पिताजी के कमरे में ही डलवाया. पलंग तो था नहीं, जमीन पर ही गद्दा डलवा कर दोनों लेट गईं. बूआ ने पूरे कमरे में नजर डाल कर एक गहरी आह भरी.

 

मानसून स्पेशल: आंचल की छांव – भाग 3

शरद ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली थी. कभी सोचा ही नहीं था कि वे इस तरह अपना फैसला सुनाएंगे. मैं चिपक गई शरद के विशाल हृदय से और रो पड़ी. मुझे गर्व महसूस हो रहा था कि मैं कितनी खुशनसीब हूं जो इतने विशाल हृदय वाले इनसान की पत्नी हूं.

जैसा मैं सोच रही थी वैसा ही शरद भी सोच रहे थे कि हमारे इस फैसले को क्या राहुल स्वीकार करेगा?

राहुल समझदार और संस्कारवान तो है पर शादी के बारे में अपना फैसला उस पर थोपना कहीं ज्यादती तो नहीं होगी. आखिर डाक्टर बन गया है, कहीं उस के जीवन में अपना कोई हमसफर तो नहीं? उस की क्या पसंद है? कभी पूछा ही नहीं. एक ओर जहां मन में आशंका के बादल घुमड़ रहे थे वहीं दूसरी ओर दृढ़ विश्वास भी था कि वह कभी हम लोगों की बात टालेगा नहीं.

कई बार मन में विचार आया कि फोन पर बेटे से पूछ लूं पर फिर यह सोच कर कि फोन पर बात करना ठीक नहीं होगा, अत: उस के आने का हम इंतजार करने लगे. इधर जैसेजैसे दिन व्यतीत होते गए कंचन की सेहत सुधरने लगी. रंगत पर निखार आने लगा. सूखी त्वचा स्निग्ध और कांतिमयी हो कर सोने सी दमकने लगी. आंखों में नमी आ गई.

मेरे आंचल की छांव पा कर कंचन में एक नई जान सी आ गई. उसे देख कर लगा जैसे ग्रीष्मऋतु की भीषण गरमी के बाद वर्षा की पहली फुहार पड़ने पर पौधे हरेभरे हो उठते हैं. अब वह पहले से कहीं अधिक स्वस्थ एवं ऊर्जावान दिखाई देने लगी थी. उस ने इस बीच कंप्यूटर और कुकिंग कोर्स भी ज्वाइन कर लिए थे.

और वह दिन भी आ गया जब राहुल दिल्ली से वापस आ गया. बेटे के आने की जितनी खुशी थी उतनी ही खुशी उस का फैसला सुनने की भी थी. 1-2 दिन बीतने के बाद मैं ने अनुभव किया कि वह भी कंचन से प्रभावित है तो अपनी बात उस के सामने रख दी. राहुल सहर्ष तैयार हो गया. मेरी तो मनमांगी मुराद पूरी हो गई. मैं तेजी से दोनों के ब्याह की तैयारी में जुट गई और साथ ही कंचन के पिता को भी इस बात की सूचना भेज दी.

कंचन और राहुल की शादी बड़ी  धूमधाम से संपन्न हो गई. शादी में न तो सुधा आई और न ही कंचन के पिता. कंचन को बहुत इंतजार रहा कि पापा जरूर आएंगे किंतु उन्होंने न आ कर कंचन की रहीसही उम्मीदें भी तोड़ दीं.

अपने नवजीवन में प्रवेश कर कंचन बहुत खुश थी. एक नया घरौंदा जो मिल गया था और उस घरौंदे में मां के आंचल की ठंडी छांव थी. द्य

मानसून स्पेशल: हम खो जाएंगे

मानसून स्पेशल: दिखावे की काट – भाग 2

बूआ के लिए भी उन का मायका उन के भाई के कारण ही था. अब उन के लिए भी मायके के नाम पर कुछ नहीं रहा. रमेश बाबू ने अपने जीते जी न बहन को मायके की कमी खलने दी न बेटी को. कहते हैं मायका मां से होता है लेकिन यहां तो पिताजी ने ही हमेशा उन दोनों के लिए ही मां की भूमिका निभाई.

‘‘बेटा, अब तू भी असीम के पास सिंगापुर चली जाना. वैसे भी अब तेरे लिए यहां रखा ही क्या है. आनंद का रवैया तो तुझे पता ही है. जो अपने जन्मदाता की यादों को 1 घंटे भी संभाल कर नहीं रख पाया वह तुझे क्या पूछेगा,’’ बूआ ने उस की हथेली को थपथपा कर कहा. अनुभवी बूआ की नजरें उस के भाईभाभी के भाव पहले ही दिन ताड़ गईं.

‘‘हां बूआ, सच कहती हो. बस, पिताजी की तेरहवीं हो जाए तो चली जाऊंगी. उन्हीं के लिए तो इस देश में रुकी थी. अब जब वही नहीं रहे तो…’’ अंकिता के आगे के शब्द उस की रुलाई में दब गए.

बूआ देर तक उस का सिर सहलाती रहीं. पिताजी ने अंकिता के विवाह की एकएक रस्म इतनी अच्छी तरह पूरी की थी कि लोगों को तथा खुद उस को भी कभी मां की कमी महसूस नहीं हुई.

पिताजी ने 2 साल पहले उस की शादी असीम से की थी. साल भर पहले असीम को सिंगापुर में अच्छा जौब मिल गया. वह अंकिता को भी अपने साथ ले जाना चाहता था लेकिन पिताजी की नरमगरम तबीयत देख कर वह असीम के साथ सिंगापुर नहीं गई. असीम का घर इसी शहर में था और उस के मातापिता नहीं थे, अत: असीम के सिंगापुर जाने के बाद अंकिता अपनी नौकरानी को साथ ले कर रहती थी. असीम छुट्टियों में आ जाता था.

अंकिता ने बहुत चाहा कि पिताजी उस के पास रहें पर इस घर में बसी मां की यादों को छोड़ कर वे जाना नहीं चाहते थे इसलिए वही हर रोज दोपहर को पिताजी के पास चली आती थी. बूआ वडोदरा में रहती थीं. उन का भी बारबार आना संभव नहीं था और अब तो उन का भी इस शहर में क्या रह जाएगा.

पिताजी की तीसरे दिन की रस्म हो गई. शाम को अंकिता बूआ के साथ आंगन में बैठी थी. असीम के रोज फोन आते और उस से बात कर अंकिता के दिल को काफी तसल्ली मिलती थी. असीम और बूआ ही तो अब उस के अपने थे. बूआ के सिर में हलकाहलका दर्द हो रहा था.

‘‘मैं आप के लिए चाय बना कर लाती हूं, बूआ, आप को थोड़ा आराम मिलेगा,’’ कह कर अंकिता चाय बनाने के लिए रसोईघर की ओर चल दी.

रसोईघर का रास्ता भैया के कमरे के बगल से हो कर जाता था. अंदर भैयाभाभी, उन के बच्चे, भाभी के दोनों भाई बैठे बातें कर रहे थे. उन की बातचीत का कुछ अंश उस के कानों में पड़ा तो न चाहते हुए भी उस के कदम दरवाजे की ओट में रुक गए. वे लोग पिताजी के कमरे को बच्चों के कमरे में तबदील करने पर सलाहमशविरा कर रहे थे.

बच्चों के लिए फर्नीचर कैसा हो, कितना हो, दीवारों के परदे का रंग कैसा हो और एक अटैच बाथरूम भी बनवाने पर विचार हो रहा था. सब लोग उत्साह से अपनीअपनी राय दे रहे थे, बच्चे भी पुलक रहे थे.

अंकिता का मन खट्टा हो गया. इन बच्चों को पिताजी अपनी बांहों और पीठ पर लादलाद कर घूमे हैं. इन के बीमार हो जाने पर भैयाभाभी भले ही सो जाएं लेकिन पिताजी इन के सिरहाने बैठे रातरात भर जागते, अपनी तबीयत खराब होने पर भी बच्चों की इच्छा से चलते, उन्हें बाहर घुमाने ले जाते. और आज वे ही बच्चे 3 दिन में ही अपने दादाजी की मौत का गम भूल कर अपने कमरे के निर्माण को ले कर कितने उत्साहित हो रहे हैं.

खैर, ये तो फिर भी बच्चे हैं जब बड़ों को ही किसी बात का लेशमात्र ही रंज नहीं है तो इन्हें क्या कहना. सब के सब उस कमरे की सजावट को ले कर ऐसे बातें कर रहे हैं मानो पिताजी के जाने की राह देख रहे थे कि कब वे जाएं और कब ये लोग उन के कमरे को हथिया कर उसे अपने मन मुताबिक बच्चों के लिए बनवा लें. यह तो पिताजी की तगड़ी पैंशन का लालच था, नहीं तो ये लोग तो कब का उन्हें वृद्धाश्रम में भिजवा चुके होते.

अंकिता से और अधिक वहां पर खड़ा नहीं रहा गया. उस ने रसोईघर में जा कर चाय बनाई और बूआ के पास आ कर बैठ गई.

पिताजी की मौत के बाद दुख के 8 दिन 8 युगों के समान बीते. भैयाभाभी के कमरे से आती खिलखिलाहटों की दबीदबी आवाजों से घावों पर नमक छिड़कने का सा एहसास होता था पर बूआ के सहारे वे दिन भी निकल ही गए. 9वें दिन से आडंबर भरी रस्मों की शुरुआत हुई तो अंकिता और बूआ दोनों ही बिलख उठीं.

9वें दिन से रूढि़वादी रस्मों की शुरुआत के साथ श्राद्ध पूजा में पंडितों ने श्लोकों का उच्चारण शुरू किया तो बूआ और अंकिता दोनों की आंखों से आंसुओं की धाराएं बहने लगीं. हर श्लोक में पंडित अंकिता के पिता के नाम ‘रमेश’ के आगे प्रेत शब्द जोड़ कर विधि करवा रहे थे. हर श्लोक में ‘रमेश प्रेतस्य शांतिप्रीत्यर्थे श… प्रेतस्य…’ आदि.

व्यक्ति के नाम के आगे बारबार ‘प्रेत’ शब्द का उच्चारण इस प्रकार हो रहा था मानो वह कभी भी जीवित ही नहीं था, बल्कि प्रेत योनि में भटकता कोई भूत था. अपने प्रियजन के नाम के आगे ‘प्रेत’ शब्द सुनना उस की यादों के साथ कितना घृणित कार्य लग रहा था. अंकिता से वहां और बैठा नहीं गया. वह भाग कर पिताजी के कमरे में आ गई और उन की शर्ट को सीने से लगा कर फूटफूट कर रो दी.

कैसे हैं धार्मिक शास्त्र और कैसे थे उन के रचयिता? क्या उन्हें इनसानों की भावनाओं से कोई लेनादेना नहीं था? जीतेजागते इनसानों के मन पर कुल्हाड़ी चलाने वाली भावहीन रूढि़यों से भरे शास्त्र और उन की रस्में, जिन में मानवीय भावनाओं की कोई कद्र नहीं. आडंबर से युक्त रस्मों के खोखले कर्मकांड से भरे शास्त्र.

धार्मिक कर्मकांड समाप्त होने के बाद जब पंडित चले गए तब अंकिता अपने आप को संभाल कर बाहर आई. भैया और उन के बेटे का सिर मुंडा हुआ था. रस्मों के मुताबिक 9वें दिन पुत्र और पौत्र के बाल निकलवा देते हैं. उन के घुटे सिर को देख कर अंकिता का दुख और गहरा हो गया. कैसी होती हैं ये रस्में, जो पलपल इनसान को हादसे की याद दिलाती रहती हैं और उस का दुख बढ़ाती हैं.

मानसून स्पेशल: उदासी की खाई- भाग 1

चेहरे की चमड़ी के रंग को चमका कर जैसे ही मैं वाश बेसिन के सामने से उठ कर हटा, पीछे किसी को खड़ा पा कर तेजी से पलटा. देखा तो सचमुच ऊषा ही मेरे सामने खड़ी थी. हक्काबक्का हो कर मैं कभी शानदार कपड़ों में सजीधजी उस की गुस्से भरी सुंदरता देख रहा था, तो कभी तेल, ग्रीस व धूल सने कपड़ों में लिपटे धुलेपुछे अपने हाथों को. मैं उस की ओर बदहवास नजरों से ताकता हुआ सहज होने की कोशिश करते हुए बोला, ‘‘चल कर औफिस में बैठो. मैं वहीं कपड़े बदल कर आता हूं. आज एक आदमी आया नहीं था, इसीलिए उस का काम करना पड़ गया. सो देख ही रही हो,

मेरा हुलिया कैसा बिगड़ गया है.’’ उसी ऊहापोह में ऊषा को अवाक छोड़ कर कपड़े बदलने के लिए मैं फिर से वर्कशौप में घुस गया. साथ ही, सोचता जा रहा था कि मैं ने तो कभी ऊषा को अपनी फैक्टरी का नाम तक नहीं बताया था. आज इसे क्या सूझी कि फैक्टरी के भीतर ही सीधे पहुंच गई. फैक्टरी के दरबान ने इसे रोका तक नहीं और न ही इसे कहीं औफिस में बिठा कर मुझे खबर ही किया. हो सकता है कि ऊषा ने ही उसे सारी बातें बतासमझा कर मुझे ‘चकित’ करने के लिए रोक दिया हो मुझे बुलाने से. बनठन कर जब मैं पहुंचा, तब ऊषा वहां थी ही नहीं. शायद,

उस ने मेरे बारे में सबकुछ किसी से पता कर लिया था. दौड़ता सा मैं चौड़ी सड़क के मोेड़ तक पहुंचा था. इधरउधर चारों ओर नजरें दौड़ा कर देखा, पर वह कहीं न दिखी. एक बार फिर खूब गौर से सब ओर देखा. हां, उसी नीम के हरेभरे पेड़ के नीचे वह सड़क पार करने के इंतजार में खड़ी थी. मैं ने खंखारते हुए तब कहा था, ‘‘2 मिनट के लिए भी रुकी क्यों नहीं? नाराज हो क्या? देखो, मैं तो कैसा दौड़ताहांफता आ रहा हूं तुम तक, तुम से मिलने, तुम्हारे साथ तुम्हारे घर तक चलने को.’’ ‘‘नीच, कमीने, धोखेबाज, चुप ही रहो अब. मैं आज की शाम, बल्कि जिंदगीभर के लिए बेइज्जत तो हो ही गई. बताओ, मैं अब अपने पिताजी को जा कर क्या जवाब दूं? तुम ने मेरी जिंदगी का सुनहरा सपना क्यों चूरचूर कर दिया? मैं क्या समझती थी कि तुम मुझे धोखा दे रहो हो,’’ नफरत की तड़पभरी चिनगारी आंखों में भरे उस ने आगे कहा, ‘‘एक मामूली मजदूर ही नहीं, लुटेरे भी हो तुम..

. जाओ, अपनी जिंदगी का रास्ता बदलो और अब मेरे पीछे कभी मत आना… ‘‘तुम ने मेरी जान बचाई थी कभी तो उस की कीमत इस तरह लेना चाहते थे? मुझ से कहे होते तो पिताजी से कह कर मैं तुम्हें हजारों रुपए दिलवा देती…’’ इतना बोल कर ही ऊषा का गुस्सा शांत न हो सका था. घायल शेरनी सी बिफरती हुई बोली थी वह, ‘‘तुम ने झूठ क्यों कहा मुझ से कि तुम एक इंजीनियर हो, जबकि तुम हो एक साधारण मजदूर से भी गएबीते एक खरादिए भर हो, चीकट कपड़े पहन कर काम करने वाला… परफ्यूम लगा लेने या ब्रांडेड कपड़े पहन लेने से कोई न तो इंजीनियर बन जाता है और न रईस या बड़ा आदमी. जरूर तुम किसी निचली जाति के भी हो, मेरी तरह राजपूत पिता की संतान नहीं. जाओ, आज से आग लगा दो अपनी सारी टीशर्टों को,’’ कह कर वह सड़क पार कर गई थी. सच तो यह?है कि ‘ऊषा’ मेरे जीवन की ‘अंधेरी रात’ बन गई थी. उस समय ऐसा लग रह था, जैसे किसी ने मेरा दिल मुट्ठी में भींच रखा हो.

मानसून स्पेशल: आंचल की छांव – भाग 1

दोपहर के 2 बज रहे थे. रसोई का काम निबटा कर मैं लेटी हुई अपने बेटे राहुल के बारे में सोच ही रही थी कि किसी ने दरवाजे की घंटी बजा दी. कौन हो सकता है? शायद डाकिया होगा यह सोचते हुए बाहर आई और दरवाजा खोल कर देखा तो सामने एक 22-23 साल की युवती खड़ी थी.

‘‘आंटी, मुझे पहचाना आप ने, मैं कंचन. आप के बगल वाली,’’ वह बोली.

‘‘अरे, कंचन तुम? यहां कैसे और यह क्या हालत बना रखी है तुम ने?’’ एकसाथ ढेरों प्रश्न मेरे मुंह से निकल पड़े. मैं उसे पकड़ कर प्यार से अंदर ले आई.

कंचन बिना किसी प्रश्न का उत्तर दिए एक अबोध बालक की तरह मेरे पीछेपीछे अंदर आ गई.

‘‘बैठो, बेटा,’’ मेरा इशारा पा कर वह यंत्रवत बैठ गई. मैं ने गौर से देखा तो कंचन के नक्श काफी तीखे थे. रंग गोरा था. बड़ीबड़ी आंखें उस के चेहरे को और भी आकर्षक बना रही थीं. यौवन की दहलीज पर कदम रख चुकी कंचन का शरीर बस, ये समझिए कि हड्डियों का ढांचा भर था.

मैं ने उस से पूछा, ‘‘बेटा, कैसी हो तुम?’’

नजरें झुकाए बेहद धीमी आवाज में कंचन बोली, ‘‘आंटी, मैं ने कितने पत्र आप को लिखे पर आप ने किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया.’’

मैं खामोश एकटक उसे देखते हुए सोचती रही, ‘बेटा, पत्र तो तुम्हारे बराबर आते रहे पर तुम्हारी मां और पापा के डर के कारण जवाब देना उचित नहीं समझा.’

मुझे चुप देख शायद वह मेरा उत्तर समझ गई थी. फिर संकोच भरे शब्दों में बोली, ‘‘आंटी, 2 दिन हो गए, मैं ने कुछ खाया नहीं है. प्लीज, मुझे खाना खिला दो. मैं तंग आ गई हूं अपनी इस जिंदगी से. अब बरदाश्त नहीं होता मां का व्यवहार. रोजरोज की मार और तानों से पीडि़त हो चुकी हूं,’’ यह कह कर कंचन मेरे पैरों पर गिर पड़ी.

मैं ने उसे उठाया और गले से लगाया तो वह फफक पड़ी और मेरा स्पर्श पाते ही उस के धैर्य का बांध टूट गया.

‘‘आंटी, कई बार जी में आया कि आत्महत्या कर लूं. कई बार कहीं भाग जाने को कदम उठे किंतु इस दुनिया की सचाई को जानती हूं. जब मेरे मांबाप ही मुझे नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं तो और कौन देगा मुझे अपने आंचल की छांव. बचपन से मां की ममता के लिए तरस रही हूं और आखिर मैं अब उस घर को सदा के लिए छोड़ कर आप के पास आई हूं वह स्पर्श ढूंढ़ने जो एक बच्चे को अपनी मां से मिलता है. प्लीज, आंटी, मना मत करना.’’

उस के मुंह पर हाथ रखते हुए मैं ने कहा, ‘‘ऐसा दोबारा भूल कर भी मत कहना. अब कहीं नहीं जाएगी तू. जब तक मैं हूं, तुझे कुछ भी सोचने की जरूरत नहीं है.’’

उसे मैं ने अपनी छाती से लगा लिया तो एक सुखद एहसास से मेरी आंखें भर आईं. पूरा शरीर रोमांचित हो गया और वह एक बच्ची सी बनी मुझ से चिपकी रही और ऊष्णता पाती रही मेरे बदन से, मेरे स्पर्श से.

मैं रसोई में जब उस के लिए खाना लेने गई तो जी में आ रहा था कि जाने क्याक्या खिला दूं उसे. पूरी थाली को करीने से सजा कर मैं बाहर ले आई तो थाली देख कंचन रो पड़ी. मैं ने उसे चुप कराया और कसम दिलाई कि अब और नहीं रोएगी.

वह धीरेधीरे खाती रही और मैं अतीत में खो गई. बरसों से सहेजी संवेदनाएं प्याज के छिलकों की तरह परत दर परत बाहर निकलने लगीं.

कंचन 2 साल की थी कि काल के क्रूर हाथों ने उस से उस की मां छीन ली. कंचन की मां को लंग्स कैंसर था. बहुत इलाज कराया था कंचन के पापा ने पर वह नहीं बच पाई.

इस सदमे से उबरने में कंचन के पापा को महीनों लग गए. फिर सभी रिश्तेदारों एवं दोस्तों के प्रयासों के बाद उन्होंने दूसरी शादी कर ली. इस शादी के पीछे उन के मन में शायद यह स्वार्थ भी कहीं छिपा था कि कंचन अभी बहुत छोटी है और उस की देखभाल के लिए घर में एक औरत का होना जरूरी है.

शुरुआत के कुछ महीने पलक झपकते बीत गए. इस दौरान सुधा का कंचन के प्रति व्यवहार सामान्य रहा. किंतु ज्यों ही सुधा की कोख में एक नए मेहमान ने दस्तक दी, सौतेली मां का कंचन के प्रति व्यवहार तेजी से असामान्य होने लगा.

सुधा ने जब बेटी को जन्म दिया तो कंचन के पिता को विशेष खुशी नहीं हुई, वह चाह रहे थे कि बेटा हो. पर एक बेटे की उम्मीद में सुधा को 4 बेटियां हो गईं और ज्योंज्यों कंचन की बहनों की संख्या बढ़ती गई त्योंत्यों उस की मुसीबतों का पहाड़ भी बड़ा होता गया.

आएदिन कंचन के शरीर पर उभरे स्याह निशान मां के सौतेलेपन को चीखचीख कर उजागर करते थे. कितनी बेरहम थी सुधा…जब बच्चों के कोमल, नाजुक गालों पर मांबाप के प्यार भरे स्पर्श की जरूरत होती है तब कंचन के मासूम गालों पर उंगलियों के निशान झलकते थे.

सुधा का खुद की पिटाई से जब जी नहीं भरता तो वह उस के पिता से कंचन की शिकायत करती. पहले तो वह इस ओर ध्यान नहीं देते थे पर रोजरोज पत्नी द्वारा कान भरे जाने से तंग आ कर वह भी बड़ी बेरहमी से कंचन को मारते. सच ही तो है, जब मां दूसरी हो तो बाप पहले ही तीसरा हो जाता है.

मानसून स्पेशल: उदासी की खाई

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