और दीप जल उठे : कैंसर से जूझती एक मां

ट्रिनट्रिन…फोन की घंटी बजते ही हम फोन की तरफ झपट पड़े. फोन पति ने उठाया. दूसरी ओर से भाईसाहब बात कर रहे थे. रिसीवर उठाए राजेश खामोशी से बात सुन रहे थे. अचानक भयमिश्रित स्वर में बोले, ‘‘कैंसर…’’ इस के बाद रिसीवर उन के हाथ में ही रह गया, वे पस्त हो सोफे पर बैठ गए. तो वही हुआ जिस का डर था. मां को कैंसर है. नहीं, नहीं, यह कोई बुरा सपना है. ऐसा कैसे हो सकता है? वे तो एकदम स्वस्थ थीं. उन्हें कैंसर हो ही नहीं सकता. एक मिनट में ही दिमाग में न जाने कैसेकैसे विचार तूफान मचाने लगे थे. 2 दिनों से जिन रिपोर्टों के परिणाम का इंतजार था आज अचानक ही वह काला सच बन कर सामने आ चुका था.

‘‘अब क्या होगा?’’ नैराश्य के स्वर में राजेश के मुंह से बोल फूटे. विचारों के भंवर से निकल कर मैं भी जैसे यह सुन कर अंदर ही अंदर सहम गई. ‘भाईसाहब से क्या बात हुई,’ यह जानने की उत्सुकता थी. औचक मैं चिल्ला पड़ी, ‘‘क्या हुआ मां को?’’ बच्चे भी यह सुन कर पास आ गए. राजेश का गला सूख गया. उन के मुंह से अब आवाज नहीं निकल रही थी. मैं दौड़ कर रसोई से एक गिलास पानी लाई और उन की पीठ सहलाते, उन्हें सांत्वना देते हुए पानी का गिलास उन्हें थमा दिया. पानी पी कर वे संयत होने का प्रयास करते हुए धीमी आवाज में बोले, ‘‘अरुणा, मां की जांच रिपोर्ट्स आ गई हैं. मां को स्तन कैंसर है,’’ कहते हुए वे फफकफफक कर बच्चों की तरह रोने लगे. हम सभी किंकर्तव्यविमूढ़ उन की तरफ देख रहे थे. किसी के भी मुंह से आवाज नहीं निकली. वातावरण में एक सन्नाटा पसर गया था. अब क्या होगा? इस प्रश्न ने सभी की बुद्धि पर मानो ताला जड़ दिया था. राजेश को रोते हुए देख कर ऐसा लगा, मानो सबकुछ बिखर गया है. मेरा घरपरिवार मानो किसी ऐसी भंवर में फंस गया जिस का कोई किनारा नजर नहीं आ रहा था.

मैं खुद को संयत करते हुए राजेश से बोली, ‘‘चुप हो जाओ राजेश. तुम्हें इस तरह मैं हिम्मत नहीं हारने दूंगी. संभालो अपनेआप को. देखो, बच्चे भी तुम्हें रोता देख कर रोने लगे हैं. तुम इतने कमजोर कैसे हो सकते हो? अभी तो हमारे संघर्ष की शुरुआत हुई है. अभी तो आप को मां और पूरे परिवार को संभालना है. ऐसा कुछ नहीं हुआ है, जो ठीक न किया जा सके. हम मां को यहां बुलाएंगे और उन का इलाज करवाएंगे. मैं ने पढ़ा है, स्तन कैंसर इलाज से पूरी तरह ठीक हो सकता है.’’

मेरी बातों का जैसे राजेश पर असर हुआ और वे कुछ संयत नजर आने लगे. सभी को सुला कर रात में जब मैं बिस्तर पर लेटी तो जैसे नींद आंखों से कोसों दूर हो गई हो. राजेश को तो संभाल लिया पर खुद मेरा मन चिंताओं के घने अंधेरे में उलझ चुका था. मन रहरह कर पुरानी बातें याद कर रहा था. 10 वर्ष पहले जब शादी कर मैं इस घर में आई थी तो लगा ही नहीं कि किसी दूसरे परिवार में आई हूं. लगा जैसे मैं तो वर्षों से यहीं रह रही थी. माताजी का स्नेहिल और शांत मुखमंडल जैसे हर समय मुझे अपनी मां का एहसास करा रहा था. पूरे घर में जैसे उन की ही शांत छवि समाई हुई थी. जैसा शांत उन का स्वभाव, वैसा ही उन का नाम भी शांति था. वे स्कूल में अध्यापिका थीं.

स्कूल के साथसाथ घर को भी मां ने जिस निपुणता से संभाला हुआ था, लगता था उन के पास कोई जादू की छड़ी है जो पलक झपकते ही सारी समस्याओं का समाधान कर देती है. घर के सभी सदस्य और दूरदूर तक रिश्तेदार उन की स्नेहिल डोर से सहज ही बंधे थे. घर में ससुरजी, भाईसाहब, भाभी और दीदी में भी मुझे उन के ही गुणों की छाया नजर आती थी. लगता था मम्मीजी के साथ रहतेरहते सभी उन्हीं के जैसे स्वभाव के हो गए हैं.

इन सारी मधुर स्मृतियों को याद करतेकरते मुझे वह क्षण भी याद आया जब राजेश का तबादला जयपुर हुआ था. मम्मीजी ने एक मिनट भी नहीं सोचा और तुरंत मुझे भी राजेश के साथ ही जयपुर भेज दिया. खुद वे मेरी गृहस्थी जमाने वहां आई थीं और सबकुछ ठीक कर के एक सप्ताह बाद ही लौट गई थीं. यह सब सोचतेसोचते न जाने कब मेरी आंख लग गई. अचानक सवेरे दूध वाले भैया ने दरवाजे की घंटी बजाई तो आवाज सुन कर हड़बड़ा कर मेरी आंख खुली. देखा साढ़े 6 बज चुके थे.

‘अरे, बच्चों को स्कूल के लिए कहीं देर न हो जाए,’ सोचते हुए झपपट पहले दूध लिया. दोनों को तैयार कर के स्कूल भेजतेभेजते दिमाग ने एक निर्णय ले लिया था. राजेश की चाय बना कर उन्हें उठाते हुए मैं ने अपने निर्णय से उन्हें अवगत करा दिया. मेरे निर्णय से राजेश भी सहमत थे. राजेश ने भाईसाहब को फोन किया, ‘‘आप मां को ले कर आज ही जयपुर आ जाइए. हम मां का इलाज यहीं करवाएंगे, लेकिन आप मां को उन की बीमारी के बारे में कुछ भी मत बताना. और हां, कैसे भी उन्हें यहां ले आइए.’’ भाईसाहब भी राजेश से बात कर के थोड़ा सहज हो गए थे और उसी दिन ढाई बजे की बस से रवाना होने को कह दिया.

‘राजेश के साथ पारिवारिक डाक्टर रवि के यहां हो आते हैं,’ मैं ने सोचा, फिर राजेश से बात की. वे राजेश के बहुत अच्छे मित्र भी हैं. हम दोनों को अचानक आया देख कर वे चौंक गए. जब हम ने उन्हें अपने आने का कारण बताया तो उन्होंने हमें महावीर कैंसर अस्पताल जाने की सलाह दी. उसी समय उन्होंने वहां अपने कैंसर स्पैशलिस्ट मित्र डा. हेमंत से फोन कर के दोपहर का अपौइंटमैंट ले लिया. डा. हेमंत से मिल कर कुछ सुकून मिला. उन्होंने बताया कि स्तन कैंसर से डरने की कोई बात नहीं है. आजकल तो यह पूरी तरह से ठीक हो जाता है. आप सब से पहले मुझे यह बताइए कि माताजी की यह समस्या कब सामने आई?

मैं ने बताया कि एक सप्ताह पहले माताजी ने झिझकते हुए मुझे अपने एक स्तन में गांठ होने की बात कही थी तो अंदर ही अंदर मैं डर गई थी. लेकिन मैं ने उन से कहा कि मम्मीजी, आप चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा. जब 4-5 दिनों में वह गांठ कुछ ज्यादा ही उभर कर सामने आई तो मम्मीजी चिंतित हो गईं और उन की चिंता दूर करने के लिए भाईसाहब उन्हें दिखाने एक डाक्टर के पास ले गए. जब डाक्टर ने सभी जांच रिपोर्ट्स देखीं तो कैंसर की पुष्टि की.

सब सुनने के बाद डा. हेमंत ने भी कहा, ‘‘आप तुरंत माताजी को यहां ले आएं.’’ मैं ने उन्हें बता दिया कि वे आज शाम को ही यहां पहुंच रही हैं. डा. हेमंत ने अगले दिन सुबह आने का समय दे दिया. राहत की सांस ले कर हम घर चले आए.

रात साढ़े 8 बजे मम्मीजी भाईसाहब के साथ जयपुर पहुंच गईं. राजेश गाड़ी से उन्हें घर ले आए. आते ही मम्मीजी ने पूछा कि क्या हो गया है उन्हें? तुम ने यहां क्यों बुला लिया? मम्मीजी की बात सुन कर मैं ने सहज ही कहा, ‘‘मम्मीजी, ऐसा कुछ नहीं है. बच्चे आप को याद कर रहे थे और आप की गांठ की बात सुन कर राजेश भी कुछ विचलित हो गए थे, इसलिए मैं ने सामान्य चैकअप के लिए आप को यहां बुला लिया है. आप चिंता न करें, आप बिलकुल ठीक हैं.’’ मेरी बात सुन कर मम्मीजी सहज हो गईं. तभी बच्चों को चुप देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘अरे, नीटूचीनू तुम दूर क्यों खड़े हो? यह देखो मैं तुम्हारे लिए क्याक्या लाई हूं.’’ बच्चे भी दादी को हंसते हुए देख दौड़ कर उन से लिपट पड़े. ‘‘दादीमां, आप कितने दिनों बाद यहां आई हो. अब हम आप को यहां से कभी भी जाने नहीं देंगे.’’ बच्चों के सहज स्नेह से अभिभूत मम्मीजी उन को अपने लाए खिलौने दिखाने में व्यस्त हो गईं, तो मैं रसोई में उन के लिए चाय बनाने चली गई. इसी बीच राजेश ने भाईसाहब को डा. हेमंत से हुई बातचीत बता दी. अगले दिन सुबह जल्दी तैयार हो कर मम्मीजी राजेश और भाईसाहब के साथ अस्पताल चली गईं.

कैंसर अस्पताल का बोर्ड देख कर मम्मी चौंकी थीं, पर राजेश ने होशियारी बरतते हुए कहा, ‘‘आप पढि़ए, यहां पर लिखा है, ‘भगवान महावीर कैंसर ऐंड रिसर्च इंस्टिट्यूट.’ कैंसर के इलाज के साथ जांचों के लिए यही बड़ा केंद्र है.’’ मां यह बात सुन कर चुप हो गई थीं. अगले 2 दिन जांचों में ही चले गए. इस दौरान उन्हें कुछ शंका हुई, वे बारबार मुझ से पूछतीं, ‘‘तुम ही बताओ, आखिर मुझे हुआ क्या है? ये दोनों भाई तो कुछ बताते नहीं. तुम तो कुछ बताओ. तुम्हें तो सब पता होगा?’’ मैं सहज रूप से कहती, ‘‘अरे, मम्मीजी, आप को कुछ नहीं हुआ है. यह स्तन की साधारण सी गांठ है, जिसे निकलवाना है. डाक्टर छोटी सी सर्जरी करेंगे और आप एकदम ठीक हो जाओगी.’’

‘‘पर यह गांठ कुछ दर्द तो करती नहीं है, फिर निकलवाने की क्या जरूरत है?’’ उन के मुंह से यह सुन कर मुझे सहज ही पता चल गया कि कैंसर के बारे में हमारी अज्ञानता ही इस रोग को बढ़ाती है. मम्मीजी ने तो मुझे यह भी बताया कि उन के स्कूल की एक अध्यापिका ने उन्हें एक वैद्य का पता बताया था जोकि बिना किसी सर्जरी के एक सप्ताह के भीतर अपनी आयुर्वेदिक गोलियों और चूर्ण से यह गांठ गला सकते हैं. मैं ने साफ कह दिया, ‘‘मम्मीजी, हमें इन चक्करों में नहीं पड़ना है.’’ मेरी बात सुन कर वे निरुत्तर हो गईं. जांच रिपोर्ट आने के तीसरे दिन ही डाक्टर ने औपरेशन की तारीख निश्चित कर दी थी. औपरेशन के एक दिन पहले ही रात को मम्मीजी को अस्पताल में भरती करवा दिया गया. राजेश और भाईसाहब मां की जरूरत का सामान बैग में ले कर अस्पताल चले गए.

अगले दिन ब्लडप्रैशर नौर्मल होने पर सवेरे 9 बजे मम्मीजी को औपरेशन थिएटर में ले जाया गया. हम लोग औपरेशन थिएटर के बाहर बैठ इंतजार कर रहे थे. साढ़े 11 बजे तक मम्मीजी का औपरेशन चला. उन के एक ही स्तन में 2 गांठें थीं. सर्जरी से डाक्टर ने पूरे स्तन को ही हटा दिया.

अचानक ही आईसीयू से पुकार हुई, ‘‘शांति के साथ कौन है?’ सुन कर हम सभी जड़ हो गए. राजेश को आगे धकेलते हुए हम ने जैसेतैसे कहा, ‘‘हम साथ हैं.’’ डाक्टर ने राजेश को अंदर बुलाया और कहा कि औपरेशन सफल रहा है. अब इस स्तन के टुकड़े को जांच के लिए मुंबई प्रयोगशाला में भेजेंगे ताकि यह पता लग सके कि कैंसर किस अवस्था में था. राजेश को उन्होंने कहा, ‘‘आप चिंता नहीं करें, आप की माताजी बिलकुल ठीक हैं. औपरेशन सफलतापूर्वक हो गया है तथा 4 से 6 घंटे बाद उन्हें होश आ जाएगा.’’

राजेश जब बाहर आए तो वे सहज थे. उन को शांत देख कर हमें भी चैन आया. तभी भाईसाहब ने परेशान होते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ? तुम्हें अंदर क्यों बुलाया था?’’ राजेश ने बताया कि चिंता की बात नहीं है. डाक्टर ने सर्जरी कर हटाए गए स्तन को दिखाने के लिए बुलाया था. मम्मीजी बिलकुल ठीक हैं.

शाम को करीब साढ़े 7 बजे मम्मीजी को होश आया. होश आते ही उन्होंने पानी मांगा. भाईसाहब ने उन्हें थोड़ा पानी पिलाया. तब तक दीदी भी बीकानेर से आ चुकी थीं. दीदी आते ही रोने लगीं तो हम ने उन्हें मां के सफल औपरेशन के बारे में बताया. जान कर दीदी भी शांत हो गईं. अगले दिन सुबह मां को आईसीयू से वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. उन्हें हलका खाना जैसे खिचड़ी, दलिया, चायदूध देने की इजाजत दी गई थी.

3 दिनों तक तो उन्हें औपरेशन कहां हुआ है, यह पता ही नहीं चला, लेकिन जैसे ही पता चला वे बहुत दुखी हुईं और रोने लगीं. तब मैं ने उन्हें बताया, ‘‘मम्मीजी, अब चिंता की कोई बात नहीं है. एक संकट अचानक आया था और अब टल चुका है. अब आप एकदम स्वस्थ हैं.’’ 10 दिनों तक हम सभी हौस्पिटल के चक्कर लगाते रहे. मम्मीजी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई तो फिर घर आ गए. घर पहुंच कर हम सभी ने राहत की सांस ली. भाईसाहब और दीदी को हम ने रवाना कर दिया. मां भी तब तक थोड़ा सहज हो गई थीं. अब उन्हें कैंसर के बारे में पता चल चुका था और वे समझ चुकी थीं कि औपरेशन ही इस का इलाज है.

एक महीने में उन के टांके सूख गए थे और हम ने हौस्पिटल जा कर उन के टांके कटवाए, क्योंकि वे एक मोटे लोहे के तार से बंधे थे. डाक्टर ने मम्मीजी का हौसला बढ़ाया तथा उन्हें बताया कि अब आप बिलकुल ठीक हैं. आप ने इस बीमारी का पहला पड़ाव सफलतापूर्वक पार कर लिया है. पहले पड़ाव की बात सुन कर हम सभी चौंक गए. ‘‘डाक्टर ये आप क्या कह रहे हैं?’’ राजेश ने जब डाक्टर से पूछा तो उन्होंने बताया कि आप की माताजी का औपरेशन तो अच्छी तरह हो गया है, लेकिन भविष्य में यह बीमारी फिर से उभर कर सामने न आए, इसलिए हमें दूसरे चरण को भी पार करना होगा और वह दूसरा चरण है, कीमोथेरैपी?

‘‘कीमोथेरैपी,’’ हम ने आश्चर्य जताया. डाक्टर ने बताया कि कैंसर अभी शुरुआती दौर में ही है. यह यहीं समाप्त हो जाए, इस के लिए हमें कीमोथेरैपी देनी होगी. कैंसर के कीटाणु के विकास की थोड़ीबहुत आशंका भी अगर हो तो उसे कीमोथेरैपी से खत्म कर दिया जाएगा. डाक्टर ने बताया कि आप की माताजी के टांके अब सूख चुके हैं. सो, ये कीमोथेरैपी के लिए बिलकुल तैयार हैं. अब आप इन्हें कीमोथेरैपी दिलाने के लिए 4 दिनों बाद यहां ले आएं तो ठीक रहेगा. पता चला, मां को कीमोथेरैपी दी जाएगी.

कैंसर में दी जाने वाली यह सब से जरूरी थेरैपी है. 4 दिनों बाद मैं और राजेश मां को ले कर हौस्पिटल पहुंचे. 9 बजे से कीमोथेरैपी देनी शुरू कर दी गई. थेरैपी से पहले मां को 3 दवाइयां दी गईं ताकि थेरैपी के दौरान उन्हें उलटियां न हों. 2 बोतल ग्लूकोज की पहले, फिर कैंसर से बचाव की वह लाल रंग की बड़ी बोतल और उस के बाद फिर से 3 बोतल ग्लूकोज की तथा एक और छोटी बोतल किसी और दवाई की ड्रिप द्वारा मां को चढ़ाई जा रही थीं. धीरेधीरे दी जाने वाली इस पहली थेरैपी के खत्म होतेहोते शाम के 7 बज चुके थे. मैं अकेली मां के पास बैठी थी. शाम को औफिस से राजेश सीधे हौस्पिटल ही आ गए थे.

रात को 8 बजे हम तीनों घर पहुंचे. थेरैपी की वजह से मम्मीजी का सिर चकरा रहा था. हलका खाना खा कर वे सो गईं. अब अगली थेरैपी उन्हें 21 दिनों के बाद दी जानी थी. पहली थेरैपी के बाद ही उन के घने लंबे बाल पूरी तरह झड़ गए. यह देख कर हम सभी काफी दुखी हुए. बाल झड़ने के कारण मां पूरे समय अपने सिर को स्कार्फ से ढक कर रखती थीं. कई बार मां इस दौरान कहतीं, ‘‘कैंसर के औपरेशन में इतनी तकलीफ नहीं हुई जितनी इस थेरैपी से हो रही है.’’

मैं उन को ढाढ़स बंधाती, ‘‘मम्मीजी, आप चिंता मत करो, यह तो पहली थेरैपी है न, इसलिए आप को ज्यादा तकलीफ हो रही है. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’ थेरैपी के प्रभाव के फलस्वरूप उन की जीभ पर छाले उभर आए. पानी पीने के अलावा कोई चीज वे सहज रूप से नहीं खापी पाती थीं. यह देख कर हम सभी को बहुत कष्ट होता था. उन के लिए बिना मिर्च, नमक का दलिया, खिचड़ी बनाने लगी, ताकि वे कुछ तो खा सकें. फलों का जूस भी थोड़ाथोड़ा देती रहती थी ताकि उन को कुछ राहत मिले. इस तरह 21-21 दिन के अंतराल में उन की सभी 6 थेरैपी पूरी हुईं.

हालांकि ये थेरैपी मम्मीजी के लिए बहुत कष्टकारी थीं लेकिन हम सभी यही सोचते थे कि स्वास्थ्य की तरफ मां का यह दूसरा चरण भी सफलतापूर्वक संपन्न हो जाए, तो अच्छा है. जिस दिन अंतिम थेरैपी पूरी हुई तो मां के साथ मैं ने और राजेश ने भी राहत की सांस ली. जब डाक्टर से मिलने उन के कैबिन में गए तो खुश होते हुए डाक्टर ने हमें बधाई दी, ‘‘अब आप की माताजी बिलकुल स्वस्थ हैं. बस, वे अपने खानेपीने का ध्यान रखें. पौष्टिक भोजन, फल, सलाद और जूस लेती रहें. सामान्य व्यायाम, वाकिंग करती रहें, तो अच्छा होगा.’’ इस के साथ ही डाक्टर ने हमें यह हिदायत विशेषरूप से दी कि जिस स्तन का औपरेशन हुआ है उस तरफ के हाथ पर किसी तरह का कोई कट नहीं लगने पाए. डाक्टर से सारी हिदायतें और जानकारी ले कर हम घर आ गए. अब हर 6 महीने के अंतराल में मां की पूरी जांच करवाते रहना जरूरी था ताकि उन का स्वास्थ्य ठीक रहे और भविष्य में इस तरह की कोई परेशानी सामने न आए. एक महीने आराम के बाद मम्मीजी वापस बीकानेर लौट गई थीं.

6 साल हो गए हैं. अब तो डाक्टर ने जांच भी साल में एक बार कराने के लिए कह दिया. मम्मीजी का जीवन दोबारा उसी रफ्तार और क्रियाशीलता के साथ शुरू हो गया. आज मम्मीजी अपने स्कूल और महल्ले में सब की प्रेरणास्रोत हैं. आज वे पहले से भी अधिक ऐक्टिव हो गई हैं. अब वे 2 स्तरों पर अध्यापन करवाती हैं- एक अपने स्कूल में और दूसरे कैंसर के प्रति सभी को जागरूक व सजग रहने के लिए प्रेरित करती हैं. उन्हें स्वस्थ और प्रसन्न देख कर मेरे साथ पूरा परिवार और रिश्तेदार सभी फिर से उन के स्नेह की छत्रछाया में खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं.

औक्टोपस कैद में : औरतों का शिकारी नेता

ज्यों ही वंदना से उस का सामना हुआ, वह अपना आपा खो बैठी. उस ने वंदना को धिक्कारते हुए कहा, ‘‘तुम ने तो अपनी इमेज खराब कर ली, लेकिन तुम ने मेरे बारे में यह कैसे सोच लिया कि मैं भी तुम्हारे रास्ते चल पडूंगी.’’

‘‘क्यों… क्या हो गया?’’ वंदना ने ऐसे पूछा, जैसे वह कुछ जानती ही न हो.

‘‘वही हुआ, जो तुम ने सोचा था. मैं भी तुम्हारी तरह लालची और डरपोक होती तो शायद बच कर नहीं निकल पाती…’’ सुभांगी ने अपनी उफनती सांसों पर काबू पाते हुए कहा.

वंदना समझ गई कि सुभांगी उस की सचाई को जान गई है. उस ने पैतरा बदलते हुए कहा, ‘‘देखो सुभांगी, अगर तुम को आगे बढ़ना है, तो कई जगह समझौते करने पड़ेंगे. फिर क्या हर्ज है कि किसी एक पहुंच वाले आदमी के आगे  झुक लिया जाए. मुझे देखो, आज मैं मंत्रीजी की वजह से ही इस मुकाम तक पहुंची हूं…’’

वंदना मंत्री से अपने संबंधों के चलते ही ब्लौक प्रमुख बनी थी. पहली बार जब वह आंगनबाड़ी में नौकरी करने की गरज से मंत्री के पास गई थी, तो उस का सामना एक भयंकर दुर्घटना से हुआ था.

उस की मजबूरी को भुनाते हुए मंत्री ने भरी दोपहरी में उस की इज्जत लूटी थी. एक बार तो उस को ऐसा सदमा लगा कि खुदकुशी का विचार उस के मन में आ गया था, लेकिन मंत्री ने उस के गालों को सहलाते हुए कहा था, ‘नौकरी कर के क्या करोगी… मुझे कभीकभार यों ही खुश कर दिया करो. बदले में मैं तुम्हें वह पहचान और पैसा दिलवा दूंगा, जिस की तुम ने कभी कल्पना भी न की हो.’

उस समय वंदना भी मंत्री के मुंह पर थूक कर भाग आई थी, लेकिन घर पहुंचने पर उस के मन में कई तरह के खयाल आए थे. कभी उस को लगता था कि फौरन जा कर पुलिस को सूचित करे और मंत्री के खिलाफ जंग का बिगुल बजा दे, लेकिन अगले ही पल उसे लगा कि मंत्री के खिलाफ लड़ने का अंजाम आखिरकार उस को ही भुगतना पड़ेगा.

जिन दिनों वंदना मंत्री के कारनामे से आहत हो कर घर में गुमसुम बैठी थी, उन्हीं दिनों उस की मुलाकात अर्चना से हुई थी. अर्चना कहने को तो टीचर थी, लेकिन उस के कारनामे बस्ती में काफी मशहूर थे.

अर्चना ने वंदना को सम झाया था, ‘औरत को तो हर जगह  झुकना ही होता है बहन. कुछ लोग मजे ले कर चले जाते हैं और कुछ एहसान का बदला चुकाते हैं. मंत्रीजी ने जो किया, वह बेशक गलत था, लेकिन अब वे अपने किए का मुआवजा भी तो तुम को दे रहे हैं. झगड़ा मोल लोगी तो पछताओगी और अगर समझौता करोगी, तो आगे बढ़ती चली जाओगी.’

अर्चना ने वंदना को इतने हसीन सपने दिखाए थे कि उस से मना करते हुए नहीं बना. उस के साथ वह राजधानी पहुंची और कई दिनों तक मंत्री के लिए मनोरंजन का साधन बनी रही.

अब वंदना को पता चला कि मंत्री की एक रखैल अर्चना भी है. अर्चना की सेवा से खुश हो कर मंत्री ने उसे उसी स्कूल का प्रिंसिपल बना दिया, जिस में कभी मंत्री की मेहरबानी से वह टीचर बनी थी.

वंदना सत्ता के सपनीले गलियारों में कुछ यों उल झी कि उस को अपने पति से खिलाफत करते हुए भी  झिझक नहीं हुई.

मंत्री के कारनामों से उस के पति अनजान नहीं थे. नौकरी के सिलसिले में वे अकसर घर से बाहर ही रहते थे, लेकिन अपनी बीवी की हर चाल से वे वाकिफ थे. पानी जब सिर से ऊपर गुजरने लगा, तो उन्होंने वंदना को रोकने की कोशिश की.

बच्चों का हवाला देते हुए उन्होंने वंदना से कहा था, ‘तुम 2 बच्चों की मां हो. बच्चों की पढ़ाई और परवरिश के लिए मैं जो कमाता हूं, वह काफी है. इज्जत की कमाई थोड़ी ही सही, लेकिन अच्छी लगती है.

‘‘ईमान और इज्जत बेच कर कोई लाखों रुपए भी कमा ले, तो दुनिया की थूथू से बच नहीं सकता. अभी देर नहीं हुई, मैं तुम्हारे अब तक के सारे गुनाह माफ करने को तैयार हूं, बशर्ते तुम इस गलत रास्ते से वापस लौट आओ…’

वंदना अब इतनी आगे बढ़ चुकी थी कि उस का किसी से कोई वास्ता नहीं रहा था. उस ने पति को दोटूक शब्दों में कह दिया था, ‘मैं जिंदगीभर तुम्हारी दासी बन कर नहीं रह सकती. अब तक मैं ने जो चुपचाप सहा, वह मेरी भूल थी. अब मुझे अपने रास्ते चलने दो.’

यह सुन कर वंदना का पति चुप हो गया था. उस को लगा कि वंदना को रोकना अब खतरनाक हो सकता है. उस की वजह से घर में क्लेश बढ़ सकता था. उस ने दोनों बच्चों को अपने साथ ले जाने का फैसला किया और वंदना को उसी के हाल पर छोड़ दिया.

वंदना ने भी पति के फैसले में कोई दखल नहीं दिया. अब उस के ऊपर बच्चों की देखरेख करने का जिम्मा भी नहीं रहा.

तमाम जिम्मेदारियों से छूट कर वंदना अब मंत्री की सेवा में खुद को पूरी तरह सौंप चुकी थी. बाहुबली मंत्री ने पंचायत चुनावों में अपने आपराधिक संपर्कों का इस्तेमाल कर वंदना को ब्लौक प्रमुख बना दिया. मंत्री से अपने संबंधों को उस ने जम कर भुनाया.

वंदना अपने दबदबे का इस्तेमाल जनता की भलाई के लिए करती तो लोगों का समर्थन हासिल करती, लेकिन लालच में अंधी हो कर उस ने मंत्री के दलाल की भूमिका निभानी शुरू कर दी.

अफसरों से पैसा वसूलना और अपने गुरगों को ठेके दिलवाने के अलावा अब वह आसपास के गांवों की भोलीभाली लड़कियों को नौकरी का लालच दे कर अपने आका के बैडरूम तक पहुंचाने लगी थी.

सुभांगी उस इलाके में अपनी स्वयंसेवी संस्था चलाती थी. वह पढ़ीलिखी और जु झारू थी. अपनी संस्था के जरीए वह औरतों और बच्चों को पढ़ाने की मुहिम चला रही थी.

वंदना और सुभांगी की मुलाकात एक सरकारी कार्यक्रम में हुई. शातिर वंदना की नजर सुभांगी पर लग चुकी थी. उस ने सुभांगी से दोस्ती बढ़ानी शुरू कर दी.

एक दिन मौका पा कर वंदना ने सुभांगी से पूछा, ‘तुम इतनी मेहनत करती हो. चंदा जुटा कर औरतों और बच्चों को पढ़ाती हो. ऐसे कामों के लिए सरकार अनुदान देती है. तुम खुद क्यों नहीं इस दिशा में कोशिश करती?’

‘सरकारी मदद लेने के लिए तो आंकड़े चाहिए और मेरी समस्या यह है कि मैं जमीन पर रह कर यह काम करती हूं, लेकिन फर्जी आंकड़े नहीं जुटा सकती…’ सुभांगी ने जवाब दिया.

‘तुम को फर्जी आंकड़े जुटाने की क्या जरूरत है? तुम्हारे पास तो ढेर सारे आंकड़े पहले से ही मौजूद हैं. तुम कहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं. इस इलाके के विधायक सरकार में मंत्री हैं और उन से मेरे अच्छे ताल्लुकात हैं,’ वंदना ने अपना जाल बिछाते हुए कहा.

सुभांगी को वंदना के असली कारनामों की जानकारी नहीं थी. वह उस की बातों में आ गई. उस ने सोचा कि चंदा वसूल कर अगर वह इतनी बड़ी मुहिम चला सकती है, तो सरकारी मदद मिलने पर इस को और भी सही ढंग से चला सकेगी.

उस शाम वंदना सुभांगी को ले कर मंत्री के घर पहुंची. उस का परिचय कराने के बाद वह तो कमरे से बाहर आ गई, लेकिन सुभांगी को वहीं छोड़ गई.

सुभांगी ने मंत्री की तरफ अपनी फाइल बढ़ाते हुए कहा, ‘इस में मेरे अब तक के काम का पूरा ब्योरा है. काम तो मैं यों भी कर ही रही हूं, लेकिन सरकार मदद दे दे तो मैं और भी बेहतर काम कर पाऊंगी.’

‘चिंता न करो, हम तुम को अच्छा अनुदान देंगे…’ मंत्री के मुंह से शराब की बदबू का भभका आया, तो सुभांगी के कान खड़े हो गए. वह फौरन कुरसी से उठी और बोली, ‘आप मेरी फाइल देख लीजिए… अभी मैं चलती हूं.’

सुभांगी दरवाजे की ओर मुड़ी ही थी कि नशे में धुत्त मंत्री ने उस को पीछे से दबोचते हुए कहा, ‘फाइल से पहले मैं तुम को तो देख लूं मेरी रानी…’

मंत्री ने सुभांगी को अपनी बांहों में मजबूती से जकड़ लिया. सुभांगी उस की गिरफ्त से बचने के लिए ऐसे छटपटाने लगी, जैसे कोई मजबूर मछली औक्टोपस की कैद से निकलने के लिए छटपटाती है.

देर तक सुभांगी मंत्री के चंगुल से निकलने के लिए छटपटाती रही और जब उस की ताकत जवाब दे गई, तो वह निढाल हो कर फर्श पर गिर पड़ी.

इस से पहले कि वह खूंख्वार शैतान उस की देह पर बिछता, उस ने चालाकी से अपने जूड़े में फंसी पिन मंत्री के मोटे गाल में घोंप दी. मंत्री की चीख निकल गई और वह एक किनारे हो गया. इस बीच सुभांगी बच कर भाग निकली.

मंत्री के कमरे से निकलते ही सुभांगी का सामना वंदना से हुआ. वह वंदना की सचाई समझ चुकी थी. उस को डपट कर वह पुलिस थाने पहुंची.

एक जवान लड़की को यों बदहवास भागते देख कर लोग सकते में आ गए. मीडिया को भी खबर लग गई. देखते ही देखते थाने में भीड़ जुट गई. दबाव में आ कर पुलिस ने न चाहते हुए भी रिपोर्ट दर्ज कर ली.

अगले दिन मंत्री के कारनामों की खबरें अखबारों में हैडलाइन बन कर छपीं. विपक्षी पार्टियों के दबाव में आ कर मंत्री को गिरफ्तार किया गया.

पुलिस जांच में पता चला कि सुभांगी के अलावा मंत्री ने कई मजबूर लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाया और इस की सूत्रधार थी वंदना. वंदना को भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.

आज वंदना जेल की कोठरी में कैद है. उस की सारी इच्छाएं खत्म हो चुकी हैं. अब उस को अपना अतीत याद आता है, जब उस के पति ने उस को बारबार सम झाया था कि गलत रास्ता छोड़ दे, लेकिन उस समय उस की आंखों पर पट्टी बंधी थी. वह खुद को सबकुछ समझ बैठी थी. सुभांगी की तरह उस ने भी हिम्मत कर मंत्री को सबक सिखाया होता, तो आज यह दिन न देखना पड़ता.

वंदना अब घुटघुट कर जी रही है. उस के पास अपनी करनी पर पछतावा करने के अलावा कोई और चारा नहीं है. उस को अब अपने बच्चों की याद सताती है. पति से अपने गुनाहों के लिए माफी मांगने के लिए वह छटपटाती रहती है, लेकिन उस का कोई अपना उस से मिलने को तैयार नहीं है.

दूसरी तरफ सुभांगी के हिम्मत की चारों ओर तारीफ हो रही है. राजधानी के नागरिक सुरक्षा मंच ने उस को सम्मानित ही नहीं किया, बल्कि अपनी महिला शाखा का प्रधान भी बना दिया.

आज सुभांगी को तमाम सम्मानों से उतनी खुशी नहीं मिलती, जितनी कि इस बात से कि उस के एक हिम्मती कारनामे ने उस दुष्ट औक्टोपस को कैद करवा दिया, जो सालों से मजबूर लड़कियों को जकड़ता चला आ रहा था.

उस को खुशी है तो इस बात की कि न तो उस ने वंदना और अर्चना की तरह समझौता किया और न ही उस ने हार मानी. उस ने हिम्मत से उस भयंकर औक्टोपस का सामना किया, जो तमाम मछलियों पर घात लगाए बैठा था.

खुशी का गम : पति ने किया खिलवाड़ – भाग 2

दिन गुजरने के साथ जैसेजैसे उस के व्यक्तित्व का यह पहलू मेरे सामने आ रहा था वैसेवैसे उस के प्रति मेरा मोहभंग होता जा रहा था. जहां वह मानसिक रूप से दिन पर दिन मेरे करीब आती जा रही थी, वहीं मैं जानबूझ कर अपने को उस से दूर करता जा रहा था, क्योंकि मैं जानता था कि उस के और मेरे रिश्ते का कोई भविष्य नहीं है. मुझे एहसास होता जा रहा था कि यदि हम ने शादी कर ली तो मैं उस के साथ कभी सुखी नहीं रह पाऊंगा. यह सोच कर मैं ने धीरेधीरे उस से मिलना कम कर दिया. लेकिन नेहा से मुझे पता चला कि मेरे इस रवैये से वह बहुत दुखी और परेशान रहने लगी थी, क्योंकि वह मुझ से भावनात्मक तौर पर जुड़ चुकी थी.

नेहा ने तो मुझे यह भी बताया कि अगर मैं खुशी से शादी नहीं करूंगा तो वह अपनी जान दे देगी, लेकिन किसी और लड़के से शादी नहीं करेगी. नेहा की इस बात से मैं परेशान हो गया था, और एक दिन खुशी को मैं ने अपने और उस के विरोधाभास के बारे में बताया कि हम दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर होने की वजह से वह कभी मेरे साथ सुखी नहीं रह पाएगी. इसलिए बेहतर यही होगा कि हम अपने रास्ते  अलग कर लें.

मेरी इस बात को सुन कर खुशी बहुत रोई थी और उस दिन घर जा कर उस ने अपने दोनों हाथों की नसें काट कर खुदकुशी करने का प्रयास किया था.

उस दिन खुशी के घर वालों को मेरी और खुशी की दोस्ती के बारे में पता चल गया. अगले ही दिन उस के घर वाले उस की और मेरी शादी का प्रस्ताव ले कर मेरे मातापिता से मिले थे.

नेहा ने मेरी और खुशी की दोस्ती के बारे में पहले ही मेरे मातापिता को सबकुछ बता दिया था, सो मेरे मातापिता ने मेरी राय बिना पूछे उस से मेरा रिश्ता पक्का कर दिया था. बाद में मैं ने अपने मातापिता से इस रिश्ते को तोड़ने की लाख मिन्नतेंकीं लेकिन उन्होंने मेरी बातों पर ध्यान नहीं दिया और आखिरकार मेरी शादी खुशी से हो गई.

विवाह के बाद खुशी ने मुझे वे सारी खुशियां दी थीं जिन की एक पति को अपने पत्नी से अपेक्षा होती है. शादी के बाद के पहले 2-3 वर्ष बहुत अच्छे बीते. वक्त के साथ मैं एक प्यारे से बेटे का पिता बन गया था. उस को गोद में उठा कर मैं बेपनाह खुशियों से भर जाता. उसे लाड़दुलार कर मुझे बहुत सुकून मिलता लेकिन लगभग 3 सालों के विवाहित जीवन के बाद हमारे दांपत्य जीवन में कुछ ठहराव सा आने लगा था. हमारे संबंधों में एकरसता और ऊब की शुष्कता पसरती जा रही थी.

मैं शुरू से ही रसिक स्वभाव का था. नईनई लड़कियों से दोस्ती करना मेरा प्रिय शगल था.

गुवाहाटी में मेरा काफी पुराना अच्छा- खासा साडि़यों का शोरूम था. मुझे व्यापार के लिए अधिक समय नहीं देना पड़ता था, पुराने कर्मचारी मेरी दुकान बहुत अच्छी तरह से संभाल रहे थे. गुवाहाटी के अलावा शिलांग में भी मेरा साडि़यों का एक बड़ा शोरूम था, सो मैं सप्ताह में एक बार शिलांग जरूर जाया करता था. वहां कई लड़कियां मेरी मित्र थीं. शिलांग में एक दोस्त के यहां मेरा परिचय फ्लोरेंस नाम की एक खासी जाति की लड़की से हुआ था. पहली ही नजर में वह लड़की मेरी निगाहों में चढ़ गई थी. उस से पहले मैं जितनी खासी लड़कियों के संपर्क में आया वे सब महज कागजी गुडि़याएं थीं, जिन के जीवन का उद्देश्य सिर्फ मौजमस्ती तथा सैरसपाटा हुआ करता था, लेकिन फ्लोरेंस बेहद जिंदादिल और बिंदास होने के साथसाथ मानसिक रूप से बहुत परिपक्व थी. वह कभी अर्थहीन बातें नहीं करती थी. उस का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था.

एक दिन बातों ही बातों में फ्लोरेंस ने मुझे बताया कि वह एक अच्छी नौकरी की तलाश में है, क्योंकि वह कंपनी, जिस में वह काम कर रही थी, उस की शिलांग की शाखा बंद होने वाली थी.

फ्लोरेंस ने जैसे ही मुझे यह बताया मैं ने उसे अपने शिलांग वाले साड़ी के शोरूम में मैनेजर के पद पर रख लिया था. अब जैसेजैसे मैं उस के संपर्क में आ रहा था, मेरा उस के प्रति खिंचाव बढ़ता ही जा रहा था. दूसरी लड़कियां जहां मेरी अमीरी और आकर्षक व्यक्तित्व की वजह से मेरे आसपास तितलियों की तरह मंडराया करती थीं वहीं फ्लोरेंस मुझ से पर्याप्त दूरी बनाए रखती, जिस की वजह से मैं उस की ओर शिद्दत से खिंचता जा रहा था.

इधर उस की ओर मेरे खिंचाव का एक कारण और था. फ्लोरेंस के नाम कई एकड़ जमीन थी. अगर मैं फ्लोरेंस से रिश्ता कायम कर लेता तो मैं उस की जमीन का मालिक बन जाता. सो जमीन के लालच में मैं उस से रिश्ता कायम करना चाहता था और एक दिन मुझे वह मौका मिल गया जिस की मुझे चाहत थी.

उस दिन फ्लोरेंस मेरे पास बहुत खराब मूड में आई और मेरे कुरेदने पर रो पड़ी. मुझ से बोली, ‘मेरे भाई बहुत जल्लाद हैं. हम खासियों में मां परिवार की मुखिया होती है. बेटियां वंश आगे चलाती हैं. बेटियों को ही मां की जमीनजायदाद मिलती है. मैं अपनी मां की इकलौती बेटी हूं. इसलिए मां की सारी जमीन मुझे मिली है. मेरे दोनों भाइयों की निगाहें मेरी जमीन पर उगने वाले फलों से होने वाली आमदनी पर गड़ी हुई हैं.

‘मैं तो नौकरी पर आ जाती हूं तो मेरे भाई ही खेतों में मजदूरों से काम करवाते हैं. खेती से होने वाली आमदनी पर अपना नियंत्रण रखने के लिए मेरे भाई मेरी शादी एक निकम्मे, नाकारा खासी आदमी से कराने पर जोर दे रहे हैं.’

उसे इस तरह रोते देख मैं ने उसे अपनी बांहों में भर लिया और उस से बोला, ‘अरे, मेरे होते हुए तुम क्यों चिंता करती हो? मैं तुम्हारे भाइयों से बातें करूंगा और उन्हें धमकाऊंगा. तुम बिलकुल भी मत डरो. मेरे होते हुए कोई तुम पर अपनी मरजी नहीं थोप सकेगा.’

यह कह कर मैं ने उसे चूमना शुरू कर दिया. तब फ्लोरेंस ने मेरे चंगुल से छूटने के लिए बहुत हाथपांव मारे लेकिन उस दिन मेरे ऊपर उस का नशा इस कदर हावी था कि मैं ने उस की एक न सुनी और आखिरकार कुछ प्यार और कुछ जोरजबरदस्ती करते हुए मैं ने उसे आत्मसमर्पण करने पर विवश कर दिया. उस दिन मैं ने महसूस किया कि मेरी इस जबरदस्ती से फ्लोरेंस बहुत अधिक नाराज नहीं थी. धीरेधीरे वह मुझे दिलोजान से चाहने लगी थी.

फ्लोरेंस के शोख बिंदास व्यक्तित्व के सामने खुशी का सीधासादा व्यक्तित्व मुझे नीरस लगने लगा था. फ्लोरेंस बातें करने में इतनी वाक्पटु थी कि मामूली बात को भी वजनदार और आकर्षक बना कर सामने रखती. मुझे उस से महज बातें करना बहुत अच्छा लगता था.

सफेद परदे के पीछे: भाग 2

एक बड़े से रसोईघर में कुछ महिलाएं आश्रम में मौजूद सभी लोगों के लिए खाना बनाने में जुटी थीं तो कुछ सेवादार जूठे बरतन मांज कर अपनेआप को धन्य महसूस कर रहे थे.

मिताली ने देखा कि वहां लोगों से किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं बरता जा रहा था. हर व्यक्ति को समान सुविधा उपलब्ध थी. शायद यही समभाव सब को जोड़े था और यही बाबा की लोकप्रियता का कारण था.

मिताली को दूर आश्रम के कोने में गुफा जैसा एक कमरा दिखाई दिया. सुमन ने बताया कि यह बाबा का विशेष कक्ष है. जब भी वे यहां आश्रम में आते हैं इसी कक्ष में ठहरते हैं… यहां किसी को भी जाने की अनुमति नहीं है.

सुमन के साथ होने के कारण उन दोनों को किसी ने नहीं टोका. मिताली और सुदीप ने पूरा आश्रम घूम कर देखा. घूमतेघूमते दोनों आश्रम के दूसरे कोने तक पहुंच गए. यहां घने पेड़ों के झुरमुट में घासफूस से बनी कलात्मक झोंपडि़यां बेहद आकर्षक लग रही थीं. जगह के एकांत का फायदा उठा कर सुदीप ने उसे चूम भी लिया था.

मिताली को आश्रम की व्यवस्था ने बहुत प्रभावित किया. उस ने आगे भी यहां आते रहने का मन बना लिया.

‘और कुछ न सही, सुदीप के साथ एकांत में कुछ लमहे साथ बिताने को मिल जाएंगे… शहर में तो लोगों के देखे जाने का भय हमेशा दिमाग पर हावी रहता है… आधा ध्यान तो इसी में बंट जाता है… प्यारमुहब्बत की बातें क्या खाक करते हैं…’ सोच मिताली का दिमाग आगे की योजनाओं को अमलीजामा पहनाने की कवायद में जुट गया. उस ने सुदीप को अपनी योजना के बारे में बताया.

‘‘यह आश्रम है कोई पिकनिक स्पौट नहीं कि जब जी चाहा टहलते हुए आ गए… देखा नहीं सुरक्षा व्यवस्था कितनी कड़ी थी…’’ सुदीप ने उस के प्रस्ताव को नकार दिया.

‘‘तुम ऐसा करो… सुमन भाभी के साथ बाबा के शिष्य बन जाओ… रोज न सही, कभीकभार तो आया ही जा सकता है… मिलने का मौका मिला तो ठीक वरना ताजा फलसब्जियां तो मिल ही जाएंगी…’’ मिताली ने उसे उकसाया.

बात सुदीप को भी जम गई और फिर एक दिन सुदीप विधिवत बाबा कृष्ण करीम का शिष्य बन गया.

मिताली और सुदीप कभी सुमन के साथ तो कभी अकेले ही आश्रम में

आने लगे. अकसर दोनों सब की नजरें बचा कर उन झोंपडि़यों की तरफ निकल जाया करते थे. कुछ देर एकांत में बिताने के बाद प्रफुल्लित से लौटते हुए फलसब्जियां खरीद ले जाते.

आश्रम में आनेजाने से उन्हें पता चला कि इस आश्रम की शाखाएं देश के हर बड़े शहर में फैली हैं. इतना ही नहीं, विदेशों में भी बाबा के अनुयायी हैं, जो उन्हें भगवान की तरह पूजते हैं. इन आश्रमों से कई अन्य तरह की सामाजिक गतिविधियां भी संचालित होती हैं. कई हौस्पिटल और स्कूल हैं जो आश्रम की कमाई से चलते हैं.

मिताली ने महसूस किया कि जितना वे बाबा के बारे में जान रहे थे उतना ही सुदीप का झुकाव उन की तरफ होने लगा था. अब उन की बातों का केंद्र भी अकसर बाबा ही हुआ करते थे.

मुख्य सेवादार ने उस की निष्ठा देखते हुए उसे आश्रम से जुड़ी कई महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंप दी थीं. इन सब का प्रभाव यह हुआ कि अब मिताली बेरोकटोक आश्रम के हर हिस्से में आनेजाने लगी थी.

देखते ही देखते उन का कालेज पूरा होने को आया. फाइनल ऐग्जाम का टाइमटेबल आ चुका था.

‘‘अब पढ़ाई में जुटना होगा… ऐग्जाम से पहले एक आखिरी बार आश्रम चलें?’’ मिताली ने अपनी बाईं आंख दबाते हुए इशारा किया.

‘‘हां कल चलते हैं… बाबा का आशीर्वाद भी तो लेना है,’’ सुदीप ने कहा.

‘‘हाउ अनरोमांटिक,’’ वह भुनभुनाई.

‘‘कल का दिन तुम्हारी जिंदगी का एक यादगार दिन होने वाला है,’’ सुदीप ने शरारत से मुसकराते हुए उस का गाल खींच दिया.

सफेद परदे के पीछे: भाग 1

‘‘देखीतुम ने अपने गुरू घंटाल की काली करतूतें? बाबा कृष्ण करीम… अरे, मुझे तो यह हमेशा ही योगी कम और भोगी ज्यादा लगता था… और लो, आज साबित भी हो गया… हर टीवी चैनल पर इस की रासलीला के चर्चे हो रहे हैं…’’ घर में घुसते ही देवेश ने पत्नी मिताली की तरफ कटाक्ष का तीर छोड़ा.

‘तुम्हें आज पता चला है… मैं तो वर्षों से यह राज जानती हूं… सिर्फ जानती ही नहीं, बल्कि भुक्तभोगी भी हूं…’ मन ही मन सोच कर मिताली को मितली सी आ गई. घिनौनी यादों के इस वमन में कितना सुकून था, यह देवेश महसूस नहीं कर पाया. उस ने फटाफट जूतेमोजे उतारे और टीवी औन कर के सोफे पर पसर गया.

‘‘एक और बाबा पर गिरी गाज… नाबालिग ने लगाया धार्मिक गुरु पर यौन दुराचार का आरोप… आरोपी फरार… पुलिस ने किया बाबा कृष्ण करीम का आश्रम सीज…’’ लगभग हर चैनल पर यही ब्रेकिंग न्यूज चल रही थी. रसोई में चाय बनाती मिताली के कान उधर ही लगे हुए थे. देवेश को चाय का प्याला थमा वह बिस्तर पर लेट गई.

आज मिताली अपनेआप को बेहद हलका महसूस कर रही थी. एक बड़ा बोझ जिसे वह पिछले कई सालों से अपने दिलोदिमाग पर ढो रही थी वह अनायास उतर गया था. अब उसे यकीनन उस भयावह फोन कौल से आजादी मिल जाएगी जो उस की रातों की नींद और दिन का चैन उड़ाए थी, जिस के चलते हर इनकमिंग फोन कौल पर उस का दिल उछल कर हलक में आ जाता था.

आंखें बंद होते ही मिताली की पलकों के पीछे एक दूसरी ही दुनिया सजीव हो उठी. चुपचाप से खड़े लमहे मिताली के इर्दगिर्द लिपट गए जैसे धुंध एकाएक आ कर पेड़ोंपहाड़ों से लिपट जाती है और वे वहां होते हुए भी अदृश्य हो जाते हैं. ठीक उसी तरह मिताली भी अपने आसपास की दुनिया से ओझल हो गई. परछाइयों की इस दुनिया में उस के साथ सुदीप है… बाबा का आश्रम… और सेवा के नाम पर जिस्म से होने वाला खिलवाड़ है…

सुदीप से उस की दोस्ती कालेज के समय से ही थी. इसे दोस्ती न कह कर प्यार कहें तो शायद ज्यादा उपयुक्त होगा. उन का कालेज शहर के बाहरी कोने पर था और कालेज से कुछ ही दूरी पर बाबा कृष्ण करीम का आश्रम था. हरेभरे पेड़ों से घिरा यह आश्रम देखने में बहुत ही रहस्यमय लगता था. दोनों अकसर एकांत की तलाश में उस तरफ निकल जाते थे. इस आश्रम का ऊंचा और भव्य मुख्यद्वार मिताली को सम्मोहित कर लेता था. वह इसे भीतर से देखना चाहती थी, लेकिन आश्रम में सिर्फ बाबा के भक्तों को ही प्रवेश की अनुमति थी.

मिताली अकसर सुदीप से अपने मन की बात कहती थी. एक दिन सुदीप ने उस से आश्रम के अंदर ले जाने का वादा किया जिसे बहुत जल्दी उस ने पूरा भी किया.

हुआ यों था कि रिश्ते में सुदीप की भाभी सुमन बाबा की भक्त थी और अकसर वहां आश्रम में सेवा के लिए जाती थी. उसी के साथ सुदीप मिताली को ले कर आश्रम गया.

आश्रम के दरवाजे पर सुरक्षा व्यवस्था बहुत सख्त थी. कई चरणों में जांच से गुजरने के बाद वे अब एक बड़े से चौगान में थे. मिताली हर तरफ आंखें फाड़फाड़ कर देख रही थी. आश्रम के बहुत बड़े भाग में ताजा सब्जियां लगी थीं. एक हिस्से में फलदार पेड़ भी थे. बहुत से भक्त जिन्हें सेवादार कहा जाता है, वहां निष्काम सेवा में जुटे थे. कुछ लोग सब्जियां तोड़ कर ला रहे थे और कुछ उन्हें तोलतोल कर वजन के अनुसार अलगअलग पैक कर रहे थे. कुछ लोग फलों को भी इसी तरह से पैक कर रहे थे. सुमन ने बताया कि ये फल और सब्जियां बाबा के भक्त ही प्रसादस्वरूप खरीद कर ले जाते हैं. सुमन स्वयं भी अपने घर के लिए फलसब्जियां यहीं से खरीद कर ले जाती है.

खुशी का गम : पति ने किया खिलवाड़ – भाग 1

Family Story in Hindi: मेरे बेटे आकाश की आज शादी है. घर मेहमानों से भरा पड़ा है. हर तरफ शादी की तैयारियां चल रही हैं. यद्यपि मैं इस घर का मुखिया हूं, लेकिन अपने ही घर में मेरी हैसियत सिर्फ एक मूकदर्शक की बन कर रह गई है. आज मेरे पास न पैसा है न परिवार में कोई प्रतिष्ठा. चूंकि घर के नौकरों से ले कर रिश्तेदारों तक को इस बात की जानकारी है, इसलिए सभी मुझ से बहुत रूखे ढंग से पेश आते हैं. बहुत अपमानजनक है यह सब लेकिन मैं क्या करूं? अपने ही घर में उस अपमानजनक स्थिति के लिए मैं खुद ही तो जिम्मेदार हूं. फिर मैं किसे दोष दूं? क्या खुशी, मेरी पत्नी इस के लिए जिम्मेदार है? अंदर से एक हूक  सी उठी. और इसी के साथ मन ने कहा, ‘उस ने तो तुम्हें पति का पूरा सम्मान दिया, पूरा आदर दिया, लेकिन तुम शायद उस के प्यार, उस के समर्पण के हकदार नहीं थे.’

खुशी एक बहुत कुशल गृहिणी है जिस ने कई सालों तक मुझे पत्नी का निश्छल प्यार और समर्पण दिया. पर मैं ही नादान था जो उस की अच्छाइयां कभी समझ नहीं पाया. मैं हमेशा उस की आलोचना करता रहा. उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित करता रहा. अपने प्रति उस के लगाव को हमेशा मैं ने ढोंग समझा.

मैं सारा जीवन मौजमस्ती करता रहा और वह मेरी ऐयाशियों को घुटघुट कर सहती रही, मेरे अपमान व अवमाननापूर्ण व्यवहार को सहती रही. वह एक सीधीसादी सुशील महिला थी और उस का संसार सिर्फ मैं और उस का बेटा आकाश थे. वह हम दोनों के चेहरों पर मुसकराहट देखने के लिए कुछ भी करने को हमेशा तैयार रहती थी लेकिन मैं अपने प्रति उस की उस अटूट चाहत को कभी समझ न पाया.

मैं कब विगत दिनों की खट्टीमीठी यादों की लहरों में बहता चला गया. मुझे पता भी नहीं चला था.

उन दिनों मैं कालिज में नयानया आया था. वरिष्ठ छात्र रैगिंग कर रहे थे. एक दिन मैं कालिज में अभी घुसा ही था कि एक दूध की तरह गोरी, अति आकर्षक नैननक्श वाली लड़की कुछ घबराई और परेशान सी मेरे पास आई और सकुचाते हुए मुझ से बोली, ‘आप बी.ए. प्रथम वर्ष में हैं न, मैं भी बी.ए. प्रथम वर्ष में हूं. वह जो सामने छात्रों का झुंड बैठा है, उन लोगों ने मुझ से कहा है कि मैं आप का हाथ थामे इस मैदान का चक्कर लगाऊं. अब वे सीनियर हैं, उन की बात नहीं मानी तो नाहक मुझे परेशान करेंगे.’

‘हां, हां, मेरा हाथ आप शौक से थामिए, चाहें तो जिंदगी भर थामे रहिए. बंदे को कोई परेशानी नहीं होगी. तो चलें, चक्कर लगाएं.’

मेरी इस चुटकी पर शर्म से सिंदूरी होते उस कोमल चेहरे को मैं देखता रह गया था. मैं अब तक कई लड़कियों के संपर्क में आ चुका था लेकिन इतनी शर्माती, सकुचाती सुंदरता की प्रतिमूर्ति को मैं ने पहली बार इतने करीब से देखा था.

उस के मुलायम हाथ को थामे मैं ने पूरे मैदान का चक्कर लगाया था और फिर ताली बजाते छात्रों के दल के सामने आ कर मैं ने उस का कांपता हाथ छोड़ दिया था कि तभी उस ने नजरें जमीन में गड़ा कर मुझ से कहा था, ‘आई लव यू’, और यह कहते ही वह सुबकसुबक कर रो पड़ी थी और मैं मुसकराता हुआ उसे छोड़ कर क्लास में चला गया था.

बाद में मुझे पता चला था कि उस सुंदर लड़की का नाम खुशी था और वह एक प्रतिष्ठित धनाढ्य परिवार की लड़की थी. उस दिन के बाद जब कभी भी मेरा उस से सामना होता, मुझ से नजरें मिलते ही वह घबरा कर अपनी पलकें झुका लेती और मेरे सामने से हट जाती. उस की इस अदा ने मुझे उस का दीवाना बना दिया था. मैं क्लास में कोशिश करता कि उस के ठीक सामने बैठूं. मैं उस का परिचय पाने और दोस्ती करने के लिए बेताब हो उठा था.

मेरे चाचाजी की लड़की नेहा, जो मेरी ही क्लास में थी, वह खुशी की बहुत अच्छी सहेली थी. मैं ने नेहा के सामने खुशी से दोस्ती करने की इच्छा जाहिर की और नेहा ने एक दिन मुझ से उस की दोस्ती करा दी थी. धीरेधीरे हमारी दोस्ती बढ़ गई और खुशी मेरे बहुत करीब आ गई थी.

मैं जैसेजैसे खुशी के करीब आता जा रहा था, वैसेवैसे मुझे निराशा हाथ लगती जा रही थी. मैं स्वभाव से बेहद बातूनी, जिंदादिल, मस्तमौला किस्म का युवक था लेकिन खुशी अपने नाम के विपरीत एक बेहद भावुक किस्म की गंभीर लड़की थी.

कुछ ही समय में वह मेरे बहुत करीब आ चुकी थी और मैं उस की जिंदगी का आधारस्तंभ बन गया था, लेकिन मैं उस के नीरस स्वभाव से ऊबने लगा था. वह मितभाषी थी, जब भी मेरे पास रहती, होंठ सिले रहती. जहां मैं हर वक्त खुल कर हंसता रहता था, वहीं वह हर वक्त गंभीरता का आवरण ओढे़ रहती.

प्यार अपने से: जब प्यार ने तोड़ी मर्यादा- भाग 1

झारखंड राज्य का एक शहर है हजारीबाग. यह कुदरत की गोद में बसा छोटा सा, पर बहुत खूबसूरत शहर है. पहाड़ियों से घिरा, हरेभरे घने जंगल, झील, कोयले की खानें इस की खासीयत हैं. हजारीबाग के पास ही में डैम और नैशनल पार्क भी हैं. यह शहर अभी हाल में ही रेल मार्ग से जुड़ा है, पर अभी भी नाम के लिए 1-2 ट्रेनें ही इस लाइन पर चलती हैं. शायद इसी वजह से इस शहर ने अपने कुदरती खूबसूरती बरकरार रखी है.

सोमेन हजारीबाग में फौरैस्ट अफसर थे. उन दिनों हजारीबाग में उतनी सुविधाएं नहीं थीं, इसलिए उन की बीवी संध्या अपने मायके कोलकाता में ही रहती थी.

दरअसल, शादी के बाद कुछ महीनों तक वे दोनों फौरैस्ट अफसर के शानदार बंगले में रहते थे. जब संध्या मां बनने वाली थी, सोमेन ने उसे कोलकाता भेज दिया था. उन्हें एक बेटी हुई थी. वह बहुत खूबसूरत थी, रिया नाम था उस का. सोमेन हजारीबाग में अकेले रहते थे. बीचबीच में वे कोलकाता जाते रहते थे.

हजारीबाग के बंगले के आउट हाउस में एक आदिवासी जोड़ा रहता था. लक्ष्मी सोमेन के घर का सारा काम करती थी. उन का खाना भी वही बनाती थी. उस का मर्द फूलन निकम्मा था. वह बंगले की बागबानी करता था और सारा दिन हंडि़या पी कर नशे में पड़ा रहता था.

एक दिन दोपहर बाद लक्ष्मी काम करने आई थी. वह रोज शाम तक सारा काम खत्म कर के रात को खाना टेबल पर सजा कर चली जाती थी.

उस दिन मौसम बहुत खराब था. घने बादल छाए हुए थे. मूसलाधार बारिश हो रही थी. दिन में ही रात जैसा अंधेरा हो गया था.

अपने आउट हाउस में बंगले तक दौड़ कर आने में ही लक्ष्मी भीग गई थी. सोमेन ने दरवाजा खोला. उस की गीली साड़ी और ब्लाउज के अंदर से उस के सुडौल उभार साफ दिख रहे थे.

सोमेन ने लक्ष्मी को एक पुराना तौलिया दे कर बदन सुखाने को कहा, फिर उसे बैडरूम में ही चाय लाने को कहा. बिजली तो गुल थी. उन्होंने लैंप जला रखा था.

थोड़ी देर में लक्ष्मी चाय ले कर आई. चाय टेबल पर रखने के लिए जब वह झुकी, तो उस का पल्लू सरक कर नीचे जा गिरा और उस के उभार और उजागर हो गए.

सोमेन की सांसें तेज हो गईं और उन्हें लगा कि कनपटी गरम हो रही है. लक्ष्मी अपना पल्लू संभाल चुकी थी. फिर भी सोमेन उसे लगातार देखे जा रहे थे.

यों देखे जाने से लक्ष्मी को लगा कि जैसे उस के कपड़े उतारे जा रहे हैं. इतने में सोमेन की ताकतवर बाजुओं ने उस की कमर को अपनी गिरफ्त में लेते हुए अपनी ओर खींचा.

लक्ष्मी भी रोमांचित हो उठी. उसे मरियल पियक्कड़ पति से ऐसा मजा नहीं मिला था. उस ने कोई विरोध नहीं किया और दोनों एकदूसरे में खो गए.

इस घटना के कुछ महीने बाद सोमेन ने अपनी पत्नी और बेटी रिया को रांची बुला लिया. हजारीबाग से रांची अपनी गाड़ी से 2 ढाई घंटे में पहुंच जाते हैं.

सोमेन ने उन के लिए रांची में एक फ्लैट ले रखा था. उन के प्रमोशन की बात चल रही थी. प्रमोशन के बाद उन का ट्रांसफर रांची भी हो सकता है, ऐसा संकेत उन्हें डिपार्टमैंट से मिल चुका था.

इधर लक्ष्मी भी पेट से हो गई थी. इस के पहले उसे कोई औलाद न थी. लक्ष्मी के एक बेटा हुआ. नाकनक्श से तो साधारण ही था, पर रंग उस का गोरा था. आमतौर पर आदिवासियों के बच्चे ऐसे नहीं होते हैं.

अभी तक सोमेन हजारीबाग में ही थे. वे मन ही मन यह सोचते थे कि कहीं यह बेटा उन्हीं का तो नहीं है. उन्हें पता था कि लक्ष्मी की शादी हुए 6 साल हो चुके थे, पर वह पहली बार मां बनी थी.

सोमेन को तकरीबन डेढ़ साल बाद प्रमोशन और ट्रांसफर और्डर मिला. तब तक लक्ष्मी का बेटा गोपाल भी डेढ़ साल का हो चुका था.

आलिया: आलिया को क्यों पसंद थी तन्हाई

अगर कोई कुछ सीखना चाहता है तो वह इन्हीं अच्छेबुरे लोगों के बीच रह कर ही सीख सकता है. अगर कोई आगे बढ़ना चाहता है तो उसे इन्हीं लोगों के साथ ही आगे चलना होगा.

लेकिन उन लोगों का क्या, जिन्होंने यह दुनिया जी ही नहीं? ऐसे लोग जो अपने ख्वाबों में अपनी एक अलग दुनिया जीते हैं. वे किताबों, घर के बनाए उसूलों और टैलीविजन देख कर ही पूरी जिंदगी गुजार देते हैं.

ऐसे ही लोगों में से एक है आलिया. वह 12वीं क्लास में पढ़ती है. देखने में होशियार लगती है. और है भी, लेकिन उस ने अपना दिमाग सिर्फ किताब के कुछ पन्नों तक ही सिमटा रखा है. 12वीं क्लास में होने के बावजूद उस ने आज तक बाजार से अपनेआप एक पैन नहीं खरीदा है. वह छोटे बच्चों की तरह लंच बौक्स ले कर स्कूल जाती है और अपने पास 100 रुपए से ज्यादा जेबखर्च नहीं रखती है.

आलिया के पास आर्ट स्ट्रीम है और स्कूल में उस की एक ही दोस्त है हिना, जो साइंस स्ट्रीम में पढ़ती है. दोनों का एक सब्जैक्ट कौमन है, इसलिए वे दोनों उस एक सब्जैक्ट की क्लास में मिलती हैं और लंच बे्रक साथ ही गुजारती हैं.

आलिया को लगता है कि अगर कोई बच्चा 100 रुपए से ज्यादा स्कूल में लाता है तो वह बिगड़ा हुआ है. पार्टी करना, गपें मारना और किसी की खिंचाई करना गुनाह के बराबर है.

अगर कोई लड़की स्कूल में बाल खोल कर और मोटा काजल लगा कर आती है और लड़कों से बिंदास बात करती है तो वह उस के लिए बहुत मौडर्न है.

सच तो यह है कि आलिया बनना तो उन के जैसा ही चाहती है, पर चाह कर भी ऐसा बन ही नहीं पाती है. क्लास के आधे से ज्यादा बच्चों से उस ने आज तक बात नहीं की है.

एक बार रोहन ने आलिया से पूछा, ‘‘आलिया, क्या तुम हमारे साथ पार्टी में चलोगी? श्वेता अपने फार्महाउस पर पार्टी दे रही है.’’

आलिया का मन तो हुआ जाने का, पर उसे यह सब ठीक नहीं लगा. उस ने सोचा कि इतनी दूर फार्महाउस पर वह अकेली कैसे जाएगी.

‘‘नहीं, मैं नहीं आऊंगी. वह जगह बहुत दूर है,’’ आलिया बोली.

‘‘तो क्या हुआ. हम तुम्हें अपने साथ ले लेंगे. तुम कहां रहती हो, हमें जगह बता दो,’’ श्वेता ने भी साथ चलने के लिए कहा.

‘‘नहीं, मैं वहां नहीं जा पाऊंगी,’’ आलिया ने साफ लहजे में कहा.

‘‘बाय आलिया,’’ छुट्टी के वक्त रोहन ने आलिया से कहा.

आलिया सोचने लगी कि आज वह इतनी बातें क्यों कर रही है. वह रोहन की बात को अनसुना करते हुए आगे निकल गई.

रोहन को लगा कि वह बहुत घमंडी है. इस के बाद उस ने कभी आलिया से बात नहीं की.

अगले दिन आलिया को लंच ब्रेक में हिना मिली. अरे, हिना के बारे में तो बताया ही नहीं. वह आलिया की तरह भीगी बिल्ली नहीं है, बल्कि बहुत बिंदास और मस्त लड़की है. लेकिन अलग मिजाज होने के बावजूद दोस्ती हो ही जाती है. हिना की भी अपनी क्लास में ज्यादा किसी से बनती नहीं थी. इसी वजह से वे दोनों दोस्त बन गईं.

हिना को आलिया इसलिए पसंद थी, क्योंकि वह ज्यादा फालतू बात नहीं करती थी और कभी भी हिना की बात नहीं काटती थी. आलिया को कभी पता ही नहीं चलता था कि कौन किस तरह की बात कर रहा है.

बचपन से ले कर स्कूल के आखिरी साल तक आलिया सिर्फ स्कूल पढ़ने जाती है. बाकी बच्चे कैसे रहते हैं और कैसे पढ़ते हैं, इस पर उस ने कभी ध्यान ही नहीं दिया. अपनी 17 साल की जिंदगी में वह इतना कम बोली है कि शायद बात करना ही भूल गई है. उस की जिंदगी के बारे में जितना बताओ, उस से कहीं ज्यादा अजीब है.

हां, तो हम कहां थे. अगले दिन आलिया लंच ब्रेक में हिना से मिली और रोहन के बारे में बताया.

‘‘आलिया, सिर्फ ‘बाय’ कहने से कोई तुम्हें खा नहीं जाएगा. अगर बच्चे पार्टी नहीं करेंगे, तो क्या 80 साल के बूढ़े करेंगे. वैसे, कर तो वे भी सकते हैं, पर इस उम्र में पार्टी करने का ज्यादा मजा है. स्कूल में हम सब पढ़ने आते हैं, पर यों अकेले तो नहीं रह सकते हैं न. बेजान किताबों के साथ तो बिलकुल नहीं.

‘‘खुद को बदलो आलिया, इस से पहले कि वक्त हाथ से निकल जाए. क्या पता कल तुम्हें उस से काम पड़ जाए, पर अब तो वह तुम से बात भी नहीं करेगा. तू एवरेज स्टूडैंट है, पर दिनभर पढ़ती रहती है और तेरी क्लासमेट पूजा जो टौपर है, वह कितना ऐक्स्ट्रा करिकुलर ऐक्टिविटीज में हिस्सा लेती है. इतने सारे दोस्त हैं उस के.

‘‘टौपर वही होता है, जो दिमागी और जिस्मानी तौर पर मजबूत होता है. जो सिर्फ पढ़ाई ही नहीं करता, बल्कि जिंदगी को भी ऐंजौय करता है.’’

‘‘अच्छा ठीक है. अब लैक्चर देना बंद कर,’’ आलिया ने कहा.

‘‘तू फेसबुक पर कब आएगी? मुझे अपनी कजिन की शादी की पिक्स दिखानी हैं तुझे,’’ हिना ने कहा.

‘‘मेरे यहां इंटरनैट नहीं है. फोटो बन जाएं तब दिखा देना.’’

‘‘ठीक है देवीजी, आप के लिए यह भी कर देंगे,’’ हिना ने मजाक में कहा.

लंच ब्रेक खत्म हो गया और वे दोनों अपनीअपनी क्लास में चली गईं.

‘‘मम्मी, पापा या भाई से कह कर घर में इंटरनैट लगवा दो न.’’

‘‘भाई तो तेरा बाहर ही इंटरनैट इस्तेमाल कर लेता है और पापा से बात की थी. वे कह रहे थे कि कुछ काम नहीं होगा, सिर्फ बातें ही बनाएंगे बच्चे.’’

‘‘तो आप ने पापा को बताया नहीं कि भाई तो बाहर भी इंटरनैट चला लेते हैं और मुझे उस का कखग तक नहीं आता है. मेरे स्कूल में सारे बच्चे इंटरनैट इस्तेमाल करते हैं,’’ आलिया ने थोड़ा गुस्सा हो कर कहा.

‘‘अच्छा, अब ज्यादा उलटीसीधी जिद न कर. पता नहीं, किन जाहिलों में रह रही है. बात करने की तमीज नहीं है तुझे. इतना चिल्लाई क्यों तू?’’ मां ने डांटते हुए कहा.

आलिया अकेले में सोचने लगी कि भाई तो बाहर भी चला जाता है. उसे कभी किसी चीज की कमी नहीं होती और वह घर में ही रहती है, फिर भी भिखारियों की तरह हर चीज मांगनी पड़ती है.

कुछ पेड़ हर तरह का मौसम सह लेते हैं और कुछ बदलते मौसम का शिकार हो जाते हैं. आलिया ऐसे ही बदलते मौसम का शिकार थी.

आलिया का परिवार सहारनपुर से है. उस की चचेरी और ममेरी बहनें हिंदी मीडियम स्कूल में पढ़ती हैं. 12वीं क्लास के बाद ही ज्यादातर सब की शादी हो जाती है. दिल्ली में रहने के बाद भी आलिया नहीं बदली. जब वह छोटी थी तब उस के सारे काम भाई और मम्मी ही करते थे.

वे जितना प्यार करते थे, उतनी ही उस पर पाबंदी भी रखते थे. दिल्ली में एक अच्छे स्कूल में होने की वजह से उसे पढ़ाई का बढि़या माहौल मिला, पर स्कूल के दूसरे बच्चों के घर के माहौल में और उस के घर के माहौल में जमीनआसमान का फर्क था.

आलिया स्कूल से घर दोपहर के 3 बजे आती है, फिर खाना खाती है, ट्यूशन पढ़ती है. रात में थोड़ा टीवी देखने के बाद 10 या 11 बजे तक पढ़ कर सो जाती है. उस के घर के आसपास कोई उस का दोस्त नहीं है और उस के स्कूल का भी कोई बच्चा वहां नहीं रहता है.

कुछ दिनों के बाद स्कूल के 12वीं क्लास के बच्चों की फेयरवैल पार्टी थी. आलिया भी जाना चाहती थी, पर भाई और पापा काम की वजह से उसे ले कर नहीं गए और अकेली वह जा नहीं सकती थी. न घर वाले इस के लिए तैयार थे, न उस में इतनी हिम्मत थी.

12वीं क्लास के एग्जाम हो गए. पास होने के बाद हिना और आलिया का अलगअलग कालेज में दाखिला हो गया. आलिया की आगे की कहानी क्या है. जो हाल स्कूल का था, वही हाल कालेज का भी था. घर से कालेज और कालेज से घर. पूरे 3 साल में बस 2-3 दोस्त ही बन पाए.

बाद में आलिया ने एमबीए का एंट्रैस एग्जाम दिया, पर पापा के कहने पर बीएड में एडमिशन ले लिया. उस के पापा को प्राइवेट कंपनी में जौब तो करानी नहीं थी, इसलिए यही ठीक लगा.

बीएड के बाद आलिया का रिश्ता पक्का हो गया. नवंबर में उस की शादी है.

एक बात तो बतानी रह गई. 12वीं क्लास के बाद उस ने अपना फेसबुक अकाउंट बना लिया था. जैसेतैसे घर पर इंटरनैट लग गया था. एक दिन उस ने फेसबुक खोला तो हिना का स्टेटस मिला कि उसे एक अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई है.

आलिया ने फिर हिना के फोटो देखे और दूसरे क्लासमेट के भी. सभी अपने दोस्तों के साथ किसी कैफे में तो किसी फंक्शन के फोटो डालते रहते हैं. सभी इतने खुश नजर आते हैं.

अचानक आलिया को एहसास हुआ कि सभी अपनी जिंदगी की छोटीबड़ी यादें साथ रखते हैं. सभी जितना है, उसे और अच्छा बनाने की कोशिश करते हैं. स्कूल टाइम से अब तक सब कितने बदल गए हैं. कितने अच्छे लगने लगे हैं.

सभी काफी खुश लगते हैं और वह… आलिया को एहसास हुआ कि उस ने कभी जिंदगी जी ही नहीं. स्कूल या कालेज की एक भी तसवीर उस के पास नहीं है. शादी के बाद जिंदगी न जाने कौन सा रंग ले ले, पर जिसे वह अपने हिसाब से रंग सकती थी, वह सब उस ने मांबाप के डर और अकेलेपन से खो दिया.

वह दिन भी आ गया, जब आलिया की शादी हुई. हिना भी उस की शादी में आई थी. विदाई के वक्त आलिया की आंखों में शायद इस बात के आंसू थे कि वह जिस वक्त को बिना डरे खुशी से जी सकती थी, उसे किताबों के पन्नों में उलझा कर खत्म कर दिया. जो वक्त बीत गया है, उस में कोई कमी नहीं थी, पर आने वाला वक्त उसे नापतोल कर बिताना होगा.

कबाड़: क्या यादों को कभी भुलाया जा सकता है?

‘‘सुनिए, पुताई वाले को कब बुला रहे हो? जल्दी कर लो, वरना सारे काम एकसाथ सिर पर आ जाएंगे.’’

‘‘करता हूं. आज निमंत्रणपत्र छपने के लिए दे कर आया हूं, रंग वाले के पास जाना नहीं हो पाया.’’

‘‘देखिए, शादी के लिए सिर्फ 1 महीना बचा है. एक बार घर की पुताई हो जाए और घर के सामान सही जगह व्यवस्थित हो जाए तो बहुत सहूलियत होगी.’’

‘‘जानता हूं तुम्हारी परेशानी. कल ही पुताई वाले से बात कर के आऊंगा.’’

‘‘2 दिन बाद बुला ही लीजिए. तब तक मैं घर का सारा कबाड़ निकाल कर रखती हूं जिस से उस का काम भी फटाफट हो जाएगा और घर में थोड़ी जगह भी हो जाएगी.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा. वैसे भी वह छोटा कमरा बेकार की चीजों से भरा पड़ा है. खाली हो जाएगा तो अच्छा है.’

जब से अविनाश की बेटी सपना की शादी तय हुई थी उन की अपनी पत्नी कंचन से ऐसी बातचीत चलती रहती थी. जैसेजैसे शादी का दिन नजदीक आ रहा था, काम का बोझ और हड़बड़ाहट बढ़ती जा रही थी.

घर की पुताई कई सालों से टलती चली आ रही थी. दीपक और सपना की पढ़ाई का खर्चा, रिश्तेदारी में शादीब्याह, बाबूजी का औपरेशन वगैरह ऐसी कई वजहों से घर की सफाईपुताई नहीं हुई थी. मगर अब इसे टाला नहीं जा सकता था. बेटी की शादी है, दोस्त, रिश्तेदार सभी आएंगे. और तो और लड़के वालों की तरफ से सारे बराती घर देखने जरूर आएंगे. अब कोई बहाना नहीं चलने वाला. घर अच्छी तरह से साफसुथरा करना ही पड़ेगा.

दूसरे ही दिन कंचन ने छोटा कमरा खाली करना शुरू किया. काफी ऐसा सामान था जो कई सालों से इस्तेमाल नहीं हुआ था. बस, घर में जगह घेरे पड़ा था. उस पर पिछले कई सालों से धूल की मोटी परत जमी हुई थी. सारा  कबाड़ एकएक कर के बाहर आने लगा.

‘‘कल ही कबाड़ी को बुलाऊंगी. थक गई इस कबाड़ को संभालतेसंभालते,’’ कमरा खाली करते हुए कंचन बोल पड़ीं.

आंगन में पुरानी चीजों का एक छोटा सा ढेर लग गया. शाम को अविनाश बाहर से लौटे तो उन्हें आंगन में फेंके हुए सामान का ढेर दिखाई दिया. उस में एक पुराना आईना भी था. 5 फुट ऊंचा और करीब 2 फुट चौड़ा. काफी बड़ा, भारीभरकम, शीशम की लकड़ी का मजबूत फ्रेम वाला आईना. अविनाश की नजर उस आईने पर पड़ी. उस में उन्होंने अपनी छवि देखी. धुंधली सी, मकड़ी के जाले में जकड़ी हुई. शीशे को देख कर उन्हें कुछ याद आया. धीरेधीरे यादों पर से धूल की परतें हटती गईं. बहुत सी यादें जेहन में उजागर हुईं. आईने में एक छवि निखर आई…बिलकुल साफ छवि, कंचन की. 29-30 साल पहले की बात है. नईनवेली दुलहन कंचन, हाथों में मेहंदी, लाल रंग की चूडि़यां, घूंघट में शर्मीली सी…अविनाश को अपने शादी के दिन याद आए.

संयुक्त परिवार में बहू बन कर आई कंचन, दिनभर सास, चाची सास, दादी सास, न जाने कितनी सारी सासों से घिरी रहती थी. उन से अगर फुरसत मिलती तो छोटे ननददेवर अपना हक जमाते. अविनाश बेचारा अपनी पत्नी का इंतजार करतेकरते थक जाता. जब कंचन कमरे में लौटती तो बुरी तरह से थक चुकी होती थी. नौजवान अविनाश पत्नी का साथ पाने के लिए तड़पता रह जाता. पत्नी को एक नजर देख पाना भी उस के लिए मुश्किल था. आखिर उसे एक तरकीब सूझी. उन का कमरा रसोईघर से थोड़ी ऊंचाई पर तिरछे कोण में था. अविनाश ने यह बड़ा सा आईना बाजार से खरीदा और अपने कमरे में ऐसे एंगल (कोण) में लगाया कि कमरे में बैठेबैठे रसोई में काम करती अपनी पत्नी को निहार सके.

इसी आईने ने पतिपत्नी के बीच नजदीकियां बढ़ा दीं. वे दोनों दिल से एकदूसरे के और भी करीब आ गए. उन के इंतजार के लमहों का गवाह था यह आईना. इसी आईने के जरिए वे दोनों एकदूसरे की आंखों में झांका करते थे, एकदूसरे के दिल की पुकार समझा करते थे. यही आईना उन की नजर की जबां बोलता रहा. उन की जवानी के हर पल का गवाह था यह आईना.

आंगन में खड़ेखड़े, अपनेआप में खोए से, अविनाश उन दिनों की सैर कर आए. अपनी नौजवानी के दिनों को, यादों में ही, एक बार फिर से जी लिया. अविनाश ने दीपक को बुलाया और वह आईना उठा कर अपने कमरे में करीने से रखवाया. दीपक अचरज में पड़ गया. ऐसा क्या है इस पुराने आईने में? इतना बड़ा, भारी सा, काफी जगह घेरने वाला, कबाड़ उठवा कर पापा ने अपने कमरे में क्यों लगवाया? वह कुछ समझ नहीं पा रहा था. वह अपनी दादी के पास चला गया.

‘‘दादी, पापा ने वह बड़ा सा आईना कबाड़ से उठवा कर अपने कमरे में लगा दिया.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’

‘‘दादी, वह कितनी जगह घेरता है? कमरे से बड़ा तो आईना है.’’

दादी अपना मुंह आंचल में छिपाए धीरेधीरे मुसकरा रही थीं. दादी को अपने बेटे की यह तरकीब पता थी. उन्होंने अपने बेटे को आईने में झांकते हुए बहू को निहारते पकड़ा भी था.

दादी की वह नटखट हंसी… हंसतेहंसते शरमाने के पीछे क्या माजरा है, दीपक समझ नहीं सका. पापा भी मुसकरा रहे थे. जाने दो, सोच कर दीपक दादी के कमरे से बाहर निकला.

इतने में मां ने दीपक को आवाज दी. कुछ और सामान बाहर आंगन में रखने के लिए कहा. दीपक ने सारा सामान उठा कर कबाड़ के ढेर में ला पटका, सिवा एक क्रिकेट बैट के. यह वही क्रिकेट बैट था जो 20 साल पहले दादाजी ने उसे खरीदवाया था. वह दादाजी के साथ गांव से शहर आया था. दादाजी का कुछ काम था शहर में, उन के साथ शहर देखने और बाजार घूमने दीपू चल पड़ा था. चलतेचलते दादाजी की चप्पल का अंगूठा टूट गया था. वैसे भी दादाजी कई महीनों से नई चप्पल खरीदने की सोच रहे थे. बाजार घूमतेघूमते दीपू की नजर खिलौने की दुकान पर पड़ी. ऐसी खिलौने वाली दुकान तो उस ने कभी नहीं देखी थी. उस का मन कांच की अलमारी में रखे क्रिकेट के बैट पर आ गया.

उस ने दादाजी से जिद की कि वह बैट उसे चाहिए. दीपू के दादाजी व पिताजी की माली हालत उन दिनों अच्छी नहीं थी. जरूरतें पूरी करना ही मुश्किल होता था. बैट जैसी चीजें तो ऐश में गिनी जाती थीं. दीपू के पास खेल का कोई भी सामान न होने के कारण गली के लड़के उसे अपने साथ खेलने नहीं देते थे. श्याम तो उसे अपने बैट को हाथ लगाने ही नहीं देता था. दीपू मन मसोस कर रह जाता था.

दादाजी इन परिस्थितियों से अच्छी तरह वाकिफ थे. उन से अपने पोते का दिल नहीं तोड़ा गया. उन्होंने दीपू के लिए वह बैट खरीद लिया. बैट काफी महंगा था. चप्पल के लिए पैसे ही नहीं बचे, तो दोनों बसअड्डे के लिए चल पड़े. रास्ते में चप्पल का पट्टा भी टूट गया. सड़क किनारे बैठे मोची के पास चप्पल सिलवाने पहुंचे तो मोची ने कहा, ‘‘दादाजी, यह चप्पल इतनी फट चुकी है कि इस में सिलाई लगने की कोई गुंजाइश नहीं.’’

दादाजी ने चप्पल वहीं फेंक दीं और नंगे पांव ही चल पड़े. घर पहुंचतेपहुंचते उन के तलवों में फफोले पड़ चुके थे. दीपू अपने नए बैट में मस्त था. अपने पोते का गली के बच्चों में अब रोब होगा, इसी सोच से दादाजी के चेहरे पर रौनक थी. पैरों की जलन का शिकवा न था. चेहरे पर जरा सी भी शिकन नहीं थी.

हाथ में बैट लिए दीपक उस दिन को याद कर रहा था. उस की आंखों से आंसू ढलक कर बैट पर टपक पड़े. आज दीपू के दिल ने दादाजी के पैरों की जलन महसूस की जिसे वह अपने आंसुओं से ठंडक पहुंचा रहा था.

तभी, शाम की सैर कर के दादाजी घर लौट आए. उन की नजर उस बैट पर गई जो दीपू ने अपने हाथ में पकड़ रखा था. हंसते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘क्यों बेटा दीपू, याद आया बैट का किस्सा?’’

‘‘हां, दादाजी,’’ दीपू बोला. उस की आंखें भर आईं और वह दादाजी के गले लग गया. दादाजी ने देखा कि दीपू की आंखें नम हो गई थीं. दीपू बैट को प्यार से सहलाते, चूमते अपने कमरे में आया और उसे झाड़पोंछ कर कमरे में ऐसे रख दिया मानो वह उस बैट को हमेशा अपने सीने से लगा कर रखना चाहता है. दादाजी अपने कमरे में पहुंचे तो देखा कि दीपू की दादी पलंग पर बैठी हैं और इर्दगिर्द छोटेछोटे बरतनों का भंडार फैला है.

‘‘इधर तो आइए… देखिए, इन्हें देख कर कुछ याद आया?’’ वे बोलीं.

‘‘अरे, ये तुम्हें कहां से मिले?’’

‘‘बहू ने घर का कबाड़ निकाला है न, उस में से मिल गए.’’

अब वे दोनों पासपास बैठ गए. कभी उन छोटेछोटे बरतनों को देखते तो कभी दोनों दबेदबे से मुसकरा देते. फिर वे पुरानी यादों में खो गए.

यह वही पानदान था जो दादी ने अपनी सास से छिपा कर, चुपके से खरीदा था. दादाजी को पान का बड़ा शौक था, मगर उन दिनों पान खाना अच्छी आदत नहीं मानी जाती थी. दादाजी के शौक के लिए दादीजी का जी बड़ा तड़पता था. अपनी सास से छिपा कर उन्होंने पैसे जोड़ने शुरू किए, कुछ दादाजी से मांगे और फिर यह पानदान दादाजी के लिए खरीद लिया. चोरीछिपे घर में लाईं कि कहीं सास देख न लें. बड़ा सुंदर था पानदान. पानदान के अंदर छोटीछोटी डब्बियां लौंग, इलायची, सुपारी आदि रखने के लिए, छोटी सी हंडिया, चूने और कत्थे के लिए, हंडियों में तिल्लीनुमा कांटे और हंडियों के छोटे से ढक्कन. सारे बरतन पीतल के थे. उस के बाद हर रात पान बनता रहा और हर पान के साथ दादादादी के प्यार का रंग गहरा होता गया.

दादाजी जब बूढ़े हो चले और उन के नकली दांत लग गए तो सुपारी खाना मुश्किल हो गया. दादीजी के हाथों में भी पानदान चमकाने की आदत नहीं रही. बहू को पानदान रखने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. अत: पानदान स्टोर में डाल दिया गया. आज घर का कबाड़ निकाला तो दादी को यह पानदान मिल गया, दादी ने पानदान उठाया और अपने कमरे में ले आईं. इस बार सास से नहीं अपनी बहू से छिपा कर.

थरथराती हथेलियों से वे पानदान संवार रही थीं. उन छोटी डब्बियों में जो अनकहे भाव छिपे थे, आज फिर से उजागर हो गए. घर के सभी सदस्य रात के समय अपनेअपने कमरों में आराम कर रहे थे. कंचन, अविनाश उसी आईने के सामने एकदूसरे की आंखों में झांक रहे थे. दादादादी पान के डब्बे को देख कर पुरानी बातों को ताजा कर रहे थे. दीपक बैट को सीने से लगाए दादाजी के प्यार को अनुभव कर रहा था जब उन्होंने स्वयं चप्पल न खरीद कर उन पैसों से उसे यह बैट खरीद कर दिया था. नंगे पांव चलने के कारण उन के पांवों में छाले हो गए थे.

सपना भी कबाड़ के ढेर में पड़ा अपने खिलौनों का सैट उठा लाई थी जिस से वह बचपन में घरघर खेला करती थी. यह सैट उसे मां ने दिया था.

छोटा सा चूल्हा, छोटेछोटे बरतन, चम्मच, कलछी, कड़ाही, चिमटा, नन्हा सा चकलाबेलन, प्यारा सा हैंडपंप और उस के साथ एक छोटी सी बालटी. बचपन की यादें ताजा हो गईं. राखी के पैसे जो मामाजी ने मां को दिए थे, उन्हीं से वे सपना के लिए ये खिलौने लाई थीं. तब सपना ने बड़े प्यार से सहलाते हुए सारे खिलौनों को पोटली में बांध लिया था. उस पोटली ने उस का बचपन समेट लिया था. आज उन्हीं खिलौनों को देख कर बचपन की एकएक घटना उस की आंखों के सामने घूमने लगी थी. दीपू भैया से लड़ाई, मां का प्यार और दादादादी का दुलार…

जिंदगी में कुछ यादें ऐसी होती हैं, जिन्हें दोबारा जीने को दिल चाहता है, कुछ पल ऐसे होते हैं जिन में खोने को जी चाहता है. हर कोई अपनी जिंदगी से ऐसे पलों को चुन रहा था. यही पल जिंदगी की भागदौड़ में कहीं छूट गए थे. ऐसे पल, ये यादें जिन चीजों से जुड़ी होती हैं वे चीजें कभी कबाड़ नहीं होतीं.

आशा, आयशा शकील, आयशा मैसी : 3 किरदारों वाली एक औरत

उस का नाम कई बार बदला गया. उस ने जिंदगी के कई बडे़ उतारचढ़ाव देखे. झुग्गीझोंपड़ी की जिंदगी वही जान सकता है, जिस ने वहां जिंदगी बिताई हो. तंग गलियां, बारिश में टपकती छत. बाप मजदूरी करता, मां का साया था नहीं, मगर लगन थी पढ़ने की. सो, वह पास के ही एक स्कूल से मिडिल पास कर गई.

मिसेज क्लैरा से बातचीत कर के उस की अंगरेजी भी ठीक हो चली थी. पासपड़ोस के आवारा, निठल्ले लड़के जब फिकरे कसते, तो दिल करता कि वह यहां से निकल भागे. मगर वह जाती कहां? बाप ही तो एकमात्र सहारा था उस का. आम लड़कियों की तरह उस के भी सपने थे. अच्छा सा घर, पढ़ालिखा, अच्छे से कमाता पति. मगर सपने कब पूरे होते हैं?

उस का नाम आशा था. उस के लिए मिसेज क्लैरा ही सबकुछ थीं. वही उसे पढ़ालिखा भी रही थीं. वे कहतीं कि आगे पढ़ाई कर. नर्सिंग की ट्रेनिंग कराने का जिम्मा भी उन्हीं के सिर जाता है. उसे अच्छे से अस्पताल में नौकरी दिलाने में मिसेज क्लैरा का ही योगदान था. वह फूली नहीं समाती थी.

सफेद यूनिफौर्म में वह घर से जब निकली, तो वही आवारा लड़के आंखें फाड़ कर कहते, ‘‘मेम साहब, हम भी तो बीमार हैं. एक नजर इधर भी,’’ पर वह अनसुना कर के आगे बढ़ जाती.

पड़ोस का कलुआ भी उम्मीदवारों की लिस्ट में था. अस्पताल में शकील भी था. वह वहां फार्मासिस्ट था. वह था बेहद गोराचिट्टा और उस की बातों से फूल झड़ते थे.

लोगों ने महसूस किया कि फुरसत में वे दोनों गपें हांकते थे. आशा की हंसी को लोग शक की नजरों से देखने लगे थे. सोचते कि कुछ तो खिचड़ी पक रही है.

इस बात से मिसेज क्लैरा दुखी थीं. वे तो अपने भाई के साथ आशा को ब्याहना चाहती थीं. इश्क और मुश्क की गंध छिपती नहीं है. आखिरकार आशा से वह आयशा शकील बन गई. उन दोनों ने शानदार पार्टी दी थी.

यह देख मिसेज क्लैरा दिमागी आघात का शिकार हो गई थीं. वे कई दिन छुट्टी पर रहीं… आशा यानी आयशा उन से नजरें मिलाने से कतरा रही थी.

मिसेज क्लैरा का गुस्सा वाजिब था. वे तो अपने निखट्टू भाई के लिए एक कमाऊ पत्नी चाहती थीं. मगर अब क्या हो सकता था, तीर कमान से निकल चुका था.

आयशा वैसे तो हंसबोल रही थी, मगर उस के दिल पर एक बोझ था.

शकील ने भांपते हुए कहा, ‘‘क्या बात है? क्या तबीयत ठीक नहीं है?’’

‘‘नहीं, कुछ नहीं. बस, थकान है,’’ कह कर उस ने बात टाल दी.

मिसेज क्लैरा सबकुछ भुला कर अपने काम में बिजी हो गईं. आयशा ने उन की नजरों से बचने के लिए दूसरे अस्पताल में नौकरी तलाश ली थी.

आयशा की दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं आया था. उस का स्वभाव अब भी वैसा ही था. मरीजों को दवा देना, उन का हालचाल पूछना.

उस का बचपन का देखा सपना पूरा हो चला था. वह कच्चे मकान और बदबूदार गलियों से निकल कर स्टाफ क्वार्टर में रहने को आ गई थी. धीरेधीरे कुशल घरेलू औरत की तरह उस ने सारे सुख के साधन जुटा लिए थे. 3 साल में वह दोनों 2 से 4 बन चुके थे. एक बेटा और एक बेटी.

कल्पनाओं की उड़ान इनसान को कहां से कहां ले जाती है. इच्छाएं दिनोंदिन बढ़ती चली जाती हैं. बच्चों की देखभाल की चिंता किए बिना ही शकील परदेश चला गया… आयशा ने लाख मना किया, मगर वह नहीं माना.

आयशा रोज परदेश में शकील से बातें करती व बच्चों का और अपने प्यार का वास्ता देती. बस, उस के सपने 4 साल ही चल सके. मिडिल ईस्ट में शायद शकील ने अलग घर बसा लिया था. आयशा के सपने बिखर गए.

शुरूशुरू में तो शकील के फोन भी आ जाते थे कि अपना और बच्चों का ध्यान रखना. कभीकभार वैसे भी आते रहे. दिनों के साथ प्यार पर नफरत की छाया पड़ने लगी.

‘‘बुजदिल… बच्चों पर ऐसा ही प्यार उमड़ रहा था, तो देश छोड़ कर गया ही क्यों?’’

आयशा समझ गई थी कि शकील अब लौट कर नहीं आएगा… वह नफरत से कहती, ‘‘सभी मर्द होते ही बेवफा हैं.’’

आयशा अब पछता रही थी. उसे अपने सपने पूरे करने के बजाय मिसेज क्लैरा के सपने पूरे करने चाहिए थे. ‘पलभर की भूल, जीवन का रोग’ सच साबित हो गया.

शकील भी शायद आयशा से छुटकारा पाना चाहता था और वह भी… आसानी से तलाक भी हो गया. उस दिन वह फूटफूट कर रोई थी.

बच्चों ने पूछा, ‘मम्मी, क्या पापा अब नहीं आएंगे?’

‘‘नहीं…’’ आयशा रोते हुए बोली थी.

‘क्यों नहीं?’ बच्चों ने पूछा था.

‘‘क्योंकि, तुम्हारे पापा ने नई मम्मी ढूंढ़ ली है.’’

आशा ने मिसेज क्लैरा के भाई से शादी कर ली… उन्हें शांति मिल गई थी. पर वे खुद कैंसर से पीडि़त थीं. अब वह आशा ग्रेस मैसी बन चुकी थी. मिसेज क्लैरा की जिंदगी ने आखिरी पड़ाव ले लिया था. वे भी दुनिया सिधार चुकी थीं. अब वह और ग्रेस मैस्सी… यही जीवन चक्र रह गया था. मगर उस का बेटा शारिक ग्रेस को स्वीकार न कर सका.

शारिक अकसर घर से बाहर रहने लगा. वह समझदार हो चला था. वह लाख मनाती कि अब तुम्हारे पापा यही हैं.

‘‘नहीं… मेरे पापा तो विदेश में हैं. मैं अभी तुम्हारी शिकायत पापा से करूंगा. मुझे पापा का फोन नंबर दो.’’

यह सुन कर आशा हैरान रह जाती. आशा की बेटी समीरा गुमसुम सी रहने लगी थी. ग्रेस भी आशा के पैसों पर ऐश कर रहा था. आज मिसेज क्लैरा न थीं, जो हालात संभाल लेतीं.

आशा आज कितनी अकेली पड़ गई थी. अस्पताल और घर के अलावा उस ने कहीं आनाजाना छोड़ दिया था. हंसी उस से कोसों दूर हो चली थी, मगर जिम्मेदारियों से वह खुद को अलग नहीं कर सकी थी.

शारिक को आशा ने अच्छी तालीम दिलाई. वह घर छोड़ कर जाना चाहता था. सो, वह भी चला गया. शराब ने ग्रेस को खोखला कर दिया था. वह दमे का मरीज बन चुका था.

शारिक 2-4 दिन को घर आता, तो नाराज हो जाता. वह कहता, ‘‘मम्मी, कहे देता हूं कि इसे घर से निकालो. यह हरदम खांसता रहता है. सारा पैसा इस की दवाओं पर खर्च हो जाता है.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते बेटा.’’

‘‘मम्मी, आप ने दूसरी शादी क्यों की?’’

और यह सुन कर आशा चुप्पी लगा जाती. वह तो खुद को ही गुनाहगार मानती थी, मगर वह जानती थी कि उस ने मिसेज क्लैरा के चलते ऐसा किया. वह उस की गौडमदर थीं न?

आशा अब खुद ईसाई थी, मगर उस ने अपने बच्चों को वही धर्म दिया, जिस का अनुयायी उन का बाप था.

समीरा की शादी भी उस ने उसी धर्म में की, जिस का अनुयायी उस का बाप था.

आशा का घर दीमक का शिकार हो चला था. वह फिर से झुगनी बस्ती में रहने को पहुंच गई थी.

ग्रेस ने उसी झुगनी बस्ती में दम तोड़ा. बेटे शारिक को उस ने ग्रेस के मरने की सूचना दी, मगर वह नहीं आया.

आशा अब तनहा जिंदगी गुजार रही थी. उस की ढलती उम्र ने उसे भी जर्जर कर दिया था. रात में न जाने कितनी यादें, न जाने कितने आघात उसे घेर लेते. वह खुद से ही पूछती, ‘‘मां बनना क्या जुर्म है? क्या वही जिंदगी का बोझ ढोने को पैदा होती है?’’

उसे फिल्म ‘काजल’ का वह डायलौग याद आ रहा था, जिस में मां अपने बेटे का इंतजार करती है. धूपबत्ती जल रही है. गंगाजल मुंह में टपकाया जा रहा है. डूबती सांसों से कहती है, ‘स्त्री और पृथ्वी का जन्म तो बोझ उठाने के लिए ही हुआ है.’

आशा के सीने पर लगी चोट अब धीरेधीरे नासूर बन कर रिस रही थी. बेटा शारिक आखिरी समय में आया और बेटी समीरा भी आई. मां को देख बेटा भावविभोर था, ‘‘मम्मी, आखिरी समय है आप का. अब भी लौट आओ.

‘‘अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा. मरने के बाद इस शरीर को चाहे आग में जला देना, चाहे मिट्टी के हवाले करना…’’ और वह दुनिया से चली गई.

किसी की आंख से एक आंसू भी नहीं टपका. अंतिम यात्रा में कुछ लोग ही शामिल थे.

‘‘क्या यह वही नर्स थी. क्या नाम था… मैसी?’’

‘‘तो क्या हुआ अंतिम समय में तो वह कलमा गो यानी मुसलिम थी. कहां ले जाएं इसे. यहीं पास में एक कब्रिस्तान है. वहीं ले चलें. और आशा मिट्टी में समा गई.’’

मैं अकसर उधर से गुजर रहा होता. आवारा लड़के क्रिकेट खेलते नजर आते. वहां कुछ ही कब्रें रही होंगी. शायद लावारिस लोगों की होंगी. लेकिन आशा के वारिस भी थे. एक बेटा और एक बेटी.

इस नाम के कब्रिस्तान में कोई दीया जलाने वाला न था. अब चारों तरफ ऊंचीऊंची इमारतें बन गई थीं. लोगों ने अपनी नालियों के पाइप इस कब्रिस्तान में डाल दिए थे.

3 महीने बाद आशा की बेटी समीरा बैंक की पासबुक लिए मेरे पास आई और बोली, ‘‘मम्मी के 50 हजार रुपए बैंक में जमा हैं. जरा चल कर आप सत्यापन कर दें. हम वारिस हैं न?’’

और मैं सोच रहा था कि आशा न जाने कितनी उम्मीदें लिए दुनिया से चली गई. वह जिस गंदी बस्ती में पलीबढ़ी, वहीं उस ने दम तोड़ा.

मेरे दिमाग में कई सवाल उभरे, ‘क्या फर्क पड़ता है, अगर आशा किसी ईसाई कब्रिस्तान में दफनाई जाती? क्या फर्क पड़ता है, अगर वह ताबूत में सोई होती? शायद, उस के नाम का एक पत्थर तो लगा होगा.’

‘‘हाय आशा…’’ मेरे मुंह से निकला और मेरी पलकें भीग गईं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें