Holi 2024: बीमा दावे का सनसनीखेज राज

‘‘सर, मेरे पति 11 लाख रुपए ले कर कार से संतनगर की ओर जा रहे थे. कोई बदमाश उन के पीछे लगा था. मेरे मोबाइल फोन पर उन्होंने मैसेज भेजा था,’’ सरला ने इंस्पैक्टर को अपने मोबाइल फोन पर आए मैसेज को दिखाया.

‘‘हां, मेरे पास भी उन्होंने फोन किया था. हमारे लोग उस लोकेशन की ओर गए हैं. आप घर जाइए. हम कोशिश करेंगे कि वे जल्द से जल्द महफूज घर पहुंच जाएं,’’ इंस्पैक्टर रवि ने जवाब दिया.

‘‘ठीक है,’’ सरला ने कहा और वापस चली गई.

इंस्पैक्टर रवि को सरला का बरताव कुछ अजीब सा लगा. वह कई सालों से पुलिस की नौकरी में है और अब तक उस ने जोकुछ भी देखा था, उस के मुताबिक सरला का बरताव अजीब लगा.

उधर थोड़ी देर बाद पता चला कि कैलाश को उस की कार समेत गुंडों ने जला दिया है और उस के रुपए छीन कर ले गए हैं. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से पता चला है कि कैलाश की मौत जलने और दम घुटने से हुई थी. उस की पत्नी सरला ने उस का दाह संस्कार कर दिया.

इस के बाद सरला का कई बार पुलिस स्टेशन में एफआईआर की कौपी लेने के लिए आना हुआ. इंस्पैक्टर रवि को न जाने क्यों उस की हरकतों से शक होता था.

पुलिस इंस्पैक्टर ने सरला के मोबाइल फोन से होने वाली काल डिटेल को देखा, तो पहले तो कुछ भी शक जैसा नहीं दिखा, पर एक हफ्ते के बाद कैलाश से उस की बात होने की तसदीक हुई. मतलब साफ था कि कैलाश मरा नहीं था. तो फिर कार में किस की लाश थी?

मोबाइल फोन की लोकेशन से पता चल गया कि कैलाश रायपुर में रह रहा था. तुरंत छत्तीसगढ़ पुलिस से बात की गई और कैलाश को धर दबोचा गया.

जब कैलाश से पूछताछ की गई, तो जो बात सामने आई, वह इस तरह थी :

कैलाश ने कार की डिक्की में रखा पैट्रोल का डब्बा निकाल कर डिक्की बंद की और कार पर पैट्रोल उड़ेल दिया, फिर माचिस से उस में आग लगा दी. थोड़ी देर तक वह देखता रहा कि कार ठीक से जल रही है या नहीं.

अंदर एक लाश भी पड़ी थी, जो उस ने एक अस्पताल के मुलाजिम से मिलीभगत कर खरीदी थी. जब उसे भरोसा हो गया कि कार ने ठीक से आग पकड़ ली है, तो वह वहां से धीरे से निकल गया.

इस के बाद कैलाश ने सब से पहले अपनी पत्नी सरला को फोन लगाया, ‘‘सब प्लान के मुताबिक हो गया है. तुम लाश की शिनाख्त कर लेना. कुछ दिनों तक सभी फोन स्विच औफ रखूंगा.’’

‘ठीक है, अब ज्यादा बातें मत करो. पुलिस काल डिटेल्स निकालेगी, तो फंस जाएंगे हम.’

‘‘नहीं फंसेंगे. हम जिन नंबरों से बातें कर रहे हैं, वे जाली पहचान और फोटो से लिए गए सिमकार्ड हैं. मैं भी इस सिमकार्ड को नष्ट कर दूंगा और तुम भी नष्ट कर देना.’’

कैलाश ने मोबाइल से सिमकार्ड निकाल कर उसे तोड़ डाला और वहीं फेंक दिया. फिर अपने मोबाइल फोन से उस ने पुलिस को फोन लगाया, ‘‘हैलो, मैं कैलाश बोल रहा हूं. मेरे पीछे कुछ गुंडे लगे हैं. वे मेरे 11 लाख रुपए छीनने के चक्कर में हैं.

‘‘प्लीज, मुझे बचा लीजिए. अभी मैं अक्षरधाम मंदिर से संतनगर की ओर जा रहा हूं…’’ इस से पहले कि पुलिस कुछ और पूछती, उस ने मोबाइल फोन कट कर दिया.

कैलाश हिसार में एक फैक्टरी का मालिक था और इधर कुछ दिनों से कारोबार ठीक नहीं चल रहा था. कुछ कर्ज भी उस के ऊपर हो गया था.  कोविड-19 के चलते उस की माली हालत और भी खराब हो गई थी. लेनदार अपना कर्ज वापस मांग रहे थे, पर वह कर्ज चुका पाने की हालत में नहीं था.

जब कारोबार अच्छा चल रहा था, तब कैलाश ने 2 करोड़ रुपए का बीमा लिया था. वह चाहता था कि आगे चल कर किसी वजह से उस की मौत हो जाती है, तो उस के परिवार को कम से कम पैसे की तंगी न हो.

जब कारोबार में नुकसान होने लगा, तो कैलाश को बीमा का प्रीमियम जमा करना भी मुश्किल होने लगा, क्योंकि 2 करोड़ रुपए का प्रीमियम काफी ज्यादा था.

कैलाश दिनरात यही सोचता कि क्या उपाय करे, जिस से वह अपने कारोबार को संभाल सके, पर मानो वह दलदल में फंस गया था. जब कारोबार संभलने का कोई आसार नहीं बचा, तो उस के मन में किसी भी तरह बीमा की रकम पाने की लालसा जगी.

कैलाश हमेशा यही सोचता कि किस तरह बीमा की रकम पाई जा सकती है. उस के मन में यह विचार भी आता कि वह खुदकुशी कर ले, ताकि कम से कम परिवार वालों की माली हालत ठीक हो जाए.

पर उसे शक था कि खुदकुशी के मामले में परिवार वालों को बीमा की रकम मिलेगी या नहीं. यह बात वह किसी से पूछ भी सकता था, पर इस से उस की नीयत पर शक होने का डर था. फिर जिंदगी का मोह भी वह छोड़ नहीं पा रहा था.

आखिरकार कैलाश ने एक योजना तैयार की. उस योजना के मुताबिक उस के बदले कोई और मरेगा और घर वालों को बीमा की रकम मिल जाएगी. वह चुपके से कहीं दूर निकल जाएगा और जब मामला शांत हो जाएगा, तो वह अपने परिवार वालों को भी अपने साथ ले जाएगा.

इस योजना के मुताबिक उस ने एक अस्पताल मुलाजिम से मिल कर कोरोना वायरस के संक्रमण से मरे एक आदमी की लाश ले ली थी. कैलाश ने उस लाश को अपनी कार में रख लिया और शहर से दूर एक बस्ती में कार खड़ी कर दी. फिर उस ने अपने परिवार वालों और पुलिस को फोन कर के बताया कि वह 11 लाख रुपए ले कर कार से कहीं जा रहा है और बदमाश उस का पीछा कर रहे हैं.

पुलिस कैलाश की बताई जगह पर जब तक पहुंची, तब तक कार पूरी तरह जल चुकी थी. कार में एक लाश भी थी, जिसे परिवार वालों ने कैलाश होने की पुष्टि की.

दरअसल, कैलाश ने यह योजना बहुत सोचसमझ कर बनाई थी और परिवार वालों को वह पूरी योजना पहले ही समझा चुका था. पहचान के लिए उस ने अपने हाथ में पहने कड़े को लाश के हाथ में पहना दिया था.

इस के बाद कैलाश रेलवे स्टेशन पहुंचा और रायपुर जाने वाली ट्रेन में सवार हो गया. उस के पास 3 मोबाइल फोन थे और उस ने तीनों को स्विच औफ कर रखा था.

रायपुर पहुंच कर वह एक किराए के कमरे में रहने लगा. उधर उस की पत्नी सरला ने उस का दाह संस्कार करवा दिया, ताकि किसी को कोई शक न हो.

पर जांच करने वाले पुलिस इंस्पैक्टर रवि को उस की हरकतों से शक हो गया था. पति की मौत के बाद पत्नी की जो मानसिक हालत होनी चाहिए, वह उस के बरताव से नहीं दिख रही थी. वह दुखी होने का नाटक तो कर रही थी, पर वह अच्छी कलाकार साबित नहीं हो सकी. साथ ही, वह बीमा की रकम पाने के लिए काफी उतावली भी दिख रही थी. इस तरह कैलाश की योजना नाकाम हो गई.

Holi 2024: प्यार तूने क्या किया

अनिरुद्ध आज फिर से दफ्तर 25 मिनट पहले पहुंच गया था. जब से उस के दफ्तर में नेहल आई है, उसे ऐसा लगता है कि सबकुछ रूमानी हो गया है. नेहल की झील सी आंखें, प्यारभरी मुसकान उसे सबकुछ बेहद पसंद था.

आज नेहल हरे कुरते के साथ पीला दुपट्टा पहन कर आई थी और साथ में था लाल रंग का प्लाजो… जैसे औफिस का माहौल सुरमई हो गया हो. अनिरुद्ध बहुत दिनों से नेहल के करीब जाने की कोशिश कर रहा था, पर उस की हिम्मत नहीं हो पा रही थी.

नेहल का बेबाक अंदाज अनिरुद्ध को उस के करीब जाने से रोकता था, पर आज वह खुद को रोक नहीं पाया और उस ने नेहल को बोल ही दिया, ‘‘नेहल, आप आज एकदम सुरमई शाम के जैसी लग रही हो…’’

नेहल खिलखिला कर हंस पड़ी और बोली, ‘‘थैंक यू.’’

धीरेधीरे नेहल के ग्रुप में अनिरुद्ध भी शामिल हो गया था. अनिरुद्ध की आंखों की भाषा नेहल खूब समझती थी, पर अनिरुद्ध का जरूरत से ज्यादा पतला होना नेहल को खलता था.

अनिरुद्ध ने एक दिन बातों ही बातों में नेहल से पूछ लिया, ‘‘नेहल, तुम्हारा कोई बौयफ्रैंड है क्या?’’

नेहल ने कहा, ‘‘नहीं, फिलहाल तो नहीं है, क्योंकि मेरा बौयफ्रैंड माचोमैन होना चाहिए, सिक्स पैक एब्स के साथ… अगर कोई लड़का मुझे देखने की भी जुर्रत करे, तो वह उस की हड्डीपसली एक कर दे…’’

नेहल की बात सुन कर अनिरुद्ध का चेहरा उतर गया था. घर आ कर भी उस के दिमाग में नेहल की बात घूमती रही थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे नेहल के काबिल बने.

तभी अनिरुद्ध को अपने एक करीबी दोस्त मोंटी की याद आई. वह जिम जाने का शौकीन था.

अनिरुद्ध ने मोंटी को फोन कर के अपनी समस्या बताई, तो मोंटी बोला, ‘अरे भाई, तू मेरे पास आ जा. 2 महीने में ही नेहल तेरी बांहों में होगी.’

अनिरुद्ध फोन रखते ही मोंटी के पास पहुंच गया. वह जल्द से जल्द बौडी बनाना चाहता था.

अब अनिरुद्ध सीधे दफ्तर से जिम ही जाता था. वहां पर मोंटी के कहने पर उस ने अपना खुद का पर्सनल ट्रेनर भी रख लिया था. पर्सनल ट्रेनर ने अनिरुद्ध का एक पूरा डाइट प्लान बना कर दिया था. डाइट प्लान में शामिल खाना अनिरुद्ध की जेब पर काफी महंगा पड़ रहा था, पर वह अपने दिल के हाथों मजबूर था.

एक महीना होने को आया था, पर अनिरुद्ध को अपनी बौडी में कोई खास बदलाव नजर नहीं आ रहा था. जब भी वह अपने पर्सनल ट्रेनर से यह बात कहता, तो उस का यही जवाब होता था, ‘‘अरे सर, थोड़ा समय लगता है बौडी बनाने में, लेकिन देख लेना सर, आप को कुछ ही महीनों में बदलाव नजर आने लगेगा.’’

अनिरुद्ध रातदिन बौडी बनाने के बारे में ही बात करता था. नेहल अनिरुद्ध की बात सुन कर मुसकरा देती और बोलती, ‘‘चलो देखते हैं अनिरुद्ध, तुम्हारी बौडी बन पाती है या नहीं?’’

अभी अनिरुद्ध यह सब कर ही रहा था कि उस की जिंदगी में सक्षम नाम का तूफान आ गया था. सक्षम उन की कंपनी में एकाउंट्स डिपार्टमैंट में नयानया आया था. उस का 6 फुट का कद और गठीला बदन हर किसी का ध्यान अपनी ओर खींच रहा था.

नेहल एक दिन अपनी सैलरी के किसी इशू को ले कर एकाउंट्स डिपार्टमैंट में गई थी और सक्षम का नंबर ले कर लौटी थी. अब सक्षम भी नेहल के ग्रुप का हिस्सा था. अनिरुद्ध को सक्षम का ग्रुप में शामिल होना नागवार लगता था, पर वह कुछ बोल नहीं पाता था.

अब अनिरुद्ध के सिर पर बौडी बनाने का जुनून सवार हो गया था. एक दिन अनिरुद्ध के पापा ने उसे समझाना भी चाहा था, ‘‘बेटा, अपनी सेहत का ध्यान रखना बहुत अच्छी बात है, पर यह पागलपन ठीक नहीं है.’’

अनिरुद्ध बोला, ‘‘पापा, मुझे इस पतलेपन से छुटकारा चाहिए. मैं नेहल के काबिल बनना चाहता हूं.’’

पापा थोड़ा सोचते हुए बोले, ‘‘बेटा, जिस रिश्ते की बुनियाद ऐसी खोखली  बातों पर टिकी हो, वैसा रिश्ता न ही बने तो अच्छा है.’’

अनिरुद्ध गुस्से में बोला, ‘‘आप नहीं समझोगे पापा. आप को तो खुश होना चाहिए कि आप का बेटा अपनी सेहत के प्रति जागरूक है.’’

पापा बोले, ‘‘हां, पर अगर इस से मन का चैन छिनता है, तो यह घाटे का सौदा है.’’

अनिरुद्ध बिना कुछ जवाब दिए तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गया.

अनिरुद्ध के जुनून को देखते हुए उस के पर्सनल ट्रेनर ने अनिरुद्ध के डाइट प्लान में कुछ अलग तरह की खाने की चीजें शामिल कर दी थीं. कोई पाउडर भी था. पर अब अनिरुद्ध की बौडी में बदलाव आना शुरू हो गया था.

न जाने उस पाउडर में क्या था कि अनिरुद्ध को मनचाहा नतीजा मिल रहा था. आजकल वह बेहद खुश रहता था. पर बौडी बनाने और नेहल के चक्कर में बिना अपने ट्रेनर की सलाह लिए अनिरुद्ध ने उस पाउडर की खुराक दोगुनी कर दी थी. अब नेहल ही नहीं दफ्तर की हर लड़की का हीरो था अनिरुद्ध.

अनिरुद्ध ने नेहल से डेट के लिए पूछा और नेहल ने फौरन हां कर दी थी. अनिरुद्ध बेहद खुश था, क्योंकि आखिर उस की मेहनत रंग लाई और उस के प्यार की जीत हुई थी. अब अनिरुद्ध के दिन सोना और रात चांदी हो गई थी.

14 फरवरी हर प्रेमी जोड़े के लिए खास दिन होता है. अनिरुद्ध ने नेहल से पूछा, ‘‘नेहल, कल क्या मेरे साथ बाहर चलोगी?’’

नेहल ने हंसते हुए कहा, ‘‘अरे, इतना शरमा क्यों रहे हो, जरूर चलेंगे और यह तो वैसे भी हमारा पहला वैलेंटाइन डे है.’’

अनिरुद्ध ने शहर के बाहर एक रिसोर्ट में बुकिंग करा ली थी. वह नेहल को जी भर कर प्यार करना चाहता था.

नेहल और अनिरुद्ध ने पहले लंच किया और फिर दोनों रूम में चले गए. अनिरुद्ध नेहल के करीब आ कर उसे चूमने लगा और नेहल भी बिना किसी विरोध के समर्पण कर रही थी.

15 मिनट बीत गए थे, पर अनिरुद्ध उस से आगे बढ़ ही नहीं पा रहा था. नेहल कुछ देर तक तो कोशिश करती रही और फिर चिढ़ते हुए बोली, ‘‘यार, जब कुछ कर ही नहीं सकते हो, तो फिर इतना टाइम क्यों खराब किया?’’

फिर नेहल मुसकराते हुए बोली, ‘‘जिम में बौडी बन सकती है, पर वह नहीं.’’

अनिरुद्ध शर्म से पानीपानी हो रहा था. उसे तो ऐसी समस्या नहीं थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर यह क्यों उस के साथ हो रहा था. क्या उस के अंदर कोई कमी आ गई है?

अनिरुद्ध को लग रहा था कि बौडी बनाने में उस ने जो पाउडर की दोगुनी खुराक कर ली थी, क्या यह उसी का नतीजा है?

अनिरुद्ध नेहल को सब बताना चाहता था, पर जिस प्यार के लिए अनिरुद्ध ने इतना कुछ किया, वही प्यार बिना एक पल रुके पतली गली से निकल गया.

अनिरुद्ध सिर पकड़ कर बैठ गया था. बाहर रिसोर्ट में गाना चल रहा था, ‘प्यार तू ने क्या किया…’

Holi 2024: कबाड़- कैसी थी विजय की सोच

इस बार दीवाली पर जब घर का सारा सामान धूप लगा कर समेटा तब विजय के होंठों पर एक फीकी सी हंसी चली आई थी. मैं जानती हूं कि वह क्यों मुसकरा रहे हैं.

‘‘तो इस बार दीवाली पर भाई के घर जाओगी? वहां जा कर कितने दिन रहोगी? तुम जानती हो न कि तुम्हारी सूरत देखे बिना मेरी सांस नहीं चलती. जल्दी वापस आना.’’

बस स्टैंड तक छोड़ने आए विजय बारबार मेरे बैग को तोलते हुए बोले, ‘‘कितने कपड़े ले कर जा रही हो? भारी है तुम्हारा बैग. क्या ज्यादा दिन रहने वाली हो?’’

चुप हूं मैं. चुप ही तो हूं मैं, न जाने कब से. अच्छा समय बीता भाई के पास मगर जो नया सा लगा वह था मेरी भतीजी का व्यवहार.

डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर चुकी मिनी के पास नया सामान रखने को जगह ही न थी सो उस ने बचपन का संजोया अपनी जान से भी प्यारा सामान यों खुद से अलग कर दिया मानो वास्तव में उसे संभाल कर रखे रखना कोई मूर्खता हो. खिलौने महरी को उस के बच्चों के लिए थमा दिए थे.

और भी विचित्र तब लगा जब मिनी ने अपने ही प्रिय सामान का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया था.

‘‘देखो न बूआ, याद है यह बार्बी डौल, इस के लिए कितना झगड़ा किया था मैं ने भैया से. और यह लकड़ी के खिलौने, यह डब्बा देखो तो…’’

सामने सारा सामान बिखरा पड़ा था.

‘‘बच्चे थे तो कितने बुद्धू थे न हम. जराजरा सी बात पर रोते थे. यह बचकाना सामान हटा दिया. देखो, अब पूरी अलमारी खाली हो गई है…सच्ची, कितनी पागल थी न मैं जो इस कबाड़ से ही जगह भर रखी थी.’’

अच्छा नहीं लगा था मुझे उस का यह व्यवहार. आखिर हमारे जीवन में संवेदना भी तो कोई स्थान रखती है. जो कभी प्यारा था वह सदा प्यारा ही तो रहता है न, चाहे बचपन हो या जवानी. फिर जवानी में बचपन की सारी धरोहर कचरा कह कर कूड़े के डब्बे में फेंकना क्या क्रूरता नहीं है?

‘‘पुरानी चीजें जाएंगी नहीं तो नई चीजों को स्थान कैसे मिलेगा, जया. यह संसार भी तो इसी नियम पर चल रहा है न. यह तो प्रकृति का नियम है. जरा सोचो हमारे पुरखे अगर आज भी जिंदा होते तो क्या होता. कैसी हालत होती उन की?’’

‘‘कैसी निर्दयता भरी बात करते हैं विजय, अपने मांबाप के विषय में ऐसा कहते आप को शरम नहीं आती…’’

‘‘मेरी मां को कैंसर था. दिनरात पीड़ा से तड़पती थीं. मैं बेटा हूं फिर भी अपनी मां की मृत्यु चाहता था क्योंकि उन के लिए मौत वरदान थी. मुझे अपनी मां से प्यार था पर उन की मौत चाही थी मैं ने. जया, न ही जीवन सदा वरदान की श्रेणी में आता है और न ही मौत सदा श्राप होती है.’’

विजय की बातें मेरे गले में फांस जैसी ही अटक गई थीं.

‘‘जया, जीवन टिक कर रहने का नाम नहीं है. जीवन तो पलपल बदलता है, जो आज है वह कल नहीं भी हो सकता है और जीवन हम सब के चाहने से कभी मुड़ता भी नहीं. यह तो हम ही हैं जिन्हें खुद को जीवन की गति के अनुरूप ढालना पड़ता है.’’

मैं उठ कर अपनी क्लास लेने चली गई थी. जीवन का फलसफा सभी की नजर में एक कहां होता है जो मेरा और विजय का भी एक हो जाता.

एक बार विजय ने मेरे जमा किए पीतल के फूलदान, किताबों के ट्रंक, टेपरिकार्डर को कबाड़ कहा था. माना कि आज अगर पति और बेटे इस संसार में नहीं हैं तो उन का सामान क्या सामान नहीं रहा?

‘‘जब इनसान ही नहीं रहा तब उस के सामान को सहेजा क्यों जाए. जो चले गए वे आने वाले तो नहीं, तुम तो दिवंगत नहीं हो न.’’

कैसी कड़वी होती हैं न विजय की बातें, कभी भी कुछ भी कह देते हैं. मैं मानती हूं कि इतनी कड़वी बात सिर्फ वही कर सकता है जिस का मन ज्यादा साफ हो और जो खुद भी उसी हालात से गुजर चुका हो.

मैं उस दुविधा से उबर नहीं पा रही हूं जिस में मेरा खोया परिवार मुझे अकेला छोड़ कर चला गया है. अपने किसी प्रिय की मौत से क्या कोई उबर सकता है?

‘‘क्यों नहीं उबर सकता? क्या मैं उबर कर बाहर नहीं आया तुम्हारे सामने. मेरे पिता तब चले गए थे जब मैं कालिज में पढ़ता था. मां का हाल तुम ने देख ही लिया. पत्नी को मैं ही रास नहीं आया… कोई जीतेजी छोड़ गया और कोई मर कर. तो क्या करूं मैं? मर तो नहीं सकता न. क्योंकि जितनी सांसें मुझे प्रकृति ने दी हैं कम से कम उन पर तो मेरा हक है न. कभी आओ मेरे घर, देखो तो, क्या मेरा घर भी तुम्हारे घर जैसा चिडि़याघर या अजायबघर है जिस में ज्ंिदा लोगों का सामान कम और मरे लोगों का सामान ज्यादा है…’’

विजय की कड़वी बातें ही बहुत थीं मेरी संवेदना को झकझोरने के लिए, उस पर मिनी का व्यवहार भी बहुतकुछ हिलाडुला गया था मेरे अंतर में.

‘‘देखो न बूआ, अलमारी खोलो तो कितना अच्छा लग रहा है. लगता है सांस आ रही है. कैसा बचकाना सामान था न, जिसे इतने साल सहेज कर रखा…’’ मिनी चहकी.

जवानी आतेआते मिनी में नई चेतना, नई सोच चली आई थी जिस ने उस के प्रिय सामान को बचकाने की श्रेणी में ला खड़ा किया था. पता नहीं क्यों यह सब भी विजय के साथ बांट लिया मैं ने. जानती हूं वह मेरा उपहास ही उड़ाएंगे, ऐसा भी कह दिया तो सहसा आंखें भर आईं विजय की.

‘‘मैं इतना भी कू्रर नहीं हूं, जया. पगली, मैं भी तो उसी हालात का मारा हूं जिन की मारी तुम हो. आज 5 साल हो गए दोनों को गए… जया, वे दोनों सदा तुम्हारी यादों में हैं, तुम्हारे मन में हैं… उन्हें इतना तो सस्ता न बनाओ कि उन्हें उन के सामान में ही खोजती रहो. जो मन की गहराई में छिपा है, सुरक्षित है, वह कचरे में क्योंकर होगा…’’ मेरे सिर पर हाथ रखा विजय ने, ‘‘तुम्हारी शादी तुम्हारे पति के साथ हुई थी, इस सामान के साथ तो नहीं. लोग तो ज्ंिदा जीवनसाथी तक बदल लेते हैं, मेरी पत्नी तो मुझ ज्ंिदा को छोड़ गई और तुम यह बेजान सामान भी नहीं बदल सकतीं.’’

सहसा लगा कि विजय की बातों में कुछ गहराई है. उसी पल निश्चय किया, शायद शुरुआत हो पाए.

लौटते ही दूसरे दिन पूरे घर का मुआयना किया. पीतल का कितना ही सामान था जिस का उपयोग मुमकिन न था. उसे एकत्र कर एक बोरी में डाल दिया. महरी को कबाड़ी की दुकान पर भेजा, थोड़ी ही देर में कबाड़ी वाले की गाड़ी आ गई.

शाम को महरी पुराने कपड़ों से बरतन बदलने वाली को पकड़ लाई. मैं ने कभी कपड़ा दे कर बरतन नहीं लिए थे. अच्छा नहीं लगता मुझे.

‘‘बीबीजी, इन की भी तो रोजीरोटी है न. इस में बुरा क्या है जो आप को भी चार बरतन मिल जाएं.’’

‘‘मैं अकेली जान क्या करूंगी बरतन ले कर?’’

‘‘मेरी बेटी की शादी है, मुझे दे देना. इसी तरह साहब का आशीर्वाद मुझे भी मिल जाएगा. कपड़ों का सही उपयोग हो जाएगा न बीबीजी.’’

गरदन हिला दी मैं ने.

2 ही दिन में मेरा घर खाली हो गया. ढेर सारे नए बरतन मेज पर सज गए, जिन्हें महरी ने दुआएं देते हुए उठा लिया.

‘‘बच्ची की गृहस्थी के पूरे बरतन निकल आए साहब के कपड़ों से. बरसों इस्तेमाल करेगी और आप को दुआएं देगी, बीबीजी.’’

पुरानी पीतल और किताबें बेच कर कुछ हजार रुपए हाथ में आ गए.

कालिज आतेजाते अकसर कालीन की दुकान पर बिछे व टंगे सुंदर कालीन नजर आ जाते थे. बहुत इच्छा होती थी कि मेरे घर में भी कालीन हो. पति की भी बहुत इच्छा थी, जब वह जिंदा थे.

शाम होतेहोते मेरे 2 कमरों के घर में नरम कालीन बिछ गए. पूरा घर खुलाखुला, स्वच्छ हो कर नयानया लगने लगा. अलमारी खोलती तो वह भी खुलीखुली लगती. रसोई में जाती तो वहां भी सांस न घुटती.

‘‘जया, क्या बात है 2 दिन से कालिज नहीं आई?’’ सहसा चौंका दिया विजय ने.

मैं घर की सफाई में व्यस्त थी. कालिज से छुट्टी जो ले ली थी.

‘‘अरे वाह, इतना सुंदर हो गया तुम्हारा घर. वह सारा कबाड़ कहां गया? क्या सब निकाल दिया?’’

विजय झट से पूरा घर देख भी आए. भीग उठी थीं विजय की आंखें. कितनी ही देर मेरा चेहरा निहारते रहे फिर मेरे सिर पर हाथ रखा और बोले, ‘‘उम्मीद मरने लगी थी मेरी. लगता था ज्यादा दिन जी नहीं पाओगी इस कबाड़ में. लेकिन अब लगता है अवसाद की काई साफ हो जाएगी. तुम भी मेरी तरह जी लोगी.’’

पहली बार लगा, विजय भी संवेदनशील हैं. उन का दिल भी नरम है. कुछ सोच कर कहने लगे, ‘‘मैं भी तुम जैसा ही था, जया. मां की दर्दनाक मौत का नजारा आंखों से हटता ही नहीं था. जरा सोचो, जिस मां ने मुझे जीवन दिया उसे एक आसान मौत दे पाना भी मेरे हाथ में नहीं था. क्या करता मैं? पत्नी भी ज्यादा दिन साथ नहीं रही. मैं जानता हूं कि इन परिस्थितियों में जीवन ठहर सा जाता है. फिर भी सब भूल कर आगे देखना ही जीवन है.’’

विजय की आंखें झिलमिलाने लगी थीं. मेरे सिर पर अभी भी उन का हाथ था. हाथ उठा कर मैं ने विजय का हाथ पकड़ लिया. हजार अवसर आए थे जब विजय ने सहारा दिया था. सौसौ बार बहलाना भी चाहा था.

यह पहला अवसर था जब वह खुद मेरे सामने कमजोर पड़े थे. सस्नेह थाम लिया मैं ने विजय का हाथ.

‘‘मेरे पति की बड़ी इच्छा थी कि नरम कालीन हों घर में. बस, कभी मौका ही नहीं मिला था…कभी मौका मिला भी तो इतने रुपए नहीं थे हाथ में. बेकार पड़े सामान को निकाला तो उन की इच्छा पूरी हो गई. मैं ने कुछ गलत तो नहीं किया न?’’

जरा सी आत्मग्लानि सिर उठाने लगी तो फिर से उबार लिया विजय ने, यह कह कर कि नहीं तो, जया, सुंदर कालीन में भी तो तुम अपने पति की ही इच्छा देख रही हो  न. सच तो यह है कि जो जीवन की ओर मोड़ पाए वह भला गलत कैसे हो सकता है.

रोतेरोते मुसकराना कैसा लगता है. मैं अकसर रोतीरोती मुसकरा देती हूं तो विजय हाथ हिला दिया करते हैं.

‘‘इस तरह तो तुम जाने वालों को दुख दे रही हो. उन का रास्ता आसान बनाओ, पीछे को मत खींचो उन्हें. जो चले गए उन्हें जाने दो, पगली. खुश रहना सीखो. इस से उन्हें भी खुशी होगी. वह भी तुम्हें खुश ही देखना चाहते हैं न.’’

सहसा हाथ बढ़ा कर विजय ने पास खींच लिया और कहने लगे, ‘‘जीवन के अंतिम छोर तक तुम ने अपने पति का साथ दिया है. तुम किसी के साथ विश्वासघात नहीं कर रही. न अपने पति के साथ, न बेटे के साथ और न ही मेरे साथ. हम सब साथसाथ रह सकते हैं, जया.’’

विजय के हाथों को पिछले 3 साल से हटाने का प्रयास कर रही हूं मैं. विजय ने सदा मेरी इच्छा का सम्मान किया है.

लेकिन इस पल मैं ने जरा सा भी प्रयास नहीं किया. विजय स्तब्ध रह गए. उन की भावनाओं का सम्मान कर मैं पति का अपमान नहीं कर रही. धीरेधीरे विश्वास होने लगा मुझे. अविश्वास आंखों में लिए विजय ने मेरा चेहरा सामने किया. हैरान तो होना ही था उन्हें.

न जाने क्याक्या था जिस के नीचे दबी पड़ी थी मैं. कुछ यादों का बोझ, कुछ अपराधबोध का बोझ और कुछ अनिश्चय का बोझ. पता नहीं कल क्या हो.

शब्दों की आवश्यकता तो कभी नहीं रही मेरे और विजय के बीच. सदा मेरा चेहरा देख कर ही वह सब भांपते रहे हैं. भीगी आंखों में सब था. सम्मान सहित आजीवन साथ निभाने का आश्वासन. मुसकरा पड़े विजय. झुक कर मेरे माथे पर एक प्रगाढ़ चुंबन जड़ दिया. खुश थे विजय. मैं कबाड़ से बाहर जो चली आई थी.

दो कदम साथ: किस दोराहे पर खड़े थे मानसी और सुलभ?

पूरे 10 साल के बाद दोनों एक बार फिर आमनेसामने खडे़ थे. नोएडा  में एक शौपिंग माल में यों अचानक मिलने पर हत्प्रभ से एकदूसरे को देख रहे थे.

सुलभ ने ही अपने को संयत कर के धीरे से पूछा, ‘‘कैसी हो, मन?’’

वही प्यार में भीगा हुआ स्वर. कोई दिखावा नहीं, कोई शिकायत नहीं. मानसी के चेहरे पर कुछ दर्द की लकीरें, खिंचने लगीं जिन्हें उस ने यत्न से संभाला और हंसने की चेष्टा करते हुए बोली, ‘‘तुम कैसे हो?’’

सुलभ ने ध्यान से देखा. वही 10 साल पहले वाला सलोना सा चेहरा है पर जाने क्यों तेवर पुराने नहीं हैं. अपने प्रश्नों को उस ने चेहरे पर छाने नहीं दिया. दोनों साथसाथ चलने लगे. दोनों के अंतस में प्रश्नों के बवंडर थे फिर भी वे चुप थे. सुलभ ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘तुम तो दिल्ली छोड़ कर बंगलौर मामाजी के पास चली गई थीं.’’

मानसी ने उसे देखा. इस ने मेरे एकएक पल की खबर रखी है. मुसकराने का प्रयास करते हुए उत्तर में बोली, ‘‘एक सेमिनार में आई हूं. नोएडा में भाभी से मिलने आना पड़ा. उन का फ्रैक्चर हो गया है.’’

‘‘अरे,’’ सुलभ भी चौंक पड़ा.

‘‘किस अस्पताल में हैं?’’

‘‘अब तो घर पर आ गई हैं.’’

मानसी चलतेचलते एक शोरूम के सामने रुक गई. सुलभ को याद आया कि मानसी को शौपिंग का शौक सदा से रहा है. बेहिसाब शौपिंग और फिर उन्हें बदलने का अजीब सा बचकाना शौक…यह सब सुलभ को बहुधा परेशान कर दिया करता था. पर इस समय वह चुप रहा. मानसी अधिक देर वहां नहीं रुकी. बोली, ‘‘पीहू कैसी है?’’

‘‘विवाह हो गया है उस का…अब 1 साल का बेटा भी है उस के.’’

मानसी मुसकरा दी पर उस की मुसकराहट में अब वह तीखापन नहीं था. सुलभ बारबार सोच रहा था, यह बदलाव कैसे हुआ है इस में…हुआ भी है या उस का भ्रम है यह.

सुलभ को आवश्यककार्य से जाना था. उस ने कुछ कहना चाहा उस से पहले ही मानसी का स्वर जैसे गुफाओं से गूंजता सा निकला, ‘‘और तुम्हारे बच्चे, पत्नी?’’

सुलभ ठहर गया. मानसी के चेहरे पर जो भी था वह क्या कोई पछतावा था या वही मैं के आसपास भटकने की जिद, बोला, ‘‘विवाह के बिना बच्चे कैसे हो सकते हैं. और तुम?’’

मानसी चुप रही. एक कार्ड निकाल कर उस की तरफ बढ़ा दिया और बोली, ‘‘यह मेरा मोबाइल नंबर है.’’

सुलभ ने कार्ड पकड़ लिया. औपचारिकता के नाते अपना कार्ड भी उस की तरफ बढ़ा दिया और चलते हुए बोला, ‘‘एक जरूरी मीटिंग है…’’ और आगे बढ़ गया.

उस रात सुलभ का मन बहुत व्याकुल था. कैसी विडंबना है यह कि शरीर और मन दोनों अपने होते हैं पर परिस्थितियां अपने वश में नहीं होती हैं. इसलिए तो एक आयु बीत जाने के बाद महसूस होता है कि काश, एक बार जीवन वहीं से शुरू कर सकते तो जीवन अधिक व्यवस्थित ढंग से जी पाते.

कौन गलत था कौन सही, यह सब अब सोचने का कोई लाभ नहीं है. कितना गलत होता है यह सोचना कि किसी को हम 1-2 माह की जानपहचान में अच्छी तरह समझ पाते हैं.

सुलभ को अपने दोस्त अंचित के विवाह की याद आ गई. मानसी अंचित की पत्नी सुलेखा की मित्र थी. विवाह के अवसर पर बरातियों की खिंचाई करने में सब से आगे. एक तो उस के रूपसौंदर्य का जादू, ऊपर से उस का हंसता- खिलखिलाता स्वभाव. सुलभ का मन अपने वश में नहीं था. जैसेजैसे उस का मन वश के बाहर होता जा रहा था वैसेवैसे जानपहचान उस मंजिल की ओर बढ़ चली थी जिसे प्यार कहते हैं.

प्यार का सम्मोहन कितना विचित्र होता है. सबकुछ भूल कर व्यक्ति अपना सर्वश्रेष्ठ एकदूसरे के सम्मुख प्रस्तुत करता रहता है. एकदूसरे को शीघ्र पा लेने की उत्कंठा और कुछ सोचने भी नहीं देती है. यही उन दोनों के साथ भी हुआ.

सुलभ इंजीनियर था और मानसी एक बड़े व्यवसायी की पुत्री, विवाह में बाधा क्यों आती. दोनों बहुत शीघ्र पतिपत्नी बन गए थे. विवाह से ले कर हनीमून तक सब कुछ कितना सुखद था, एक स्वप्नलोक सा. मानसी का प्यार, उस के मीठे बोल उसे हर पल गुदगुदाते रहते लेकिन घर वापस लौटते ही धीरेधीरे मानसी के स्वर बदलने लगे थे. घर में सभी उसे प्यार करते थे पर उस के मन में क्या था यह जान पाना कठिन था. उस ने एक दिन कहा था, ‘तुम्हारे यहां तो बहुत सारे लोग इस 4 कमरे के घर में रहते हैं.’

सुलभ चौंक पड़ा. यह स्वर उस की प्रेयसी का नहीं हो सकता. फिर भी मन को संयत रख कर बोला, ‘बहुत सारे कैसे, मन…मेरे मातापिता, 2 भाई, 1 बहन और 1 विधवा बूआ. ये सब हमारे अपने हैं, यहां नहीं तो और कहां रहेंगे.’

‘तुम इंजीनियर हो, इमारतें बनवाते हो. अपने लिए एक घर नहीं बनवा सकते,’ मानसी ने कहा तो वह स्तब्ध रह गया.

‘यह कैसी बातें कर रही हो, मन. पापा ने पढ़ालिखा कर मुझे इस योग्य बनाया कि मैं उन के सुखदुख में काम आऊं…और तुम काम आने की जगह अलग घर बसा लेने को कह रही हो?’

उस दिन मानसी शायद बहस करने के लिए तैयार बैठी थी. बोली, ‘तुम गलत सोचते हो. हम 2 इस घर से चले जाएंगे तो उन का खर्च भी कम हो जाएगा.’

सुलभ को अपनी नवविवाहिता पत्नी से ऐसी बातों की उम्मीद नहीं थी. बात टालने के लिए बोला, ‘जब तक पीहू का विवाह नहीं हो जाता मैं अलग होने की बात सोच भी नहीं सकता. पीहू मेरी भी जिम्मेदारी है.’ संभवत: वही एक पल था जब पीहू के लिए मानसी के मन में चिढ़ पैदा हुई थी.

ऐसी छोटीछोटी बातें अकसर उन दोनों के बीच उलझन बन कर छाने लगीं. घर के सभी लोगोें को  यह सब समझ में आने लगा था पर कोई भी विवाद बढ़ाना नहीं चाहता था. मां को उम्मीद थी कि कुछ दिनों में मानसी नई स्थिति से समझौता करना सीख जाएगी. इसलिए कभीकभी उसे समझाने के प्रयास में कहतीं, ‘बेटा, अपने घर से अलग अकसर वे सारी सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं जिन की बचपन से आदत होती है…तुम्हें भी धीरेधीरे इस नए वातावरण का अभ्यास हो जाएगा.’

मानसी ने इस पर बिफर कर कहा था, ‘लेकिन मम्मीजी, यह क्या बात हुई कि विवाह के बाद लड़की ही अपना अस्तित्व मिटा दे, लड़के क्यों नहीं नए सांचे में ढलना चाहते हैं?’

‘ठीक कहती हो बेटा, लड़कों को भी समझौता करना चाहिए,’ मम्मी धीरे से बोल गई थीं और सुलभ की ओर देख कर कहा, ‘शादी की है तो अपनी जिम्मेदारियों को भी समझना सीखो. अभी से इस का दिल दुखाओगे तो आगे क्या करोगे.’

‘मम्मीजी, मुझे पता है कि आप मेरा मन रखने के लिए यह बात कर रही हैं. अंदर से तो आप को मेरी बात बुरी ही लगी है,’ मानसी ने तुरंत कहा.

‘ऐसा बिलकुल नहीं है.’

मां समझा रही थीं या फुजूल में गिड़गिड़ा रही थीं, सुलभ समझ नहीं पाया था. फिर भी कह  बैठा, ‘मम्मी, इसे समझाने की कोई जरूरत नहीं है,’ और क्रोध से पैर पटकते चला गया था.

मन में बहुत बड़ा झंझावात उठा था. न खानेपीने में मन  लग रहा था, न मित्रों से गपशप में. पार्क में जा कर बैठा तो भी मन उदास रहा. वहां जाने कितने प्यारेप्यारे बच्चे खेल रहे थे. उन की किलकारियां और शरारतें उसे भा तो रही थीं पर कुछ इस तरह जैसे कोई बहुत ही सुगंधित सी बयार उसे छू कर बेअसर सी गुजर जाए.

उसे बारबार याद आ रही थी वह रात जब प्यार के सम्मोहन में डूब उस ने मानसी से कहा था, ‘मानसी, मुझे पापा कब बनाओगी?’

मानसी ने भी प्यार के मधुर रस में डूब कर कहा था, ‘अभी मुझे मां नहीं बनना है.’

‘क्यों?’

‘अभी मेरी उम्र ही क्या है,’ मानसी इतरा कर बोली.

‘हां, यह तो है, जितनी जल्दी मां बनोगी उतनी जल्दी जिम्मेदारियां बढ़ जाएंगी,’ सुलभ ने सहजता से कह कर उस का चुंबन ले लिया. पर यह क्या? मानसी जैसे बिफर कर उठ बैठी.

‘जिम्मेदारियां तो इस घर में कदम रखते ही मेरे तमाम सपनों पर काले बादलों सी मंडराने लगी हैं. ’

मन जब प्यार की उमंग में डूबा हुआ हो और ऐसे में पत्नी प्यार का रुख मोड़ कर आंधियों के हवाले कर दे तो बेचारा पति हक्काबक्का होने के अलावा और क्या करे.

‘किन बादलों की बात कर रही हो?’ सुलभ आश्चर्य और खीज से देखते हुए बोला था.

‘क्यों, मेरे जीवन पर तुम्हारे मातापिता, भाईबहन का साया मेरे सपने तोड़ता रहता है और वह विधवा बूआ सुबहसुबह उस के दर्शन करो.’

‘मानसी…’ सुलभ की आवाज तल्ख हो उठी.

‘चिल्लाओ मत,’ मानसी भी उतने ही आवेग से बोली, ‘वह तुम्हारी प्यारी बहन पीहू…जब तक उस का विवाह नहीं हो जाता हम अपने शौक पूरे नहीं कर सकते. मेरे सारे अरमान घुट रहे हैं इसलिए कि तुम्हारे पापा के पास पीहू के लिए ज्यादा पैसे नहीं हैं.’

‘बस, मानसी बहुत कह दिया,’ सुलभ के अंदर का प्रेमी अचानक बिफर कर पलंग से उठ गया, ‘तुम्हारे संस्कारों में रिश्तों का महत्त्व नहीं है तो न सही…मेरी दुनिया इतनी छोटी नहीं कि पतिपत्नी से आगे हर रिश्ता बेमानी लगे.’

सुलभ कमरे से उठ कर बाहर चला गया. धीरेधीरे ऐसी तकरारें बढ़ने लगीं तब मां ने एक दिन सुलभ को एकांत में समझाया, ‘अगर मानसी अलग रहना चाहती है तो मान ले उस की बात. शादी की है तो निभाने के रास्ते निकाल. शायद दूर रह कर वह सब के प्यार को समझ सके.’

सुलभ मां की बातों पर विचार ही करता रह गया और मानसी अचानक अपने पापा के यहां चली गई. उस समय सब को लगा था कि वह कुछ दिन में वापस आ जाएगी पर सुलभ के बुलाने पर भी मानसी नहीं लौटी.

मां ने कई बार उसे बुलाने भेजा था पर मानसी ने कहा कि उस की तरफ से सुलभ पूरी तरह हर बंधन से आजाद है. जब चाहे दूसरी शादी कर ले, वह कभी नहीं आएगी.

मां को फिर भी भरोसा था कि कुछ माह में मानसी जरूर वापस आ जाएगी पर जाने कैसी जिद या शायद घमंड पाल कर बैठ गई थी मानसी. एक साल के अंदर तलाक का नोटिस आ गया था. आशाओं की अंतिम डोर भी टूट गई थी.

मानसी दिल्ली छोड़ कर अपने मामा के यहां बंगलौर चली गई थी. उस के मामाजी बहुत बड़े व्यापारी थे. विदेशों में भी उन का काम फैला हुआ था. मानसी का सपना भी बहुत पैसा था. शायद वहां मानसी ने उन की सहायता कर के अपना सपना साकार करना चाहा था.

सुलभ ने अपनी सोच को परे धकेल कर करवट ली. जाने कैसी व्याकुलता थी. उठ कर बैठ गया. पानी पी कर मेज पर पड़ा मानसी का कार्ड देखने लगा. विचारों का झंझावात फिर परेशान करने लगा.

मानसी को मामाजी के घर अपार वैभव का सुख था. उन्हें कोई संतान नहीं थी इसलिए उसे बेटी जैसा प्यार मिल रहा था. फिर भी मानसी के चेहरे पर कैसी उदासी थी. उस ने शायद  विवाह भी नहीं किया. क्या अकेलेपन की उदासी थी उस के चेहरे पर या अब उसे रिश्तों की परख हो गई है.

रात के 11 बज चुके थे. फोन के पास बैठ कर भी उसे साहस नहीं हुआ कि मानसी को फोन करे. वह चुपचाप पलंग पर लेट गया. अपने ही मन से प्रश्न करने लगा… यह क्या हो रहा है मन को? इतने वर्षों तक वह मानसी को भूल जाने का भ्रम पाले हुए था पर अब क्यों मन व्याकुल है. क्या मानसी भी उस से बहुत सी कहीअनकही बातें करना चाहती होगी? अपने ही प्रश्नों से घिरा सुलभ सोने का व्यर्थ प्रयास करने लगा.

अभी अधिक समय नहीं बीता था कि उस का मोबाइल बजने लगा. उस ने बत्ती जला कर देखा और मुसकरा उठा.

‘‘हैलो, मन.’’

‘‘जाग रहे हो?’’ उधर से मानसी का विह्वल स्वर गूंजा.

‘‘हां, सोच रहा था कि तुम्हें फोन करूं या नहीं,’’ सुलभ ने अपने मन की बात कह दी. पहले भी कभी वह मानसी से कुछ छिपा नहीं पाता था.

‘‘तो किया क्यों नहीं?’’ मानसी ने प्रश्न किया, ‘‘शायद इसलिए कि अभी तक तुम ने मुझे क्षमा नहीं किया है.’’

‘‘ऐसा नहीं है, भूल तो हम दोनों से हुई है. मेरे मन में जरा भी मैल होता तो अब तक मैं दूसरी बार घर बसा चुका होता,’’ सुलभ ने स्पष्ट शब्दों में अपने मन की बात कह दी.

उधर से कुछ पल सन्नाटा रहा, फिर एक धीमी सी वेदनामय आवाज गूंजी, ‘‘घर तो मैं भी नहीं बसा सकी. शुरू में वह सब जिद में किया, फिर धीरेधीरे अपनी गलतियों का एहसास जागा तो तुम्हारी याद ने वैसा नहीं करने दिया.’’

दोनों तरफ फिर मौन पसर गया. दोनों के मन में हलचल थी. शायद समय को मुट््ठी में कैद कर लेने की चाहत जाग उठी थी.

एक पल के सन्नाटे के बाद ही उसे मानसी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘सुलभ, मेरी बात को तुम पता नहीं कैसे लोगे पर बहुत दिनों से मन में एक बात थी और मैं चाहती थी कि तुम्हें बताऊं. क्या तुम से वह बात शेयर कर सकती हूं?’’

‘‘मानसी, भले ही अब हम साथसाथ नहीं हैं पर कभी हम ने हर कदम पर एकदूसरे का साथ देने का वचन दिया था… बोलो, क्या बात है?’’

‘‘जानती हूं, सुलभ. मेरा ही दोष है, जो दो कदम भी तुम्हारे साथ नहीं चल सकी,’’ और इसी के साथ मोबाइल पर फिर सन्नाटा पसर गया…फिर एक आवाज जैसे किसी कंदरा से घूमती हुईर् उस तक पहुंची.

‘‘सुलभ, तुम चाहते थे कि मैं तुम्हें एक बच्चे का पिता बनाऊं. तुम ने मेरे विवाह के बारे में पूछा था तो मैं ने दूसरी शादी नहीं की, लेकिन मैं एक बच्ची की मां हूं…क्या तुम उस के पिता बनना पसंद करोगे?’’

‘‘क्या?’’ सुलभ चौंक कर पलंग पर बैठ गया.

‘‘हां, सुलभ, मैं ने विवाह नहीं किया तो क्या, मैं मां हूं, एक प्यारी सी बेटी की मां, 2 साल पहले उसे गोद लिया था.’’

सुलभ चकित हो कर सुन रहा था. क्या यह सचमुच मानसी का स्वर था, जिसे बच्चे पसंद नहीं थे, जिसे घर में भीड़ पसंद नहीं थी, यह वही मानसी है…

अभी वह सोच ही रहा था कि मानसी ने फिर कहा, ‘‘जाने दो, सुलभ, मैं ने तो…’’

‘‘मानसी, हमारी बेटी का नाम क्या है?’’ सुलभ बोला तो मानसी का स्वर खुशी से लहराता हुआ आया, ‘सुरीली.’’

मानसी को उस का वह सपना भी याद था. हनीमून पर उस ने कहा था, ‘मन, जब कभी हमें बेटी होगी उस का नाम हम सुरीली रखेंगे.’

वह भावविभोर हो कर उठा और बोला, ‘‘थैंक्स मन, मैं अभी तुम्हारे पास पहुंच रहा हूं.’’

‘‘इतनी रात में?’’ मानसी का स्वर उस ने अनसुना करते हुए कहा, ‘‘अब और कुछ नहीं, पहले ही जीवन के बहुत सारे पल हम ने गंवा दिए हैं.

Holi 2024: सुधा- एक जांबाज लड़की की कहानी

दरवाजे की घंटी की मीठी आवाज ने सारे घर को गुंजा दिया था. यह घंटी अब कभीकभार ही बजती है, पर जब भी बजती है, तो सारे घर के माहौल को महका देती है.

मैं ने बड़े ही जोश से दरवाजा खोला था. दरवाजा खोलते ही एक सूटबूटधारी नौजवान पर निगाह पड़ते ही मेरी आंखों में अपनेआप सवालिया निशान उभर आया था. मुझे लगा था कि इस ने या तो गलत घर का दरवाजा खटखटा दिया है या फिर किसी का पता पूछना चाहता है, क्योंकि उसे मैं नहीं पहचानता था.

‘‘मैं सौरभ… मेरी मां सुधा और पिताजी गौरव… उन्होंने मुझ से बोला था कि मैं आप से आशीर्वाद ले कर आऊं…’’

‘‘ओह… अच्छा… कैसे हैं वे दोनों…’’ मेरे सामने अतीत के पन्ने खुलते चले गए थे. एकएक चेहरा ऐसे सामने आता जा रहा था मानो मैं अतीत के चलचित्र देख रहा हूं.

‘‘पिताजी तहसीलदार बन गए हैं… उन्होंने यह बताने को जरूर बोला था.’’

‘‘ओह… अच्छा, पर वे तो रीडर थे… मैं ने ही उन्हें नियुक्त किया था…’’ मुझे वाकई हैरानी हो रही थी.

‘‘जी, इसलिए तो उन्होंने मुझे आप को बताने के लिए बोला था… उन्होंने विभागीय परीक्षा दी थी… उस में वे पास हो गए थे और नायब तहसीलदार बना दिए गए थे… बाद में उन का प्रमोशन हो गया और अब वे तहसीलदार बन गए हैं,’’ सौरभ सबकुछ पूरे जोश के साथ बताता चला जा रहा था.

‘‘अच्छा… और सुधा का स्कूल…’’

‘‘मम्मी का स्कूल… अभी चल रहा है… तकरीबन 4 एकड़ में नई बिल्डिंग बन गई है और उस में 2,000 से ज्यादा बच्चे पढ़ रहे हैं…’’

जब सौरभ ने मेरे पैर छू कर बताया कि वह सुधा का बेटा है, तब मेरी यादों के धुंधले पड़ चुके पन्ने अचानक पलटने लगे.

सुधा… ओह… वह जांबाज लड़की, जिस ने एक झटके में ही आपने मातापिता का घर केवल इसलिए छोड़ दिया था कि वह किसी के साथ नाइंसाफी कर रहे थे. वैसे तो मैं उन को पहचानता नहीं था… वह तो उस दिन वे कचहरी आए थे, कार्ट मैरिज का आवेदन देने, तब मैं ने जाना था पहली बार उन को…

‘‘सर, मैं और ये कोर्ट मैरिज करना चाहते हैं…’’

मेरा ध्यान सुधा के साथ खड़े एक लड़के की ओर गया. सामान्य सी कदकाठी का दुबलापतला लड़का बैसाखियों के सहारे खड़ा था. उस के चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी.

मुझे हैरानी हुई थी कि इतनी खूबसूरत लड़की कैसे इस लड़के को पसंद कर सकती है और शादी कर सकती है. मैं ने आवेदनपत्र को गौर से पढ़ा :

नाम- कु. सुधा

पिता का नाम- रामलाल

शिक्षा- पोस्ट ग्रेजुएशन

लड़के का नाम- गौरव

पिता का नाम- स्व. गिरिजाशंकर

शिक्षा- बीए

मेरी निगाह एक बार फिर उन दोनों की तरफ घूम गई थी.

‘‘सर, आवेदन में कुछ रह गया है क्या? अंक सूची भी लगी हुई है. मेरी उम्र

18 साल से ज्यादा है और इन की उम्र 21 साल पूरी हो चुकी है…’’

मैं ने अपनी निगाहों को उन से हटा लिया था, ‘‘नहीं… आवेदन तो ठीक है… पर क्या मातापिता की रजामंदी है?’’

‘‘जी नहीं, तभी तो कोर्ट मैरिज कर रहे हैं. वैसे, हम बालिग हैं और अपनी पसंद से शादी कर सकते हैं…’’ सुधा ने जवाब दिया था.

‘‘ठीक है… आप 15 दिन बाद फिर आइए. हम नोटिस चस्पां करेंगे और फिर आप को शादी की तारीख बताएंगे…’’

दरअसल, मैं चाहता था कि लड़की को कुछ दिन और सोचने का मौका मिले कि कहीं वह जल्दबाजी में या जोश में तो शादी नहीं कर रही है.

उस लड़की को ले कर मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी. वह भले घर की लग रही थी और खूबसूरत भी थी. लड़का किसी भी लिहाज से उस के लायक नहीं लग रहा था. शुरू में तो मुझे लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि लड़का किसी

तरह से उसे ब्लैकमेल कर रहा हो…

मैं ने छानबीन कराने का फैसला कर लिया था.

सुधा के पिता का बड़ा करोबार था. शहर में उन की इज्जत भी बहुत थी. सुधा उन की एकलौती संतान थी, जो लाड़प्यार में पली थी.

गौरव सुधा के पिताजी की दुकान में काम करता था. वह काफी गरीब परिवार से था, पर शरीफ था. उस की मां ने मेहनतमजदूरी कर के उसे पालापोसा और पढ़ायालिखाया था.

मां बूढ़ी हो चुकी थीं. इस वजह से गौरव को पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर काम पर लग जाना पड़ा था. वह सुधा के पिताजी के यहां काम करने लगा था.

गौरव की मेहनत और ईमानदारी को देखते हुए एक दिन सेठजी ने उसे मैनेजर बना दिया और वह सेठजी का पूरा कारोबार संभालने लगा था.

इसी दौरान सुधा का परिचय गौरव से हुआ. सुधा भी गौरव से बेहद प्रभावित हुई. वे दोनों हमउम्र थे. इस वजह से उन में जानपहचान बढ़ती चली गई. इस के बावजूद उन के बीच में ऐसा कुछ नहीं था, जिसे सामाजिक तौर से गलत माना जा सके.

गौरव ने अपनी पारिवारिक परेशानियों की वजह से पढ़ाई भले ही छोड़ दी हो, पर वह समय निकाल कर पढ़नेलिखने के अपने शौक को पूरा करता रहता था. सेठजी के काम से उसे जरा सी भी फुरसत मिलती, वह या तो लिखने बैठ जाता या पढ़ने.

सुधा पोस्ट ग्रेजुएशन के आखिरी साल में थी. वह कभीकभार गौरव से पढ़ाई के विषय पर चर्चा करने लगी थी. वह जानती थी कि गौरव ने भले ही पोस्ट ग्रेजुएशन न किया हो, पर उसे जानकारी पूरी थी.

गौरव की मां की बीमारी ठीक नहीं हो रही थी. गौरव की तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा मां की दवाओं पर ही खर्च हो जाता था, पर उसे सुकून था कि वह मां की सेवा कर रहा है.

सुधा गौरव के हालात के बारे में इतना बेहतर तो नहीं जानती थी, पर मां की बीमारी और माली तंगी को वह समझने लगी थी.

तभी गौरव के साथ घटे दर्दनाक हादसे ने उसे गौरव के और करीब ला दिया था. सेठजी के गोदाम में रखी एक लोहे की छड़ उस के पैरों को छलनी करती हुई तब आरपार निकल गई थी, जब वह माल का निरीक्षण कर रहा था.

गौरव को तत्काल अस्पताल ले जाया गया, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. डाक्टरों को उस का एक पैर काट देना पड़ा था.

गौरव अब विकलांग हो चुका था. वह अब सेठजी के किसी काम का नहीं रहा था, इसलिए उन्होंने उस का इलाज तो पूरा कराया, पर इस के बाद उसे काम पर आने से मना कर दिया.

अपने पिताजी के इस बरताव से सुधा दुखी थी. अपंग गौरव के सामने दो जून की रोटी का संकट पैदा हो गया था. सुधा ने अपने पिताजी को काफी समझाने की कोशिश भी की थी, पर उन्होंने साफ कह दिया था, ‘‘हम बैठेबिठाए किसी को तनख्वाह नहीं दे सकते.’’

‘‘पर, वह आप की रोकड़बही का काम करेगा न, पहले भी वह यही काम करता था और आप खुद उस के काम की तारीफ करते थे,’’ सुधा ने कहा था.

‘‘रोकड़बही का काम कितनी देर का रहता है… बाकी दिनभर तो वह बेकार ही रहेगा न. पहले वह इस काम के अलावा बैंक जाने से ले कर गोदाम तक का काम कर लेता था, पर अब तो वह यह भी नहीं कर पाएगा,’’ सेठजी मानने को तैयार नहीं थे.

ऐसे में सुधा के पास एक आखिरी हथियार बचा था अपने पिता को धमकी देने का, ‘‘पिताजी, अगर आप ने गौरव को काम पर नहीं रखा, तो मैं भी इस घर में नहीं रहूंगी…’’

‘‘ठीक है बेटी, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ पिताजी ने इतना कह कर बात को खत्म कर दिया था. वे इसे सुधा का बचपना ही मान कर चल रहे थे, परंतु सुधा स्वाभिमानी लड़की थी. उसे अपने पिता से इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं थी. उसने गौरव को अपनाने का फैसला कर लिया.

जब सुधा ने अपना फैसला सुनाया, तो उस की मां दुखी हो गई थीं. उन्होंने उसे रोका भी था, पर वे अपनी बेटी के स्वभाव से परिचित थीं. इस वजह से उन्होंने उसे जाने दिया.

‘‘यह मत समझना कि मैं किसी फिल्मी पिता की तरह तुम्हें समझाबुझा कर वापस लाने की कोशिश करूंगा… वैसे भी तुम बालिग हो और अपना फैसला खुद ले सकती हो…’’ पिताजी की आवाज में सहजता ही थी. उधर गौरव की मां जरूर घबरा गई थीं.

‘‘नहीं बेटी, मैं तुम्हें अपने घर पर नहीं रख सकती. हम तो पहले से ही इतने परेशान हैं, तुम क्यों हमारी परेशानी बढ़ाना चाहती हो…’’ कहते हुए गौरव की मां फफक पड़ी थीं.

‘‘मां, मैं तो अब आ ही चुकी हूं. अब मैं वापस तो जाने से रही, इसलिए आप परेशान न हों… मैं सब संभाल लूंगी… अपने पिताजी को भी.’’

सुधा ने परिवार को वाकई संभाल लिया था. वह मां की पूरी सेवा करती और गौरव का भी ध्यान रखती. गौरव घर में रह कर बच्चों को पढ़ाता रहता और सुधा एक स्कूल में टीचर बन गई थी.

एक दिन सुधा ही गौरव को ले कर कचहरी गई थी, ताकि कोर्ट मैरिज का आवेदन दे सके. यों बगैर शादी किए वह कब तक इस परिवार में रह सकती थी.

सुधा और गौरव की पूरी कहानी का पता चलने के बाद मैं ने उन दोनों की मदद करने का फैसला ले लिया था. दोनों की कोर्ट मैरिज हो गई थी.

गौरव को मैं ने ही कचहरी में काम पर लगा लिया था. सुधा का मन स्कूल संचालन में ज्यादा था. सो, मैं ने अपने माध्यमों का उपयोग कर उस को स्कूल खोलने की इजाजत दिला दी थी, साथ ही अपने परिचितों से उस स्कूल में अपने बच्चों का दाखिला दिलाने को भी कह दिया था.

सुधा का स्कूल खुल चुका था. 2 कमरे से शुरू हुआ उस का स्कूल धीरेधीरे बड़ा होता जा रहा था.

सौरभ का जब जन्म हुआ, तब तक सुधा का स्कूल शहर के नामी स्कूलों में गिना जाने लगा था.

रिटायर होने के बाद मैं अपने शहर आ गया था. इस के चलते फिर न तो सुधा से कभी मुलाकात हो सकी और न ही सौरभ के बारे में जान सका. आज जब सौरभ को यों अपने सामने देखा तो पहचान ही नहीं पाया.

सुधा और गौरव ने जीरो से शुरुआत की थी और आज उंचाइयों पर पहुंच गए थे. मुझे खुशी इस बात की भी थी कि इस सब में मेरा भी कुछ न कुछ योगदान था. अपने ही लगाए पौधे को जब माली फलताफूलता देखता है, तो उसे खुशी तो होती ही है.

अच्छी बात यह भी थी कि गौरव और सुधा मुझे अभी भूले भी नहीं थे, जबकि न जाने कितना समय गुजर चुका है.

मैं ने सौरभ को गले से लगा लिया और पूछा, ‘‘और बेटा, तुम क्या कर रहे हो?’’

‘‘जी, मेरा अभीअभी आईएएस में चयन हुआ है. मैं जानता हूं अंकल कि आप ने मेरे परिवार को इस मुकाम तक पहुंचाने में कितना सहयोग दिया है. मां ने मुझे सबकुछ बताया है. अगर उस समय आप उन का साथ नहीं देते तो शायद…’’ उस की आंखों में आंसू डबडबा आए थे. मैं ने एक बार फिर उसे अपने सीने से लगा लिया था.

दुनिया: जब पड़ोसिन ने असमा की दुखती रग पर रखा हाथ

यह फ्लैट सिस्टम भी खूब होता है. कंपाउंड में सब्जी वाला आवाजें लगाता तो मैं पैसे डाल कर तीसरी मंजिल से टोकरी नीचे उतार देती, लेकिन मेरे लाख चीखनेचिल्लाने पर भी सब्जी वाला 2-4 टेढ़ीमेढ़ी दाग लगी सब्जियां व टमाटर चढ़ा ही देता. एक दिन मामूली सी गलती पर पोस्टमैन 1,800 रुपए का मनीऔर्डर ले कर मेरे सिर पर सवार हो गया और आज हौकर हमारा अखबार फ्लैट नंबर 111 में डाल गया.

मिसेज अनवर वही अखबार लौटाने आई थीं. मैं ने शुक्रिया कह कर उन से अखबार लिया और फौर्मैलिटी के तौर पर उन्हें अंदर आने के लिए कहा तो वे झट से अंदर आ गईं और फैल कर बैठ गईं. कुछ देर इधरउधर की बातें कर के मैं उन के लिए कौफी लेने किचन की तरफ बढ़ी तो वे भी मेरे पीछे ही चली आईं और लाउंज में मौजूद चेयर संभाल ली. मैं ने वहीं उन्हें कौफी का कप थमाया और लंच की तैयारी में जुट गई.

वे बोलीं, ‘‘कुछ देर पहले मैं ने तुम्हारे फ्लैट से एक साहब को निकलते देखा था. उन्हें लाख आवाजें दी मगर उन्होंने सुनी नहीं, इसलिए मुझे खुद ही आना पड़ा.’’

‘‘चलिए अच्छी बात है, इसी बहाने आप से मुलाकात तो हो गई,’’ कह कर मैं मुसकरा दी. फिर गोश्त कुकर में चढ़ाया, फ्रिज से

सब्जी निकाली और उन के सामने बैठ कर छीलने लगी.

‘‘सच कहती हूं, जब से तुम आई हो तब से ही तुम से मिलने को दिल करता था, मगर इस जोड़ों के दर्द ने कहीं आनेजाने के काबिल कहां छोड़ा है.’’

मैं खामोशी से लौकी के बीज निकालती रही. तब उन्होंने पूछा, ‘‘तुम्हारे शौहर तो मुल्क से बाहर हैं न?’’

‘‘जी…?’’ मैं ने चौंक कर उन्हें देखा, ‘‘जिन साहब को आप ने सुबह देखा, वही तो…’’

‘‘हैं… वे तुम्हारे शौहर हैं?’’

मिसेज अनवर जैसे करंट खा कर उछलीं और मैं ने ऐसे सिर झुका लिया जैसे आफताब सय्यद मेरे शौहर नहीं, मेरा जुर्म हों. वैसे इस किस्म के जुमले मेरे लिए नए नहीं थे मगर हर बार जैसे मुझे जमीन में धंसा देते थे. मैं ने लाख बार उन्हें टोका है कि कम से कम बाल ही डाई कर लिया करें, मगर बनावट उन्हें पसंद ही नहीं है.

मिसेज अनवर ने यों तकलीफ भरी सांस ली जैसे मेरी सगी हों. फिर बोलीं, ‘‘कितनी प्यारी दिखती हो तुम, क्या तुम्हारे घर वालों को तुम्हें जहन्नुम में धकेलते वक्त जरा भी खयाल नहीं आया?’’

फिर वे लगातार व्यंग्य भरे वाक्य मुझ पर बरसाती रहीं और कौफी पीती रहीं. मेरी अम्मी को सारी जिंदगी ऐसे ही लोगों की जलीकटी बातें सताती रहीं. अब्बा बैंकर थे और बहुत जल्दी दुनिया छोड़ गए थे. अम्मी पढ़ीलिखी थीं, इसलिए अब्बा की बैंकरी उन के हिस्से में आ गई. अम्मी की आधी जिंदगी 2-2 पैसे जमा करते गुजरी. उन्होंने अपने लहू से अपने पौधों की परवरिश की, मगर जब फल खाने का वक्त आया तो…

बड़ी आपा शक्ल की प्यारी मगर, मिजाज की ऊंची निकलीं. उन के लिए रिश्ते तो आते रहे मगर उन की उड़ान बहुत ऊंची थी. मास्टर डिगरी लेने के बाद उन्हें लैक्चररशिप मिल गई तो उन की गरदन में कुछ ज्यादा ही अकड़ आ गई और अम्मी के खाते में बेटी की कमाई खाने का इलजाम आ पड़ा.

‘‘बेटी की शादी कब कर रही हैं आप? अब कर ही डालिए. इतनी देर भी सही नहीं.’’ लोग ऐसे कहते जैसे अम्मी के कान और आंखें तो बंद हैं. वे मशवरे के इंतजार में बैठी हैं. अम्मी बेटी की बात मुंह पर कैसे लातीं. किसकिस को बड़ी आपा के मिजाज के बारे में बतातीं.

अम्मी पाईपाई पर जान देती थीं और सारा जमाजोड़ बेटियों के लिए बैंक में रखवा देती थीं. आपा हर रिश्ते पर नाक चढ़ा कर कह देतीं, ‘‘असमा या हुमा की कर दीजिए न, आखिर उन्हें भी तो आप को ब्याहना ही है.’’

और इस से पहले कि असमा या हुमा के लिए कुछ होता बड़े भैया उछलने लगे. मेरी शादी होगी तो जारा सरदरी से ही. अम्मी भौचक्की रह गईं. अभी तो पेड़ का पहला फल भी न खाया था. अभी दिन ही कितने हुए थे बड़े भाई को नौकरी करते हुए. जारा सरदारी भैया की कुलीग थी. अम्मी ने ताड़ लिया कि बेटा बगावत के लिए आमादा है. ऐसे में हथियार डाल देने के अलावा कोई चारा न था. फिर वही हुआ जो भाई ने चाहा था.

जारा सरदरी को अपनी कमाई पर बड़ा घमंड और शौहर पर पूरा कंट्रोल था. ससुराल वालों से उस का कोई मतलब न था. बहुत जल्दी उस ने अपने लिए अलग घर बनवा लिया.

अम्मी को बड़ी आपा की तरफ से बड़ी मायूसी हो रही थी लेकिन हुमा के लिए एक ऐसा रिश्ता आ गया, जो अम्मी को भला लगा. आखिरकार बड़ी आपा के नाम की सारी जमापूंजी खर्च कर उसे ब्याह दिया. हुमा का भरापूरा ससुराल था. ससुराल के लोगों के मिजाज अनूठे थे. इस पर शौहर निखट्टू.

उस की सारी उम्मीदें ससुराल वालों से थीं कि वे उसे घरजमाई रख लें, कारोबार करवा दें या घर दिलवा दें. यह कलई बाद में खुली. झूठ पर झूठ बोल कर अम्मी को दोनों हाथों से लूटा गया. मगर ससुराल वालों की हवस पूरी न हुई.

हुमा बहुत जल्दी घर लौट आई. उस का सारा दहेज ननदों के काम आया. फिर बहुत मुश्किल से तलाक मिलने पर उसे छुटकारा मिला. लेकिन इस पर खानदान के कई लोगों ने अम्मी को यों लताड़ा जैसे अम्मी को पहले से सब कुछ पता था.

हुमा का उजड़ना उन्हें मरीज बना गया. वे आहिस्ताआहिस्ता घुल रही थीं. एक रोज वे बिस्तर से जा लगीं, मगर सांसें जैसे हम दोनों बहनों में अटकी थीं.

कभी-कभी बड़े भैया बीवीबच्चे समेत घर आते तो अम्मी की परेशानियां जबान पर आ जातीं. लेकिन वे हर बात उड़ा जाते. ‘‘अम्मी, हो जाएगा सब कुछ. आप फिक्र न किया करें.’’

परेशानियों के इसी दौर में छोटे भैया से मायूस हो कर अम्मी ने उन्हें ब्याहा. छोटे भैया अपने पैरों पर खड़े थे. लेकिन घर की जिम्मेदारियों से दूर भागते थे. घर की गाड़ी अम्मी के बचाए पैसों पर ही चल रही थी. लेकिन घर चलाने के लिए एक जिम्मेदार औरत का होना जरूरी होता है, यह सोच कर ही अम्मी ने छोटे भैया को ब्याह दिया था.

लेकिन अम्मी एक बार फिर मात खा गईं. छोटी भाभी बहुत होशियार और समझदार साबित हुईं, मगर मायके के लिए. उन के दिलोदिमाग पर मायके का कब्जा था. कोई न कोई बहाना बना कर मायके की तरफ दौड़ लगाना और कई दिन डेरा डाल कर वहां पड़ी रहना उन की फितरत थी. ससुराल में वे कभीकभी ही नजर आतीं. अचानक छोटे भैया को दुबई में नौकरी का चांस मिल गया और भाभी का पड़ाव हमेशा के लिए मायके में बन गया.

इस दौरान एक खुशी की बात यह हुई कि बड़ी आपा के लिए एक भला रिश्ता मिल गया. संजीदा, सोबर और जिम्मेदार एहसान अलवी. पढ़ेलिखे होने के साथसाथ अरसे से अमेरिका में रहते थे. आपा जितनी उस उम्र की थीं, उस से कम की ही नजर आती थीं और एहसान अलवी अपनी उम्र से 2-4 साल ज्यादा के दिखते थे.

अम्मी को फिर इनकार का अंदेशा था. उन्होंने आपा को समझाया, ‘‘ऐसा रिश्ता फिर मिलने वाला नहीं. समझो कि गोल्डन चांस है. पानी पल्लू के नीचे से गुजर जाए तो लौट कर नहीं आता.’’

पता नहीं क्या हुआ कि यह बात आपा की अक्ल में समा गई. फिर चट मंगनी, पट ब्याह. आपा अमेरिका चली गईं.

शादी के नाम पर हुमा रोने बैठ जातीऔर एक ही रट लगाती, ‘‘मुझे नहीं करनी शादीवादी.’’

मैं आईने के समाने खड़ी होती तो आठआठ आंसू रोती. हमारे खानदान के हर घर में रिश्ता मौजूद था, मगर लड़के 4 अक्षर पढ़ कर किसी काबिल हो जाते हैं, तो खानदान की फीकी सीधी लड़कियों पर हाथ नहीं रखते हैं. ऐसे में सारी रिश्तेदारी धरी की धरी रह जाती है. फिर अब उन्हें बदला भी लेना था. अम्मी ने भी तो खानदान की किसी लड़की पर हाथ नहीं रखा था. उन के दोनों बेटों की बीवियां तो पराए खानदान की थीं. इस धक्कमपेल में मेरी उम्र 30 पार कर गई.

फिर अचानक बड़ी आपा की ससुराल के किसी फंक्शन में आफताब सय्यद के रिश्तेदारों ने मुझे पसंद किया. आफताब की सारी फैमिली कनाडा में रहती थी और उन के सभी भाईबहन शादीशुदा थे. आफताब की पहली शादी नाकाम हो चुकी थी. बीवी ने नया घर बसा लिया था. उन के 2 बच्चे थे, जो आफताब के पास ही थे. अम्मी को मेरी नेक सीरत पर भरोसा था. और मुझे भी कहीं न कहीं तो समझौता करना ही था. पानी पल्लू के नीचे से गुजर जाए तो लौट कर नहीं आता, यह बात मैं ने गिरह में बांध ली थी.

आफताब बहुत खयाल रखने वाले शौहर साबित हुए. हमारी उम्र में फर्क बहुत ज्यादा न था. मगर दुनिया तो यही समझती थी कि वे मुझ से बहुत बड़े हैं और बच्चों समेत सारी गृहस्थी मेरी मुट्ठी में है. इस एहसास की झील में कोई न कोई कंकड़ डाल कर हलचल मचा ही देता था. तब मुझे लगता था कि इंसान अपनी जिंदगी से समझौता कर भी ले तो दुनिया उसे कहां छोड़ती है?

बड़ा जिन्न: क्या सकीना वाकई में जिन्न से मिली थी

सकीना बी.ए. पास थी और शक्ल ऐसी कि लाखों में एक. कई जगह से उस की शादी के पैगाम आए परंतु उस के मांबाप ने सब नामंजूर कर दिए. कारण यह था कि सभी लड़के साधारण घरानों के थे. कुछ नौकरी करते थे तो कुछ का छोटामोटा व्यापार था. उन का रहनसहन भी साधारण था.

सकीना के बाप कुरबान अली चाहते थे कि सकीना को ऊंचे खानदान, धनी लड़का और ऊंचा घर मिले. ऐसा लड़का उन्हें जल्दी ही मिल गया. हालांकि समाज की मंडियों में ऐसे लड़कों के ग्राहकों की कमी नहीं होती, मगर कुरबान अली की बोली इस नीलामी में सब से ऊंची थी.

कुरबान अली बेटी के लिए जो लड़का लाए, वह खरा सैयद था. लड़के के बाप ठेकेदार थे, लंबाचौड़ा मकान था और हजारों की आमदनी थी. लड़का कुछ भी नहीं करता था. बस, बाप के धन पर मौज उड़ाता था.

वह लड़का भी कुरबान अली को 80 हजार रुपए का पड़ा. स्कूटर, रंगीन टीवी, वी.सी.आर., फ्रिज सबकुछ ही देना पड़ा. कुरबान अली का दिवाला निकल गया. उन के होंठों पर से वर्षों के लिए मुसकराहट गायब हो गई. ऊंचे लड़के के लिए ऊंची कीमत देनी पड़ी थी. छोटू ठेकेदार का एक ही बेटा था. अच्छे पैसे बना लिए उस के. क्यों न बनाते? जब देने वाले हजार हों तो लेने वाले क्यों तकल्लुफ करें? बब्बन मियां एक बीवी के मालिक हो गए और 80 हजार रुपए के भी.

एक वर्ष बीत गया. स्कूटर भी पुराना हो गया और बीवी भी. पुरानी वस्तुओं पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता, जितना नई पर दिया जाता है. बब्बन मियां की दिलचस्पी सकीना में न होने के बराबर रह गई.

सकीना सबकुछ सह लेती परंतु उस की गोद खाली थी. सासननदों ने शोर मचाना शुरू कर दिया. बच्चा होने के दूरदूर तक आसार नहीं थे. सकीना जानती थी कि औरत का पहला फर्ज बच्चा पैदा करना है.

आसपास की बूढ़ियों ने सकीना की सास से कहा, ‘‘बहू पर असर है. इसे जलालशाह के पास ले जाओ.’’

सकीना स्वयं पढ़ीलिखी थी और उस का घराना भी जाहिल नहीं था. ससुराल में तो अंधेरा ही अंधेरा था, जहालत और अंधविश्वास का.

उस ने बहुत सिर मारा. ससुराल वालों को समझाया, ‘‘जिन्नआसेब, भूतप्रेत, असर, जादूटोना ये सब जहालत की बातें हैं. जिस का जो काम है उसे ही करना चाहिए. घड़ी में खराबी हो जाए तो उसे घड़ीसाज ही ठीक करता है. टूटे हुए जूतों को मोची संभालते हैं. मोटरकार की मरम्मत मिस्तरी करता है परंतु मेरा इलाज डाक्टर की जगह पीर क्यों करेगा?’’

सास खीज कर बोलीं, ‘‘जबान बंद कर. क्या इसीलिए पढ़ालिखा है तू ने कि पीरफकीरों पर भी कीचड़ उछाले? जानती नहीं कि हजारों लोग पीर जलालशाह की खानकाह में हाजिरी दे कर अपनी खाली झोलियां मुरादों से भर कर लौटते हैं? क्या वे सब पागल हैं?’’

एक बूढ़ी ने सास के कान में कहा, ‘‘यह सकीना नहीं बोल रही है, यह तो इस पर सवार जिन्न की आवाज है. इस पर न बिगड़ो.’’

सकीना ने मजबूर हो कर बब्बन मियां से कहा, ‘‘यह क्या जहालत है? मुझे पीर साहब के पास खानकाह भेजा जा रहा है. वैसे तो औरतों से इतना सख्त परदा कराया जाता है, लेकिन पीर साहब भी तो गैर आदमी हैं. आप शायद नहीं जानते कि ये लोग खुद भी किसी जिन्न से कम नहीं होते. मुझे किसी डाक्टर को दिखा दीजिए या फिर मुझे घर भिजवा दीजिए.’’

बब्बन मियां ने साफसाफ कह दिया, ‘‘पीर साहब को खुदा ने खास ताकत दी है. उन्होंने सैकड़ों जिन्न उतारे हैं. वह किसी औरत के लिए भी गैरमर्द नहीं हैं क्योंकि उन की आंखें औरत के बदन को नहीं, उस की रूह को देखती हैं. तुम पर असर है, इसलिए तुम अपने घर भी नहीं जा सकतीं. कान खोल कर सुन लो, तुम्हें पीर साहब से इलाज कराना ही होगा. अगर तुम्हारे बच्चा न हुआ तो फिर मुझे इस खानदान के वारिस के लिए दूसरी शादी करनी पड़ेगी.’’

सकीना कांप उठी. जुमेरात के दिन वही औरतें खानकाह में जाती थीं जो बच्चे की मुराद मानती थीं. पीर साहब की यह पाबंदी थी कि उन के साथ कोई मर्द नहीं जा सकता था.

जब सकीना बुरका ओढ़ कर खानकाह पहुंची तो दिन छिप रहा था. रास्ते के दोनों तरफ मर्द और औरतें हाथों में सुलगते हुए पलीते लिए बैठे थे. एक ओर फकीरों की भीड़ थी. वहां हार, फूल और मिठाई की दुकानें भी थीं. हवा में लोबान और अगरबत्तियों की खुशबू बिखरी पड़ी थी.

खानकाह की बड़ी सी इमारत औरतों से भरी पड़ी थी. चौड़े मुंह वाले भारीभरकम पीर साहब कालीन पर बैठे थे. घनी दाढ़ी और लाललाल आंखें. वह औरतों को देखदेख कर उन्हें पलीते पकड़ा रहे थे.

सकीना की बारी आई तो उन की लाल आंखों में चमक आ गई.

‘‘बहुत बड़ा जिन्न है,’’ वह दाढ़ी पर हाथ फेर कर बोले, ‘‘2 घंटे बाद सामने वाले दरवाजे से अंदर चली जाना. एक आदमी तुम्हें बता देगा.’’

सकीना यह सुन कर और भी परेशान हो गई.

‘न जाने क्या चक्कर है?’ वह सोच रही थी, ‘अगर कोई ऐसीवैसी बात हुई तो मैं अपनी जान तो दे ही सकती हूं.’ और उस ने गिरेबान में रखे चाकू को फिर टटोल कर देखा.

2 घंटे बीतने पर एक भयंकर शक्ल वाले आदमी ने सकीना के पास आ कर कहा, ‘‘उस दरवाजे में से अंदर चली जाओ. वहां अंधेरा है, जिस में पीर साहब जिन्न से लड़ेंगे. डरना नहीं.’’

सकीना कांपती हुई अंदर दाखिल हुई. घुप अंधेरा था.

उस के कानों में सरसराहट की सी आवाज आई और फिर घोड़े की टापों की सी धमक के बाद सन्नाटा छा गया.

उस के कानों के पास किसी ने कहा, ‘‘मैं जिन्न हूं और तुझे उस दिन से चाहता हूं जब तू छत पर खड़ी बाल सुखा रही थी. मैं ने ही तेरे बच्चे होने बंद कर रखे हैं. सुन, मैं तो हवा हूं. मुझ से डर कैसा?’’

सकीना पसीने में नहा गई. उसे किसी की सांसों की गरमी महसूस हो रही थी.

उस ने थरथर कांपते हुए गिरेबान से चाकू निकाल लिया.

किसी ने सकीना से लिपटना चाहा. मगर अगले ही पल उस का सीधा हाथ ऊपर उठा. चाकू ‘खचाक’ से किसी नरम वस्तु में धंस गया. उलटा हाथ बालों से टकराया. उस ने झटका दिया. बालों का गुच्छा मुट्ठी में आ गया. उसी के साथ एक करुणा भरी चीख कमरे में गूंज गई.

सकीना पागलों के समान उलटे पैरों भाग खड़ी हुई, भागती ही रही.

अगले दिन वह पुलिस थाने में अपना बयान लिखवा रही थी और पीर साहब अस्पताल में पड़े थे. उन के पेट में गहरा घाव था और दाढ़ी खुसटी हुई थी.

दर्द: क्यों आजर ने एक्सिडेंट का नाटक किया

‘‘तुम अभी तक गई नहीं हो…’’ छोटी बहन हया ने हैरान हो कर जोया से पूछा.

‘‘कहां…?’’ जोया ने भी हैरान होते हुए कहा.

‘‘आजर भाई को अस्पताल में देखने,’’ हया ने कहा.

‘‘मैं क्यों जाऊं…’’ जोया ने लापरवाही से कहा.

‘‘घर के सब लोग जा चुके हैं, लेकिन तुम हो कि अभी तक नहीं गईं… आखिर वे तुम्हारे मंगेतर हैं…’’

‘‘मंगेतर… मंगेतर था… लेकिन अब नहीं. एक अपाहिज मेरा मंगेतर नहीं हो सकता. मु झे उस की बैसाखी नहीं बनना,’’ जोया आईने के सामने खड़ी अपने बाल संवार रही थी और छोटी बहन हया के सवालों के जवाब लापरवाही से दे रही थी.

जब बाल सैट हो गए तो जोया ने खुद को आईने में नीचे से ऊपर तक देखा और पर्स नचाते हुए दरवाजे से बाहर निकल गई.

आजर के यहां का दस्तूर था कि रिश्ते आपस में ही हुआ करते थे और शायद इसी रिवाज को जिंदा रखने के लिए मांबाप ने बचपन में ही उस का रिश्ता उस के चाचा की बेटी जोया से तय कर दिया था.

आजर कम बोलने वाला सुलझा हुआ लड़का था और जोया को उसकी मां के बेजा लड़ाप्यार ने जिद्दी बना दिया था.

शायद यही वजह थी कि बचपन में दोनों साथ खेलतेखेलते  झगड़ने लगते थे. जो खिलौना आजर के हाथ में होता, जोया उसे लेने की जिद करती और जब तक आजर उसे दे नहीं देता, वह चुप न होती.

उस दिन तो हद ही हो गई थी. आजर पुरानी कौपी का कवर लिए हुए था. कवर पर कोई तसवीर बनी थी. शायद उसे पसंद थी.

जोया की नजर उस कवर पर पड़ गई. वह चिल्लाने लगी. ‘यह मेरा है… इसे मैं लूंगी…’’

आजर भी बच्चा था. बजाय उसे देने के दोनों हाथ पीछे कर के छिपा लिया. वह चीखती रही, चिल्लाती रही… यहां तक कि बड़े लोग भी वहां आ गए.

‘तोबा… कागज के टुकड़े के लिए जिद कर रही है… अभी अगर यह आजर के हाथ में न होता तो रद्दी होता… क्या लड़की है. कयामत बरपा कर दी इस ने तो…’ बड़ी अम्मी बड़बड़ाई थीं.

यों ही लड़ते झगड़ते दोनों बड़े हो गए और बचपन पीछे छूट गया. दोनों उम्र के उस मुकाम पर थे, जहां जागती आंखें ख्वाब देखने लगती हैं और जब आजर ने जोया की आंखों में देखा तो हया की लाली उतर आई… नजर अपनेआप  झुकती चली गई. शायद उसे मंगेतर का मतलब सम झ आ गया था. अब वह आजर की इज्जत करती… उस की बातों में शरीक होती… उस के नाम पर हंसती… घर वालों को इतमीनान हो गया था कि चलो, सबकुछ ठीक हो गया है.

बड़ी अम्मी इन दिनों मायके गई हुई थीं और जब लौटीं तो उन के साथ एक दुबलीपतली सी लड़की सना थी, जिस की मां बचपन में गुजर चुकी थी. बाप ने दूसरी शादी कर ली थी… अब उस के भी 4 बच्चे थे… बेचारी कोल्हू के बैल की तरह लगी रहती.

दादा से पोती की हालत देखी न जाती. दादा बड़ी अम्मी के रिश्ते के चाचा थे… जब बड़ी अम्मी उन से मिलने गईं तो पोती का दुखड़ा ले कर बैठ गए. ‘किसी की मां न मरे…’ बड़ी अम्मी ने ठंडी सांस ली, ‘पर, आप इसे हमारे साथ भेज दीजिए,’ बड़ी अम्मी ने कुछ सोच कर कहा था.

अंधा क्या चाहे दो आंखें… वे खुशीखुशी राजी हो गए. लेकिन बहू का खयाल आते ही उन की सारी खुशी काफूर हो गई. वह न जाने देगी और जब नजर उठाई तो वह दरवाजे पर खड़ी थी. उस ने सारी बातें सुन ली थीं.

बड़ी अम्मी कब हारने वाली थीं. उन्होंने अपने तरकश से एक तीर छोड़ा… जो सही निशाने पर जा बैठा. उन्होंने हर महीने कुछ रकम भेजने का वादा किया और उसे ले आईं.

सना ने आते ही पूरा घर संभाल लिया था. इतना काम उस के लिए कुछ भी नहीं था. वह आंखें बंद कर के कर लेती और उसे सौतेली मां के जुल्मों से भी नजात मिल गई थी. वह यहां आ कर खुश थी.

अगर कभी घर में गैस खत्म हो जाती तो लकडि़यों के चूल्हे पर सेंकी हुई सुर्खसुर्ख रोटियां और धीमीधीमी आंच पर दम की हुई हांड़ी से निकलती खुशबू फैलती तो भूख अपनेआप लग जाती.

चाची की तरफ मातम बरपा होता, ‘अरे, गैस खत्म हो गई. अब क्या करें…  भाभी सिलैंडर वाला आया क्या…’ फिर बाजार से पार्सल आते, तब जा कर खाना मिलता.

और अगर कभी मिर्ची पाउडर खत्म हो जाता, तो सना खड़ी मिर्च निकाल लेती और उन्हें सिलबट्टे पर पीस कर खाना तैयार कर देती. सालन देख कर अम्मी को पता चलता था कि मिर्ची खत्म हो गई है.

और चाची की तरफ ऐसा होता तो जोया कहती, ‘न बाबा न, मेरे हाथ में जलन होने लगती है. हया, तुम इसे पीस लो.’

हया भी साफ मना कर देती.

सना तुम कौन हो… कहां से आई हो… सादगी की मूरत… जिंदगी की आइडियल सना… तुम्हारी किन लफ्जों में तारीफ करूं…

यह सुन कर आजर का दिल बिछबिछ जाता… फिर उसे जोया का खयाल आता… वह तो उस का मंगतेर है. कल को उस की उस से शादी हो जाएगी, फिर यह कशिश क्यों? वह सना की तरफ क्यों खिंचा जा रहा है? अकसर तनहाई में वह उस के बारे में सोचता रहता.

एक दिन आजर गाड़ी से लौट रहा था कि रास्ते में उस का ऐक्सिडैंट हो गया. अस्पताल पहुंचने पर डाक्टर ने कहा, ‘अब ये अपने पैरों पर चल नहीं सकेंगे.’

सारा घर वहां जमा था. सब का रोरो कर बुरा हाल था.

जब से आजर का ऐक्सिडैंट हुआ था, जोया ने अपने कालेज के दोस्तों से मिलना शुरू कर दिया था. आज भी वह तैयार हो कर किसी से मिलने गई थी. हया के लाख सम झाने पर भी उस पर कोई असर नहीं हुआ था.

आजर अस्पताल के बैड पर दोनों पैरों से लाचार लेटा हुआ था… हर आहट पर देखता… शायद वह आ जाए… जिस से दिल का रिश्ता जुड़ा है… वफा के सिलसिले हैं…लेकिन दूर तक जोया का कहीं पता न था.

एक आहट पर उस के खयालात बिखर गए. अम्मी आ रही थीं. उन के पीछे सना थी. अम्मी ने इशारा किया तो वह सामने स्टूल पर बैठ गई.

अम्मी रात का खाना ले कर आई थीं. आजर खाना खा रहा था और कनखियों से सना को देख रहा था. फुल आस्तीन वाला कुरता, चूड़ीदार पाजामा, सिर पर चुन्नी डाले वह खामोश बैठी थी.

‘काश, इस की जगह जोया होती,’ आजर ने सोचा, फिर जल्दी से नजरें  झुका लीं. कहीं उस के चेहरे से अम्मी उस का दर्द न पढ़ लें… और मुंह में निवाला रख कर चबाने लगा.

जब आजर खाने से फारिग हो गया, तो अम्मी बरतन समेटने लगीं.

‘‘अम्मी, आप रहने दीजिए. मैं कर लूंगी,’’ सना की महीन सी आवाज आई. उस ने बरतन समेट कर थैले में रखे और खड़ी हो गई.

जब सना बरतन उठा रही थी तो खुशबू का  झोंका उस के पास से आया और आजर को महका गया. अम्मी उसे अपना खयाल रखने की हिदायत दे कर चली गईं.

आज आजर को डिस्चार्ज मिल गया था. बैसाखियों के सहारे जब वह घर के अंदर आया तो अम्मी का कलेजा मुंह को आने लगा. अब सना आजर का पहले से ज्यादा खयाल रखने लगी थी.

एक दिन देवरानीजेठानी बरामदे में बैठी हुई थीं. देवरानी शायद बात का सिरा ढूंढ़ रही थी, ‘‘भाभी, हम आप से कुछ कहना चाहते हैं…’’ कहते हुए उन्होंने उन की आंखों में देखा.

‘‘जोया ने इस रिश्ते के लिए मना कर दिया है. वह आजर से निकाह नहीं करना चाहती, क्योंकि आजर तो…’’ उन्होंने जुमला अधूरा ही छोड़ दिया और उठ कर चली आईं.आजर ने नोटिस किया था कि अम्मी बहुत बु झीबु झी सी रहती हैं. आखिर आजर पूछ ही बैठा, ‘‘अम्मी, क्या बात है… आप बहुत उदास रहती हैं…

‘‘कुछ नहीं… बस ऐसे ही… जरा तबीयत ठीक नहीं है…’’‘‘मैं जानता हूं कि आप क्यों परेशान हैं… जोया ने इस रिश्ते से मना कर दिया है.’’

अम्मी ने चौंक कर आजर की तरफ देखा.

‘‘हां अम्मी, मु झे मालूम है… वह मु झे देखने तक नहीं आई… अगर रिश्ता नहीं करना था तो इनसानियत के नाते तो आ सकती थी. जिस का इनसानियत से दूरदूर तक वास्ता न हो, मु झे खुद उस से कोई रिश्ता नहीं रखना.’’

‘‘मेरे बच्चे,’’ अम्मी की आंखों से आंसू निकल पड़े. उन्होंने उसे गले से लगा लिया.

‘‘अम्मी, मेरी शादी होगी… उसी वक्त पर होगी…’’ अम्मी ने उस की आंखों में देखा, जिस का मतलब था, ‘अब तु झ से कौन शादी करेगा…’

‘‘अम्मी, मैं सना से शादी करूंगा. मैं ने सना से बात कर ली है.’’

यह सुन कर अम्मी ने फिर उसे गले से लगा लिया.

शादी की तैयारियां होने लगीं और जो वक्त जोया के साथ शादी के लिए तय था, उसी वक्त पर आजर और सना का निकाह हो गया.

आजर को कुछ याद आया. एक बार जोया ने बातोंबातों में कहा था कि शादी के बाद वह हनीमून के लिए स्विस्ट्जरलैंड जाएगी…

आजर ने स्विट्जरलैंड जाने की ख्वाहिश जाहिर की तो अम्मी ने उसे जाने की इजाजत दे दी.

आज आजर हनीमून से लौट रहा था. सना अंदर दाखिल हुई तो कितनी निखरीनिखरी और कितनी खुश लग रही थी. फिर उस ने दरवाजे की तरफ मुसकरा कर देखा और कहा, ‘‘आइए न…’’ इतने पर आजर अंदर दाखिल हुआ. उसे देख कर अम्मी की आंखें हैरत से फैलती चली गईं. वह अपने पैरों पर चल कर आ रहा था.

‘‘बेटे, यह सब क्या है?’’ उन्होंने आगे बढ़ कर उसे थाम लिया.

‘‘बताता हूं… पहले आप बैठिए तो सही…’’ आजर ने दोनों हाथ पकड़ कर उन्हें बिठा दिया.

‘‘आप बड़े लोग अपने बच्चों के फैसले तो कर देते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि बड़े हो कर उन की सोच कैसी होगी, उन के खयालात कैसे होंगे, उन का नजरिया कैसा होगा और मु झे सच्चे हमदर्द की तलाश थी, जिस के अंदर कुरबानी का जज्बा हो. एकदूसरे के लिए तड़प हो. और ये सारी खूबियां मुझे सना में नजर आईं… इसलिए मैं ने डाक्टर से मिल कर एक प्लान बनाया. वह ऐक्सिडैंट  झूठा था. मेरे पैर सहीसलामत थे. यह मेरा सिर्फ नाटक था… नतीजा आप के सामने है.

‘‘जोया ने खुद इस रिश्ते से इनकार कर दिया… सना ने मुझ अपाहिज को कुबूल किया… मैं सना का हूं…’’

दरवाजे पर खड़ी जोया ने सारी बातें सुन ली थीं. उस का जी चाह रहा था कि सबकुछ तोड़फोड़ डाले.

बस एक भूल: जब एक पत्नी ने पति को बना दिया नामर्द

जब बड़ी बेटी मधु की शादी में विद्यासागर के घर शहनाई बज रही थी, तो खुशी से उन की आंखें भर आईं. उधर बरातियों के बीच बैठे राजेश के पिता की भी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था, क्योंकि उन के एकलौते बेटे की शादी मधु जैसी सुंदर व सुशील लड़की से हो रही थी. लेकिन उन्हें क्या पता था कि यह शादी उन के लिए सिरदर्द बनने वाली है. शादी को अभी 2 दिन भी नहीं हुए थे कि मधु राजेश को नामर्द बता कर मायके आ गई.

यह बात दोनों परिवारों के गांवों में जंगल में लगी आग की तरह फैल गई. सब अपनीअपनी कहानियां बनाने लगे. कोई कहता कि राजेश ज्यादा शराब पी कर नामर्द बन गया है, तो कोई कहता कि वह पैदाइशी नामर्द था. इस से दोनों परिवारों की इज्जत धूल में मिल गई.

राजेश जहां भी जाता, गांव वालों से यही सुनने को मिलता कि उन्हें तो पहले से ही मालूम था कि आजकल की लड़की उस जैसे गंवार के साथ नहीं रह सकती.

विद्यासागर के दुखों का तो कोई अंत ही नहीं था. वे बस एक ही बात कहते, ‘मैं अपनी बेटी को कैसी खाई में धकेल रहा था…’

मधु के घर में मातम पसरा हुआ था, पर जैसे उस के मन में कुछ और ही चल रहा था.

मधु की ससुराल वाले बस यही चाहते थे कि वे किसी तरह से मधु को अपने यहां ले आएं, क्योंकि गांव वाले उन को इतने ताने मार रहे थे कि उन का घर से निकलना मुश्किल हो गया था.

राजेश के पिता विद्यासागर से बात करना चाहते थे, पर उन्होंने साफ इनकार कर दिया था.

कुछ दिनों बाद मधु की ससुराल वाले कुछ गांव वालों के साथ मधु को लेने आए, तो मधु ने जाने से साफ इनकार कर दिया.

विद्यासागर ने भी मधु की ससुराल वालों की उन के गांव वालों के सामने जम कर बेइज्जती कर दी और धमकाते हुए कहा, ‘‘आज के बाद यहां आया, तो तेरी टांगें तोड़ दूंगा.’’

यह सुन कर राजेश के पिता भी उन्हें धमकाने लगे, ‘‘अगर तुम अपनी बेटी को मेरे साथ नहीं भेजोगे, तो मैं तुम पर केस कर दूंगा.’’

विद्यासागर ने कहा, ‘‘जो करना है कर ले, पर मैं अपनी बेटी को तेरे घर कभी नहीं भेजूंगा.’’ मामला कोर्ट में पहुंच गया. मधु तलाक चाहती थी, पर राजेश उसे रखना चाहता था.

कुछ दिनों तक केस चला, लेकिन दोनों परिवारों की माली हालत कमजोर होने की वजह से उन्होंने आपस में समझौता कर लिया व तलाक हो गया. मधु बहुत खुश थी, क्योंकि वह तो यही चाहती थी.

एक दिन जब मधु सुबहसवेरे दुकान पर जा रही थी, तो वहां उसे दीपक दिखाई दिया, जो उस के साथ पढ़ता था. मधु ने दीपक को धीरे से कहा, ‘‘आज शाम को मैं तेरा इंतजार मंदिर में करूंगी. वहां आ जाना.’’

दीपक ने कुछ जवाब नहीं दिया. मधु मुसकरा कर चली गई.

जब शाम को वे दोनों मंदिर में मिले, तो मधु ने खुशी से कहा, ‘‘देख दीपक, मैं तेरे लिए सब छोड़ आई हूं. वह रिश्ता, वह नाता, सबकुछ.’’

‘‘मेरे लिए… तुम कहना क्या चाहती हो मधु?’’ दीपक ने थोड़ा चौंक कर उस से पूछा.

‘‘दीपक, मैं सिर्फ तुम से प्यार करती हूं और तुम से ही शादी करना चाहती हूं,’’ मधु ने थोड़ा बेचैन अंदाज में कहा.

‘‘यह तुम क्या कह रही हो मधु?’’ दीपक ने फिर पूछा.

मधु ने कहा, ‘‘मैं सच कह रही हूं दीपक. मैं तुम से प्यार करती हूं. कल यह समाज मेरे फैसले का विरोध करे, इस से पहले हम शादी कर लेते हैं.’’

‘‘मधु, तुम पागल तो नहीं हो गई हो. जब गांव वाले सुनेंगे, तो मुझे जान से मार देंगे और पता नहीं, मेरी मां मेरा क्या हाल करेंगी?’’ दीपक ने थोड़ा घबरा कर कहा.

‘‘क्या तुम गांव वालों और अपनी मां से डरते हो? क्या तुम ने मुझ से प्यार नहीं किया?’’

‘‘हां मधु, मैं ने तुम से ही प्यार किया है, पर तुम से शादी करूंगा, ऐसा कभी नहीं सोचा.’’

मधु ने गुस्से में कहा ‘‘धोखेबाज, तू ने शादी के बारे में कभी नहीं सोचा, पर मैं सिर्फ तेरे बारे में ही सोचती रही. ऐसा न हो कि मैं कल किसी और की हो जाऊं. चल, शादी कर लेते हैं,’’ मधु ने दीपक का हाथ पकड़ कर कहा.

‘‘नहीं मधु, मुझे अपनी मां से बहुत डर लगता है. अगर हम दोनों ने ऐसा किया, तो गांव में हम दोनों की बदनामी होगी,’’ दीपक ने समझाते हुए कहा.

मधु ने बोल्ड अंदाज में कहा, ‘‘तुम अपनी मां और गांव वालों से डरते होगे, पर मैं किसी से नहीं डरती. मैं करूंगी तुम्हारी मां से बात.’’ दीपक ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की, पर मधु ने अपनी जिद के आगे उस की एक न सुनी.

अगले दिन जब मधु दीपक की मां से बात करने गई, तो उस की मां ने कड़क आवाज में कहा, ‘‘मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतनी गिरी हुई लड़की हो. तुम ने इस नाजायज प्यार के लिए अपना ही घर उजाड़ दिया.’’

‘‘मैं अपना घर उजाड़ कर नहीं आई मांजी, बल्कि दीपक के लिए सब छोड़ आई हूं. मेरे लिए दीपक ही सबकुछ है. मुझे अपनी बहू बना लीजिए, वरना मैं मर जाऊंगी,’’ मधु ने गिड़गिड़ा कर कहा. ‘‘तो मर जा, लेकिन मुझे सैकंडहैंड बहू नहीं चाहिए,’’ दीपक की मां ने दोटूक शब्दों में कहा.

‘‘मैं सैकंडहैंड नहीं हूं मांजी. मैं वैसी ही हूं, जैसी गई थी,’’ मधु ने कहा.

‘‘लगता है कि शादी के बाद तुझ में कोई शर्मलाज नहीं रही है. अंधे प्यार ने तुझे पागल बना दिया है. दीपक तेरे गांव का है… तेरा भाई लगेगा. मैं तेरे पापा को सब बताऊंगी,’’ दीपक की मां ने मधु को धमकाते हुए कहा. इस के आगे मधु ने कुछ नहीं कहा. वह चुपचाप वहां से चली गई.

दीपक की मां ने विद्यासागर से कहा, ‘‘तुम्हारी बेटी दीपक के प्यार के चलते ही अपनी ससुराल में न बस सकी. अपनी बेटी को बस में रखो, वरना एक दिन वह तुम्हारी नाक कटा देगी.’’ यह सुनते ही विद्यासागर का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया.

विद्यासागर ने घर जाते ही मधु से गुस्से में पूछा, ‘‘मधु, वह लड़का सच में नामर्द था या फिर तुम ने उसे नामर्द बना दिया?’’

‘‘वह मुझे पसंद नहीं था,’’ मधु ने बेखौफ हो कर कहा.

‘‘इसलिए तुम ने उसे नामर्द बना दिया,’’ विद्यासागर ने गुस्से में कहा.

‘‘हां,’’ मधु बोली.

‘‘मतलब, तुम ने पहले ही सोच लिया था कि यह रिश्ता तोड़ना है?’’

‘‘हां.’’

फिर विद्यासागर उसे बहुतकुछ सुनाने लगे, ‘‘जब तुम्हें रिश्ता तोड़ना ही था, तो यह रिश्ता जोड़ा ही क्यों? जब रिश्ते की बात हो रही थी, तो मैं ने बारबार पूछा था कि यह रिश्ता पसंद है न? हर बार तू ने हां कहा था. क्यों? ‘‘तेरी ससुराल वाले मुझ से बारबार एक ही बात कह रहे थे कि राजेश नामर्द नहीं है, पर मैं ने तुझ पर भरोसा कर के उन की एक न सुनी.

‘‘वह मेरी मजबूरी थी, क्योंकि आप से कहीं रिश्ता हो ही नहीं रहा था. बड़ी मुश्किल से आप ने मेरे लिए एक रिश्ता तय किया, तो मैं उसे कैसे नकार देती?’’ मधु ने शांत लहजे में कहा.

‘‘जानती हो कि तुम्हारे चलते मैं आज कितनी बड़ी मुसीबत में फंस गया हूं. तेरी शादी का कर्ज अभी तक मेरे सिर पर है. सोचा था कि इस साल तेरी छोटी बहन की शादी कर देंगे, पर तुझ से छुटकारा मिले तब न.’’ मधु पिता की बात ऐसे सुन रही थी, जैसे उस ने कुछ गुनाह ही न किया हो.

‘‘जेब में एक पैसा नहीं है. तेरा छोटा भाई अभी 10 साल का है. उस से अभी क्या उम्मीद करूं? आसपास के लोग तो बस हम पर हंसते हैं. ‘‘पता नहीं, आजकल के बच्चों को हो क्या गया है. वे रिश्तों की अहमियत क्यों नहीं समझते हैं. रिश्ता तोड़ना तो आजकल एक खेल सा बन गया है. इस से मांबाप की कितनी परेशानी बढ़ती है, यह आजकल के बच्चे समझें तब न.

‘‘वैसे भी लड़कियों को रिश्ता तोड़ने का एक अच्छा बहाना मिल गया है कि लड़का पसंद न हो, तो उसे नामर्द बता दो. यह एक ऐसी बीमारी है, जिस का कोई इलाज ही नहीं है,’’ इस तरह एकतरफा गरज कर मधु के पिता बाहर चले गए.

यह बात धीरेधीरे पूरे गांव में फैल गई. गांव वाले मधु के खिलाफ होने लगे. अब तो उस का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया. दीपक भी अपनी मां के कहने पर नौकरी के लिए शहर चला गया. विद्यासागर ने मधु की दूसरी शादी कराने की बहुत कोशिश की, पर कहीं बात नहीं बनी. वे जानते थे कि लड़की की एक बार शादी होने के बाद उस की दूसरी शादी कराना बड़ा ही मुश्किल होता है.

इस तरह एक साल गुजर गया. मधु को भी अपनी गलती का एहसास हो गया था. वह बारबार यही सोचती, ‘मैं ने क्यों अपना घर उजाड़ दिया? मेरे चलते ही परिवार वाले मुझ से नफरत करते हैं.’ फिर बड़ी मुश्किल से मधु के लिए एक रिश्ता मिला. उस आदमी की बीवी कुछ महीने पहले मर गई थी. वह विदेश में रह कर अच्छा पैसा कमाता था.

मधु की मां ने उस से पूछा, ‘‘सचसच बताना कि तुझे यह रिश्ता मंजूर है?’’

मधु ने धीरे से कहा, ‘‘हां.’’

मां ने कहा, ‘‘इस बार कुछ गड़बड़ की, तो अब इस घर में भी जगह नहीं मिलेगी.’’

मधु बोली, ‘‘ठीक है.’’

फिर मधु की शादी गांव से दूर एक शहर में कर दी गई. वह आदमी भी मधु को देख कर बहुत खुश था. जब मधु एयरपोर्ट पर अपने पति के साथ विदेश जाने लगी, तो उस के परिवार वालों ने सबकुछ भुला कर उसे विदा किया. उस की मां ने नम आंखों से जातेजाते मधु से पूछ ही लिया, ‘‘क्या तुम इस रिश्ते से खुश हो?’’ मधु ने भी नम आंखों से कहा, ‘‘खुश हूं. एक गलती कर के पछता रही हूं. अब मैं भूल से भी ऐसी गलती दोबारा नहीं करूंगी.’’

विद्यासागर ने मधु से भर्राई आवाज में कहा, ‘‘मधु, मैं ने गुस्से में तुम से जोकुछ भी कहा, उसे भूल जाना.’’

कुछ देर बाद पूरे परिवार ने नम आंखों से मधु को विदा कर दिया.

बोसीदा छत: क्या अजरा अपनी मां को बचा पाई?

जब जीनत इस घर में दुलहन बन कर आई थी, तब यह घर इतना बोसीदा और जर्जर नहीं था. पुराना तो था, लेकिन ठीकठाक था. उस के ससुर का गांव में बड़ा रुतबा था. वे गांव के जमींदार के लठैत हुआ करते थे, जिन से गांव के लोग खौफ खाते थे. सास नहीं थीं. शौहर तल्हा का रंग सांवला था, लेकिन वह मजबूत कदकाठी का नौजवान था, जो जीनत से बेइंतिहा मुहब्बत करता था.

एक दिन खेतों में पानी को ले कर मारपीट हुई, जिस में जीनत के ससुर मार दिए गए. तब से समय ने जो पलटा खाया, तो फिर आज तक मनमुताबिक होने का नाम नही लिया.

फिर समय के साथसाथ घर की छत भी टपकने लगी. अपने जीतेजी तल्हा से 10,000 रुपयए का इंतजाम न हो सका कि वह अपने जर्जर मकान के खस्ताहाल और बोसीदा छत की मरम्मत करा सके.

चौदह साल की अजरा ने तुनकते हुए अपनी अम्मी जीनत से कहा, “अम्मी, आलू की सब्जी और बैगन का भरता खातेखाते अब जी भर गया है. कभी गोश्तअंडे भी पकाया करें.”

इस पर जीनत बोली, “अरे नाशुक्री, अभी पिछले ही हफ्ते लगातार 3 दिनों तक कुरबानी का गोश्त खाती रही और इतनी जल्दी फिर तुम्हारी जबान चटपटाने लगी.”

अजरा ने फिर तुनकते हुए कहा, “मालूम है अम्मी… बकरीद को छोड़ कर साल में एक बार भी खस्सी का गोश्त खाने को नहीं मिलता है. काश, हर महीने बकरीद होती, तो कितना अच्छा होता.”

उस की अम्मी ने कहा, “जो भी चोखाभात मिल रहा है, उस का शुक्र अदा करो. बहुत सारे लोग भूखे पेट सोते हैं. और जो यह छत तुम्हारे सिर के ऊपर मौजूद है, इस का भी शुक्र अदा करो. इस बोसीदा छत की कीमत उन लोगों से पूछो जिन के सिरों पर छप्पर भी नहीं है. इस सेहत और तंदुरुस्ती का भी शुक्र अदा करो… जो लोग बीमारी की जद में हैं, उन से सेहत और तंदुरुस्ती की कीमत पूछो…”

अगले दिन जोरों से बारिश हो रही थी. अजरा ने अम्मी को भीगते हुए आते देखा तो दौड़ कर एक फटी हुई चादर ले आई और उन के गीले जिस्म को पोंछने लगी. जीनत पूरी तरह पानी से भीग चुकी थी. उस के कपड़े जिस्म से चिपक कर उस की बूढ़ी हड्डियों को दिखा रहे थे.

जीनत ने उस फटी चादर को सूंघा फिर अलगनी पर फेंक दिया. फिर भीगे हुए दुपट्टे से पानी निचोड़ा, उसे झटका और फिर अलगनी पर सूखने के लिए फैला दिया.

अजरा कनखियों से देख रही थी कि उस की अम्मी छत के एक कोने को बड़े गौर से देख रही हैं.

जीनत ने खुश होते हुए कहा, “देखो अजरा… इस बार उस कोने से पानी नहीं टपक रहा है. कई दिनों की बारिश के बाद भी वह हिस्सा पहले की तरह ही सूखा हुआ है.”

अजरा ने दूसरे कोने की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, “लेकिन अम्मी, उस कोने से तो पानी चू रहा है.”

जीनत उस की बात का जवाब दिए बिना ही कमरे से निकल गई और थोड़ी देर बाद मिट्टी का एक बड़ा सा घड़ा ले कर लौटी और उसे टपक रहे पानी के नीचे रख दिया. फिर पानी बूंदबूंद कर के उस में गिरने लगा और अगलबगल की जमीन गीली होने से बच गई.

सैकड़ों साल पुराना यह मकान आहिस्ताआहिस्ता जर्जर होता जा रहा था. ईंट के चूरे, चूना वगैरह से बनी उस की छत अब अपनी उम्र पूरी कर चुकी थी.

जीनत ने 3 साल पहले छत को बड़े नुकसान से बचाने के लिए उस पर सीमेंटबालू से पलास्तर करा दिया था. मगर फिर भी बारिश का पानी किसी न किसी तरह रिसता हुआ फर्श पर टपकता ही रहता था. अलबत्ता इस बार कमरे का सिर्फ एक कोना टपक रहा था, बाकी हिस्से सहीसलामत थे.

रात में सोते समय जीनत का सारा ध्यान बस 2 बातों पर जाता था कि अजरा की शादी कैसे होगी और इस बोसीदा छत की मरम्मत कैसे होगी. अजरा की शादी से पहले छत की मरम्मत तो हर हाल में हो जानी चाहिए. शादी में लोगबाग आएंगे तो उन का ध्यान छत की तरफ जा सकता है.

रात में अजरा तो घोड़े बेच कर सो जाती, लेकिन जीनत का सारा ध्यान इसी उधेड़बुन में उलझा रहता. पानी चूने वाले जगहों पर पड़े बड़ेबड़े बोसीदा निशान जीनत को चिढ़ाते रहते. आंधीतूफान और बरसात के दिनों में तो उस का हाथ कलेजे पर ही रहता. हालांकि दीवारें तो काफी मोटी थीं, लेकिन छत खस्ताहाल हो चुकी थी.

कभीकभी शौहर तल्हा भी जीनत के खयालों में टहलता हुए आ जाता. मजदूरी कर के लौटते वक्त उस के बदन से उठ रही पसीने की खुशबू की याद से जीनत सिहर उठती. वह यादों में खो कर अजरा के माथे पर हाथ फेरने लगती.

‘अब्बू, जलेबी लाए हैं?’ सवाल करते हुए अजरा अपने अब्बू से लिपट जाती. फिर तल्हा अपने थैले से जलेबी का दोना निकाल कर अजरा को थमा देता और वह खुश हो जाती.

5 साल पहले अजरा के अब्बा तल्हा खेत में कुदाल चलाते हुए गश खा कर ऐसे गिरे कि फिर उठ नहीं सके. तब से जीनत मेहनतमजदूरी कर के अपनी एकलौती बेटी की परवरिश कर रही है और उसे पढ़ालिखा रही है. जीनत की ख्वाहिश है कि अजरा पढ़लिख कर अपने परिवार का नाम रोशन करे.

जीनत हर साल बरसात से पहले छत की मरम्मत कराने की सोचती है, लेकिन कोई न कोई ऐसा खर्च निकल आता है कि छत की मरम्मत का सपना अधूरा रह जाता है. जैसे इसी साल अजरा के फार्म भरने और इम्तिहान देने में 2,000 रुपए खर्च हो गए और छत की मरम्मत का काम आगे सरकाना पड़ा.

बरसात के बाद रमजान का महीना आ गया. अगलबगल के घरों से इफ्तार का सामान मांबेटी की जरूरतों से ज्यादा आने लगा. सेहरी व इफ्तार में लजीज पकवान खा कर अजरा बहुत खुश रहा करती.

अजरा ने कहा, “अम्मी, अगर सालभर रमजान का महीना रहता तो कितना मजा आता…”

अजरा की बात सुन कर जीनत मुसकरा कर रह गई.

इसी बीच अजरा की सहेलियों ने बताया कि हालफिलहाल ‘मस्तानी सूट’ का खूब चलन है. इस ईद पर हम सब वही सिलवाएंगे. फिर क्या था… अजरा ने भी अपनी अम्मी से ‘मस्तानी सूट’ की फरमाइश शुरू कर दी.

जीनत अपनी बेटी अजरा का दिल कभी नहीं तोड़ना चाहती है. अलबत्ता उस की ख्वाहिशों पर लगाम लगाने की भरपूर कोशिश करती है.

जीनत ने अजरा को समझाते हुए कहा, “बेटी, यह ‘मस्तानी सूट’ हम गरीबों के लिए नहीं है. उस की कीमत 1,000 रुपए है. अगर उस में 1,000 रुपए और जोड़ लें तो इस बोसीदा छत की मरम्मत हो जाएगी.”

बहरहाल, रमजान का आधा महीना गुजर गया. इस बीच मजदूरी करकर के जीनत के पास कुछ पैसे जमा हो गए थे. उस ने ईद के बाद इस बोसीदा छत से नजात पाने का इरादा कर लिया था.

जीनत ने अजरा से कहा, “मैं तो सोच रही थी कि ईद के बाद छत की मरम्मत करा ली जाए. अब तुम्हारा ‘मस्तानी सूट’ बीच में आ गया. ईद का खर्च अलग है. अगर कहीं से जकात की मोटी रकम मिल जाए तो सब काम आसानी से हो जाएं…”

गरीबों के अरमान रेत के महलों की तरह सजते हैं और फिर भरभरा कर गिर जाते हैं. जब मेहनतमजदूरी से भी अरमान पूरे नहीं होते तो इमदाद और सहारे की उम्मीद होने लगती है. अमीरों की दौलत से निकाली हुई मामूली रकम जकात के रूप में उन के बहुत काम आती है.

ईद से ठीक 4 दिन पहले स्कूल में अजरा को खबर मिली कि उस की अम्मी खेत में बेहोश हो कर गिर पड़ी हैं. वह बदहवास हो कर मां को देखने दौड़ पड़ी.

लोगों ने जीनत को चारों तरफ से घेर रखा था. लोगों की भीड़ देख कर अजरा और बदहवास हो गई. तबतक गांव के नन्हे कंपाउंडर भी वहां पहुंच चुके थे. उन्होंने नब्ज देखते हुए नाउम्मीदी में सिर हिला दिया.

लोग कहने लगे, ‘बेचारी रोजे की हालत में मरी है, सीधे जन्नत में जाएगी…’

किसी ने अजरा के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, “बेचारी के सिर से मां का साया भी उठ गया. आखिर बाप वाला हाल मां का भी हो गया.”

लेकिन अजरा को यकीन नहीं हो रहा था कि उस की अम्मी मर चुकी हैं. वह पागलों की तरह दौड़ते हुए गांव में गई और केदार काका का ठेला खींचते हुए खेत तक ले आई.

अजरा ने रोते हुए लोगों से कहा, “मेहरबानी कर के मेरी अम्मी को जल्द से जल्द अस्पताल पहुंचाने में मेरी मदद करें.”

लोगों ने उस की दीवानगी देखी तो जीनत को ठेले पर लादा और अस्पताल के लिए दौड़ पड़े.

अस्पताल पहुंचने में एक घंटा लगा. आधे घंटे तक मुआयना करने के बाद आखिरकार डाक्टरों ने जीनत को मुरदा करार कर दे दिया.

यह सुनते ही अजरा वहीं गिर पड़ी. लोगों ने सोचा कि लड़की रोजे से है. मां की मौत का सदमा और भागदौड़ बरदाश्त नहीं कर सकी है.

डाक्टरों ने उस की नब्ज देखी और हैरत से एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

धीरेधीरे गांव के लोग सरकने लगे. अब मांबेटी दोनों की लावारिस लाश का पंचनामा बन रहा था.

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