Father’s Day Special: जिंदगी जीने का हक- भाग 2

‘‘फिर सब का अलगअलग कार्यक्रम रहता है,’’ केशव ने अभिनव की बात काटी, ‘‘यह सिलसिला कई साल से चल रहा है और अब भी चलेगा, फर्क सिर्फ इतना होगा कि अब मैं भी छुट्टी का दिन अपनी मर्जी से गुजारा करूंगा. पहले यह सोच कर खाने के समय पर घर पर रहता था कि तुम में से जो बाहर नहीं गया है वह क्या खाएगा लेकिन अब यह देखने को सब की बीवियां हैं, सो मैं भी अब छुट्टी के रोज अपनी उमर वालों के साथ मौजमस्ती और लंचडिनर बाहर किया करूंगा.’’

‘‘बिलकुल, पापा, बहुत जी लिए… आप हमारे लिए. अब अपनी पसंद की जिंदगी जीने का आप को पूरा हक है,’’ प्रणव बोला.

‘‘लेकिन इस का यह मतलब नहीं है कि पापा बाहर लंचडिनर कर के अपनी सेहत खराब करें,’’ प्रभव ने कहा, ‘‘हम में से कोई तो घर पर रहा करेगा ताकि पापा जब घर आएं तो उन्हें घर खाली न मिले.’’

‘‘हम इस बात का खयाल रखेंगे,’’ जूही बोली, ‘‘वैसे भी हर सप्ताह सारा दिन बाहर कौन रहेगा?’’

‘‘और कोई रहे न रहे मैं तो रहा करूंगा भई,’’ केशव हंसे.

‘‘यह तो बताएंगे न पापा कि जाएंगे कहां?’’ प्रणव ने पूछा.

‘‘कहीं भी जाऊं, मोबाइल ले कर जाऊंगा, तुझे अगर मेरी उंगली की जरूरत पड़े तो फोन कर लेना,’’ केशव प्रिया की ओर मुड़े, ‘‘प्रिया बेटी, इसे अब अपना पल्लू थमा ताकि मेरी उंगली छोड़े.’’

लेकिन कुछ रोज बाद प्रिया ने खुद ही उन की उंगली थाम ली. एक रोज जब रात के खाने के बाद वह घूमने जा रहे थे तो प्रिया भागती हुई आई बोली, ‘‘पापाजी, मैं भी आप के साथ घूमने चलूंगी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि आप सड़क पर अकेले घूमते हैं और मैं छत पर तो क्यों न हम दोनों साथ ही टहलें?’’ प्रिया ने उन के साथ चलते हुए कहा.

‘‘मगर तुम छत पर अकेली क्यों घूमती हो?’’

‘‘और क्या करूं पापाजी? प्रणव को तो 2-3 घंटे पढ़ाई करनी होती है और मुझे रोशनी में नींद नहीं आती, सो जब तक टहलतेटहलते थक नहीं जाती तब तक छत पर घूमती रहती हूं.’’

‘‘टीवी क्यों नहीं देखतीं?’’

‘‘अकेले क्या देखूं, पापाजी? सब लोग 1-2 सीरियल देखने तक रुकते हैं फिर अपनेअपने कमरों में चले जाते हैं.’’

‘‘अब तो बस कुछ ही महीने रह गए हैं प्रणव की परीक्षा में,’’ केशव ने दिलासे के स्वर में कहा, ‘‘तुम चाहो तो इस दौरान मायके हो आओ.’’

‘‘नहीं, पापाजी, उस की जरूरत नहीं है. बस, रात को यह थोड़ा सा वक्त अकेले गुजारना मुश्किल हो जाता है लेकिन अब इस समय आप के साथ घूमा करूंगी, गपें मारते हुए.’’

‘‘मैं बहुत तेज चलता हूं. थक जाओगी.’’

‘‘चलिए, देखते हैं.’’

कुछ दूर जाने के बाद, एक कौटेज में से एक प्रौढ़ महिला निकलती हुई दिखाई दीं. प्रिया पहचान गई. मालिनी नामबियार थीं, जो उस की शादी की दावत में आई थीं तब पापाजी ने बताया था कि ये सब भाई आज जो कुछ भी हैं मालिनीजी की कृपा से हैं. यह इन की गणित की अध्यापिका और स्कूल की प्राचार्या हैं, बहुत मेहनत की है इन्होंने इन सब पर.

मगर पापाजी ने जिस कृतज्ञता से आभार प्रकट किया था, किसी भी भाई ने मालिनीजी की खातिर में उतनी रुचि नहीं दिखाई थी.

‘‘मगर कौफी यहां कहां मिलेगी?’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘मेरे घर पर.’’

प्रिया ने केशव की ओर देखा, वह बगैर कुछ कहे मालिनी के पीछे उस के घर में चले गए. जब मालिनीजी कौफी लाने अंदर गईं तो प्रिया ने पूछा, ‘‘आप पहले भी यहां आ चुके हैं, पापा?’’

केशव सकपकाए.

‘‘बच्चों की पढ़ाई के सिलसिले में आना पड़ता था. इसी तरह जानपहचान हो गई तो आनाजाना बना हुआ है.’’

‘‘आंटी ने शादी नहीं की?’’

‘‘अभी तक तो नहीं.’’

प्रिया ने कहना चाहा कि अब इस उम्र में क्या करेंगी लेकिन तब तक मालिनीजी कौफी की ट्रौली धकेलती हुई आ गईं. जितनी जल्दी वह कौफी लाई थीं उस से लगता था कि तैयारी पहले से थी. प्रिया को कच्चे केले के चिप्स बहुत पसंद आए.

‘‘किसी छुट्टी के दिन आ जाना, बनाना सिखा दूंगी,’’ मालिनी ने कहा.

‘‘तरीका बता देने से भी चलेगा, आंटी. अब तो रोज घूमते हुए आप से मुलाकात हुआ करेगी सो किसी रोज पूछ लूंगी,’’ प्रिया ने चिप्स खाते हुए कहा.

मालिनी ने चौंक कर उस की ओर देखा.

‘‘तुम रोज सैर करने आया करोगी?’’

‘‘हां, आंटी?’’

Father’s Day Special- मौहूम सा परदा: भाग 2

राबिया बेगम की इंगलैंड जाने की पेशकश सुन कर उन के दिमाग में 2 दिनों पहले बहू का बेहूदा डायलौग, ‘और लोगों की नजरों पर मोहूम सा परदा भी पड़ा रहेगा,’ और उस के बाद उस की बेहया हंसी की याद उन्हें करंट का सा झटका दे गई. वे समझ गए कि बात राबिया बेगम तक पहुंच गई है, और उन्हें गहरे चुभ गई है. सोच कर वे बेहद मायूस हो गए. मगर बोले, ‘‘बेगम, अपने पासपोर्ट पता नहीं कब से रिन्यू नहीं हुए, शायद नए ही बनवाने पड़ें. अब इस उम्र में यह सब झंझट कहां होगा.’’

‘‘अरे, ऐसे कौन से बूढ़े हो गए हैं आप. और ये पासपोर्ट सिर्फ एक टर्म ही तो रिन्यू नहीं हुए हैं. ब्रिटिश एंबैसी के कल्चरल सैंटर में मेरी एक शार्गिद है, शायद वह कुछ मदद कर सके. कोशिश कर के देखते हैं, कह कर राबिया बेगम ने दोनों पासपोर्ट उन के आगे रख दिए और एक गहरी सांस ले कर बेबस निगाहों से डा. जाकिर की तरफ देखा तो वे फैसला करने को मजबूर हो गए.’’

जाकिर साहब की जानपहचान और व्यवहारकुशलता से एक महीने में दोनों के पासपोर्ट बन गए. अभी तक घर में उन्होंने इस बारे में खुल कर किसी से बात नहीं की थी. अब जब उन्होंने अपने दोनों के लंदन जाने की बात कही तो अजीब सी प्रतिक्रिया मिली. राबिया बेगम के लंदन जाने पर किसी को एतराज नहीं था. पर लड़के और बहुएं जाकिर साहब को जाने नहीं देना चाहते थे. राबिया बेगम से सिर्फ उन के पोते आमिर और समद ने नहीं जाने की मनुहार की थी. बहरहाल, कुछ समझाइश के बाद दोनों लंदन रवाना हो गए.

3 महीने बीत गए. एक दिन शाहिद ने उन को फोन किया और बोला, ‘‘अब्बू, आमों के बाग को ठेके पर देने का मौसम आ गया है,आप हिंदुस्तान कब आ रहे हैं, बहुत दिन हो गए, आ जाइए न.’’

फोन सुन कर उन्होंने संक्षिप्त सा जवाब दिया, ‘‘साहबजादे, अगर आमों के बाग का ठेका देने के लिए ही मुझे आना है तो बेहतर है कि तुम अभी से इन सभी कामों को और दुनियादारी को समझ लो. भई, आगे भी तुम्हें ही सबकुछ देखना है.’’

‘‘अरे नहीं, अब्बू. बात यह है कि हम सब आप को बहुत याद कर रहे हैं,’’ अब की बहू की आवाज थी, ‘‘अब्बू, आमिर और समद भी आप को बहुत याद करते हैं.’’

‘‘वे सिर्फ  मुझे ही याद कर रहे हैं या…’’

‘‘अरे नहीं अब्बू, याद तो अम्मी को भी करते हैं, मगरवह क्या है कि वे तो अपनी संगीत की महफिलों वगैरा में व्यस्त रहती होंगी. इसलिए… इसलिए,’’ कहते हुए बहू अपनी बात जारी रखने के लिए शब्द नहीं मिलने से हकलाने लगी तो, ‘‘देखता हूं, 1-2 हफ्ते  बाद आने की कोशिश करूंगा,’’ कह कर जाकिर साहब ने फोन काट दिया.

कुछ दिनों बाद वे लौट आए तो देखा कि राबिया बेगम के सब से प्यारे सितार को कागज के कफन में लपेट कर कमरे के ताख पर रख दिया गया था. उन की गैर मौजूदगी में दोनों के कमरों का इस्तेमाल किया गया था. मगर उन की किताबों और राबिया बेगम के साजों की देखभाल कतई नहीं की गई थी. यह मंजर देख कर उन का मन खिन्न हो गया.

उस दिन रात को डाइनिंग टेबल पर उन्होंने शाहिद से कहा कि वह कल उन के साथ गांव चल कर आम के बाग को ठेके पर देने के संबंध में सारी बातें समझ ले. 3-4 रोज में वे लंदन वापस लौट जाएंगे तो शाहिद बोला, ‘‘अब्बू, आप वहां जा कर क्या करेंगे. अम्मी तो अपनी महफिलों में व्यस्त रहती होंगी, आप अकेले के अकेले…’’ बात अधूरी छोड़ कर वह पता नहीं क्यों रुक गया.

शाहिद की बात सुन कर आज पहली दफा उन को लगा कि उन के बेटे जवान और समझदार ही नहीं, दुनियादार भी हो गए हैं. अब उन की नजरों में राबिया बेगम का दरजा उन की मां का नहीं, बल्कि शायद अपने बाप की दूसरी बीवी का हो गया है. मगर उन की रगों में नवाबी खानदान का खून तथा तबीयत में अदब बसा हुआ था. इसलिए गुस्से को पी कर बोले, ‘‘शाहिद, अदब से बात करो, वे तुम्हारी मां हैं. उन्होंने तुम लोगों की परवरिश के लिए अपने कैरियर को ही कुरबान नहीं किया, एक इतनी बड़ी कुरबानी दी है जिसे तुम लोग जानते भी नहीं हो और न ही उस की अहमियत को समझते हो. जानना चाहोगे?’’ उन्होंने शाहिद को घूर कर देखते हुए कहा.

‘‘चलिए, उस कुरबानी को भी आज बता ही दीजिए,’’ शाहिद की आवाज में अब भी तल्खी थी.

‘‘शाहिद, हर औरत में मां बनने की अहम ख्वाहिश होती है. उस की जिंदगी का यह एक अहम मकसद होता है. मगर राबिया बेगम ने हम से निकाह के वक्त वादा किया था कि वह तुम दोनों को ही अपनी औलाद मान कर पालेगी. अपना वचन निभाने के लिए उस ने बिना कोई अपनी औलाद पैदा किए स्टर्लाइजेशन करा लिया, जिस से उस की अपनी औलाद पैदा होने की सूरत ही न बने. यह कोई मामूली बात नहीं है और तुम, तुम…’’ कहतेकहते दबाए गुस्से के कारण उन की आवाज कांप गई.

‘‘अब्बू, मैं आप की बहुत इज्जत करता हूं. मगर कुछ बातों पर मोहूम सा परदा ही रहे तो बेहतर है. वैसे, खुदकुशी को कुरबानी का दरजा दिया जाना भी सही नहीं है,’’ शाहिद की जबान में अब भी तल्खी कायम थी.

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो, साफसाफ बोलो,’’ वे बोले तो उन की आवाज में अब की बार सख्ती थी.

‘‘बात यह है अब्बू, सभी चीजें उतनी खुशगवार और बेहतर नहीं थीं जितनी आप समझते रहे हैं. आप से निकाह करते वक्त मोहतरमा राबिया बेगम की नजरों में इस महानगर में एक बड़ी जमीन में बने हमारे इस आलीशान मकान और हमारी खानदानी जमीनजायदाद का खयाल बिलकुल नहीं था, यह बात कहना बिलकुल लफ्फाजी होगी. आप से निकाह के वक्त वे तलाकशुदा थीं तो उन्हें भी एक महफूज पनाह की जरूरत थी. रही बात स्टर्लाइजेशन कराने की, तो इस की वजह कोई पेचीदा जनाना मर्ज और यह खयाल भी हो सकता है कि इस निकाह का अंजाम भी अगर तलाक हुआ तो उस हाल में उन की अपनी औलाद उन की परेशानी की वजह बन सकती है. रही हमारी परवरिश की बात, वह तो आप अगर एक आया भी रख लेते तो यह काम तो वह भी करती ही. मगर उस हालत में आप की जिंदगी तनहा कटती.’’

शाहिद का संवाद और उस के मुंह से राबिया बेगम का नाम सुन कर जाकिर अली सन्न रह गए. यह वही शाहिद है जो डाइनिंग टेबल पर आने से पहले यह पूछता था कि अम्मी ने आज क्या पकाया है. 8वें दरजे में आने तक वह रात को अकसर अपने कमरे में से निकल आता और अपनी इसी अम्मी के पास सोने की जिद करता तो राबिया उसे अपने साथ सुला लेती थीं तो उसे मेहमानखाने में रात बितानी पड़ती थी.

उस समय शाहिद अपनी इन्हीं अम्मी के ही बेहद करीब था. आईआईटी में ऐडमिशन हो जाने पर वह अपनी इन्हीं अम्मी के गले में बांहें डाल कर लिपट कर रोया था-‘अम्मी आप साथ चलो, प्लीज अम्मी, कुछ दिनों के लिए चलो. आप नहीं चलोगी तो मैं भी नहीं जाऊंगा.’ और वह तभी गया था जब राबिया बेगम उस के साथ गई थीं और उस के पास से कुछ दिनों बाद नहीं, पूरे 3 महीने बाद अपना 4 किलो वजन खो कर लौटी थीं.

शाहिद की जिद सुन कर इन्हीं अम्मी के मां की मुहब्बत से लबरेज दिल और अनुभवी आंखों ने ताड़ लिया कि वह आईआईटी में नए लड़कों की रैगिंग की बातें सुन कर बेहद घबराया हुआ है और अगर वे साथ नहीं गईं तो कुछ अप्रिय हो सकता है. वे एक बड़ी यूनिवर्सिटी से छात्र और अध्यापक दोनों रूप से लंबे अरसे तक जुड़ी रही थीं. सो वे यह बात जानती थीं कि यह रैगिंग जैसा परपीड़न का घिनौना आपराधिक काम करने वाले चंद वे स्टूडैंट होते हैं जो मांबाप की प्यारभरी तवज्जुह न मिलने से उपजे आक्रोश के साथ किसी न किसी तरह के अन्य मानसिक तनाव का शिकार होते हैं.

बहुत सोचसमझ कर राबिया बेगम ने एक योजना बनाई. जिस के तहत आईआईटी में पहुंच कर वे वहां के कोऔडिनेटर से मिलीं. उन्हें अपना पूरा परिचय दिया और आने का मकसद बताया तो वे अपने स्तर पर उन्हें हर संभव सहयोग देने के लिए तैयार हो गए.

राबिया बेगम ने सब से पहले उन से उन संभावित लड़कों की जानकारी प्राप्त की जो उस साल के नवागंतुकों की रैगिंग करना अपना अधिकार समझते थे. फिर उन्होंने उन लड़कों से अलगअलग मुलाकात की. उन लड़कों से राबिया बेगम की ममताभरी लंबी बातचीत में यह बात निकल कर आई कि उन्हें कभी भी मांबाप की निकटता, उन की प्यारभरी देखभाल, स्नेहभरी डांटफटकार मिली ही नहीं थी. ज्यादातर लड़कों को तो यह भी याद नहीं था कि उन्हें मां ने कभी अपने हाथ से परोस कर खाना खिलाया था. वे तो मां के उस स्वरूप से परिचित ही नहीं थे जो गुस्सा होने पर बच्चे को मार तो देती है, मगर बाद में उस के रोने पर उस के साथ खुद भी रो लेती है.

पिता के बारे में उन का परिचय सिर्फ जरूरत पर पैसे मांगने पर पैसे देते हुए यह घुड़की, ‘अभी उस दिन तो इतने पैसे दिए थे. तुम्हारे खर्चे दिनपरदिन बढ़ते जा रहे हैं,’ देने वाले व्यक्ति के रूप में था. बच्चे इस बात से भी आक्रोशित थे कि उन के मांबाप उन पर जो खर्चा करते हैं उस का ढिंढोरा भी खूब पीटते हैं. इस के साथ, ये लड़के रैगिंग की पीड़ा झेलने के दमित आक्रोश का भी शिकार थे.

जब राबिया ने पहली बार उन15-12 लड़कों को अपने घर पर खाने को कहा तो वे भौचक्के रह गए. मगर राबिया बेगम का ममताभरा अनुरोध टाल भी नहीं सके. उन के आ जाने पर राबिया बेगम ने अपने हाथ से बना खाना परोस कर मां की तरह मनुहार कर के खिलाया तो खाना खत्म होने पर एक लड़का गुनगुनाने लगा, ‘तू प्यार का सागर है…’ लड़के की आवाज में सोज था मगर उसे आरोह और अवरोह का सही ज्ञान नहीं था. यह समझते हुए राबिया ने उसे गाने को प्रोत्साहित किया और बड़ी सावधानी से थोड़ी सी समझाइश के साथ उस से पूरा गाना गवाया.

लड़के समझ गए कि उन्हें संगीत की अच्छी जानकारी है और वे बच्चों की तरह उन से गाना सुनाने की जिद करने लगे तो उन्होंने, ‘करोगे याद तो हर बात याद आएगी…’ गजल सुनाई. राबिया बेगम की सुरीली आवाज में पेश की गई गजल जब खत्म हुई तो संगीत की जानकारी रखने वाले ही नहीं, सभी लड़के बेहद भावुक हो गए और एक तो उन से ‘हाय अम्मी, आप इतना अच्छा गा भी सकती हो,’ कह कर उन से बच्चे की तरह लिपट गया.

इस के बाद तो राबिया बेगम ने अपना प्रोग्राम तय कर लिया था. वे रोज उन लड़कों को घर पर बुला लेती थीं, बल्कि कुछ दिन बीतते तो ज्यादातर लड़के उन्हें शरारती बच्चों की तरह घेरे रहने लगे थे. अब इन्हीं दमित आक्रोश के शिकार लड़कों ने घर की सफाई वगैरा से ले कर खाना बनाने और बरतन साफ करने तक में सामूहिक सहयोग करना शुरू कर दिया था. सब मिल कर खाना बनाते, फिर सहभोज होता था.

राबिया बेगम की ममता और व्यवहारमाधुर्य ने उन्हें रिश्तों की अहमियत सिखा दी थी. शुरू में जब लड़कों ने उन्हें मैडम कहा तो वे बोली थीं, ‘भई, मैं तुम्हारी टीचर थोड़े ही हूं.’ तब कुछ लड़कों ने उन्हें ‘आंटी’ कहा तो वे बोलीं, ‘यह आंटी कौन सा रिश्ता होता है. हमारी समझ में नहीं आया और अपन तो पूरी तरह देसी लोग हैं न. तो भई, हम किसी की आंटी तो नहीं बनेंगे.’ फिर लड़कों की दुविधा भांपते हुए उन्होंने कहा था, ‘देखो भई, मेरी उम्र तुम्हारी मां के बराबर है. मगर मां तो मां ही होती है.’ परिवार में मां के बाद काकी, ताई, मौसी का भी मां जैसा ही रिश्ता होता है, इसलिए मेरी उम्र के लिहाज से तुम मुझे काकी, ताई, मौसी वगैरा में से जो भी अच्छा लगे, कह सकते हो. वरना मेरा नाम राबिया है, इस नाम से भी बुला सकते हो, मगर आंटी मत कहना. पता नहीं क्यों यह आंटी मुझे अजीब लिजलिजी सी लगती है, जिस में न जाने कौनकौन छिपी बैठी हैं.’ उन की बात सुन कर लड़के एक बार तो हंस पड़े, फिर कुछ लड़कों ने उन्हें जिद कर के अम्मी, मम्मी कहना शुरू कर दिया और बाकी काकी, मौसी वगैरा कहने लगे थे तो उन्हें अम्मी कहने वाले लड़कों से शाहिद के मुंह से बेअख्तियार निकल गया, ‘जनाब, आप हमारी अम्मी के प्यार में हमारे रकीब बन रहे हैं.’ यह सारा वाकेआ पहली छुट्टियों में घर आने पर इसी शाहिद ने खुद अपने मुंह से सुनाया था.

राबिया बेगम के व्यवहार से लड़कों की संख्या में रोज इजाफा हो जाता था. अब ज्यादातर नवागंतुक भी सीनियर्स का सामीप्य राबिया बेगम की देखभाल में पाने के लिए आने लगे थे. राबिया बेगम तो सभी को अपने बच्चों के बड़े कुटुंब में शामिल कर लेती थीं, मगर 2 महीने लगातार इतने सारे लड़कों के बनाए परिवार के लिए खाने की व्यवस्था कराने, सब को एकजुट बनाए रख कर शाहिद की सुरक्षा के लिए रैगिंग विरोधी अभियान चलाए रखने की कोशिश में रातदिन मेहनत करने से राबिया बेगम का स्वास्थ्य काफी गिर गया. फिर भी उन्हें इस बात की तसल्ली थी कि इस अवधि में उन्होंने शाहिद के लिए जो दोस्ताना माहौल बना दिया है उस से शाहिद अब इस संस्थान से डिगरी लेने तक रैगिंग वगैरा से महफूज रहेगा.

इस तरह 8-10 सप्ताह बीत गए. वह दिन आ गया जब नए छात्रों को पुरानों के साथ सामंजस्य बिठाने वाला फ्रैशर्स डे मनाया जाता है. पुराने यानी सीनियर्स और जूनियर्स का सहभोज होता है और रैगिंग पर घोषित विराम लग जाता है. अब की बार फ्रैशर्स डे राबिया बेगम ने इस तरह आयोजित किया कि वह मात्र मस्तीभरा सहभोज न रह कर एक विराट सांस्कृतिक कार्यक्रम बन गया. फ्रैशर्स डे के इस जबरदस्त कारनामे का पता संस्थान के प्रिंसिपल के पत्र से हुआ, जिस में उन्हें बधाई और धन्यवाद देते हुए लिखा था कि यह साल उन के संस्थान के पिछले कई दशकों के इतिहास में यादगार बन गया है क्योंकि इस साल इस संस्थान में रैगिंग की कोई घटना नहीं हुई और फ्रैशर्स डे के अभूतपूर्व सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए राबियाजी को आगे भी आना होगा.

उन दिनों के शाहिद और आज के शाहिद की तुलना करते हुए जाकिर साहब डाइनिंग टेबल पर खामोश बैठे थे, सभी इंतजार में थे कि वे खाना शुरू करें तो खाना खाएं. मगर जाकिर साहब यह कह कर उठ गए, ‘‘शुक्रिया साहबजादे, आज आप ने हमें खुदकुशी और कुरबानी में फर्क का इल्म करा दिया.’’ और उन्होंने अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया. काफी सोचविचार कर उन्होंने एक फैसला कर लिया.

घर के लोगों ने सुबह उठ कर देखा कि जाकिर साहब और राबिया बेगम के कमरों के दरवाजों पर ताला लगा हुआ है और जाकिर साहब घर में नहीं हैं. ऐसा तो कभी नहीं हुआ. जाकिर साहब और राबिया बेगम घर के बाहर भी जाते थे तब भी कमरों के दरवाजे हमेशा खुले रहते थे. एक दफा जाकिर साहब ने बेगम से कहा था, ‘बेगम, कम से कम दरवाजा बंद कर के कुंडी तो लगा दिया करो’ तो राबिया बेगम ने जवाब दिया था, ‘हमारे कमरों में ऐसा क्या रखा है जिसे अपने ही बच्चों की नजरों से परदा कराया जाए.’

शक की सूई – भाग 2 : जब पति ने किया पत्नी का पीछा

जयंती की शादी हुए 22 साल हो चुके थे और उस के 18 और 14 साल के 2 बेटे थे. जिंदगी के कितने मौसम बीत गए, पर उस के पति प्रमोद को न कोलियरी कैंटीन में चाय पीते कभी किसी ने देखा, न वह कभी बसंती होटल में घुघनीचोप खाते मिला. जयंती को औफिस गेट के अंदर उतार कर नाक की सीध में वापस घर चला जाता था, फिर ठीक 2 बजे उस की बाइक औफिस गेट के बाहर खड़ी नजर आती थी.

एक दिन अचानक प्रमोद की बाइक की दिशा में बदलाव हुआ. जयंती को औफिस गेट के अंदर छोड़ पर वापस घर लौट जाने वाली बाइक आज फिल्टर प्लांट की ओर मुड़ गई थी. अगले दिन से वही बाइक कभी कैंटीन के सामने खड़ी नजर आने लगी, तो कभी बसंती होटल के सामने.

जिस आदमी ने बसंती होटल में कभी कदम नहीं रखा था, वही अब उस होटल में घुघनीचोप गपागप खाने लगा था मानो बरसों का भूखा हो.

बसंती अंदर से बेहद खुश थी. उसे नया मालदार ग्राहक मिल गया था, ‘‘और कुछ खाने का मन करे तो फोन कर दीजिएगा, घर जैसा स्वाद मिलेगा. यह हमारा नंबर है, रख लीजिए…’’ बसंती ने ब्लाउज के भीतर से एक कागज की चिट निकाल प्रमोद के हाथ में थमा दी थी.

प्रमोद जयंती का पति है, यह बसंती को पता था. प्रमोद की बाइक की दिशा का बदलना और खुद प्रमोद में यह बदलाव अचानक से नहीं हुआ था. अचानक कुछ होता भी नहीं है. हर नर के पीछे एक नारी और हर शक के पीछे एक बीमारी वाली बात थी.

एक दिन जयंती को औफिस छोड़ कर प्रमोद घर लौट रहा था हमेशा की तरह, तभी रास्ते में उसे एक आदमी मिल गया. उस ने इशारे से प्रमोद को रुकने को कहा, फिर पास जा कर पूछ बैठा, ‘‘आप जयंती के पति हैं न?’’

‘‘हां, पर तुम कौन हो?’’

‘‘मेरा नाम रघु है.’’

‘‘क्या बात है?’’

‘‘भैया, भाभी पर नजर रखो. बड़े बाबू राजेश और उन के संबंधों को ले कर औफिस में बड़े गरमागरम चर्चे हैं.’’

‘‘क्या बकते हो, सुबहसुबह पी ली है क्या? होश में तो हो?’’ प्रमोद ने रघु का कौलर पकड़ लिया, ‘‘मेरी पत्नी के बारे में ऐसी बात कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?’’

रघु ने अपना कौलर छुड़ाते हुए

कहा, ‘‘मैं तो होश में हूं भैया, लेकिन जब सचाई जान लोगे तो तुम बेहोश

हो जाओगे.’’

‘‘अगर यह बात झूठ निकली, तो तुम्हें ढूंढ़ कर पीटूंगा.’’

‘‘जरूर पीटना, पर पहले अपनी पत्नी का पता करो,’’ इसी के साथ रघु खिसक लिया था. आज वह बेहद खुश था. महीनों से मन में जो गुबार था, वह बाहर निकल गया था. आज उस ने उस बात का बदला ले लिया था.

दरअसल, एक दिन सुबह रघु जयंती को कह बैठा था, ‘‘मैडम, कभीकभी आप बहुत जल्दी आ जाती हैं, कोई खास काम रहता होगा?’’

औफिस में रघु की पत्नी के बारे में सभी को पता था. रघु हर औरत में अपनी पत्नी का सा रूप देखने की ख्वाहिश लिए घूमता था, इसीलिए कभीकभी उसे करारा जवाब मिल जाता था.

‘‘तुम अपनी औकात में रहो और दूसरों की जासूसी करना छोड़ कर अपनी पत्नी की निगरानी करो… समझे तुम…’’ जयंती का यह उसी तरह का ताना था, जैसा महाभारत के एक प्रसंग में द्रौपदी ने दुर्योधन से कहा था कि अंधे का बेटा अंधा ही होता है. बाकी महाभारत का पता है आप को. वहां शकुनि था, यहां रघु शकुनि बनना चाह रहा था.

प्रमोद सोच में पड़ गया, पर किसी नतीजे पर पहुंच नहीं सका. उस ने रघु को तलाशा. पता चला कि पिछले 2 दिनों से वह काम पर ही नहीं आ रहा था.

यह भी पता चला कि रघु औफिस का चपरासी है और एक नंबर का पियक्कड़ भी. उस की खुद की पत्नी उस के बस में नहीं है. गांव में रहती थी, तब उस ने अपने 2 देवरों को फांस रखा था. रात को वह दोनों के बीच में सोती और रघु शराब पी कर रातभर आंगन में पड़ा रहता था. कुछ कहने पर पत्नी उसे देवरों से दौड़ादौड़ा कर पिटवाती थी.

शहर आने पर देवरों का संग तो छूटा, पर यहां भी उस ने एक बौयफ्रैंड रख लिया. कमाई खाए पति की, अंगूठा चूसे पड़ोसी का.

उस दिन के बाद से ही प्रमोद कुछ उखड़ाउखड़ा सा रहने लगा था. जयंती को औफिस में छोड़ वापस घर जाने का सिलसिला उस ने तोड़ दिया था और औफिस कैंपस के बाहर चारदीवारी से सटे गुलमोहर तो कभी लिप्टस के पेड़ों पर बंदर की तरह चढ़ कर बैठ जाता

और औफिस के बरामदे की ओर बगुले की माफिक टकटकी लगाए छिप कर देखता रहता.

लोग प्रमोद की ओर देखते और हंसते हुए आगे निकल लेते. उसे भरम होता कि कोई उसे नहीं देख रहा है, उलटे वह लोगों को अपनी ओर देखते हुए पा कर खुद को पेड़ की डालियों में छिपाने की नाकाम कोशिश करने लगता था.

औफिस आ रहे करमचंद बाबू ने एक दिन प्रमोद से कहा था, ‘‘हर रोज बंदरों की तरह पेड़ पर चढ़ कर क्या देखते हो?’’

‘‘तुम अपने काम से मतलब रखो न, कौन क्या कर रहा है, उस से तुम्हारा क्या लेनादेना है? अपना रास्ता नापो,’’ एकबारगी प्रमोद झुंझला उठा था.

‘‘क्या हुआ सर, मूड उखड़ा हुआ लग रहा है?’’ सामने से आ रहे सफाई मजदूर पूरनराम ने पूछा था.

‘‘अजीब सनकी लगता है…’’

‘‘कौन… वह जो पेड़ पर चढ़ा हुआ है? उसे मैं कभीकभी कैंटीन की तरफ भी घूमते हुए देखता हूं. एक दिन रघु के साथ बैठ कर कैंटीन में चाय पीते देखा, पर कभी खुश नहीं लग रहा था. जाने क्याक्या सोचता रहता है…’’

अंतहीन- भाग 2: क्यों गुंजन ने अपने पिता को छोड़ दिया?

‘‘मैं और गुंजन सूर्यास्त देख कर पहाड़ी से नीचे उतर रहे थे कि अचानक चीखतेचिल्लाते लोग ‘भागो, बम फटने वाला है’ हमें धक्का देते हुए नीचे भागे. मैं किनारे की ओर थी सो रेलिंग पर जा कर गिरी लेकिन गुंजन को भीड़ की ठोकरों ने नीचे ढकेल दिया. उसे लुढ़कता देख कर मैं रेलिंग के सहारे नीचे भागी. एक सज्जन ने, जो हमारे साथ सूर्यास्त देख कर हम से आगे नीचे उतर रहे थे, गुंजन को देख लिया और लपक कर किसी तरह उस को भीड़ से बाहर खींचा. तब तक गुंजन बेहोश हो चुका था. उन्हीं सज्जन ने हम लोगों को अपनी गाड़ी में मैत्री अस्पताल पहुंचाया.’’

‘‘गुंजन की गाड़ी तो आफिस में खड़ी है, तेरी गाड़ी कहां है?’’ एक युवती ने पूछा.

‘‘प्लैनेटोरियम की पार्किंग में…’’

‘‘उसे वहां से तुरंत ले आ तनु, लावारिस गाड़ी समझ कर पुलिस जब्त कर सकती है,’’ एक युवक बोला.

‘‘अफवाह थी सो गाड़ी तो खैर जब्त नहीं होगी, फिर भी प्लैनेटोरियम बंद होने से पहले तो वहां से लानी ही पड़ेगी,’’ राघव ने कहा.

‘‘मैत्री से गुंजन का कोट भी लेना है, उस में उस का पर्स, मोबाइल आदि सब हैं मगर मैं कैसे जाऊं?’’ तनु ने असहाय भाव से कहा, ‘‘तुम्हीं लोग ले आओ न, प्लीज.’’

‘‘लेकिन हमें तो कोई गुंजन का सामान नहीं देगा और हो सकता है गाड़ी के बारे में भी कुछ पूछताछ हो,’’ प्रभव ने कहा, ‘‘तुम्हें भी साथ चलना पड़ेगा, तनु.’’

‘‘गुंजन को इस हाल में छोड़ कर?’’ तनु ने आहत स्वर में पूछा.

‘‘गुंजन को तुम ने सही हाथों में सौंप दिया है तनु और फिलहाल सिवा डाक्टरों के उस के लिए कोई और कुछ नहीं कर सकता. तुम्हारी परेशानी और न बढ़े इसलिए तुम गुंजन का सामान और अपनी गाड़ी लेने में देर मत करो,’’ राघव ने कहा.

‘‘ठीक है, मैं दोनों काम कर के 15-20 मिनट में आ जाऊंगी.’’

‘‘यहां आ कर क्या करोगी तनु? न तो तुम अभी गुंजन से मिल सकती हो और न उस के इलाज के बारे में कोई निर्णय ले सकती हो. अपनी चोटों पर भी दवा लगवा कर तुम घर जा कर आराम करो,’’ राघव ने कहा, ‘‘यहां मैं और प्रभव हैं ही. रजत, तू इन लड़कियों के साथ चला जा और सीमा, मिन्नी तुम में से कोई आज रात तनु के साथ रह लो न.’’

‘‘उस की फिक्र मत करो राघव, मगर तनु को गुंजन के हाल से बराबर सूचित करते रहना,’’ कह कर दोनों युवतियां और रजत तनु को ले कर बगैर रामदयाल की ओर देखे चले गए.

गुंजन की चिंता में त्रस्त रामदयाल सोचे बिना न रह सके कि गुंजन के बाप का तो खयाल नहीं, मगर उस लड़की की चिंता में सब हलकान हुए जा रहे हैं. उन के दिल में तो आया कि वह राघव और प्रभव से भी जाने को कहें मगर इन हालात में न तो अकेले रहने की हिम्मत थी और फिलहाल न ही किसी रिश्तेदार या दोस्त को बुलाने की, क्योंकि सब का पहला सवाल यही होगा कि गुंजन नेहरू प्लैनेटोरियम की पहाड़ी पर शाम के समय क्या कर रहा था जबकि गुंजन ने सब को कह रखा था कि 6 बजे के बाद वह बौस के साथ व्यस्त होता है इसलिए कोई भी उसे फोन न किया करे.

रामदयाल तो समझ गए थे कि कहां किस बौस के साथ, वह व्यस्त होता था मगर लोगों को तो कोई माकूल वजह ही बतानी होगी जो सोचने की मनोस्थिति में वह अभी नहीं थे.

तभी उन्हें वरिष्ठ डाक्टर ने मिलने को बुलाया. रौंदे जाने और लुढ़कने के कारण गुंजन को गंभीर अंदरूनी चोटें आई थीं और उस की बे्रन सर्जरी फौरन होनी चाहिए थी. रामदयाल ने कहा कि डाक्टर, आप आपरेशन की तैयारी करें, वह अभी एटीएम से पैसे निकलवा कर काउंटर पर जमा करवा देते हैं.

प्रभव उन्हें अस्पताल के परिसर में बने एटीएम में ले गया. जब वह पैसे निकलवा कर बाहर आए तो प्रभव किसी से फोन पर बात कर रहा था… ‘‘आफिस के आसपास के रेस्तरां में कब तक जाते यार? उन दोनों को तो एक ऐसी सार्वजनिक मगर एकांत जगह चाहिए जहां वे कुछ देर शांति से बैठ कर एकदूसरे का हाल सुनसुना सकें. नेहरू प्लैनेटोरियम आफिस के नजदीक भी है और उस के बाहर रूमानी माहौल भी. शादी अभी तो मुमकिन नहीं है…गुंजन की मजबूरियों के कारण…विधुर पिता के प्रति इकलौते बेटे की जिम्मेदारियां और लगाव कुछ ज्यादा ही होता है…हां, सीमा या मिन्नी से बात कर ले.’’

उन्हें देख कर प्रभव ने मोबाइल बंद कर दिया.

पैसे जमा करवाने के बाद राघव और प्रभव ने उन्हें हाल में पड़ी कुरसियों की ओर ले जा कर कहा, ‘‘अंकल, आप बैठिए. हम गुंजन के बारे में पता कर के आते हैं.’’

मुझे यकीन है : शौहर को तरसती गुलशन

पढ़ीलिखी गुलशन की शादी मसजिद के मुअज्जिन हबीब अली के बेटे परवेज अली से धूमधाम से हुई. लड़का कपड़े का कारोबार करता था. घर में जमीनजायदाद सबकुछ था.

गुलशन ब्याह कर आई तो पहली रात ही उसे अपने मर्द की असलियत का पता चल गया. बादल गरजे जरूर, पर ठीक से बरस नहीं पाए और जमीन पानी की बूंदों के लिए तरसती रह गई. वलीमा के बाद गुलशन ससुराल दिल में मायूसी का दर्द ले कर लौटी.

खानदानी घर की पढ़ीलिखी लड़की होने के बावजूद सीधीसादी गुलशन को एक ऐसे आदमी को सौंप दिया गया, जो सिर्फ चारापानी का इंतजाम तो करता, पर उस का इस्तेमाल नहीं कर पाता था.

गुलशन को एक हफ्ते बाद हबीब अली ससुराल ले कर आए. उस ने सोचा कि अब शायद जिंदगी में बहार आए, पर उस के अरमान अब भी अधूरे ही रहे.

मौका पा कर एक रात को गुलशन ने अपने शौहर परवेज को छेड़ा, ‘‘आप अपना इलाज किसी अच्छे डाक्टर से क्यों नहीं कराते?’’

‘‘तुम चुपचाप सो जाओ. बहस न करो. समझी?’’ परवेज ने कहा.

गुलशन चुपचाप दूसरी तरफ मुंह कर के अपने अरमानों को दबा कर सो गई. समय बीतता गया. ससुराल से मायके आनेजाने का काम चलता रहा. इस बात को दोनों समझ रहे थे, पर कहते किसी से कुछ नहीं थे. दोनों परिवार उन्हें देखदेख कर खुश होते कि उन के बीच आज तक तूतूमैंमैं नहीं हुई है.

इसी बीच एक ऐसी घटना घटी, जिस ने गुलशन की जिंदगी बदल दी. मसजिद में एक मौलाना आ कर रुके. उन की बातचीत से मुअज्जिन हबीब अली को ऐसा नशा छाया कि वे उन के मुरीद हो गए. झाड़फूंक व गंडेतावीज दे कर मौलाना ने तमाम लोगों का मन जीत लिया था. वे हबीब अली के घर के एक कमरे में रहने लगे.

‘‘बेटी, तुम्हारी शादी के  2 साल हो गए, पर मुझे दादा बनने का सुख नहीं मिला. कहो तो मौलाना से तावीज डलवा दूं, ताकि इस घर को एक औलाद मिल जाए?’’ हबीब अली ने अपनी बहू गुलशन से कहा.

गुलशन समझदार थी. वह ससुर से उन के बेटे की कमी बताने में हिचक रही थी. चूंकि घर में ससुर, बेटे, बहू के सिवा कोई नहीं रहता था, इसलिए वह बोली, ‘‘बाद में देखेंगे अब्बूजी, अभी मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

हबीब अली ने कुछ नहीं कहा.

मुअज्जिन हबीब अली के घर में रहते मौलाना को 2 महीने बीत गए, पर उन्होंने गुलशन को देखा तक नहीं था. उन के लिए सुबहशाम का खाना खुद हबीब अली लाते थे.

दिनभर मौलाना मसजिद में इबादत करते. झाड़फूंक के लिए आने वालों को ले कर वे घर आते, जो मसजिद के करीब था. हबीब अली अपने बेटे परवेज के साथ दुकान में रहते थे. वे सिर्फ नमाज के वक्त घर या मसजिद आते थे.

मौलाना की कमाई खूब हो रही थी. इसी बहाने हबीब अली के कपड़ों की बिक्री भी बढ़ गई थी. वे जीजान से मौलाना को चाहते थे और उन की बात नहीं टालते थे.

एक दिन दोपहर के वक्त मौलाना घर आए और दरवाजे पर दस्तक दी.

‘‘जी, कौन है?’’ गुलशन ने अंदर से ही पूछा.

‘‘मैं मौलाना… पानी चाहिए.’’

‘‘जी, अभी लाई.’’

गुलशन पानी ले कर जैसे ही दरवाजा खोल कर बाहर निकली, गुलशन के जवां हुस्न को देख कर मौलाना के होश उड़ गए. लाजवाब हुस्न, हिरनी सी आंखें, सफेद संगमरमर सा जिस्म…

मौलाना गुलशन को एकटक देखते रहे. वे पानी लेना भूल गए.

‘‘जी पानी,’’ गुलशन ने कहा.

‘‘लाइए,’’ मौलाना ने मुसकराते हुए कहा.

पानी ले कर मौलाना अपने कमरे में लौट आए, पर दिल गुलशन के कदमों में दे कर. इधर गुलशन के दिल में पहली बार किसी पराए मर्द ने दस्तक दी थी. मौलाना अब कोई न कोई बहाना बना कर गुलशन को आवाज दे कर बुलाने लगे. इधर गुलशन भी राह ताकती कि कब मौलाना उसे आवाज दें.

एक दिन पानी देने के बहाने गुलशन का हाथ मौलाना के हाथ से टकरा गया, उस के बाद जिस्म में सनसनी सी फैल गई. मुहब्बत ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया था.

ऊपरी मन से मौलाना ने कहा, ‘‘सुनो मियां हबीब, मैं कब तक तुम्हारा खाना मुफ्त में खाऊंगा. कल से मेरी जिम्मेदारी सब्जी लाने की. आखिर जैसा वह तुम्हारा बेटा, वैसा मेरा भी बेटा हुआ. उस की बहू मेरी बहू हुई. सोच कर कल तक बताओ, नहीं तो मैं दूसरी जगह जा कर रहूंगा.’’

मुअज्जिन हबीब अली ने सोचा कि अगर मौलाना चले गए, तो इस का असर उन की कमाई पर होगा. जो ग्राहक दुकान पर आ रहे हैं, वे नहीं आएंगे. उन को जो इज्जत मौलाना की वजह से मिल रही है, वह नहीं मिलेगी.

इस समय पूरा गांव मौलाना के अंधविश्वास की गिरफ्त में था और वे जबरदस्ती तावीज, गंडे, अंगरेजी दवाओं को पीस कर उस में राख मिला कर इलाज कर रहे थे. हड्डियों को चुपचाप हाथों में रख कर भूतप्रेत निकालने का काम कर रहे थे.

बापबेटे दोनों ने मौलाना से घर छोड़ कर न जाने की गुजारिश की. अब मौलाना दिखाऊ ‘बेटाबेटी’ कह कर मुअज्जिन हबीब अली का दिल जीतने की कोशिश करने लगे.

नमाज के बाद घर लौटते हुए हबीब अली ने मौलाना से कहा, ‘‘जनाब, आप इसे अपना ही घर समझिए. आप की जैसी मरजी हो वैसे रहें. आज से आप घर पर ही खाना खाएंगे, मुझे गैर न समझें.’’

मौलाना के दिल की मुराद पूरी हो गई. अब वे ज्यादा वक्त घर पर गुजारने लगे. बाहर के मरीजों को जल्दी से तावीज दे कर भेज देते. इस काम में अब गुलशन भी चुपकेचुपके हाथ बंटाने लगी थी. तकरीबन 6 महीने का समय बीत चुका था. गुलशन और मौलाना के बीच मुहब्बत ने जड़ें जमा ली थीं.

एक दिन मौलाना ने सोचा कि आज अच्छा मौका है, गुलशन की चाहत का इम्तिहान ले लिया जाए और वे बिस्तर पर पेट दर्द का बहाना बना कर लेट गए.

‘‘मेरा आज पेट दर्द कर रहा है. बहुत तकलीफ हो रही है. तुम जरा सा गरम पानी से सेंक दो,’’ गुलशन के सामने कराहते हुए मौलाना ने कहा.

‘‘जी,’’ कह कर वह पानी गरम करने चली गई. थोड़ी देर बाद वह नजदीक बैठ कर मौलाना का पेट सेंकने लगी. मौलाना कभीकभी उस का हाथ पकड़ कर अपने पेट पर घुमाने लगे.

थोड़ा सा झिझक कर गुलशन मौलाना के पेट पर हाथ फिराने लगी. तभी मौलाना ने जोश में गुलशन का चुंबन ले कर अपने पास लिटा लिया. मौलाना के हाथ अब उस के नाजुक जिस्म के उस हिस्से को सहला रहे थे, जहां पर इनसान अपना सबकुछ भूल जाता है.

आज बरसों बाद गुलशन को जवानी का वह मजा मिल रहा था, जिस के सपने उस ने संजो रखे थे. सांसों के तूफान से 2 जिस्म भड़की आग को शांत करने में लगे थे. जब तूफान शांत हुआ, तो गुलशन उठ कर अपने कमरे में पहुंच गई.

‘‘अब्बू, मुझे यकीन है कि मौलाना के तावीज से जरूर कामयाबी मिलेगी,’’ गुलशन ने अपने ससुर हबीब अली से कहा.

‘‘हां बेटी, मुझे भी यकीन है.’’

अब हबीब अली काफी मालदार हो गए थे. दिन काफी हंसीखुशी से गुजर रहे थे. तभी वक्त ने ऐसी करवट बदली कि मुअज्जिन हबीब अली की जिंदगी में अंधेरा छा गया.

एक दिन हबीब अली अचानक किसी जरूरी काम से घर आए. दरवाजे पर दस्तक देने के काफी देर बाद गुलशन ने आ कर दरवाजा खोला और पीछे हट गई. उस का चेहरा घबराहट से लाल हो गया था. बदन में कंपकंपी आ गई थी.

हबीब अली ने अंदर जा कर देखा, तो गुलशन के बिस्तर पर मौलाना सोने का बहाना बना कर चुपचाप मुंह ढक कर लेटे थे.

यह देख कर हबीब अली के हाथपैर फूल गए, पर वे चुपचाप दुकान लौट आए.

‘‘अब क्या होगा? मुझे डर लग रहा है,’’ कहते हुए गुलशन मौलाना के सीने से लिपट गई.

‘‘कुछ नहीं होगा. हम आज ही रात में घर छोड़ कर नई दुनिया बसाने निकल जाएंगे. मैं शहर से गाड़ी का इंतजाम कर के आता हूं. तुम तैयार हो न?’’

‘‘मैं तैयार हूं. जैसा आप मुनासिब समझें.’’

मौलाना चुपचाप शहर चले गए. मौलाना को न पा कर हबीब अली ने समझा कि उन के डर की वजह से वह भाग गया है.

सुबह हबीब अली के बेटे परवेज ने बताया, ‘‘अब्बू, गुलशन भी घर पर नहीं है. मैं ने तमाम जगह खोज लिया, पर कहीं उस का पता नहीं है. वह बक्सा भी नहीं है, जिस में गहने रखे हैं.’’

हबीब अली घबरा कर अपनी जिंदगी की कमाई और बहू गुलशन को खोजने में लग गए. पर गुलशन उन की पहुंच से काफी दूर जा चुकी थी, मौलाना के साथ अपना नया घर बसाने.

पाबंदी : एक जवान विधवा का दर्द

मेरा नाम आरती है. मेरे औफिस में केशवजी की फेयरवैल पार्टी थी. सुबहसुबह ही सरलाजी का फोन आया था, जो मेरे औफिस में ही सीनियर स्टाफ थीं. वे कह रही थीं, ‘‘आज केशवजी की फेयरवैल पार्टी है, अच्छे से तैयार हो कर आना.’’

मैं इस बात के लिए मना कर रही थी, लेकिन सरलाजी की बात को टाल भी नहीं सकती थी, क्योंकि वे मु?ो अपनी बेटी की तरह प्यार देती थीं और मैं भी उन्हें मां जैसी इज्जत देती थी. एक वे ही थीं, जिन से मैं अपना हर सुखदुख साझ करती थी.

जब मैं पार्टी में पहुंची और अपनी नजर दौड़ा कर देखा, तो लगा कि शायद सरलाजी अभी तक आई नहीं थीं.

मैं एक तरफ सोफे पर जा कर बैठ गई, पर मुझे बड़ा अजीब लग रहा था कि पार्टी में आए कुछ लोगों की नजरें सिर्फ मुझे ही घूर रही थीं.

मैं अपनेआप को असहज महसूस कर रही थी और सोच रही थी कि इतनी जल्दी यहां नहीं आना चाहिए था.

तभी मेरे करीब विनोद आ कर बैठ गया, जो मेरा ही कलीग था. वह कहने लगा, ‘‘अरे वाह, आज तो आप गजब ढा रही हैं इस नीले रंग की साड़ी में. ऊपर से ये बिंदी, चूड़ी… पहना कीजिए, अच्छी लग रही हैं… अब यह सब कौन मानता है.’’

तभी उधर से माधवजी कहने लगे, जो औफिस के ही सीनियर स्टाफ थे, ‘‘सच में आप को देख कर कोई नहीं कह सकता कि अभी 2 साल पहले ही आप के पति का देहांत हो चुका है.’’

जब मैं ने अपनी कड़ी नजर उन पर डाली, तो वे हकलाते हुए कहने लगे, ‘‘म… मेरा मतलब है कि आप अच्छी लग रही हैं.’’

पार्टी में आए सब लोग मुझे ऐसे देखने लगे, जैसे मैं ने कितना बड़ा अपराध कर डाला हो. सब की खा जाने वाली नजरों और बातों को झेलना अब मेरे नए नामुमकिन हो गया था. फफक कर मेरी आंखों से आंसू निकल पड़े. मुझे लगा कि अब यहां रुकना सही नहीं है.

मैं पलट कर जाने लगी कि तभी पीछे से सरलाजी के स्पर्श ने मुझे चौंका दिया. शायद वे सब सुन चकी थीं.

‘‘अरे आंटी, आप आ गईं,’’ मुझे जैसे बल मिल गया.

सरलाजी बोलीं, ‘‘हां, मैं जाम में फंस गई थी. पर तुम कहां जा रही हो… घर?’’

मैं बोली, ‘‘जी आंटी, वे बच्चे घर पर अकेले हैं, तो…’’

‘‘पर बेटा, पार्टी तो अभी शुरू ही हुई है. एंजौय करो न, घर ही तो जाना है. कहीं तुम इन सब की बातों से डर कर तो घर नहीं जा रही हो? अगर ऐसी बात है तो जाओ, लेकिन एक बात सुनती जाओ. ऐसे टुच्चे और बेशर्म लोग तो तुम्हें हर जगह मिल जाएंगे, फिर कहांकहां और किसकिस से भागती फिरोगी. अरे, भागना तो इन्हें चाहिए यहां से, क्योंकि ये सब दिल और दिमाग दोनों से बीमार हैं…

‘‘शर्म नहीं आती आप लोगों को ऐसी बातें करते हुए. और विनोद आप, क्या मुझे पता नहीं कि आप की नजर कितनी गंदी है इस को ले कर. घर में बीवी होते हुए भी बाहर की औरतों को कैसी गंदी नजरों से देखते हैं आप, क्या यह मुझे बताना पड़ेगा.

‘‘और माधवजी आप, कम से कम अपनी उम्र का तो लिहाज कर लिया होता. अरे, यह तो आप की बेटी जैसी है. बड़े समाज के ठेकेदार बनते फिरते हैं आप, तो फिर वह औरत कौन है, जिसे को आप ने अपने घर में रखा हुआ है, क्योंकि जहां तक मुझे पता है, आप की पत्नी को तो मरे हुए सालों हो चुके हैं.

‘‘क्यों, मैं सच बोल रही हूं न? बोलती बंद हो गई आप की…. घटिया इनसान, खुद में हजारों छेद हैं और ?झांक रहे हैं दूसरे की जिंदगी में…’’

सरलाजी आगे कहने लगीं, ‘‘ऐसा क्या गुनाह कर दिया इस ने, जो सब मिल कर इस की खिल्ली उड़ा रहे हैं. कल तक तो आप सब को कोई एतराज नहीं था इस के पहननेओढ़ने से, तो फिर आज क्या हो गया? क्योंकि अब इस का पति नहीं रहा इसलिए? इसलिए अब यह अपने मन का पहनओढ़ नहीं सकती? हंसबोल नहीं सकती? अपनी पसंद का खा नहीं सकती?

‘‘क्या इस के पति के साथ इस के अरमान भी मर गए? और अब इसे वही सबकुछ करना चाहिए, जो आप सब को ठीक लगे?

‘‘कहने को तो यह हमारी दुनिया, हमारा समाज, हमारा परिवार है, पर जब एक पति न हो तो यही दुनिया, समाज और परिवार एक अकेली औरत के लिए पराया हो जाता है.

‘‘कल तक जो औरत अपने मनमुताबिक जीती रही, आज उसी औरत की खुशियों पर पाबंदियां लगा दी जाती हैं, क्योंकि अब उस का पति नहीं रहा इसलिए. तो क्या इस की सजा उन मातापिता, भाईबहन और रिश्तेदारों को नहीं देनी चाहिए, जो उस के पति के रिश्ते में हैं? पत्नी को ही इस की सजा क्यों दी जाती है?’’यह सुन कर सभी लोगों के सिर शर्म से झक गए.

Father’s Day Special: जिंदगी जीने का हक- भाग 3

‘‘अरे, नहीं, 2 रोज में ऊब जाएगी,’’ केशव हंसे.

‘‘नहीं, पापाजी. ऊबी तो अकेले छत पर टहलते हुए हूं.’’

‘‘तुम छत पर अकेली क्यों टहलती हो?’’ मालिनी ने भौंहें चढ़ा कर पूछा.

जवाब केशव ने दिया कि प्रणव परीक्षा की तैयारी के लिए रात को देर तक पढ़ता है और तब तक समय गुजारने को यह टहलती रहती है. टीवी कब तक देखे और उपन्यास पढ़ने का इसे शौक नहीं है.

‘‘मगर प्रणव रात को क्यों पढ़ता है?’’

‘‘सुबह जल्दी उठ कर पढ़ने की उसे आदत नहीं है और दिन में आफिस जाता है,’’ केशव ने बताया.

‘‘आफिस में 5 बजे के बाद आप सब मुवक्किल से मिल कर उन की समस्याएं सुनते हो न?’’ मालिनीजी ने पूछा, ‘‘अगर चंद महीने प्रणव वह समस्याएं न सुने तो कुछ फर्क पड़ेगा क्या? काम तो उसे वही करना है जो आप बताओगे. सो कल से उसे 5 बजे से पढ़ने की छुट्टी दे दो ताकि रात को मियांबीवी समय से सो सकें.’’

‘‘यह तो है…’’

‘‘तो फिर कल से ही प्रणव को स्टडी लीव दो ताकि किसी का भी रुटीन खराब न हो,’’ मालिनीजी का स्वर आदेशात्मक था, होता भी क्यों न, प्राचार्य थीं.

प्रिया ने सिटपिटाए से केशव को देख कर मुश्किल से हंसी रोकी.

‘‘हां, यही ठीक रहेगा. लाइबे्ररी तो आफिस में ही है. वहीं से किताबें ला कर घर पर पढ़ता है, कल कह दूंगा कि दिन भर लाइबे्ररी में बैठ कर पढ़ता रहे, कुछ जरूरी काम होगा तो बुला लूंगा,’’ केशव बोले.

लौटते हुए केशव ने प्रिया से कहा कि वह प्रणव को न बताए कि मालिनीजी ने उस की स्टडी लीव की सिफारिश की है, नहीं तो चिढ़ जाएगा.

‘‘टीचर से सभी बच्चे चिढ़ते हैं और स्कूल छोड़ने के बाद तो उन की हर बात हस्तक्षेप लगती है.’’

‘‘यह बात तो है, पापाजी. वैसे यह बताने की भी जरूरत नहीं है कि हम मालिनीजी से मिले थे,’’ प्रिया ने केशव को आश्वस्त किया.

अगले रोज से प्रणव ने रात को पढ़ना छोड़ दिया. प्रिया ने मन ही मन मालिनीजी को धन्यवाद दिया. जिस रोज प्रणव की परीक्षा खत्म हुई, रात के खाने के बाद केशव ने उस से पूछा, ‘‘अब क्या इरादा है, कहीं घूमने जाओगे?’’

‘‘जाना तो है पापा, लेकिन रिजल्ट निकलने के बाद.’’

‘‘तो फिर कल मुझ से पूरा काम समझ लो, वैसे तो तुम सब संभाल ही लोगे फिर भी कुछ समस्या हो तो इन दोनों से पूछ लेना,’’ केशव ने अभिनव और प्रभव की ओर देखा, ‘‘तुम लोगों के पास वैसे तो अपना बहुत काम है लेकिन इसे कुछ परेशानी हो तो वक्त निकाल कर देख लेना, कुछ ही दिनों की बात है. मैं जल्दी आने की कोशिश करूंगा.’’

‘‘आप कहीं जा रहे हैं, पापा?’’ सभी ने एकसाथ चौंक कर पूछा.

‘‘हां, कोच्चि,’’ केशव मुसकराए, ‘‘शादी करने और फिर हनीमून…’’

‘‘शादी और आप… और वह भी अब?’’ अभिनव ने बात काटी, ‘‘जब करने की उम्र थी तब तो करी नहीं.’’

‘‘क्योंकि तब तुम सब को संभालना था. अब तुम्हें संभालने वालियां आ गई हैं तो मैं भी खुद को संभालने वाली ला सकता हूं. कोच्चि के नाम पर समझ ही गए होंगे कि मैं मालिनी की बात कर रहा हूं,’’ कह कर केशव रोज की तरह घूमने चले गए.

‘‘अगर पापा कोच्चि का नाम न लेते तो भी मैं समझ जाता कि किस की बात कर रहे हैं,’’ प्रभव ने दांत पीसते हुए कहा, ‘‘वह औरत हमेशा से ही हमारी मां बनने की कोशिश में थी. मैं ने आप को बताया भी था भैया और आप ने कहा था कि आप इस घर में उस की घुसपैठ कभी नहीं होने देंगे.’’

‘‘तो होने दी क्या?’’ अभिनव ने चिढ़े स्वर में पूछा, ‘‘वह हमारे घर न आए इसलिए कभी अपनी या तुम्हारे जन्मदिन की दावत नहीं होने दी. हालांकि त्योहार के दिन किसी रिश्तेदार के घर जाना मुझे बिलकुल पसंद नहीं था लेकिन उस औरत से बचने के लिए मैं बारबार बूआ या मौसी के घर जाने की जलालत भी झेल लेता था. अगर पता होता कि हमारी शादी के बाद वह हमारी मां की जगह ले लेगी तो मैं न अपनी शादी करता न तुम्हें करने देता.’’

‘‘लेकिन अब तो हम सब की शादी हो गई है और पापा अपनी करने जा रहे हैं,’’ प्रणव बोला.

‘‘हम जाने देंगे तब न? हम अपनी मां की जगह उस औरत को कभी नहीं लेने देंगे,’’ प्रभव बोला.

‘‘सवाल ही नहीं उठता,’’ अभिनव ने जोड़ा.

‘‘मगर करोगे क्या? अपनी शादियां खारिज?’’ प्रणव ने पूछा.

‘‘उस से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा,’’ जूही बोली, ‘‘क्योंकि पापाजी की जिम्मेदारी आप लोगों को सुव्यवस्थित करने तक थी, जो उन्होंने बखूबी पूरी कर दी. अब अगर आप उस में कुछ फेरबदल करना चाहते हो तो वह आप की अपनी समस्या है. उस से पापाजी को कुछ लेनादेना नहीं है.’’

‘‘उस सुव्यवस्था में फेरबदल हम नहीं पापा कर रहे हैं और वह हम करने नहीं देंगे,’’ अभिनव ने कहा.

‘‘मगर कैसे?’’ प्रणव ने पूछा.

‘‘कैसे भी, सवाल मत कर यार, सोचने दे,’’ प्रभव झुंझला कर बोला. फिर सोचने और सुझावों की प्रक्रिया बहस में बदल गई और बहस झगड़े में बदलती तब तक केशव आ गए, वह बहुत खुश लग रहे थे.

‘‘अच्छा हुआ तुम सब यहीं मिल गए. मैं और मालिनी परसों कोच्चि जा रहे हैं, शादी तो बहुत सादगी से करेंगे मगर यहां रिसेप्शन में तो तुम लोग सादगी चलने नहीं दोगे,’’ केशव हंसे, ‘‘खैर, मैं तुम लोगों को अपनी मां के स्वागत की तैयारी के लिए काफी समय दे दूंगा.’’

‘‘मगर पापा…’’

‘‘अभी मगरवगर कुछ नहीं, अभिनव. मैं अब सोने या यह कहो सपने देखने जा रहा हूं,’’ यह कहते हुए केशव अपने कमरे में चले गए.

‘‘पापाजी बहुत खुश हैं,’’ जूही ने कहा, ‘‘मुझे नहीं लगता वह आप के कहने से अपना इरादा बदलेंगे.’’

‘‘आप ठीक कहती हैं सो बदलने को कह कर हमें उन की खुशी में खलल नहीं डालना चाहिए,’’ सपना बोली.

‘‘और चुपचाप उन्हें अपनी मां की जगह उस औरत को देते हुए देखते रहना चाहिए?’’ अभिनव ने तिक्त स्वर में पूछा.

‘‘उन मां की जगह जिन की शक्ल भी आप को या तो धुंधली सी याद होगी या जिन्हें आप तसवीर के सहारे पहचानते हैं? उन की खातिर आप उन पापाजी की खुशी छीन रहे हैं जो अपनी भावनाओं और खुशियों का गला घोंट कर हर पल आप की आंखों के सामने रहे ताकि आप को आप की मां की कमी महसूस न हो?’’ अब तक चुप बैठी प्रिया ने पूछा, ‘‘महज इसलिए न कि मालिनीजी आप की टीचर थीं और उन्हें या उन के अनुशासन को ले कर आप सब पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं?’’

कोई कुछ नहीं बोला.

‘‘जूही दीदी, सपना भाभी, सास के आने से सब से ज्यादा समस्या हमें ही आएगी न?’’ प्रिया ने पूछा, ‘‘क्या पापाजी की खुशी की खातिर हम वह बरदाश्त नहीं कर सकतीं?’’

‘‘पापाजी को अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने का पूरा हक है और हम उन के लिए कुछ भी सह सकती हैं,’’ सपना बोली.

‘‘सहना तब जब कोई समस्या आएगी,’’ जूही ने उठते हुए कहा, ‘‘फिलहाल तो चल कर इन सब का मूड ठीक करो ताकि कल से यह भी पापाजी की खुशी में शामिल हो सकें.’’

तीनों भाइयों ने मुसकरा कर एकदूसरे को देखा, कहने को अब कुछ बचा ही नहीं था.

गांठ खुल गई – भाग 1 : हैसियत का खेल

श्रेया से गौतम की मुलाकात सब से पहले कालेज में हुई थी. जिस दिन वह कालेज में दाखिला लेने गया था, उसी दिन वह भी दाखिला लेने आई थी.

वह जितनी सुंदर थी उस से कहीं अधिक स्मार्ट थी. पहली नजर में ही गौतम ने उसे अपना दिल दे दिया था.

गौतम टौपर था. इस के अलावा क्रिकेट भी अच्छा खेलता था. बड़ेबड़े क्लबों के साथ खेल चुका था. उस के व्यक्तित्व से कालेज की कई लड़कियां प्रभावित थीं. कुछ ने तो खुल कर मोहब्बत का इजहार तक कर दिया था.

उस ने किसी का भी प्यार स्वीकार नहीं किया था. करता भी कैसे? श्रेया जो उस के दिल में बसी हुई थी.

श्रेया भी उस से प्रभावित थी. सो, उस ने बगैर देर किए उस से ‘आई लव यू’ कह दिया.

वह कोलकाता के नामजद अमीर परिवार से थी. उस के पिता और भाई राजनीति में थे. उन के कई बिजनैस थे. दौलत की कोई कमी न थी.

गौतम के पिता पंसारी की दुकान चलाते थे. संपत्ति के नाम पर सिर्फ दुकान थी. जिस मकान में रहते थे, वह किराए का था. उन की एक बेटी भी थी. वह गौतम से छोटी थी.

अपनी हैसियत जानते हुए भी गौतम, श्रेया के साथ उस के ही रुपए पर उड़ान भरने लगा था. उस से विवाह करने का ख्वाब देखने लगा था.

कालांतर में दोनों ने आधुनिक रीति से तनमन से प्रेम प्रदर्शन किया. सैरसपाटे, मूवी, होटल कुछ भी उन से नहीं छूटा. मर्यादा की सारी सीमा बेहिचक लांघ गए थे.

2 वर्ष बीत गए तो गौतम ने महसूस किया कि श्रेया उस से दूर होती जा रही है. वह कालेज के ही दूसरे लड़के के साथ घूमने लगी थी. उसे बात करने का भी मौका नहीं देती थी.

बड़ी मुश्किल से एक दिन मौका मिला तो उस से कहा, ‘‘मुझे छोड़ कर गैरों के साथ क्यों घूमती हो? मु?ा से शादी करने का इरादा नहीं है क्या?’’

श्रेया ने तपाक से जवाब दिया, ‘‘कभी कहा था कि तुम से शादी करूंगी?’’

वह तिलमिला गया. किसी तरह गुस्से को काबू में कर के बोला, ‘‘कहा तो नहीं था पर खुद सोचो कि हम दोनों में पतिपत्नी वाला रिश्ता बन चुका है तो शादी क्यों नहीं कर सकते हैं?’’

‘‘मैं ऐसा नहीं मानती कि किसी के साथ पतिपत्नी वाला रिश्ता बन जाए तो उसी से विवाह करना चाहिए.

‘‘मेरा मानना है कि संबंध किसी से भी बनाया जा सकता है, पर शादी अपने से बराबर वाले से ही करनी चाहिए. शादी में दोनों परिवारों के आर्थिक व सामाजिक रुतबे पर ध्यान देना अनिवार्य होता है.

‘‘तुम्हारे पास यह सब नहीं है. इसलिए शादी नहीं कर सकती. तुम्हारे लिए यही अच्छा होगा कि अब मेरा पीछा करना बंद कर दो, नहीं तो अंजाम बुरा होगा.’’

श्रेया की बात गौतम को शूल की तरह चुभी. लेकिन उस ने समझदारी से काम लेते हुए उसे समझने की कोशिश की पर वह नहीं मानी.

आखिरकार, उसे लगा कि श्रेया किसी के बहकावे में आ कर रिश्ता तोड़ना चाहती है. उस ने सोचा, ‘उस के घर वालों को सचाई बता दूंगा तो सब ठीक हो जाएगा. परिजनों के कहने पर उसे मु?ा से विवाह करना ही होगा.’

एक दिन वह श्रेया के घर गया. उस के पिता व भाई को अपने और उस के बारे में सबकुछ बताया.

श्रेया अपने कमरे में थी. भाई ने बुलाया. वह आई. भाई ने गौतम की तरफ इंगित कर उस से पूछा, ‘‘इसे पहचानती हो?’’

श्रेया सबकुछ समझ गई. झट से अपने बचाव का रास्ता भी ढूंढ़ लिया. बगैर घबराए कहा, ‘‘यह मेरे कालेज में पढ़ता है. इसे मैं जरा भी पसंद नहीं करती. किंतु यह मेरे पीछे पड़ा रहता है. कहता है कि मुझ से शादी नहीं करोगी तो इस तरह बदनाम कर दूंगा कि मजबूर हो कर शादी करनी ही पड़ेगी.’’

वह कहता रहा कि श्रेया झठ बोल रही है परंतु उस के भाई और पिता ने एक न सुनी. नौकरों से उस की इतनी पिटाई कराई कि अधमरा हो गया. पैरों की हड्डियां टूट गईं.

किसी पर किसी तरह का इलजाम न आए, इसलिए गौतम को अस्पताल में दाखिल करा दिया गया.

थाने में श्रेया द्वारा यह रिपोर्ट लिखा दी गई, ‘घर में अकेली थी. अचानक गौतम आया और मेरा रेप करने की कोशिश की. उसी समय घर के नौकर आ गए. उस की पिटाई कर मुझे बचा लिया.’

थाने से खबर पाते ही गौतम के पिता अस्पताल आ गए. गौतम को होश आया तो सारा सच बता दिया.

सिर पीटने के सिवा उस के पिता कर ही क्या सकते थे. श्रेया के परिवार से भिड़ने की हिम्मत नहीं थी.

उन्होंने गौतम को समझाया, ‘‘जो हुआ उसे भूल जाओ. अस्पताल से वापस आ कर पढ़ाई पर ध्यान लगाना. कोशिश करूंगा कि तुम पर जो मामला है, वापस ले लिया जाए.’’

Father’s Day Special: जिंदगी जीने का हक- भाग 1

प्रणव तो प्रिया को पसंद था ही लेकिन उस से भी ज्यादा उसे अपनी ससुराल पसंद आई थी. हालांकि संयुक्त परिवार था पर परिवार के नाम पर एक विधुर ससुर और 2 हमउम्र जेठानियां थीं. बड़ी जेठानी जूही तो उस की ममेरी बहन थी और उसी की शादी में प्रणव के साथ उस की नोकझोक हुई थी. प्रणव ने चलते हुए कहा था, ‘‘2-3 साल सब्र से इंतजार करना.’’

‘‘किस का? आप का?’’

‘‘जी नहीं, जूही भाभी का. घर की बड़ी तो वही हैं, सो वही शादी का प्रस्ताव ले कर आएंगी,’’ प्रणव मुसकराया, ‘‘अगर उन्होंने ठीक समझा तो.’’

‘‘यह बात तो है,’’ प्रिया ने गंभीरता से कहा, ‘‘जूही दीदी, मुझे बहुत प्यार करती हैं और मेरे लिए तो सबकुछ ही ठीक चाहेंगी.’’

प्रणव ने कहना तो चाहा कि प्यार तो वह अब हम से भी बहुत करेंगी और हमारे लिए किसे ठीक समझती हैं यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन चुप रहा. क्या मालूम बचपन से बगैर औरत के घर में रहने की आदत है, भाभी के साथ तालमेल बैठेगा भी या नहीं.

अभिनव के लिए लड़की देखने से पहले ही केशव ने कहा था, ‘‘इतने बरस तक यह मकान एक रैन बसेरा था लेकिन अभिनव की शादी के बाद यह घर बनेगा और इस में हम सब को सलीके से रहना होगा, ढंग के कपड़े पहन कर. मैं भी लुंगीबनियान में नहीं घूमूंगा और अभिनव, प्रभव, प्रणव, तुम सब भी चड्डी के बजाय स्लीपिंग सूट या कुरतेपाजामे खरीदो.’’

‘‘जी, पापा,’’ सब ने कह तो दिया था लेकिन मन ही मन डर भी रहे थे कि पापा का एक भरेपूरे घर का सपना वह पूरा कर सकेंगे कि नहीं.

केशव मात्र 30 वर्ष के थे जब उन की पत्नी क्रमश: 6 से 2 वर्ष की आयु के 3 बेटों को छोड़ कर चल बसी थी. सब के बहुत कहने के बावजूद उन्होंने दूसरी शादी के लिए दृढ़ता से मना कर दिया था.

वह चार्टर्ड अकाउंटेंट थे. उन्होंने घर में ही आफिस खोल लिया ताकि हरदम बच्चों के साथ रहें और नौकरों पर नजर रख सकें. बच्चों को कभी उन्होंने अकेलापन महसूस नहीं होने दिया. आवश्यक काम वह उन के सोने के बाद देर रात को निबटाया करते थे. उन की मेहनत और तपस्या रंग लाई. बच्चे भी बड़े सुशील और मेधावी निकले और उन की प्रैक्टिस भी बढ़ती रही. सब से अच्छा यह हुआ कि तीनों बच्चों ने पापा की तरह सीए बनने का फैसला किया. अभिनव के फाइनल परीक्षा पास करते ही केशव ने ‘केशव नारायण एंड संस’ के नाम से शहर के व्यावसायिक क्षेत्र में आफिस खोल लिया. अभिनव के लिए रिश्ते आने लगे थे. केशव की एक ही शर्त थी कि उन्हें नौकरीपेशा नहीं पढ़ीलिखी मगर घर संभालने वाली बहू चाहिए और वह भी संयुक्त परिवार की लड़की, जिसे देवरों और ससुर से घबराहट न हो.

जूही के आते ही मानो घर में बहार आ गई. सभी बहुत खुश और संतुष्ट नजर आते थे लेकिन केशव अब प्रभव की शादी के लिए बहुत जल्दी मचा रहे थे. प्रभव ने कहा भी कि उसे इत्मीनान से परीक्षा दे लेने दें और वैसे भी जल्दी क्या है, घर में भाभी तो आ ही गई हैं.

‘‘तभी तो जल्दी है, जूही सारा दिन घर में अकेली रहती है. लड़की हमें तलाश करनी है और तैयारी भी हमें ही करनी है. तुम इत्मीनान से अपनी परीक्षा की तैयारी करते रहो. शादी परीक्षा के बाद करेंगे. पास तो तुम हो ही जाओगे.’’

अपने पास होने में तो प्रभव को कोई शक था ही नहीं सो वह बगैर हीलहुज्जत किए सपना से शादी के लिए तैयार हो गया. लेकिन हनीमून से लौटते ही यह सुन कर वह सकते में आ गया कि पापा प्रणव की शादी की बात कर रहे हैं.

‘‘अभी इसे फाइनल की पढ़ाई इत्मीनान से करने दीजिए, पापा. शादीब्याह की चर्चा से इस का ध्यान मत बटाइए,’’ प्रभव ने कहा, ‘‘भाभी की कंपनी के लिए सपना आ ही गई है तो इस की शादी की क्या जल्दी है?’’

‘‘यही तो जल्दी है कि अब इस की कोई कंपनी नहीं रही घर में,’’ केशव ने कहा.

‘‘क्या बात कर रहे हैं पापा?’’ प्रभव हंसा, ‘‘जब देखिए तब मैरी के लिटिल लैंब की तरह भाभी से चिपका रहता है और अब तो सपना भी आ गई है बैंड वैगन में शामिल होने को.’’

सपना हंसने लगी.

‘‘लेकिन देवरजी, भाभी के पीछे क्यों लगे रहते हैं यह तो पूछिए उन से.’’

‘‘जूही मुझे बता चुकी है सपना, प्रणव को इस की ममेरी बहन प्रिया पसंद है, सो मैं ने इस से कह दिया है कि अपने ननिहाल जा कर बात करे,’’ कह कर केशव चले गए.

‘‘जब बापबेटा राजी तो तुम क्या करोगे प्रभव पाजी?’’ अभिनव हंसा, ‘‘काम तो इस ने पापा के साथ ही करना है. पहली बार में पास न भी हुआ तो चलेगा लेकिन जूही, तुम्हारे मामाजी तैयार हो जाएंगे अधकचरी पढ़ाई वाले लड़के को लड़की देने को?’’

‘‘आप ने स्वयं तो कहा है कि देवरजी को काम तो पापा के साथ ही करना है सो यही बात मामाजी को समझा देंगे. प्रिया का दिल पढ़ाई में तो लगता नहीं है सो करनी तो उस की शादी ही है इसलिए जितनी जल्दी हो जाए उतना ही अच्छा है मामाजी के लिए.’’

जल्दी ही प्रिया और प्रणव की शादी भी हो गई. कुछ लोगों ने कहा कि केशव जिम्मेदारियों से मुक्त हो गए और कुछ लोगों की यह शंका जाहिर करने पर कि बच्चों के तो अपनेअपने घरसंसार बस गए, केशव के लिए अब किस के पास समय होगा और वह अकेले पड़ जाएंगे, अभिनव बोला, ‘‘ऐसा हम कभी होने नहीं देंगे और होने का सवाल भी नहीं उठता क्योंकि रोज सुबह नाश्ता कर के सब इकट्ठे ही आफिस के लिए निकलते हैं और रात को इकट्ठे आ कर खाना खाते हैं, उस के बाद पापा तो टहलने जाते हैं और हम लोग टीवी देखते हैं, कभीकभी पापा भी हमारे साथ बैठ जाते हैं. रविवार को सब देर से सो कर उठते हैं, इकट्ठे नाश्ता करते हैं…’’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें