तितली: मांबाप के झगड़े में पिसती सियाली

रविवार के दिन की शुरुआत भी मम्मीपापा के  झगड़े की कड़वी आवाजों से हुई. सियाली अभी अपने कमरे में सो ही रही थी कि चिकचिक सुन कर उस ने चादर सिर तक ओढ़ ली, इस से आवाज पहले से कम तो हुई, पर अब भी उस के कानों से टकरा रही थी.

सियाली मन ही मन कुढ़ कर रह गई. पास पड़े मोबाइल को टटोल कर उस में ईयरफोन लगा कर उन्हें कानों में कस कर ठूंस लिया और आवाज को बहुत तेज कर दिया.

18 साल की सियाली के लिए यह कोई नई बात नहीं थी. उस के मांबाप आएदिन ही झगड़ते रहते थे, जिस की सीधी वजह थी उन दोनों के संबंधों में खटास का होना… ऐसी खटास, जो एक बार जिंदगी में आ जाए, तो आपसी रिश्तों का खात्मा ही कर देती है.

सियाली के मांबाप प्रकाश और निहारिका के संबंधों में यह खटास कोई एक दिन में नहीं आई, बल्कि यह तो  एक मिडिल क्लास परिवार के कामकाजी जोड़े के आपसी तालमेल बिगड़ने के चलते धीरेधीरे आई एक आम समस्या थी.

सियाली के पिता प्रकाश अपनी पत्नी निहारिका पर शक करते थे. उन का शक करना भी एकदम जायज था, क्योंकि निहारिका का अपने औफिस के एक साथी के साथ संबंध चल रहा था. जितना शक गहरा हुआ, उतना ही प्रकाश की नाराजगी बढ़ती गई और निहारिका का नाजायज रिश्ता भी उसी हिसाब से  बढ़ता गया.

‘‘जब दोनों साथ नहीं रह सकते, तो तलाक क्यों नहीं दे देते… एकदूसरे को,’’ सियाली बिस्तर से उठते हुए  झुं झलाते  हुए बोली.

सियाली जब तक अपने कमरे से बाहर आई, तब तक वे दोनों काफी हद तक शांत हो चुके थे. शायद वे किसी फैसले तक पहुंच गए थे.

‘‘तो ठीक है, मैं कल ही वकील से बात कर लेता हूं, पर सियाली को अपने साथ कौन रखेगा?’’ प्रकाश ने निहारिका की ओर घूरते हुए पूछा.

‘‘मैं समझती हूं… सियाली को तुम मुझ से बेहतर संभाल सकते हो,’’ निहारिका ने कहा, तो उस की इस बात पर प्रकाश भड़क सा गया, ‘‘हां, तुम तो सियाली को मेरे पल्ले बांधना ही चाहती हो, ताकि तुम अपने उस औफिस वाले के साथ गुलछर्रे उड़ा सको और मैं एक जवान लड़की के चारों तरफ एक गार्ड बन कर घूमता रहूं.’’

प्रकाश की इस बात पर निहारिका ने भी तेवर दिखाते हुए कहा, ‘‘मर्दों के समाज में क्या सारी जिम्मेदारी एक मां की ही होती है?’’

निहारिका ने गहरी सांस ली और कुछ देर रुक कर बोली, ‘‘हां, वैसे सियाली कभीकभी मेरे पास भी आ सकती है…  1-2 दिन मेरे साथ रहेगी तो मु झे भी एतराज नहीं होगा,’’ निहारिका ने मानो फैसला सुना दिया था.

सियाली कभी मां की तरफ देख रही थी, तो कभी पिता की तरफ, उस से कुछ कहते न बना, पर वह इतना सम झ गई थी कि मांबाप ने अपनाअपना रास्ता अलग कर लिया है और उस का वजूद एक पैंडुलम से ज्यादा नहीं है जो उन दोनों के बीच एक सिरे से दूसरे सिरे तक डोल रही है.

शाम को जब सियाली कालेज से लौटी, तो घर में एक अलग सी शांति थी. पापा सोफे में धंसे हुए चाय पी रहे थे, जो उन्होंने खुद ही बनाई थी. उन के चेहरे पर कई महीनों से बनी रहने वाली तनाव की शिकन गायब थी.

सियाली को देख कर उन्होंने मुसकराने की कोशिश की और बोले, ‘‘देख ले… तेरे लिए चाय बची होगी… लेले और मेरे पास बैठ कर पी.’’

सियाली पापा के पास आ कर बैठी, तो पापा ने अपनी सफाई में काफीकुछ कहना शुरू किया, ‘‘मैं बुरा आदमी नहीं हूं, पर तेरी मम्मी ने भी तो गलत किया था. उस के काम ही ऐसे थे कि मु झे उसे देख कर गुस्सा आ ही जाता था और फिर तेरी मां ने भी तो रिश्तों को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.’’

पापा की बातें सुन कर सियाली से भी नहीं रहा गया और वह बोली, ‘‘मैं नहीं जानती कि आप दोनों में से कौन सही है और कौन गलत है, पर इतना जरूर जानती हूं कि शरीर में अगर नासूर हो जाए, तो आपरेशन ही सही रास्ता और ठीक इलाज होता है.’’

बापबेटी ने कई दिनों के बाद आज खुल कर बात की थी. पापा की बातों में मां के प्रति नफरत और गुस्सा ही छलक रहा था, जिसे सियाली चुपचाप सुनती रही थी.

अगले दिन ही सियाली के मोबाइल पर मां का फोन आया और उन्होंने सियाली को अपना पता देते हुए शाम को उसे अपने फ्लैट पर आने को कहा, जिसे सियाली ने खुशीखुशी मान भी लिया था और शाम को मां के पास जाने की सूचना भी उस ने अपने पापा को दे दी, जिस पर पापा को भी कोई एतराज नहीं हुआ.

शाम को सियाली मां के दिए पते पर पहुंच गई. पता नहीं क्या सोच कर उस ने लाल गुलाब का एक बुके खरीद लिया था और वह फ्लैट नंबर 111 में पहुंच गई.

सियाली ने डोरबैल बजाई. दरवाजा मां ने ही खोला था. अब चौंकने की बारी सियाली की थी. मां गहरे लाल रंग की साड़ी में बहुत खूबसूरत लग रही थीं. उन की मांग में भरा हुआ सिंदूर और माथे पर बिंदी… सियाली को याद नहीं कि उस ने मां को कब इतनी अच्छी तरह से सिंगार किए हुए देखा था. हमेशा सादा वेश में ही रहती थीं मां और टोकने पर दलील देती थीं, ‘अरे, हम कोई ब्राह्मणठाकुर तो हैं नहीं, जो हमेशा सिंगार ओढ़े रहें… हम पिछड़ी जाति वालों के लिए साधारण रहना ही अच्छा है.’

तो फिर आज मां को ये क्या हो गया? बहरहाल, सियाली ने मां को बुके दे दिया. मां ने बड़े प्यार से कोने में रखी एक मेज पर उसे सजा दिया.

‘‘अरे, अंदर आने को नहीं कहोगी सियाली से,’’ मां के पीछे से आवाज आई.

सियाली ने आवाज की दिशा में नजर उठाई, तो देखा कि सफेद कुरतापाजामा पहने हुए एक आदमी खड़ा हुआ मुसकरा रहा था.

सियाली उसे पहचान गई. वह मां का औफिस का साथी देशवीर था. मां उसे पहले भी घर ला चुकी थीं.

मां ने बहुत खुशीखुशी देशवीर से सियाली का परिचय कराया, जिस  पर सियाली ने कहा, ‘‘जानती हूं मां… पहले भी आप इन से मुझ को मिलवा चुकी हो.’’

‘‘पर, पहले जब मिलवाया था तब ये सिर्फ मेरे अच्छे दोस्त थे, लेकिन आज मेरे सबकुछ हैं. हम लोग फिलहाल तो लिवइन में रह रहे हैं और तलाक का फैसला होते ही शादी भी कर लेंगे.’’

सियाली मुसकरा कर रह गई थी. सब ने एकसाथ खाना खाया. डाइनिंग टेबल पर भी माहौल सुखद ही था. मां के चेहरे की चमक देखते ही बनती थी.

सियाली रात को मां के साथ ही सो गई और सुबह वहीं से कालेज के लिए निकल गई. चलते समय मां ने उसे 2,000 रुपए देते हुए कहा, ‘‘रख ले, घर जा कर पिज्जा और्डर कर देना.’’

कल से ले कर आज तक मां ने सियाली के सामने एक आदर्श मां होने के कई उदाहरण पेश किए थे, पर सियाली को यह सब नहीं भा रहा था. फिलहाल तो वह अपनी जिंदगी खुल कर जीना चाहती थी, इसलिए मां के दिए गए पैसों से वह उसी दिन अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने चली गई.

‘‘सियाली, आज तू यह किस खुशी में पार्टी दे रही है?’’ महक ने पूछा.

‘‘बस यों समझो कि आजादी की पार्टी है,’’ कह कर सियाली मुसकरा दी थी.

सच तो यह था कि मांबाप के अलगाव के बाद सियाली भी बहुत रिलैक्स महसूस कर रही थी. रोजरोज की टोकाटाकी से अब उसे छुटकारा मिल चुका था और वह अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीना चाहती थी, इसीलिए उस ने अपने दोस्तों से अपनी एक इच्छा बताई, ‘‘यार, मैं एक डांस ग्रुप जौइन करना चाहती हूं, ताकि मैं अपने

जज्बातों को डांस द्वारा दुनिया के सामने पेश कर सकूं.’’

इस पर उस के दोस्तों ने उसे और भी कई रास्ते बताए, जिन से वह अपनेआप को दुनिया के सामने पेश कर सकती थी, जैसे ड्राइंग, सिंगिंग, मिट्टी के बरतन बनाना, पर सियाली तो मौजमस्ती के लिए डांस ग्रुप जौइन करना चाहती थी, इसलिए उसे बाकी के औप्शन अच्छे  नहीं लगे.

सियाली ने अपने शहर के डांस ग्रुप इंटरनैट पर खंगाले, तो ‘डिवाइन डांसर’ नामक एक डांस ग्रुप ठीक लगा, जिस में 4 मैंबर लड़के थे और एक लड़की थी.

सियाली ने तुरंत ही वह ग्रुप जौइन कर लिया और अगले दिन से ही डांस प्रैक्टिस के लिए जाने लगी और इस नई चीज का मजा भी लेने लगी.

इस समय सियाली से ज्यादा खुश कोई नहीं था. वह तानाशाह हो चुकी थी. न मांबाप का डर और न ही कोई टोकने वाला. वह जब चाहती घर जाती और अगर नहीं भी जाती तो भी कोई पूछने वाला नहीं था. उस के मांबाप का तलाक क्या हुआ, सियाली तो एक ऐसी चिडि़या हो गई, जो कहीं भी उड़ान भरने के लिए आजाद थी.

एक दिन सियाली का फोन बज उठा. यह पापा का फोन था, ‘सियाली, तुम कई दिन से घर नहीं आई, क्या बात है? कहां हो तुम?’

‘‘पापा, मैं ठीक हूं और डांस सीख रही हूं.’’

‘पर तुम ने बताया नहीं कि तुम डांस सीख रही हो…’

‘‘जरूरी नहीं कि मैं आप लोगों को सब बातें बताऊं… आप लोग अपनी जिंदगी अपने ढंग से जी रहे हैं, इसलिए मैं भी अब अपने हिसाब से ही  जिऊंगी,’’ इतना कह कर सियाली ने फोन काट दिया था, पर उस का मन एक अजीब सी खटास से भर गया था.

डांस ग्रुप के सभी सदस्यों से सियाली की अच्छी दोस्ती हो गई थी, पर पराग नाम के लड़के से उस की कुछ ज्यादा ही पटने लगी थी.

पराग स्मार्ट था और पैसे वाला भी. वह सियाली को गाड़ी में घुमाता और खिलातापिलाता. उस की संगत में सियाली को भी सिक्योरिटी का अहसास होता था.

एक दिन पराग और सियाली एक रैस्टोरैंट में गए. पराग ने अपने लिए एक बीयर मंगवाई और सियाली से पूछा, ‘‘तुम तो कोल्ड ड्रिंक लोगी न सियाली?’’

‘‘खुद तो बीयर पीओगे और मु झे बच्चों वाली ड्रिंक… मैं भी बीयर पीऊंगी,’’ कहते हुए सियाली के चेहरे पर  एक अजीब सी शोखी उतर आई थी.

सियाली की इस अदा पर पराग भी मुसकराए बिना न रह सका और उस ने एक और बीयर और्डर कर दी.

सियाली ने बीयर से शुरुआत जरूर की थी, पर उस का यह शौक धीरेधीरे ह्विस्की तक पहुंच गया था.

अगले दिन डांस क्लास में जब वे दोनों मिले, तो पराग ने एक सुर्ख गुलाब सियाली की ओर बढ़ा दिया और बोला, ‘‘सियाली, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं और तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

यह सुन कर ग्रुप के सभी लड़केलड़कियां तालियां बजाने लगे.

सियाली ने भी मुसकरा कर पराग के हाथ से गुलाब ले लिया और कुछ सोचने के बाद बोली, ‘‘लेकिन, मैं शादी जैसी किसी बेहूदा चीज के बंधन में नहीं बंधना चाहती. शादी एक सामाजिक तरीका है 2 लोगों को एकदूसरे के प्रति ईमानदारी दिखाते हुए जिंदगी बिताने का, पर क्या हम ईमानदार रह पाते हैं?’’ सियाली के मुंह से ऐसी बड़ीबड़ी बातें सुन कर डांस ग्रुप के लड़केलड़कियां शांत से हो गए थे.

सियाली ने थोड़ा रुक कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं ने अपने मांबाप को उन की शादीशुदा जिंदगी में हमेशा लड़ते ही देखा है, जिस का खात्मा तलाक के रूप में हुआ और अब मेरी मां अपने प्रेमी के साथ लिवइन में रह रही हैं और पहले से कहीं ज्यादा खुश हैं.’’

पराग यह बात सुन कर तपाक से बोला, ‘‘मैं भी तुम्हारे साथ लिवइन में रहने को तैयार हूं,’’ तो सियाली ने इसे झट से स्वीकार कर लिया.

कुछ दिन बाद ही पराग और सियाली लिवइन में रहने लगे, जहां वे जी भर कर जिंदगी का मजा ले रहे थे. पराग के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी.

कुछ दिनों के बाद उन के डांस ग्रुप की गायत्री नाम की एक लड़की ने सियाली से एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘सियाली, तुम्हारी तो अभी उम्र बहुत कम है… और इतनी जल्दी किसी के साथ लिवइन में रहना… कुछ अजीब सा नहीं लगता तुम्हें…’’

सियाली के चेहरे पर एक मीठी सी मुसकराहट आई और चेहरे पर कई रंग आतेजाते गए, फिर उस ने अपनेआप को संभालते हुए कहा, ‘‘जब मेरे मांबाप ने सिर्फ अपनी जिंदगी के बारे में सोचा और मेरी परवाह नहीं की, तो मैं अपने बारे में क्यों न सोचूं… और गायत्री, जिंदगी मस्ती करने के लिए बनी है, इसे न किसी रिश्ते में बांधने की जरूरत है और न ही रोरो कर गुजारने की…

‘‘मैं आज पराग के साथ लिवइन में हूं, और कल मन भरने के बाद किसी और के साथ रहूंगी और परसों किसी और के साथ, उम्र का तो सोचो ही मत… बस मस्ती करो.’’

सियाली यह कहते हुए वहां से चली गई, जबकि गायत्री अवाक सी खड़ी रह गई.

तितली कभी किसी एक फूल पर नहीं बैठती… वह कभी एक फूल पर, तो कभी दूसरे फूल पर, और तभी तो  इतनी चंचल होती है और इतनी खुश रहती है… रंगबिरंगी तितली, जिंदगी से भरपूर तितली.

और हीरो मर गया : कहानी स्ट्रगल के साथी की

जुनून इतना पुरजोर था कि उसे मुंबई खींच कर ले गया, पर यह तो उसे मुंबई पहुंच कर ही पता चला कि हर दिन मुंबई पहुंचने वाले लोगों में फिल्मी हीरोहीरोइन बनने की ख्वाहिश रखने वाले लड़केलड़कियों की भी बड़ी भारी तादाद होती है.

रोजरोज मुंबई आने वाले ये लोग फिल्म स्टार बनने की ख्वाहिश रखने वाले स्ट्रगलरों की भीड़ में इजाफा करते जाते हैं. विनय भी इस भीड़ का हिस्सा बन गया. इसी भीड़ की धक्कामुक्की और रेलमपेल ने एक दिन उसे एक फिल्म ऐक्टिंग इंस्टीट्यूट के दरवाजे पर पहुंचा दिया.

विनय ने घर से लाए अपने रुपएपैसों की गिनती की, फिर उस ने एक ऐक्टिंग इंस्टीट्यूट के एक साल के कोर्स में दाखिला ले लिया. वहां विनय की मुलाकात उदय नाम के एक लड़के से हुई. लंबाचौड़ा उदय बहुत हैंडसम था, पर महीनेभर में विनय अपनी ऐक्टिंग के दम पर सब के आकर्षण का केंद्र बन गया. विनय और उदय की दोस्ती धीरेधीरे इतनी गहरी हो गई कि वे रूम पार्टनर बन कर साथसाथ रहने लगे.

कोर्स पूरा हो जाने के बाद आत्मविश्वास से भरे इन दोनों नौजवानों की मेहनत रंग लाई. दोनों को ही 1-1 फिल्म मिल गई. मगर विनय की फिल्म 2 रील की शूटिंग के बाद ही अटक गई. उसे 2 और फिल्मों का भी औफर मिला, मगर वे दोनों फिल्में भी किसी न किसी वजह से बीच में ही दम तोड़ गईं. उधर, उदय की फिल्म न केवल पूरी हुई, साथ ही सुपरहिट भी हुई.

उदय की धूम मच गई. नतीजतन, उस के सामने बड़ेबड़े बजट की फिल्मों के प्रस्ताव वालों की कतार लगी थी, तो विनय स्ट्रगल करने वाले कलाकारों की कतार में धक्के खातेखाते पीछे होता जा रहा था.

उदय एक बड़े फिल्मकार द्वारा गिफ्ट किए गए शानदार फ्लैट में शिफ्ट हो गया. विनय अपने रूम में अकेला रह गया, तो उस ने अपना नया रूम पार्टनर बना लिया.

विनय को हार तो स्वीकार थी, मगर घुटने टेकना स्वीकार नहीं था. नाकामी का अंधेरा जितना ज्यादा गहराता जाता, उतना ही कामयाबी के उजालोें के लिए उस की जद्दोजेहद और मजबूती से बढ़ती जाती. हिम्मत की इसी चट्टान से उस के दिल का दर्द कविता और कहानी बन कर फूटने लगा.

मशहूर टैलीविजन की हस्ती और सीरियल बनाने वाली प्रीता नूरी की नजर विनय के लेखन पर पड़ी, तो उन्होंने उसे सीरियल लिखने वाले लेखकों की अपनी टीम में शामिल कर लिया.

प्रीता नूरी के लेखकों की टीम में लेखन करने के अलावा विनय एक फिल्म पत्रिका में पार्टटाइम न्यूज रिपोर्टर भी हो गया था. इस तरह उसे इतनी आमदनी होने लगी थी कि वह फिल्मी दुनिया में अपने बूते अपनी जद्दोजेहद जारी रख सकता था.

एक दिन एक पत्रिका में विनय ने पढ़ा, ‘फिल्म स्टार उदय अब सुपरस्टार के पायदान के नजदीक.’

विनय को खुशी हुई. इस बात का संतोष हुआ कि कम से कम उस के साथी कलाकार को तो कामयाबी मिली.

एक दूसरी फिल्म पत्रिका ने लिखा, ‘उदय एक दिन फिल्मी दुनिया का ध्रुव तारा साबित होगा,’ तीसरी पत्रिका ने लिखा, ‘सुपरस्टार उदय :

द हैंडसम हीरो: आंखें रोमांटिक और मुसकराहट जानलेवा.’

विनय जिस फिल्म पत्रिका में न्यूज रिपोर्टर था, उस के संपादक को जब पता चला कि फिल्म स्टार उदय कभी विनय का रूम पार्टनर रहा है, तो वह विनय के पीछे ही पड़ गया कि वह उदय का कोई धांसू इंटरव्यू तैयार करे. साथ ही, पत्रिका को चाहिए थे फिल्म स्टार उदय के रोमांस के किस्से. स्टार बनने से पहले और बाद के इश्क की रंगरंगीली दास्तान.

विनय उदय से मिलने शूटिंग पर गया, तो उदय ने बिजी कह कर मिलने में आनाकानी की.

कई बार तो विनय को लगा कि उदय उसे देख कर भी अनदेखा कर आगे बढ़ जाता है.

यह देख विनय हैरान था. क्या उदय वाकई इतना बिजी है कि उस के पास स्ट्रगल के दिनों के अपने दोस्त से बात करने की फुरसत भी नहीं थी? वह क्या इतना बड़ा स्टार बन गया है कि मुझ जैसे मामूली आदमी से मिलने में उसे अपनी तौहीन महसूस होती है? पर वह तो पत्रकार की हैसियत से मिलना चाहता है. तो क्या अब उदय इतना बड़ा हो गया है कि उसे मीडिया की दरकार भी नहीं रही?

विनय ने दूसरे दिन फिर से उदय से मिलने की कोशिश की, पर वह नाकाम रहा. तीसरे दिन फिर कोशिश की, फिर नाकाम रहा. आखिर एक दिन उस ने उदय के घर पर फोन किया, तो पीए ने जवाब दिया, ‘साहब के पास अभी बिलकुल भी टाइम नहीं है.’

उधर दूसरी ओर फिल्म पत्रिकाओं में उदय के चटपटे इंटरव्यू छप रहे थे.

विनय ने सिर थाम लिया. उस का संपादक उस के बारे में क्या सोच रहा होगा. दूसरी पत्रिकाओं में चटपटी खबर को पढ़ कर विनय ने उदय के पीए को मन ही मन कोसा, ‘देखो तो इसे… बोलता है कि साहब के पास अभी टाइम नहीं है. अच्छा, तो साहब के पास आजकल रोमांस के लिए टाइम है, दोस्तों से मिलने के लिए नहीं है’, विनय ने अपनेआप को भी कोसा, ‘तेरी तो किस्मत ही खराब है. फिल्मों में ऐक्टिंग करना तो दूर रहा, फिल्म पत्रकारिता भी तेरे बस की नहीं. छोड़ दे यह फिल्मी दुनिया…’

‘नहीं छोड़ूंगा,’ विनय के भीतर से आवाज आती रही और वह अपनी जिद पर डटा रहा कि वह फिल्मी दुनिया नहीं छोड़ेगा. वह इसी फिल्मी दुनिया में कामयाबी की अपनी एक अलग राह खोज कर रहेगा.

उधर, प्रीता नूरी विनय की काबिलीयत से काफी प्रभावित हो चुकी थीं. उन्होंने विनय को एक फिल्म की कहानी और पटकथा पर आयोजित एक मीटिंग में बतौर सलाहकार अपने साथ बिठाया. फिल्म इंडस्ट्री के मशहूर लेखक प्रवीण तन्मय कहानी और पटकथा पेश कर रहे थे. उस मीटिंग में फिल्म के हीरो और हीरोइन भी शामिल थे.

वहां विनय ने महसूस किया कि फिल्म इंडस्ट्री में पहले की तुलना में लेखकों की इज्जत काफी बढ़ चुकी है. उस ने देखा कि केवल डायरैक्टर और फिल्मकार ही नहीं, बल्कि फिल्म के हीरोहीरोइन भी लेखक प्रवीण तन्मय को काफी इज्जत दे रहे थे.

विनय को लगा कि वह भी एक कामयाब फिल्म लेखक बन सकता है.

इधर लेखक प्रवीण तन्मय की कहानी से प्रीता नूरी इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने उस का डायरैक्शन भी उन्हें ही सौंप दिया. प्रवीण तन्मय ने जब इस फिल्म के डायरैक्शन की बागडोर संभाली, तो विनय को अपना चीफ असिस्टैंट बनाया. कामयाबी के पायदान की तरफ विनय का यह पहला ठोस कदम था. उस का खोया हुआ आत्मविश्वास फिर से लौट आया था. भीतर के उजाले से उस की बाहर की दुनिया भी बदलनी शुरू हो गई थी.

एक दिन अचानक विनय के भीतर एक कहानी का आइडिया कौंध गया और कुछ समय चुरा कर उस ने कहानी पूरी कर ली, जिस का नाम था ‘और हीरो मर गया’.

इस कहानी ने खुद विनय को इतना रोमांचित कर दिया कि आननफानन उस ने उसे पटकथा और संवादों में भी ढाल दिया. फिल्म राइटर्स एसोसिएशन में रजिस्ट्रेशन कराने के बाद उस ने अपनी यह कहानी प्रवीण तन्मय को दिखाई. प्रवीण तन्मय खुशी से उछल पड़े. कहानी प्रीता नूरी को भी सुनाई गई, तो वे भी मुग्ध हो गईं.

इसी बीच लेखक प्रवीण तन्मय के डायरैक्शन में बनी फिल्म ‘युद्ध जारी है’ हिट हो चुकी थी. प्रवीण तन्मय को कुछ दूसरे प्रोड्यूसरों से भी लेखन और डायरैक्शन के प्रस्ताव मिल रहे थे, लिहाजा, वे काफी बिजी हो गए थे. इधर प्रीता नूरी ने विनय की कहानी ‘और हीरो मर गया’ के डायरैक्शन का भार विनय को ही सौंप दिया. कामयाबी के पायदान पर विनय का यह दूसरा ठोस कदम था.

फिल्म कम समय और कम लागत में बन कर तैयार हो गई. फिल्म में कोई बड़ा स्टार नहीं था. कहानी के मुताबिक, नए और छोटे कलाकारों को फिल्म में लिया गया था और तकरीबन सभी कलाकारों ने गजब की ऐक्टिंग की थी.

फिल्म ने लागत से कई गुना ज्यादा आमदनी की और इस तरह विनय का नाम हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में एक जानामाना नाम बन गया. कामयाबी के पायदान पर विनय का यह तीसरा ठोस कदम था.

विनय की तीसरी फिल्म ने तो इतनी कमाई कर डाली कि खुश हो कर फिल्मकार ने विनय को एक शानदार फ्लैट गिफ्ट कर दिया. अब विनय से कहानी लिखवाने व डायरैक्शन के लिए फिल्मकारों की लंबी कतार लग गई. उधर, उदय की 5 फिल्में लगातार पिट गई थीं. उस की फिल्मों के शूटिंग शैड्यूल ही कैंसिल हो गए.

एक दिन विनय तब सुखद आश्चर्य से भर गया, जब उदय को अपने सामने खड़ा पाया. यह वही सुपरस्टार उदय था, जिस के पास स्ट्रगल के दिनों के अपने साथी को पहचानने और बात करने का समय नहीं था.

विनय ने हैरानी से उदय से पूछा, ‘‘सुपरस्टारजी, आप तो धांसू डायलौग डिलीवरी के लिए मशहूर हैं और मेरी कहानियों के डायलौग बहुत साधारण होते हैं. कहानी भी सीधेसादे पात्रों को ले कर होती है.

‘‘हर फिल्म में आप की ड्रैसें महंगे फैशन डिजाइनरों द्वारा तैयार की जाती हैं और मेरी कहानी के पात्र तो आम होते हैं, इसलिए उन्हें साधारण पोशाक ही सूट करती हैं.

‘‘आप तो जोखिम भरे स्टंट करने के लिए मशहूर हैं. फिल्म में एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग पर छलांग लगाते हुए आप को देख कर दर्शक रोमांचित हो जाते हैं, जबकि मेरी कहानियों के पात्र हवा में नहीं उड़ते, जमीन पर चलते हैं.

‘‘आप की अभी तक की रिकौर्डतोड़ फिल्मों की कामयाबी का क्रेडिट परदे पर आप के द्वारा गाए गए सुपरहिट गीतों को दिया जाता है, डांस को दिया जाता है, जबकि मेरी कहानी के किरदार तो जिंदगी की हकीकत से रूबरू कराते हैं. भला आप ऐसे साधारण किरदारों को परदे पर करना क्यों पसंद करोगे?’’

सवाल का खुद जवाब न देते हुए उदय ने विनय से ही पूछ लिया, ‘‘हां, मैं जानता हूं कि आप की कहानियों के पात्र आम आदमी होते हैं, साधारण होते हैं. तो आप ही बताइए कि फिर दर्शक उन्हें पसंद क्यों कर रहे हैं?’’

उदय की बात सुन कर विनय बोला, ‘‘क्योंकि मेरी कहानियां मौलिक और असली होती हैं.’’

उदय ने विनय का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘मैं उन उंगलियों को चूमना चाहता हूं, जो ऐसी कहानियों को लिख रही हैं. कामयाबी के घमंड ने मुझे अंधा बना दिया था, पर स्ट्रगल से मिली आप की कामयाबी के उजालों ने मेरी आंखें खोल दी हैं. मेरी पतंग तो हवा में उड़ रही थी. कामयाबी तो यह है, जो आप ने अपने खूनपसीने से हासिल की है. फिल्म इंडस्ट्री में आप ने अपना पैर अंगद के पैर की तरफ जमा दिया है. मैं आप को बधाई देता हूं. हो सके, तो मुझे माफ कर दो.’’

विनय ने उदय को अपनी छाती से लगा लिया. उदय बोला, ‘‘भाग्य के भरोसे पर टिकी बेतुकी फिल्मों की अपनी कामयाबी से मेरा मन ऊब गया है. मैं जमीन पर पैर रख कर अपनी मेहनत से अपने हुनर को तौलना चाहता हूं.

‘‘दोस्त, तुम तो स्ट्रगल के दिनों के मेरे साथी हो. मेरे लिए कोई ऐसी ही कहानी लिखो न, जिस का किरदार विलक्षण हो, पर धरती के आम इनसान की तरह हो.’’

विनय ने उदय के सादगी से दमकते चेहरे की ओर देखा तो देखता ही रह गया. अब वह फिर वही पहले जैसा कलाकार उदय हो गया था. उस के भीतर का हीरो मर चुका था.

नायर साहब : सेना के सीक्रेट मिशन का अनोखा कोडवर्ड

टारगेट प्रैक्टिस कर रहे कमांडो सन्नी की गन से लगातार निकल रही गोलियां अचूक निशाने पर लग रही थीं. हर गोली कुछ एमएम इधरउधर हो रही थीं. रैपिड फायरिंग हो या लौंग रेंज या शौर्ट रेंज. गोलियों की आवाज कुछ देर के लिए रुकी. सामने लाल बत्ती जलबुझ रही थी. यह इमर्जैंसी का सिगनल था.

‘‘इमर्जैंसी?‘‘

इस के लिए ये कोई नई बात नहीं थी, चौबीसों घंटे वरदी पहने रहता था. पर बेस्ट कमांडो को प्रैक्टिस रोक कर बुलाने का मतलब…?

‘‘कोई हाईजैकिंग, टैररिस्ट अटैक हुआ क्या…?‘‘ सन्नी ने बाहर निकल कर घंटी बजाने वाले जवान से पूछा.

‘‘सर कुछ पता नहीं न्यूज चैनल में तो कुछ भी खास नहीं. वैसे तो वो लोग सभी न्यूज को ब्रेकिंग न्यूज बताते हैं. आप सर बेस्ट कमांडो अफसर हैं, वे लोग आप को बताएंगे, आप का मोबाइल नौनस्टौप बज रहा था, इसलिए आप को सिगनल दिया.‘‘

‘‘इडियट, जोकर है तुम… मोबाइल बज रहा था तो क्या…?‘‘ नाराज हो कर सन्नी लौटने वाला था.

तभी डरतेडरते जवान ने कहा, ‘‘सरजी, आप का स्पैशल मोबाइल बज रहा था और हैडक्वार्टर से आप का हालचाल कोई नायर साहब पूछ रहे थे कि आप की तबीयत कैसी है…?‘‘

‘‘ओह नायर साहब, वे तो मेरे दोस्त हैं…‘‘ सन्नी के तेवर नरम पड़े. प्रैक्टिस बीच में छोड़ना उसे पसंद नहीं था, पर बात जरूर खास थी.

‘‘मेरा प्रैक्टिस चैंबर बंद कर दो. अब मूड नहीं है,‘‘ सन्नी अपना सामान कप बोर्ड में रखता हुआ बोला.

सन्नी अपना बैग ले कर तुरंत गाड़ी में बैठा. ‘नायर साहब‘ कोड था कि कोई सीक्रेट मिशन है, जिस की चर्चा तक नहीं करनी है. स्पैशल हैक न होने वाले मोबाइल पर टैक्स्ट मैसेज था – आप का दिन शुभ हो, नायर साहब औफिस में आप का इंतजार कर रहे हैं.

औफिस पहुंच कर उस ने पूरे मिशन – ‘मिशन ग्रीन‘ की बारीकी से स्टडी की. 85 सीआरपीएफ जवानों की हत्या हुई थी और तमाम उपायों के बाद भी माओवादी हिंसा रुक नहीं रही थी. सन्नी जानता था कि उस का चयन बहुत ही सोचसमझ कर किया गया था. वह भी गांव का रहने वाला था और वहां की हर तरह के हालात को बेहतर तरीके से हैंडल कर सकता था.

सन्नी दूर तक फैले जंगल और ऊंची पहाड़ियों की ओर मुड़मुड़ कर देखता. आसपास के गांव की तलाश में आगे बढ़ा. जंगल अब खत्म हो गए थे और जंगल किनारे के खेत नजर आने लगे थे.

‘आपरेशन ग्रीन‘ सफल रहा था और उस ने उन के सुप्रीम कमांडर को मार गिराया था. किसी को पता नहीं था कि 2 गुटों की दबदबे की लड़ाई की आड़ में दोनों ओर के मारे गए लोग उस की अचूक निशानेबाजी के शिकार हुए थे. यह उस के पहले इंस्ट्रक्टर बुद्धन गुरु की सिखाई रणनीति थी, जो इसी इलाके के थे और अब रिटायर हो चुके थे.

अपनी सफलता की कहानी वह कमांडो ट्रेनिंग हैडक्वार्टर तक पहुंचा भी नहीं पाया था, क्योंकि कोई भी संचार उपकरण रखना खतरे से खाली नहीं था. अब वह निहत्था भी था. हथियार पहाड़ी झरने में फेंक आया था, ताकि कोई उसे पहचान न पाए.

पर उसे भी 2 गोलियां लगी थीं. वह बैस्ट कमांडो था और हर हालात में अपने को बचाने और जीवित रखने के तरीके जानता था, पर सीक्रेट मिशन के कारण वह ग्रामीण वेशभूषा में था और भयंकर गोलीबारी में अपने छापामार युद्ध के बाद बहुत खून बहने के कारण बुरी तरह थक चुका था. अब आपरेशन कर गोली निकालने में किसी अस्पताल या सरकारी एजेंसी की मदद भी नहीं ले सकता था.

नजदीकी थाना 20 किलोमीटर दूर था. दूसरे किसी और का मोबाइल इस्तेमाल करना बहुत हद तक खतरनाक था, क्योंकि वहां मोबाइल उन के ही लोगों के पास थे और कोई ऐसा समर्थक भी नहीं था तो किसी डाक्टर के आने पर उस से माओवादियों को शक हो जाता. अब उस के पास एक ही रास्ता था किसी रिटायर्ड फौजी या पुलिस वाले से मदद ले कर गोली बाहर निकलवाना.

‘‘पर, ऐसा फौजी इस जंगल के बीच मिलेगा कहां? अगर मिल भी गया तो इन माओवादियों के डर से उस की मदद कौन करेगा?‘‘

गांव में उस के खून सने कपड़े देख कर कोई मदद के लिए तैयार नहीं था. एक दयालु बुढ़िया ने उसे एक फौजी का घर दिखाया. दरवाजे की सांकल बजाते ही वह बुखार और कमजोरी से बेहोश हो कर गिर गया.

कई दिनों के बाद होश में आने पर उस ने अपने पहले इंस्ट्रक्टर हवलदार बुद्धन को देखा, जिस ने आज से 10 साल पहले उसे छापामार युद्ध की बारीकियां सिखाई थीं. वह अपने बारे में बताना चाह रहा था, पर गले में कांटे चुभ रहे थे और बोलना संभव नहीं था. वह अपने जमाने के बेस्ट इंस्ट्रक्टर के घर में था, इसलिए बच गया था. उसे हवलदार बुद्धन की दूर से आती आवाज सुनाई दी. वह स्थानीय भाषा में उस से उस का परिचय पूछ रहा था. फिर उस की आंखें मुंद गई थीं.

वह समझ गया था कि बुद्धन ने उसे नहीं पहचाना था. उस के जैसे सैकड़ों कमांडो को उस ने ट्रेनिंग दी होगी, कितनों को पहचानेगा? दूसरे, यहां एनएसजी के बेस्ट कमांडो का पाया जाना कल्पना से परे था. यहां तो पुलिस या पैरामिलिट्री फोर्स के जवान आते थे जो बाहरी होते थे और हावभाव, बोलीभाषा से पहचान लिए जाते थे.

पर, ये बात बुद्धन से छिपी नहीं रह सकती थी कि बहुत ही सफाई से दो खूंख्वार माओवादी गुटों को समाप्त करना किसी कमांडो के अलावा किसी से संभव नहीं था और वो भी जो यहां की भाषा, संस्कृति के साथ भूगोल से अच्छी तरह वाकिफ हो. ऐसे में अपने पुराने शिष्य को पहचान लेना मुश्किल नहीं था.

सन्नी ने अपना परिचय और उद्देश्य बता देना उचित समझा, क्योंकि वह जानता था कि बुद्धन एक देशभक्त फौजी रह चुका था और सच जानने के बाद यहां से सुरक्षित निकालने में उस की मदद कर सकता था.

एक दिन अकेले में जब बुद्धन उस की मरहमपट्टी कर रहा था, तो उस ने बुद्धन से पूछा, ‘‘सर, आप मिलिट्री में कहां थे?‘‘

बुद्धन चुप रहा और उसी दिन उसे अपने खेत के पास वाले घर में ले गया, जहां गांव वालों का आनाजाना नहीं था. वहां उस ने उसे उस के नाम से संबोधित कर कहा, ‘‘सन्नी, जब तक मैं न आऊं, किसी भी हाल में बाहर झांकना तक नहीं.‘‘

यह सुन कर सन्नी सन्न रह गया. उस का अनुमान सही था, तभी उसे याद आया कि उस की कोहनी के भीतरी तरफ दो निशान थे, जो हर बेस्ट कमांडो के हाथों में होते हैं. आम आदमी न समझ पाए, पर बुद्धन गुरु के लिए ये बहुत आसान था कि साधारण से दिखने वाले इस जवान के हाथ में ये निशान 2 छेद करने पर बने थे, जो खुद का खून पी कर जिंदा रहने की अंतिम ट्रेनिंग होती है. सन्नी किसी भी हालात के लिए तैयार था, जो उस की आदत थी.

उस सुनसान से घर में दिन में कुछ लोगों की आवाजें सुनाई पड़ती थीं, जो खेतों में काम करते थे. उन की बातें सुन कर उसे पता चला कि एक मारा गया सुप्रीम कमांडर उसी गांव का था और उस के बचेखुचे साथी दूसरे गुट और उस के सुप्रीमो से बहुत नाराज थे, जिस ने उस की हत्या की थी और खुद भी मारा गया था. अभी तक दूसरा गुट इस सदमे से उबर नहीं पाया था.

एक दिन एकदम मुंहअंधेरे बुद्धन गुरु उस के पास आया और बोला, ‘‘सन्नी, अब तुम बिलकुल ठीक हो. कुछ दिन मिलिट्री हौस्पिटल में रहोगे तो ड्यूटी के लिए फिट हो जाओगे. मैं ने पास के पुलिस कैंप से आगे जाने की व्यवस्था कर दी है. अभी चलो मेरे साथ…‘‘

सन्नी ने इतने दिनों तक रोज उसे दिनरात खिलानेपिलाने सेवा करने वाली बुद्धन की पत्नी से मिल कर आभार प्रकट करने की इच्छा व्यक्त की, ‘‘सर, मैं चाचीजी से मिल कर उन के पैर छूना चाहता हूं…‘‘

‘‘अभी उस की तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए उस को परेशान करना उचित नहीं,‘‘ बुद्धन ने कहा. दोनों तेजी से आगे बढ़ ही रहे थे कि बुद्धन की पत्नी सामने राइफल लिए खड़ी थी, ‘‘चलिए, मैं भी इसे छोड़ने चलती हूं और आप राइफल के बिना जंगल में निकलते कैसे हैं?‘‘

सन्नी ने 1-2 बार उन का आभार व्यक्त करने की कोशिश की, पर उन्होंने बात बदल दी, ‘‘यह जंगल है. यहां हर पल सावधान रहना पड़ता है, आगे देखो…” उन के उखड़े हुए स्वर से लगा कि वह अनचाहा मेहमान था. बुद्धन गुरु पहले की तरह भावहीन थे. सुबह होतेहोते तीनों जंगल के छोर पर पहुंच गए थे.

बुद्धन ने कहा, ‘‘यह रास्ता सीधा पुलिस कैंप तक जाएगा, कोई अगर पूछे तो बताना कि मेरे मेहमान हो, शहर जाना है.‘‘

सन्नी ने दोनों के पैर छुए, पर दोनों ने कुछ कहा नहीं. दो कदम आगे बढ़ते ही बुद्धन की पत्नी ने चिल्ला कर कहा, ‘‘अब हमारी सीमा समाप्त हो गई है और इसलिए ये हमारा मेहमान नहीं है. गोली मारो मेरे एकलौते बेटे के हत्यारे को…‘‘

सन्नी समझ गया था कि सुप्रीम कमांडर, जिस की उस ने हत्या की थी, बुद्धन सर का ही भटका हुआ बेटा था. राइफल कौक हुआ… सन्नी समझ चुका था कि अब एक बेटे का बाप उस के हत्यारे को सजा देने के लिए तैयार था, ठीक उस की तरह बुद्धन सर का निशाना कभी नहीं चूकता…

कुछ पल और बाकी थे और पीछे से गोली का एक धक्का उस के सिर के टुकड़े करने वाला था. उस ने अंतिम बार अपनी मां को याद किया…

गोली चली, पर यह हवाई फायर था. गोली पेड़ के ऊपर टहनियों से टकरा कर आगे निकल गई थी… वह समझ गया था कि एक रिटायर्ड फौजी भी फौजी ही होता है, जिस के लिए देश सब से पहले होता है. सन्नी ने उस दंपती को खड़े हो कर सैल्यूट किया और तेजी से आगे बढ़ गया.

हेलीकौप्टर के पायलट की बात सुन कर उस का पत्थरदिल भी पसीज गया, ‘‘सर, बुद्धन सर नहीं आए, उन्होंने ही हेडक्वार्टर फोन कर आप के लिए हेलीकौप्टर मंगवाया था.

‘‘सर, सच है, ‘‘वंस ए सोल्जर आल्वेज ए सोल्जर.‘‘

विरासत : मां का कद ऊंचा करती एक बेटी

मुझे ऐसा क्यों लगने लगा है कि शादी के बाद  लड़कियां बदल सी जाती हैं और उन का वह घर जहां वह अभी कुछ माह या साल पहले गई थीं, अधिक प्रिय हो जाता है. लगता है कि मेरी बेटी कामना के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ है. आती है तो खोईखोई सी रहती है, भाईबहन के साथ की वह धींगामस्ती भी अब नजर नहीं आती. छोटे भाईबहन को कभीकभार आइसक्रीम खिलाने ले जाना, कोई पिक्चर दिखाना या शापिंग के लिए ले जाना, सब ‘रुटीन वे’ में होता है. आज तो उस ने हद ही कर दी. मैं उस की पसंद का मूंग की दाल का हलवा बनाने में व्यस्त थी तभी मैं ने सुना वह अपनी छोटी बहन भावना से कह रही थी, ‘‘भानु, अब की बार मैं जल्दी चली जाऊंगी. तेरे जीजाजी आने वाले हैं. कैंटीन का खाना उन को बिलकुल सूट नहीं करता. आज शाम को बाजार चलते हैं, मुझे मम्मीजी की साड़ी भी लेनी है.’’

यह मम्मीजी कौन हैं? आप को बताने की जरूरत नहीं है. वही हैं जो ससुराल जाने पर हर लड़की की अधिकारपूर्वक मम्मीजी बन जाती हैं, चाहे वह उसे असली मम्मी की तरह मानें या न मानें.

मैं गलत नहीं कह रही हूं. पिछले 10 दिनोें से मुझे वायरल फीवर भी था. थोड़ी कमजोरी भी महसूस कर रही थी, पर उस कालिज से, जहां मैं पढ़ा रही थी, मैं ने छुट््टी ले ली थी. मुझे बस एक ही धुन थी कि बेटी को वह सब चीजें खिला दूं जो उसे पसंद थीं और वह थी कि अपनी बहन से जाने की जल्दी बता रही थी. जैसे मैं अब उस के लिए कुछ नहीं थी.

तभी मैं ने यह भी सुना, ‘‘भानु, इस सितार पर तो धूल जम गई है, तू क्या इसे कभी नहीं बजाती? मैं तो पहले ही जानती थी कि तू साइंस की स्टूडेंट है, भला तुझे कहां समय मिलेगा सितार बजाने का? मां से कह कर मैं इस बार यह सितार लेती जाऊंगी. मैं वहां क्लास ज्वाइन कर के सितार बजाना सीख लूंगी, वैसे भी अकेले बोर होती हूं.’’

हलवा बन चुका था पर कड़ाही कपड़े से पकड़ कर उतारना भूल गई तो उंगलियां जल गईं. अब किसी को बुला कर सितार पैक कराना होगा, जिस से लंबे सफर में कुछ टूटेफूटे नहीं. बेटी है न, उस के जाने के खयाल से ही मेरी आंखें भर आई थीं. मैं ने जल्दी से आंखें आंचल से पोंछ लीं. लगता है, मेरी बेटी अपनी सारी चीजें जिन से मेरी यादें जुड़ी हुई हैं, मुझ से दूर कर ही देगी.

पिछली बार जब वह आई थी, मैं उस के रूखे, घने, लंबे केशों में तेल लगा रही थी कि अचानक ही मैं ने सुना, ‘मां, मैं वह मसूरी वाली ‘पोट्रेट’ ले जाऊं जो आप ने ‘एम्ब्रायडरी कंपीटीशन’ के लिए बनाई थी. वही वाली जो आप ने प्रथम पुरस्कार पाने के बाद मुझे मेरे जन्मदिन पर प्रेजेंट कर दी थी. मम्मीजी उसे देख कर बहुत खुश होंगी. आप ने कितनी सुंदर कढ़ाई की है. पहाड़ लगता है बर्फ से भरे हैं.’’

मैं हां कहने में थोड़ी हिचकिचाई. कितने पापड़ बेलने पड़े थे उस तसवीर को काढ़ने में. कितने प्रकार की स्टिचेज सीखनी पड़ी थीं उसे पूरा करने में, और वह मुझ से ले कर उसे अपनी उन मम्मीजी को दे देगी. पर कोई बात नहीं, मैं तो उसे खुश देखने के लिए अपनी कोई भी प्रिय वस्तु देने को तैयार थी, यह तो फ्रेम में जड़ी केवल एक तसवीर ही थी.

अनुराग उसे लेने सुबह ही आ गया था. शाम को जब मैं दोनों को चाय के लिए बुलाने गई तो देखा दोनों दीवार से तसवीर उतार कर यत्नपूर्वक ब्राउन पेपर  के ऊपर अखबार लपेट रहे थे.

मैं ने दीवार की तरफ देखा, कितनी सूनी, बदरंग सी लग रही थी. ठीक उसी तरह जैसे कामना के चले जाने के बाद उस का कमरा लगता था. मैं बिना कुछ बोले तेज कदमों से वापस लौट आई. कब सुबह हुई, जल्दीजल्दी नाश्ता हुआ फिर साथ ले जाने का खाना पैक हुआ और कामना विदा हो गई, पता ही न चला. भावना सिसक रही थी, ‘‘दीदी, जल्दी आना.’’ मैं चुपचाप उसे देखती रही जब तक कि वह आंखों से ओझल न हो गई.

हर बार की तरह तीसरेचौथे महीने कामना नहीं आई. मैं सोचसोच कर परेशान थी कि क्या कारण हो सकता है उस के न आने का. तभी उस की मम्मीजी का एक छोटा सा पत्र मुझे मिला.

‘अत्यंत प्रसन्नता से आप को सूचित कर रही हूं कि हम दोनों की पदोन्नति हो गई है, यानी कि आप नानी और मैं दादी बनने वाली हूं. कामना को एकदम डाक्टर ने बेड रेस्ट बताया है, इसलिए कुछ महीने बाद ही जा सकेगी वह. हां, गोदभराई के लिए आप को हमारे यहां आना होगा क्योंकि हमारे घर की परंपरा है कि पहला बच्चा ससुराल में ही होता है. अत: डिलीवरी भी यहीं होगी. आप बिलकुल निश्ंिचत रहिएगा क्योंकि मैं भी तो कामना की मम्मी हूं.’

पत्र पढ़ कर कामना के न आने का दुख तो मैं भूल ही गई और खुशी से भावना को जोर से आवाज दी. खबर सुन कर वह भी नाच उठी. घर में कितनी ही देर तक हर्षोल्लास का वातावरण बना रहा. कामना के पापा जहां पोस्टेड थे वहां से घर वह छुट््टियों में ही आते थे. इस बार हमसब एकसाथ गए रस्म अदा करने. बेटी को देख कर उतनी ही खुशी हुई जितनी अपने हाथों से लगाए वृक्ष को फूलतेफलते देख कर होती है.

रस्म अदा करने के बाद कामना मेरा हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘मां, चलो, तुम्हें कुछ दिखाते हैं.’’

एक कमरे के पास आ कर वह रुक गई और बोली, ‘‘देखो मां, यह बच्चे की नर्सरी है.’’ अंदर जा कर मैं चकित रह गई. दीवार पर हलके रंग का प्लास्टिक पेंट, फूलपत्तियां बनी हुईं, छोटेछोटे बच्चे ऐंजेल बने हुए थे. एक तरफ ‘क्रिब’ में बिछी हुई गुलाबी प्रिंटेड और गुलाबी उढ़ाने की चादर भी. दूसरे कोने में तरहतरह के खिलौने, नर्सरी राइम्स की किताबें करीने से सजी हुईं.

‘‘मां, तुम मेरी वह छोटी कुरसीमेज भेज देना जिस पर मैं बचपन में पढ़ती थी.’’

मैं ने प्यार से उस के गाल पर हलकी सी चपत लगाई, ‘‘हां, मैं जाते ही शिबू से तुम्हारी मेजकुरसी पहुंचवा दूंगी.’’

कहना नहीं होगा, शिबू ही उस की देखभाल करता था जब मैं कालिज पढ़ाने चली जाती थी. घर पहुंचते ही कामना का कमरा खोला, दीवार पर उस के बचपन की कितनी ही तसवीरें लगी हुई थीं. एक कोने में उस की छोटी कुरसीमेज, मेज पर उस का एक छोटा सा बाक्स भी रखा हुआ था. बाक्स नीचे रखा और कुरसीमेज पेंट करा के उसे कामना की ससुराल पहुंचाने की बात मैं ने शिबू को बताई.

वह दिन भी आया कि कामना अपने छोटे से बेटे को साथ लिए आई. साथ में उस का पति अनुराग भी था. मैं तो कब से तीनों की राह देखती दरवाजे पर खड़ी थी. आगे बढ़ कर मैं ने बच्चे को गोद में ले लिया और चूम लिया.

‘‘मां, तुम मुझे प्यार करना भूल गईं.’’

‘‘अब तुम बड़ी जो हो गई हो,’’ मैं ने हंस कर कहा.

हंसीखुशी के बीच महीना कैसे बीत गया, पता ही न चला. कामना अकसर बच्चे को अपने कमरे में ले जाती, खिलाती, सुलाती.

कल ही उस की ट्रेन थी. मैं बरामदे की आरामकुरसी पर लेटी ही थी कि कामना आ पहुंची.

‘‘मां, बहुत थक गई हो न. लाओ न पैर दबा दूं थोड़ा,’’ और हाथ में ली हुई फाइल उस ने पास की कुरसी पर रख दी, पर मैं ने अपने पैर समेट लिए थे.

‘‘अरे, मैं तो ऐसे ही लेट गई थी’’ तभी बेटे के रोने की आवाज सुन कर वह चल दी. उत्सुकतावश मैं ने फाइल उठा ली. देखने में पुरानी किंतु नए रंगीन ग्लेज  पेपर, रिबन से बंधी हुई. मैं सीधे बैठ गई. अंदर लिखाई जानीपहचानी सी लग रही थी. फाइल में कितनी ही कटिंग थीं, समाचारपत्रों की, कालिज की पत्रिकाओं की. मेरी लिखी हुई टिप्पणियां भी थीं.

हां, वह पहली कटिंग भी थी जब कामना 8वीं में पढ़ती थी. मुझे याद आ गया, कामना 100 मीटर की रेस में भाग लेने वाली थी, कितनी ही बार वह खेलों में भाग ले कर पुरस्कार भी पा चुकी थी. पर उस दिन उस के पैर में भयानक दर्द था. कुछ मलहम मला, सिंकाई की, दवाई खिलाई, पैर में कस कर पट््टी बांध दी, पर उस के पैर के ‘क्रैंप’ न गए. उधर उस की जिद थी कि वह रेस में भाग जरूर लेगी. मुझे भी अपने कालिज पहुंचना जरूरी था. मैं ने शिबू द्वारा थर्मस में गरम दूध में कौफी डाल कर और एक नोट लिख कर भेजा, ‘बेटी कामना, रेस में हार कर दुखी मत होना. जीवन में ऐसी बहुत सी रेस आएंगी और तुम जरूर ही जीतोगी. तुम मेरी रानी बेटी हो न, हारने पर मन छोटा मत करना.’

मैं जब कालिज का काम खत्म कर कामना के स्कूल के सालाना स्पोर्ट्स देखने पहुंची तो कामना अपनी कक्षा की लड़कियों के साथ पिरामिड बनाने में लगी थी. सब से ऊपर वही थी. तालियों से मैदान गूंज उठा.

मुझे सुकून हुआ कि मेरी बेटी हार कर भी निराश नहीं थी. खेल खत्म होने पर जब वह मेरे पास आई तो उस की आंसू भरी आंखों को मैं ने चूम लिया था, इस की कटिंग भी थी.

ऐसी ही कितनी कटिंग काट कर उस ने संजो कर करीने से लगाई थीं. अकसर हम दोनों ही व्यस्त हो जाते थे, दूर हो जाते. मैं कभी परीक्षा लेने दूसरे शहर चली जाती तो मेरी अनुपस्थिति में उसे ही घर सुचारु रूप से चलाना है, मैं उसे लिख कर भेजती. लौट कर देखती कि वह थोड़े ही दिनों में और भी बड़ी हो गई है. किसी को मेरी याद तक न आती थी. कामना, जो घर में थी उन्हें संभालने के लिए.

मैं तल्लीन हो कर पेज पलटने में लगी थी तभी कामना आ पहुंची. एक शरारत भरी हंसी उस के अधरों पर फैल गई, ‘‘मां, अपनी फाइल ले जाऊं मैं,’’ मैं ने उठ कर कामना को सीने से लगा लिया. कौन कहता है कि बेटियां अपने उस घर के लिए बटोरती ही रहती हैं? सच तो यह है कि ये बेटियां ही तो मांबाप की सिखाई हुई अच्छीअच्छी बातों की विरासत से अपने उस दूसरे घर को भी प्रकाशमान करती हैं. मेरी इस बेटी ने इस विरासत को अपना कर मेरा सिर कितना ऊंचा कर दिया था.

तीन प्रश्न : कौन से सवाल थे वो

मैं पाकिस्तान की यात्रा पर जा रहा था. भारत का कभी हिस्सा रहे इस देश को करीब से देखने का यह मेरा पहला मौका था. वीजा लेने की कठोर कसरत के बाद मैं दिल्ली से अटारी जाने वाली समझौता एक्सप्रेस में रात को सवार हो गया. ट्रेन में अलगअलग तरह के यात्री मिल रहे थे. किसी को अपने रिश्तेदारों से मिल कर लौटने का गम था तो कोई रिश्तेदारों से मिलने जाने की खुशी लिए था और कोई भारी मात्रा में सामान बेच कर रुपए कमाने की चाहत लिए जा रहा था.

अलगअलग आवाजें आ रही थीं :

‘‘मेरे सारे रिश्तेदार पाकिस्तान में हैं. अब 60 साल बाद मिलने जा रहा हूं.’’

‘‘मेरी बेटी की शादी भारत में हुई है, 20 साल बाद मिली थी. अब अपनी नवासी की शादी कर के लौट रही हूं.’’

‘‘बंटवारे के बाद मेरा सारा कुनबा भारत आ कर बस गया. अपने मूल वतन रावलपिंडी देखने का सपना आज पूरा हुआ है.’’

‘‘10 हजार बनारसी साडि़यां पाकिस्तान ले जा कर बेचूंगा, वहां वे सोने के भाव बिकेंगी.’’

अगली सुबह, गाड़ी अटारी स्टेशन पहुंच गई. वहां से लगभग 10 किलोमीटर आगे बाघा बोर्डर पड़ता है, जहां से पाकिस्तानी सीमा शुरू होती है. लोग अपनाअपना सामान समेट कर इमिग्रेशन के लिए तैयार हो गए. पासपोर्ट और वीजा की जांच के बाद कस्टम की काररवाई होती है जोकि इस यात्रा का सब से तकलीफदेह हिस्सा होता है.

मुसाफिरों के सामान को खोल कर कस्टम अधिकारी एकएक चीज को झाड़ कर तलाशी ले रहे थे और लोगों से खूब रुपए भी ऐंठ रहे थे. यहां मजबूरी में लोग न चाहते हुए भी कस्टम से पीछा छुड़ाने के लिए रुपए खर्च कर रहे थे.

कस्टम की औपचारिकता के बाद यात्री एक बडे़ गेट को पार कर के उस पार एक तैयार ट्रेन में दोबारा सवार हो रहे थे. यह ट्रेन आगे चल कर बाघा होती हुई सब लोगों को लाहौर तक छोड़ती है. यहां के सीमा गेट पर ड्यूटी पर तैनात सुरक्षाकर्मी (सिपाही) हर यात्री से 100-100 रुपए मांग रहे थे.

जब सभी यात्री ट्रेन में सवार हो गए तो दोपहर ढाई बजे ट्रेन चल दी. लगभग 10 मिनट बाद ही भारत की सरहद खत्म हो गई और पाकिस्तान आ गया. बाघा स्टेशन पर गाड़ी रुकी. लोग ट्रौलियों में अपनाअपना सामान लाद कर दोबारा इमिग्रेशन और कस्टम के लिए तैयार हो रहे थे. खूब भगदड़ मची हुई थी. वहां काली वरदी में तैनात कस्टम अधिकारी भी भारतीय कस्टम अधिकारियों की तरह लोगों से रुपए ऐंठ कर अपना फर्ज अदा कर रहे थे. लगभग 4 घंटे में यहां की सारी काररवाई पूरी हुई तो ट्रेन लाहौर की तरफ चल दी, जोकि वहां से कुल 25 किलोमीटर की दूरी पर था.

मेरे जीजाजी लाहौर स्टेशन पर मुझे लेने के लिए खड़े थे. रात हो रही थी. अगले दिन हमें कराची जाना था, सो लाहौर घूम कर हम मुगलों की इस प्राचीन राजधानी को देखते रहे.

अगले दिन शाम को हम कराची के लिए रवाना हो गए.

पाकिस्तानी ट्रेन में बैठ कर मैं बेहद खुशी महसूस कर रहा था. यात्रा के दौरान मुझे एक पादरी मिले. वह पठानी सलवारकुर्ता पहने हुए पक्के पाकिस्तानी लग रहे थे और फर्राटेदार उर्दू बोल रहे थे.

‘‘मैं मुंबई का रहने वाला हूं. अंगरेजों के शासनकाल में मेरे अब्बा एक ईसाई मिशनरी के साथ कराची आए थे. जब बंटवारा हुआ तो कराची पाकिस्तान में चला गया और फिर हम यहीं बस गए.’’

मैं ने पूछा, ‘‘आप लोगों को यहां बहुत तकलीफ हुई होगी. सुना है, मुसलमानों के अलावा दूसरे धर्मों के लोगों के साथ अच्छा सुलूक नहीं होता है.’’

‘‘सब कहने की बातें हैं. नफरत और मोहब्बत दुनिया के हर हिस्से में है. पाकिस्तान में लोगों की यह सोच बनी हुई है कि भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं, उन्हें हर जगह भेदभाव से देखा जाता है. क्या यह सही है?’’

मैं ने और उत्सुकता दिखाई, ‘‘क्या पाकिस्तान में हिंदू या सिख नहीं रहते हैं?’’

पादरी ने समझाया, ‘‘जब बंटवारा हुआ तो भारत बड़ा था और पाकिस्तान छोटा. जिन सूबों में मुसलमानों की घनी आबादी थी, उन को मिला कर पाकिस्तान बना था. नौर्थवेस्ट फ्रंटियर  प्रौविंस और बलूचिस्तान में हिंदू आबादी कम थी. सिंध में अब भी हिंदू आबादी है, जोकि ज्यादातर जमींदार और महाजन हैं.’’

‘‘पंजाब में सिख लोग ज्यादा थे. पंजाब और बंगाल के 2 टुकड़े किए गए थे, इसलिए इन 2 सूबों में सब से ज्यादा कत्लेआम हुआ. कश्मीर को पाकिस्तान लेना चाह रहा था पर भारत ने नहीं दिया. दोनों मुल्कों में जंग हुई पर हमारे हुक्मरान मसले को सुलझाना नहीं चाहते.’’

हमारी ट्रेन पंजाब से बलूचिस्तान होती हुई सिंध की तरफ जा रही थी. बलूचिस्तान और सिंध ज्यादातर रेगिस्तानी क्षेत्र हैं. बीचबीच में स्टेशन पड़ रहे थे. स्टेशनों पर मांसाहारी चीजों जैसे कीमे के समोसे और पकौडे़, बिरयानी, कोरमा आदि की अधिकता थी. भारत के मुकाबले में पाकिस्तानी रेलवे स्टेशनों पर भीड़ कम होती है.

पाकिस्तान के सब से बडे़ शहर कराची को देख कर लखनऊ की याद आ गई, क्योंकि दोनों शहरों में उर्दू का गहरा असर है. कराची में भारत से गए हुए लोग सब से ज्यादा तादाद में हैं. क्षेत्रवाद के शिकार ये मुसलमान ‘मुहाजिर’ कहलाते हैं.

मैं कराची जी भर कर घूमा. भारत से अलग होने पर भी भारत की छाप साफ दिखाई दे रही थी. कई लोग मेरे भारतीय होने पर अपना आतिथ्य निभा रहे थे. मुझे वहां भारतीय और पाकिस्तानी लोगों में कोई खास फर्क नजर नहीं आया. इस से कहीं अधिक फर्क तो भारत के ही अलगअलग राज्यों के लोगों में है. उत्तर भारत का रहने वाला अगर दक्षिण भारत में चला जाए तो समझेगा कि कहीं विदेश में आ गया. वहां का रहनसहन अलग, खानपान अलग, भाषा अलग, पहनावा अलग मगर देश एक है.

विभाजन के 60 साल बाद भी संस्कृति ने अपनी छाप नहीं छोड़ी है. लोगों को धर्म जोड़े न जोडे़ पर क्षेत्र अवश्य जोड़ता है. पंजाब, बंगाल और कश्मीर के 2-2 टुकडे़ होते हुए भी यदि वहां के लोगों की आपस में तुलना की जाए तो पता चलता है कि धर्म के नाम पर तो उन्हें बांटा गया पर उन की समानता को कोई बांट नहीं सका.

भारत या पाकिस्तान के लोग अपने को धार्मिक कहते हैं पर हर धर्म की पहली सीढ़ी इनसानियत से इतनी दूर क्यों होती जा रही है?

पाकिस्तान की अपनी यात्रा के निचोड़ में 3 प्रश्न मेरे दिलोदिमाग में उत्तर के लिए भटक रहे हैं.

पहला, धर्म के नाम पर देश के बंटवारे का मूल उद्देश्य क्या था? धर्म इनसान के लिए है या इनसान धर्म के लिए? देश का बंटवारा कर के क्या सांप्रदायिकता खत्म हो गई? जबकि इसी के नतीजतन, एक नए देश के रूप में बंगलादेश का जन्म हुआ और कश्मीर एक अंतर्राष्ट्रीय मसला बना हुआ है. यही नहीं दोनों मुल्कों का जो अरबों रुपया, सीमा सुरक्षा में लग रहा है, काफी हद तक बच सकता था.

दूसरा, अंगरेजों की गुलामी से आजाद होने की इच्छा हर भारतीय में थी और हिंदू व मुसलमान दोनों ने मिल कर संघर्ष किया था पर जब बंटवारे की बात चली तो किसी के मन में यह विचार नहीं आया कि जब आजादी साथ पाई है तो रहेंगे भी साथ ही. कोई रास्ता निकाल कर बंटवारा रोको.

तीसरा, हम अंगरेजों को ‘फूट डालो राज करो’ की नीति के लिए दोषी ठहराते हैं. क्या यह नीति हमारे धार्मिक दुकानदारों और उन के पिट्ठू नेताओं में नहीं है? हर तरह का भेदभाव हमारे देश में ‘नई बोतल में पुरानी शराब’ की तरह बड़ी कुशलता से पनप रहा है और हमारे पंडे, मौलवी, नेताओं के वोट बैंक को पुख्ता कर रहे हैं.

पड़ोसी देशों को अपनी कमजोरियों के लिए दोष देना हमारे नेताओं की जन्मघुट्टी में मिला हुआ है. अगर पाकिस्तान नहीं बनता तो हमारे नेता आतंकवाद के लिए चीन को दोष देते या रूस को?

कैसी हो गुंजन : उस रात किशन ने ऐसा क्या किया

‘गुंजन, एक गुजारिश है तुम से. जिस तरह तुम ने अपना पुराना सिम बदल लिया है, उसी तरह यह अपना दूसरा सिम भी बदल लो, क्योंकि मैं तुम्हें फोन किए बिना नहीं रह पाता. जब मुझे तुम्हारा नंबर ही पता न होगा, तो मैं कम से कम तुम्हें भूलने की कोशिश तो कर पाऊंगा.

‘मैं तुम्हें फोन कर के परेशान नहीं करूंगा. यह सोच कर मैं हर दिन कसम खाता हूं, लेकिन फिर मजबूर हो कर अपनी ही कसम तोड़ कर तुम्हें फोन करने लगता हूं.

‘गुंजन प्लीज, अपना सिम बदल डालो, वरना मैं तुम्हें कभी भी भूल नहीं पाऊंगा.’

मैं उस दिन बस इतना ही लिख पाया था. इस के आगे कुछ लिखने की जैसे मेरी हिम्मत ही टूट गई थी. शायद गुंजन मेरी सोच में इस तरह शामिल थी कि मैं उसे भूल नहीं पा रहा था.

दूसरी तरफ गुंजन थी, जो आज पूरे 2 महीने हो गए थे, न तो उस ने मुझे फोन किया था और न ही उस ने मेरा फोन उठाया था. वह जनवरी, 2015 की एक शाम थी, जब मुझे रास्ते में पड़ा हुआ एक मोबाइल फोन मिला था. मैं ने जब फोन उठा कर देखा तो वह पूरी तरह से चालू था. बस, उस में पैसे नहीं थे.

फोन किस का है? यह सवाल जरूर मेरे जेहन में आया था, लेकिन इस का जवाब भी मुझे अपने अंदर से ही मिल गया था. मेरा मन कहता था कि जिस का भी फोन होगा, वह खुद ही फोन कर के बताएगा और फिर मैं उसे पहुंचा दूंगा.

अभी सिर्फ 2 दिन ही हुए थे कि तीसरे दिन उस मोबाइल पर मैसेज आया, तो मुझे इस बात का अंदाजा लग गया था कि शायद वह फोन कालेज में पढ़ने वाले किसी लड़के का था, जिसे मैसेज करने वाली लड़की उस की रिश्ते में बहन थी.

मैसेज पढ़ कर पहले तो मेरा मन हुआ कि मैं भी एक मैसेज करूं, लेकिन चूंकि उस में पैसे नहीं थे, इसलिए मैं इस बात को टाल गया. 1-2 दिन बाद एक दिन जब मैं ने उस फोन को रीचार्ज कराया, तो मैं ने उस लड़की को मैसेज के जरीए बता दिया कि वह फोन मुझे पड़ा मिला है और अभी तक किसी ने फोन कर के इस फोन के बारे में पूछा भी नहीं है.

मेरे मैसेज करने के चंद मिनटों बाद ही उधर से फोन आ गया. उधर से आवाज आई, ‘आप कौन बोल रहे हैं? क्या आप बताएंगे कि यह मोबाइल फोन आप को कब, कहां और कैसे मिला?’

मैं ने बिना किसी लागलपेट के साफसाफ सबकुछ बता दिया, ‘‘मैडम, यह फोन एक शाम को मुझे रास्ते में पड़ा मिला था. मैं फतेहपुर से बोल रहा हूं. वहीं बसअड्डे के पास मुझे यह शाम के 6 बजे के आसपास मिला था.’’

‘तो जब आप को यह फोन पड़ा मिला, तो क्या आप ने इस के मालिक को खोजने की तकलीफ उठाई?’

उस के सीधे से सवाल का मैं ने भी सीधा सा जवाब दिया था, ‘‘नहीं मैडम, मैं ने सोचा कि जिस का फोन होगा, वह खुद ही फोन कर के पता करेगा.’’

इस बार मेरे जवाब के बाद उस ने बस यही कहा था, ‘अच्छा, कोई बात नहीं,’ और तुरंत फोन रख दिया था.

उस के फोन रखने के बाद मैं भी इस बात को यहीं भूल गया था और अपनी पढ़ाई में मशगूल हो गया था. मैं यहीं फतेहपुर शहर में रह कर पढ़ाई करता था और विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाएं देता था. इस वजह से मैं अपनेआप में ही मस्त रहने वाला जीव था. लेकिन यह मेरी भूल थी, क्योंकि उस फोन वाली लड़की ने मेरा सबकुछ बदल डाला था. मोबाइल फोन की खोजबीन से चालू हुआ यह सिलसिला आगे बढ़ गया था.

उस लड़की का नाम गुंजन था, जो हमारे पड़ोसी जिले बांदा की रहने वाली थी. डबल एमए करने के बाद उस का 3 साल पहले विशिष्ट बीटीसी में चयन हो चुका था. वह इस समय अपने गांव के ही पास प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती थी.

वह स्वरोजगार थी और मैं बेरोजगार. सो, मैं हीनभावना से घिरा हुआ था, लेकिन उस के प्यार ने मुझ में आत्मविश्वास पैदा कर दिया था. वह मुझे हमेशा पढ़ाई करते रहने की सलाह देती थी. अकसर बातों ही बातों में हम एकदूसरे को प्यारभरी बातों में सराबोर करने लगे थे. लेकिन फिर भी हम ने अभी तक एकदूसरे को देखा न था, इसलिए एक दिन जब मैं ने कहा कि गुंजन, मैं तुम्हें जीभर कर देखना चाहता हूं, तो उस ने भी कहा था कि किशन, मैं भी तुम्हें न केवल देखना चाहती हूं, बल्कि इस प्यार को रिश्ते में बदलना चाहती हूं.

‘‘मतलब?’’ मैं ने चौंक कर पूछा, तो उस ने बताया, ‘किशन, मैं तुम्हें बेहद प्यार करती हूं. मैं ने तुम्हें देखा जरूर नहीं है, लेकिन मेरे लिए इस की ज्यादा अहमियत नहीं है. फिर भी मैं केवल इसलिए तुम्हारे पास आना चाहती हूं कि मैं तुम्हारी गोद में सोना चाहती हूं. जिस प्यार को मैं ने आज तक सिर्फ फोन से महसूस किया है, उसे अब मैं जी भर कर जीना चाहती हूं.

‘साफसाफ शब्दों में कहूं, तो मैं अब तुम्हारी होना चाहती हूं जानू.’ तब मैं संभल कर बोला था, ‘‘हांहां रानी, मैं भी तो ऐसा ही चाहता हूं.’’

मैं ने इस जवाब के अलावा और कुछ भी नहीं कहा था. आप को बताना चाहता हूं कि जब गुंजन बेहद रोमांटिक मूड में होती थी, तो वह मुझे ‘जानू’ बोलती थी और उस वक्त मैं उसे ‘रानी’ कहता था.

हम दोनों ने महसूस किया कि हमारा शरीर फोन में बात करतेकरते इतना प्यार में पिघल जाता था कि फिर हमें कईकई घंटे उस प्यार की गरमाहट महसूस होती रहती थी. उस वक्त हम दोनों बस यही सोचा करते थे कि काश, वह पल आ जाए, जब हम आमनेसामने हों और हमारे अलावा कोई भी न हो.

मैं अकसर उसे छुट्टियों में अपने पास बुलाने की जिद करता था, तो वह कहती थी कि वह छुट्टियों में कतई मेरे पास नहीं आएगी, क्योंकि जब स्कूल खुला हो, तभी वह घर से बाहर निकल सकती है, क्योंकि तब घर वाले किसी तरह का सवाल नहीं करते.

हम दोनों रात में जी भर कर बात जरूर करते थे, लेकिन फिर भी कभी मन नहीं भरता था. वैसे, हमारे बीच एक और भी खेल होता था. वह यह कि प्यार के पलों में जो शब्द मुंह से अकसर निकल जाते हैं, अब हम फोन पर जी भर कर एकदूसरे से कहते और सुनते थे.

यह भी सच है कि मैं अकसर गुंजन से मिलने की जिद करता था, लेकिन वह तब यही कहती थी, ‘जानू, धीरज रखो. जिस दिन आऊंगी. सारी रात के लिए आऊंगी और अपनी 26 साल की प्यास बुझाऊंगी, फिर जितना चाहे प्यार कर लेना, बिलकुल मना नहीं करूंगी.’

और फिर एक दिन सचमुच उस ने ऐसा ही किया. उस ने मुझे फोन कर के बताया कि वह शाम तक मेरे पास आ जाएगी, तो मैं सातवें आसमान में उड़ने लगा था. गुंजन को लेने मैं बसअड्डे पर एक घंटा पहले ही पहुंच गया था और पहली बार उसे देखने के लालच में बेहद खुश था. लेकिन यह क्या. जब वह बस से उतरी, तो मैं डर गया और एक पल को उस से न मिलने का मन हुआ, लेकिन तभी उस का फोन आ गया.

आप सोचते होंगे कि मैं डर क्यों गया था? तो बात यह थी कि वह इतनी खूबसूरत थी कि मुझे लगा कि वह मेरी कैसे बन सकती है, क्योंकि मेरी शक्ल तो बेहद सामान्य सी थी.

लेकिन यह मेरा केवल भरम था. जब मैं ने उस का फोन उठाया, तो वह हड़बड़ाई सी बोली, ‘किशन, तुम कहां हो? जल्दी आ जाओ. मैं तुम्हारे पास आना चाहती हूं.’ और फिर मैं उस के सामने जा पहुंचा. मैं ने उसे तुरंत ही अपनी मोटरसाइकिल पर बिठा लिया और बिना बोले चल दिया.

कमरा खोल कर मैं ने उस से बैठने को कहा था, लेकिन मैं बेहद बेचैन था. पहली बात तो वह एक लड़की थी, जो मेरे कमरे में आज पहली बार आई थी. दूसरी बात यह कि अगर किसी को कुछ पता चल जाए, तो बदनामी होने का भी बेहद डर था.

लेकिन वह सिर्फ पानी के गिलास में अपने होंठ डुबा कर बूंदबूंद पानी पी रही थी, बिना किसी खास हरकत के. काफी देर बाद मैं ने उस से कहा, ‘‘चाय पीओगी?’’

‘‘इतनी शाम को?’’

‘‘क्यों, अभी तो 8 ही बजे हैं?’’ मैं ने जब सवाल किया, तो उस ने भी बताया, ‘‘8 तो बजे हैं, लेकिन सर्दियों के 8 चाय पीने को नहीं खाना खाने को कहते हैं, लेकिन मुझे खाना नहीं खाना. बस, तुम से एक बात कहनी है.’’

‘‘क्या?’’ मैं ने लापरवाही से पूछा, तो उस ने कहा, ‘‘क्या तुम 20 मिनट के लिए मुझे अकेला छोड़ सकते हो?’’

‘‘ठीक है, मैं जा रहा हूं,’’ उस के सवाल के जवाब में मैं ने बस इतना ही कहा था.

20 मिनट बाद दरवाजा खोल कर उस ने खुद ही मुझे अंदर आने के लिए कहा, तो मैं धीरेधीरे अंदर आ गया. अंदर पहुंच कर मैं ने जो देखा, बस देखता ही रह गया. साड़ी पहन कर गुंजन दुलहन का पूरा शृंगार किए घूंघट में खड़ी थी. मुझ से जब रहा न गया, तो मैं ने घूंघट उठा कर देखा. वह बिलकुल सुहागरात में सजी दुलहन लग रही थी.

मुझे देख कर वह नजरें नीची कर के बोली, ‘‘किशन, मैं तुम्हारी दुलहन बनना चाहती हूं. क्या तुम मेरी मांग में यह सिंदूर सजाओगे?’’ इतना कह कर उस ने सिंदूर की डब्बी मेरी तरफ बढ़ाई.

मैं ने तुरंत उस के हाथ से वह डब्बी ले ली और सिंदूर निकाल कर कहा, ‘‘मैं तुम्हें अपनी दुलहन स्वीकार करता हूं,’’ और फिर इतना कह कर मैं ने उस की मांग सजा दी.

फिर हम ने पूरी रात सुहागरात मनाई थी. उस के गदराए बदन को मैं ने जी भर कर भोगा था. उस के सीने की गोलाइयां, उस के होंठ, उस का सारा बदन मैं ने चुंबनों से गीला कर दिया था. वह मुझ से इस तरह लिपट जाती थी, जैसे कोई तड़पती हुई मछली पानी की धार से लिपटती है. हम ने उस रात शायद अपनी पूरी जिंदगी जी ली थी. लेकिन चूंकि हमें सुबह 5 बजे निकलना भी था, इसलिए मन को मार कर पहले तैयार हुए, फिर कमरे से निकल गए. मैं उसे उस के गांव तक छोड़ने जाना चाहता था, लेकिन उस की जिद के आगे मैं हार गया और उसे उस के गांव से कुछ किलोमीटर पहले ही छोड़ कर वापस आ गया.

तब से ले कर आज तक मैं उस से बात करने को तरसता हूं. मैं जब भी फोन लगाता हूं, मुझे कोई जवाब नहीं मिलता. मैं ने तमाम मैसेज कर डाले, लेकिन वह नहीं पसीजी.

मैं आज भी गुंजन की याद में तड़पता रहता हूं. उसे अपनी तड़प, अपनी बेताबी मैं किसी भी कीमत पर बताना चाहता हूं. यही वजह है कि आज मैं ने ये सारी बातें आप को भी बताई हैं, ताकि अगर गुंजन इसे पढ़ लेगी तो शायद मुझ पर तरस खा कर मेरे ख्वाबों की दुनिया में फिर से मेरी दुलहन बन कर आ जाएगी.

मेरी उस चिट्ठी का अगला हिस्सा कुछ यों था:

‘गुंजन, तुम कैसी हो. बस, मैं यही पूछना चाहता हूं. अपनी तड़प, अपनी तकलीफ तुम से नहीं कहूंगा. बस, मुझे तुम कैसी हो, कहां हो, यही जानना है. और अगर कुछ और जानना है, तो वह बस यह कि गुंजन क्या सच में अब तुम मुझे प्यार नहीं करती? लेकिन याद रखना. अगर उस का जवाब ‘न’ हो, तो भी मुझे न बताना, क्योंकि मैं तब जिंदा नहीं रह पाऊंगा. मैं तो बस यों ही तुम्हारी यादों में जीना चाहता हूं.

‘आई लव यू गुंजन, अपना खयाल रखना.

‘तुम्हारा, किशन.’

आखिर कितना घूरोगे : बौस को हड़काने वाली दब्बू लड़की

काली, कजरारी, बड़ीबड़ी मृगनयनी आंखें भला किस को खूबसूरत नहीं लगतीं? मगर उन से भी ज्यादा खूबसूरत होते हैं उन आंखों में बसे सपने कुछ बनने के, कुछ करने के. सपने लड़कालड़की देख कर नहीं आते. छोटाबड़ा शहर देख कर नहीं आते.

फिर भी अकसर छोटे शहर की लड़कियां उन सपनों को किसी बड़े संदूक में छिपा लेती हैं. उस संदूक का नाम होता है- कल. कारण वही पुराना. अभी हमारे देश के छोटे शहरों और कसबों में सोच बदली कहां है? घर की इज्जत है लड़की, जल्दी शादी कर उसे घर भेजना है, वहां की अमानत बना कर मायके में पाली जा रही है. इसीलिए लड़कियों के सपने उस कभी न खुलने वाले संदूक में उन के साथसाथ ससुराल और अर्थी तक की यात्रा करते हैं पर कुछ लड़कियां बचपन में ही खोल देती हैं उस संदूक को, उन के सपने छिटक जाते हैं.

इस से पहले बीन पाएं बड़ी ही निर्ममता से कुचल दिए जाते हैं उन के अपनों द्वारा, समाज द्वारा. विरली ही होती हैं, जो सपनों की पताका थाम कर आगे बढ़ती हैं. यहां भी उन की राह आसान नहीं होती. बारबार उन की स्त्रीदेह उन की राह में बाधक होती है. अपने सपनों को अपनी शर्त पर जीने के लिए उन्हें चट्टान बन कर हर मुश्किल से टकराना होता है. ऐसी ही एक लड़की है वैशाली.

हर शहर की एक धड़कन होती है. वह वहां के निवासियों की सामूहिक सोच से बनती है. दिल्लीमुंबई में सब पैसे के पीछे भागते मिलेंगे. वाहन सब दौड़ रहे हैं. एक मिनट भी जाया करना जैसे अपराध है. छोटे शहरों में इत्मीनान दिखता है. ‘‘हां भैया, कैसे हो?’’ के साथ छोटे शहरों में हालचाल पूछने में ही लोग 2 घंटे रुक जाते हैं. देवास की हवाओं में जीवन की सादगी और भोलेपन की धूप की खुशबू मिली हुई थी जब बाजारवाद ने पूरे देश के छोटेबड़े शहरों में अपनी जड़ें जमा दी थीं.

देवास अभी भी शैशव अवस्था में था. कहने का तात्पर्य यह है कि शहर का असर हमारी वैशाली पर भी था. इन मासूम हवाओं ने ही तो उसे बेहिचक इधरउधर घूमतीफिरती बेफिक्र वैशाली में बदल दिया था. उम्र हर साल एक सीढ़ी चढ़ जाती पर बचपना था कि दामन छुड़ाने का नाम ही नहीं लेता.

वैसे भी वह अपने मांबाप की एकलौती बेटी होने के कारण बहुत प्यार में पली थी. जो इच्छा करती झट से पूरी हो जाती. यों छोटीमोटी इच्छाओं के अलावा एक इच्छा जो वैशाली बचपन से अपने मन में पाल रही थी वह थी आत्मनिर्भर होने की. वह जानती थी कि इस मामले में मातापिता को मनाना जरा कठिन है, पर उस ने मेहनत और उमीद नहीं छोड़ी. वह हर साल अपने स्कूल में अच्छे नंबर ला कर पास होती रही. मातापिता की इच्छा थी कि पढ़लिख जाए तो फिर जल्दी ब्याह कर दें और गंगा नहाएं.

एक दिन उस ने मातापिता के सामने अपनी इच्छा जाहिर कर दी कि वह नौकरी कर के अपने पंखों को विस्तार देना चाहती है. शादी उस के बाद ही. काफी देर मंथन करने के बाद आखिरकार उन्होंने इजाजत दे दी. वैशाली तैयारी में जुट गई. आखिरकार उस की मेहनत रंग लाई और दिल्ली की एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई.

वैशाली की खुशी जैसे घर की हवाओं में अगरबत्ती की तरह महकने लगी. मातापिता भी उस की खुशी में शामिल थे पर अंदरअंदर डर था इतनी दूर दिल्ली में अकेली कैसे रहेगी.

आसपास के लोगों ने भी बहुत डराया, ‘‘दिल्ली है… भाई दिल्ली, लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं. जरा देखभाल के रहने का इंतजाम कराना.’’

वे खुद भी तो आए दिन अखबारों में दिल्ली की खबरें पढ़ते रहते थे. यह अलग बात है कि छोटेबड़े कौन से शहर लड़कियों के लिए सुरक्षित हैं पर खबर तो दिल्ली की ही बनती है.

दिल्ली देश की ही नहीं खबरों की भी है. आम आदमी तो खबरें पढ़पढ़ कर वैसे ही घबराया रहता है जैसे सारा अपराध बस दिल्ली में ही होते हो. जितना हो सकता था उन्होंने वैशाली को ऊंचनीच सम झाई भी. फिर भी डर था कि जाने का नाम नहीं ले रहा था. दिल्ली में निवास करने वाले अड़ोसपड़ोस के दूरदराज के रिश्तेदारों के पते लिए जाने लगे. न जाने कितने नंबर इधरउधर के परिचितों के ले कर वैशाली के मोबाइल की कौंटैक्ट लिस्ट में जोड़े जाने लगे.

तसल्ली बस इतनी थी कि किसी गाढ़े वक्त में बेटी फोन मिला देगी तो कोई मना थोड़ी न कर देगा. आखिर इतनी इंसानियत तो बची ही है जमाने में. उन्हें क्या पता कि दिल्ली घड़ी की नोंक पर चलती है.

आखिरकार लक्ष्मीनगर में एक गर्ल्स पीजी किराए पर ले लिया. खानानाश्ता मिल ही जाएगा. औफिस बस 2 मैट्रो स्टेशन दूर था. यहां सब लड़कियां ही थीं. पिता निश्चिंत हुए कि उन की लड़की सुरक्षित है.

वैशाली अपना रूम एक और लड़की से शेयर करती थी. उस का नाम था मंजुलिका. मंजुलिका वैस्ट बंगाल से थी. जहां वैशाली दबीसिकुड़ी सी थी वहीं मंजुलिका तेजतर्रार हाईफाई. कई सालों से दिल्ली में रह रही थी. चाहे आप इसे आबोहवा कहें या वक्त की जरूरत, दिल्ली की खास बात है कि वह लड़कियों को अपनी बात मजबूती से रखना सिखा ही देती है. मंडे की जौइनिंग थी. मातापिता चले गए थे.

अब शनिवार, इतवार पीजी में ही काटने थे. बड़ा अजीब लग रहा था… इतनी तेजतर्रार लड़की के साथ दोस्ती करना पर जरूरत ने दोनों में दोस्ती करा दी. शुरुआत मंजुला ने ही करी. पर जब उस ने अपने लोक के किस्सों का पिटारा खोला तो खुलता ही चला गया.

वैशाली रस लेले कर सुनती रही. उस के लिए यह एक अजीब दुनिया थी. अपना लोक याद आने लगा जहां लोगों के पास इतना समय होता था कि कभी भी, कहीं भी महफिलें जम जातीं. लोग चाचा, मामा, फूफा होते…मैडम और सर नहीं. देर तक बातें करने के बाद दोनों रात की श्यामल चादर ओढ़ कर सो गईं.

औफिस का पहला दिन था. वैशाली ने अपनी जींस और लूज शर्ट पहन ली. गीले बालों पर कंघी करती हुई वह बाथरूम से बाहर निकली ही थी कि मंजुलिका ने सीटी बजाते हुए कहा कि पटाखा लग रही हो, क्या फिगर है तुम्हारी. वह भी हंस दी.

वैसे जींसटौप तो कभीकभी देवास में भी पहना करती थी. कभी ऐसा कुछ अटपटा महसूस ही नहीं हुआ था. उस ने ध्यान ही कहां दिया था अपनी फिगर पर. उस का ऊपर का हिस्सा कुछ ज्यादा ही भारी है यह उसे आज महसूस हुआ जब औफिस पहुंचने पर बौस सन्मुख ने उसे अपने चैंबर में बुलाया और उस से बात करते हुए पूरे 2 मिनट तक उस के ऊपरी भाग को घूरते रहे.

वैशाली को अजीब सी लिजलिजी सी फीलिंग हुई जैसे सैकड़ों चींटियां उस के शरीर को काट रही हों. उस ने जोर से खांसा. बौस को जैसे होश आया. उसे फाइल पकड़ा कर काम करने को कहा.

फाइल ले कर वैशाली अपनी टेबल पर आ गई. संज्ञाशून्य सी. देवास में भी ने लफंगे टाइप के लड़के देखे थे पर शायद हर समय मां या पिताजी के साथ रहने या फिर सड़क पर घूमने वाले बड़ों का लिहाज था, इसलिए किसी की इतनी हिम्मत नहीं हुई थी. उफ, कैसे टिकेगी वह यहां? उसे पिताजी की याद आने लगी. जब शीशे के पार कैबिन में बैठे हुए उस ने सन्मुख को देखा तो पिता की ही तरह लगे थे. 50 के आसपास की उम्र, हलके सफेद बाल, शालीन सा चेहरा. बड़ा सुकून हुआ था कि बौस के रूप में उसे पिता का संरक्षण मिल गया है.

क्यों एक पुरुष अपनी बेटी की उम्र की लड़कियों के लिए बस पुरुष ही होता है. अपने विचारों को झटक कर वैशाली ने अपना ध्यान काम पर लगाने का मन बनाया. आखिर वह यहां काम करने ही तो आई है. कुछ बनने आई है. सारी मेहनत, सारा संघर्ष इसीलिए तो था. वह हिम्मत से काम लेगी और अपना पूरा ध्यान अपने सपनों को पूरा करने में लगाएगी. मगर जितनी बार भी उसे बौस के औफिस में जाना पड़ता उस का संकल्प हिल जाता. अब तो बौस और ढीठ होते जा रहे थे. उस के खांसने का भी उन पर कोई असर नहीं पड़ रहा था.

पीजी में लौटने के बाद वैशाली खुद को बहुत समझाती रही कि उसे बस अपने सपनों पर ध्यान देना है, पर उस लिजलिजी एहसास का वह क्या करे जो उसे अपनी देह पर महसूस होता, चींटियां सी चुभतीं, घिन आती. घंटों साबुन रगड़ कर नहाई पर वह फीलिंग निकलने का ही नहीं ले रही थी. काश,मैल साबुन से धोए जा सकते. आज उसे अपने शरीर से नफरत हो रही थी. पर क्यों? उस की तो कोई गलती नहीं थी. अफसोस, यह एक दिन का किस्सा नहीं था. आखिर रोजरोज उन काट खाने वाली नजरों से खुद को कैसे बचाती.

हफ्तेभर में वैशाली जींसटौप छोड़ कर सलवारकुरते में आ गई. 10 दिन बाद दुपट्टा भी पूरा खोल कर लेने लगी और 15वें दिन तक दुपट्टे में इधरउधर कई सेफ्टी पिन लगाने लगी. मगर बौस की ऐक्सरे नजरें हर दुपट्टे हर सेफ्टी पिन के पास पहुंच ही जातीं. आखिर वह इस से ज्यादा कर ही क्या सकती थी?

वह समझ नहीं पा रही थी कि इस समस्या का सामना कैसे करे. 1-1 दिन कर के 1 महीना बीता. पहली पगार उस के हाथ में थी. पर वह खुशी नहीं थी जिस की उस ने कल्पना की थी.

मंजुलिका ने टोका, ‘‘आज तो पगार मिली है, पहली पगार. आज तो पार्टी बनती है.’’

वैशाली खुद को रोक नहीं पाई और जितना दिल में भरा था सब उड़ेल दिया.

मंजुलिका दांत भींच कर गुस्से में बोली, ‘‘उस की मां की बहन नहीं हैं क्या? उन्हें जा के घूरे जितना घूरना है… और भी कुछ हरकत करता है क्या? ’’

‘‘नहीं, बस गंदे तरीके से घूरता है. ऐसा लगता है, ऐसा लगता है कि…’’ कुछ कहने के लिए शब्द खोजने में असमर्थ वैशाली की आंखें क्रोध, नफरत और दुख से डबडबा गईं.

‘‘अब समझी तू जींसटौप से सूट पर क्यों आई. अरे, तेरी गलती थोड़ी है न. देख तब भी उस का घूरना तो बंद हुआ नहीं. कहां तक सोचेगी. इग्नोर कर… हम लोग कहां परवाह करते हैं. जो मन आया पहनते हैं, ड्रैस, शौर्ट्स, जैगिंग… अरे जब ऐसे लोगों की आंखों में ऐक्सरे मशीन फिट रहती ही है तो वे कपड़ों के पार देख ही लेंगे, तो अपनी पसंद के कपड़ों के लिए क्यों मन मारें? जरूरी है हम अपना काम करें. परवाह न करें.

“वह कहावत सुनी है न कि हाथी चला बाजार कुत्ते भूंकें हजार. अब आगे बढ़ना है तो इन सब की आदत तो डालनी ही होगी. ठंड रख कुछ दिन बाद नया शिकार ढूंढ़ लेंगे,’’ मंजुलिका किसी अनुभवी बुजुर्ग की तरह उसे शांत करने की कोशिश करने लगी.

‘‘मैं सोच रही हूं, नौकरी बदल लूं…’’ वैशाली ने धीरे से कहा.

उस की बात पर मंजुलिका ने ठहाका लगा कर कहा, “नौकरी बदल कर जहां जाएगी वहां ऐसे ही घूरने वाले मिलेंगे बस नाम और शक्ल अलग होगी. कहा न इग्नोर कर.’’

‘‘इग्नोर करने के अलावा भी कोई तो तरीका होगा न…’’

वैशाली अपनी बात पूरी कर भी नहीं पाई कि मां का फोन आ गया. मांबाबूजी उस की पहली तनख्वाह की खुशी को उस के साथ बांटना चाहते थे. सब बधाई दे रहे थे कि उन की बहादुर बेटी अकेले अपने सपनों के लिए संघर्ष कर रही है.

‘आखिरकार महिला सशक्तीकरण में उन का भी कुछ योगदान है, सोच वह ‘ओह मां,’ ‘ओह पिताजी,’ इतना ही कह पाई पर अंदर तक भीग गई वह इन स्नेहभरे शब्दों से.

वैशाली सारी रात रोती रही. कहां उस के मातापिता उस पर इतना गर्व कर रहे हैं और कहां वह नौकरी छोड़ कर वापस जाने की तैयारी कर रही है और वह भी किसी और के अपराध की सजा खुद को देते हुए. मंजुलिका कहती है, इग्नोर कर… वही तो कर रही थी, वही तो हर लड़की करती है बचपन से ले कर बुढ़ापे तक. पर यह तो समस्या का हल नहीं है. इस से वह लिजलिजी वाली फीलिंग नहीं जाती.

सारी रात वैशाली सोचती रही. अगले दिन लंच पर उस ने अपनी बात साथ में काम करने वाली निधि को बताई. फिर तो जैसे बौस की इस हरकत का पिटारा ही खुल गया. कौन सी ऐसी महिला थी जो उस की इस हरकत से परेशान न होती हो.

निधि ने कहा, ‘‘हाथ पकड़े तो तमाचा भी लगा दूं. पर इस में क्या करूं? मुकर जाएगा.’’

समस्या विकट थी. बात केवल सन्मुख की नहीं थी, ऐसे लोग नाम और रूप बदल कर हर औफिस में हैं, हर जगह हैं. आखिर इन का इलाज क्या हो? और इग्नोर भी कब तक? नहीं वह जरूर इस समस्या का कोई न कोई हल खोज के रहेगी.

घर आने के बाद वैशाली का मन नहीं लगा रहा था. ड्राइंग फाइल निकाल कर स्कैचिंग करने लगी. यही तो करती है हमेशा जब मन उदास होता है.

तभी मामा के लड़के का फोन आ गया. गांव में रहने वाला 10 साल का ममेरा भाई जीवन उसे बहुत प्यारा है. अकसर फोन कर अपने किस्से सुनाता रहता है कि दीदी यह बात, दीदी वह बात… और शुरू हो जाते दोनों के ठहाके.

आज भी उस के पास एक किस्सा था, ‘‘दीदी, सुलभ शौचालय बनने के बाद भी गांव के लोग उस का इस्तेमाल नहीं करते. बस यहांवहां जहां जगह मिलती, बैठ जाते हैं. टीवी में विज्ञापन देख कर हम भी घंटी खरीद लाए. अब गांव में घूमते हुए जहां कोई फारिग होता मिल जाता तो बस घंटी बजा देते हैं.

“सच्ची दीदी, बहुत खिसियाता है. कपड़े समेट कर उठ खड़ा होता है. उस की झेंप देखने लायक होती है. उसे गलत काम का एहसास होता है. देखना एक दिन ये सब लोग शौचालय का इस्तेमाल करने लगेंगे.’’

बहुत देर तक वह इस बात पर हंसती रही फिर न जाने कब नींद ने उसे अपने आगोश में ले लिया. आंख सीधे सुबह ही खुली. घड़ी देखी, देर हो रही थी. सीधे बाथरूम की तरफ भागी.

आज उस ने जींसटौप ही पहना. बढ़ती धड़कनों को काबू कर पूरी हिम्मत के साथ औफिस गई और अपनी सीट पर बैठ कर फाइलें निबटाने लगी.

तभी बौस ने उसे कैबिन में बुलाया. उसे देख उन के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई. आंखें अपना काम करने लगीं.

‘‘एक मिनट सर,’’ वैशाली ने जोर से कहा. सन्मुख हड़बड़ा कर उस के चेहरे की ओर देखने लगे. वैशाली ने फिर से अपनी बात पर वजन देते हुए कहा, ‘‘एक मिनट सर, मैं यहां बैठ जाती हूं फिर 5 मिनट तक आप मुझे जितना चाहिए घूरिए और यह हर सुबह का नियम बना लीजिए. पर बस एक बार ताकि जितनी भी लिजलिजी फीलिंग मुझे होनी है वह एक बार हो जाए. उस के बाद अपनी सीट पर जा कर मैं काम करना शुरू करूं तो मुझे यह डर न लगे कि अभी आप फिर बुलाएंगे, फिर घूरेंगे और मैं फिर उसी गंदी फीलिंग से और अपने शरीर के प्रति उसी अपराधबोध से गुजरूंगी… जिस दिन से औफिस में आई हूं ये सब झेल रही हूं,’’ मन में आया कि पूछे कि क्या आप की मांबहन नहीं हैं क्या? जितना घूरना है उन्हें घूरो. पर फिर मन में आया कि नहीं, यह नहीं कहेगा, क्योंकि वह जानती है कि आप नहीं कोई और निश्चित तौर पर आप की मां, बहन को घूर रहा होगा. अपनी मांबहन, पत्नीबेटी सब से कह दीजिएगा कि वे भी घूरने का टाइम फिक्स कर दें. दोनों का समय और तकलीफ बचेगी.

‘‘जी सर, हमारा भी टाइम फिक्स कर दीजिए,’’ वैशाली के पीछे आ कर खड़ी हुई निधि व अन्य महिलाओं ने समवेत स्वर में कहा.

वैशाली अंदर आते समय जानबूझ कर गेट खुला छोड़ आई और उस के पीछे थी इस साहस पर तालियां बजाते पुरुष कर्मचारियों की पंक्ति.

बौस शर्म से पानीपानी हो रहे थे. फिर उस दिन के बाद सन्मुख कभी किसी किसी महिला को घूरते नहीं पाए गए.

चाहे आप इसे आबोहवा कहें या वक्त की जरूरत, दिल्ली की खास बात है कि वह लड़कियों को अपनी बात मजबूती से रखना सिखा ही देती है.

‘‘अगले दिन लंच पर उस ने अपनी बात साथ में काम करने वाली निधि को बताई. फिर तो जैसे बौस की इस हरकत का पिटारा ही खुल गया…’’

वहम : पत्नी के पहलू में गैर मर्द से झल्लाया सागर

सागर का शिप बैंकौक से मुंबई के लिए सेल करने को तैयार था. वह इंजनरूम में अपनी शिफ्ट में था. उस का शिप मुंबई से बैंकौक, सिंगापुर, हौंगकौंग होते हुए टोक्यो जाता था. वापसी में वह बैंकौक तक आ गया था. तभी शिप के ब्रिज (इसे कंट्रोलरूम कह सकते हैं) से आदेश आया रैडी टु सेल.

सागर ने शक्तिशाली एअर कंप्रैसर स्टार्ट कर दिया. जैसे ही ब्रिज से आदेश मिला ‘डैड स्लो अहेड’ उस ने इंजन में कंप्रैस्ड एअर और तेल छोड़ा और जहाज बैंकौक पोर्ट से निकल पड़ा. फिर ऊपर ब्रिज से जैसा आदेश मिलता, जहाज स्लो या फास्ट स्पीड से चलता गया. आधे घंटे के अंदर ही जहाज हाई सी में था. तब और्डर मिला ‘फुल अहेड.’

अब शिप अपनी पूरी गति से सागर की लहरों को चीरता हुआ मुंबई की ओर बढ़ रहा था. सागर निश्चिंत था, क्योंकि सिर्फ 3 हजार नौटिकल मील का सफर रह गया था. लगभग 1 सप्ताह के अंदर वह मुंबई पहुंचने वाला था. उसे मुंबई छोड़े 4 महीने हो चुके थे.

अपनी 4 घंटे की शिफ्ट खत्म कर सागर अपने कैबिन में सोफे पर आराम कर रहा था. मन बहलाने के लिए उस ने फिल्म ‘रुस्तम’ की सीडी अपने लैपटौप में लगा दी. इस फिल्म को वह पूरा देख भी नहीं सका था. उस का मन बहुत बेचैन था.

‘रुस्तम’ से पहले भी उस ने एक पुरानी फिल्म ‘ये रास्ते हैं प्यार के’ देखी थी. दोनों की स्टोरी लगभग एक ही थी, जिस में दिखाया गया था कि जब मर्चेंट नेवी का अफसर लंबी यात्रा पर जाता है, तो उस की पत्नी को मौजमस्ती करने का भरपूर मौका मिलता है.

उस के मन में भी शंका हुई कि कहीं उस की पत्नी शैलजा भी ऐसा ही कुछ करती हो. हालांकि तुरंत उस ने मन से यह डर भगाया, क्योंकि शैलजा उसे बहुत प्यार करती थी. पूरी यात्रा में जब भी तट पर होता वह फोन पर उस से कहा करती कि जल्दी लौट आओ, तुम्हें बहुत मिस कर रही हूं. मम्मी भी इलाहाबाद अपने मायके चली गई हैं.

सागर को शादी के 3 महीने के अंदर ही टोक्यो जाना पड़ा था. उस की पत्नी मुंबई में ही एक अपार्टमैंट में रहती थी. बीचबीच में सागर की मां इलाहाबाद से आ कर रहती थीं. उस की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उस ने अपार्टमैंट के दरवाजे पर एक ‘रिंग डोरबैल’ लगा दी थी. इस में एक सैंसर और कैमरा लगा होता है, जो वाईफाई द्वारा अलगअलग चुनिंदा सैल फोन ऐप्स से जुड़ा होता है.

दरवाजे पर कोई भी हरकत होने से या कौलबैल बजने से दरवाजे के बाहर का दृश्य सैल फोन पर देख सकते हैं. इतना ही नहीं टौक बटन दबाने से बाहर खड़े व्यक्ति से बात भी कर सकते हैं.

सागर ने पत्नी शैलजा और मां के फोन के अतिरिक्त मुंबई में एक रिश्तेदार के सैल फोन से इस डोरबैल को कनैक्ट कर रखा था. सागर की पत्नी शैलजा कुछ पार्टटाइम काम करती थी. बाकी टाइम घर में ही रहती थी. कभीकभी बोर हो जाती थी. हालांकि उस की सास से काफी पटती थी पर सभी बातें तो उन से वह शेयर नहीं कर सकती थी और वैसे फिर आजकल वे भी नहीं थीं.

सागर ने शैलजा को मुंबई पहुंचने का अनुमानित समय बता दिया था. फ्लैट की एक चाबी सागर के पास होती थी. शिप अब आधी दूरी तय कर भारतीय समुद्र सीमा में था. सागर 3 दिन से कुछ कम ही समय में मुंबई पहुंचने वाला था. इधर शिप बंगाल की खाड़ी की लहरों पर हिचकोले खा रहा था उधर उस का मन भी शैलजा से मिलने की आस में बेचैन था. वह केबिन में आराम कर रहा था कि दरवाजा खटखटा कर उस का सहकर्मी अंदर आया. बोला, ‘‘यार तुम ने ‘रुस्तम’ देख ली हो तो सीडी मुझे देना.’’

दोस्त तो सीडी ले कर चला गया पर एक बार फिर सागर का मन शंकित हो उठा कि कहीं उस की पत्नी भी किसी गैर की बांहों में न पड़ी हो. बहरहाल, उस ने मन को समझाया कि यह मात्र वहम है. मेरी शैलजा वैसी नहीं हो सकती है जैसा मूवी में दिखाया गया है.

सागर का जहाज मुंबई पोर्ट के निकट था पर पोर्ट पर बर्थ खाली नहीं होने के कारण जहाज को थोड़ी दूरी पर लंगर डालना पड़ा. शाम होने वाली थी. उस का वाईफाई काम करने लगा था. उस के फोन पर मैसेज मिला ‘रिंग ऐट योर डोर’. हलकी बारिश हो रही थी.

उस ने अपने फोन में देखा कि फ्लैट के दरवाजे पर जींस पहने छाता लिए कोई खड़ा है. शैलजा ने हंस कर उसे गले लगाया और फिर दरवाजा बंद हो गया. छाते की वजह से वह उस का चेहरा नहीं देख सका. पहले तो उस ने पत्नी को कहा था कि वह जहाज से निकलने से पहले उसे फोन करेगा पर इस दृश्य को देख कर उस ने अपना इरादा बदल लिया.

जहाज के लंगर डालने के थोड़ी देर बाद कंपनी के लौंच से वह तट पर आया. उस ने टैक्सी ली और अपने फ्लैट पर जा पहुंचा. तब तक लगभग मध्य रात्रि हो चुकी थी. उस ने अपनी चाबी से फ्लैट का दरवाजा जानबूझ कर धीरे से खोला ताकि कोई आहट न हो. अंदर फ्लोर लाइट का हलका प्रकाश था.

सागर ने अंदर आ कर देखा कि बैडरूम का दरवाजा खुला है. शैलजा झीनी नाइटी में अस्तव्यस्त किसी व्यक्ति के बहुत करीब सोई थी. वह व्यक्ति जींस और टीशर्ट पहने था. उस की कमर पर शैलजा की बांह थी. सागर केवल उस व्यक्ति की पीठ देख सकता था. उस के मन में संदेह हुआ कि यह शैलजा का कोई आशिक ही होगा. वह दबे पांव फ्लैट लौक कर लौट पड़ा. उस ने 3 दिन की छुट्टी ले रखी थी. वहां से सीधे होटल में जा कर ठहरा.

रात काफी हो चुकी थी. फिर भी उसे नींद नहीं आ रही थी. नींद खुली तो उस ने रूम में ही हलका ब्रेकफास्ट मंगवा लिया. थोड़ी देर बाद सागर ने शैलजा को फोन कर बताया कि वह मुंबई पहुंच गया है. फिर पूछा ‘‘कैसी हो शैलजा?’’

शैलजा बोली, ‘‘अच्छी हूं. पर कल रात बहुत थक गई थी और करीब 12 बजे सोई तो सुबह 7 बजे महरी आई तब नींद खुली. पर बड़ा मजा आया रात में वरना मैं तो बोर हो रही थी. तुम जल्दी आओ न? जहाज तो किनारे लग चुका होगा. कब आ रहे हो?’’

‘‘मैं जहाज से उतरने ही वाला हूं, 2-3 घंटे में आ रहा हूं.’’

सागर के पास सामान के नाम पर एक अटैची भर थी. उस ने टैक्सी ली. अपार्टमैंट पहुंच कर सिक्युरिटी वाले को अटैची रखने को दी और कहा, ‘‘जब मैं फोन करूं तब इसे मेरे फ्लैट में भेज देना.’’ फ्लैट पहुंच कर उस ने बैल बजाई तो

शैलजा ने अपने फोन पर उस का वीडियो देख लिया, दरवाजा खोल कर शैलजा उस के गले से लिपट गई. वह बैडरूम में गया और बोला, ‘‘शैलजा, टौवेल लाना, बाथरूम जाना है.’’

‘‘बाथरूम तो बिजी है. तुम गैस्टरूम वाले बाथ में चले जाओ.’’

‘‘क्यों? कोई है अंदर?’’

‘‘हां, कोई है.’’

‘‘कौन है?’’

‘‘देख लेना थोड़ी देर में. इतनी जल्दी क्या है?’’

‘‘नहीं, मुझे बाथ टब में नहाना है और गैस्टरूम में बाथ टब नहीं है. पर तुम से जरूरी बात भी करनी है.’’

‘‘ठीक है, थोड़ी देर गैस्टरूम में ही आराम करो, मैं चाय ले कर आती हूं. वहां बात कर लूंगी.’’

सागर गैस्टरूम में बैड पर लेट गया. उस ने सिक्युरिटी को फोन कर नीचे से अपना अटैची मंगवा ली. थोड़ी देर में शैलजा चाय दे कर किचन में चली गई.

कुछ देर बाद शैलजा ने कहा, ‘‘सागर, बाथरूम खाली हो गया है. अब तुम बैडरूम में जा कर बाथरूम यूज कर सकते हो.’’

सागर बाथरूम में गया. उस ने देखा कि वहां कल रात वाली जींस और टीशर्ट टंगी थी. जब तक वह नहा कर निकला शैलजा की आवाज आई, ‘‘डाइनिंग टेबल पर ही आ जाओ, नाश्ता रैडी है.’’

शैलजा ने जूस ला कर दिया, उस के बाद छोले की सब्जी का बाउल रख कर बोली, ‘‘एक मिनट में गरमगरम कचौरियां ले कर आ रही हूं.”

‘‘कचौरियां बाद में आ जाएंगी, पहले तुम यहां बैठो. तुम से जरूरी बात करनी है.’’

तभी किचन से आवाज आई, ‘‘तुम लोग वहीं बैठ कर बातें करो. मैं गरमगरम कचौरियां ले कर आ रही हूं.’’

थोड़ी देर में एक औरत ट्रे में कचौरियां ले कर आई और टेबल के पास बैठ गई. सागर उसे आश्चर्य से देखने लगा तो वह बोली ‘‘मुझे ही देखते रहोगे तो कचौरियां ठंडी हो जाएंगी.’’

शैलजा बोली, ‘‘यह नीरू है. मेरी ममेरी भाभी. मेरे भैया उम्र में हम से सिर्फ 2 साल बड़े हैं. यह भाभी कम दोस्त ज्यादा है. हम लोग क्लासफैलो भी रहे हैं. आजकल यह नासिक में है. इस के पहले तो गुवाहाटी में थी. कौंटैक्ट तो न के बराबर रहा था. भैया टूअर पर गए हैं, तो यहां चली आई. भैया की शादी में हम लोग नहीं जा सके थे.’’

‘‘बाथरूम में जींस और टीशर्ट किस की है?’’

‘‘नीरू भाभी की. कल शाम जब यह आई तो हम दोनों अपार्टमैंट के क्लब में चली गईं. वहां काफी देर तक बैडमिंटन खेलती रहीं. दोनों बहुत थक गई थीं. मैं ने इस से कहा था कि कपड़े चेंज कर ले पर यह इन्हीं कपड़ों में सो गई थी.’’

‘‘इतना ही नहीं, उस के बाद हम लोग, ‘रुस्तम’ मूवी देखने लगे. सीडी पड़ी है, तुम भी देख लेना.’’

“तुम लोगों ने भी ‘रुस्तम’ देखी? सागर ने पूछा.

‘‘हां. इस में ताज्जुब की क्या बात है?’’ नीरू बोली.

‘‘ताज्जुब की बात नहीं है. मैं ने भी शिप में देखी है,’’ और फिर सागर मन ही मन सोचने लगा कि अच्छा हुआ उस ने शैलजा से इस बारे में कोई बात नहीं की. उस के दिल और दिमाग से ‘रुस्तम’ का वहम निकला गया था.

तभी शैलजा बोली, ‘‘तुम कोई जरूरी बात करने वाले थे.’’

सागर ने असली बात को दिल में छिपाते हुए कहा, ‘‘मेरा शिप 10 दिन में फिर टोक्यो के लिए सेल करेगा.’’

‘‘मैं आज शाम को चली जाऊंगी. मेरे सामने थोड़े ही देवरजी जरूरी बात करेंगे,’’ नीरू बोली.

सभी हंसने लगे, पर असल माजरा तो सिर्फ सागर ही समझ रहा था.

कुआं ठाकुर का: आखिर झुमकी को क्यों अपराध करना पड़ा?

“तुम्हारे कष्टों का हल तब ही मिलेगा, जब तुम हमारे साथ भाग कर शहर चलोगी, वरना रोज़ रात की यही कहानी रहेगी तुम्हारे साथ,” कलुआ ने झुमकी को बांहों में लेते कहा.

“हां रे, मन तो हमारा भी यही कहता है कि अब हम वापस घर न जाएं लेकिन अगर न गए तो हमारा बाप हमारी मां को भूखा मार डालेगा,” झुमकी ने एक सर्द आह भरते हुए कहा.

“तेरा बाप, छी, मुझे तो घिन आती है तेरे बाप के नाम से. भला कोई बाप अपनी बीवी और बेटी से ऐसा काम भी करा सकता है? वह कम्बख्त मर जाए तो ही अच्छा है,” कलुआ ने गुस्से से कहा.

“ऐसा मत कहो. वह मेरा बाप है. मेरी मां उसी के नाम का सिंदूर लगाती है. और तुम क्या समझते हो, अगर अम्मा या मैं ने उस की बात मानने से इनकार किया तो, पहले तो वह गालीगलौच करता है और फिर कहता है कि हम लोग ने नीच जाति वाले घर में पैदा हो कर गलती कर दी है और अब ये सब करना तो हमारे करम में लिखा है. हम जब तक जिंदा रहेंगे तब तक हमें ये ही सब करना पड़ेगा,” सिसक उठी थी झुमकी.

झुमकी के बदन पर नोचनेखसोटने के निशान बने हुए थे. उन्हें प्यार से सहलाते हुए कलुआ  बोला, “हां, हम तुम्हारी इतनी मदद कर सकते हैं कि तुम्हें यहां  से खूब दूर अपने साथ शहर ले जाएं और वहां हम दोनों मजदूरी कर के अपना पेट पालें. तभी तुम इस नरक से मुक्ति पा सकती हो,” झुमकी को बांहों में समेट लिया  था कलुआ ने.

झुमकी की उम्र 20 बरस थी. छरहरी काया, पतली नाक और चेहरे का रंग ऐसा जैसे कि तांबा और सोना आपस में  घोल कर उस के चेहरे पर लगा दिया गया हो.

झुमकी के बाप को शराब की लत लग गई थी. गांव के पंडित और ठाकुर उसे शराब पिलाते और  बदले में वह अपनी पत्नी को इन लोगों का बिस्तर गरम करने के लिए भेज देता. दिनभर दूसरों के खेत और अपने घर के चूल्हेचौके में जान खपाने के बाद जब झुमकी की मां ज़रा आराम करने जा रही होती, तभी नशे में धुत हो कर झुमकी का बाप आता और झुमकी की अम्मा  को इन रसूखदार लोगों के यहां जाने को कहता. विरोध करने पर उन्हें उन की नीची जाति का हवाला देता और कहता कि ऐसा करना तो उन के समय में ही लिखा है. इसलिए उन्हें ये सब तो करना ही पड़ेगा. झुमकी की अम्मा समझ जाती कि उस की इज़्ज़त को तो पहले ही शराब पी कर  बेच आया है, इसलिए मन मार कर उन लोगों के बिस्तर पर रौंदी जाने के लिए चली जाती.

झुमकी जैसे ही 13 साल की हुई, तो ठाकुर ने तुरंत ही अपनी गिद्ध दृष्टि उस पर जमा दी और झुमकी के बाप से मांग करी कि आज के बाद वह अपनी पत्नी को नहीं, बल्कि झुमकी को उस के पास भेजा करेगा  और झुमकी को खुद ठाकुर के पास पहुंचा कर आया था झुमकी का बाप.

एक बार ऐसा हुआ, तो फिर तो मानो यह चलन हो गया. जब भी ठाकुरबाम्हन लोगों का मन होता, बुलवा भेजते झुमकी को और रातरातभर रौंदते उस के नाज़ुक जिस्म को.

वह तो उस दिन झुमकी ने गांव की नदी में डूब कर आत्महत्या ही कर ली   होती, अगर उस मल्लाह के लड़के कलुआ ने उसे सही समय पर बचाया न होता. कलुआ ने जान बचाने के बाद जब जरा डांट और जरा पुचकार से झुमकी से ऐसा करने का कारण पूछा तो कलुआ के प्यार के आगे उस की आंसू की धारा बह निकली और रोरो कर  सब बता दिया कलुआ को.

“हम नीच जात के हैं, तो भला इस में हमारा का दोष है. और अगर वे लोग बाम्हन और ठाकुर हैं तो वे हमारे साथ जो चाहे, कर सकते हैं का?” झुमकी के इस सवाल का कोई जवाब नहीं था कलुआ के पास.

झुमकी को कलुआ से थोड़ा  स्नेह मिला और इस स्नेह में उसे वासना के कीड़े नहीं दिखाई दिए. तो, मन ही मन वह उसे अपना सबकुछ मान बैठी थी. कलुआ भी तो झुमकी पर ही जान न्योछावर किए रहता था. पर उसे ऐसे झुमकी का बाह्मन और ठाकुर द्वारा शोषण किया जाना पसंद नहीं था और इसीलिए वह शहर जाने की ज़िद करता था पर हर बार झुमकी अपनी मां की दुहाई दे कर बात टाल जाती थी.

लेकिन, कल जब झुमकी दालान में बैठी अपने शरीर पर रात में आई खरोंचों पर कड़वा तेल का लेप लगा रही थी, तभी झुमकी की अम्मा आई और बोली, “बिटिया, हम तुम को जने हैं, इसलिए तुम्हारा दर्द सब से अच्छी तरह जानते हैं. और यह भी जानते हैं कि वह कलुआ तुम्हें पसंद करता है. तुम अगर यहां गांव में ही रह गई, तो इसी तरह  पिसती रहोगी. शायद, नीच जाति में पैदा होना ही हमारा कुसूर बन गया है. पर अगर सच में ही जीना चाहती तो यहां से कहीं और भाग जाओ और हमारी  चिंता मत करो. हम तो बस काट ही लेंगे अपना जीवन. पर तुम्हारे सामने अभी पूरा जीवन है, तू यहां रह गई तो ये मांस के भेड़िए तुझे रोज़ रात में नोचेंगे. इसलिए चली जा यहां से, चली जा…”

अभी  झुमकी की मां उसे समझा ही रही थी कि झुमकी का बाप अंदर आ गया. उस ने सारी बातें सुन ली थीं, बोला, “हां, झुमकी ज़रूर जाएगी पर कलुआ के साथ नहीं, बल्कि संजय कुमार के साथ. मैं ने  इस की शादी संजय कुमार के साथ तय कर दी है. चल री झुमकी, जल्दी तैयार हो जा. तेरा दूल्हा  बाहर बैठा हुआ है.”

यह कैसी  शादी थी, न बरात, न धूम, न नाच, न गाना.

झुमकी और उस की मां समझ गई थीं कि झुमकी का सौदा कर डाला गया है. पर झुमकी के लिए आगे कुंआ और पीछे खाई जैसी हालत थी. फिर भी उस के मन में एक दूल्हे के नाम से यह उम्म्मीद जगी कि यहां रोज़रोज़ इज़्ज़त नीलाम होने से तो कुछ सही ही रहेगा कि किसी एक मर्द से बंध कर रहे.

और इसी उम्मीद में झुमकी उस आदमी के साथ चली गई. जाते समय झुमकी का मन तो भारी  था पर इतनी खुशी ज़रूर थी कि उसे बेचने के बदले में उस के पिता को जो पैसे मिल जाएंगे उन के बदले वह कुछ दिन आराम से शराब पी सकेगा.

और इस तरह बिहार के एक गांव से चल कर झुमकी उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर में पहुंच गई.

“यह रहा हमारा कमरा,” संजय ने एक छोटे से कमरे में घुसते हुए कहा.

उस कमरे में कोई भी बिस्तर नहीं था, सिर्फ एक गद्दे पर चादर डाल कर उसे लेटने की जगह में तबदील कर दिया गया था. और इस समय उस गददे पर  2 आदमी बैठे हुए झुमकी को फाड़खाने की नज़रों से देख रहे थे.

“अरे, इन से शरमाने की ज़रूरत नहीं है. ये दोनों हमारे बड़े भाई हैं- विजय भैया और मनोज भैया. हम लोग  मजदूरी करते हैं और ये दोनों भी हमारे साथ इसी कमरे में रहते हैं. और एक बात बता  दें तुम्हें कि तुम्हें हमारे साथसाथ इन का भी ध्यान रखना होगा,” संजय कुमार ने ज़मीन पर बैठते हुए कहा.

“हम भाइयों ने दिन बांट रखे हैं. हफ्ते के पहले 2 दिन तुम को बड़े भैया के साथ सोना होगा और उसके बाद के 2 दिन तुम  मझले भैया के साथ सोओगी और मैं सब से छोटा हूं, इसलिए सब से बाद में मेरा नंबर आएगा.  तुम को शर्म न आए, इस के लिए हम बीच में एक परदा डाल लेंगे,” संजय ने बड़ी सहजता से ये सारी बातें कह डाली थीं.

“क….क्या मतलब,” चौंक उठी थी झुमकी.

“यही कि हम 3 भाई हैं और हमारे आगेपीछे माईबाप कोई नहीं हैं जो हम लोगों का ब्याह करवा सके  और न ही हम लोगों के पास इतना पैसा है कि हम लोग अलगअलग रहें और अपने लिए अलगअलग बीवी रख सकें. इसीलिए हम ने 3 भाइयों के बीच में एक ही बीवी खरीद कर रखने का प्लान  बनाया.”

संजय कुमार की बात सुन कर जब झुमकी ने 3 पतियों की बीवी बनने से इनकार किया

तो तीनों ने उस के पिता को पूरे पैसे देने की बात कह कर बारीबारी से झुमकी के साथ मुंह काला किया और बाद में तृप्त हो कर गहरी नींद में सो गए और जब वे तीनों  आधी रात के बाद नींद की आगोश में थे, तब झुमकी दबेपांव वहां से भाग निकली और ढूंढतेढांढते पुलिस स्टेशन पहुंची और थानेदार को पूरी कहानी बताई.

“अरे, तो इस में बुराई ही क्या थी. और फिर, तुम्हें तो गांव में भी ऊंची जाति के लोगों के साथ सोने की आदत थी ही. यहां भी तीनों को खुश कर के रहतीं, तो वे सब रानी बना कर रख़ते. तुम छोटी जाति वालों के साथ यही समस्या है कि ज़रा सी बात में ही शोर मचाने लगते हो. अब रात के 3 बजे तू यहां आई है और मैं ने तेरी रिपोर्ट  भी लिख ली है. अब अगर बदले में तू मुझे थोड़ा खुश कर देगी, तो तेरा कुछ घिस थोड़े ही जाएगा,” यह कह कर थानेदार ने मेज़ पर ही झुमकी को लिटा दिया और उस का बलात्कार कर डाला.

रोती रही झुमकी. आज उसे कलुआ बहुत याद आ रहा था. उस ने एक नज़र थानेदार पर डाली

जो अपनी शर्ट और पैंट को संभालने की कोशिश कर रहा था.

सुबह हो रही थी. झुमकी भारी मन से उठी और बाहर निकल गई. कमज़ोरी, थकान और अपने ऊपर हुए जुल्मों के कारण उस से चला भी न जा रहा था. झुमकी किसी तरह सड़क तक पहुंची और सड़क पर ही गिर कर बेहोश हो गई.

झुमकी को होश आया, तो उस ने अपनेआप को बिस्तर पर पाया और उस की आंखों के सामने एक युवक खड़ा मुसकरा रहा था.

युवक की आंखों पर हलके लैंस का चश्मा और चेहरे पर घनी दाढ़ी थी.

“घबराओ नहीं, तुम सुरक्षित जगह हो. तुम सड़क पर बेहोश हो गई थीं. संयोग से मैं वहीं से गुज़र रहा था. तुम्हें देखा, तो यहां ले आया.” वह युवक इतना बोल कर चुप हो गया.

झुमकी अब भी उस को प्रश्नवाचक नज़रों से देख रही थी.

“मैं एक समाजसेवक हूं. मेरा नाम मलय है  और तुम जैसे गरीब व पिछड़े लोगों की मदद करना ही मेरा काम है. थोड़ा आराम कर लो और फिर मैं तुम से पूछूंगा कि तुम्हारी यह हालत किस ने कर दी है.”

वह मुसकराता हुआ वहां से चला गया और झुमकी की देखभाल के लिए एक नर्स वहां आ गई. कुछ घंटों बाद जब मलय वहां आया तो झुमकी अपनेआपको तरोताज़ा महसूस कर रही थी और पहली बार उसे ऐसा लग रहा था कि वह सुरक्षित हाथों में है.

झुमकी ने अपने साथ बीती हुई सारी बातें मलय को बता दीं. सुन कर मलय काफी दुखी हुआ और उस को न्याय दिलाने का वादा किया.

झुमकी की सेहत भी अब ठीक हो रही थी और अब भी वह मलय के सर्वेंटरूम में ही रह रही थी.

एक रात को 10 बजे मलय उस सर्वेंटरूम में आया. वह अपने साथ एक बाम ले कर आया था.

“मेरे सिर में बहुत दर्द है, ज़रा बाम तो लगा दो झुमकी, ” मलय ने झुमकी के बिस्तर पर लेटे हुए कहा.

झुमकी बाम लगाने लगी मलय के माथे पर. मलय उसे लगातार घूरे जा रहा था. अचानक कुछ अच्छा नहीं लगा  झुमकी को.

“मैं सोच रहा हूं कि भले ही तुम नीच जाति की हो, तुम्हारे साथ इतने लोगों ने बलात्कार किया, तो ज़रूर तुम में कोई कशिश रही होगी और मुझे लगता है कि उन्होंने कोई गलती नहीं करी,” कह कर मलय चुप हो गया.

झुमकी ने बाम लगाना बंद कर दिया और दूर जाने लगी.

तभी पीछे से उस ने अपनी पीठ पर मलय का हाथ महसूस किया. वह कुछ बोल पाती, इस से पहले ही मलय ने झुमकी को पकड़ कर बिस्तर पर गिरा दिया और उस का बलात्कार कर दिया.

झुमकी एक बार फिर उस नरक के अनुभव से गुज़र रही थी. लेकिन इस बार वह सहेगी नहीं,

वह बदला लेगी. पर कैसे?

गुस्से में झुमकी ने कोने में पड़ा हुआ एक छोटा सा चाकू उठाया और पूरी ताकत से मलय पर वार कर दिया. मलय के हाथ पर हलाकि सी खरोंच आई. मलय नशे में तो था ही, खरोंच लगने से उसे और क्रोध आ गया और उस ने अपने दोनों हाथ झुमकी के गरदन पर कस दिए और अपना दबाव बढ़ाता गया. एक समाजसेवक  बलात्कारी के साथसाथ खूनी भी बन गया था.

और झुमकी, जो एक गांव में जन्म ले कर शहर तक आई, पिता से ले कर उस के जीवन में जो भी आया उसे झुमकी में सिर्फ वासनापूर्ति का साधन दिखाई दिया. यह उस के एक औरत होने की सज़ा थी या एक गरीब होने की या एक दलित महिला होने की एक प्रश्नचिन्ह अब भी बाकी है???

पवित्र पापी: अमृता बाबा के गलत इरादों को क्यों बढ़ावा देती थी?

अमृता इसी आश्रम में ब्याह कर आई थी. आश्रम बहुत बड़ी जमीन पर फैला हुआ था. आश्रम के नाम पर बहुत बड़ी जमींदारी थी. गांवों में जमीनें थीं. खूब चढ़ावा आता था. कई जगह मंदिर थे जिन में पुजारियों को तनख्वाह मिलती थी. अमृता का ससुर पंडित मोहनराम आश्रम की जमींदारी संभालता था. यहीं पर ही वह रहता था. उस का अलग से मकान इसी आश्रम के पिछवाडे़ में बना हुआ था.

बडे़ महाराज का नाम दूरदूर के गांवों में था. उन्होंने कई किताबें लिखी थीं. बहुत बडे़बडे़ कार्यक्रम यहीं होते थे. तब स्वरूपानंदजी काशी से पढ़ कर आए थे. पहले वह ब्रह्मचारी ही रहे, बाद में बडे़ महाराज ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया था और मरने के  बाद स्वरूपानंद ने जब गद्दी संभाली तो आश्रम को नया होना ही था.

तब अमृता बाबा स्वरूपानंद की महिला शाखा की  कर्ताधर्ता थी. उसी ने हर बार स्वरूपानंद की शोभायात्रा भी निकाली थी. वसंत पंचमी पर जो फूल- डोल का कार्यक्रम होता था उस में अमृता सैकड़ों महिलाओं के साथ वसंती कपडे़ पहन कर बाबा स्वरूपानंद के साथ गुलाल उछलवाती थी. बाबा की गाड़ी हमेशा इत्र की खुशबू से महकती रहती.

अमृता का पति रामस्वरूप हमेशा या तो भांग पिए रहता या बाबा की जमींदारी में गया होता और अमृता मानो खुद ही आश्रम की हो कर रह गई हो. कभी मंदिर में कभी भंडार में, कभी अतिथिशाला में, भागतेदौड़ते अमृता को देख यही लगता था मानो आश्रम का सारा भार उसी पर हो.

कब बेटा हुआ, कब बड़ा हुआ, उसे पता नहीं. हां, बेटा होने पर बाबा ने उसे 20 तोला सोना दिया था. मकान पक्का कराया, फ्रिज दिया, उसे वह सबकुछ याद है.

उस रात जब वह मंदिर के पट बंद कर नीचे आ रही थी तब बाबा स्वरूपानंद ने अचानक उस का हाथ पकड़ा और उसे बांहों में भींच लिया. उसे तब लगा कि जैसे उस का रोमरोम जल रहा हो. बाबा की उंगलियां उस की पीठ पर रेंग रही थीं. उस की आंखें बंद होने लगीं. फिर क्या उसे याद नहीं. वह तो बाबा की बांहों में एक नशे में थी.

सुबह जब इत्र से भीगी बाबा की गद्दी पर उस की आंखें खुलीं तो वह खुद अपनी देह को देख कर लजा गई थी. लगा, पंखडि़यां अब खिल गई हैं. उस की आस पूरी हुई. पूरी औरत हो गई है वह. उस ने देखा स्वरूपानंद की धोती खुली पड़ी थी. उस ने ठीक की तो बाबा को मुसकराते देखा और चुपचाप नीचे उतर गई.

बाबा का अंश उस के गर्भ में था. वह अपनी साधना यात्रा पर गतिशील रही. उस का परिवार फलताफूलता रहा. रामस्वरूप अस्वस्थ हो गया. अधिक भांग का नशा और अस्तव्यस्त जीवन के चलते रोगों ने उसे जकड़ लिया था. बाबा ने उस का इलाज करवाया, अस्पताल में भरती भी कराया पर बिगड़ी तबीयत सुधरी ही नहीं और एक दिन वह भी चल बसा. तब उस का काम धर्मस्वरूप ने संभाला. बाबा ने उसे एक मोटरसाइकिल भी दिला दी थी. वह पढ़ालिखा था. उस का विवाह भी कर दिया.

बाबा ने जब से मंगला को अमृता के साथ देखा तभी से उन्हें लग रहा था मानो आंखों के सामने हजार बिजलियां कौंध गई हों. जब मंगला ब्याह कर आई थी तब पतलीदुबली थी. चेहरा भी मलीन हुआ रहता था पर अमृता का प्यार और उस की देखभाल तथा आश्रम के तर भोजन से उस की देह भर आई थी. जब उस के बेटा हुआ तो अमृता ने पूरे आश्रम वालों को भोजन पर बुलाया था.

उस रात बाबा ने अमृता का हाथ पकड़ कर कहा था, ‘‘मंगला तो गदरा गई है.’’

‘‘चुप, चुप करो, तुम्हारी बहू है.’’

‘‘मेरी,’’ बाबा हंसा, ‘‘जोगीअवधूत किसी के नहीं होते.’’

‘‘तुम यह किस से कह रहे हो?’’

‘‘तुझ से, तू ने मेरा बहुत माल खाया है.’’

‘‘मैं ने तुझे अपना शरीर भी तो दिया है. मुफ्त में कोई किसी को कुछ नहीं देता.’’

‘‘बहुत बोलने लग गई है.’’

‘‘याद रखना, मंगला मेरी ही नहीं तेरी भी बहू है. उस पर निगाह डाली तो आंखें नोच लूंगी.’’

‘‘यह तू कह रही है.’’

‘‘हांहां,’’ उस ने अपनी साड़ी को ठीक करते हुए कहा, ‘‘तेरा मुझ से मन भर गया है यह तो मुझे तभी पता लग गया था जब उस सेठ की लुगाई को मैं ने यहां देखा था, पर मैं तुझे यह बता देना चाहती हूं कि मेरा मुंह मत खुलवाना. सब धरा रह जाएगा…यह नाम, यह इज्जत, यह शोहरत. कइयों का बाप है तू, यह मैं जानती हूं,’’ इतना कह कर अमृता जोरों से हंसी. उस की उस हंसी में भय नहीं था एक उद्दाम अट्टहास था.

बाबा स्वरूपानंद अवाक्रह गया, फिर धीरे से बोला, ‘‘चुप कर, तेरा मुंह बंद कर दूंगा. बोल, क्या चाहिए तुझे? इतना दिया है पर तेरा मन नहीं भरा है.’’

‘‘सवाल मन का नहीं, मेरे घर का है. मंगला मेरी बहू है. शर्म कर…’’

उस रात जो तनातनी हुई थी वह बढ़ती ही जा रही थी. अमृता आश्रम में आती, अपना काम करती, मंदिर की पहले की तरह सफाई का पूरा ध्यान रखती और अपना सारा काम कर घर चली जाती.

अब फूलडोल का महोत्सव आ गया था. कई दिन से तैयारियां हो रही थीं. ठाकुरजी का शृंगार होता था. महात्मा लोग प्रवचन करने आते थे. भास्करानंद भी तभी वहां आए हुए थे. बडे़ महाराज के ये प्रिय शिष्य थे. बाद में जब स्वरूपानंदजी गद्दी पर बैठे तो वह उनियारा चले गए थे. वहां भी आश्रम था. वह वहां की गद्दी संभालते थे.

उन दिनों स्वामी मृगयानंद के आश्रम से 2 छोटे बालक भी आश्रम में आए हुए थे. कम उम्र में ही दोनों ने आश्रम में प्रवेश ले लिया था. भास्करानंद उन्हें धर्मशास्त्र पढ़ाया करते थे. उन की देखभाल अमृता के जिम्मे थी.

उस दिन जब वह रात को भंडारगृह में ताला लगवा कर लौट रही थी कि तभी रसोइया नानकचंद दूध का गिलास ले कर आ गया.

‘‘अरे, तू कहां जा रहा है?’’ वह बोली.

‘‘भास्करानंदजी ने दूध मंगवाया है.’’

‘‘वे दोनों छोटे महाराज कहां हैं?’’

‘‘एक तो कमरे में है, दूसरे को महाराज ने पढ़ने के लिए बुलाया था.’’

वह नानकचंद के साथ भास्करानंद के कक्ष की तरफ बढ़ गई.

उधर कक्ष में भास्करानंद ने बालक दीर्घायु को अपने बहुत पास बैठा लिया था और रजिस्टर पर कुछ संस्कृत में लिख कर उसे पढ़ने को दे रहे थे.

‘‘इधर देखो,’’ और उन्होंने बालक दीर्घायु का हाथ पकड़ कर अपनी दोनों जांघों के बीच खींच लिया था. वह लड़खड़ाया और तेजी से उस का मुंह उन की गोदी में आ गिरा था. जब तक बालक दीर्घायु संभलता उन्होंने उसे भींचते हुए चूमना शुरू कर दिया था.

उस के गले से निकली हलकी सी चीख को सुन कर अमृता उधर ही दौड़ी. पीछेपीछे नानकचंद भी दूध को संभालता हुआ दौड़ रहा था. अमृता दौड़ती हुई उस कक्ष के दरवाजे तक पहुंच गई और जोर का धक्का दे कर दरवाजा खोल दिया.

दरवाजा खुलने के साथ ही भास्करानंद सकपका कर दूर सरक गया था और बालक दीर्घायु घबराया हुआ अमृता के पास आ गया.

‘‘क्या कर रहा था नीच? अरे अधर्मी, तुझे शर्म नहीं आती. तेरा पुराना चिट््ठा सब को याद है. यहां ज्ञान चर्चा करने आया है…’’

‘‘तू चुप रह, तू कौन सी दूध की धुली है. यहां तुझे कौन नहीं जानता कि तू स्वरूपानंद की रखैल है.’’

‘‘चुप कर वरना मुंह नोच लूंगी.’’

तब तक स्वरूपानंद भी वहां पहुंच गया. उस ने भास्करानंद को चुप रहने का आदेश दिया और बालक दीर्घायु को ले कर वह उस के कक्ष की तरफ चला गया.

नानकचंद रसोई की तरफ और अमृता जीने से नीचे उतर कर अपने घर की तरफ बढ़ गई.

रास्ते में बाबा ने उस के कदमों की आवाज पहचान कर खंखारा. वह ठिठकी.

‘‘क्या है?’’

‘‘बहुत नाराज हो?’’

वह चुप रही.

‘‘धर्मस्वरूप को एक एसटीडी, पीसीओ खुलवा देते हैं. बाहर सड़क पर उस की दुकान बनवा देंगे.’’

सुन कर अमृता सकपकाई.

‘‘और बहू तो अपनी है, कुछ सोना उस के लिए खरीदा है, ले जाना.’’

अमृता ने सुना और आगे बढ़ गई.

धर्मस्वरूप खाना खा कर अपने कमरे में चला गया था. मंगला भी रसोई का काम पूरा कर सोने चली गई. अमृता नीचे के कमरे में पलंग पर लेटी रही पर आंखों में नींद नहीं थी. घंटे भर बाद जब अंधेरा और बढ़ गया तो वह पलंग से उठी तथा आंगन से होती हुई पीछे की गली में चल कर जीने से होती हुई सीधी आश्रम के पिछवाडे़ में पहुंच गई.

बाबा स्वरूपानंद के कमरे में हलकी रोशनी थी. यहीं पर मोगरे की टोकरी भी रखी हुई थी. चारों ओर खुशबू फैल रही थी.

‘‘आओ…’’ बाबा ने मुसकरा कर अमृता का स्वागत किया क्योंकि आज उस ने कुछ और ही सोच रखा था. बड़ा बोरा मंगवा रखा था. बंद गाड़ी की चाबी आज उसी के पास थी. तालाब के किनारे बडे़ पत्थर भी रखवा लिए थे. यानी अमृता की जल समाधि का पूरा इंतजाम हो चुका था. बाबा सोच रहा था कि अमृता बहुत बोलने लगी है, इस को भी मुक्ति मिल जाएगी.

‘‘तू तो अब पूरी पराई हो चली है,’’ बाबा ने उसे बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘ले, यह सोने का बड़ा सा हार बहू के लिए है.’’

‘‘बहू? यह तुम कह रहे हो?’’

‘‘हां,’’ बाबा का स्वर धीमा था.

बाबा उठे, बाहर का दरवाजा बंद कर दिया. हलकी सी रोशनी थी. अमृता उन के साथ बिस्तर पर थी. साड़ी मेज पर पड़ी थी. अचानक बाबा मुडे़ और तकिया उठा कर उस की गर्दन के ऊपर रख दिया.

अमृता का गला भिंच गया था. सांस नहीं ले पा रही थी. बाबा लगातार तकिए पर दबाव डालता रहा. वह उस के ऊपर आ कर बैठ गया.

वह निढाल हो गई थी. कुछ ही देर में उस की सांसें उखड़ जातीं, पर उस के पहले ही उस ने पूरी ताकत से बाबा को एक धक्का दिया. बाबा संभलता इस के पहले उस ने पास में रखा चिमटा पूरी ताकत से स्वरूपानंद के सिर पर दे मारा. वह तेजी से उठी और पास टंगी बाबा की तलवार उतार कर पूरी ताकत से बाबा की गरदन पर दे मारी. बाबा खून से लथपथ चीख रहा था.

शोर मच गया. वह तेजी से पिछवाडे़ के जीने से होती हुई नीचे उतर गई.

पुलिस आई. बाबा के बयान लिए गए. वह बोला, ‘‘मैं सो रहा था, तब किसी ने मुझ पर हमला किया. मेरे चीखने पर वह भाग गया.’’

अमृता के लिए वह कुछ नहीं बोला था. जानता था, एक शब्द भी बोला तो बदनामी उसी की होगी.

अमृता उस रात के बाद वहां नहीं दिखी. जब तक बाबा स्वरूपानंद अस्पताल से आश्रम लौटते वह उस के पहले बहुत दूर अपने परिवार के साथ जा चुकी थी. उस के घर के दरवाजे पर बहुत बड़ा ताला लटका हुआ था.

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