कलंक- भाग 3 : बलात्कारी होने का कलंक अपने माथे पर लेकर कैसे जीएंगे वे तीनों ?

उन की खामोशी से इन तीनों की घबराहट व चिंता और भी ज्यादा बढ़ गई. संजय के पिता की माली हालत अच्छी नहीं थी. इसलिए रुपए खर्च करने की बात सुन कर उस के माथे पर पसीना झलक उठा था.

‘‘फोन कर के तुम दोनों अपनेअपने पिता को यहीं बुला लो. सब मिल कर ही अब इस मामले को निबटाने की कोशिश करेंगे,’’ रामनाथ की इस सलाह पर अमल करने में सब से ज्यादा परेशानी नरेश ने महसूस की थी.

नरेश का रिश्ता कुछ सप्ताह पहले ही तय हुआ था. अगले महीने उस की शादी होने की तारीख भी तय हो चुकी थी. वह रेप के मामले में फंस सकता है, यह जानकारी वह अपने मातापिता व छोटी बहन तक बिलकुल भी नहीं पहुंचने देना चाहता था. उन तीनों की नजरों में गिर कर उन की खुशियां नष्ट करने की कल्पना ही उस के मन को कंपा रही थी. मन के किसी कोने में रिश्ता टूट जाने का भय भी अपनी जड़ें जमाने लगा था.

नरेश अपने पिता को सूचित न करे, यह बात रामनाथ ने स्वीकार नहीं की. मजबूरन उसे अपने पिता को फौरन वहां पहुंचने के लिए फोन करना पड़ा. ऐसा करते हुए उसे संजय अपना सब से बड़ा दुश्मन प्रतीत हो रहा था.

करीब घंटे भर बाद वकील राकेश का फोन आया.

‘‘रामनाथ, उस इलाके के थानाप्रभारी का नाम सतीश है. मैं ने थानेदार को सब समझा दिया है. वह हमारी मदद करेगा पर इस काम के लिए 10 लाख मांग रहा है.’’

‘‘क्या उस लड़की ने रिपोर्ट लिखवा दी है?’’ रामनाथ ने चिंतित स्वर में सवाल पूछा.

‘‘अभी तो रिपोर्ट करने थाने में कोई नहीं आया है. वैसे भी रिपोर्ट लिखाने की नौबत न आए, इसी में हमारा फायदा है. थानेदार सतीश तुम से फोन पर बात करेगा. लड़की का मुंह फौरन रुपयों से बंद करना पड़ेगा. तुम 4-5 लाख कैश का इंतजाम तो तुरंत कर लो.’’

‘‘ठीक है. मैं रुपयों का इंतजाम कर के रखता हूं.’’

संजय के लिए 2 लाख की रकम जुटा पाना नामुमकिन सा ही था. उस के पिता साधारण सी नौकरी कर रहे थे. वह तो अपने दोस्तों की दौलत के बल पर ही ऐश करता आया था. जहां कभी मारपीट करने या किसी को डरानेधमकाने की नौबत आती, वह सब से आगे हो जाता. उस के इसी गुण के कारण उस की मित्रमंडली उसे अपने साथ रखती थी.

वह इस वक्त मामूली रकम भी नहीं जुटा पाएगा, इस सच ने आलोक, नरेश और रामनाथ से उसे बड़ी कड़वी बातें सुनवा दीं.

कुछ देर तो संजय उन की चुभने वाली बातें खामोशी से सुनता रहा, पर अचानक उस के सब्र का घड़ा फूटा और वह बुरी तरह से भड़क उठा था.

‘‘मेरे पीछे हाथ धो कर मत पड़ो तुम सब. जिंदगी में कभी न कभी मैं तुम लोगों को अपने हिस्से की रकम लौटा दूंगा. वैसे मुझे जेल जाने से डर नहीं लगता. हां, तुम दोनों अपने बारे में जरूर सोच लो कि जेल में सड़ना कैसा लगेगा?’’ यों गुस्सा दिखा कर संजय ने उन्हें अपने पीछे पड़ने से रोक दिया था.

थानेदार ने कुछ देर बाद रामनाथ से फोन पर बात की और पैसे के इंतजाम पर जोर डालते हुए कहा कि जरूरत पड़ी तो रात में आप को बुला लूंगा या सुबह मैं खुद ही आ जाऊंगा.

नरेश के पिता विजय कपूर ने जब रामनाथ की कोठी में कदम रखा तो उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

रामनाथ ने उन्हें जब उन तीनों की करतूत बताई तो उन की आंखों में आंसू भर आए थे.

अपने बेटे की तरफ देखे बिना विजय कपूर ने भरे गले से रामनाथ से प्रार्थना की, ‘‘सर, आप इस समस्या को सुलझवाइए, प्लीज. अगले महीने मेरे घर में शादी है. उस में कुछ व्यवधान पड़ा तो मेरी पत्नी जीतेजी मर जाएगी.’’

अपने पिता की आंखों में आंसू देख कर नरेश इतना शर्मिंदा हुआ कि वह उन के सामने से उठ कर बाहर बगीचे में निकल आया.

अब संजय व आलोेक के लिए भी उन दोनों के सामने बैठना असह्य हो गया तो वे भी वहां से उठे और बगीचे में नरेश के पास आ गए.

चिंता और घबराहट ने उन तीनों के मन को जकड़ रखा था. आपस में बातें करने का मन नहीं किया तो वे कुरसियों पर बैठ कर सोचविचार की दुनिया में खो गए.

उस अनजान लड़की के रेप करने से जुड़ी यादें उन के जेहन में रहरह कर उभर आतीं. कई तसवीरें उन के मन में उभरतीं और कई बातें ध्यान में आतीं.

इस वक्त तो बलात्कार से जुड़ी उन की हर याद उन्हें पुलिस के शिकंजे में फंस जाने की आशंका की याद दिला रही थी. जेल जाने के डर के साथसाथ अपने घर वालों और समाज की नजरों में सदा के लिए गिर जाने का भय उन तीनों के दिलों को डरा रहा था. डर और चिंता के ऐसे भावों के चलते वे तीनों ही अब अपने किए पर पछता रहे थे.

संजय का व्यक्तित्व इन दोनों से अलग था. इसलिए सब से पहले उस ने ही इस समस्या को अलग ढंग से देखना शुरू किया.

‘‘हो सकता है कि वह लड़की पुलिस के पास जाए ही नहीं,’’ संजय के मुंह से निकले इस वाक्य को सुन कर नरेश और आलोक चौंक कर सीधे बैठ गए.

‘‘वह रिपोर्ट जरूर करेगी…’’ नरेश ने परेशान लहजे में अपनी राय बताई.

‘‘तुम्हारी बात ठीक है, पर बलात्कार होने का ढिंढोरा पीट कर हमेशा के लिए लोगों की सहानुभूति दिखाने या मजाक उड़ाने वाली नजरों का सामना करना किसी भी लड़की के लिए आसान नहीं होगा,’’ आलोक ने अपने मन की बात कही.

‘‘वह रिपोर्ट करना भी चाहे तो भी उस के घर वाले उसे ऐसा करने से रोक सकते हैं. अगर रिपोर्ट लिखाने को तैयार होते तो अब तक उन्हें ऐसा कर देना चाहिए था,’’ संजय ने अपनी राय के पक्ष में एक और बात कही.

‘‘मुझे तो एक अजीब सा डर सता रहा है,’’ नरेश ने सहमी सी आवाज में वार्त्तालाप को नया मोड़ दिया.

‘‘कैसा डर?’’

‘‘अगर उस लड़की ने कहीं आत्महत्या कर ली तो हमें फांसी के फंदे से कोई नहीं बचा सकेगा.’’

‘‘उस लड़की का मर जाना उलटे हमारे हक में होगा. तब रेप हम ने किया है, इस का कोई गवाह नहीं रहेगा,’’ संजय ने क्रूर मुसकान होंठों पर ला कर उन दोनों का हौसला बढ़ाने की कोशिश की.

‘‘लड़की आत्महत्या कर के मर गई तो उस के पोस्टमार्टम की रिपोर्ट रेप दिखलाएगी. पुलिस की तहकीकात होगी और हम जरूर पकड़े जाएंगे. यह एसएचओ भी तब हमें नहीं बचा पाएगा. इसलिए उस लड़की के आत्महत्या करने की कामना मत करो बेवकूफो,’’ आलोक ने उन दोनों को डपट दिया.

‘‘मुझे लगता है एसएचओ को इतनी जल्दी बीच में ला कर हम ने भयंकर भूल की है, वह अब हमारा पिंड नहीं छोड़ेगा. लड़की ने रिपोर्ट न भी की तो भी वह रुपए जरूर खाएगा,’’ संजय ने अपनी खीज जाहिर की.

‘‘तू इस बात की फिक्र क्यों कर रहा है? रेप करने में सब से आगे था और अब रुपए निकालने में तू सब से पीछे है.’’

आलोक के इस कथन ने संजय के तनबदन में आग सी लगा दी. उस ने गुस्से में कहा, ‘‘अपना हिस्सा मैं दूंगा. मुझे चाहे लूटपाट करनी पड़े या चोरी, पर तुम लोगों को मेरा हिस्सा मिल जाएगा.’’

संजय ने उसी समय मन ही मन जल्द से जल्द अमीर बनने का निर्णय लिया. उस का एक चचेरा भाई लूटपाट और चोरी करने वाले गिरोह का सदस्य था. उस ने उस के गिरोह में शामिल होने का पक्का मन उसी पल बना लिया. उस ने अभावों व जिल्लत की जिंदगी और न जीने की सौगंध खा ली.

नरेश उस वक्त का सामना करने से डर रहा था जब वह अपनी मां व जवान बहन के सामने होगा. एक बलात्कारी होने का ठप्पा माथे पर लगा कर इन दोनों के सामने खड़े होने की कल्पना कर के ही उस की रूह कांप रही थी. जब आंतरिक तनाव बहुत ज्यादा बढ़ गया तो अचानक उस की रुलाई फूट पड़ी.

रामनाथ ने अब उन्हें अपने फार्महाउस में भेजने का विचार बदल दिया क्योंकि एसएचओ उन से सवाल करने का इच्छुक था. उन के सोने का इंतजाम उन्होंने मेहमानों के कमरे में किया.

विजय कपूर अपने बेटे नरेश का इंतजार करतेकरते सो गए, पर वह कमरे में नहीं आया. उस की अपने पिता के सवालों का सामना करने की हिम्मत ही नहीं हुई थी.

सारी रात उन तीनों की आंखों से नींद कोसों दूर रही. उस अनजान लड़की से बलात्कार करना ज्यादा मुश्किल साबित नहीं हुआ था, पर अब पकड़े जाने व परिवार व समाज की नजरों में अपमानित होने के डर ने उन तीनों की हालत खराब कर रखी थी.

सुबह 7 बजे के करीब थानेदार सतीश श्रीवास्तव रामनाथ की कोठी पर अपनी कार से अकेला मिलने आया.

उस का सामना इन तीनों ने डरते हुए किया. थाने में बलात्कार की रिपोर्ट लिखवाने वह अनजान लड़की रातभर नहीं आई थी, लेकिन थानेदार फिर भी 50 हजार रुपए रामनाथ से ले गया.

‘‘मैं अपनी वरदी को दांव पर लगा कर आप के भतीजे और उस के दोस्तों की सहायता को तैयार हुआ हूं,’’ थानेदार ने रामनाथ से कहा, ‘‘मेरे रजामंद होने की फीस है यह 50 हजार रुपए. वह लड़की थाने न आई तो इन तीनों की खुशकिस्मती, नहीं तो 10 लाख का इंतजाम रखिएगा,’’ इतना कह कर वह उन को घूरता हुआ बोला, ‘‘और तुम तीनों पर मैं भविष्य में नजर रखूंगा. अपनी जवानी को काबू में रखना सीखो, नहीं तो एक दिन बुरी तरह पछताओगे,’’ कठोर स्वर में ऐसी चेतावनी दे कर थानेदार चला गया था.

वे तीनों 9 बजे के आसपास रामनाथ की कोठी से अपनेअपने घरों को जाने के लिए बाहर आए. उस लड़की का रेप करने के बाद करीब 1 दिन गुजर गया था. उसे रेप करने का मजा उन्हें सोचने पर भी याद नहीं आ रहा था.

इस वक्त उन तीनों के दिमाग में कई तरह के भय घूम रहे थे. कटे बालों वाली लंबे कद की किसी भी लड़की पर नजर पड़ते ही पहचाने जाने का डर उन में उभर आता. खाकी वरदी वाले पर नजर पड़ते ही जेल जाने का भय सताता. अपने घर वालों का सामना करने से वे मन ही मन डर रहे थे. उस वक्त की कल्पना कर के उन की रूह कांप जाती जब समाज की नजरों में वे बलात्कारी बन कर सदा जिल्लत भरी जिंदगी जीने को मजबूर होंगे.

अगर तीनों का बस चलता तो वे वक्त को उलटा घुमा कर उस लड़की को रेप करने की घटना घटने से जरूर रोक देते. सिर्फ 12 घंटे में उन की हालत भय, चिंता, तनाव और समाज में बेइज्जती होने के एहसास से खस्ता हो गई थी. इस तरह की मानसिक यंत्रणा उन्हें जिंदगी भर भोगनी पड़ सकती है, इस एहसास के चलते वे तीनों अपनेआप और एकदूसरे को बारबार कोस रहे थे.

आखिर क्या कमी थी- भाग 3 : क्यों विजय की पत्नी ने किया उसका जीना हराम

‘‘जानती थी कि तुम अपने भाई की वकालत करोगे. उसी विजय के सगे हो न. वही तुम्हारा सबकुछ है. मैं तो कल भी आप सब के लिए मुफ्त की नौकरानी थी और आज भी. इस घर में मेरी बस इतनी ही जगह है कि आने वाले को सलाम करूं और जाने वाले से कुछ भी न पूछूं…इस में मैं किसी को कोई दोष नहीं देती क्योंकि मेरा यही हाल होना चाहिए था. ज्यादा शराफत भी इनसान को कहीं का नहीं छोड़ती.’’

अवाक् रह गए थे हम दोनों. शोभा की सूरत तो रोने जैसी हो गई. नीरा भाभी का यह रूप उस ने कहां सोचा था. कभी मेरा मुंह देखती और कभी भाभी का.

‘‘भाभी, आप ऐसा क्यों कह रही हैं? मेरी जान निकल जाएगी घबराहट से.’’

‘‘मैं ने भी सोचा था, मेरी जान निकल जाएगी लेकिन निकली कहां है… देखो न मैं जिंदा हूं. रिश्तों की मानमर्यादा का बहुत महत्त्व होता है. इतना तो तुम जानते हो न. सच कहा तुम ने, इनसान विश्वास की डोर के सहारे ही दूरदूर तक उड़ता है. मैं भी उसी डोर के सहारे 15 साल से उड़ रही थी. कितना कर्ज था विजय के सिर पर. सब तुम जानते हो न, तब कैसेकैसे मेहनत कर मैं पैसे बचाती रही. कुछ पैसे जमा हो जाते तो कर्ज की एक किस्त उतर जाती. मैं पाईपाई जोड़ती रही और तुम्हारा दोस्त पाईपाई बाहर लुटाता रहा.

‘‘बोनस मिलता रहा और आफिस के काम के बहाने दोस्तों के साथ बाहर घूमनेफिरने जाता रहा. वह हर साल जाता है. उसे कभी मेरा सूना गला या सूनी कलाइयां नजर नहीं आईं? मेरी कुरबानी को उस ने अपना अधिकार ही मान लिया, क्या यह घर सिर्फ मेरा है?

‘‘मैं किसी शक के बिना पर ऐसा नहीं कह रही हूं. अपने कानों से मैं ने विजय को अग्रवाल के साथ बातें करते सुना है. 3 महीने पहले उसे जो बोनस मिला उस का इस्तेमाल कैसे हुआ था. वही चटखारे लगालगा कर दोनों आपस में बातें कर रहे थे. विजय को लगा था कि मैं घर पर नहीं हूं. अपने भीतर के जानवर को उस ने कबकब, कहांकहां और कैसेकैसे खुश किया, कहो तो एकएक शब्द बोल कर सुनाऊं आप दोनों को? सुनोगे?’’

मुझ में काटो तो खून नहीं रहा. यह तो सच है कि हर साल विजय कुछ दिन के लिए बाहर जाता है. वैसे भी जब से उस की पदोन्नति हुई है, उस का बाहर का काम ज्यादा रहता है. कोई कब कहां जा रहा है और वहां क्या करता है, कोई कैसे जान सकता है?

‘‘तुम्हारे दोस्त के पास पत्नी के लिए एक सूती धोती तक लाने के पैसे कभी नहीं हुए. खुद बाहर से मौजमस्ती कर के आता रहा और मैं आगेपीछे घूमती रही कि बेचारे आफिस के काम से थक कर आए हैं.

‘‘तुम्हीं बताओ मुझ से कहां चूक हुई? कभी कुछ मांगा नहीं, क्या इसी का असर यह हुआ कि मेरी सारी इच्छाएं ही मर गईं. उन की हर इच्छा जागती रही और मेरी इच्छाओं का क्या?’’

रो रही थीं भाभी. तनिक झुकीं फिर आंसू पोंछ हंस दीं.

‘‘अच्छा बेवकूफ बनाया मुझे मेरे पति ने…’’

‘‘आप के इस व्यवहार का बच्चों पर क्या असर होगा, भाभी?’’

‘‘बच्चे सिर्फ मेरे हैं क्या? अब तो जो हो गया सो हो गया. जब बच्चों के पिता ने घर की चौखट लांघी थी तब क्या उस ने सोचा था कि इस का उस

के बच्चों पर क्या असर होगा. जानती हूं, विजय ने ही तुम्हें मेरे पास समझाने के लिए भेजा है क्योंकि अब घर पर उन के पैर दबाने को मैं जो नहीं मिलती उन्हें.’’

क्या उत्तर देता मैं? भाभी कहां गलत हैं? क्या करतीं वे जब उन्होंने अपने पति की रासलीलाएं उसी के मुंह से सुनी होंगी. बुरी तरह ठगा हुआ महसूस किया होगा स्वयं को. रिश्ते को काट कर फेंक न देती तो क्या करतीं. मुझे भी तो ठगा है न विजय ने, इतनी पुरानी दोस्ती में अपने चरित्र का यह रूप तो मुझे कभी दिखाया ही नहीं. अपनी वकालत के लिए भाभी के पास भी भेज दिया. चुपचाप वापस लौट आए हम, लेकिन रात भर सो नहीं पाए. शोभा की नजर मुझ पर यों पड़ रही थी मानो मैं भी कहीं न कहीं भाभी का गुनहगार हूं.

दूसरी सुबह विजय मुझ से मिला. तरस भी आ रहा था मुझे उस पर और क्रोध भी.

‘‘भाभी ने सब से पहले कब तुम पर चीखनाचिल्लाना शुरू किया बता सकते हो, कोई बात हुई थी क्या?’’

‘‘नहीं तो, कोई भी बात नहीं हुई थी.’’

‘‘पिछली बार जब तुम शिमला गए थे तब वहां होटल में क्याक्या किया था, क्या याद है तुम्हें…दिल्ली और उदयपुर का तजरबा भी खासा रंगीन था, याद आया…’’

विजय के चेहरे का उड़ता रंग मुझे सारी सचाई बता गया और उसी पल मुझे लगा भाभी की तरह मैं ने भी विजय को खो दिया.

‘‘भाभी ने तुम्हारी वे सारी बातें सुन ली थीं जब तुम शिमला से वापस आने पर अपने सहयोगी अग्रवाल से बात कर रहे थे. तब तुम्हें यह पता नहीं था कि वे घर में ही हैं.’’

मानो विजय नंगा हो गया. क्या कहे अपनी सफाई में? प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या जरूरत थी.

‘‘अपनी गृहस्थी में तुम ने खुद आग लगाई है. चरित्र तुम्हारा घिनौना है और आरोप भाभी पर लगा रहे हो. क्या तुम्हारी आंखों में जरा सी भी शर्म है? सारी कालोनी में तुम बदनाम हो गए, इस में दोष किस का है?…

‘‘…और कैसे प्रतिक्रिया करे वह औरत जिस के अटूट विश्वास को ही तुम ने चौराहे का मजाक बना दिया. ईमानदार पति तो पत्नी का अभिमान होता है न. तुम ने जो किया उस के बाद वे तुम्हारी परछाईं से दूर न भागें तो क्या करेें. बेचारी अपना लहूलुहान विश्वास ले कर अलग कमरे में क्यों न चली जाएं.’’

‘क्योंभरोसा करें भाभी उस इनसान पर जो खुद को पाकसाफ बताता रहा और भाभी को ही चरित्रहीन कहता रहा. वजह यह बताई कि शायद वही अपनी जरूरतों के लिए कहीं और से जुड़ गई है जिस कारण अब विजय की जरूरत कभी महसूस ही नहीं होती उन्हें.

‘‘तुम्हें आज भी बच्चों के भविष्य की चिंता नहीं है. तकलीफ है तो इस बात की कि अब भाभी ने तुम्हारी जरूरतें पूरी करनी छोड़ दी हैं. मुफ्त की औरत नसीब नहीं होती तुम्हें.’’

‘‘नीरा सबकुछ जान कर भी चुप रह सकती थी. अकेला मैं ही तो ऐसा नहीं हूं जो बाहर से मौजमस्ती कर के लौटता हूं,’’ विजय का उत्तर था.

वास्तव में मुझे उस पर शर्म आई उस पल. क्या यह वही विजय है? सच कहा है बुजुर्गों ने. कोई भी अनैतिकता अपनाने जाओ तो बस एक बार की ही जरा सी झिझक होती है. किसी पर गोली चलाने वाले के हाथ भी बस पहली बार ही कांपते हैं. समझ नहीं पा रहा हूं विजय के संस्कार क्यों और कब भटक गए. वह इतना कमजोर तो कभी नहीं था.

‘‘इतने महंगे शौक क्या उस इनसान को शोभा देते हैं जिस के सिर पर आज तक बहन की शादी का कर्ज है.

‘‘ईमानदार के सामने चरित्रहीनता परोस दोगे तो बेचारा कैसे निगल पाएगा? नहीं पचा सकीं सो उलट दिया उस गरीब ने. सहने की भी एक सीमा होती है, विजय. और मुझे अफसोस हो रहा है कि अपनी करनी पर तुम्हें जरा सी भी आत्म- ग्लानि नहीं है.’’

चुप रहा विजय. अपनी भूल पर शर्म तो नहीं आई उसे लेकिन इस बात की चिंता अवश्य हो रही थी कि लोग क्या कहेंगे. समाज क्या कहेगा, क्योंकि समाज से कट कर रहने के लिए बहुत बड़ा कलेजा चाहिए.

‘‘जवान होते बेटों के पिता हो तुम. यह मत सोचना भाभी अकेली हैं. जरूरत पड़ी तो मैं भी तुम्हारा साथ नहीं दूंगा. जो कर चुके हो सो कर चुके हो, आगे की सोचो, तुम्हारी भूल तुम्हारी है, प्रायश्चित्त भी तुम्हीं को करना है. किसी तरह अपना घर बचाने का प्रयत्न करो, विजय.’’

विजय को समझाबुझा कर किसी तरह मैं चला तो आया लेकिन मेरे प्रयास का क्या प्रभाव होगा, नहीं जानता. आसार भी इस तरह के नहीं लग रहे थे कि जल्दी कोई अच्छी खबर सुनने को मिलेगी.

‘‘भाभी ने कल बच्चों का और अपना एचआईवी टैस्ट कराया है. अभी रिपोर्ट नहीं आई. पता नहीं क्या होगा. दम घुट रहा है मेरा.’’

शाम को रोंआसी सी शोभा ने खबर सुनाई. सकते में आ गया मैं भी. एक इनसान का गलत कदम पूरे परिवार को कैसे मुसीबत में डाल देता है, मैं बड़ी गहराई से महसूस कर रहा था.

कल से शोभा के चेहरे की भावभंगिमा भी विचित्र सी ही है. प्रश्न सा लिए मुझे निहारती हैं उस की बड़ीबड़ी आंखें. भाभी का परिवार सदा से मेरा भी परिवार रहा है. कहीं उसी का दुष्प्रभाव तो नहीं, जो शोभा की आंखों में भी संदेह के बादल मैं साफसाफ पढ़ रहा हूं.

‘‘क्या मैं भी शीना और अपना टैस्ट करवा लूं? क्या मुझे भी इस की जरूरत है?’’

हजारों प्रश्न अपने एक ही प्रश्न में समेटे शोभा ने अपने होंठ खोले. कल रात से ही शोभा भी परेशान सी है. चौंक कर मैं ने उस की ओर देखा.

‘‘क्या मतलब?’’ बड़ी मेहनत करनी पड़ी मुझे यह सवाल पूछने में 10 साल पुराना संबंध क्या किसी ऐेसे प्रश्न का मोहताज हो गया? विजय का परम मित्र हूं न जिस का हरजाना मुझे भी भरना पड़ेगा, विजय के घर में उठने वाला तूफान मेरे भी घर की दीवारें फाड़ कर भीतर चला आया था.

शोभा का चेहरा सफेद पड़ गया मेरा चेहरा देख कर. क्या समझ रही है वह मेरे चुप रहने का मतलब. लपक कर समीप चला आया मैं. यह क्या हो रहा है शोभा को?

‘‘अगर आप भी वैसे ही हैं तो पास मत आइए…’’

‘‘शोभा, यह क्या कह रही हो तुम?’’

‘‘अगर मेरी आंखों पर कोई परदा है तो बता दीजिए…विजय भैया की तरह आधे रास्ते में…’’

‘‘पागल हो गई हो क्या?’’

रो पड़ा था मैं भी. कस कर छाती से भींच लिया शोभा को. माथे पर प्रगाढ़ चुंबन देते हुए समझाने का प्रयास किया.

‘‘शीना की कसम. कहीं कोई परदा नहीं है. जो तुम्हारी आंखों के सामने है वही तुम्हारी पीठ के पीछे भी है.’’

फूटफूट कर रोने लगी शोभा. पास खड़ी शीना भी सहम गई मां की इस हालत पर. इशारे से बच्ची को पास बुलाया. अपने छोटे से परिवार को बांहों में बांध मैं सोचने लगा, ‘आखिर क्या कमी थी विजय को? क्षणिक सुख की चाह में क्यों उस ने पूरे परिवार की खुशी और जान सूली पर चढ़ा दी.’

शीना मेरे गाल चूम रही थी और उस मासूम के चुंबन में भी मैं इस का उत्तर खोज रहा था कि क्या कमी है मुझे जो मैं भटक जाऊं? क्या कमी थी विजय के पास जो वह भटक गया? आखिर क्या कमी थी?

प्यार की तलाश

धुंधली तस्वीरें – भाग 3 : क्या बेटे की खुशहाल जिंदगी देखने की उन की लालसा पूरी हुई

विकी को देखने लिंडा की मां और बहन आई थीं, पर घंटे भर से अधिक कोई नहीं रुका. ‘लिंडा अभी बहुत कमजोर है, उसे आराम की जरूरत है,’ कह कर वे चली गईं. वे हैरान थीं यह सब देख कर. सोचने लगीं कि क्या उन्हें भी वहां नहीं रुकना चाहिए. शायद उन की उपस्थिति से लिंडा को परेशानी होती हो पर किसी तरह 2 महीने का समय तो काटना ही था.

लिंडा को उन की जरूरत नहीं, विकी को भी उन की जरूरत नहीं क्योंकि गोद में लेने से उस की आदत बिगड़ जाएगी और विक्रम को तो कभी फुरसत ही नहीं मिलती, उन के पास घड़ीभर बैठने की. घरबाहर के सब काम उसे ही तो संभालने थे. काम करते हुए थक जाता बिलकुल. घर में होता भी तो टीवी चालू कर देता. कब बैठे उन के पास, और बातें भी करे तो क्या?

विकी 2 महीने का था, जब वे उसे छोड़ कर आई थीं. तब से कितना अंतर आ गया था. तसवीरें तो विक्रम हमेशा भेजा करता था, तकरीबन हर महीने. इस बार ढाई महीने के बाद पत्र आया था. तसवीरें भी ढेर सारी थीं, एकएक तसवीर को निहारती वे निहाल हुई जा रही थीं, रहरह कर आंखें छलछला उठतीं. उन की खुशी का अनुमान लगा कर ही सुमि ने मिठाई मांगी थी.

भरापूरा परिवार होते हुए भी वे बिलकुल अकेली थीं. बस चिट्ठियां ही थीं जो बीच में जोड़ने का काम करती थीं. पूरे ढाई महीने बाद विक्रम का पत्र और विकी की तसवीरें देख उन की खुशी रोके नहीं रुक रही थी. सब से पहले जा कर उमा और उस के पति को तसवीरें दिखाईं, ‘‘देखो तो, अपना विकी कितना सुंदर लगता है. बिलकुल विक्रम की तरह है न?’’ फिर पासपड़ोस में सब को दिखाईं,

दूसरे दिन कालेज जाने लगीं तो तसवीरों को अपने पर्स में डाल लिया. सब को दिखाती फिरीं, ‘‘अब तो मुझ से रहा नहीं जाता यहां. इच्छा हो रही है, उड़ कर पहुंच जाऊं अपने विकी के पास. उसे सीने से लगा लूं.’’

‘‘विक्रम तो हमेशा बुलाता है आप को. इस बार गरमी की छुट्टियों में चली जाइए,’’ शैलजा ने कहा तो वे और उत्साहित हो उठीं, ‘‘हां, जरूर जाऊंगी इस बार. छुट्टियां तो अभी बहुत पड़ी हैं. रिटायर होने से पहले क्यों न सब इस्तेमाल कर लूं.’’

‘‘यह भी आप ने ठीक ही सोचा. तो पहले ही चली जाइए, छुट्टियों का इंतजार क्यों करना भला?’’

‘‘वही तो. लिखूंगी विक्रम को, टिकट भेज दे. वीजा तो मेरा है ही, पिछली बार ही 5 साल का मिल गया था.’’

‘‘फिर तो जल्दी निकल जाइए. क्या धरा है यहां, रोज किसी न किसी बात को ले कर खिचखिच लगी ही रहती है. 5-6 महीने चैन से बीत जाएंगे.’’

विक्रम पहले तो उन्हें हर चिट्ठी में आने के लिए लिखता था. कारण जान कर भी वे अनजान बनने की कोशिश करती रही थीं. दरअसल, विक्रम और लिंडा दोनों ही काम पर चले जाते थे. कुछ दिनों तक विकी को शिशुसदन में डाला, फिर ‘बेबीसिटर’ के पास छोड़ने लगे. लिंडा के लिए तो यह कोई नई बात नहीं थी, पर विक्रम हमेशा महसूस करता कि बच्चे को जो आत्मीयता और प्यार मिलना चाहिए मातापिता की ओर से, उस में कमी हो रही है.

इसीलिए वह उन्हें बारबार आने को लिखता था. एक बार लिखा था, ‘अब नौकरी छोड़ ही दो मां, हम दोनों इतना कमाते हैं कि तुम्हारी सब जरूरतें पूरी कर सकते हैं. क्या कमी है तुम्हें? आ जाओ यहां और बाकी के दिन चैन से बिताओ, वहां तो रोज कुछ न कुछ लगा ही रहता है, आज बिजली नहीं तो कल पानी नहीं.’

उन्होंने लिख दिया था, ‘बेटे, हम अभावों में रहने के अभ्यस्त हो चुके हैं. हम ने वे दिन भी देखे हैं जब बिजली नहीं थी, पानी के नल नहीं थे, लेकिन केरोसिन तेल के लैंप और मिट्टी के दीए तो थे, कुएं का पानी तो था. वह सब अब भी है यहां. तुम मेरी चिंता बिलकुल मत करो, मैं मजे में हूं.’

पर अब वे इंतजार कर रही थीं विक्रम के बुलावे का. उस की चिट्ठी आई पूरे 4 महीने बाद, वह भी बिलकुल मामूली सी. सिर्फ कुशलक्षेम पूछा था. कालेज में सहकर्मियों के सामने उन्होंने झूठमूठ का बहाना बनाया, ‘‘यहां सब लोग विकी को देखना चाहते थे न, इसलिए मैं ने विक्रम को ही लिखा है आने के लिए. छुट्टी मिलते ही आ जाएगा. मैं अगले साल जाऊंगी.’’

विक्रम के पत्र अब भी आते, लेकिन बहुत ही देर में, बिलकुल संक्षिप्त से. फिर वे अपनी ओर से लिख न सकीं, ‘मैं आना चाहती हूं विक्रम, विकी को और तुम लोगों को देखने की बड़ी इच्छा है.’

पत्रों की भाषा बताती थी कि विक्रम उन से दिनबदिन दूर होता जा रहा है. वह इस के लिए मन ही मन खुद को ही दोषी ठहराया करतीं कि वह तो बराबर बुलाता था पहले, मैं ही तो इनकार करती रही. जब विकी छोटा था, उसे दादीमां की गोद की जरूरत थी. अब तो बड़ा हो गया है, कुछ दिनों में स्कूल जाने लगेगा. शायद, इसी कारण विक्रम नाराज हो गया हो. नाराज होना भी चाहिए. इतना बुलाया लेकिन वे बारबार इनकार करती गईं. शायद अच्छा नहीं किया. अब यही लिखूं कि एक बार यहां आओ विक्रम, लिंडा और विकी के साथ, सब लोग तुम सब से मिलना चाहते हैं.

इस बीच विक्रम का संक्षिप्त पत्र आया, ‘मैं ने अब तक तुम्हें लिखा नहीं था मां, विकी से अब हमारा कोई संबंध नहीं. विकी जब कुल 15 महीने का था, तभी लिंडा से मेरा तलाक हो गया. विकी चूंकि बहुत छोटा था, इसलिए कोर्ट के फैसले के अनुसार वह लिंडा के पास रह गया. तब से मैं ने उसे देखा भी नहीं. वह तो मुझे पहचान भी नहीं पाएगा.’

पत्र पढ़ कर वे सन्न रह गईं. यह क्या लिखा है विक्रम ने. लिंडा को तलाक दे दिया. अब तक विक्रम के सारे कुसूर वे माफ करती रही थीं, अमेरिका में रहने का फैसला किया, तब भी कुछ नहीं कहा. लिंडा से शादी की, तब भी कुछ नहीं कहा, लेकिन तलाक वाली बात ने उन्हें अंदर से तोड़ ही दिया.

दूसरे ही दिन उसे पत्र लिखा, ‘‘मुझे तुम से ऐसी उम्मीद नहीं थी, विक्रम. जरूर मेरी शिक्षादीक्षा में ही कोई कमी रह गई, जो तुम ऐसे निकले. हमारे यहां रिश्ते जोड़े जाते हैं, उन्हें तोड़ने में हम विश्वास नहीं रखते. तुम्हारी इस गलती को मैं कभी क्षमा नहीं कर सकूंगी, कभी भी नहीं. तुम ने मेरी, अपनी और साथसाथ अपने देश की तौहीन की है. ऐसे संस्कार तुम्हें मिले कहां?’’

पत्र को लिफाफे में डाल कर पता लिखते हुए वे फूटफूट कर रो पड़ीं. लग रहा था कि अंदर कोई महीन सा धागा था, जो टूट गया है, छिन्नभिन्न हो गया है. सामने दीवार पर विक्रम, लिंडा और विकी की तसवीरें लगी थीं, मुसकराती लिंडा, हंसता विक्रम और नन्हा सा गोलमटोल विकी. आंसुओं के कारण सारी तसवीरें धुंधली लग रही थीं. उन्होंने आंसू पोंछे नहीं, बस रोती रहीं देर तक.

 

कलंक- भाग 2 : बलात्कारी होने का कलंक अपने माथे पर लेकर कैसे जीएंगे वे तीनों ?

उन में से एक की ऊंची आवाज ने इन तीनों को बुरी तरह चौंका दिया, ‘‘हे… कौन हो तुम लोग? इस लड़की को यहां फेंक कर क्यों भाग रहे हो?’’

‘‘रुको जर…सोनू, तू कार का नंबर नोट कर, मुझे सारा मामला गड़बड़ लग रहा है,’’ एक दूसरे आदमी की आवाज उन तक पहुंची तो वे फटाफट कार में वापस घुसे और आलोक ने झटके से कार सड़क पर दौड़ा दी.

‘‘संजय, तुझे तो मैं जिंदा नहीं छोड़ूंगी,’’ उस लड़की की क्रोध से भरी यह चेतावनी उन तीनों के मन में डर और चिंता की तेज लहर उठा गई.

‘‘उसे मेरा नाम कैसे पता लगा?’’ संजय ने डर से कांपती आवाज में सवाल पूछा.

‘‘शायद हम दोनों में से किसी के मुंह से अनजाने में निकल गया होगा,’’ नरेश ने चिंतित लहजे में जवाब दिया.

‘‘आज मारे गए हमसब. मैं ने उन आदमियों में से एक को अपनी हथेली पर कार का नंबर लिखते हुए देखा है. उस लड़की को ‘संजय’ नाम पता है. पुलिस को हमें ढूंढ़ने में दिक्कत नहीं आएगी,’’ आलोक की इस बात को सुन कर उन दोनों का चेहरा पीला पड़ चुका था.

नरेश ने अचानक सहनशक्ति खो कर संजय से चिढ़े लहजे में पूछा, ‘‘बेवकूफ इनसान, क्या जरूरत थी तुझे उस लड़की को उठा कर कार में डालने की?’’

‘‘यार, उस ने हमारी मांबहन…तो मैं ने अपना आपा खो दिया,’’ संजय ने दबे स्वर में जवाब दिया.

‘‘तो उसे उलटी हजार गालियां दे लेता…दोचार थप्पड़ मार लेता. तू उसे उठा कर कार में न डालता, तो हमारी इस गंभीर मुसीबत की जड़ तो न उगती.’’

‘‘अरे, अब आपस में लड़ने के बजाय यह सोचो कि अपनी जान बचाने को हमें क्या करना चाहिए,’’ आलोक की इस सलाह को सुन कर उन दोनों ने अपनेअपने दिमाग को इस गंभीर मुसीबत का समाधान ढूंढ़ने में लगा दिया.

पुलिस उन तक पहुंचे, इस से पहले ही उन्हें अपने बचाव के लिए कदम उठाने होंगे, इस महत्त्वपूर्ण पहलू को समझ कर उन तीनों ने आपस में कार में बैठ कर सलाहमशविरा किया.

अपनी जान बचाने के लिए वे तीनों सब से पहले आलोक के चाचा रामनाथ के पास पहुंचे. वे 2 फैक्टरियों के मालिक थे और राजनीतिबाजों से उन की काफी जानपहचान थी.

रामनाथ ने अकेले में उन तीनों से पूरी घटना की जानकारी ली. आलोक को ही अधिकतर उन के सवालों के जवाब देने पड़े. शर्मिंदा तो वे तीनों ही नजर आ रहे थे, पर सब बताते हुए आलोक ने खुद को मारे शर्म और बेइज्जती के एहसास से जमीन में गड़ता हुआ महसूस किया.

‘‘अंकल, हम मानते हैं कि हम से गलती हुई है पर ऐसा गलत काम हम जिंदगी में फिर कभी नहीं करेंगे. बस, इस बार हमारी जान बचा लीजिए.’’

‘‘दिल तो ऐसा कर रहा है कि तुम सब को जूते मारते हुए मैं खुद पुलिस स्टेशन ले जाऊं, लेकिन मजबूर हूं. अपने बड़े भैया को मैं ने वचन दिया था कि उन के परिवार का पूरा खयाल रखूंगा. तुम तीनों के लिए किसी से कुछ सहायता मांगते हुए मुझे बहुत शर्म आएगी,’’ संजय को आग्नेय दृष्टि से घूरने के बाद रामनाथ ने मोबाइल पर अपने एक वकील दोस्त राकेश मिश्रा का नंबर मिलाया.

राकेश मिश्रा को बुखार ने जकड़ा हुआ था. सारी बात उन को संक्षेप में बता कर रामनाथ ने उन से अगले कदम के बारे में सलाह मांगी.

‘‘जिस इलाके से उस लड़की को तुम्हारे भतीजे और उस के दोनों दोस्तों ने उठाया था, वहां के एसएचओ से जानपहचान निकालनी होगी. रामनाथ, मैं तुम्हें 10-15 मिनट बाद फोन करता हूं,’’ बारबार खांसी होने के कारण वकील साहब को बोलने में कठिनाई हो रही थी.

‘‘इन तीनों को अब क्या करना चाहिए?’’

‘‘इन्हें घर मत भेजो. ये एक बार पुलिस के हाथ में आ गए तो मामला टेढ़ा हो जाएगा.’’

‘‘इन्हें मैं अपने फार्म हाउस में भेज देता हूं.’’

‘‘उस कार में इन्हें मत भेजना जिसे इन्होंने रेप के लिए इस्तेमाल किया था बल्कि कार को कहीं छिपा दो.’’

‘‘थैंक्यू, माई फैं्रड.’’

‘‘मुझे थैंक्यू मत बोलो, रामनाथ. उस थाना अध्यक्ष को अपने पक्ष में करना बहुत जरूरी है. तुम्हें रुपयों का इंतजाम रखना होगा.’’

‘‘कितने रुपयों का?’’

‘‘मामला लाखों में ही निबटेगा मेरे दोस्त.’’

‘‘जो जरूरी है वह खर्चा तो अब करेंगे ही. इन तीनों की जलील हरकत का दंड तो भुगतना ही पड़ेगा. तुम मुझे जल्दी से दोबारा फोन करो,’’ रामनाथ ने फोन काटा और परेशान अंदाज में अपनी कनपटियां मसलने लगे थे.

 

कलंक- भाग 1: बलात्कारी होने का कलंक अपने माथे पर लेकर कैसे जीएंगे वे तीनों ?

उस रात 9 बजे ही ठंड बहुत बढ़ गई थी. संजय, नरेश और आलोक ने गरमाहट पाने के लिए सड़क के किनारे कार रोक कर शराब पी. नशे के चलते सामने आती अकेली लड़की को देख कर उन के भीतर का शैतान जागा तो वे उस लड़की को छेड़ने से खुद को रोक नहीं पाए.

‘‘जानेमन, इतनी रात को अकेली क्यों घूम रही हो? किसी प्यार करने वाले की तलाश है तो हमें आजमा लो,’’ आसपास किसी को न देख कर नरेश ने उस लड़की को ऊंची आवाज में छेड़ा.

‘‘शटअप एंड गो टू हैल, यू बास्टर्ड,’’ उस लड़की ने बिना देर किए अपनी नाराजगी जाहिर की.

‘‘तुम साथ चलो तो ‘हैल’ में भी मौजमस्ती रहेगी, स्वीटहार्ट.’’

‘‘तेरे साथ जाने को पुलिस को बुलाऊं?’’ लड़की ने अपना मोबाइल फोन उन्हें दिखा कर सवाल पूछा.

‘‘पुलिस को बीच में क्यों ला रही हो मेरी जान?’’

‘‘पुलिस नहीं चाहिए तो अपनी मां या बहनों…’’

वह लड़की चीख पाती उस से पहले ही संजय ने उस का मुंह दबोच लिया और झटके से उस लड़की को गोद में उठा कर कार की तरफ बढ़ते हुए अपने दोस्तों को गुस्से से निर्देश दिए, ‘‘इस ‘बिच’ को अब सबक सिखा कर ही छोड़ेंगे. कार स्टार्ट करो. मैं इस की बोटीबोटी कर दूंगा अगर इस ने अपने मुंह से ‘चूं’ भी की.’’

आलोक कूद कर ड्राइवर की सीट पर बैठा और नरेश ने लड़की को काबू में रखने के लिए संजय की मदद की. कार झटके से चल पड़ी.

उस चौड़ी सड़क पर कार सरपट भाग रही थी. संजय ने उस लड़की का मुंह दबा रखा था और नरेश उसे हाथपैर नहीं हिलाने दे रहा था.

‘‘अगर अब जरा भी हिली या चिल्लाई तो तेरा गला दबा दूंगा.’’

संजय की आंखों में उभरी हिंसा को पढ़ कर वह लड़की इतना ज्यादा डरी कि उस का पूरा शरीर बेजान हो गया.

‘‘अब कोई किसी का नाम नहीं लेगा और इस की आंखें भी बंद कर दो,’’ आलोक ने उन दोनों को हिदायत दी और कार को तेज गति से शहर की बाहरी सीमा की तरफ दौड़ाता रहा.

एक उजाड़ पड़े ढाबे के पीछे ले जा कर आलोक ने कार रोकी. उन की धमकियों से डरी लड़की के साथ मारपीट कर के उन तीनों ने बारीबारी से उस लड़की के साथ बलात्कार किया.

लड़की किसी भी तरह का विरोध करने की स्थिति में नहीं थी. बस, हादसे के दौरान उस की बड़ीबड़ी आंखों से आंसू बहते रहे थे.

लौटते हुए संजय ने लड़की को धमकाते हुए कहा, ‘‘अगर पुलिस में रिपोर्ट करने गई, तो हम तुझे फिर ढूंढ़ लेंगे, स्वीटहार्ट. अगर हमारी फिर मुलाकात हुई तो तेजाब की शीशी होगी हमारे हाथ में तेरा यह सुंदर चेहरा बिगाड़ने के लिए.’’

तीनों ने जहां उस लड़की को सड़क पर उतारा. वहीं पास की दीवार के पास 4 दोस्त लघुशंका करने को रुके थे. अंधेरा होने के कारण उन तीनों को वे चारों दिखाई नहीं दिए थे.

धुंधली तस्वीरें

करमवती

प्यार की तलाश- भाग 1 : अतीत के पन्नों में खोई क्या थी नीतू की प्रेम कहानी?

मेरी कक्षा में पढ़ने वाली नीतू मेरे बैंच से दाईं वाली पंक्ति में, 2 बैंच आगे बैठती थी. वह दिखने में साधारण थी पर उस में दूसरों से हट कर कुछ ऐसा आकर्षण था कि जब मैं ने पहली बार उसे देखा तो बस देखता ही रह गया… वह अपनी सहेलियों के साथ हंसतीखिलखिलाती रहती और मैं उसे चोरीछिपे देखता रहता.

नीतू मेरी जिंदगी में, उम्र के उस मोड़ पर जिसे किशोरावस्था कहते हैं और जो जवानी की पहली सुबह के समान होती है, उस सुबह की रोशनी बन कर आई थी वह. उस सुखद परिवर्तन ने मेरे जीवन में जैसे रंग भर दिया था. मैं हमेशा अपने में मस्त रहता. पढ़ाई में भी मेरा ध्यान पहले से अधिक रहता. मम्मीपापा टोकते, उस से पहले ही मैं पढ़ने बैठ जाता और सुबहसुबह स्कूल जाने के लिए हड़बड़ा उठता.

आज सोचता हूं तो लगता है, काश, वक्त वहीं ठहर जाता. नीतू मुझ से कभी जुदा न होती, पर जीवन के सुनहरे दिन, कितने जल्दी बीत जाते हैं. मेरा स्कूली जीवन कब पीछे छूट गया, पता ही नहीं चला.

मैट्रिक की परीक्षा के बाद, नीतू जैसे हमेशा के लिए मुझ से जुदा हो गई. मैं उस के घर का पता जानता था, लेकिन जब यह पता चला कि नीतू कालेज की पढ़ाई के लिए अपने मामा के यहां चली गई है तो मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाया. मेरे पास कुछ था तो बस उस की यादें, उस के लिखे खत और स्कूल में मिली वह तसवीर, जिस में साथ पढ़ने वाले सभी विद्यार्थी और शिक्षक एक कतार में खड़े थे और नीतू एक कोने में खड़ी मुसकरा रही थी.

मैं नीतू की यादों में खोया, डायरी के पन्ने पलटता जा रहा था, तभी दरवाजे पर दस्तक सुन कर चौंक गया. नजरें उठा कर देखा तो सामने सुनयना खड़ी थी. अचानक उसे देख कर मैं हड़बड़ा गया, ‘‘कहिए, क्या बात है?’’ मैं ने डायरी बंद करते हुए कहा.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकती हूं…’’ सुनयना मेरी मनस्थिति भांप कर मुसकराते हुए बोली.

‘‘हां… हां, आइए न बैठिए,’’ मैं ने जैसे शरमा कर कहा.

‘‘मैं ने आप को डिस्टर्ब कर दिया. शायद आप कुछ लिख रहे थे…’’ सुनयना डायरी की ओर देख रही थी.

‘‘बस डायरी है…’’ मैं ने डायरी पर हाथ रखते हुए कहा.

‘‘अरे वाह, आप डायरी लिखते हैं, क्या मैं देख सकती हूं?’’ सुनयना की आंखों में पता नहीं क्यों चमक आ गईर् थी.

‘‘किसी की पर्सनल डायरी नहीं देखनी चाहिए,’’ मैं ने मुसकरा कर मना करने के उद्देश्य से कहा क्योंकि वैसे भी वह डायरी मैं उसे नहीं दिखा सकता था.

‘‘क्या हम इतने गैर हैं?’’ सुनयना नाराज तो नहीं लग रही थी पर अपने चिरपरिचित अंदाज में मुंह बना कर बोली.

‘‘मैं ने ऐसा तो नहीं कहा,’’ मैं ने फिर मुसकराने का प्रयास किया.

‘‘खैर, छोडि़ए. पर कभी तो मैं आप की डायरी पढ़ कर ही रहूंगी,’’ सुनयना के चेहरे पर अब बनावटी नाराजगी थी. उस ने अपनी झील जैसी बड़ीबड़ी आंखों से मुझे घूरते हुए कहा, ‘‘…अभी चलिए, आप को बुलाया जा रहा है.‘‘

बैठक में भैयाभाभी सभी बैठे हुए थे. अंत्याक्षरी खेलने का कार्यक्रम बनाया गया था पर मेरा मन तो कहीं दूर था, लेकिन मना कैसे करता? न चाह कर भी खेलने बैठ गया. सुनयना पूरे खेल के दौरान, अपने गीतों से मुझे छेड़ने का प्रयास करती रही.

सुनयना मेरी भाभी की छोटी बहन थी. अपने नाम के अनुरूप ही उस की गहरी नीली झील सी आंखें थीं. वह थी भी बहुत खूबसूरत. उस के चेहरे से हमेशा एक आभा सी फूटती नजर आती. उस के काले, घने, चमकदार बाल कमर तक अठखेलियां करते रहते. वह हमेशा चंचल हिरनी के समान फुदकती फिरती. वह बहुत मिलनसार और बिलकुल खुले दिल की लड़की थी. यही वजह थी कि उसे सब बहुत पसंद करते थे और मजाक में ही सही, पर सभी ये कहते, इस घर की छोटी बहू कोई बनेगी तो सिर्फ सुनयना ही बनेगी. मैं सुन कर बिना किसी प्रतिक्रिया के चुपचाप रह जाता पर कभीकभार ऐसा लगता जैसे मेरी इच्छा, मेरी भावनाओं से किसी को कोईर् लेनादेना नहीं है पर मैं दोष देता तो किसे देता. किसी को तो पता ही नहीं था कि मेरे दिल में जो लड़की बसी है, वह सुनयना नहीं नीतू है.

प्यार की तलाश- भाग 3 : अतीत के पन्नों में खोई क्या थी नीतू की प्रेम कहानी?

मेरा मन घृणा और दुख से भर उठा. मैं किसी तरह खुद को संभालते हुए अखबार को कुरसी पर ही रख कर, धीरेधीरे उठा और अपने कमरे में जा कर फिर बिस्तर पर लुढ़क गया. ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे मेरे अंदर थोड़ी सी भी जिजीविषा शेष न हो, जैसे मैं दुनिया का सब से दीन आदमी हूं, आंखों से अपनेआप आंसू छलके जा रहे थे.

सामने टेबल पर वही तसवीर थी. जिस में नीतू अब भी मेरी ओर देख कर मुसकरा रही थी, जैसे मेरे जज्बातों से मेरे दिल के दर्द से, उसे कोईर् लेनादेना न हो. जी में आया तसवीर को उठा कर खिड़की से बाहर फेंक दूं कि तभी मां चाय ले कर आ गईं, ‘’अरे, तू फिर सो रहा है क्या? अभी तो पेपर पढ़ रहा था.‘’

मैं ने झटपट अपने चेहरे पर हाथ रख कर पलकों पर उंगलियां फिराते हुए अपने आंसू छिपाते हुए कहा, ‘’नहीं, सिर थोड़ा भारी लग रहा है.‘’

‘‘रात को देर से सोया होगा. पता नहीं रातरात भर जाग कर क्या लिखता रहता है? ले, चाय पी ले, इस से थोड़ी राहत मिलेगी,‘‘ चाय का कप हाथ में थमा कर

मेरे माथे पर स्नेहपूर्वक हाथ फेरते हुए मां ने कहा, ‘‘तेल ला कर थोड़ी मालिश कर देती हूं.’

‘‘नहीं ठीक है, मां, वैसा दर्द नहीं है. शायद देर से सोया था. इसलिए ऐसा लग रहा है,‘‘ मैं ने फिर बात बना कर कहा.

मां जब कमरे से निकल गईं तो मैं किसी तरह अपनेआप को समझाने की कोशिश करने लगा. पर दिल में उठ रही टीस, जैसे बढ़ती ही जा रही थी. मन कह रहा था, जा कर एक बार उस बेवफा से मिल आओ. आखिर उस ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? क्या वह इंतजार नहीं कर सकती थी? उन वादों, कसमों को वह कैसे भूल गई, जो हम ने स्कूल से विदाई की उस आखिरी घड़ी में, एकदूसरे के सामने खाई थीं.

न चाहते हुए भी मेरे मन में, रहरह कर सवाल उठ रहे थे. अपनेआप को समझाना जैसे मुश्किल होता जा रहा था. मन की पीड़ा जब बरदाश्त से बाहर होने लगी तो मैं फिर से बिस्तर पर लेट गया. उसी वक्त अचानक भाभी मेरे कमरे में आईं. उन्हें अचानक सामने देख कर मैं घबरा गया. किसी तरह अपने मनोभाव छिपा कर मैं बिस्तर से उठा.

कुछ देर पहले भाभी के मायके से फोन आया था. सुनयना की तबीयत बहुत खराब थी. वह कल ही तो यहां से गई थी. अचानक पता नहीं उसे क्या हो गया? भाभी काफी चिंतित थीं. भैया को औफिस के जरूरी काम से कहीं बाहर जाना था इसलिए मुझे भाभी के साथ सुनयना को देखने जाना पड़ा.

सुनयना बिस्तर पर पड़ी हुई थी. कुछ देर पहले डाक्टर दवा दे गया था. वह अभी भी बुखार से तप रही थी. उस की आंखें सूजी हुई थीं, देख कर ही लग रहा था, जैसे वह रातभर रोई हो.

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मैं सामने कुरसी पर चुपचाप बैठा था. भाभी उस के पास बैठीं, उस के बालों को सहला रही थीं. सुनयना बोली तो कुछ नहीं, पर उस की आंखों से छलछला रहे आंसू पूरी कहानी बयान कर रहे थे. सारा माजरा समझ कर भाभी मुझे किसी अपराधी की तरह घूरने लगीं. मैं सिर झुकाए चुपचाप बैठा था. कुछ देर बाद, भाभी कमरे से निकल गईं.

कमरे में सिर्फ हम दोनों थे. सुनयना जैसे शून्य में कुछ तलाश रही थी. उसे देख कर मेरी आंखों में भी आंसू आ गए. अचानक महसूस हुआ कि यदि अब भी मैं ने सामने स्थित जलाशय को ठुकरा कर मृगमरीचिका के पीछे भागने का प्रयास किया तो शायद अंत में पछतावे के सिवा मेरे हाथ कुछ नहीं लगेगा. मैं ने बिना देर किए सुनयना के पास जा कर, याचना भरे स्वर में कहा, ‘‘सुनयनाजी, मैं ने आप से जो कहा था, वह मेरा भ्रम था. मैं ने बचपन के खेल को प्यार समझ लिया था. मुझे आज ही पता चला कि उस लड़की ने एक दूसरे लड़के से प्रेम विवाह कर लिया है. मैं नादानी में आप से पता नहीं क्याक्या कह गया…‘’

सुनयना अपनी डबडबाई आंखों से अब भी शून्य में निहार रही थी. कुछ देर रुक कर, मैं ने फिर कहा, ‘‘कुदरत जिंदगी में सब को सच्चा हमदर्द देती है पर अकसर हम उसे ठुकरा देते हैं. मैं ने भी शायद, ऐसा ही किया है. लड़कपन से अब तक ख्वाबों के पीछे भागता रहा,’’ मेरा गला भर आया था.

सुनयना मुझे टुकुरटुकुर देख रही थी. उस की आंखों से टपकते आंसू उस के गालों पर लुढ़क रहे थे. मुझे पहली बार उस की आंखों में अपने लिए प्यार नजर आ रहा था.

मैं ने किसी छोटे बच्चे की तरह भावुक हो कर कहा, ‘‘देखो, मुझे मत ठुकराना, वरना मैं जी नहीं पाऊंगा,’’ और हाथ बढा़ कर उस के गालों को छू रहे आंसुओं को पोंछने लगा.

सुनयना के होंठ कुछ कहने के प्रयास में थरथरा उठे. पर जब वह कुछ बोल न पाई तो अचानक मुझ से लिपट कर जोरजोर से सुबकने लगी. मैं ने भी उसे कस कर अपनी बांहों में भर लिया. हम दोनों की आंखों से आंसू बह रहे थे. मैं सोच रहा था, ‘मुझे अब तक क्यों पता नहीं चला कि हमेशा चंचल, बेफिक्र और नादान सी दिखने वाली इस लड़की के दिल में मेरे लिए इतना प्यार छिपा था.’

भाभी दरवाजे के पास खड़ीं मुसकरा रही थीं. पर उन की आंखों में भी खुशी के आंसू थे.

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