मैं गम की मारी नहीं – भाग 2

रास्ते में उस औरत ने दीपक को यह कह कर चौंकाया था, ‘मैं रोज उसी समय बस स्टौप पर पहुंचती हूं.’

यह सुन कर दीपक ने मोटरसाइकिल धीमी कर ली थी. औरत का साथ सफर में अच्छा होता है. सफर छोटा हो या बड़ा, मजे में कट जाता है.

‘‘आप का एक महीने में किराए का 16-17 सौ रुपए तो खर्च हो जाता होगा?’’ दीपक ने पूछा था.

‘‘हां, इतना तो हो ही जाता है.’’

‘‘आप को वहां पर कौन सा ग्रेड मिलता है?’’

‘‘ट्रेंड गे्रड.’’

‘‘यानी साढ़े 6 हजार रुपए महीना?’’

‘‘प्रोविडैंट फंड, ईएसआई और

20 फीसदी बोनस. कटकटा कर 56 सौ रुपए मिल जाते हैं.’’

‘‘अच्छा है, पक्की नौकरी है. आप सारा खर्च कर डालो, पर सरकारी खाते में प्रोविडैंट फंड के रूप में हर महीने आप के दोढाई हजार रुपए जमा होते

ही हैं. ऊपर से साढ़े 8 फीसदी ब्याज… जिंदगी का यह सब से बड़ा सहारा है.’’

‘‘इसलिए ही तो मैं नौकरी कर रही हूं, ईएसआई अस्पताल से मुफ्त इलाज हो जाता है, दवाएं मिल जाती हैं. सालभर बाद साढ़े 8 हजार रुपए बोनस मिल जाता है, घर का सारा सामान और कपड़ालत्ता आ जाता है.’’

‘‘आप अगर उसी समय पर बस स्टौप पहुंचती हों तो देख लिया करो कि मैं आ रहा हूं कि नहीं. उस समय आप मेरी मोटरसाइकिल पर बैठ कर मायापुरी पहुंच सकती हैं और आप का किराया भी बच सकता है,’’ दीपक बोला था.

‘‘ठीक है,’’ उस ने दबी जबान से कहा था.

इस के बाद जब भी दीपक घर से निकला, गली के छोर पर वह नहीं मिली. बस स्टौप या तो खाली होता या फिर 9 बजे जाने वाली बस के इंतजार में 4-6 लोग खड़े दिखाई देते.

दीपक सोचता, ‘शायद उसे कोई दूसरा लिफ्ट देने वाला मिल जाता हो और वह उस के साथ निकल जाती हो?’

फिर वह सोचता, ‘ऐसा नहीं हो सकता.’

एकएक कर के काफी दिन बीत गए. दीपक के मन से पहले दिन की याद भी निकल रही थी. वह रोजाना गली के छोर वाले बस स्टौप के पास मोटरसाइकिल धीमी कर लेता था कि शायद वह खड़ी हो, पर नहीं होती थी.

उस दिन भी उस औरत ने दीपक से कहा था, ‘किसी पराए मर्द के साथ मोटरसाइकिल पर जाने के लिए बड़ा दिल होना चाहिए. मैं एक औरत हूं, और कोई औरत पराए मर्द के साथ बैठे, बड़ा हिम्मत का काम है.’’

‘‘आज यह हिम्मत कहां से आई?’’ दीपक ने पूछा था.

‘‘आज मजबूरी बन गई.’’

‘‘और आगे?’’

‘‘अब हिचक दूर भाग गई,’’ कह कर वह शरमा गई थी.

‘‘वह कैसे?’’

‘‘पता लग गया कि आप भले और नेक इनसान हैं.’’

‘‘जान कर खुशी हुई कि आप को लगा कि दुनिया एकजैसी नहीं है.’’

इन बातों को महीनाभर हो चला था. उस सुबह दीपक समय से कुछ पहले ही उठ गया था.

पत्नी ने टोका था, ‘‘आजकल नींद नहीं आती आप को. जल्दी उठ जाते हैं. लो, चाय पीओ.’’

‘‘अच्छी पत्नी के यही लक्षण हैं कि वह पति के मन को समझे,’’ चाय का घूंट पी कर दीपक ने कहा था, ‘‘बहुत बढि़या, अच्छी चाय के लिए थैंक्स.’’

पत्नी खिलखिला कर हंस दी थी.

दीपक को नाश्ते में आलू के परांठे और आम का अचार मिला था. खाने में बड़ा मजा आया था.

पत्नी ने टिफिन मोटरसाइकिल की सीट पर रखते हुए कहा था, ‘‘आलूमटर की सूखी सब्जी है.’’

‘‘क्या बात है? आज तो खाने में मजा आएगा. तुम मेरा इसी तरह खयाल रखती रहो,’’ दीपक बोला.

‘‘बातें बनाना तो कोई तुम से सीखे,’’ पत्नी ने प्यार भरा उलाहना दिया था.

दीपक जैसे ही मेन गली के छोर वाले बस स्टौप पर पहुंचा, तो सड़क पर मुड़ते ही किनारे पर वह औरत खड़ी मिल गई.

उस ने अपने हाथ के इशारे से मोटरसाइकिल रुकवाई और चुपचाप पीछे बैठ गई. कुछ खोईखोई, आंखें मानो सोईसोई, अलसाई सी.

दीपक ने भी बिना इधरउधर देखे मोटरसाइकिल को तीसरे गियर में डाल दिया. दरअसल, वह रोजाना के समय से 10 मिनट लेट निकला था. बीच में वह औरत मिल गई. अगर तेज न चलता, तो वह लेट हो जाती.

भीड़ कुछ कम और सड़क साफ दिखी, तो दीपक ने पूछा, ‘‘तकरीबन एक महीने बाद मिली हो आप. क्या आप कहीं चली गई थीं?’’

‘‘नहीं, मैं कहीं नहीं गई थी,’’ उस ने लंबी सांस ली और बताया, ‘‘पति बीमार था. 25 दिन तक तो उस की सेवा में ईएसआई अस्पताल में लगी रही.’’

‘‘क्या हो गया था उन्हें, जो इतने दिन लग गए?’’

‘‘मुंह का कैंसर था. अब वे इस दुनिया में नहीं हैं,’’ उस ने आह भरी, मानो किसी   झं  झट से छुटकारा मिला हो, ‘‘25 साल तक निठल्ला रहा, शराब

पी, जुआ खेला और…’’ कहतेकहते वह रुक गई.

‘‘और क्या?’’ दीपक ने पूछा.

कुछ चुप्पी के बाद वह धीरे से बोली, ‘‘और… औरतबाजी की… बड़ा वैसा आदमी था… रात के अंधेरे में मु  झ से   झगड़ा करता था…’’

‘‘क्या?’’

‘‘मैं कमा कर खाती हूं और उस को खिलाती थी.’’

‘‘आप ने जो किया, अच्छा किया. लाज ही औरत की जिंदगी है और आप लाज की पक्की हैं.’’ कह कर दीपक थोड़ा हंस दिया.

 

मैं गम की मारी नहीं – भाग 3

‘‘अब खत्म हुई कहानी,’’ उस ने कुछ चुप रह कर कहा, ‘‘मेरी एक बेटी है और एक बेटा. उस के पढ़नेलिखने और बड़ा होने तक मैं नौकरी करूंगी, उस के बाद मेरा बेटा संभाल लेगा,’’ उस की आंखों में एक अजीब सी चमक थी, मानो कह रही थी, ‘मैं गम की मारी नहीं, चिंता की वजह जा चुका है.’

मैटल फोर्जिंग का बस स्टौप आ गया था. रैडलाइट से बाईं ओर मुड़ कर दीपक ने उसे उतार दिया और बोला, ‘‘अच्छा तो मैं चलता हूं, कल तो आएंगी ही आप?’’

दीपक ने गौर से उस का चेहरा देखा. वह शांत थी. उस के चेहरे पर गम की कोई शिकन नहीं थी, सिर्फ माथे की गोल बिंदी गुम थी.

‘‘मैं रोजाना आऊंगी. आप जैसे नेक इनसान मु  झे मिल गए, अब मेरे अंदर

डर की भावना खत्म हो गई. दुखसुख में सहारा ढूंढूंगी आप में,’’ कह कर वह मुसकरा दी.

दीपक ने कहा, ‘‘दुख हो या सुख, आप मु  झे जब भी याद करोगी, सेवा में हाजिर रहूंगा.’’

उस की आंखों में खुशी के आंसू तैर आए, ‘‘आप इनसान नहीं…’’ कह कर उस ने हाथ से उमड़ते आंसुओं को रोकने की नाकाम कोशिश की.

‘‘आप मु  झे इतना बड़ा मत बनाइए, इनसान ही रहूं तो अच्छा है,’’ कह

कर दीपक ने अपना हाथ हिलाया और मोटरसाइकिल को गियर में डाल दिया.

उस ने शीशे में देखा कि वह पीठ फेर कर जा रही थी. कुछ कदम चलने के बाद उस ने एक बार फिर पीछे मुड़ कर जरूर देखा था. ऊंचे पेड़ों के पत्ते फड़फड़ा रहे थे, मानो खुशी मना रहे हों.

नाक : रूपबाई के साथ आखिर क्या हुआ

मां की बात सुन कर रूपबाई ठगी सी खड़ी रह गई. उसे अपने पैरों के नीचे से धरती खिसकती नजर आई. उस के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला. रूपबाई ने तो समझा था कि यह बात सुन कर मां उस की मदद करेगी, समाज में फैली गंदी बातों से, लोगों से लड़ने के लिए उस का हौसला बढ़ाएगी और जो एक नई परेशानी उस के पेट में पल रहे बच्चे की है, उस का कोई सही हल निकालेगी. पर मां ने तो उस से सीधे मुंह बात तक नहीं की. उलटे लाललाल आंखें निकाल कर वे चीखीं, ‘‘किसी कुएं में ही डूब मरती. बापदादा की नाक कटा कर इस पाप को पेट में ले आई है, नासपीटी.’’

मां की बातें सुन कर रूपबाई जमीन पर बैठ गई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए. उसे केवल मां का ही सहारा था और मां ही उस से इस तरह नफरत करने लगेंगी, तो फिर कौन उस का अपना होगा इस घर में.

पिताजी तो उसी रामेश्वर के रिश्तेदार हैं, जिस ने जबरदस्ती रूपबाई की यह हालत कर दी. अगर पिताजी को पता चल गया, तो न जाने उस के साथ क्या सुलूक करेंगे. रूपबाई की मां सोनबाई जलावन लेने खेत में चली गई. रूपबाई अकेली घर के आंगन में बैठी आगे की बातों से डर रही थी. हर पल उस की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. उस की आंखों में आंसू भर आए थे. मन हो रहा था कि वह आज जोरजोर से रो कर खुद को हलका कर ले.

रामेश्वर रूपबाई का चाचा था. वह और रामेश्वर चारा लाने रोज सरसों के खेत में जाते थे. रामेश्वर चाचा की नीयत अपनी भतीजी पर बिगड़ गई और वह मौके की तलाश में रहने लगा.

एक दिन सचमुच रामेश्वर को मौका मिल गया. उस दिन आसपास के खेतों में कोई नहीं था. रामेश्वर ने मौका देख कर सरसों के पत्ते तोड़ती रूपबाई को जबरदस्ती खेत में पटक दिया. वह गिड़गिड़ाती रही और सुबकती रही, पर वह नहीं माना और उसे अपनी हवस का शिकार बना कर ही छोड़ा. घर आने के बाद रूपबाई के मन में तो आया कि वह मां और पिताजी को साफसाफ सारी बातें बता दे, पर बदनामी के डर से चुप रह गई.

इस के बाद रामेश्वर रोज जबरदस्ती उस के साथ मुंह काला करने लगा. इस तरह चाचा का पाप रूपबाई के पेट में आ गया.

कुछ दिन बाद रूपबाई ने महसूस किया कि उस का पेट बढ़ने लगा है. मशीन से चारा काटते समय उस ने यह बात रामेश्वर को भी बताई, ‘‘तू ने जो किया सो किया, पर अब कुछ इलाज भी कर.’’

‘‘क्या हो गया?’’ रामेश्वर चौंका. ‘‘मेरे पेट में तेरा बच्चा है.’’

‘‘क्या…?’’ ‘‘हां…’’

‘‘मैं तो कोई दवा नहीं जानता, अपनी किसी सहेली से पूछ ले.’’ अपनी किसी सहेली को ऐसी बात बताना रूपबाई के लिए खतरे से खाली नहीं था. हार कर उस ने यह बात अपनी मां को ही बता दी, पर मां उसे हिम्मत देने के बजाय उलटा डांटने लगीं.

शाम को रूपबाई का पिता रतन सिंह काम से वापस आ गया. वह दूर पहाड़ी पर काम करने जाता था. आते ही वह चारपाई पर बैठ गया. उसे देख कर रूपबाई का पूरा शरीर डर के मारे कांप रहा था. खाना खाने के बाद सोनबाई ने सारी बातें अपने पति को बता दीं.

यह सुन कर रतन सिंह की आंखें अंगारों की तरह दहक उठीं. वह चिल्लाया, ‘‘किस का पाप है तेरे पेट में?’’

‘‘तुम्हारे भाई का.’’ ‘‘रामेश्वर का?’’

‘‘हां, रामेश्वर का. तुम्हारे सगे भाई का,’’ सोनबाई दबी जबान में बोली. ‘‘अब तक क्यों नहीं बताया?’’

‘‘शर्म से नहीं बताया होगा, पर अब तो बताना जरूरी हो गया है.’’ इस बात पर रतन सिंह का गुस्सा थोड़ा शांत हुआ, फिर उस ने पूछा, ‘‘अब…?’’

‘‘अब क्या… किसी को पता चल गया, तो पुरखों की इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी.’’ ‘‘फिर…?’’

‘‘फिर क्या, इसे जहर दे कर मार डालो. गोली मेरे पास रखी हुई है.’’ ‘‘और रामेश्वर…’’

‘‘उस से कुछ मत कहो. वह तो मर्द है. लड़की मर जाए, तो क्या जाता है? ‘‘अगर दोनों को जहर दोगे, तो सब को पता चल जाएगा कि दाल में कुछ काला है.’’

‘‘तो बुला उसे.’’ सोनबाई उठी और दूसरे कमरे में सो रही रूपबाई को बुला लाई. वह आंखें झुकाए चुपचाप बाप की चारपाई के पास आ कर खड़ी हो गई.

रतन सिंह चारपाई पर बैठ गया. रूपबाई उस के पैरों पर गिर कर फफक कर रो पड़ी. रतन सिंह ने उस की कनपटी पर जोर से एक थप्पड़ मारते हुए कहा, ‘‘अब घडि़याली आंसू मत बहा. एकदम चुप हो जा और चुपचाप जहर की इस गोली को खा ले.’’

यह सुन कर रूपबाई का गला सूख गया. उसे अपने पिता से ऐसी उम्मीद नहीं थी. वह थरथर कांप उठी और अपने बाएं हाथ को कनपटी पर फेरती रह गई. झन्नाटेदार थप्पड़ से उस का सिर चकरा गया था. रात का समय था. सारा गांव सन्नाटे में डूबा हुआ था. अपनेअपने कामों से थकेहारे लोग नींद के आगोश में समाए हुए थे.

गांव में सिर्फ उन तीनों के अलावा एक रामेश्वर ही था, जो जाग रहा था. वह दूसरे कमरे में चुपचाप सारी बातें सुन रहा था. पिता की बात सुन कर कुछ देर तक तो रूपबाई चुप रही, फिर बोली, ‘‘जहर की गोली?’’

तभी उस की मां चीखी, ‘‘हां… और क्या कुंआरी ही बच्चा जनेगी? तू ने नाक काट कर रख दी हमारी. अगर ऐसा काम हो गया था, तो किसी कुएं में ही कूद जाती.’’ ‘‘मगर इस में मेरी क्या गलती है? गलती तो रामेश्वर चाचा की है. मैं उस के पैर पड़ी थी, खूब आंसू रोई थी, लेकिन वह कहां माना. उस ने तो जबरदस्ती…’’

‘‘अब ज्यादा बातें मत बना…’’ रतन सिंह गरजा, ‘‘ले पकड़ इस गोली को और खा जा चुपचाप, वरना गरदन दबा कर मार डालूंगा.’’ रूपबाई समझ गई कि अब उस का आखिरी समय नजदीक है. फिर शर्म या झिझक किस बात की? क्यों न हिम्मत से काम ले?

वह जी कड़ा कर के बोली, ‘‘मैं नहीं खाऊंगी जहर की गोली. खिलानी है, तो अपने भाई को खिलाओ. तुम्हारी नाक तो उसी ने काटी है. उस ने जबरदस्ती की थी मेरे साथ, फिर उस के किए की सजा मैं क्यों भुगतूं?’’ ‘‘अच्छा, तू हमारे सामने बोलना भी सीख गई है?’’ कह कर रतन सिंह ने उस के दोनों हाथ पकड़ कर उसे चारपाई पर पटक दिया.

सोनबाई रस्सी से उस के हाथपैर बांधने लगी. रूपबाई ने इधरउधर भागने की कोशिश की, चीखीचिल्लाई, पर सब बेकार गया. उस बंद कोठरी में उस की कोई सुनने वाला नहीं था. जब रूपबाई के हाथपैर बंध गए, तो वह अपने पिता से गिड़गिड़ाते हुए बोली, ‘‘मुझे मत मारिए पिताजी, मैं आप के पैर पड़ती हूं. मेरी कोई गलती नहीं है.’’

मगर रतन सिंह पर इस का कोई असर नहीं हुआ. रूपबाई छटपटाती रही. रस्सी से छिल कर उस की कलाई लहूलुहान हो गई थी. वह भीगी आंखों से कभी मां की ओर देखती, तो कभी पिता की ओर.

अचानक रतन सिंह ने रूपबाई के मुंह में जहर की गोली डाल दी. लेकिन उस ने जोर लगा कर गोली मुंह से बाहर फेंक दी. गोली सीधी रतन सिंह की नाक से जा टकराई. वह गुस्से से तमतमा गया. उस ने रूपबाई के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया. रूपबाई के गाल पर हाथ का निशान छप गया. उस का सिर भन्ना उठा. वह सोचने लगी, ‘आदमी इतना निर्दयी क्यों हो जाता है? वहां मेरे साथ जबरदस्ती बलात्कार किया गया और यहां इस पाप को छिपाने के लिए जबरदस्ती मारा जा रहा है. अब तो मर जाना ही ठीक रहेगा.’

मरने की बात सोचते ही रूपबाई की आंखों में आंसू भर आए. आंसुओं पर काबू पाते हुए वह चिल्लाई, ‘‘पिताजी, डाल दो गोली मेरे मुंह में, ताकि मेरे मरने से तुम्हारी नाक तो बच जाए.’’ रतन सिंह ने उस के मुंह में गोली डाल दी. वह उसे तुरंत निगल गई. पहले उसे नशा सा आया और फिर जल्दी ही वह हमेशा के लिए गहरी नींद में सो गई.

रतन सिंह और सोनबाई ने उस के हाथपैर खोले और उस की लाश को दूसरे कमरे में रख दिया. सारी रात खामोशी रही. रामेश्वर बगल के कमरे में अपने किए के लिए खुद से माफी मांगता रहा.

सुबह होते ही रतन सिंह और सोनबाई चुपके से रूपबाई के कमरे में गए और दहाड़ें मार कर रोने लगे. रामेश्वर भी अपने कमरे से निकल आया. फिर वे तीनों रोने लगे. रोनेधोने की आवाज सुन कर आसपास के लोग इकट्ठा हो गए कि क्या हो गया?

‘‘कोई सांप डस गया मेरी बच्ची को,’’ सोनबाई ने छाती पीटते हुए कहा और फिर वह दहाड़ें मार कर रो पड़ी.

गलती : अश्लील फोटो के दलदल में फंसी कविता

साढ़े 5 लाख रुपए कोई छोटी रकम नहीं होती. साढ़े 5 लाख तो क्या, उस के पास अभी साढ़े 5 हजार रुपए भी नहीं हैं और उसे धमकी मिली है साढ़े 5 लाख रुपए देने की. नहीं देने पर उस की तसवीर को उजागर करने की धमकी दी गई है.

उस ने अपने मोबाइल फोन में ह्वाट्सऐप पर उस तसवीर को देखा. उस के नंगे बदन पर उस का मकान मालिक सवार हो कर बेशर्मों की तरह सामने देख रहा था. साथ में धमकी भी दी गई थी कि इस तरह की अनेक तसवीरें और वीडियो हैं उस के पास. इज्जत प्यारी है तो रकम दे दो.

यह ह्वाट्सऐप मैसेज आया था उस की मकान मालकिन सारंगा के फोन से. एक औरत हो कर दूसरी औरत को वह कैसे इस तरह परेशान कर सकती है? अभी तक तो कविता यही जानती थी कि उस की मकान मालकिन सारंगा को इस बारे में कुछ भी नहीं पता. बस, मकान मालिक घनश्याम और उस के बीच ही यह बात है. या फिर यह भी हो सकता है कि सारंगा के फोन से घनश्याम ने ही ह्वाट्सऐप पर मैसेज भेजा हो.

कविता अपने 3 साल के बच्चे को गोद में उठा कर मकान मालकिन से मिलने चल दी. वह अपने मकान मालिक के ही घर के अहाते में एक कोने में बने 2 छोटे कमरों के मकान में रहती थी.

मकान मालकिन बरामदे में ही मिल गईं.

‘‘दीदी, यह क्या है?’’ कविता ने पूछा.

‘‘तुम्हें नहीं पता? 2 साल से मजे मार रही हो और अब अनजान बन रही हो,’’ मकान मालकिन बोलीं.

‘‘लेकिन, मैं ने क्या किया है? घनश्यामजी ने ही तो मेरे साथ जोरजबरदस्ती की है.’’

‘‘मुझे कहानी नहीं सुननी. साढ़े 5 लाख रुपए दे दो, मैं सारी तसवीरें हटा दूंगी.’’

‘‘दीदी, आप एक औरत हो कर…’’

‘‘फालतू बातें करने का वक्त नहीं है मेरे पास. मैं 2 दिन की मुहलत दे रही हूं.’’

‘‘लेकिन, मेरे पास इतने पैसे कहां से…’’

‘‘बस, अब तू जा. 2 दिन बाद ही अपना मुंह दिखाना… अगर मुंह दिखाने के काबिल रहेगी तब.’’

कविता परेशान सी अपने कमरे में वापस आ गई. उस के दिमाग में पिछले 2 साल की घटनाएं किसी फिल्म की तरह कौंधने लगीं…

कविता 2 साल पहले गांव से ठाणे आई थी. उस का पति रामप्रसाद ठेले पर छोटामोटा सामान बेचता था. घनश्याम के घर में उसे किराए पर 2 छोटेछोटे कमरों का मकान मिल गया था. वहीं वह अपने 6 महीने के बच्चे और पति के साथ रहने लगी थी.

सबकुछ सही चल रहा था. एक दिन जब रामप्रसाद ठेला ले कर सामान बेचने चला गया था तो घनश्याम उस के घर में आया था. थोड़ी देर इधरउधर की बातें करने के बाद उस ने कविता को अपने आगोश में भरने की कोशिश की थी.

जब कविता ने विरोध किया तो घनश्याम ने अपनी जेब से पिस्तौल निकाल कर उस के 6 महीने के बच्चे के सिर पर तान दी थी और कहा था, ‘बोल क्या चाहती है? बच्चे की मौत? और इस के बाद तेरे पति की बारी आएगी.’

कोई चारा न देख रोतीसुबकती कविता घनश्याम की बात मानती रही थी. यह सिलसिला 2 साल तक चलता रहा था. मौका देख कर घनश्याम उस के पास चला आता था. 1-2 बार कविता ने घर बंद कर चुपचाप अंदर ही पड़े रहने की कोशिश की थी, पर कब तक वह घर में बंद रहती. ऊपर से घनश्याम ने उस की बेहूदा तसवीर भी खींच ली थी जिन्हें वह सभी को दिखाने की धमकी देता रहता था.

इन हालात से बचने के लिए कविता ने कई बार अपने पति को घर बदलने के लिए कहा भी था पर रामप्रसाद उसे यह कह कर चुप कर देता था कि ठाणे जैसे शहर में इतना सस्ता और महफूज मकान कहां मिलेगा? वह सबकुछ कहना चाहती थी पर कह नहीं पाती थी.

पर आज की धमकी के बाद चुप रहना मुमकिन नहीं था. कविता की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. इतने पैसे जुटाना उस के बस में नहीं था. यह ठीक है कि रामप्रसाद ने मेहनत कर काफी पैसे कमा लिए हैं, पर इस लालची की मांग वे कब तक पूरी करते रहेंगे. फिर पैसे तो रामप्रसाद के खाते में हैं. वह एक दुकान लेने के जुगाड़ में है. जब रामप्रसाद को यह बात मालूम होगी तो वह उसे ही कुसूरवार ठहराएगा.

रामप्रसाद रोजाना दोपहर 2 बजे ठेला ले कर वापस आ जाता था और खाना खा कर एक घंटा सोता था. मुन्ने के साथ खेलता, फिर दोबारा 4 बजे ठेला ले कर निकलता और रात 9 बजे के बाद लौटता था.

‘‘आज खाना नहीं बनाया क्या?’’ रामप्रसाद की आवाज सुन कर कविता चौंक पड़ी. वह कुछ देर रामप्रसाद को उदास आंखों से देखती रही, फिर फफक कर रो पड़ी.

‘‘क्या हुआ? कोई बुरी खबर मिली है क्या? घर पर तो सब ठीक हैं न?’’ रामप्रसाद ने पूछा.

जवाब में कविता ने ह्वाट्सऐप पर आई तसवीर को दिखा दिया और सारी बात बता दी.

‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं?’’ रामप्रसाद ने पूछा.

कविता हैरान थी कि रामप्रसाद गुस्सा न कर हमदर्दी की बातें कर रहा है. इस बात से उसे काफी राहत भी मिली. उस ने सारी बातें रामप्रसाद को बताईं कि किस तरह घनश्याम ने मुन्ने के सिर पर रिवौल्वर सटा दिया था और उसे भी मारने की बात कर रहा था.

रामप्रसाद कुछ देर सोचता रहा, फिर बोला, ‘‘इस में तुम्हारी गलती सिर्फ इतनी ही है कि तुम ने पहले ही दिन मुझे यह बात नहीं बताई. खैर, बेटे और पति की जान बचाने के लिए तुम ने ऐसा किया, पर इन की मांग के आगे झुकने का मतलब है जिंदगीभर इन की गुलामी करना. मैं अभी थाने में रिपोर्ट लिखवाता हूं.’’

रामप्रसाद उसी वक्त थाने जा कर रिपोर्ट लिखा आया. जैसे ही घनश्याम और उस की पत्नी को इस की भनक लगी वे घर बंद कर फरार हो गए.

कविता ने रात में रामप्रसाद से कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो. मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई.’’

‘‘माफी की कोई बात ही नहीं है. तुम ने जो कुछ किया अपने बच्चे और पति की जान बचाने के लिए किया. गलती बस यही कर दी तुम ने कि सही समय पर मुझे नहीं बताया. अगर पहले ही दिन मुझे बता दिया होता तो 2 साल तक तुम्हें यह दर्द न सहना पड़ता.’’

कविता को बड़ा फख्र हुआ अपने पति पर जो इन हालात में भी इतने सुलझे तरीके से बरताव कर रहा था. साथ ही उसे अपनी गलती का अफसोस भी हुआ कि पहले ही दिन उस ने यह बात अपने पति को क्यों नहीं बता दी. उस ने बेफिक्र हो कर अपने पति के सीने पर सिर रख दिया.

हारा हुआ : जिंदगी की जंग और दीनानाथ

भारत और पाकिस्तान की लड़ाई में बहादुरी दिखाने वाले दीनानाथ को इस बात का फख्र रहा कि वह जीत का गवाह बना, लेकिन बौर्डर पर बहादुरी दिखाने वाला अपने ही घर में जिंदगी की जंग में हार गया.

छोटे से कमरे के एक कोने पर खटिया पर खांसता दीनानाथ इतना लाचार तब भी नहीं हुआ था, जब दुश्मनों ने चारों तरफ से उसे घेर लिया था.

खटिया के सामने छोटी सी टेबल पर आईना रखा हुआ है. उस ने जब अपना चेहरा देखा, तो मन ही मन सोचने लगा कि क्या वह वही दीनानाथ है, जो सेना में जोश से भरा रहता था.

पिछले 2 महीने से उस ने दाढ़ी नहीं बनाई थी. वह खुद को नहीं पहचान पा रहा था. वह यादों में खो गया.

‘आओ मेरे जंग बहादुर. दुश्मन को मात देने वाले, तुम्हारा स्वागत है. मालूम है, तुम जब लड़ाई में गए थे, तो मैं ने मन ही मन सोचा था कि जब तुम दुश्मन को हरा कर घर लौटोगे, तभी मैं कुछ खाऊंगीपीऊंगी. आओ, हम साथसाथ भोजन करें,’ कहते हुए सुचित्रा दीनानाथ के गले लग गई थी.

दीनानाथ की शादी को अभी हफ्ताभर भी नहीं हुआ था कि बौर्डर पर जंग छिड़ गई और उसे जाना पड़ा था. जब वह जीत कर घर लौटा, तो पत्नी सुचित्रा समेत सभी खुश थे.

लेकिन सुचित्रा को तब बहुत दुख हुआ, जब उस की सास रूपा देवी और ससुर कानराज आपस में बतिया रहे थे.

रूपा देवी कह रही थीं, ‘अरे, अभी से इस ने मेरे बेटे पर ऐसा जादू किया है कि बस इसी से चिपका रहता है. मायके से तो कुछ लाई नहीं और यहां बेटे को अपने काबू में कर लिया.’

‘तुम चिंता मत करो, मैं इस कलमुंही का बंदोबस्त कर दूंगा,’ कानराज ने रूपा देवी को सम?ाया था.

‘अरे बेटा, कितने दिन की छुट्टी पर आया है?’ कानराज ने बेटे दीनानाथ से पूछा था.

दीनानाथ बोला था, ‘बस पिताजी, मैं कल सुबह जा रहा हूं.’

‘बेटा, तेरी मां की तबीयत ठीक नहीं है, कुछ दिन और रुक जाता.’

‘नहीं पिताजी, अब मुझे जाना होगा.’

‘हमारी बहू को तो यहीं रहने देना. अपने साथ मत ले जाना. तेरी मां की तबीयत ठीक नहीं है. मेरा भी अब बुढ़ापा आ गया है. बहू रहेगी, तो जी लगा रहेगा.’

‘‘अच्छा पिताजी, आप बहू को अपने पास ही रखो. मैं कुछ दिनों बाद उसे बुला लूंगा.’

इस के बाद दीनानाथ कश्मीर लौट गया था. फौज में रहते हुए पत्नी को साथ रखने की इजाजत नहीं थी, मगर इन दिनों दीनानाथ की ड्यूटी मैस में थी, इसलिए वह पत्नी को अपने साथ रख सकता था.

‘बहू, तुम्हें दीनानाथ ने कुछ पैसेवैसे दिए हैं कि नहीं?’ कानराज ने अपनी बहू सुचित्रा से पूछा था.

‘जी, 2 हजार रुपए दिए हैं.’

‘उन्हें हमें दे दो, तुम्हारा क्या काम?’

‘ले लीजिए बाबूजी, मु?ो जरूरत होगी, तो आप से मांग लूंगी,’ कह कर सुचित्रा ने वे रुपए कानराज को दे दिए.

‘पोस्टमैन,’ तभी पोस्टमैन की आवाज कानों में पड़ी.

‘बहू, देखो तो क्या लाया है पोस्टमैन?’ कानराज ने कहा था.

‘जी, अभी देखती हूं.’

पोस्टमैन रजिस्ट्री चिट्ठी लाया था. सुचित्रा ने दस्तखत कर के वह चिट्ठी

ले ली. वह चिट्ठी सुचित्रा के नाम की ही थी.

ससुर कानराज ने पूछा, ‘बहू, क्या है?’

‘जी, आप के बेटे की चिट्ठी है. मेरे नाम से आई है.’

‘हां, अब वह तुम्हें ही तो चिट्ठी लिखेगा. हम तो उस के कुछ हैं ही नहीं.’

‘नहीं बाबूजी, ऐसी बात नहीं है. उन्होंने आप का हालचाल भी पूछा है.’

‘और क्या लिखा है मेरे बेटे ने?’

‘बस, राजीखुशी के समाचार हैं.’

‘आ…आ…आ…ओ…ओ…उह…’ करते हुए सुचित्रा को उलटियां होने लगीं.

‘क्या हुआ बहू?’ रूपा देवी ने घबरा कर पूछा था.

‘जी, कुछ नहीं. बस, उलटियां हो रही हैं.’

‘अरे, यह तो अच्छी बात है. कहीं तुम… तुम मां बनने वाली हो.’

‘हो सकता है मांजी.’’

‘चलो, यह तो अच्छी खबर है. अब तुम कोई काम मत करना. हम घर के लिए एक बाई रख लेंगे.

‘हां, इस का खर्च तुम मायके से मंगा लेना. पहला बच्चा मायके में होता है, मगर तुम्हें मायके जाने की कोई जरूरत नहीं है, सारा खर्च यहीं मंगा लो,’ रूपा देवी बोली थीं.

‘मांजी, मेरे घर में बूढ़े पिताजी के अलावा भला कौन है, जो मेरी देखभाल करे. रही बात पैसे मंगवाने की, तो रिटायर चपरासी भला क्या दे सकता है?’

‘हम से जबान लड़ाती हो,’ कह कर रूपा देवी ने सुचित्रा के गाल पर तमाचा जड़ दिया था.

उस दिन सुचित्रा खूब रोई थी. रात को अपने कमरे में रोतेरोते ही उस ने दीनानाथ को चिट्ठी लिखी थी और उस में अपने पेट से होने और सासससुर के गलत बरताव के बारे में लिखा था.

दीनानाथ ने जवाब में लिखा था कि कुछ दिनों की बात है, सहन कर लो. बाद में मैं तुम्हें अपने साथ ले जाऊंगा. वह चिट्ठी कानराज के हाथ लग गई थी. उन्होंने चिट्ठी खोल कर पढ़ी, तो वे आगबबूला हो गए थे.

अब तो कानराज अपनी बहू पर और जुल्म करने लगे. एक दिन गुस्से में उन्होंने सुचित्रा को तेजाब पिला दिया था. इस से सुचित्रा की मौत हो गई और पेट में पल रहा बच्चा भी मर गया था.

पुलिस की तफतीश में यही सामने लाया गया कि सुचित्रा ने रात के अंधेरे में दवा सम?ा कर तेजाब पी लिया था.

दीनानाथ को जब इस मामले की जानकारी मिली, तो वह छुट्टी ले कर घर लौटने लगा. रास्ते में आतंकवादियों ने बम धमाका कर दिया, जिस से उस के दोनों पैर कट गए.

कई दिनों तक अस्पताल में रहने के बाद उसे छुट्टी तो मिल गई, मगर फौज की नौकरी से भी हमेशा के लिए रिटायर कर दिया गया.

दीनानाथ घर आया, तो रूपा देवी और कानराज ने यही बताया कि सुचित्रा ने दवा सम?ा कर तेजाब पी लिया था, जिस से उस की मौत हो गई.

दीनानाथ बहुत दुखी हुआ. उस को लगा कि काश, वह सुचित्रा को अपने साथ ले जाता. दुखी मन से उस के दिन गुजरने लगे.

कानराज का छोटा भाई मानमल मर चुका था. जिस मकान में कानराज और मानमल रहते थे, वह कानराज के नाम पर था.

मानमल के 2 बेटे देवेंद्र और विजेंद्र थे. वे दोनों लंबे समय से कानराज से वह मकान अपने नाम करने की मांग कर रहे थे. ऐसा नहीं करने से उन में अनबन रहने लगी थी.

जब तक दीनानाथ फौज में था, तब तक देवेंद्र और विजेंद्र की उस से पंगा लेने की हिम्मत नहीं होती थी. जैसे ही उस के पैर जाते रहे और फौज की नौकरी छूटी, वे उस के घर आए और अचानक हमला कर दिया.

उन्होंने कानराज और रूपा देवी के पैरों में गोली मार दी. जान से मारने की धमकी देने के बाद उन्होंने कानराज से मकान के सभी कागजात अपने नाम करा लिए. जातेजाते उन्होंने कानराज और रूपा देवी के सीने में भी गोली मार दी.

मरने से पहले कानराज और रूपा देवी ने अपनी बहू सुचित्रा के साथ जो गलत बरताव किया था, उस की हकीकत दीनानाथ के सामने बयां कर दी.

पुरानी बातें सोचतेसोचते दीनानाथ अपनी लाचारी पर आंसू बहा रहा था.

अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई.

‘‘कौन है? अंदर आ जाओ, दरवाजा खुला है,’’ दीनानाथ बोला.

वह सुशील था, उस का पड़ोसी. वह उस के लिए खाना लाया था.

दीनानाथ रो रहा था. सुशील ने पूछा, तो वह बोला, ‘‘पुरानी यादों में खो गया था. बौर्डर पर दुश्मनों को मात देने वाला दीनानाथ जिंदगी की जंग में हार गया.’’

बौर्डर पर जंग जीतने पर जो मैडल मिले थे, उन्हें देख कर वह सुशील से बोला, ‘‘ये मैडल बचे हैं, इन्हें बेच दो और मुझे जहर ला कर दे दो. मैं अब जीना नहीं चाहता.

‘‘एक फौजी के लिए हारी हुई जिंदगी मौत से भी बदतर होती है. अब मैं जीना नहीं चाहता. मैं हार गया हूं.’’

उस रात का सच : जब महेंद्र का हुआ तबादला

महेंद्र को यकीन था कि हरिद्वार थाने में वह ज्यादा दिनों तक थानेदार के पद पर नहीं रहेगा, इसीलिए नोएडा के थाने में तबादला होते ही उस ने अपना बोरियाबिस्तर बांधा और रेलवे स्टेशन चला आया.

रेल चलते ही हरिद्वार में गुजारे समय की यादें महेंद्र के सामने एक फिल्म की तरह गुजरने लगीं.

दरअसल हुआ ऐसा था कि महेंद्र ने रुड़की थाने में रहते हुए वहां के एक साधु द्वारा वहीं के लोकल नेताओं को लड़कियों के साथ मौजमस्ती कराते रंगे हाथों पकड़ा था.

यकीन मानिए, उन नेताओं को थाने में लाए उसे 10 मिनट भी नहीं हुए थे कि डीएसपी साहब का फोन आ गया कि फलांफलां नेता को फौरन रिहा कर दो.

महेंद्र बड़े अफसर का आदेश मानने को मजबूर था, इसलिए उसे उन नेताओं को फौरन रिहा करना पड़ा.

चूंकि वे नेता सत्ताधारी दल से जुड़े थे, इसलिए उन्होंने महेंद्र का तबादला हरिद्वार थाने में करा दिया.

हरिद्वार थाने में कुछ दिन महेंद्र चुपचाप बैठा अपना काम करता रहा, लेकिन जब एक दिन थाने में बैठ कर वह पुरानी फाइलें देख रहा था, तभी एक फाइल पर जा कर उस की नजर रुक गई.

महेंद्र ने फाइल में दर्ज रिपोर्ट पढ़ी. उस रिपोर्ट में लिखा था, ‘गंगाघाट आश्रम में रहने वाली गंगाबाई आश्रम की तिजोरी से 10 हजार रुपए चुरा कर भागी.’

उसी फाइल के अगले पेज पर उस आश्रम के महंत और उस के एक शिष्य का बयान था.

‘उस रात हम दोनों साधना करने के लिए पास की पहाड़ी पर बने मंदिर में गए थे. चूंकि इस बात की जानकारी गंगाबाई को थी, इसी बात का फायदा उठा कर उस ने हमारे कमरे से तिजोरी की चाबी चुराई और उस में रखे 10 हजार रुपए चुरा कर भाग गई. आश्रम से एक रजाई भी गायब है.’

महेंद्र ने जब यह रिपोर्ट पढ़ी, तो उसे इस में कुछ गोलमाल लगा. उस ने तभी सबइंस्पैक्टर राकेश को बुलाया और उस से पूछा,  ‘‘राकेश, गंगाघाट आश्रम में हुई चोरी की तहकीकात क्यों नहीं की गई?’’

राकेश ने जवाब दिया,  ‘‘सर, थानेदार साहब ने मु झ से कहा था कि आश्रम का महंत इस मामले की जांच की तहकीकात में मदद नहीं कर रहा है, इसलिए मामला इसे ऐसे ही पड़ा रहने दो.’’

राकेश के जाने के बाद महेंद्र को लगा कि हो न हो, इस मामले में कुछ राज जरूर है, जो महंत छिपा रहा है.

इस के बाद महेंद्र ने आश्रम पर पैनी नजर रखनी शुरू कर दी.

एक दिन शाम को महेंद्र गंगाघाट आश्रम के सामने वाले होटल में बैठा था. उस की नजर आश्रम के गेट पर थी. उस ने देखा कि कुछ औरतें आश्रम के अंदर गई हैं और तकरीबन एक घंटे बाद बाहर निकलीं.

यह देख कर महेंद्र सोच में पड़ गया कि ये औरतें इतनी देर तक आश्रम में क्या कर रही थीं?

जैसे ही वे औरतें आश्रम से

बाहर निकल कर होटल के पास आईं, तभी महेंद्र ने उन में से

एक औरत से पूछा,  ‘‘बहनजी, क्या आश्रम में बहुत से मंदिर हैं, जो दर्शन करने के लिए बहुत देर लगती है?’’

वह औरत हंसी और बोली,  ‘‘भैया, आश्रम में तो एक भी मंदिर नहीं है. हम तो महंतजी के पास गई थीं. वे  लाइलाज बीमारियों का इलाज भी मुफ्त में करते हैं.’’

महेंद्र ने आगे पूछा,  ‘‘बहनजी, आप इन महंतजी के आश्रम में कब से आ रही हैं?’’

वह औरत बोली,  ‘‘आज तो मैं दूसरी बार ही आई हूं, लेकिन महंतजी कहते हैं कि तुम्हारी बीमारी गंभीर है. तुम्हें ठीक होने में 4-5 महीने तो लग ही जाएंगे,’’ इतना कह कर वह औरत चली गई.

एक दिन शाम को महेंद्र ने एक पुलिस वाले को उस आश्रम के बाहर बैठा दिया और उस से कहा, ‘‘कोई औरत अंदर से बाहर आए, तो उसे ले कर तुम मेरे पास आना.’’

उस दिन रात के 8 बजे वह पुलिस वाला एक 30-32 साला औरत को ले कर महेंद्र के घर आया. महेंद्र ने उसे बैठने के लिए कहा.

‘‘क्या आप आश्रम में नौकरी करती हैं?’’ महेंद्र ने पूछा.

‘‘नहीं सर. दरअसल, मेरी शादी हुए तकरीबन 7 साल हो गए हैं और अभी तक मेरी गोद नहीं भरी है. मेरे महल्ले की एक औरत ने मु झे बताया था कि तू गंगाघाट आश्रम के महंत के पास जा. कुछ ही दिनों में तेरी गोद भर जाएगी, इसलिए आज मैं पहली बार वहां गई थी.’’

महेंद्र ने उस से यह जानकारी ली और उसे इस तसदीक के साथ जाने के लिए कहा, ‘‘मैं ने तुम से जो जानकारी ली है, यह बात तुम किसी को मत बताना.’’

उन दोनों औरतों से मिली जानकारी संकेत दे रही थी कि हो न हो, उस आश्रम में कोई  ‘अपराध का अड्डा’ जरूर चल रहा है. सो, महेंद्र ने गंगाघाट आश्रम में हुई चोरी की घटना की तहकीकात जोरशोर से शुरू कर दी.

एक बार जब महेंद्र इसी सिलसिले में महंत से मिलने आश्रम गया, तो उस ने उसे इस मामले पर हाथ ही नहीं रखने दिया और बोला,  ‘‘जाने भी दीजिए. 10 हजार रुपए कोई बड़ी बात नहीं है. आप तो चाय पीजिए.’’

उस की होशियारी देख महेंद्र के मन में शक और भी गहरा गया.

एक दिन रात को जब महेंद्र गश्त के लिए निकला तो देखा कि वह महंत अपने शिष्य के साथ पहाड़ी पर जा रहा था. उस के पहाड़ी पर जाते ही महेंद्र गंगाघाट आश्रम के अंदर पहुंचा. वहां उसे भोलाराम नाम का एक आदमी मिला.

‘‘तुम यहां क्या करते हो? ’’ महेंद्र ने पूछा.

‘‘सर, आप मु झे इस आश्रम

का मैनेजर भी कह सकते हैं और चौकीदार भी.

‘‘सच तो यह है कि यहां का सारा काम मैं ही संभालता हूं. अब मेरी उम्र 70 पार हो चली है, इसलिए समय काटने के लिए मैं यहां रहता हूं. मैं ईमानदार आदमी हूं, इसलिए महंत ने मु झे अपने पास रखा है,’’ उस आदमी ने बताया.

‘‘तुम ईमानदार हो और सच्चे भी लगते हो. अच्छा, यह बताओ कि तुम्हारे आश्रम में रहने वाली गंगाबाई कैसी औरती थी? क्या वाकई वह चोरी कर सकती है?’’ महेंद्र ने पूछा.

वह आदमी बोला,  ‘‘सर, मैं आप से  झूठ नहीं बोलूंगा. दरअसल, गंगाबाई इस आश्रम में  झाड़ूपोंछा लगाने का काम करती थी.

‘‘जब मैं नयानया इस आश्रम में आया था, तब गंगाबाई ने ही मु झे बताया था कि महंतजी का नित्यक्रम एकदम पक्का है. वे सुबह मु झ से एक गिलास दूध मंगवाते हैं, फिर उस में अपने पास रखे काजूबादाम और दूसरे मेवे मिलाते हैं और उसी का सेवन करते हैं. फिर दोपहर में केवल 2 रोटी खाते हैं. इसी तरह शाम को भी उन का यही नित्यक्रम रहता है.

‘‘उस दिन उस की यह बात सुन कर मु झे हंसी आ गई थी. तब गंगाबाई ने मु झ से पूछा भी था,  ‘भोला भैया, तुम्हें हंसी क्यों आई?’

‘‘सर, मु झे हंसी इसलिए आई

थी कि उस की बात सुन कर मैं

सोच में पड़ गया था कि एक दिन में 2-2 गिलास मेवे वाला दूध पी

कर यह महंत उसे हजम कैसे करता होगा? क्योंकि वह अपने कमरे से कभीकभार ही बाहर जाता है.

‘‘सर, गंगाबाई का पति इसी आश्रम में रहता था. मेरे यहां आने से पहले आश्रम का सारा काम वही देखता था. कुछ दिनों से मैं ने उस में एक बरताव देखा था कि वह रोजाना रात को शराब पी कर आश्रम में आने लगा था. तब मेरे मन में सवाल भी उठा था कि उस के पास शराब पीने के लिए पैसे कहां से आते हैं?

‘‘एक दिन मु झ से रहा नहीं गया और मैं ने गंगाबाई से पूछ ही लिया,  ‘तुम रोजाना अपने पति को शराब पीने के लिए पैसे क्यों देती हो?’

‘‘तब वह बोली थी,  ‘भोला भैया, मेरे पति को शराब पीने के लिए पैसे मैं नहीं देती हूं, बल्कि खुद महंतजी ही देते हैं.’’’

उस दिन उस आदमी के मुंह से ऐसी बातें सुन कर महेंद्र भी दंग रह गया था.

उस आदमी ने आगे बताया, ‘‘एक दिन जब रात को गंगाबाई का पति शराब पी कर आया, तब महंतजी ने उस की पिटाई की थी और आश्रम के गेट से उसे बाहर धकेलते हुए कहा था,  ‘तू रोज शराब पी कर आश्रम के नियमों को तोड़ता है. अब तू यहां नहीं रह सकेगा. आज के बाद तू मु झे कभी अपना मुंह मत दिखाना.’

‘‘सर, उस रात उस का पति जो इस आश्रम से गया, तो आज तक उस का पता नहीं चला कि वह कहां है? जिंदा भी है या नहीं?

‘‘गंगाबाई भी अपने पति के साथ  जाना चाहती थी, लेकिन उसी दिन महंत का एक शिष्य आश्रम में आया और उस ने महंतजी को कह कर उसे आश्रम से नहीं जाने दिया. महंत और उस का शिष्य रोजाना मेवे वाला दूध गंगाबाई के हाथों से पीते रहे.

‘‘एक दिन महंतजी ने मु झ से कहा,  ‘कुछ दिन तुम ऋषिकेश वाले आश्रम में जा कर रहो और वहां का इंतजाम देखो.’

‘‘सर, समय कब रुका है, जो रुकता. मैं एक महीने बाद दोबारा इस आश्रम में आ गया.

‘‘एक दिन सुबहसवेरे गंगाबाई अपने कमरे से बाहर निकली और बाथरूम में जा कर उलटियां करने लगी. जब उस की इस हरकत पर महंतजी और उन के शिष्य की नजर पड़ी, तब शिष्य बोला,  ‘गुरुजी, कुछ गड़बड़ लगती है. गंगा सुबह से कई बार उलटियां कर चुकी है. मु झे लगता है कि वह पेट से हो गई है.’

‘‘शिष्य के मुंह से ऐसी बात सुनते ही महंत के माथे पर पसीना आ गया. वे बोले, ‘जैसेजैसे इस का पेट बढ़ता जाएगा, अपने पाप का घड़ा लोगों के सामने आने लगेगा. फिर जो लोग हमें साधुसंन्यासी मान कर पूजते हैं, वे ही हमारा मुंह काला कर के सरेबाजार घुमाएंगे.’

‘‘सर, उस रात का सच आप को बता रहा हूं. वह अमावस की काली रात थी. रात को गंगाबाई उन्हें दूध देने उन के कमरे में गई, तभी उन्होंने उस के मुंह में कपड़ा ठूंसा, फिर गला दबा कर उस की हत्या कर दी. रात के अंधेरे में  महंत के शिष्य ने उस की लाश एक रजाई में लपेटी और उसे गंगा में बहा आया.

‘‘उस के बाद उन दोनों ने तिजोरी से रुपए निकाल कर उसे खुला छोड़ दिया, ताकि लगे कि यहां चोरी की वारदात हुई है.

‘‘सर, उस रात हुई हत्या और चोरी के बहुत से सुबूत मैं ने अपने पास महफूज रखे हैं. मेरी भी यही इच्छा थी कि साधु के रूप में छिपे इन अपराधी भेडि़यों को मैं सलाखों के पीछे देखूं, लेकिन जब आप के पहले के थानेदार ने इस केस में दिलचस्पी नहीं दिखाई, इसलिए मैं उन के सामने इन सुबूतों को नहीं लाया. अब मैं इस मामले से जुड़े सारे सुबूत आप को सौंप दूंगा.’’

‘‘अच्छा भोला भैया, यह बताओ कि यहां शाम ढले रोजाना कुछ औरतें लाइलाज बीमारी के इलाज के लिए आती हैं, कुछ गोद भर जाने की चाह में. इस का क्या राज है?’’ महेंद्र ने धीरे से पूछा.

भोला बोला,  ‘‘सर, यह महंत और उस का शिष्य भोलीभाली औरतों को उन की लाइलाज बीमारी को मुफ्त में ठीक करने के बहाने यहां बुलाते हैं. तकरीबन 2 महीने तक जड़ीबूटियों के नाम पर पहाड़ी पर लगे पेड़ों की डालियों को पीस कर उन्हें दूध में पिलाया जाता है और जब वे औरतें इस महंत पर पूरा विश्वास करने लगती हैं, तब बारीबारी से, एकएक को दूध में  नशे की गोलियां मिला कर बेहोश किया जाता है और फिर ये उन के जिस्म के साथ अपनी हवस पूरी करते हैं.’’

‘‘लेकिन, आश्रम में गोद भरने वाली ये औरतें किस आस पर आती हैं?’’ महेंद्र ने भोला से पूछा.

‘‘सर, यह महंत ऐसी हवा अपने बारे में फैलाता है कि गंगाघाट के आश्रम के महंत को सिद्धि प्राप्त हुई है और उन के आशीर्वाद से बां झ औरतों को भी बच्चे हो जाते हैं.

‘‘हमारा यह महंत गोद भरने की चाह रखने वाली औरतों को रात को आश्रम में बुलाता है, उन को 2-4 बार पूजापाठ और हवनों में बैठाता है, फिर एक  फल हाथ में दे कर उस के कान में धीरे से कहता है कि जब हम आदेश करें, तब इसे अपने मुंह में रखना. देखना, तुम्हारी गोद जल्दी ही भर जाएगी.

‘‘फिर उस औरत को महंत के कमरे के पास वाले अंधियारे कमरे में जाने के लिए कहा जाता है. वहां पहुंचते ही महंत का शिष्य उस औरत के कान में धीरे से कहता है, ‘आज तुम्हारी गोद भरने का  शुभ दिन है. देखना, आज चमत्कार होगा और महंतजी की कृपा से तुम्हारी गोद भर जाएगी. तुम इस फल को आंख बंद कर के खाती रहो.

‘‘जब वह औरत बिना कपड़ों में चमत्कार होने की राह देख रही होती है, तभी कभी यह महंत, तो कभी उस का शिष्य उस को उस अंधियारे कमरे में शिकार बनाते हैं. आखिर मेवे वाला दूध कभी तो अपना असर दिखाएगा ही न?

‘‘अपनी लुटी इज्जत को ढकने के चक्कर में ऐसी औरतें इन पाखंडियों की करतूत किसी को नहीं बतातीं, इसलिए इन की यह दुकानदारी चलती रहती है.’’

‘‘अगर मैं महंत के खिलाफ कोई कार्यवाही करूं, तो क्या तुम गवाही दोगे?’’ महेंद्र ने भोलाराम से पूछा.

‘‘सर, मैं यह सब लिख कर भी देने को तैयार हूं,’’ भोलाराम ने पूरे जोश के साथ कहा.

भोलाराम के बयान और उस के द्वारा दिए गए सुबूतों के आधार पर महेंद्र ने अगले ही दिन महंत और उस के शिष्य को गिरफ्तार कर लिया.

महंत और उस के शिष्य को गिरफ्तार हुए 2 घंटे भी नहीं हुए थे कि महेंद्र को आईजी और डीएसपी से संदेश मिलने शुरू हो गए कि उस महंत को तत्काल रिहा करो और उस के खिलाफ जो सुबूत हैं, उन्हें जला कर नष्ट कर दो.

जब महेंद्र ने आईजी साहब से कहा,  ‘‘सर, उस महंत के खिलफ मेरे पास पुख्ता सुबूत हैं.’’

तब आईजी बोले, ‘‘मिस्टर महेंद्र, मेरी बात सम झने की कोशिश करो. उस महंत का प्रभाव इतना ज्यादा है कि हम पर भी ऊपर से लगातार दबाव आ रहा है.’’

महेंद्र ने आईजी साहब से कहा,  ‘‘सर, मैं उन्हें रिहा नहीं कर सकता.’’

तब वे बोले, ‘‘फिर तुम मेरा यह और्डर भी सुन लो, तुम्हारा तबादला  नोएडा थाने में किया जाता है. तुम तत्काल नोएडा थाने में जा कर मु झे सूचना दो.’’

रेल एकदम से रुक गई. मालूम करने पर पता चला कि किसी ने चेन खींची थी. रेल के रुकते ही इंस्पैक्टर महेंद्र यादों के साए से बाहर निकला. तब भी उस के मन में यह एकदम पक्का था कि वह किसी भी थाने में क्यों न रहे, उस के काम करने का तरीका यही रहेगा, चाहे फिर तबादले कितने ही क्यों न होते रहें.

तेजतर्रार तिजोरी – रघुवीर ने अपनी बेटी का नाम तिजोरी क्यों रखा

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स्वाभिमान : पूजा के सपनों का राजकुमार

12वीं पास कर के पूजा ने कालेज में दाखिला लिया था. ट्यूशन पढ़ा कर वह अपनी फीस और कालेज के दूसरे खर्चे पूरे कर लेती थी और अपनी पढ़ाई के लिए भी समय निकाल लेती थी.

घर में कुल 6 लोगों का परिवार एक कमरे में रहता था. सब के तौलिएसाबुन एक ही थे. घर में दोनों समय भोजन मिलता था. नाश्ता सिर्फ रात की बची रोटी होती थी.

ऐसे में कभीकभार पूजा के चाचाचाची के आने पर उन के घर का माहौल किसी त्योहार से कम नहीं होता था. उन दिनों में परांठों की खुशबू, मिठाई के डब्बे और गरम चाय और पकौड़े घर के रूटीन को भंग करते थे. कभीकभी सारा परिवार चाचाचाची के साथ घूमनेफिरने या सिनेमा देखने भी चला जाता था.

पूजा की चाची का मायका इसी शहर में ही था, इसलिए चाची आतीजाती रहती थीं. वे बहुत अमीर कारोबारी की बेटी थीं और पूजा के चाचा का ब्याह चाची से इसीलिए हुआ था, क्योंकि चाचा का चयन एक पीसीएस के पद पर हो गया था.

पूजा भी अपने चाचा की तरह सरकारी अफसर बन कर अपने घर का कायाकल्प करना चाहती थी. अब उस की साधना पूरी होने का समय आ रहा था. वह बीए के आखिरी साल के इम्तिहान दे चुकी थी और प्रशासनिक सेवा की तैयारी कर रही थी.

इसी बीच चाची आई थीं और वे बहुत चिंतित दिख रही थीं. वजह, उन के मायके में ब्याह की तैयारी चल रही थी. उन का भतीजा अमेरिका से भारत लड़की देखने आ रहा था और उन के मायके का पुराना कुक अपने गांव चला गया था. अब उस परिवार को एक कुशल रसोइए की जरूरत थी, जो घर वालों के लिए उन की पसंद का खाना बना सके, साथ ही भरोसेमंद भी हो.

चाची ने पूजा की मां से कहा, ‘‘दीदी, पूजा को मेरे साथ भेज दो. पूजा अपने इम्तिहान की तैयारी वहां भी कर सकती है. कुछ दिनों की बात है. इस बीच जो भी रसोइया आएगा, उसे पूजा अपनी देखरेख में उस घर के हिसाब से ट्रेंड कर देगी.’’

पूजा की मां चाची को मना नहीं कर सकीं.

पूजा भी मन ही मन खुश हो गई कि कम से कम कुछ दिन के लिए उसे एक अलग कमरा मिल सकेगा, तो शायद वह देर रात तक जाग कर पढ़ सकती है. यहां तो सब की निगाहें टिकी रहती हैं कि कब लाइट बंद हो तो वे गहरी नींद में सो सकें.

पूजा चाची के साथ उन के मायके चल दी. रास्ते में चाची ने उसे कुछ कपड़े दिला दिए और घर का रूटीन और घर वालों की खानेपीने की पसंदनापसंद भी बता दी.

चाची का मायका किसी राजसी हवेली से कम ना था. पूजा को लगा कि उस के पूरे महल्ले जितना बड़ा तो उन का गार्डन ही था.

गरीब घर की लड़कियां खाना बनाना तो ऐसे सीख जाती हैं, जैसे चिडि़या के बच्चे उड़ना. पूजा ने खुशीखुशी किचन संभाल ली और जो रैसिपी उस ने कभी किताबों में पढ़ी थीं, उन्हें एकएक कर आजमाने लगी. 3 दिन में ही वह घर के सभी लोगों की पसंद से वाकिफ हो गई और इज्जत से बात करने के चलते नौकरों की फौज की भी चहेती बन गई.

आज रविवार था. सभी लोग आलोक को लेने एयरपोर्ट गए थे और घर में पूजा सब के लिए दोपहर का खाना बना रही थी, जिस में आलोक की पसंद के सब व्यंजन शामिल थे.

इतने में घंटी बजी और पूजा ने दरवाजे पर एक बहुत ही हैंडसम लड़के को देखा. उस नौजवान को वह नहीं पहचानती थी और लड़के ने भी खुद के घर में एक अजनबी लड़की को अपना परिचय देना ठीक नहीं समझा. पुराने माली को उस ने इशारे से कुछ भी बोलने के लिए मना कर दिया, जो पूजा को उस का परिचय देना चाह रहा था.

उस नौजवान को बाहर की बैठक में बैठने को कह कर पूजा अपने काम में बिजी हो गई. हां, उस ने मेहमान को चाय और नाश्ता भेज दिया था.

वह नौजवान आलोक था, जिसे इस खेल में मजा आने लगा था और उस ने सोचा कि इस सस्पैंस को बरकरार रखने में ज्यादा मजा है. घर वाले जब उसे यहां देखेंगे, तो वह एक अलग खुशी होगी. जो एयरपोर्ट से फ्लाइट कैंसिल हो जाने से उस के न आ पाने से दुखी हो कर लौट रहे होंगे.

हुआ भी बिलकुल वैसा ही. सब लोग आलोक को घर पर देख कर खुशी से झूम उठे, लेकिन चाची ने अकेले में पूजा की अच्छी खबर ली कि वह कितनी बेवकूफ है, जो घर के राजकुमार को पहचान नहीं सकी. वैसे, आलोक के फोटो जगहजगह लगे थे, पर शायद पूजा ने ही कभी गौर नहीं किया था.

अगले दिन आलोक को चाय देने गई पूजा ने अपनी कल की गलती

की माफी मांगी और फिर आलोक के पूछने पर उस ने अपना एक छोटा सा परिचय दिया.

उस के बाद पूजा ने गौर किया कि घर में किसी बात पर बड़ी संजीदगी से कोई चर्चा चल रही है. घर के सारे बड़े एक कमरे में शाम से जमे हुए थे.

देर रात चाची पूजा के कमरे में आईं. पूजा पढ़ रही थी. चाची बोलीं, ‘‘पूजा, आलोक ने तुझे पसंद किया है. वह तुझ से ब्याह कर के तुझे अमेरिका ले जाना चाहता है.’’

पूजा इम्तिहान के बीच में ऐसी किसी बात के लिए सोच भी नहीं सकती थी. आलोक जैसे अमीर लड़के को जीवनसाथी के रूप में देखना तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था.

चाची बोले ही चली जा रही थीं कि अगले शनिवार को वे लोग सगाई करना चाहते हैं. दीदी और भाई साहब को तेरे चाचाजी ने बता दिया है. और भी बहुतकुछ चाची ने बोला, पर पूजा कुछ सुन कर भी सुन नहीं पा रही थी. उस का दिमाग शून्य हो गया था.

तय कार्यक्रम के मुताबिक उन सब लोगों को पूजा के घर आना था और वहीं एक छोटे से समारोह में सगाई कर के वे पूजा को अपने साथ ले जाने वाले थे. बाद में मुंबई में धूमधाम से शादी और 20 दिन में पासपोर्टवीजा के साथ पूजा का आलोक के साथ अमेरिका जाना तय हुआ था.

सबकुछ परीकथा जैसा था. सखियां पूजा से जल रही थीं. पड़ोसी मन में कुढ़ रहे थे, पर सामने से बधाई देते नहीं थक रहे थे.

शाम 5 बजे तक उन्हें आना था, पर धीरेधीरे 9 बज गए और वे लोग पहुंचे ही नहीं. अब पूजा के पिताजी को चिंता होने लगी. फिर चाचा ने चाची को फोन किया तो पता चला कि वे लोग एक होटल में ठहरे हुए हैं. इस संकरी गली में फैली गंदगी को देख कर लौट गए हैं. अब वे लोग चाहते हैं कि पूजा का परिवार होटल में आ जाए, ताकि सगाई समारोह वहीं हो जाए.

पूजा के पिता कुछ दुखी हुए, फिर पूजा और उस की मां को बताने आए. सब सुन कर पूजा ने एक फैसला किया कि वह इस रिश्ते के लिए रजामंद नहीं है. जो इनसान पूजा के घर एक घंटे भी नहीं रुक सकता, वह उस इनसान के घर सारी जिंदगी कैसे रह सकती है. उसे समझते देर न लगी कि यह कोई रिश्ता नहीं हो रहा, बल्कि उसे उस के ही घर से अलग करने की साजिश है.

पूजा ने एक स्वाभिमानी की तरह इस रिश्ते के लिए न बोला और कपड़े बदल कर सब भाईबहनों को खाना परोसा. बेचारे बच्चे इतने स्वादिष्ठ भोजन को खाने के लिए कब से उतावले थे और पूजा मन ही मन सोच रही थी कि इस रिश्ते को ठुकरा कर उस ने अपना और अपने पिता का स्वाभिमान बचा लिया.

हम ने जिंदगी से यह तो नहीं मांगा था : बीए पास मजदूर

‘‘आप तो बीए पास हैं चचा, फिर मजदूरी क्यों करने लगे? कोई अच्छी सी नौकरी तलाशने की कोशिश क्यों नहीं की?’’ साथ में काम कर रहे एक नौजवान मजदूर के इस सवाल का बुजुर्ग हो रहे रघु ने कोई जवाब नहीं दिया.

छत की ढलाई के लिए लग रहे तख्ते की कील पर निशाना टिका कर जोर से हथौड़ा चलाते हुए रघु को लगा कि उस ने हथौड़ा कील पर नहीं, बल्कि खुद पर चला लिया हो. ऐसे सवाल उसे कील से चुभते थे.

बीए पास होने का अहम रघु के अंदर अपनी जवानी में आ गया था. पढ़लिख लेने के बाद तो वह लोगों को कुछ समझता ही नहीं था. इस अहम में उस ने अपने मांबाप को कभी यह नहीं कहा कि पढ़लिख कर अगर उसे कोई नौकरी मिली तो वह उन्हें कभी मजदूरी नहीं करने देगा, बल्कि उलटे उन के मजदूरी करने पर हमेशा उन्हें कोसता कि वह भूखा मर जाएगा, पर जिंदगी में कभी मजदूरी नहीं करेगा.

पढ़ालिखा होने के अहम में रघु ने कोई हुनर भी नहीं सीखा. शादी हो गई, बच्चे हो गए, फिर तो जिंदगी जीने के लिए कुछ न कुछ करना ही था. उसी अहम और मांबाप की नाराजगी की वजह से रघु की कोई नौकरी नहीं लगी और आखिर में जिंदगी गुजारने के लिए उसे भी मजदूरी करनी पड़ी.

‘‘देखो बेटा, बात ऐसी है कि जब जैसा तब तैसा, नहीं किया तो इनसान कैसा? अभी समय की यही मांग है कि मैं मजदूरी कर के अपने परिवार का पेट पालूं, तो वह मैं कर रहा हूं और तू अपने काम से काम रख,’’ रघु ने अभी भी अपने पढ़ेलिखे होने का सुबूत दार्शनिक बातों से दिया.

‘‘चचा, ननकू ने तो मैट्रिक कर ली है. अब उस को भी क्यों नहीं ले आते हो काम पर? सारा दिन घूमता रहता है.’’

‘‘अरे, उस को भी अहम ने घेर लिया है. कहता है कि परदेश जाएगा, हुनर सीखेगा. मेरी तरह मजदूरी नहीं करेगा. बिलकुल अपने बाप पर गया है,’’ गहरी सांस लेते हुए रघु ने कहा.

‘‘सही तो कहता है चचा, यहां मजदूरी करने में कोई इज्जत नहीं है. न काम का ठिकाना, न मजदूरी का. ऊपर से तुम ने इतना कर्जा ले लिया है कमेटी से ब्याज पर, हर हफ्ते किस्त देनी पड़ती है. उस को परदेश भेजो. वहां कुछ कमाएगा, तो आप का ही बोझ हलका होगा.’’

शाम को मिली मजदूरी ले कर रघु घर की ओर चला, तो ननकू रास्ते में ही दिख गया. बस, फिर क्या था. दिन में कील से चुभे सवालों की भड़ास गांव वालों के सामने ही ननकू पर निकाल दी.

नतीजतन, रात के 10 बज गए, पर ननकू घर नहीं आया. मां का दिल बैठा जाता था और धीरेधीरे रघु को भी घबराहट होने लगी. उस ने डर के मारे घर में बताया भी नहीं कि रास्ते में उस ने ननकू को डांटा था. रातभर मांबाप सोए नहीं.

चाहे जो भी हो जाए, देरसवेर ननकू घर जरूर आ जाया करता था, पर इस बार वह घर नहीं आया. सब परेशान. गांव के उस के दोस्तयारों से पता चला कि उस के कुछ दोस्त परदेश जाने वाले थे, रात में वह उन्हीं के साथ था.

मां का कलेजा धक से रह गया. पक्का वह चला गया अपने दोस्तों के साथ. रघु के अंदर मिलेजुले भाव उमड़घुमड़ रहे थे. थोड़ा डर था कि इतनी कम उम्र और गुस्से में परदेश चला गया. थोड़ी खुशी इसलिए थी कि कुछ कमाएगा तो घर के हालात थोड़े अच्छे होंगे.

ट्रेन के जनरल डब्बे में खिड़की की तरफ बैठा ननकू पौ फटने के साथ आ रही सूरज की रोशनी में नई उम्मीदें देख रहा था. अंदर से वह इतना खुश था मानो जैसे किसी जेल की कैद से रिहा हुआ हो. आज उस का अपना ही बापू दुनिया का सब से जालिम आदमी लग रहा था.

ट्रेन की तेज रफ्तार की तरह उस के सपने भी तेजी से बढ़े चले जा रहे थे. घर के हालात और बापू की किचकिच की वजह से वह हमेशा घर से भाग जाना चाहता था.

हिंदी फिल्मों की दुनिया में खोया रहने वाला ननकू हमेशा यही सोचता था कि घर से भागने के बाद वह तब तक घर वापस नहीं आएगा, जब तक कि बहुत बड़ा आदमी नहीं बन जाता.

बड़ा आदमी बनने के बाद अपनी बड़ी सी गाड़ी में शहर से गांव आएगा, अपने दरवाजे पर उतरेगा, जब बापू दौड़ कर उस के पास आएंगे तो वह उन्हें नजरअंदाज करते हुए मां के पास चला जाएगा. आज उसे ऐसा लग रहा था कि उस के सपने सच होने की ओर यह पहला कदम है.

इधर गांव में सुबहसुबह घर का माहौल एकदम गुमसुम था, कोई किसी से कुछ नहीं बोल रहा था. सब खामोशी से खुद ही खुद को तसल्ली दे रहे थे. सब यही कह रहे थे कि जहां भी जाए अच्छे से रहे. 4 बहनों के बाद पैदा हुआ ननकू घर का सब से छोटा था. धीरेधीरे समय के थपेड़ों ने ननकू के भाग जाने का दुख थोड़ा कम कर दिया था.

साल बीतने को था, पर ननकू गांव नहीं लौटा. रघु का कर्ज दिनबदिन वैसे ही बढ़ता चला गया, जैसे ननकू का घर लौट आने या घर के लिए कुछ पैसे भेज देने का इंतजार. दोस्तों के फोन से ननकू घर पर सब से बातें करता, पर रघु से नहीं. इच्छा दोनों बापबेटे की होती थी एकदूसरे से बात करने की, पर ननकू डर से नहीं करता था और रघु अहम से.

सालभर तो ननकू को काम सीखने में ही लग गया. इधर घर की हालत सुधर नहीं पा रही थी. रघु को गांव में कभी काम मिलता, कभी नहीं मिलता था. कर्ज का मूल तो वैसे का वैसा ही रहा, सूद दिनबदिन बढ़ता चला गया.

आखिर में रघु ने भी फैसला किया कि वह भी परदेश चला जाएगा, कम से कम वहां रोज काम और समय पर मजदूरी तो मिल जाएगी. गांव के कुछ लोग कमाने के लिए किसी और परदेश जा रहे थे, रघु भी उन्हीं के साथ हो लिया.

वहां जाते ही रघु को अच्छी पगार वाला काम मिल गया और इधर ननकू भी कुछ पैसे भेजने लगा, जिस से जिंदगी थोड़ीथोड़ी पटरी पर आने लगी.

इधर ननकू को उस परदेश की आबोहवा कभी रास नहीं आई. जो सपने वह ट्रेन में संजो कर लाया था, वे ट्रेन में ही कहीं छूट गए थे. यहां कभी उस की मासूमियत छूटी तो कभी बचपना, कभी उस की नींद छूटी तो कभी उस की थकान और जो सब से ज्यादा छूटी, वह थी भूख. अब वह 2-2 वक्त भूखा रह सकता था.

तकनीक की इस दौड़ में जहां अमीर परिवार के बच्चे मोबाइल फोन और लैपटौप की वजह से समय से पहले बड़े हो रहे हैं, वहीं ननकू जैसा किशोर जिंदगी की भागदौड़ वाली भीड़ की वजह से समय से पहले बड़ा हो गया.

एक बात ननकू की समझ में अच्छे से आ गई थी कि रातोंरात अमीर आदमी सिर्फ 2-3 घंटे की फिल्मों में ही बना जा सकता है, असल जिंदगी में नहीं. गुस्से में वह अपने दोस्तों के साथ परदेश आ तो गया था, पर यहां हर कदम पर पैसे चाहिए थे. इसी चिंता में उस की सेहत दिनबदिन बिगड़ती चली जा रही थी.

इधर कुछ दिनों से ननकू के पेट में अजीब सा दर्द शुरू हो गया था. इस सब के बावजूद दिनरात मेहनत कर उस ने खुद के लिए एक मोबाइल फोन लिया और घर जाने को ले कर पैसे जोड़ने लगा, पर पेट का दर्द उसे बेचैन कर जाता था और फिर एक दिन बेतहाशा दर्द उठा.

सब दोस्तों ने मिल कर किसी तरह ननकू को सरकारी अस्पताल में भरती करा दिया. आननफानन में सर्जरी हुई, पर ननकू को होश नहीं आया और 2 दिन बाद वह जिंदगी की जंग हार गया. डाक्टरों ने आननफानन में ननकू को डिस्चार्ज कर दिया मानो किसी अनहोनी को छिपाने की कोशिश की जा रही हो.

दोस्तों को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि अब वे क्या करें. कैसे गांव में खबर करें. ननकू का क्रियाकर्म यहीं कर दें या गांव ले जाएं और ले जाएं तो कैसे ले जाएं. फिर सोचविचार कर सब से पहले रघु को ननकू के ही मोबाइल से फोन किया.

ननकू का फोन आया देख रघु को समझ ही नहीं आया कि वह खुश हो या हमेशा की तरह गुस्सा करे. उस के हाथ थरथराने लगे, दिल तेज धड़कने लगा मानो जैसे रघु बेटा हो और ननकू उस का पिता हो. उस समय रघु ऐसा महसूस करने लगा कि फोन पर पिता के रूप में उसे ननकू से डांट पड़ने वाली है.

इतने में फोन कट गया. पिता होने के अहम में रघु सोच में पड़ गया कि वापस इधर से फोन लगाए या नहीं, तब तक दूसरी बार फोन बज उठा. बगैर एक पल गंवाए उस ने फोन उठा लिया और मिलेजुले भाव के साथ ‘हैलो’ कहा.

जब रघु को लगा कि दूसरी तरफ ननकू नहीं है, तो उस की घबराहट थोड़ी कम हो गई और फिर उस के अंदर जो भाव उभरे, उस बारे में उस ने सोचा ही नहीं था. पर जो खबर उस ने फोन पर सुनी, उस की तो उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी.

पत्थर तो रघु पहले से था, पर ऐसा लगा कि उस पत्थर को बर्फ की वादियों में कोई अकेला छोड़ आया हो. उस की आंखों से आंसू नहीं निकले मानो आंसू अपना रास्ता भूल कर आंख के बदले खून की नसों में चले गए हों और वहां पर खून के साथ लड़ाई कर पूरे शरीर में एक भूचाल सा ला दिया हो, जो उस के बदन में थरथराहट पैदा कर रहा था.

‘‘उसे ले कर गांव आ जाओ. पैसे मैं भेज देता हूं,’’ इतना कह कर रघु ने फोन काट दिया.

गांव में ऐसा माहौल था मानो जैसे कोई जलजला आ गया हो. ननकू के दुनिया से चले जाने की खबर आसपास के गांवों में आग की तरह फैल गई. सारे नातेरिश्तेदार भी घर पर जमा होने लगे, पर अभागा रघु कैसे आए, सौ लोग सौ मशवरे जारी थे.

इधर रघु जल बिन मछली जैसे छटपटा रहा था मानो कोई जादू की छड़ी मिल जाए, जिस के सहारे वह झट से अपने लाल के पास पहुंच जाए. उस की पिछले 6 महीने की कमाई एंबुलैंस के किराए में चंद मिनटों में पहले ही खत्म हो चुकी थी. अमीर लोगों के लिए तो सब मुमकिन है, पर गरीब के जिंदगीरूपी शब्दकोश में कुछ शब्द नहीं होते हैं, ‘मुमकिन’ शब्द उसी में से एक है.

मीलों दूर इस परदेश से अपने गांव समय पर पहुंचना रघु के लिए कहां मुमकिन था. ऐसे में उस के साथ काम करने वाले लोगों ने उस की मदद की और उसे हवाईजहाज से गांव भेजने का इंतजाम कर दिया. उसी हवाईजहाज में सफर कर रहे एक सहयात्री को ढूंढ़ उस से मदद के लिए बोल कर रघु को हवाईअड्डे के अंदर भेज दिया गया.

जिंदगी में पहली बार रघु का पढ़ालिखा होना उस के काम आया. हवाईजहाज के 2 घंटे के सफर में आसमान की ऊंचाइयों के बीच रघु को अपनी जिंदगी की सारी गलतियां घड़ी की सूई की तरह घूमती दिखाई देने लगीं. ननकू के इन हालात के लिए वह खुद को जिम्मेदार मानने लगा.

विद्यार्थी जीवन के कुछ भूलेबिसरे सपने भी याद आने लगे, जिन में से हवाईजहाज पर चढ़ना भी एक था…

हवाईजहाज की तेज आवाज के बीच रघु खुशी और गम में फर्क नहीं कर पा रहा था. ऐसा लग रहा था कि सारे फर्क मिट गए हों. लोग अपनी चाहत को पाने के लिए क्या कुछ नहीं करते, लेकिन कभी सब दांव पर लगा कर भी कुछ मिले तो लगता है कि हम ने जिंदगी से यह तो नहीं मांगा था. रघु ननकू का शव आने से पहले ही गांव पहुंच गया था.

ननकू का बड़ी गाड़ी से गांव आना और रघु का हवाईजहाज पर चढ़ना… दोनों के सपने पूरे हो गए, पर इस कीमत पर पूरे होंगे, ऐसा उस ने कभी नहीं सोचा था. अधूरे सपने तो अधूरे रह ही गए. जवान बेटे की लाश देखने की हिम्मत रघु के अंदर नहीं थी.

 

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