शक की सूई – भाग 1: जब पति ने किया पत्नी का पीछा

” पता नहीं, इन मर्दों की अक्ल कब ठिकाने आएगी. कब तक वे अपनी पत्नियों को गुलाम समझते रहेंगे. जमाना बदलता रहा, लोगों की जरूरतें बदलती रहीं, लोग धरती से चांद तक पहुंच गए, धरती पर जगह कम पड़ने लगी तो चांद पर घर बनाने की सोचने लगे, पर मर्द समाज की सोच नहीं बदली. वही आदिम सोच, वही गलत हरकतें और वही दबदबा.

‘‘खुद तो 10-10 औरतों के साथ कनैक्ट रहेंगे, संबंध रखेंगे, हाटबाजार, सिनेमाघर में घूमेंगे, लेकिन खुद की पत्नी गांव के देशी घी की तरह शुद्ध और पवित्र चाहिए…’’

‘‘क्या हुआ, यह सुबहसुबह किसे कोसे जा रही हो?’’

‘‘तुम्हें कोस रही हूं और किसे कोसूंगी. दूसरे को कोसने की क्या जरूरत पड़ी है मुझे. पत्नी की जासूसी करना, उस का पीछा करना यही तो काम रह गया है तुम मर्दों का. खुद तो काम करेंगे नहीं, पर कमाऊ पत्नियों का पीछा जरूर करेंगे,’’ आंगन में झाड़ू लगा रही जयंती ने अपने पति प्रमोद की ओर देखते हुए व्यंग्यबाण चला दिया.

पेट हलका करने वाशरूम जा रहे प्रमोद का मानो पैर भारी हो गया. वह ठिठक कर रुक गया. उस का प्रैशर रुक गया और उस का चेहरा सफेद पड़ गया.

‘‘क्या हुआ? मेरी बात सुनते ही सुबह की बेला में तुम्हारे चेहरे पर ये बारह क्यों बज गए? जल्दी जाओ,’’ झाड़ू लगा रही जयंती की नजरें प्रमोद पर चिपक गईं और प्रमोद पसीनापसीना हो गया. एकदम से उस के दिल की धड़कनें तेज हो गईं.

‘‘अरे, मैं तुम्हारी बात नहीं, बल्कि मीरा के पति की बात कर रही हूं. तुम टैंशन मत लो, जाओ वरना तुम्हारा बीपी भी हाई हो जाएगा…’’

‘‘अब तो पूरी बात सुने बिना मेरा पेट भी हलका नहीं होगा,’’ प्रमोद ने छाती पर हाथ रखा, धड़कनों की रफ्तार थोड़ी कम महसूस हुई.

‘‘अरे, वह मीरा है न, शेखर की पत्नी, सरहुल में जिन से तुम्हें मिलवाया भी था…’’ जयंती ने प्रमोद को बताया, ‘‘बैंक की नौकरी छोड़ दी कल उस ने. कल ही शाम को फोन कर के इस की सूचना देते हुए मुझे बता रही थी. देर तक हिचकहिचक कर रोती रही थी बेचारी…’’

‘‘क्यों…? ऐसा क्या हो गया, जो अच्छीभली सरकारी नौकरी छोड़ दी उस ने?’’ प्रमोद ने धीरे से पूछा.

‘‘शक…’’ कहते हुए जयंती ने पति पर नजरें गड़ा दीं.

‘‘कैसा शक…?’’ प्रमोद घबरा उठा.

‘‘पत्नी के चालचलन पर शक…’’ जयंती ने जोड़ा.

‘‘इस वजह से कोई नौकरी छोड़ देगा… जरूर कोई खास बात होगी.’’

‘‘हांहां, खास बात ही थी…’’ जयंती इस बार चीख पड़ी थी, ‘‘6 महीने पहले वह फोन पर मुझे बता रही थी कि उस का पति पीठ पीछे उस की जासूसी कर रहा है, छिपछिप कर उस का पीछा कर रहा है. बैंक आ कर किसी कोने में छिप कर बैठ जाता है. वह किधर जाती है, कहां और किस के पास ज्यादा देर बैठती है, किस के साथ चाय पीती है और किस के साथ लंच… वह सब देखता रहेगा और घर आने पर शाम को शराब के नशे में खूब बकने लगेगा.

‘‘एक रात तो उस ने हद कर दी और मीरा से पूछने लगा कि मैनेजर के केबिन में घुस कर आधे घंटे तक क्या कर रही थी? मर्दों के बीच बैठ कर हंसहंस कर चाय पीने में बहुत मजा आता है? तुम अपने केबिन में चाय नहीं पी सकती… और उसे गाली बकने लगा.

‘‘वह इतने पर ही नहीं रुका. मीरा के बाल पकड़ कर उसे जमीन पर पटक कर उस पर चढ़ गया. यह सबकुछ इतनी जल्दी हो गया कि वह संभल भी नहीं पाई और उस की गिरफ्त में आ गई. उस रात वह सो नहीं पाई. सारी रात रोती रही और सोचती रही कि वह अब नौकरी नहीं करेगी. इस जिल्लत भरी जिंदगी जीने से अच्छा है कि नौकरी ही छोड़ दे. नौकरी करो, कमा कर पैसे लाओ और मर्द की मार भी खाओ, यह सब उस से नहीं होगा.

‘‘पड़ोसन को देख कर पति लार टपकाए और पत्नी घूंघट से बाहर नहीं निकले. इस मानसिक विकलांग मर्द के साथ रहना नामुमकिन है. मीरा ने रात को ही 2 बार रिजाइन लैटर लिखा, पर दोनों बार फाड़ देना पड़ा. सामने सो रहे 2 साल के मासूम बेटे का चेहरा घूमे जा रहा था. नौकरी छोड़ देगी तो इस के भविष्य का क्या होगा.

‘‘मीरा के मुंह से यह सुन कर ही मेरा खून खौल उठा था. ऐसे पतियों के ऊपर गरम तेल उड़ेल देना चाहिए…’’ जयंती ने कहा और फिर झाड़ू लगाने लगी.

प्रमोद का प्रैशर काफी बढ़ गया था. कुकर की तरह पेट में बारबार सीटी बजने लगी, तो वह वाशरूम की तरफ दौड़ पड़ा. जयंती का यह रूप वह पहली बार देख रहा था.

प्रमोद सोचने लगा, ‘कहीं इस को शक तो नहीं हो गया? कहीं यह जान तो नहीं गई कि इस का भी पीछा किया जा रहा है? मेरी मति मारी गई थी, जो उस रघु की बातों में आ गया. कमबख्त ने मुझे आग में कुदवा दिया. ‘भाभी पर नजर रखो. बड़े बाबू और उस के संबंधों को ले कर औफिस में बड़े गरमागरम चर्चे हैं,’ रघु ने यह बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा था.

‘न मैं उस की बातों में आता और न आज वाशरूम में इस तरह मुंह छिपा कर बैठना पड़ता मुझे…’ प्रमोद वाशरूम में सोच रहा था.

प्रमोद रघु की बातों में आ कर पिछले एक महीने से जयंती का पीछा कर रहा था. जयंती को इस की खबर न थी. वह हर दिन समय पर औफिस पहुंचती और अपने काम पर लग जाती थी. राजेश बाबू, जो उस के बौस थे, वे उसे जो भी काम सौंपते, वह खुशीखुशी पूरा करने में लग जाती थी. आखिर औफिस में आज उस की जो हैसियत है, सब राजेश बाबू की ही तो देन है.

अपनी 5 फुट की चंचल काया और गजगामिनी सी चाल चल कर जब जयंती औफिस पहुंचती तो बहुतों की आह निकल आती. उसे देख कर राजेश बाबू मंदमंद मुसकरा उठते थे. उस मुसकराहट के पीछे छिपे प्यार को सिर्फ जयंती ही समझती थी. बाकी अपने सिर के बाल खुजलाते रहते थे.

उधर जयंती को प्रमोद हर रोज औफिस गेट के अंदर छोड़ कर वापस घर लौट जाता, फिर दोपहर में छुट्टी के समय लेने चला आता था.

Father’s Day Special: रिटर्न गिफ्ट- भाग 1

मैंकालिज से 4 बजे के करीब बाहर आई तो शिखा और उस के पापा राकेशजी को अपने इंतजार में गेट के पास खड़ा पाया.

‘‘हैप्पी बर्थ डे, अंकिता,’’ शिखा यह कहती हुई भाग कर मेरे पास आई और गले से लग गई.

‘‘थैंक यू. मैं तो सोच रही थी कि शायद तुम्हें याद नहीं रहा मेरा जन्मदिन,’’ उस के हाथ से फूलों का गुलदस्ता लेते हुए मैं बहुत खुश हो गई.

‘‘मैं तो सचमुच भूल गई थी, पर पापा को तेरा जन्मदिन याद रहा.’’

‘‘पगली,’’ मैं ने नाराज होने का अभिनय किया और फिर हम दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

राकेशजी से मुझे जन्मदिन की शुभकामनाओं के साथ मेरी मनपसंद चौकलेट का डब्बा भी मिला तो मैं किसी छोटी बच्ची की तरह तालियां बजाने से खुद को रोक नहीं पाई.

‘‘थैंक यू, सर. आप को कैसे पता लगा कि चौकलेट मेरी सब से बड़ी कमजोरी है? क्या मम्मी ने बताया?’’ मैं ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘नहीं,’’ उन्होंने मेरे बैठने के लिए कार का पिछला दरवाजा खोल दिया.

‘‘फिर किस ने बताया?’’

‘‘अरे, मेरे पास ढंग से काम करने वाले 2 कान हैं और पिछले 1 महीने में तुम्हारे मुंह से ‘आई लव चौकलेट्स’ मैं कम से कम 10 बार तो जरूर ही सुन चुका हूंगा.’’

‘‘क्या मैं डब्बा खोल लूं?’’ कार में बैठते ही मैं डब्बे की पैकिंग चैक करने लगी.

‘‘अभी रहने दो, अंकिता. इसे सब के सामने ही खोलना.’’

शिखा का यह जवाब सुन कर मैं चौंक पड़ी.

‘‘किन सब के सामने?’’ मैं ने यह सवाल उन दोनों से कई बार पूछा पर उन की मुसकराहटों के अलावा कोई जवाब नहीं मिला.

‘‘शिखा की बच्ची, मुझे तंग करने में तुझे बड़ा मजा आ रहा है न?’’ मैं ने रूठने का अभिनय किया तो वे दोनों जोर से हंस पड़े थे.

‘‘अच्छा, इतना तो बता दो कि हम जा कहां रहे हैं?’’ अपने मन की उत्सुकता शांत करने को मैं फिर से उन के पीछे पड़ गई.

‘‘मैं तो घर जा रही हूं,’’ शिखा के होंठों पर रहस्यमयी मुसकान उभर आई.

‘‘क्या हम सब वहीं नहीं जा रहे हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘फिर तुम ही क्यों जा रही हो?’’

‘‘वह सीक्रेट तुम्हें नहीं बताया जा सकता है.’’

‘‘और आप कहां जा रहे हैं, सर?’’

‘‘मार्किट.’’

‘‘किसलिए?’’

‘‘यह सीक्रेट कुछ देर बाद ही तुम्हें पता लगेगा,’’ राकेशजी ने गोलमोल सा जवाब दिया और इस के बाद जब बापबेटी मेरे द्वारा पूछे गए हर सवाल पर ठहाका मार कर हंसने लगे तो मैं ने उन से कुछ भी उगलवाने की कोशिश छोड़ दी थी.

शिखा को घर के बाहर उतारने के बाद हम दोनों पास की मार्किट में पहुंच गए. राकेशजी ने कार एक रेडीमेड कपड़ों के बड़े से शोरूम के सामने रोक दी.

‘‘चलो, तुम्हें गिफ्ट दिला दिया जाए, बर्थ डे गर्ल,’’ कार लौक कर के उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और उस शोरूम की सीढि़यां चढ़ने लगे.

कुछ दिन पहले मैं शिखा के साथ इस मार्किट में घूमने आई थी. यहां की एक डमी, जो लाल रंग की टीशर्ट के साथ काली कैपरी पहने हुई थी, पहली नजर में ही मेरी नजरों को भा गई थी.

शिखा ने मेरी पसंद अपने पापा को जरूर बताई होगी क्योंकि 20 मिनट में ही उस डे्रस को राकेशजी ने मुझे खरीदवा दिया था.

‘‘वेरी ब्यूटीफुल,’’ मैं डे्रस पहन कर ट्रायल रूम से बाहर आई तो उन की आंखों में मैं ने तारीफ के भाव साफ पढ़े थे.

उन्होंने मुझे डे्रस बदलने नहीं दी और मुझे पहले पहने हुए कपड़े पैक कराने पड़े.

‘‘अब हम कहां जा रहे हैं, यह मुझे बताया जाएगा या यह बात अभी भी टौप सीक्रेट है?’’ कार में बैठते ही मैं ने उन्हें छेड़ा तो वह हौले से मुसकरा उठे थे.

‘‘क्या कुछ देर पास के पार्क में घूम लें?’’ वह अचानक गंभीर नजर आने लगे तो मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गईं.

‘‘मम्मी आफिस से घर पहुंच गई होंगी. मुझे घर जाना चाहिए,’’ मैं ने पार्क में जाने को टालना चाहा.

‘‘तुम्हारी मम्मी से भी तुम्हें मिलवा देंगे पर पहले पार्क में घूमेंगे. मैं तुम से कुछ खास बात करना चाहता हूं,’’ मेरे जवाब का इंतजार किए बिना उन्होंने कार आगे बढ़ा दी थी.

अब मेरे मन में जबरदस्त उथलपुथल मच गई. जो खास बात वह मुझ से करना चाहते थे उसे मैं सुनना भी चाहती थी और सुनने से मन डर भी रहा था.

मैं खामोश बैठ कर पिछले 1 महीने के बारे में सोचने लगी. शिखा और राकेशजी से मेरी जानपहचान इतनी ही पुरानी थी.

मम्मी के एक सहयोगी के बेटे की बरात में हम शामिल हुए तो पहले मेरी मुलाकात शिखा से हुई थी. मेरी तरह उसे भी नाचने का शौक था. हम दोनों दूल्हे के बाकी रिश्तेदारों को नहीं जानते थे, इसलिए हमारे बीच जल्दी ही अच्छी दोस्ती हो गई थी.

खाना खाते हुए शिखा ने अपने पापा राकेशजी से मेरा परिचय कराया था. उस पहली मुलाकात में ही उन्होंने अपने हंसमुख स्वभाव के कारण मुझे बहुत प्रभावित किया था. जब शिखा और मेरे साथ उन्होंने बढि़या डांस किया तो हमारे बीच उम्र का अंतर और भी कम हो गया, ऐसा मुझे लगा था.

शिखा से मेरी मुलाकात रोज ही होने लगी क्योंकि हमारे घर पासपास थे. अकसर वह मुझे अपने घर बुला लेती. जब तक मेरे लौटने का समय होता तब तक उस के पापा को आफिस से आए घंटा भर हो चुका होता था.

स्टूडैंट लीडर – भाग 1 : जयेश की जिद

जयेश ने प्रयोगशाला में बैक्टीरिया कल्चर को तैयार किया. सभी विद्यार्थियों को करना था. यह उन के बीएससी पाठ्यक्रम का हिस्सा था. भोजन के पश्चात दोपहर 2 बजे से प्रयोगशाला का सत्र होने से बहुतों को नींद आ रही थी. लैब अटैंडैंट प्रयोग की क्रियाविधि छात्रों को थमा कर वहां से गायब हो जाता था.

लैब इंचार्ज भी लेटलतीफ था. जब स्लाइड पर बैक्टीरिया के धब्बों को बंसेन बर्नर पर गरम करने के लिए जयेश ने स्लाइड आगे बढ़ाई तो पता नहीं कैसे वहां रखे ब्लोटिंग पेपर के जरिए आग माइक्रोस्कोप तक पहुंच गई और यहांवहां के कुछ उपकरण भी आग की चपेट में आ गए. तुरंत लैब में ही रखे अग्निशामक से विद्यार्थियों के द्वारा ही आग बु?ा ली गई. किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा, लेकिन प्रयोगशाला के कुछ उपकरण ध्वस्त हो गए. जयेश को इस वारदात से गहरा आघात लगा. गलती उस की नहीं थी, अवमानक लैब उपकरण ही इस के जिम्मेदार थे.

शाम को जब जयेश कालेज से वापस अपने घर जाने के लिए चल दिया तो कालेज के खेल के मैदान पर क्रिकेट खेलते छात्रों पर उस की नजर पड़ी. सभी के लिए कालेज वालों ने नई किट मंगाई हुई थी. उसे समझ नहीं आया कि कालेज वाले खेल पर इतना पैसा कैसे खर्च कर रहे थे, जबकि विज्ञान प्रयोगशाला में पुराने और जीर्णशीर्ण उपकरण रखे हुए थे. चाहे भौतिकी हो, चाहे रसायनशास्त्र या जीवविज्ञान प्रयोगशाला हो, सभी में रगड़े हुए औजार और उपकरण दिखते थे. ऐसा लगता था, जैसे वे अभी टूट जाएंगे. इस बारे में उस की बात जब अपने खिलाड़ी मित्र संदेश से हुई तो उस का मित्र हंस दिया. उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘रांची शहर में रहते हो तुम भैय्या…?’’

बात सही थी. रांची शहर में क्रिकेट का जनून था. हिंदुस्तान का पूर्व कप्तान जिस शहर से रहा हो, वहां हर युवा क्रिकेट खिलाड़ी बनना चाहता था.

जयेश उदास लहजे में बोला, ‘‘यह बिलकुल भी उचित नहीं है. यह महाविद्यालय है. शिक्षा उन की प्राथमिकता होनी चाहिए.’’

जयेश के एक और साथी प्रसेनजीत ने भी इस वार्त्तालाप में भाग लिया. उस ने जयेश का साथ देते हुए कहा, ‘‘बात बिलकुल बराबर है. महाविद्यालय का कार्य छात्रों को भविष्य के लिए तैयार करना है. आखिर इन छात्रों में से कितने पेशेवर खिलाड़ी बन पाएंगे?’’

संदेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘कम से कम हम तीनों में से कोई नहीं.’’

फिर जयेश को गंभीर देखते हुए संदेश ने पूछा, ‘‘लेकिन इन छात्रों में से कितने ऐसे हैं, जो वैज्ञानिक बनेंगे?’’

प्रसेनजीत ने वाजिब प्रश्न किया, ‘‘ऐसा नहीं हो सकता है कि महाविद्यालय खेल के पैसों में से कुछ पैसा लैब को नवीनतम बनाने और सुचारू रूप से चलाने पर

खर्च करे?’’

संदेश बोला, ‘‘हमारे शहर में…?’’

प्रसेनजीत कहने लगा, ‘‘70-80 के दशक का इतिहास पढ़ो. तब जब भी चीजों को बदलने की आवश्यकता पड़ती थी तो वे धड़ल्ले से विरोध प्रदर्शन करते थे.’’

संदेश कहने लगा, ‘‘इस मामले में किस चीज का विरोध करोगे भाई?’’

प्रसेनजीत ने जयेश को सुझाव दिया, ‘‘शायद, तुम एक पत्र लिख सकते हो?’’

जयेश ने विचार करते हुए कहा, ‘‘मुझे लगता है कि मुझे औपचारिक रूप से शिकायत दर्ज करानी पड़ेगी. महाविद्यालय के बोर्ड और मैनेजमैंट से.’’

संदेश बोला, ‘‘क्या कहोगे तुम उन से?’’

जयेश बोला, ‘‘यही कि खेल का बजट बाकी के विभागों पर गलत असर छोड़ रहा है.’’

संदेश ने फिर हंसते हुए जयेश को समझाने की कोशिश की, ‘‘हिंदुस्तान में लाखों शहर और गांव हैं, जहां ऐसी दलील चल सकती है. लेकिन ये रांची है भैय्या, इस बात का ध्यान रखना.’’

अगले ही दिन जयेश विश्वास के साथ प्रिंसिपल रत्नेश्वर के चैंबर में जा पहुंचा. प्रिंसिपल की मेज पर काफी कागजात बिखरे पड़े थे. उस ने सिर उठा कर आगंतुक को देखा, ‘‘क्या चाहिए?’’

जयेश ने अपना लिखा हुआ पत्र प्रिंसिपल के समक्ष कर दिया, ‘‘मैं ने औपचारिक शिकायत के रूप में महाविद्यालय के बोर्ड के नाम यह पत्र लिखा है.’’

प्रिंसिपल रत्नेश्वर ने अपना चश्मा नीचे करते हुए अनमने से पत्र को निहारा, ‘‘क्या है इस में?’’

जयेश ने बे?ि?ाक कहा, ‘‘यह पत्र इस बारे में है कि खेल पर हम कितना पैसा खर्च कर रहे हैं. उम्मीद है कि आप इस पत्र को उन तक पहुंचा पाओगे.’’

प्रिंसिपल रत्नेश्वर ने इसे बिना बात के आई मुसीबत समझ और बेमन से जयेश के हाथों से पत्र लिया, ‘‘लाओ दिखाओ.’’ उस ने आह भरी और पत्र के बीच में से कोई पंक्ति पढ़ने लगा, ‘‘क्रिकेट के खेल में जख्मी होने के आसार बहुत अधिक रहते हैं. खिलाडि़यों में भी गुस्सा भरा हुआ रहता है. विकेट न मिलने और रन न बना पाने की वजह से उत्कंठा से भरे रहते हैं…’’

प्रिंसिपल रत्नेश्वर ने हैरतअंगेज हो कर जयेश से पूछा, ‘‘तुम को क्रिकेट पसंद नहीं है?’’

जयेश ने कोई जवाब नहीं दिया. रत्नेश्वर ने पत्र की अंतिम पंक्ति पढ़ी, ‘‘महाविद्यालय के पैसों का बेहतर उपयोग तब होगा, जब उसे विज्ञान और सीखने पर खर्च किया जाएगा.’’

प्रिंसिपल रत्नेश्वर ने अपने चश्मे के भीतर से जयेश को घूरा, ‘‘इस पत्र को मैं बोर्ड को दूंगा तो मेरा उपहास उड़ाएंगे.’’

उन्होंने जयेश को पत्र लौटा दिया और कहा, ‘‘मेरे पास यहां और गंभीर मसले हैं.’’

जयेश पत्र ले कर प्रिंसिपल के औफिस से बाहर आ गया. उस ने मन ही मन निश्चय किया कि प्रिंसिपल के ऊपर भी वह स्वयं ही जाएगा. उसे ही यह कदम उठाना पड़ेगा. तब अचानक उस की नजर नोटिस बोर्ड पर पड़ी. वहां नोटिस लगा हुआ था कि जो भी छात्र संघ का हिस्सा बनना चाहते हैं, वे अपना नाम रजिस्टर करवाएं. अगले हफ्ते चुनाव की तिथि दी गई थी.

आकस्मिक रूप से इस नोटिस का सामने आ जाना जयेश को ऐसा प्रतीत हुआ, मानो ऊपर वाले की भी यही इच्छा हो. उस ने दृढ़ संकल्प बना लिया. बिना एक क्षण की देरी किए वह सीधे प्राध्यापक नीलेंदु के पास जा पहुंचा.

प्राध्यापक होने की वजह से नीलेंदु के पास छोटा ही सही पर स्वयं का कमरा था. इस बात का उन्हें गर्व था. बाकी की फैकल्टी को अपनी जगहें साझ करनी पड़ती थीं.

Father’s Day Special- मौहूम सा परदा: भाग 1

डा. जाकिर अली लखनऊ से दिल्ली की फ्लाइट में उड़ान भर रहे थे. इस शहर से जुड़ी उन की पुरानी यादें हवाई जहाज की रफ्तार से भी तेजी से उन के दिमाग में घूम रही थीं.

वे 8-10 दिनों बाद गांव से दिल्ली लौटे तो खुद के कमरे की खिड़कियों की पत्थर की नक्काशीदार जालियों पर लोहे के फ्रेम में बारीक तारों की एक और जाली लगी देख कर असमंजस में पड़ गए. उन्हें कुछ समझ में नहीं आया.

उन्होंने बड़े बेटे शाहिद से जानना चाहा, तो वह बोला, ‘‘जी अब्बू, खिड़की की पुरानी जाली के बड़ेबड़े सूराखों से धूल, मच्छर, कीड़े वगैरा आते थे, इसलिए इस कमरे के अंदर की तरफ से यह जाली लगवा दी. कुल 3 हजार रुपए लगे और अब्बू, खिड़की की जाली के पत्थर पर पुराना शानदार नक्काशी का काम तो बाहर से आने वालों को पहले की तरह ही नजर आता है. और…और…इस के बाद कुछ तो नवाबी खानदान की घुट्टी में मिली तहजीब से पिता के प्रति सम्मान और कुछ कोई ठोस वजह वाले शब्द नहीं मिलने से वह हकलाते हुए चुप हो गया.

तभी उस के कमरे से उस की बीबी की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘और  लोगों की नजरों पर एक मोहूम सा परदा भी पड़ा रहेगा.’’ इस के बाद उस की बेशरम हंसी की आवाज आई तो डा. जाकिर अली बौखला गए. उन की मौजूदगी में उन की पुत्रवधू का इस तरह गुफ्तगू करना और ठहाका लगा कर हंसना उन के खानदानी आचरण में नहीं था. उन्होंने सवालिया नजरों से शाहिद को देखा तो वह शर्मिंदगी से नजर झुकाए पीछे मुड़ा और अपने कमरे में चला गया.

मोहूम से परदे का जुमला डा. जाकिर के दिल में नश्तर की तरह चुभ गया था. सो, शाहिद के चले जाने के बाद वे काफी देर गुमसुम खड़े रहे. फिर बोझिल कदमों से धीरेधीरे चल कर अपने कमरे में जा कर आरामकुरसी पर गिर से पडे़. डा. जाकिर अली की आंखों के सामने यह जुमला सिनेमा की रील की तरह चालू हो गया…

डा. जाकिर अली नवाबी खानदान से संबंध रखते थे. महानगर से 50 किलोमीटर दूर गांव में उन की 5 मंजिली पुश्तैनी हवेली, आम के कई बाग और काफी सारी खेती की जमीन थी. उर्दू उन के खून में थी. सो, गांव के मदरसे से शुरू हुई शिक्षा राज्य की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी से उर्दू और फारसी में एमए, पीएचडी कर के पूरी हुई. फिर उसी यूनिवर्सिटी में वे उर्दू के लेक्चरर बने और हैड औफ द डिपार्टमैंट के पद से रिटायर हुए.

यह कोई 30-35 साल पहले की बात है जब डा. जाकिर ने यूनिवर्सिटी में पढ़ाना शुरू किया. जब भी किसी शायर का कलाम पढ़ाते तो क्लास का माहौल ऐसा उर्दूमय और शायराना बना देते थे कि दूसरी क्लासों के लड़के उन की क्लास में आ कर बैठ जाया करते थे. ऐसे ही एक दिन वे किसी सूफी शायर की कोई कविता पढ़ा रहे थे और उस की तुलना भारतीय विशिष्ट अद्वैत से करने के लिए वे एक संस्कृत का श्लोक उद्धृत करना चाह रहे थे लेकिन नफीस उर्दू जबान पर संस्कृत का श्लोक बारबार फिसल जाता था. तभी उधर से संस्कृत विभाग की लेक्चरर डा. मंजरी निकलीं. डा. मंजरी ने उन्हें नमस्कार किया और बतलाया कि संस्कृत के कठिन शब्दों को 2 टुकड़ों में बांट कर बोलें तो वे बिलकुल सरल हो जाएंगे. डा. जाकिर अली की मुश्किल हल हो गई.

डा. मंजरी डा. जाकिर की हमउम्र थीं. उस दिन से संस्कृत के कठिन शब्दों की गांठ खोलने का जो सिलसिला शुरू हुआ उस के चलते वे न जाने कब एकदूसरे के सामने अपने मन की गांठें खोलने लगे और धीरेधीरे एकदूसरे के मन में इतने गहरे उतर गए कि अब अगर एक दिन भी आपस में नहीं मिलते थे तो दोनों ही बेचैन हो जाते. दूसरे दिन मिलने पर दोनों की आंखें गवाही देती थीं कि रातभर नींद का इंतजार करते दुख गई हैं.

ऐसे ही एक रतजगे के बाद दोनों मिले तो डा. जाकिर ने डा. मंजरी का हाथ अपने हाथ में थाम कर बेताबी से कहा, देखो, मंजरीजी, अब इस तरह गुजारा नहीं होगा. मैं क्या कहना चाह रहा हूं आप समझ रही हैं न.’ मंजरी ने जवाब दिया था, ‘जाकिर साहब, पिताजी तो खुले विचारों के हैं, इसलिए उन्हें तो करीबकरीब मना लिया है मगर मां को मनाने में थोड़ा वक्त लगेगा, थोड़ा इंतजार करिए, सब्र का फल मीठा होता है.’

तब वह जमाना था जब देश की गंगाजमुनी संस्कृति में राजनीति विष सी  बन कर नहीं घुली थी. वोटों की खातिर सत्ता के दलालों ने 2 संस्कृतियों को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का सांप्रदायिक लिबास नहीं पहनाया था. लवजिहाद या घरवापसी के नारे नहीं गूंजे थे. संस्कृत विभाग के प्रोफैसर

डा. रामकिंकर खुद डा. जाकिर के बड़े बन कर उन की तरफ से पैगाम ले कर मंजरी के घर गए थे और पहली बार उन की मां की गालियां खा कर चुपचाप लौट आए. मगर दूसरे दिन ही फिर पहुंच गए. फिर लगातार समझाइश के बाद आखिर उन्होंने खुद डा. जाकिर का बड़ा भाई बन कर  जिम्मेदारी ली कि विवाह के बाद न  तो मंजरी का नाम बदला जाएगा, न धर्म. फिर 2-4 पढ़ेलिखे और समाज के प्रतिष्ठित व प्रगतिवादी लोगों की मध्यस्थता से उन्होंने अपनी मुंहबोली भांजी डा. मंजरी का विवाह डा. जाकिर से करा दिया था.

डा. मंजरी विवाह के बाद भी मंजरी ही रहीं. शादी के 3 सालों बाद जब पहली संतान हुई तो मंजरी ने ही जाकिर अली से कहा, ‘जाकिर साहब, औलाद की पहचान बाप के नाम से होती है, आप बच्चे का नाम अपने खानदानी रिवायत के मुताबिक ही रखें.’ और बच्चे का नाम शाहिद तय हुआ था. इस के 3 सालों बाद जब दूसरा पुत्र हुआ तो उस का नाम साजिद रखा गया.

डा. जाकिर अली की शादी को 10 साल बीत गए थे. सबकुछ बेहद खुशगवार था. तभी उस साल चेचक महामारी बन कर फैली और पता नहीं कैसे डा. मंजरी उस की चपेट में आ गईं. बहुत दवा, कोशिशों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका.

डा. जाकिर अली की तो दुनिया ही उजड़ गई. वे एकदम टूट गए थे. अब न तो उन्हें पढ़ाने में वह दिलचस्पी रही थी न क्लास लेने में. घरगृहस्थी की परेशानी थी, सो अलग. पता नहीं मंजरी ने पिछले 10 सालों में उन्हें और उन के घर को कैसे संभाला था कि आज उन्हें यह भी मालूम नहीं था कि उन्हें बनियान कितने नंबर की आती है.

रिश्तेदारी और परिवार में कोई ऐसी महिला थी नहीं, जिसे वे घर ला कर बच्चों की परवरिश व घर की जिम्मेदारी दे कर निश्ंिचत हो जाते. घर जैसेतैसे पुराने बावर्ची और माली की मदद से चलता रहा. एक साल बीत गया तो उन्होंने शाहिद और साजिद को होस्टल में भेजने का निर्णय किया. यह पता चलने पर बूढ़े बावर्ची ने रोते हुए साजिद को कलेजे से लगा कर फरियाद की, ‘नवाब साहब, नमक खाया है इस घर का और आप के पिता ने हमें चाकर नहीं समझा. आज उन्हीं की याद दिला कर आप से कहता हूं कि बच्चों को हमारी नजरों से दूर नहीं करें.’

हार कर उन्होंने एक पढ़ीलिखी आया की जरूरत का इश्तिहार दे दिया. इंटरव्यू के लिए राबिया बानो उन के घर आईं तो डा. जाकिर को लगा कि शायद वे यों ही आई होंगी. राबिया यूनिवर्सिटी में म्यूजिक डिपार्टमैंट में ट्यूटर थीं और गजलों के संगीत की धुन बनाने के लिए उर्दू गजलों में अरबी या फारसी के कुछ कठिन शब्दों का सीधीसादी भाषा में अर्थ समझने के लिए अकसर उन से मिलती रहती थीं. उन के बारे में बताया गया था कि उन के शौहर मेकैनिकल इंजीनियर थे. कंपनी के कौंट्रेक्ट पर दुबई गए थे. वहां किसी विदेशी महिला की मुहब्बत के जाल में फंस गए और उस से निकाह कर के टैलीफोन पर 3 बार तलाक बोल कर राबिया बानो को तलाक दे दिया.

थोड़ी देर इधरउधर की बातें होती रहीं. मगर जब दूसरी महिला उम्मीदवार आने लगी तो राबिया खुद उन से बोलीं, ‘डाक्टर साहब, आप ने 2 बच्चों की परवरिश करने लायक एक पढ़ीलिखी आया की जरूरत का इश्तिहार दिया है न?’

‘जी हां, क्या आप की नजरों में कोई है, या आप किसी की सिफारिश कर रही हैं,’ डा. जाकिर ने अधीरता से पूछा तो राबिया ने बड़ी दृढ़ता से जवाब दिया, ‘न तो मेरी नजर में कोई है, न मैं किसी की सिफारिश कर रही हूं. डाक्टर साहब, मैं खुद हाजिर हुई हूं.’

जवाब सुन कर वे ऐसे चौंके थे जैसे कोई करंट का जोरदार झटका लगा हो. मगर बोले, ‘आप यह क्या कह रही हैं राबियाजी, आप, आप.’ आगे कोई उपयुक्त शब्द नहीं मिलने के कारण वे खुद को बेहद असहज महसूस करते हुए चुप हो गए.

उन की स्थिति को समझते हुए राबिया ने बड़ी संजीदगी से जवाब दिया, ‘डाक्टर साहब, मैं पूरे होशोहवास में आप के सामने यह प्रस्ताव रख रही हूं. पिछले 4 सालों से मैं अकेली इस समाज के भेड़ की खाल ओढ़े भेडि़यों से अपने को महफूज रखने की जंग लड़तेजूझते पस्त हो गई हूं. तलाकशुदा अकेली औरत को हर कोई मिठाई का टुकड़ा समझ कर निगल जाना चाहता है. पहले वर्किंग वुमेन होस्टल में रहती थी. वहां की वार्डन महोदया देखने में तो हमजैसी अकेली औरतों की बड़ी हमदर्द थीं, मगर वास्तव में वे भड़वागीरी करती थीं.

वहां से निकल कर यूनिवर्सिटी के गर्ल्स होस्टल में रहने लगी तो कुछ दिनों बाद ही वहां के वार्डन महोदय को उर्दू सीखने का शौक चर्राया और वे इस बहाने देर रात गए मेरे कमरे में जमने लगे. फिर उर्दू की सस्ती किताबों में बाजारू लेखकों के द्विअर्थी इशारों को समझने के बहाने घटिया हरकतें करने लगे. तो एक दिन मैं ने उन्हें सख्ती से डांट दिया. बस, 2 सप्ताह में ही उन्होंने मुझे वहां से यह कह कर हटवा दिया कि मेरे रहने पर गर्ल्स स्टूडैंट्स को एतराज है. अब जिस सोसाइटी के फ्लैट में रह रही हूं वहां के सैके्रटरी साहब, वैसे तो छोटी बहन कहते हैं, मगर बातबात में गले लगाने और देररात को, खासतौर पर उन की नर्स पत्नी की नाइट ड्यूटी होने पर, मेरी खैरियत के बहाने मेरे घर का दरवाजा थपथपाने के पीछे छिपे उन के मकसद, उन की नीयत को मैं समझ रही हूं.

‘आप भले ही इसे मेरी बेहयाई कहें या फिलहाल मुझे किसी लालच से प्रेरित समझें, मगर मैं आप के पास यह ख्वाहिश ले कर आई हूं कि मुझे आया नहीं, इन बच्चों की मां बन कर इन की परवरिश करने का मौका दें. मैं वादा करती हूं कि आप की दौलत और जमीनजायदाद से मेरा कोई संबंध नहीं रहेगा. सिर्फ आप की और इन बच्चों की खिदमत में जिंदगी गुजार दूंगी. बस, आप से सिर्फ यह गुजारिश करूंगी कि अगर मुझ से कभी कोई खता हो जाए तो इसी घर के किसी कोने में नौकरानी बन कर पड़े रहने की इजाजत दे दीजिएगा. उस सूरत में मुझे तलाक की सजा मत दीजिएगा’, कहतेकहते राबिया की आवाज रुंध गई और आंखों से आंसू टपकने लगे.

उन की बात सुन कर डा. जाकिर बेहद उलझन में पड़ गए थे. वे राबिया को पिछले 4 सालों से जानते थे. उन के बारे में कभी कोई इधरउधर की बात नहीं सुनी थी. मगर ऐसा कैसे मुमकिन होगा, सोचते हुए बेहद असमंजस में वे इधरउधर टहलने लगे. तो बूढ़े बावर्ची चाय ले कर पेश हुए और बोले, ‘नवाब साहब, छोटे मुंह बड़ी बात कहने की गुस्ताखी कर रहा हूं. मेरी आप से अपील है कि इन की बातों पर गौर फरमाएं. हमें इन की बातों में सचाई नजर आती है, मालिक.’

बूढ़े बावर्ची की समझाइश में कुछ ऐसा असर था कि एक सप्ताह बाद ही एक साधारण से समारोह में राबिया बानो, बेगम जाकिर अली बन गईं.

इस के 2 सप्ताह बाद ही जब राबिया ने यूनिवर्सिटी की सेवा से अपना त्यागपत्र देने की घोषणा की तो डा. जाकिर ने ही कहा था, ‘राबिया, अभी तुम ट्यूटर हो, जल्द ही तुम्हारा प्रमोशन होने वाला है. और जहां तक मैं समझता हूं, तुम्हें संगीत से लगाव महज प्रोफैशनल नहीं है, वरना किसी गजल को बिलकुल अक्षरश: सही समझ कर उस की धुन तैयार हो, यह जनून प्रोफैशनल में नहीं, डिवोशनल में ही हो सकता है जो संगीत को एक इबादत का दरजा देता हो. तुम्हें यूनिवर्सिटी की नौकरी नहीं छोड़नी चाहिए.’

उन की लंबी तकरीर सुन कर राबिया बेगम ने सिर्फ इतना कहा था, ‘जनाब, बच्चों की सही परवरिश और घरगृहस्थी की देखभाल भी एक इबादत है. संगीत की इबादत के लिए यूनिवर्सिटी की नौकरी की नहीं, रियाज की जरूरत होती है. मैं वक्त निकाल कर रियाज करती रहूंगी’ और उन्होंने इस्तीफा भेज दिया था.

बीते दिन फिर से लौटने लगे. राबिया की प्यारभरी देखभाल से बच्चे बेहद खुश रहते. डा. जाकिर बारबार राबिया बेगम से संगीत का रियाज जारी रखने की अपील करते. राबिया बेगम को इतने बड़े घर की देखभाल और बच्चों की परवरिश से बहुत कम समय मिलता था. फिर भी जब भी समय मिलता, वे रियाज करतीं. उन की आवाज में वह कशिश थी कि जब वे कोई गजल गाती थीं तो किसी खास भावुक पंक्ति की रवानगी पर वे इस कद्र भावुक हो जाती थीं कि शब्द आंसू बन कर उन की आंखों से बहने लगते थे और जाकिर साहब खुद की शायराना भावुकता से उन के आंसुओं को गजल के खयाल मान कर अपने होंठों से चूम लेते थे.

ऐसे ही 20-22 साल कब बीत गए, पता ही नहीं चला. जाकिर साहब रिटायर हो गए. बच्चे अच्छे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ाई पूरी कर के अच्छी नौकरियों में लग गए. जाकिर साहब अब पूरी तरह किताबों में डूबे रहते. शाम को वे राबिया बेगम से कोई गजल सुनाने के बहाने रियाज के लिए प्रेरित करते थे. उस दिन राबिया बेगम फैज साहब की गजल के अशआर लय में गा रही थीं.

‘गरचे मिल बैठे जो हम तुम, वो मुलाकात के बाद,अपना एहसासे जियां जानिए कितना होगा. हम सुखन होंगे जो हम तुम तो हर इक बात के बीच, अनकही बात का मोहूम सा परदा होगा.’ अशआर के आखिरी मिसरे को गाते हुए राबिया इतनी भावुक हो गईं कि शब्द उन की आंखों से बहने लगे तो हमेशा की तरह जाकिर अली अपनी कुरसी से उठे और उन्होंने राबिया बेगम का चेहरा अपने हाथों में थाम कर उन के आसुओं को होंठों में समा लिया.

संयोग से उसी समय शाहिद की बेगम खरीदारी कर के लौटी थी. कई सारे बैग्स के बोझ को हाथों में बदलने के लिए वह उन के कमरे की इस आदमकद खिड़की के बाहर रुकी थी. तभी उस ने इस भावनात्मक दृश्य को देखा और अपने पति से शिकायत लगाई, ‘इस उम्र में यह आशनाई-तौबातौबा. अगर कोई बाहर का आदमी देख लेता तो, आप इन आदमकद खिड़कियों पर परदा लगवाने के लिए तो कहिए.’

दरअसल बात यह थी कि इस हवेलीनुमा मकान के आखिरी कोने पर बने इस आदमकद खिड़कियों वाले कमरे पर शाहिद की बीवी की मुद्दत से नजर थी. कमरे के बाहर फलदार पेड़ों की कतार, और फूलों की क्यारियां थीं. शरद की मादक चांदनी रातों में और वसंत के मौसम में कमरे से बाहर निकले बिना इस खिड़की के सामने बैठ कर ही फूलों व आमों के बौर की खुशबू के साथ उस शायराना माहौल को महसूस किया जा सकता था. शाहिद की बीवी की तालीम बीए तक थी. शायरी और उर्दू की तहजीब तो उसे नहीं थी, हां, उस का मिजाज आशिकाना जरूर था. वह पहले भी कई मौकों पर यह इच्छा जाहिर कर चुकी थी कि अब्बू और अम्मी अगर गांव में जा कर रहें तो बेहतर होगा. वरना आधी से ज्यादा हवेली में अम्मी ने जो लड़कियों के लिए स्कूल खुलवा दिया है, स्कूल वाले धीरेधीरे पूरी हवेली पर ही काबिज जो जाएंगे. जमीनजायदाद की फसल वगैरा भी अभी कारिंदों की ईमानदारी पर ही मिल रही है. तब जमीनजायदाद की भी बेहतर देखभाल हो सकेगी.

इस के अलावा, वह, एक बार डा. जाकिर द्वारा आम के बागों का ठेका उस के एक रिश्तेदार को देने से इनकार कर देने की वजह राबिया बेगम को मानती थी, इसलिए उन से मन ही मन बेहद नाराज थी. सो, वह किसी भी तरह उन्हें इस घर से अलग कर देना चाहती थी.

इस वाकए के 2 दिनों बाद जाकिर अली अपने कमरे में बैठे किसी पत्रिका के लिए एक शायर के बारे में लेख लिख रहे थे कि राबिया बेगम उन के पास आ कर बोलीं, ‘‘आप को जनाब रामकिंकर साहब याद हैं न? अरे वही रामकिंकर साहब, जो संस्कृत के प्रोफैसर थे और बाद में किसी फैलोशिप के तहत लंदन चले गए थे. फिर वहीं बस गए.’’

‘‘अरे, आप ऐसे कैसे कह रही हैं, हम ऐसे एहसानफरामोश तो नहीं कि रामकिंकर साहब को भूल जाएं. हां, बताइए क्या हुआ रामकिंकर साहब को?’’ जाकिर अली ने कलम रोक कर उत्सुकता से पूछा.

‘‘अरे, उन्हें कुछ नहीं हुआ, कुछ दिनों पहले उन का फोन आया था. हमें लंदन आने का न्योता दिया है. कह रहे थे कि उन की ही एक संस्था भारतीय शास्त्रीय संगीत का कोई बड़ा कार्यक्रम करवा रही है, सो शास्त्रीय संगीत संबंधित कुछ साजों की संगत देने वालों की उन्हें काफी जरूरत है. वे तो कह रहे थे कि अब भी मेरे इल्म और हमारे फन की वहां बेहतर कदर हो सकेगी. क्या कहते हैं आप?’’ राबिया बेगम ने उन से मानो कुछ आश्वासन पाने की मुद्रा में प्रश्न किया.

अंतहीन- भाग 1: क्यों गुंजन ने अपने पिता को छोड़ दिया?

रामदयाल क्लब के लिए निकल ही रहे थे कि फोन की घंटी बजी. उन के फोन पर ‘हेलो’ कहते ही दूसरी ओर से एक महिला स्वर ने पूछा, ‘‘आप गुंजन के पापा बोल रहे हैं न, फौरन मैत्री अस्पताल के आपात- कालीन विभाग में पहुंचिए. गुंजन गंभीर रूप से घायल हो गया है और वहां भरती है.’’

इस से पहले कि रामदयाल कुछ बोल पाते फोन कट गया. वे जल्दी से जल्दी अस्पताल पहुंचना चाह रहे थे पर उन्हें यह शंका भी थी कि कोई बेवकूफ न बना रहा हो क्योंकि गुंजन तो इस समय आफिस में जरूरी मीटिंग में व्यस्त रहता है और मीटिंग में बैठा व्यक्ति भला कैसे घायल हो सकता है?

गुंजन के पास मोबाइल था, उस ने नंबर भी दिया था मगर मालूम नहीं उन्होंने कहां लिखा था. उन्हें इन नई चीजों में दिलचस्पी भी नहीं थी… तभी फिर फोन की घंटी बजी. इस बार गुंजन के दोस्त राघव का फोन था.

‘‘अंकल, आप अभी तक घर पर ही हैं…जल्दी अस्पताल पहुंचिए…पूछताछ का समय नहीं है अंकल…बस, आ जाइए,’’ इतना कह कर उस ने भी फोन रख दिया.

ड्राइवर गाड़ी के पास खड़ा रामदयाल का इंतजार कर रहा था. उन्होंने उसे मैत्री अस्पताल चलने को कहा. अस्पताल के गेट के बाहर ही राघव खड़ा था, उस ने हाथ दे कर गाड़ी रुकवाई और ड्राइवर की साथ वाली सीट पर बैठते हुए बोला, ‘‘सामने जा रही एंबुलैंस के पीछे चलो.’’

‘‘एम्बुलैंस कहां जा रही है?’’ रामदयाल ने पूछा.

‘‘ग्लोबल केयर अस्पताल,’’ राघव ने बताया, ‘‘मैत्री वालों ने गुंजन की सांसें चालू तो कर दी हैं पर उन्हें बरकरार रखने के साधन और उपकरण केवल ग्लोबल वालों के पास ही हैं.’’

‘‘गुंजन घायल कैसे हुआ राघव?’’ रामदयाल ने भर्राए स्वर में पूछा.

‘‘नेहरू प्लैनेटोरियम में किसी ने बम होने की अफवाह उड़ा दी और लोग हड़बड़ा कर एकदूसरे को रौंदते हुए बाहर भागे. इसी हड़कंप में गुंजन कुचला गया.’’

‘‘गुंजन नेहरू प्लैनेटोरियम में क्या कर रहा था?’’ रामदयाल ने हैरानी से पूछा.

‘‘गुंजन तो रोज की तरह प्लैनेटोरियम वाली पहाड़ी पर टहल रहा था…’’

‘‘क्या कह रहे हो राघव? गुंजन रोज नेहरू प्लैनेटोरियम की पहाड़ी पर टहलने जाता था?’’

अब चौंकने की बारी राघव की थी इस से पहले कि वह कुछ बोलता, उस का मोबाइल बजने लगा.

‘‘हां तनु… मैं गुंजन के पापा की गाड़ी में तुम्हारे पीछेपीछे आ रहा हूं…तुम गुंजन के साथ मेडिकल विंग में जाओ, काउंटर पर पैसे जमा करवा कर मैं भी वहीं आता हूं,’’ राघव रामदयाल की ओर मुड़ा, ‘‘अंकल, आप के पास क्रेडिट कार्ड तो है न?’’

‘‘है, चंद हजार नकद भी हैं…’’

‘‘चंद हजार नकद से कुछ नहीं होगा अंकल,’’ राघव ने बात काटी, ‘‘काउंटर पर कम से कम 25 हजार तो अभी जमा करवाने पड़ेंगे, फिर और न जाने कितना मांगें.’’

‘‘परवा नहीं, मेरा बेटा ठीक कर दें, बस. मेरे पास एटीएम कार्ड भी है, जरूरत पड़ी तो घर से चेकबुक भी ले आऊंगा,’’ रामदयाल राघव को आश्वस्त करते हुए बोले.

ग्लोबल केयर अस्पताल आ गया था, एंबुलैंस को तो सीधे अंदर जाने दिया गया लेकिन उन की गाड़ी को दूसरी ओर पार्किंग में जाने को कहा.

‘‘हमें यहीं उतार दो, ड्राइवर,’’ राघव बोला.

दोनों भागते हुए एंबुलैंस के पीछे गए लेकिन रामदयाल को केवल स्ट्रेचर पर पड़े गुंजन के बाल और मुंह पर लगा आक्सीजन मास्क ही दिखाई दिया. राघव उन्हें काउंटर पर पैसा जमा कराने के लिए ले गया और अन्य औपचारिकताएं पूरी करने के बाद दोनों इमरजेंसी वार्ड की ओर चले गए.

इमरजेंसी के बाहर एक युवती डाक्टर से बात कर रही थी. राघव और रामदयाल को देख कर उस ने डाक्टर से कहा, ‘‘गुंजन के पापा आ गए हैं, बे्रन सर्जरी के बारे में यही निर्णय लेंगे.’’

डाक्टर ने बताया कि गुंजन का बे्रन स्कैनिंग हो रहा है मगर उस की हालत से लगता है उस के सिर में अंदरूनी चोट आने की वजह से खून जम गया है और आपरेशन कर के ही गांठें निकालनी पड़ेंगी. मुश्किल आपरेशन है, जानलेवा भी हो सकता है और मरीज उम्र भर के लिए सोचनेसमझने और बोलने की शक्ति भी खो सकता है. जब तक स्कैनिंग की रिपोर्ट आती है तब तक आप लोग निर्णय ले लीजिए.

यह कह कर और आश्वासन में युवती का कंधा दबा कर वह अधेड़ डाक्टर चला गया. रामदयाल ने युवती की ओर देखा, सुंदर स्मार्ट लड़की थी. उस के महंगे सूट पर कई जगह खून और कीचड़ के धब्बे थे, चेहरा और दोनों हाथ छिले हुए थे, आंखें लाल और आंसुओं से भरी हुई थीं. तभी कुछ युवक और युवतियां बौखलाए हुए से आए. युवकों को रामदयाल पहचानते थे, गुंजन के सहकर्मी थे. उन में से एक प्रभव तो कल रात ही घर पर आया था और उन्होंने उसे आग्रह कर के खाने के लिए रोका था. लेकिन प्रभव उन्हें अनदेखा कर के युवती की ओर बढ़ गया.

‘‘यह सब कैसे हुआ, तनु?’’

विस्मृत होता अतीत : शादी से पहले क्या हुआ था विभा के साथ

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क्वार्टर : धीमा के सपनों का घरौंदा

कुंजू प्रधान को घर आया देख कर धीमा की खुशी का ठिकाना न रहा. धीमा की पत्नी रज्जो ने फौरन बक्से में से नई चादर निकाल कर चारपाई पर बिछा दी.कुंजू प्रधान पालथी मार कर चारपाई पर बैठ गया.

‘‘अरे धीमा, मैं तो तुझे एक खुशखबरी देने चला आया…’’

कुंजू प्रधान ने कहा, ‘‘तेरा सरकारी क्वार्टर निकल आया है, लेकिन उस के बदले में बड़े साहब को कुछ रकम देनी होगी.’’‘‘रकम… कितनी रकम देनी होगी?’’ धीमा ने पूछा.

‘‘अरे धीमा… बड़े साहब ने तो बहुत पैसा मांगा था, लेकिन मैं ने तुम्हारी गरीबी और अपना खास आदमी बता कर रकम में कटौती करा ली थी,’’

कुंजू प्रधान ने कहा.‘‘पर कितनी रकम देनी होगी?’’

धीमा ने दोबारा पूछा.‘‘यही कोई 5 हजार रुपए,’’

कुंजू प्रधान ने बताया.‘‘5 हजार रुपए…’’

धीमा ने हैरानी से पूछा, ‘‘इतनी बड़ी रकम मैं कहां से लाऊंगा?’’

‘‘अरे भाई धीमा, तू मेरा खास आदमी है. मुझे प्रधान बनाने के लिए तू ने बहुत दौड़धूप की थी. मैं ने किसी दूसरे का नाम कटवा कर तेरा नाम लिस्ट में डलवा दिया था, ताकि तुझे सरकारी क्वार्टर मिल सके. आगे तेरी मरजी. फिर मत कहना कि कुंजू भाई ने क्वार्टर नहीं दिलाया,’’

कुंजू प्रधान ने कहा.‘‘लेकिन मैं इतनी बड़ी रकम कहां से लाऊंगा?’’

धीमा ने अपनी बात रखी.‘‘यह गाय तेरी है…’’

सामने खड़ी गाय को देखते हुए कुंजू ने कहा, ‘‘क्या यह दूध देती है?’’

‘‘हां, कुंजू भाई, यह मेरी गाय है और दूध भी देती है.’’

‘‘अरे पगले, यह गाय मुझे दे दे. इसे मैं बड़े साहब की कोठी पर भेज दूंगा. बड़े साहब गायभैंस पालने के बहुत शौकीन हैं. तेरा काम भी हो जाएगा.

’’कुंजू प्रधान की बात सुन कर धीमा ने रज्जो की तरफ देखा, मानो पूछ रहा हो कि क्या गाय दे दूं? रज्जो ने हलका सा सिर हिला कर रजामंदी दे दी.रज्जो की रजामंदी का इशारा पाते ही कुंजू प्रधान के साथ आए उस के एक चमचे ने फौरन गाय खोल ली.

रास्ते में उस चमचे ने कुंजू प्रधान से पूछा, ‘‘यह गाय बड़े साहब की कोठी पर कौन पहुंचाएगा?’’‘‘अरे बेवकूफ, गाय मेरे घर ले चल. सुबह ही बीवी कह रही थी कि घर में दूध नहीं है. बच्चे परेशान करते हैं. अब घर का दूध हो जाएगा… समझ?’’

कुंजू प्रधान बोला.‘‘लेकिन बड़े साहब और क्वार्टर?’’ उस चमचे ने सवाल किया.‘‘मु?ो न तो बड़े साहब से मतलब है और न ही क्वार्टर से. क्वार्टर तो धीमा का पहली लिस्ट में ही आ गया था.

यह सब तो ड्रामा था.’’कुंजू प्रधान दलित था. जब गांव में दलित कोटे की सीट आई, तो उस ने फौरन प्रधानी की दावेदारी ठोंक दी थी, क्योंकि अपनी बिरादरी में वही तो एक था, जो हिंदी में दस्तखत कर लेता था.उधर गांव के पहले प्रधान भगौती ने भी अपने पुराने नौकर लालू, जो दलित था, का परचा भर दिया था, क्योंकि भगौती के कब्जे में काफी गैरकानूनी जमीन थी.

उसे डर था, कहीं नया प्रधान उस जमीन के पट्टे आवंटित न करा दे.इस जमीन के बारे में कुंजू भी अच्छी तरह जानता था, तभी तो उस ने चुनाव प्रचार में यह खबर फैला दी थी कि अगर वह प्रधान बन गया, तो गांव वालों के जमीन के पट्टे बनवा देगा.जब यह खबर भगौती के कानों में पड़ी, तो उस ने फौरन कुंजू को हवेली में बुलवा लिया था, क्योंकि भगौती अच्छी तरह जानता था कि अगला प्रधान कुंजू ही होगा.कुंजू और भगौती में सम?ौता हो गया था.

बदले में भगौती ने कुंजू को 50 हजार रुपए नकद व लालू की दावेदारी वापस ले ली थी. लिहाजा, कुंजू प्रधान बन गया था.आज धीमा के क्वार्टर के लिए नींव की खुदाई होनी थी. रज्जो ने अगरबत्ती जलाई, पूजा की. धीमा ने लड्डू बांट कर खुदाई शुरू करा दी थी.

नकेलु फावड़े से खुदाई कर रहा था, तभी ‘खट’ की आवाज हुई. नकेलु ने फौरन फावड़ा रोक दिया. फिर अगले पल कुछ सोच कर उस ने दोबारा उसी जगह पर फावड़ा मारा, तो फिर वही ‘खट’ की आवाज आई.‘‘कुछ है धीमा भाई…’’

नकेलु फुसफुसाया, ‘‘शायद खजाना है.’’नकेलु की आंखों में चमक देख कर धीमा मुसकराया और बोला, ‘‘कुछ होगा तो देखा जाएगा. तू खोद.’’

‘‘नहीं धीमा भाई, शायद खजाना है. रात में खोदेंगे, किसी को पता नहीं चलेगा. अपनी सारी गरीबी खत्म हो जाएगी,’’ नकेलु ने कहा.‘‘कुछ नहीं है नकेलु, तू नींव खोद.

जो होगा देखा जाएगा.’’नकेलु ने फिर फावड़ा मारा. जमीन के अंदर से एक बड़ा सा पत्थर निकला. पत्थर पर एक आकृति उभरी हुई थी.‘‘अरे, यह तो किसी देवी की मूर्ति लगती है,’’ सड़क से गुजरते नन्हे ने कहा.फिर क्या था.

मूर्ति वाली खबर गांव में जंगल की आग की तरह फैल गई और वहां पर अच्छीखासी भीड़ जुट गई.‘‘अरे, यह तो किसी देवी की मूर्ति है…’’

नदंन पंडित ने कहा, ‘‘देवी की मूर्ति धोने के लिए कुछ ले आओ.’’नदंन पंडित की बात का फौरन पालन हुआ. जुगनू पानी की बालटी ले आया.

बालटी में पानी देख कर नदंन पंडित चिल्लाया, ‘‘अरे बेवकूफ, पानी नहीं गाय का दूध ले कर आ.’’नदंन पंडित का इतना कहना था कि जिस के घर पर जितना गाय का दूध था, फौरन उतना ही ले आया.गांव में नदंन पंडित की बहुत बुरी हालत थी. उस की धर्म की दुकान बिलकुल नहीं चलती थी.

आज से उन्हें अपना भविष्य संवरता लग रहा था.नंदन पंडित ने मूर्ति को दूध से अच्छी तरह से धोया, फिर मूर्ति को जमीन पर गमछा बिछा कर 2 ईंटों की टेक लगा कर रख दिया. उस के बाद 10 रुपए का एक नोट रख कर माथा टेक दिया. इस के बाद नंदन पंडित मुुंह में कोई मंत्र बुदबुदाने लग गया था. लेकिन उस की नजर गमछे पर रखे नोटों पर टिकी थी.

गांव वाले बारीबारी से वहां माथा टेक रहे थे.धीमा और रज्जो यह सब बड़ी हैरानी से देख रहे थे. उन की सम?ा में कुछ नहीं आ रहा था कि अब क्या होगा.‘‘यह देवी की जगह है, यहां पर मंदिर बनना चाहिए,’’ भीड़ में से कोई बोला.‘हांहां, मंदिर बनना चाहिए,’

समर्थन में कई आवाजें एकसाथ उभरीं.दूसरे दिन कुंजू प्रधान के यहां सभा हुई. सभा में पूरे गांव वालों ने मंदिर बनाने का प्रस्ताव रखा और आखिर में यही तय हुआ कि मंदिर वहीं बनेगा, जहां मूर्ति निकली है और धीमा को कोई दूसरी जगह दे दी जाएगी.

धीमा को गांव के बाहर थोड़ी सी जमीन दे दी गई, जहां वह फूंस की झोपड़ी डाल कर रहने लगा था.धीमा अब तक अच्छी तरह समझ चुका था कि सरकारी क्वार्टर के चक्कर में उस की पुश्तैनी जमीन भी हाथ से निकल चुकी है.मंदिर बनने का काम इतनी तेजी से चला कि जल्दी ही मंदिर बन गया.

गांव वालों ने बढ़चढ़ कर चंदा दिया था.आज मंदिर में भंडारा था. कई दिनों से पूजापाठ हो रहा था. नंदन पंडित अच्छी तरह से मंदिर पर काबिज हो चुका था.

खुले आसमान के नीचे फूंस की ?ोंपड़ी के नीचे बैठा धीमा अपने बच्चों को सीने से लगाए बुदबुदाए जा रहा था, ‘‘वाह रे ऊपर वाले, इनसान की जमीन पर इनसान का कब्जा तो सुना था, मगर कोई यह तो बताए कि जब ऊपर वाला ही इनसान की जमीन पर कब्जा कर ले, तो फरियाद किस से करें?

प्यार की पहली किस्त : सदमे में जीती सायरा

बेगम रहमान से सायरा ने झिझकते हुए कहा, ‘‘मम्मी, मैं एक बड़ी परेशानी में पड़ गई हूं.’’

उन्होंने टीवी पर से नजरें हटाए बगैर पूछा, ‘‘क्या किसी बड़ी रकम की जरूरत पड़ गई है?’’

‘‘नहीं मम्मी, मेरे पास पैसे हैं.’’

‘‘तो फिर इस बार भी इम्तिहान में खराब नंबर आए होंगे और अगली क्लास में जाने में दिक्कत आ रही होगी…’’ बेगम रहमान की निगाहें अब भी टीवी सीरियल पर लगी थीं.

‘‘नहीं मम्मी, ऐसा कुछ भी नहीं है. आप ध्यान दें, तो मैं कुछ बताऊं भी.’’

बेगम रहमान ने टीवी बंद किया और बेटी की तरफ घूम गईं, ‘‘हां, अब बताए मेरी बेटी कि ऐसी कौन सी मुसीबत आ पड़ी है, जो मम्मी की याद आ गई.’’

‘‘मम्मी, दरअसल…’’ सायरा की जबान लड़खड़ा रही थी और फिर उस ने जल्दी से अपनी बात पूरी की, ‘‘मैं पेट से हूं.’’

यह सुन कर बेगम रहमान का हंसता हुआ चेहरा गुस्से से लाल हो गया, ‘‘तुम से कितनी बार कहा है कि एहतियात बरता करो, लेकिन तुम निरी बेवकूफ की बेवकूफ रही.’’

बेगम रहमान को इस बात का सदमा कतई नहीं था कि उन की कुंआरी बेटी पेट से हो गई है. उन्हें तो इस बात पर गुस्सा आ रहा था कि उस ने एहतियात क्यों नहीं बरती.

‘‘मम्मी, मैं हर बार बहुत एहतियात बरतती थी, पर इस बार पहाड़ पर पिकनिक मनाने गए थे, वहीं चूक हो गई.’’

‘‘कितने दिन का है?’’ बेगम रहमान ने पूछा.

‘‘चौथा महीना है,’’ सायरा ने सिर झुका कर कहा.

‘‘और तुम अभी तक सो रही थी,’’ बेगम रहमान को फिर गुस्सा आ गया.

‘‘दरअसल, कैसर नवाब ने कहा था कि हम लोग शादी कर लेंगे और इस बच्चे को पालेंगे, लेकिन मम्मी, वह गजाला है न… वह बड़ी बदचलन है. कैसर नवाब पर हमेशा डोरे डालती थी. अब वे उस के चक्कर में पड़ गए और हम से दूर हो गए.’’

रहमान साहब शहर के एक नामीगिरामी अरबपति थे. कपड़े की कई मिलें थीं, सियासत में भी खासी रुचि रखते थे. सुबह से शाम तक बिजनेस मीटिंग या सियासी जलसों में मसरूफ रहते थे.

बेगम रहमान भी अपनी किटी पार्टी और लेडीज क्लब में मशगूल रहती थीं. एकलौती बेटी सायरा के पास मां की ममता और बाप के प्यार के अलावा दुनिया की हर चीज मौजूद थी, यारदोस्त, डांसपार्टी वगैरह यही सब उस की पसंद थी.

हाई सोसायटी में किरदार के अलावा हर चीज पर ध्यान दिया जाता है. सायरा ने भी दौलत की तरह अपने हुस्न और जवानी को दिल खोल कर लुटाया था, लेकिन उस में अभी इतनी गैरत बाकी थी कि वह बिनब्याही मां बन कर किसी बच्चे को पालने की हिम्मत नहीं कर सकती थी.

‘‘तुम ने मुसीबत में फंसा दिया बेटी. अब सिवा इस बात के कोई चारा नहीं है कि तुम्हारा निकाह जल्द से जल्द किसी और से कर दिया जाए. अपने बराबर वाला तो कोई कबूल करेगा

नहीं. अब कोई शरीफजादा ही तलाश करना पड़ेगा,’’ कहते हुए बेगम रहमान फिक्रमंद हो गईं.

एक महीने के अंदर ही बेगम रहमान ने रहमान साहब के भतीजे सुलतान मियां से सायरा का निकाह कर दिया.

सुलतान कोआपरेटिव बैंक में मैनेजर था. नौजवान खूबसूरत सुलतान के घर जब बेगम रहमान सायरा के रिश्ते की बात करने गईं, तो सुलतान की मां आब्दा बीबी को बड़ी हैरत हुई थी.

बेगम रहमान 5 साल पहले सुलतान के अब्बा की मौत पर आई थीं. उस के बाद वे अब आईं, तो आब्दा बीबी सोचने लगीं कि आज तो सब खैरियत है, फिर ये कैसे आ गईं.

जब बेगम रहमान ने बगैर कोई भूमिका बनाए सायरा के रिश्ते के लिए सुलतान का हाथ मांगा तो उन्हें अपने कानों पर यकीन नहीं आया था.

कहां सायरा एक अरबपति की बेटी और कहां सुलतान एक मामूली बैंक मैनेजर, जिस के बैंक का सालाना टर्नओवर भी रहमान साहब की 2 मिलों के बराबर नहीं था.

सुलतान की मां ने बड़ी मुश्किल से कहा था, ‘‘भाभी, मैं जरा सुलतान से बात कर लूं.’’

‘‘आब्दा बीबी, इस में सुलतान से बात करने की क्या जरूरत है. आखिर वह रहमान साहब का सगा भतीजा है. क्या उस पर उन का इतना भी हक नहीं है

कि सायरा के लिए उसे मांग सकें?’’ बेगम रहमान ने दोटूक शब्दों में खुद ही रिश्ता दिया और खुद ही मंजूर कर लिया था.

चंद दिनों के बाद एक आलीशान होटल में सायरा का निकाह सुलतान मियां से हो गया. रहमान साहब ने उन के हनीमून के लिए स्विट्जरलैंड के एक बेहतरीन होटल में इंतजाम करा दिया था. सायरा को जिंदगी का यह नया ढर्रा भी बहुत पसंद आया.

हनीमून से लौट कर कुछ दिन रहमान साहब की कोठी में गुजारने के बाद जब सुलतान ने दुलहन को अपने घर ले जाने की बात कही तो सायरा के साथ बेगम रहमान के माथे पर भी बल पड़ गए.

‘‘तुम कहां रखोगे मेरी बेटी सायरा को?’’ बेगम रहमान ने बड़े मजाकिया अंदाज में पूछा.

‘‘वहीं जहां मैं और मेरी अम्मी रहती हैं,’’ सुलतान ने बड़ी सादगी से जवाब दिया.

‘‘बेटे, तुम्हारे घर से बड़ा तो सायरा का बाथरूम है. वह उस घर में कैसे रह सकेगी,’’ बेगम रहमान ने फिर एक दलील दी.

सुलतान को अब यह एहसास होने लगा था कि यह सारी कहानी घरजंवाई बनाने की है.

‘‘यह सबकुछ तो आप को पहले सोचना चाहिए था,’’ सुलतान ने कहा.

इस से पहले कि सायरा कोई जवाब देती, बेगम रहमान को याद आ गया कि यह निकाह तो एक भूल को छिपाने के लिए हुआ है. मियांबीवी में अभी से अगर तकरार शुरू हो गई, तो पेट में पलने वाले बच्चे का क्या होगा.

उन्होंने अपने मूड को खुशगवार बनाते हुए कहा, ‘‘अच्छा बेटा, ले जाओ. लेकिन सायरा को जल्दीजल्दी ले आया करना. तुम को तो पता है कि सायरा

के बगैर हम लोग एक पल भी नहीं रह सकते.’’

सुलतान और उस की मां की खुशहाल जिंदगी में आग लगाने के लिए सायरा सुलतान के घर आ गई.

2 दिनों में ही हालात इतने खराब हो गए कि सायरा अपने घर वापस आ गई. मियांबीवी की तनातनी नफरत में बदल गई और बात तलाक तक पहुंच गई, लेकिन मसला था मेहर की रकम का, जो सुलतान मियां अदा नहीं कर सकते थे.

10 लाख रुपए मेहर बांधा गया था. आखिर अरबपति की बेटी थी. उस के जिस्म को कानूनी तौर पर छूने की कीमत 10 लाख रुपए से कम क्या होती.

एक दिन मियांबीवी की इस लड़ाई को एक बेरहम ट्रक ने हमेशा के लिए खत्म कर दिया.

हुआ यों कि सुलतान मियां शाम को बैंक से अपने स्कूटर से वापस आ रहे थे, न जाने किस सोच में थे कि सामने से आते हुए ट्रक की चपेट में आ गए और बेजान लाश में तबदील हो गए.

सायरा बेगम अपने पुराने दोस्तों के साथ एक बड़े होटल में गपें लगाने में मशगूल थीं, तभी बीमा कंपनी के एक एजेंट ने उन्हें एक लिफाफे के साथ

10 लाख रुपए का चैक देते हुए कहा, ‘‘मैडम, ऐसा बहुत कम होता है कि कोई पहली किस्त जमा करने के बाद ही हादसे का शिकार हो जाए.

‘‘सुलतान साहब ने अपनी तनख्वाह में से 10 लाख रुपए की पौलिसी की पहली किस्त भरी थी और आप को नौमिनी करते समय यह लिफाफा भी दिया था. शायद वह यही सोचते हुए जा रहे थे कि महीने के बाकी दिन कैसे गुजरेंगे और ट्रक से टकरा गए.’’

सायरा ने पूरी बात सुनने के बाद एजेंट का शुक्रिया अदा किया और होटल से बाहर आ कर अपनी कार में बैठ कर लिफाफा खोला. यह सुलतान का पहला और आखिरी खत था. लिखा था :

तुम ने मुझे तोहफे में 4 महीने का बच्चा दिया था, मैं तुम्हें मेहर के 10 लाख रुपए दे रहा हूं.

तुम्हारी मजबूरी सुलतान.

सायरा ने खत को लिफाफे में रखा और ससुराल की तरफ गाड़ी को घुमा लिया.

वह होटल आई थी अरबपति रहमान की बेटी बन कर, अब वापस जा रही थी एक खुद्दार बैंक मैनेजर की बेवा बन कर.

माफी : तलाक के बाद का ट्विस्ट

शिफाली और प्रमोद को आज कोर्ट से तलाक के कागज मिल गए थे. लंबी प्रक्रिया के बाद आज कुछ सुकून मिला. शिफाली और प्रमोद तथा उनके परिजन साथ ही कोर्ट से बाहर निकले, उनके चेहरे पर विजय और सुकून के निशान साफ झलक रहे थे. चार साल की लंबी जदोजहद के बाद आज फैसला हो गया था.

दस साल हो गए थे शादी को मग़र साथ 6 साल ही रह पाए थे.

चार साल तो तलाक की कार्यवाही में ही बीत गये गए.

शेफाली के हाथ मे दहेज के समान की लिस्ट थी जो अभी प्रमोद के घर से लेना था और प्रमोद के हाथ मे गहनों की लिस्ट थी जो उसने शेफाली से लेने थे.

साथ मे कोर्ट का यह आदेश भी था कि प्रमोद शेफाली को  दस लाख रुपये की राशि एकमुश्त देगा.शेफाली और प्रमोद दोनो एक ही  औटो में बैठकर प्रमोद के घर आये.  आज ठीक 4 साल बाद आखिरी बार ससुराल जा रही थी शेफाली, अब वह कभी इन रास्तों से इस घर तक नहीं आएगी. यह बात भी उसे कचोट रही थी कि जहां वह 4 साल तक रही आज उस घर से उसका नाता टूट गया है. वह  दहेज के सामान की लिस्ट लेकर आई थी, क्योंकि सामान की निशानदेही तो उसे ही करनी थी.

सभी रिश्तेदार अपनेअपने घर जा चुके थे. बस, तीन प्राणी बचे थे. प्रमोद,शेफाली और उस की मां. प्रमोद यहां अकेला ही रहता था, क्योंकि उसके पेरेंट्स गांव में ही रहते थे.

शेफाली और प्रमोद की इकलौती 5 साल की बेटी जो कोर्ट के फैसले के अनुसार बालिग होने तक शेफाली के पास ही रहेगी. प्रमोद महीने में एक बार उससे मिल सकता है.

घर में  घुसते ही पुरानी यादें ताज़ी हो गईं. कितनी मेहनत से सजाया था शेफाली ने इसे. एक एक चीज में उसकी जान बसती थी. सबकुछ उसकी आंखों के सामने बना था. एकएक ईंट से उसने धीरेधीरे बनते घरौदे को पूरा होते देखा था. यह उसका सपनो का घर था. कितनी शिद्दत से प्रमोद ने उसके सपने को पूरे किए थे.

प्रमोद थकाहारा सा सोफे पर पसर गया और शेफाली से बोला, “ले लो जो कुछ भी तुम्हें लेना है, मैं तुम्हें नही रोकूंगा.”

शेफाली बड़े गौर से प्रमोद को देखा और सोचने लगी 4 साल में कितना बदल गया है प्रमोद. उसके बालों में  अब हल्की हल्की सफेदी झांकने लगी थी. शरीर पहले से आधा रह गया है. चार साल में चेहरे की रौनक गायब हो गई थी.

शेफाली स्टोर रूम की तरफ बढ़ी, जहां उसके दहेज का समान पड़ा था. कितना था उसका सामान. प्रेम विवाह था दोनो का. घर वाले तो मजबूरी में साथ हुए थे.

प्रेम विवाह था तभी तो नजर लग गई किसी की. क्योंकि प्रेमी जोड़ी को हर कोई टूटता हुआ देखना चाहता है.

बस एक बार पीकर बहक गया था प्रमोद. हाथ उठा बैठा था उस पर. बस तभी वो गुस्से में मायके चली गई थी.

फिर चला था लगाने सिखाने का दौर. इधर प्रमोद के भाईभाभी और उधर शेफाली की माँ. नौबत कोर्ट तक जा पहुंची और आखिर तलाक हो गया. न शेफाली लौटी और न ही प्रमोद लेने गया.

शेफाली की मां जो उसके साथ ही गई थीं,बोली, ” कहां है तेरा सामान? इधर तो नही दिखता. बेच दिया होगा इस शराबी ने ?”

“चुप रहो मां,” शेफाली को न जाने क्यों प्रमोद को उसके मुँह पर शराबी कहना अच्छा नही लगा.

फिर स्टोर रूम में पड़े सामान को एक एक कर लिस्ट से मिलाया गया.

बाकी कमरों से भी लिस्ट का सामान उठा लिया गया.

शेफाली ने सिर्फ अपना सामान लिया प्रमोद के समान को छुआ तक नही.  फिर शेफाली ने प्रमोद को गहनों से भरा बैग पकड़ा दिया.

प्रमोद ने बैग वापस शेफाली को ही दे दिया, ” रखलो, मुझे नही चाहिए काम आएगें तेरे मुसीबत में .”

गहनों की किम्मत 15 लाख रुपये से कम नही थी.

“क्यों, कोर्ट में तो तुम्हरा वकील कितनी दफा गहने-गहने चिल्ला रहा था.”

“कोर्ट की बात कोर्ट में खत्म हो गई, शेफाली. वहाँ तो मुझे भी दुनिया का सबसे बुरा जानवर और शराबी साबित किया गया है.”

सुनकर शेफाली की मां ने नाकभों चढ़ा दीं.

“मुझे नही चाहिए.

वो दस लाख रुपये भी नही चाहिए.”

“क्यों?” कह कर प्रमोद सोफे से खड़ा हो गया.

“बस यूं ही” शेफाली ने मुंह फेर लिया.

“इतनी बड़ी जिंदगी पड़ी है कैसे काटोगी? ले जाओ,,, काम आएंगे.”

इतना कह कर प्रमोद ने भी मुंह फेर लिया और दूसरे कमरे में चला गया. शायद आंखों में कुछ उमड़ा होगा जिसे छुपाना भी जरूरी था.

शेफाली की मां गाड़ी वाले को फोन करने में व्यस्त थी.

शेफाली को मौका मिल गया. वो प्रमोद के पीछे उस कमरे में चली गई.

वो रो रहा था. अजीब सा मुंह बना कर.  जैसे भीतर के सैलाब को दबाने  की जद्दोजहद कर रहा हो. शेफाली ने उसे कभी रोते हुए नही देखा था. आज पहली बार देखा न जाने क्यों दिल को कुछ सुकून सा मिला.

मग़र वह ज्यादा भावुक नही हुई.

सधे अंदाज में बोली, “इतनी फिक्र थी तो क्यों दिया तलाक प्रमोद?”

“मैंने नही तलाक तुमने दिया.”

“दस्तखत तो तुमने भी किए.”

“माफी नही मांग सकते थे?”

“मौका कब दिया तुम्हारे घर वालों ने. जब भी फोन किया काट दिया.”

“घर भी तो आ सकते थे”?

“मेरी हिम्मत नही हुई थी आने की?”

शेफाली की मां आ गई. वो उसका हाथ पकड़ कर बाहर ले गई. “अब क्यों मुंह लग रही है इसके? अब तो रिश्ता भी खत्म हो गया.”

मां-बेटी बाहर बरामदे में सोफे पर बैठकर गाड़ी का इंतजार करने लगी.

शेफाली के भीतर भी कुछ टूट रहा था. उसका दिल बैठा जा रहा था. वो सुन्न सी पड़ती जा रही थी. जिस सोफे पर बैठी थी उसे गौर से देखने लगी. कैसे कैसे बचत कर के उसने और प्रमोद ने वो सोफा खरीदा था. पूरे शहर में घूमी तब यह पसन्द आया था.”

फिर उसकी नजर सामने तुलसी के सूखे पौधे पर गई. कितनी शिद्दत से देखभाल किया करती थी. उसके साथ तुलसी भी घर छोड़ गई.

घबराहट और बढ़ी तो वह फिर से उठ कर भीतर चली गई. माँ ने पीछे से पुकारा मग़र उसने अनसुना कर दिया. प्रमोद बेड पर उल्टे मुंह पड़ा था. एक बार तो उसे दया आई उस पर. मग़र  वह जानती थी कि अब तो सब कुछ खत्म हो चुका है इसलिए उसे भावुक नही होना है.

उसने सरसरी नजर से कमरे को देखा. अस्त व्यस्त हो गया था पूरा कमरा. कहीं कंही तो मकड़ी के जाले झूल रहे थे.

कभी कितनी नफरत थी उसे मकड़ी के जालों से?

फिर उसकी नजर चारों और लगी उन फोटो पर गई जिनमे वह प्रमोद से लिपट कर मुस्करा रही थी.

कितने सुनहरे दिन थे वो.

इतने में मां फिर आ गई. हाथ पकड़ कर फिर उसे बाहर ले गई.

बाहर गाड़ी आ गई थी. सामान गाड़ी में डाला जा रहा था. शेफाली सुन सी बैठी थी. प्रमोद गाड़ी की आवाज सुनकर बाहर आ गया.

अचानक प्रमोद कान पकड़ कर घुटनो के बल बैठ गया.

बोला,” मत जाओ…माफ कर दो.”

शायद यही वो शब्द थे जिन्हें सुनने के लिए चार साल से तड़प रही थी. सब्र के सारे बांध एक साथ टूट गए. शेफाली ने कोर्ट के फैसले का कागज निकाला और फाड़ दिया .

और मां कुछ कहती उससे पहले ही लिपट गई प्रमोद से. साथ मे दोनो बुरी तरह रोते जा रहे थे.

दूर खड़ी शेफाली की माँ समझ गई कि कोर्ट का आदेश दिलों के सामने कागज से ज्यादा कुछ नही.

काश, उनको पहले मिलने दिया होता?

अगर माफी मांगने से ही रिश्ते टूटने से बच  जाएं, तो माफ़ी मांग लेनी चाहिए.

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