अब पता चलेगा – भाग 2 : राधा क्या तोड़ पाई बेटी संदली की शादी

रात को अकेले में राधा भुनभुनाती ही रहीं. विकास ने टोका,”कभी तो किसी बात पर खुश रहना सीखो, राधा. इतना अच्छा लड़का पसंद किया है संदली ने. बेटी बहुत समझदार है हमारी, सब देखसुन कर ही मिलवाने लाई होगी.”

”यह शादी कर के बहुत पछ्ताएगी.देखना, इस की किसी से नहीं निभ सकती, कुछ नहीं आता है, बस सैरसपाटा, आराम करना आता है.अब पता चलेगा, यह शादी के बाद बैठ कर रोएगी.”

विकास को गुस्सा आ गया,”कैसी मां हो, बेटी के लिए बुरा सोचती हो, शेम औन यू,राधा.”

संदली को मां का मन अच्छी तरह पता था. वह अंदर से दुखी भी थी पर आर्यन से बहुत प्यार करने लगी थी, अब विवाह करना चाहती थी पर मां इस विषय पर उस के लिए अच्छा नहीं सोचेंगी, पता था उसे.

अगले दिन आर्यन और संदली चले गए. फिर एक दिन प्रिया का फोन आया, वह संदली के लिए खुश थी.

कहने लगी,”आर्यन बहुत अच्छे परिवार से है, संदली ने नेट पर देख लिया है, उन के बिजनैस के बारे में वह सब जानती है, सब देख कर ही उस ने आर्यन से शादी का मन बनाया है. ऐसा लड़का तो हम भी उस के लिए नहीं ढूंढ़ सकते थे.”

राधा बिफरी,”मुझे पता था तुम उस की ही साइड लोगी.”

”ओह मां, यह जो आप को हर बात पता होती है न, बड़े परेशान हैं हम इस से, कभी तो कोई बात आराम से सुन लिया करो.”

थोड़ी देर बाद फोन रख दिया गया. संदली ने वहां से आर्यन के पेरैंट्स अनिल और मधु से भी विकास और राधा की बात करवा दी. विकास को दोनों का स्वभाव बहुत अच्छा लगा, दोनों संदली से मिल कर खुश थे. अब जल्दी से जल्दी उसे अपनी बहू बनाना चाहते थे.

विकास ने भी इस विवाह के लिए सहमति दे दी तो उन्होंने कहा,”आप भी आ कर हमारा घर देख लीजिए, तसल्ली कर लीजिए कि संदली हमेशा खुश रहेगी. यह बात विकास को बहुत अच्छी लगी.

उन्होंने कहा,”हम भी जल्दी ही आते हैं.”

दोनों परिवार अब आगे का प्रोग्राम बनाने लगे. संदली 2 दिन में वापस आ गई.

बैग खोलते हुए ढेरों गिफ्ट्स दिखाते हुए बोली,”पापा, मम्मी, देखो उन लोगों ने तो गिफ्ट्स की बौछार कर दी. इतने प्यार से मिले कि क्या बताऊं. पापा, मैं बहुत खुश हुई वहां जा कर.”

राधा ने सब सामान देखा, कहा कुछ नहीं, उठ कर अपने काम में लग गईं. 10 दिन बाद संदली चली गई. कोर्स पूरा हो चुका था. संदली को वहीं नई नौकरी जौइन करनी थी.

आर्यन अब पानीपत में फैमिली का बिजनैस ही संभालने वाला था. अनिल और मधु मुंबई आए. होटल में ठहरे और विकास और राधा से मिलने घर आए. गजब के खुशमिजाज, सुंदर दंपत्ति को देख कर राधा हैरान थीं. वे दोनों विकास और राधा के लिए बहुत सारे गिफ्ट्स भी लाए.

राधा के हाथ का बना खाना खा कर उन की कुकिंग की खूब तारीफ की तो राधा ने कहा,”पर संदली को कुछ भी बनाना नहीं आता. पहले इसलिए बता रही हूं कि आप लोग हमें बाद में यह न कहें कि आप लोगों को बताया नहीं.”

मधु ने खुल कर हंसते हुए कहा,”बेटी बहुत प्यारी है आप की. उस ने मुझे खुद ही बता दिया कि उसे कोई काम नहीं आता और उसे हमारे यहां कुकिंग की जरूरत पड़ेगी भी नहीं. हमारे यहां 2 कुक हैं, किचन में तो मैं ही जल्दी नहीं घुसती, आजकल की लड़कियां कैरियर बनाने में मेहनत करती हैं, जब जरूरत होती है सब कर लेती हैं और वहां अकेली रह ही रही है न, बहुत कुछ अपनेआप करती भी होगी.”

राधा चुप रहीं. अनिल और मधु ने अच्छा समय साथ बिताया. जाते हुए उन्हें भी गिफ्ट्स दे कर विदा किया गया.

अब अगले हफ्ते विकास और राधा को दिल्ली जाना था. तय हुआ कि अब सगाई भी कर देते हैं और संदली को भी बुला लेते हैं.

यह सुनते ही राधा को गुस्सा आ गया, विकास से कहा,”अब फिर उस के आने का खर्चा उठाना है?अभी तो गई है.”

संदली ने यह बात सुन कर कहा,”मम्मी, आप टिकट की चिंता न करो, सरप्राइज में आर्यन ने मुझे टिकट भेज दिए हैं.”

राधा ने कहा,”मुझे पता है कोई गड़बड़ जरूर है जो वे शादी के लिए इतनी जल्दी मचा रहे हैं. इतना अच्छा परिवार संदली को बहू बनाने के लिए क्यों मरा जा रहा है? कोई बात तो है.अब पता चलेगा.’’

विकास ने कहा,”गड़बड़ तुम्हारे दिमाग में है, बस.” संदली सीधे दिल्ली पहुंची. विकास और राधा भी पहुंच गए.

प्रिया ने कहा था कि वह सीधे शादी में ही आएगी. पानीपत में आर्यन का विशाल घर, नौकरचाकर देख कर राधा दंग रह गईं. उस पर सब का स्वभाव इतना सहज, कोई घमंड नहीं. पर आदत से मजबूर, कमी ढूंढ़ती ही रहीं, जो मिली नहीं.

राधा यह देख कर हैरान हुईं कि मधु और संदली ने फोन पर ही एकदूसरे के टच में रह कर सगाई के कपड़ों की जबरदस्त तैयारी कर रखी है. अभय संदली से खूब हंसीमजाक कर रहा था, विकास और मधु के लिए बेहद आरामदायक गेस्टरूम था, अनिल और मधु के करीब 100 लोगों के परिचितों के मौजूदगी में सगाई का फंक्शन हुआ.

विकास ने खर्चे बांटने की बात कही तो अनिल ने हाथ जोड़ दिए,”हमें कुछ नहीं चाहिए. संदली इस घर में आ रही है तो हमें खुशी से यह सब करने दें. हमें कुछ भी नहीं चाहिए.”

राधा ने अकेले में विकास से कहा,”इतना अच्छा बन कर दिखा रहे हैं, मुझे पता है ऐसे लोग बाद में रंग दिखाते हैं. अब पता चलेगा.‘’

संदली भी उन के पास ही बैठी थी.गुस्सा आ गया उसे, कहा,”मम्मी, हद होती है, इतने अच्छे लोग हैं फिर भी आप ऐसे कह रही हैं, सब कुछ उन्होंने आज मेरी पसंद का किया है, मेरी ड्रैस, ज्वैलरी सब आर्यन की मम्मी ने ली, मुझे कुछ भी लेने से मना कर दिया था, अब शादी की भी पूरी शौपिंग मुझे करवाने के लिए तैयार हैं, पर आप की बातें…उफ…”

”मुझे पता है तुम्हारी जैसी लड़कियां बाद में खूब रोती हैं.” संदली को रोना आ गया. उस के आंसू बह निकले तो विकास ने उसे गले से लगा लिया,”संदली बेटा, मत दुखी हो, तुम्हारी मम्मी को कुछ ज्यादा ही पता रहता है.‘’ विकास और संदली दोनों राधा से नाराज थे पर राधा पर न कभी पहले कोई असर हुआ था, न अब हो रहा था.

आगे पढ़ें- विकास ने हाथ जोड़ दिए,”आप जैसा चाहते हैं…

चौखट – भाग 2 : प्रेम को तरसती रेशमी

धीरेन रात में चूल्हे पर रोटी बना रहा था. उसे हर रोज अपने हाथ से खाना बनाना पड़ता था. रेशमी कटोरे में बनी हुई सब्जी ले कर चली आई.

‘‘यह सब्जी रख लो. आलूमटर और गोभी की मिक्स सब्जी बनाई है. खा

कर देखना,’’ रेशमी ने प्यार से कहा.

‘‘लेकिन, अभी रोटी सेंक रहा हूं,’’ कह कर धीरेन ने कटोरे की सब्जी रख ली.

‘‘हटो, मैं रोटी बना देती हूं. तुम खाना खा लो,’’ रेशमी ने कहा.

रेशमी तवे पर रोटी सेंकने लगी. धीरेन उस की दी हुई सब्जी के साथ गरमगरम रोटियां खाने लगा.

‘‘वाह, मजा आ गया. बड़ी मजेदार सब्जी बनी है,’’ धीरेन उंगलियां

चाट कर खाने लगा. रेशमी खुशी से मुसकरा उठी.

दूसरे दिन धीरेन ने फुटपाथ की दुकान से एक नाइटी खरीदी. वह नाइटी उस ने रेशमी को ला कर दे दी.

‘‘देखो, इसे पहन लेना. यह नाइटी तुम्हारे बदन पर खूब जंचेगी.’’

‘‘इसे मैं रात में पहन लूंगी,’’ रेशमी ने कहा.

‘‘कुलदीप को इस नाइटी पर शक हुआ तो?’’ धीरेन ने कहा.

‘‘कह दूंगी कि मैं ने खरीदी है,’’ रेशमी ने कहा.

‘‘आज रात तुम्हारे कमरे में आऊंगी. मेरा इंतजार कर लेना,’’ रेशमी ने धीमे से कहा.

तभी कुलदीप ने दुकान से पुकारा, ‘‘रेशमी, यह खाली टोकरी ले जाओ. इसे बरामदे में रख दो.’’

रेशमी बड़बड़ाई, ‘‘जब देखो, मुझ से खाली टोकरी उठवाता है. बाज आई ऐसे मर्द से.’’

आधी रात हो गई थी. रेशमी सोई नहीं थी. बगल में कुलदीप दारू पी कर सो रहा था. रेशमी कमरे से दबे पैर निकल कर धीरेन के कमरे में चली गई.

धीरेन जाग रहा था. वह रेशमी का इंतजार कर रहा था. उस ने रेशमी को बांहों में जकड़ लिया.

रेशमी ने धीरेन की दी हुई नाइटी पहन रखी थी, जिसे रेशमी ने पलभर में उतार दिया. इश्क की आग भड़क गई. दोनों ने एकदूसरे को बांहों में जकड़ लिया.

धीरेन रेशमी के साथ सैक्स करने लगा. कुछ देर तक यह खेल चलता रहा. जिस्म की आग जब ठंडी हो गई, तब दोनों अलग हो गए. रेशमी संतुष्ट हो कर अपने कमरे में सोने चली गई.

देशी दारू की दुकान में गहमागहमी थी. कुछ लोग आते और दारू की बोतल ले कर चले जाते थे. कई बेवड़े पी कर झूमते नजर आ रहे थे. मयखाने की हवाओं में भी नशा था.

कुलदीप अपने दोस्त किशन, सूरज और अजय के साथ बैठा दारू पी रहा था. जब नशा चढ़ा तो सभी लड़खड़ाते हुए उठे और रात के अंधेरे में घर चल दिए. कुछ दूर जाने पर कुलदीप के दोस्त अपने रास्ते निकल गए.

कुलदीप नशे में अकेले लड़खड़ाता हुआ चला जा रहा था. रास्ते में बड़े नाले पर एक पुलिया पड़ती थी, जिस की बाउंड्री ढह चुकी थी.

नशे के झोंक में कुलदीप लड़खड़ा कर बड़े नाले में गिर गया. आसपास अंधेरा और सन्नाटा था. उसे नाले में गिरते किसी ने भी नहीं देखा था.

कुलदीप हाथपैर मार कर नाले से निकलने की कोशिश करने लगा. वह जितना हाथपैर मारता, उतना ही कीचड़ और बदबूदार पानी से भरे नाले में धंसता चला गया. वह बड़े नाले में डूब गया था.

आधी रात तक कुलदीप जब घर नहीं लौटा, तब रेशमी घबराने लगी.

‘‘अभी तक कुलदीप नहीं आया,’’ रेशमी ने धीरेन से कहा.

‘‘सुबह का इंतजार करते हैं. हम लोग साथ चल कर उसे ढूंढ़ेंगे,’’ धीरेन ने तसल्ली दी.

सुबह हुई. थाने में लोगों की भीड़ लगी थी. पुलिस को एक शख्स की लाश बड़े नाले में तैरती हुई मिली थी. रेशमी और धीरेन ने थाने पहुंच कर लाश की शिनाख्त कुलदीप के रूप में की थी.

रेशमी जोरजोर से रो रही थी. पुलिस ने कुलदीप की लाश रेशमी को सौंप दी थी. उसी दिन कुलदीप का दाह संस्कार कर दिया था. रेशमी विधवा हो गई थी.

रोज कमानेखाने वाले लोगों को शोक मनाने का भी कहां समय होता है. कुछ दिनों से बंद पड़ी सब्जी की दुकान रेशमी ने खोल दी थी.

रेशमी की मदद के लिए धीरेन सामने आया. वह सब्जी मंडी से सुबह में सब्जियां टैंपो से ले आता था. रेशमी अपनी सब्जी दुकान में सब्जियां बेच देती थी.

इस तरह तकरीबन 2 महीने गुजर गए थे. रेशमी की जिंदगी ठीकठाक चलने लगी थी, लेकिन आसपास के लोगों को रेशमी खटकने लगी थी. सुधा नाम की एक अधेड़ औरत रेशमी को कुलटा साबित करने पर तुली थी.

सुधा आसपास की अनपढ़ औरतों को बतलाने लगी, ‘‘रेशमी एक विधवा औरत है. वह घर में अकेले रहती है. उस के घर में एक जवान लड़का धीरेन क्यों रहता है, जबकि उस के पति कुलदीप की मौत हो गई है?’’

एक अनपढ़ और जाहिल औरत गीता ने कहा, ‘‘रेशमी का धीरेन के साथ क्या संबंध है? वह सब्जी मंडी से उस की दुकान के लिए सब्जियां क्यों लाता है?’’

एक दिन सुधा ने रेशमी को समझाया, ‘‘धीरेन को घर से निकाल दो. कोई दूसरा किराएदार रख लो. एक अकेली औरत को जवान लड़के के साथ रहना ठीक नहीं है.’’

तब रेशमी ने तपाक से जवाब दिया, ‘‘धीरेन में कोई खराबी नहीं है. वह मेरे कामकाज में मदद कर देता है. भला उसे मैं घर से क्यों निकाल दूं?’’ यह सुन कर सुधा चुप हो गई थी.

महल्ले का एक बदमाश था प्रकाश. वह गली के नुक्कड़ पर लड़कों के साथ खड़ा रहता था. आसपास के लोग उस से खौफ खाते थे. सुधा ने प्रकाश से रेशमी की चुगली कर दी.

प्रकाश तो ऐसे मौके की तलाश में रहता था. वह रेशमी की सब्जी दुकान पर अपने गुरगों के साथ पहुंच गया. उस समय रेशमी दुकान पर बैठी थी.

‘‘इस घर में धीरेन नाम का कोई आदमी रहता है?’’ प्रकाश ने कड़क कर रेशमी से पूछा.

‘‘हां, धीरेन मेरे घर में रहता है,’’ रेशमी ने कहा.

‘‘उसे बाहर बुलाओ,’’ प्रकाश ने गरज कर कहा.

सुन कर धीरेन कमरे से बाहर आ गया, ‘‘क्या बात है?’’

राजनीति नकाब की – भाग 2

निहाल इस तरह से देवराज की मेहरबानी के बारे में कुछ सोचता कि क्यों देवराज इस तरह उस पर पैसे लुटाता रहता है, आखिर उस के जैसे तो बहुत सारे लड़के देवराज की जमात में होंगे, फिर क्यों वह निहाल को इतना आदर व सम्मान देता है. कभी सोचता कि खुद वह भी तो देवराज के एक बुलावे पर कहीं भी पहुंच जाता है और आज की दुनिया में सब से जरूरी चीज है समय, और वह तो उस के पास रहता ही है और देवराज उसी समय की कीमत तो चुकाता है, वह कोई एहसान थोड़े ही करता है उस पर.

सच है कि जब मनुष्य की जरूरतें पूरी होने लगती हैं तो उस के सिर पर अहंकार आने ही लगता है, और निहाल भी इस का कोई अपवाद नहीं था.

हमारे देश में कई नेता छात्र जीवन से ही राजनीति से जुड़े और आगे चल कर देश की राजनीति में भी उन्होंने नाम कमाया. दरअसल, राजनीति है ही ऐसी चीज, यह आप को उठाती है तो आकाश में पहुंचा देती है और गिराती है तो रसातल में.

ऐसी ही 2 अतियों के बीच में डोल रहा था देवराज, वह एक साफसुथरी छवि वाला नेता बनना चाहता था पर शायद राजनीति की कालिखभरी गलियों से बिना दाग लगे निकल पाना बहुत मुश्किल था.

एक बार फिर से निहाल के मोबाइल पर देवराज की कौल आई.

‘‘हैलो.’’

‘‘हां निहाल, कैसे हो भाई?’’

‘‘जी भैयाजी, अच्छा हूं.’’

‘‘अरे यार, कितनी बार कहा, भैयाजी मत कहा कर, तू मुझे मेरे नाम से ही बुलाया कर, वरना पिटेगा मु?ा से,’’ देवराज ने बनावटी गुस्से का इजहार करते हुए कहा.

‘‘अरे हां, भाई बिलकुल, अब से देवराज ही बुलाऊंगा, पर बताओ तो आज कैसे याद किया मुझे?’’ निहाल ने भी अपनापन दिखाया.

‘‘हां यार, बस हो सके तो थोड़ी देर के लिए होस्टल में आजा, कुछ बात ऐसी है कि फोन पर नहीं की जा सकती, सामने आएगा तब ही बता पाऊंगा,’’ देवराज रहस्मयी होता जा रहा था.

‘‘हां, ठीक है, देवराज, मैं अभी पहुंचता हूं,’’ निहाल ने फुरती दिखाते हुए कहा.

करीब एक घंटे बाद निहाल होस्टल में देवराज के सामने बैठा हुआ था.

‘‘अब बताओ देवराज, ऐसी कौन सी बात है जो तुम मुझे फोन पर नहीं बता सकते थे?’’ निहाल व्यग्र था.

‘‘दोस्त, बात दरअसल ऐसी है कि वो जो होस्टल है न ‘लंबरदार होस्टल’ उस के एक लड़के वीरेंद्र से अपनी ठन गई है. साला चला है मुझे को टक्कर देने, देवराज को टक्कर देने,’’ आंखें लाल हो चुकी थीं देवराज की. वह फुफकारते हुए बोला, ‘‘उठवा लूंगा साले को, और फिर ऐसीऐसी जगह तुड़ाई करूंगा कि जबजब हवा चलेगी, उस की टूटी हड्डियां उसे देवराज की याद दिलाएंगी,’’ देवराज क्रोध में था. उस का ऐसा रूप निहाल ने पहली बार देखा था.

‘‘पर देवराज, इस मामले में मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं,’’ निहाल की कुछ समझ में नहीं आ रहा था. ‘‘तुम्हे सिर्फ एक गाड़ी में बैठना होगा,’’ देवराज ने गुस्से को शांत करते हुए कहा.

‘‘गाड़ी में बैठना, मतलब? मैं कुछ समझ नहीं, देवराज?’’

‘‘हां निहाल, वह लड़का सुबह 7 बजे लंबरदार होस्टल से निकल कर पार्क जाता है. मेरे आदमी और तुम एक ओमनी वैन ले कर पार्क के पास ही खड़े रहोगे और जैसे ही वीरेंद्र पार्क में आएगा, बस, तुम्हें उस का मुंह दबा कर खींच लेना है वैन के अंदर. इस के बाद उस का क्या करना है, वो हम देख लेंगे.’’ अब देवराज थोड़ा शांत दिख रहा था, उस की यह मांग सुन कर अचानक सिहर उठा था निहाल.

‘‘पर यह तो अपहरण कहलाएगा, देवराज?’’ निहाल ने पूछा.

‘‘जानता हूं निहाल, जानता हूं, अपहरण ही तो करना है तुम्हें उस का,’’ देवराज एकएक शब्द चबा कर बोल रहा था.

‘‘अरे, पर… देवराज यह तो गलत है,’’ निहाल ने सलाह देने की कोशिश की.

‘‘गलत…? इस दुनिया में गलत और सही जैसी कोई चीज नहीं होती. असली चीज होती है अपना साम्राज्य, अपना आधिपत्य. और इन कामों में जो भी कांटा आए उस को अपनी राह से जो निकाल फेंकता है वही राजा कहलाता है. ये सारे कांटे कैसे निकाले जाते हैं, देवराज जानता है और अच्छी तरह जानता है,’’ देवराज की महत्त्वाकांक्षा अपने चरम पर उबल रही थी.

‘‘पर देवराज, यार, यह तो पुलिस का मामला बन सकता है, और कहीं मैं फंस गया तो? मैं तो एक सीधासादा बेरोजगार हूं जो किसी तरह से अपने मांबाप और बहन की जिम्मेदारी को निभा रहा हूं,’’ सशंकित हो रहा था निहाल.

‘‘मैं अच्छी तरह जानता हूं तुम्हारी जिम्मेदारियां, और तेरा परिवार मेरा भी है, और तुम बेरोजगार हो, इसीलिए यह काम तुम्हें दिया है. वैसे, यह काम मैं भाड़े के लोगों से भी करा सकता हूं, पर मैं जानता हूं कि ऐसे लोग विश्वास के योग्य नहीं होते. इस काम के लिए तो मुझे भरोसेमंद आदमी चाहिए, बिलकुल तुम्हारे जैसा. और हां, इस काम के लिए तुम को पूरे 50 हजार रुपए मिलेंगे, वह भी काम से पहले, ठीक है न?’’ काफीकुछ कह गया था देवराज.

देवराज के आखिरी के वाक्य सुन कर एक हर्र्षमिश्रित आश्चर्य निहाल के चेहरे पर दौड़ गया. हां, यह सच है कि अपहरण की बात उसे अच्छी नहीं लगी थी पर 50 हजार रुपए एक बेरोजगार के लिए एक बड़ी रकम थी और यह रकम उसे लालच भी दे रही थी और आकर्षित भी कर रही थी.

‘मु?ो करना ही क्या होगा, सिर्फ गाड़ी में मुंह पर नकाब लगा कर बैठे रहना है और जैसे ही वीरेंद्र पार्क से बाहर आएगा उस का मुंह दबा कर गाड़ी में ही तो खींचना है और इस काम में मेरी मदद के लिए देवराज के आदमी भी तो होंगे. 50 हजार… वह भी काम से पहले… यार निहाल, औफर तो अच्छा है… ये पैसे ले कर जब मांपापा के पास जाऊंगा और उन को यह बतलाऊंगा कि मैं भी निठल्ला नहीं हूं, मैं भी औरों की तरह कमा सकता हूं तब तो वे भी खुश होंगे न. और फिर मिनी भी सोचेगी कि उस का भाई किसी लायक बन गया है.’ अपनी ही गणित में उल?ा हुआ था निहाल कि तभी देवराज की आवाज ने उस की तंद्रा भंग कर दी.

‘‘अरे निहाल, इतना क्या सोच रहा है यार. ऐसे तुझे कोई फंसने थोड़े ही दूंगा. यार है तू मेरा. बस, तू मेरा काम करता जा और मैं तेरे काम आता जाऊंगा,’’ देवराज ने बहलाया निहाल को.

निहाल को 50 हजार की रकम के आगे सहीगलत कुछ भी समझ नहीं आ रहा था. उसे बस अपनी बेरोजगारी के आगे यह रकम बहुत बड़ी लग रही थी और काफी सोचविचार के बाद उस ने देवराज से इस काम को करने के लिए हामी भर दी.

‘‘तो फिर ठीक है, निहाल. इस राजू नाम के लड़के को पहचान लो. कल यह एक वैन और 2 बंदे ले कर तुम्हें उसी पार्क के बाहर मिलेगा, जहां पर तुम्हें उस कमीने वीरेंद्र को अगवा करना है. बैस्ट औफ लक मेरे दोस्त,’’ निहाल से देवराज बोला.

आज फिर एक बार मनुष्य के विवेक पर लालच ने जीत हासिल कर ली थी और इसी लालच के वशीभूत हो कर आज वह वो काम करने जा रहा था जो उस ने कभी सोचा भी नहीं था. निहाल घर आ कर चुपचाप लेट गया पर रातभर सो न सका. सुबहसुबह ठीक उसी जगह पहुंच गया जहां पर उसे वारदात को अंजाम देना था. वहां पर वैन पहले से खड़ी थी और राजू अपने साथ 2 बंदे भी ले कर आया था. निहाल एक नकाब लगा कर वैन के अंदर बैठ गया. अभी कुछ ही समय बीता था कि सामने से वीरेंद्र आता हुआ दिखा. धीरेधीरे निहाल की धड़कनें तेज हो रही थीं, पसीना उस की कनपटी तक आ गया था. अब वीरेंद्र वैन के पास से गुजरा, एक खटाक की आवाज के साथ दरवाजा खोल कर निहाल ने वीरेंद्र के मुंह को कपड़े से दबाया और अंदर घसीट लिया. वैन को पहले से ही स्टार्ट कर के रखा था, सो, कुछ ही सैकंड्स में वैन वहां से काफी दूर निकल गई.

निहाल के मोबाइल पर देवराज का फोन आया जिस में उस ने निहाल को आगे वाले चौराहे पर उतर जाने को कहा और अपहृत वीरेंद्र को राजू को सौंप देने की बात कही. निहाल ने ऐसा ही किया. वह आगे वाले चौराहे पर उतर गया और जैसे ही वह उतरा मानो सैकड़ों टन बो?ा उस के सिर से उतर गया.

निहाल चुपके से एक चाय के होटल में घुस गया और यह सुनिश्चित किया कि उसे किसी ने उस वैन से उतरते हुए देखा तो नहीं. वास्तव में आजकल कौन कहां जा रहा है किस से बात कर रहा है, इन बातों का कोई ध्यान नहीं रखता है, सिवा हमारे अंदर के डर के.

चाय पी कर निहाल ने मोबाइल जेब से निकाल कर नैटबैंकिंग पर अपने बैंक के खाते का बैलैंस चैक किया तो उस में 2 दिन पहले ही 50 हजार रुपए जमा हो चुके थे. वह बहुत खुश हो गया और औटो ले कर घर की तरफ चल पड़ा. रास्ते में निहाल ने सोचा कि देखा जाए तो काम भी कुछ खास कठिन नहीं था और पैसा भी अच्छा मिला है. बस, सम?ो मजा ही आ गया. हां, आगे से कभी अगर देवराज ऐसा काम कहेगा भी तो वह साफ मना कर देगा क्योंकि रोजरोज यह काम ठीक नहीं. यही सब सोच उस ने मोबाइल पर ‘थैंक्यू भाई’ का एक संदेश टाइप कर के देवराज को भेज दिया.

बदचलनी का ठप्पा – भाग 2 : क्यों भागी परबतिया घर से?

“ऐसे में तो हमारा मरना भी मुश्किल हो जाएगा.’’

भीड़ को देवेंद्रजी से हमदर्दी हो आई. बेचारे देवेंद्रजी, सारी कोलियरी का बोझ उठाए हैं अपने कंधों पर. कितनी चिंता है उन्हें लोगों की. एक वे ही तो हैं यहां, जो लोगों का दुखदर्द समझते हैं. उन को चैन कहां मिल पाता होगा. इस बार देवेंद्रजी की निगाह भीड़ से हट कर खड़े अर्जुन महतो पर पड़ी. बेचारा अर्जुन अपनी वीरान दुनिया लिए लगातार रोए जा रहा था. देवेंद्रजी को जैसे कुछ मालूम ही न हो. उन्होंने अर्जुन महतो की तरफ देख कर अपनेपन से पूछा,

‘‘क्या हो गया अर्जुन? क्यों सुबहसुबह हमारे दरवाजे पर आंसू बहा रहे हो?’’

अर्जुन महतो बिना जवाब दिए सिर्फ रोता रहा. उसी बीच महल्ले की ओर से बलदेव प्रसाद आता हुआ दिखा. देवेंद्रजी और भीड़ को शायद उसी का इंतजार था, इसीलिए सभी खुश हो गए.

मजदूर नेता देवेंद्रजी के दाहिने हाथ बलदेव प्रसाद का पहनावा देखते ही बनता था. कलफदार सफेद कुरतापाजामा, जिस पर आंखें ठहरती नहीं थीं. और कोई अर्जुन का पहनावा देखे, मैलीचीकट लुंगी और वैसी ही बनियान पहने था वह. कोयले की खदान में काम करने वाला एक अदना सा मजदूर, बेचारा अर्जुन. मजदूर अंधेरे में रेंग लेगा, खाली पैर चल लेगा और बरसते पानी में भीग लेगा, पर नेतागीरी के मजे ही और हैं. नेता हो या उन का दाहिना हाथ, उन के पास टौर्च भी हैं, जूते भी और छतरियां भी.

बलदेव प्रसाद को देख कर दुबेजी बोले, ‘‘भई बलदेवा, आजकल कहां रहते हो? बहुत दिनों से मिले नहीं. लगता है, खूब मस्ती कर रहे हो?’’

बलदेव प्रसाद ने अपने चेहरे पर परेशानी की परत चढ़ाते हुए कहा, ‘‘क्या कहें, अब तो यहां रहना ही मुश्किल हो गया है. रोज कोई न कोई झंझट खड़ा हो जाता है, ‘‘ऐसा कह कर उस ने अर्जुन की ओर ऐसी नजरों से देखा, जैसे सारा कुसूर उसी का हो. ‘‘वही तो हम भी इस से पूछ रहे हैं,’’

देवेंद्रजी बोले, ‘‘पर, यह बस रोए जा रहा है. कुछ बताता ही नहीं. अब तुम्हीं कुछ बताओ, तो हमें भी  मालूम हो?’’

‘‘अब हम क्या बताएं. मेरी तो जबान ही आगे नहीं बढ़ती. कहूं तो क्या कहूं. लगता है कि अब इस कोलियरी में गरीब आदमी का गुजारा नहीं रहा,’’

बलदेव प्रसाद ने कहा. फिर उस ने अर्जुन महतो की ओर देख कर कहा, ‘‘बताओ अर्जुन, खुद बताओ न अपना दुखड़ा?’’ देवेंद्रजी मन ही मन खुश हुए. बड़ी सधी हुई बात करता है बलदेव प्रसाद. अर्जुन ने अपने हाथ जोड़ दिए. मुंह से तो वह कुछ कह ही नहीं पा रहा था.

बड़ी कातर आंखों से उस ने बलदेव प्रसाद को देखा, जैसे कह रहा हो कि आप ही बताओ माईबाप, आप को सब मालूम ही है. ‘‘क्या हो गया अर्जुन? खुल कर कहो न. अरे, हम पर तुम्हारा भरोसा है, तभी तो आए हो न यहां?’’ देवेंद्रजी ने अर्जुन का हौसला बढ़ाया.

अर्जुन हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और फफकफफक कर जोर से रो पड़ा. बलदेव प्रसाद ने उसे डांटते हुए कहा, ‘‘बसबस, अब रोनाधोना नहीं मेहरियों की तरह, नहीं तो मैं देवेंद्रजी को कुछ नहीं बताऊंगा, समझा?’’ फिर उस ने देवेंद्रजी से कहा, ‘‘आप परबतिया को तो जानते ही होंगे?’’

‘‘कौन परबतिया…? अरे वही… जगेशर की बिटिया न?’’ देवेंद्रजी  ने कहा.

‘‘नहींनहीं,’’ बलदेव प्रसाद बोला, ‘‘यह अर्जुन महतो है न, इसी की घरवाली परबतिया की बात कर रहा हूं. इस कोलियरी में ऐसा अंधेर न देखा, न सुना. क्या पता आगे क्याक्या देखना पड़ जाए यहां,’’ उस ने भीड़ पर एक धिक्कार भरी नजर डाली.

‘‘तो यह अर्जुन हमारे पास क्यों आया है?’’ देवेंद्रजी ने मजाक करते हुए कहा, ‘‘हम ने तो इस की घरवाली को छिपा कर नहीं रखा अपने यहां,’’ उन की बात सुन कर भीड़ हंसने लगी.

‘‘माईबाप…’’ अर्जुन महतो के मुंह से मुश्किल से निकला. हाथ उस के लगातार जुड़े हुए थे. उस के खाली पैरों में एक घाव पक गया था, जिस से मवाद बह रहा था. मक्खियों को भगाने के लिए वह बीचबीच में अपना पैर झटक लेता था.

‘‘वही तो मैं बताने जा रहा था,’’ बलदेव प्रसाद ने भीड़ को ऐसे देखा, जैसे कोई बहुत बड़ी बात कहने जा  रहा हो, ‘‘वही परबतिया कल रात  जा कर उस बदमाश गया प्रसाद के घर बैठ गई.’’

‘‘गया प्रसाद…?’’ देवेंद्रजी का चेहरा तन गया, ‘‘वही लठैत गया  प्रसाद न?’’

‘‘हांहां,’’ बलदेव प्रसाद बोला, ‘‘एकदम वही, दिनदहाड़े ऐसी अंधेरगर्दी. तभी तो कहता हूं कि अब यहां किसी भलेमानुष का रहना  मुश्किल है.’’

जुम्मन और अलगू का बदला – भाग 2

ठाकुर जिगलान को अपनी सेहत और मूंछों को चुस्तदुरुस्त रखने के अलावा महंगी गाडि़यों का भी शौक था. उस के गैराज में कई महंगी गाडि़यां खड़ी थीं, जिन की देखभाल में 2-4 आदमी हमेशा लगे रहते थे.

गांव में एक फजलू ढोलक वाला रहता था. उसे सब ‘चाचा’ कहते थे. 55 साल का फजलू ढोलक बजाने में माहिर था. हालांकि गांव में डीजे का चलन तो पौपुलर हो रहा था, पर छोटे मौकों पर लोग फजलू को ही बुलवा लेते थे. जो आता, ढोलक बजाता और नजराना ले कर चला जाता. उस की ढोलक की थाप में ऐसी गमक थी कि छोटे बच्चे और किशोर लड़के अपनेआप झूमने लगते.

फजलू ने अपनी ढोलक आज धूप में सूखने को रखी थी, ताकि उस की थाप में कुछ और आवाज बढ़ कर आ सके.

कच्चे रास्ते के किनारे 2 बांसों को गाड़ कर उस के बीच में अपनी ढोलक को फजलू ने सूखने के लिए लटका दिया था कि इतने में ठाकुर जिगलान अपनी गाड़ी चलाता हुआ वहां से निकला. सामने ढोलक सूखती देख कर उस ने अचानक से ब्रेक लगा दिए और अपने एक चमचे को ढोलक उतार कर नीचे रखने को कहा.

चमचा जैसे सबकुछ समझ गया. उस ने ढोलक उतार कर सामने रास्ते पर रख दी. फजलू की नजरें इस सारे कांड को देख तो रही थीं और उस की जबान डर के मारे हिल नहीं सकी. वह कुछ न बोल सका और जिगलान ने अपनी गाड़ी उस ढोलक पर चढ़ा दी.

‘भाड़’ की आवाज के साथ ढोलक चूरचूर हो गई थी. अपनी कमाई के एकमात्र जरीए को इस तरह फूटता देख कर फजलू फफक पड़ा था. ठाकुर जिगलान ने कुटिल मुसकराहट के साथ गाड़ी आगे बढ़ा दी.

ठाकुर जिगलान को यही सब करने में मजा था. इस तरह से कभी वह गुड्डू कुम्हार के बरतन भी फोड़ देता, जो उस ने चाक से बना कर सूखने को रखे होते, तो कभी दूध दुहते रमुआ के पास गाड़ी ले जा कर जोर का हौर्न बजा देता, तो भैंस दूध दुहना छोड़ देती. लोगों को परेशान देख कर ठाकुर जिगलान को मजा आता था.

जुम्मन को गांव में वापस आए 3 महीने से ज्यादा हो गया था और अब उस ने सड़क के किनारे अपनी एक छोटी सी दुकान भी खोल ली थी और दुकान के बाहर मोटरसाइकिल और कार के कुछ पुराने टायरट्यूब सजा कर रख दिए थे, ताकि आनेजाने वालों को पता चल सके कि यह मेकैनिक की दुकान है.

धीरेधीरे दुकान चलने लगी, तो जुम्मन का आत्मविश्वास भी बढ़ने लगा था और अब वह रन्नो से रोज शाम को एक तय जगह पर मिलने भी जाता था और वहां पर रन्नो के साथ सलमा भी आती थी, सो अलगू को तो आना ही था.

वे चारों एकदूसरे से छिपछिप कर मिलते, तो प्यारमुहब्बत की बातें करते. एकदूसरे की उंगलियों को छू कर ही उन्हें अपने जोबन का असीम सुख हासिल हो जाता.

जुम्मन और अलगू दोनों अपना घर तो बसाना चाहते थे, पर दोनों के सामने धर्म और जाति की समस्या सामने आ रही थी और दोनों जोड़े जानते थे कि दूसरे धर्म में शादी कर पाना इतना आसान नहीं होगा, पर वे सब अपने दिल के हाथों मजबूर थे.

ठाकुर जिगलान के चमचों के कानों तक यह खबर पहुंच चुकी थी कि शहर से आया हुआ जुम्मन एक हिंदू लकड़ी रन्नो से शादी करना चाहता है और उस का दोस्त अलगू मुसलिम धर्म की लड़की सलमा से शादी करना चाहता है और अब तो जुम्मन ने घर जा कर लड़की के मांबाप से बात भी कर ली है और उस के घर वाले भी राजी हैं.

‘‘हमारी नाक के नीचे यह प्यारमुहब्बत का खेला चल रहा है और हमें ही नहीं मालूम…’’ ठाकुर जिगलान गरज उठा था.

औरतखोर ठाकुर जिगलान के अहंकार को अंदर तक चोट पहुंची थी. उस ने तुरंत ही अपने गुरगों को आदेश दिया कि रन्नो और सलमा को अगवा कर उस के नहर वाले बंगले में लाया जाए.

ठाकुर जिगलान के इरादे खतरनाक नजर आ रहे थे. एक गुरगा थोड़ा झिझक कर बोला, ‘‘साहब, अगर इन दोनों को एकएक कर के उठाएंगे, तो गांव में हल्ला हो जाएगा और यह जो जुम्मन है न, यह थोड़ा इंटरनैट वगैरह चलाता है, इसलिए थोड़ा ठंडा कर के खाइए मालिक.’’

ठाकुर जिगलान पहले तो भड़का, पर इंटरनैट का नाम सुन कर और कुछ सोच कर चुप हो गया. उस के चमचे ने उसे बताया कि 2 दिन के बाद पड़ोस वाले गांव में मेला लगेगा और रन्नो और सलमा जरूर उस मेले में जुम्मन और अलगू से मिलने की गरज से जाएंगी. बस, वहां से दोनों को अगवा कर के आप के सामने पेश कर देंगे.

‘‘हां, फिर एक ही रात में 2 अलगअलग जात के माल का मजा मारेंगे हम,’’ ठाकुर जिगलान हवस भरी आवाज में बोल रहा था.

जब तक हमारे खुद के साथ कुछ बुरा नहीं होता, तब तक हमें यही लगता है कि हमारे साथ तो बुरा हो ही नहीं सकता और यही इस गांव के सारे लोग सोचा करते थे.

बुरा तो हो ही गया, जब मेले में जा रही रन्नो और सलमा को अगवा कर नहर वाले बंगले के एक कमरे में बंद कर दिया गया, जहां पर दारू के नशे में चूर ठाकुर जिगलान ने दोनों का रेप किया. एक बार नहीं कई बार किया.

उस के बाद ठाकुर जिगलान के गुरगों ने भी अपना मुंह काला किया और पौ फटने से पहले उन लड़कियों को वापस उन के घर के बाहर डाल गए.

हर बार की तरह ही दोनों लड़कियों की मां ने ज्यादा शोर नहीं मचाने को कहा. कमोबेश दोनों घरों से एकजैसे विचार निकल रहे थे. भले ही दोनों परिवारों में धर्मजाति की खाई थी, पर मुसीबत के समय दोनों परिवारों के रुदन का स्वर एकजैसा ही था.

रन्नो और सलमा के परिवार वालों ने बात दबाने की बहुत कोशिश की, पर ऐसी बातें भला कहां छिपती हैं. गांव के लोगों से होते हुए यह बात जुम्मन और अलगू तक भी पहुंची, तो वे दोनों गुस्से से पागल हो गए.

जुम्मन तो ठाकुर जिगलान को जिंदा नहीं छोड़ना चाहता था, पर जुम्मन ने उसे धीरज रखने को कहा और यह भी कहा, ‘‘हमें बदला प्लानिंग से लेना होगा और ऐसे में अगर जिगलान को मार भी देंगे तो क्या… उस के गुरगे बदले में हमें मार देंगे… फिर रन्नो और सलमा का क्या होगा? उन से तो कोई शादी भी नहीं करेगा.’’

रन्नो का नाम आने पर जुम्मन थोड़ा शांत हुआ.

जुम्मन और अलगू दोनों बदला लेना तो चाह रहे थे और यह भी सोच रहे थे कि बदला ऐसे लिया जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

जब से ठाकुर जिगलान ने रन्नो और सलमा की अस्मत लूटी थी, तब से उस के चेहरे पर तृप्ति का भाव बना रहता था. आज उसे शहर जाना था. उस के ड्राइवर ने उस की पसंदीदा कार को साफ कर के खड़ा किया था.

ठाकुर जिगलान बड़ी ऐंठ में आया और उस में बैठ गया. उस की कार शहर की तरफ चल दी.

जुम्मन ने सड़क से ठाकुर जिगलान को जाते देखा, तो अलगू को मोबाइल पर फोन लगाया, ‘‘थोड़ी देर में जिगलान की गाड़ी का ऐक्सीडैंट होने वाला है.’’

जीवन की नई शुरुआत – भाग 2 : कोरोना का साइड इफैक्ट

‘ओय मुन्नी, तू ने फेंका?’ रघु लपका.

‘नहीं तो, फेंका होगा किसी ने,’ एक पत्ता मुंह में दबाते हुए शरारती अंदाज में मुन्नी बोली.

‘देख, झठ मत बोल, मुझे पता है कि तू ने ही फेंका है.’

‘अच्छा, और क्याक्या पता है तुझे?’ कह कर वह पेड़ से नीचे कूद कर भागने लगी कि रघु ने ?ापट कर उस का हाथ पकड़ लिया.

‘छोड़ रघु, कोई देख लेगा,’ अपना हाथ रघु की पकड़ से छुड़ाते हुए मुन्नी बोली.

‘नहीं छोड़ ूगा. पहले यह बता, तू ने मेरे सिर पर पत्ता क्यों फेंका?’ आज रघु को भी शरारत सू?ा थी.

‘हां, फेंका तो, क्या कर लेगा?’ अपने निचले होंठ को दांतों तले दबाते हुए मुन्नी बोली और दौड़ कर अपने घर भाग गई.

दिनभर का थकाहारा रघु मुन्नी को देखते ही उत्साह से भर उठता और मुन्नी भी रघु को देखते बौरा जाती. भूल जाती दिनभर के काम को और अपनी मां की डांट को भी. एकदूसरे को देखते ही दोनों सुकून से भर उठते थे.

18 साल की मुन्नी और 22 साल के रघु के बीच कब और कैसे प्यार पनप गया, उन्हें पता ही नहीं चला. इश्क परवान चढ़ा तो दोनों कहीं अकेले मिलने का रास्ता तलाशने लगे. दोनों बस्ती के बाहर कहीं गुपचुप मिलने लगे. मोहब्बत की कहानी गूंजने लगी, तो बात मुन्नी के मातापिता तक भी पहुंची और मुन्नी के प्रति उन का नजरिया सख्त होने लगा, क्योंकि मुन्नी के लिए तो उन्होंने किसी और को पसंद कर रखा था.

इसी बस्ती के रहने वाले मोहन से मुन्नी के मातापिता उस का ब्याह कर देना चाहते थे और वह मोहन भी तो मुन्नी पर गिद्ध जैसी नजर रखता था. वह तो किसी तरह उसे अपना बना लेना चाहता था और इसलिए वह वक्तबेवक्त मुन्नी के मांबाप की पैसों से मदद करता रहता था.

मोहन रघु से ज्यादा कमाता तो था ही, उस ने यहां अपना 2 कमरे का घर भी बना लिया था. और सब से बड़ी बात कि वह भी नेपाल से ही था, तो और क्या चाहिए था मुन्नी के मांबाप को? मोहन बहुत सालों से यहां रह रहा था तो यहां उस की काफी लोगों से पहचान भी बन गई थी. काफी धाक थी इस बस्ती में उस की. इसलिए तो वह रघु को हमेशा दबाने की कोशिश करता था. मगर रघु कहां किसी से डरने वाला था. अकसर दोनों आपस में भिड़ जाते थे. लेकिन उन की लड़ाई का कारण मुन्नी ही होती थी.

मोहन को जरा भी पसंद नहीं था कि मुन्नी उस रघु से बात भी करे. दोनों को साथ देख कर वह बुरी तरह जलकुढ़ जाता.

मुन्नी के कच्चे अंगूर से गोरे रंग, मैदे की तरह नरम, मुलायम शरीर, बड़ीबड़ी आंखें, पतले लाललाल होंठ और उस के सुनहरे बालों पर जब मोहन की नजर पड़ती, तो वह उसे खा जाने वाली नजरों से घूरता.

मुन्नी भी उस के गलत इरादों से अच्छी तरह वाकिफ थी, तभी तो वह उसे जरा भी नहीं भाता था. उसे देखते ही वह दूर छिटक जाती. और वैसे भी, कहां मुन्नी और कहां वह मोहन, कोई मेल था क्या दोनों का? कालाकलूटा नाटाभुट्टा वह मोहन मुन्नी से कम से कम 14-15 साल बड़ा था. उस की पत्नी प्रसव के समय सालभर पहले ही चल बसी थी. एक छोटा बेटा है, उस से बड़ी 5 साल की एक बेटी भी है, जो दादी के पास रहती है. वही दोनों बच्चों की अब मां है.

वैसे भी पीनेखाने वाले मोहन की पत्नी मरी या उस ने खुद ही उसे मार दिया, क्या पता? क्योंकि आएदिन तो वह अपनी पत्नी को मारतापीटता ही रहता था. खूंखार है एक नंबर का. अब जाने सचाई क्या है, मगर मुन्नी को वह फूटी आंख नहीं सुहाता था.

उसे देखते ही मुन्नी को घिन आने लगती थी. मगर उस के मांबाप जाने उस में क्या देख रहे थे, जो अपनी बेटी की शादी उस से करने को आतुर थे. शायद पैसा, जो उस ने अच्छाखासा कमा कर रखा हुआ था.

लेकिन मुन्नी का प्यार तो रघु था. उस के साथ ही वह अपने आगे के जीवन का सपना देख रही थी और उधर रघु भी जितनी जल्दी हो सके उसे अपनी दुलहन बनाने को व्याकुल था. अपनी मां से भी उस ने मुन्नी के बारे में बात कर ली थी. मोबाइल से उस का फोटो भी भेजा था, जो उस की मां को बहुत पसंद आया था. कई बार फोन के जरिए मुन्नी से उन की बात भी हुई थी और अपने बेटे के लिए मुन्नी उन्हें एकदम सही लगी थी.

एक शाम मुन्नी की कोमलकोमल उंगलियों को अपनी उंगलियों के बीच फंसाते हुए रघु बोला था, ‘मुन्नी, छोड़ दे न लोगों के घरों में काम करना. मु?ो अच्छा नहीं लगता.’

‘छोड़ दूंगी, ब्याह कर ले जा मु?ो,’ मुन्नी ने कहा था.

‘हां, ब्याह कर ले जाऊंगा एक दिन. और देखना, रानी बना कर रखूंगा तुम्हें. मेरा बस चले न मुन्नी, तो मैं आकाश की दहलीज पर बना सात रंगों की इंद्रधनुषी अल्पना से सजा तेरे लिए महल खड़ा कर दूं,’ कह कर मुसकराते हुए रघु ने मुन्नी के गालों को चूम लिया था. लेकिन उन के बीच तो जातपांत और पैसों की दीवार आ खड़ी हुई थी. तभी तो मुन्नी के घर से बाहर निकलने पर पहरे गहराने लगे थे. जब वह घर से बाहर जाती तो किसी को साथ लगा दिया जाता था, ताकि वह रघु से मिल न सके, उस से बात न कर सके. लेकिन हवा और प्यार को भी कभी कोई रोक पाया है? किसी न किसी वजह से दोनों मिल ही लेते.

इधर मुन्नी के मांबाप जितनी जल्दी हो सके अपनी बेटी का ब्याह उस मोहन से कर देना चाहते थे. वह मोहन तो वैसे भी शादी के लिए उतावला हो रहा था. उसे तो लग रहा था शादी कल हो, तो आज ही

हो जाए.

इधर रघु जल्द से जल्द बहुत ज्यादा पैसे कमा लेना चाहता था, ताकि मुन्नी के मांबाप से उस का हाथ मांग सके. और इस के लिए वह दिनरात मेहनत भी कर रहा था. दिन में वह मिस्त्री का काम करता, तो रात में होटल में जा कर प्लेंटें धोता था.

लेकिन अचानक से कोरोना ने ऐसी तबाही मचाई कि रघु का कामधंधा सब छूट गया. कुछ दिन रखेधरे पैसे से काम चलता रहा. इस बीच, वह काम भी तलाशता रहा, लेकिन सब बेकार. अब तो दानेदाने को मुहताज होने लगा वह. कर्जा भी कितना लेता भला. भाड़ा न भरने के कारण मकानमालिक ने भी कोठरी से निकल जाने का हुक्म सुना दिया.

इधर, उस मोहन का मुन्नी के घर आनाजाना कुछ ज्यादा ही बढ़ने लग गया, जिसे मुन्नी चाह कर भी रोक नहीं पा रही थी. आ कर ऐसे पसर जाता खटिया पर, जैसे इस घर का जमाई बन ही गया हो. चिढ़ उठती मुन्नी, पर कुछ कर नहीं सकती थी. लेकिन मन तो करता मुंह नोच ले उस मोहन के बच्चे का या दोचार गुंडों से इतना पिटवा दे कि महीनाभर बिछावन पर से उठ ही न पाए.

दर्द एक हो तो कहा जाए. यहां तो दर्द ही दर्द था दोनों के जीवन में. जिस दुकान से रघु राशन लेता था, उस दुकानदार ने भी उधार में राशन देने से मना कर दिया.

उधर गांव से खबर आई कि रघु की चिंता में उस की मां की तबीयत बिगड़ने लगी है, जाने बच भी पाए या नहीं. मकानमालिक ने कोरोना के डर से जबरदस्ती कमरा खाली करवा दिया. अब क्या करे यहां रह कर और रहे भी तो कहां? इसलिए साथी मजदूरों के साथ रघु ने भी अपने घर जाने का फैसला कर लिया.

रघु के गांव जाने की बात सुन कर मुन्नी सहम उठी और उस से लिपट कर बिलख पड़ी यह कह कर कि ‘मु?ो छोड़ कर मत जाओ रघु, मैं घुटघुट कर मर जाऊंगी. मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती. मु?ो म?ादार में छोड़ कर मत जाओ.’

मुन्नी की आंखों से बहते अविरल आंसुओं को देख रघु की भी आंखें भीग गईं, क्योंकि वह जानता था मुन्नी और उस का साथ हमेशा के लिए छूट रहा है. उस के जाते ही मुन्नी के मांबाप मोहन से उस का ब्याह कर देंगे. लेकिन फिर भी कुछ क्षण उस के बालों में उंगलियां घुमाते हुए आहिस्ता से रघु ने कहा था वह जल्द ही लौट आएगा.

मुन्नी जानती थी कि रघु ?ाठ बोल रहा है, वह अब वापस नहीं आएगा. लेकिन यह भी सच था कि वह रघु की है और उस की ही हो कर रहेगी, नहीं तो जहर खा कर अपनी जान खत्म कर लेगी. लेकिन उस अधेड़ उम्र के दुष्ट मोहन से कभी ब्याह नहीं करेगी.

मुन्नी के मांबाप ने जब उस दिन मोहन से उस की शादी का फरमान सुना दिया था, तब मुन्नी ने दोटूक अपना फैसला दे दिया था कि वह किसी मोहनफोहन से ब्याह नहीं करेगी, वह तो रघु से ही ब्याह करेगी, नहीं तो

मर जाएगी.

उस के मरने की बात पर मांबाप पलभर को सकपकाए थे, लेकिन फिर आक्रामक हो उठे थे. ‘उस रघु से ब्याह करेगी, जिस का न तो कमानेखाने का ठिकाना है और न ही रहने का. क्या खिलाएगा और कहां रखेगा वह तु?ो?’

मां ने भी दहाड़ा था, ‘कल को कोई ऊंचनीच हो गई तो हमें मुंह छिपाने के लिए जगह भी नहीं मिलेगी. और बाकी 4 बेटियों का कैसे बेड़ा पार लगेगा? लड़की की लाज मिट्टी का सकोरा होती है, सम?ा बेटी तू.’ मगर, मुन्नी को कुछ सम?ानाबू?ाना नहीं था.

दांत भींच लिए थे उस ने यह कह कर, ‘अगर तुम लोगों ने जबरदस्ती की तो मैं अपनी जान दे दूंगी सच कहती हूं,’ और अपनी कोठरी में सिटकिनी लगा कर फूटफूट कर रो पड़ी थी.

मुन्नी की मां का तो मन कर रहा था बेटी का टेंटुआ ही दबा दे, ताकि सारा किस्सा ही खत्म हो जाए. हां, क्यों नहीं चाहेगी, आखिर बेटियों से प्यार ही कब था उस को. ‘हम बेटियां तो बो?ा हैं इन के लिए’ अंदर से ही बुदबुदाई थी मुन्नी.

‘देखो इस कुलच्छिनी को, कैसे हमारी इज्जत की मिट्टी पलीद कर देना चाहती है. यह सब चाबी तो उस रघु की घुमाई हुई है, वरना इस की इतनी हिम्मत कहां थी. अरे नासपीटी, भले हैं तेरे बाप. कोई और होता तो दुरमुट से कूट के रख देता. मेरे भाग्य

फूटे थे जो मैं ने तु?ो पैदा होते ही नमक न चटा दिया.’

खूब आग उगली थी उस रात मुन्नी की मां ने. उगले भी क्यों न, आखिर उसे अपने हाथ से तोते जो उड़ते नजर आने लगे थे. एक तो कमाऊ बेटी, ऊपर से पैसे वाला दामाद जो हाथ से सरकता दिखाई देने लगा था. सोचा था, बाकी बेटियों का ब्याह भी मोहन के भरोसे कर लेगी, मगर यहां तो… ऊंचा बोलबोल कर आवाज फट चुकी थी मुन्नी की मां की, मगर फिर भी मुन्नी पर कोई फर्क नहीं पड़ा था. उस की जिद तो अभी भी यही थी कि वह रघु की है और उस की ही रहेगी.

चौखट-भाग 1 : प्रेम को तरसती रेशमी

टैंपो कुलदीप के दरवाजे पर आ कर रुक गया था. उस में आलूप्याज और तरहतरह की हरी सब्जियां लदी थीं. दरवाजे की चौखट से पीठ टिकाए कुलदीप की बीवी रेशमी उस के इंतजार में बैठी थी.

कुलदीप टैंपो से उतर कर सब्जी मंडी से आई सब्जियों को दरवाजे के सामने की चौकी पर रखने लगा. इसी चौकी पर बेचने के लिए सब्जियां रखी जाती थीं. रेशमी भी सब्जियों की टोकरी उठा कर रखने लगी थी.

गली के नुक्कड़ पर कुलदीप की सब्जी की दुकान थी. यह दुकान उस ने अपने टूटेफूटे पुराने घर में ही खोल रखी थी. इसी दुकान की कमाई से

2 जनों का पेट भरता था. कुलदीप रोज सुबह सब्जी मंडी से सब्जी ला कर दुकान लगाता था. शाम तक सारी सब्जियां बिक जाती थीं.

कुलदीप की बीवी रेशमी गोरीचिट्टी और खूबसूरत थी. वह कदकाठी की मजबूत थी. उस की आंखें कजरारी थीं. उस का हुस्न लाजवाब था. उसे देखने के लिए दुकान पर ग्राहकों का आनाजाना लगा रहता था, जिस से दुकान की बिक्री और ज्यादा बढ़ जाती थी.

रेशमी की शादी 7-8 साल पहले कुलदीप से हुई थी. रेशमी को अभी तक कोई बच्चा नहीं हुआ था. कुलदीप

की बूढ़ी मां पोतेपोती की आस में ही मर गई थी.

रेशमी में कोई कमी नहीं थी. खोट तो कुलदीप में था. कुलदीप को शराब पीने की बुरी आदत थी. वह शाम में ठेके पर जा कर शराब पीता था. घर लौटते समय वह नशे में चूर हो जाता था. किसी तरह खाना खा कर वह बिछावन पर निढाल हो कर सो जाता था. रेशमी को करवटें बदलते रात बीत जाती थी. सुबह होते उस का हुस्न बासी फूल की तरह मुरझा जाता था.

कुलदीप ने दुकान में बैठेबैठे पुकारा, ‘‘रेशमी यहां आना तो…’’

‘‘क्यों, क्या बात है?’’ रेशमी ने कमरे से आ कर पूछा.

‘‘यह सब्जी की टोकरी खाली हो गई है. इसे रख दो. इस का माल बिक गया है,’’ कुलदीप ने कहा.

खाली टोकरी रेशमी ने उठा ली. वह खाली टोकरी को देख कर सोचने लगी, ‘कुलदीप भी तो इसी टोकरी की तरह खाली हो गया है. उस की मर्दानगी बची नहीं है. उस का माल बिक गया है.’

रेशमी जोर से हंसते हुए टोकरी ले कर चली गई. कुलदीप उस के हंसने का राज समझ नहीं सका.

देशी शराब की दुकान पर चहलपहल थी. कुलदीप अपने दोस्तों किशन, सूरज और अजय के साथ बैठा दारू पी रहा था. वहां एक ठेले पर चखना के लिए मछली फ्राई बिक रही थी.

दारू पीते किशन ने कुलदीप से कहा, ‘‘दारू पीने से थकान दूर होती है. नींद खूब बढि़या आती है.’’

कुलदीप यह सुन कर मुसकराया.

सूरज ने कहा, ‘‘यार कुलदीप, दारू पीने से मर्दानगी उफान मारती है. औरत को बिछावन पर मर्द पछाड़ देता है.’’

‘‘हांहां, दारू में जिंदगी का असली मजा है,’’ अजय ने कहा.

कुलदीप ने हंस कर कहा, ‘‘एकदम बकवास हैं तुम सब की बातें. मुझे तो दारू पीने की आदत है, इसलिए हर रोज छक कर दारू पीता हूं.’’

कुलदीप के दोस्त शराब पीने के बाद अपनेअपने रास्ते निकल गए.

कुलदीप नशे में झूमता हुआ घर पहुंचा, तो रेशमी घर की चौखट के पास बैठी उस का इंतजार कर रही थी.

‘‘आ गए न पी कर… इसे समझाना मुश्किल है. तू हर रोज घर की गाढ़ी कमाई बरबाद कर देता है,’’ आते ही रेशमी बड़बड़ाई.

‘‘अरे भई, कमाता हूं तो पीता हूं. इस में किसी के बाप का क्या जाता है,’’ कुलदीप ने बेहयाई से कहा.

रेशमी ने उसे नफरत से देखा. उसे लगा कि वह कुलदीप को एक झापड़ लगा दे, लेकिन वह गुस्सा पी कर रह गई. रेशमी ने भोजन की थाली कुलदीप के सामने ला कर रख दी.

कुलदीप ने किसी तरह खाना खाया. पेट में तो दारू भरी थी, रोटी के लिए जगह कहां बची थी.

रेशमी पलंग पर जा कर लेट गई. खाना खा कर कुलदीप भी साथ में लेट गया. उस के मुंह से दारू की बदबू आ रही थी.

दारू के नशे में कुलदीप रेशमी को बांहों में भर कर चूमने लगा. उस के उभारों को सहलाने लगा. रेशमी ने भी उसे जोर से बांहों में जकड़ लिया.

जिस्म की आग भड़क चुकी थी. कुलदीप सैक्स करने लगा, लेकिन वह गीले पटाखे की तरह फुस हो कर रह गया. वह तुरंत पस्त हो गया था. रेशमी प्यासी ही रह गई.

कुलदीप करवट बदल कर खर्राटे भरने लगा. रेशमी की रात यों ही तड़पते हुए बीत गई.

रेशमी सुबह में सब्जी की दुकान पर बैठी थी, तभी एक नौजवान दुकान पर आया.

‘‘क्या चाहिए बाबू? कौन सी सब्जी तौल कर दे दूं?’’ रेशमी ने कहा.

‘‘यहां कोई कमरा खाली है. मुझे किराए का एक कमरा चाहिए था,’’ उस नौजवान ने कहा.

रेशमी कुछ सोच कर बोली, ‘‘एक कमरा तो खाली है, लेकिन उस कमरे में कुछ फालतू सामान रखा है.’’

‘‘कमरा दिखा दो,’’ नौजवान ने कहा. रेशमी ने घर के अंदर ले जा कर उसे कमरा दिखा दिया.

‘‘इस का किराया?’’ उस नौजवान ने पूछा.

‘‘महीने का 800 रुपए,’’ रेशमी ने कहा.

वह नौजवान कमरा लेने को तैयार हो गया. उस का नाम धीरेन था.

धीरेन उस कमरे में आ कर रहने लगा. वह गठीला नौजवान था. अभी

उस की शादी नहीं हुई थी. वह गांव से शहर में कमाने आया था. वह फर्नीचर बनाने की एक दुकान पर बढ़ई का काम करता था.

रेशमी की जिंदगी में थोड़ा बदलाव आया. वह धीरेन के आने से खुश रहने लगी. वह कामकाज से फुरसत पा कर बननेसंवरने लगी, जिस से उस का रंगरूप और निखर उठा.

धीरेन शाम को काम पर से घर लौट आता. वह बाजार से नाश्ते का कोई आइटम खरीद लेता, जिसे रेशमी को भी वह खाने को देता.

एक दिन बाजार से घर आते ही धीरेन ने रेशमी को पुकारा, ‘‘समोसे लाया हूं. आ कर जल्दी से खा लो.’’

रेशमी कमरे से बाहर चली आई. ‘‘अरे वाह, समोसे गरम हैं,’’ कह कर रेशमी समोसे खाने लगी.

धीरेधीरे दोनों में नजदीकियां बढ़ने लगीं. धीरेन घर के छोटेमोटे काम भी निबटाने लगा, जिस से रेशमी को दुकान चलाने में सहूलियत होने लगी.

एक दिन कुलदीप घर पर नहीं था. रेशमी हरे रंग की नई साड़ी के साथ मैच खाता ब्लाउज पहने हुए थी. वह इस साड़ी में खूब जंच रही थी.

धीरेन आज जल्द घर आ गया. रेशमी बनसंवर कर उस के कमरे के पास जा कर खड़ी हो गई. धीरेन उसे देख कर मुसकराया, ‘‘रेशमी, तुम भोजपुरी फिल्म की हीरोइन लग रही हो.’’

‘‘तुम भी किसी हीरो से कम नहीं लगते हो,’’ रेशमी ने नशीली आवाज में कहा.

शह पा कर धीरेन ने रेशमी को बांहों में भर कर चूम लिया. वह भी उस से लिपट गई. दोनों एकदूसरे को चूमने लगे. वह रेशमी के उभारों को सहलाने लगा.

जिस्म की आग भड़क चुकी थी. दोनों कमरे की चौकी पर लेट गए. धीरेन सैक्स करने लगा. रेशमी उस का भरपूर साथ देने लगी. जिस्म की भूख जब शांत हुई, तब दोनों एकदूसरे से अलग हुए.

एक दिन कुलदीप दुकान पर ग्राहकों से मोलभाव कर सब्जियां बेच रहा था. रेशमी ने घरेलू काम से फुरसत पा ली थी. वह कमरे में बैठी पुराने दिनों के बारे में सोच रही थी.

अम्मा कहती थीं कि लड़कियों को घर की दहलीज नहीं लांघनी चाहिए. घर के बाहर लड़कियां महफूज नहीं होतीं. उन्हें हर हाल में अपनी आबरू बचा कर रखनी चाहिए.

पर जब मरद नकारा मिले तो औरत को आबरू की नकाब उतारनी एक मजबूरी होती है. आखिर कब तक आबरू की नकाब ओढ़े रहेगी. वह नकाब तो हटानी पड़ती है. रेशमी की इस सोच ने अपनी मंजिल पा ली थी.

जीवन की नई शुरुआत – भाग 1 : कोरोना का साइड इफैक्ट

‘‘अ रे रे रे, कोई रोको उसे, मर जाएगा वो,’’ अचानक से आधी रात को शोर सुन कर सारे लोग जाग गए और जो देखा, देख कर वे भी चीख पड़े. जल्दी से उसे वहां से खींच कर नीचे उतारा गया, वरना जाने क्या अनर्थ हो गया होता.

यह तीसरी बार था जब रघु अपनी जान देने की कोशिश कर रहा था. लेकिन इस बार भी उसे किसी ने बचा लिया, वरना अब तक तो वह मर गया होता.

क्वारंटीन सैंटर का निरीक्षण करने पहुंचे डीएम यानी जिलाधिकारी को जब रघु की आत्महत्या करने की बात पता चली और यह भी कि वह न तो ठीक से खातापीता है और न ही किसी से बात करता है. वह खुद में ही गुमसुम रहता है. कुछ पूछने पर वह अपने घर जाने की बात कह रो पड़ता है, तो डीएम को भी फिक्र होने लगी कि अगर इस लड़के ने क्वारंटीन सैंटर में कुछ कर लिया तो बहुत बुरा होगा.

जिलाधिकारी ने वहां रह रहे एकांतवासियों से पूछा कि उन्हें दिया जा रहा भोजन गुणवत्तायुक्त है या नहीं? हाथ धोने के लिए साबुन, मास्क, तौलिया आदि की व्यवस्था के बारे में भी जानकारी ली, फिर वहां की देखभाल करने वाले केयरटेकर को खूब फटकार लगाई कि वह करता क्या है? एक इंसान आत्महत्या करने की क्यों कोशिश कर रहा है, उसे जानना नहीं चाहिए?

‘‘फांसी लगाने की कोशिश कर रहे थे, पर क्यों?’’ उस जिलाधिकारी ने जब रघु के समीप जा कर पूछा, तो भरभरा कर उस की आंखें बरस पड़ीं.

‘‘कोई तकलीफ है यहां? बोलो न, मरना क्यों चाहते हो? अपने परिवार के पास नहीं जाना है?’’ जब जिलाधिकारी मनोज दुबे ने कहा, तो सिसकियां लेते हुए रघु कहने लगा, ‘‘जाना है साहब, कब से कह रहा हूं मु?ो मेरे घर जाने दो, पर कोई मेरी सुनता ही नहीं.’’

कहते हुए रघु फिर सिसकियां लेते हुए रो पड़ा तो जिलाधिकारी मनोज को उस पर दया आ गई.

‘‘हां, तो चले जाना, इस में कौन सी बड़ी बात है, बल्कि यहां कोई रहने नहीं आया है. अवधि पूरी होगी, सभी को भेज दिया जाएगा अपनेअपने घर. बताओ, और कोई बात है? यहां किसी चीज की समस्या हो रही है?’’

‘‘नहीं… लेकिन, मेरे मांबाप बूढ़े और बीमार हैं, उन्हें मेरी जरूरत है,’’ कहते हुए रघु का गला भर्रा गया. लेकिन जिलाधिकारी को लग रहा था कि बात कुछ और भी है, जो रघु को खाए जा रही है.

अपने घरपरिवार से दूर क्वारंटीन सैंटर में 15-20 दिनों से रह रहे रघु पर मानसिक दबाव बढ़ने लगा था. वह रात को उठ कर यहांवहां घूमने लगता और अजीब सी हरकतें करता था. कभी वह क्वारंटीन सैंटर की ऊंची दीवार को नापता, तो कभी बड़े से लंबे दरवाजे को आंखें गड़ा कर देखता. कई बार तो वह पेड़ पर चढ़ जाता, ताकि वहां से फांद कर दीवार पार कर सके, पर कामयाब नहीं हो पाता.

रघु की इस हरकत पर उसे फटकार भी पड़ी थी. लेकिन उस का कहना था कि उसे घर जाना है. अब उस के सब्र का बांध टूटने लगा है. उस ने कई बार मरने की भी धमकी दी थी कि अगर उसे उस के घर नहीं जाने दिया गया तो वह अपनी जान दे देगा. लेकिन कौन सुनने वाला था यहां उस की? सब उसे ‘पागल बताते’ कह कर चुप करा देते और हंसते. जैसे सच में वह कोई पागल हो. लेकिन वह पागल नहीं था. यह बात कैसे सम?ाए सब को कि उसे यहां से जाना है, नहीं तो सब खत्म हो जाएगा.

जिलाधिकारी मनोज के पूछने पर रघु कहने लगा, ‘‘साहब, अच्छीखासी खुशहाल जिंदगी चल रही थी हमारी. किसी चीज की कमी नहीं थी. पर इस कोरोना ने एक ?ाटके में सब बरबाद कर दिया साहब, कुछ नहीं बचा, कुछ नहीं, न ही नौकरी और न ही मेरा प्यार…’’

बोलतेबोलते रघु की हिचकियां बंध गईं और वह बिलख कर रोने लगा, ‘‘साहब, हम गरीबों का तो समय ही खराब है, वरना क्या दालरोटी पर भी मार पड़ जाती? अच्छीखासी जिंदगी चल रही थी हमारी. मेहनतमजदूरी कर के खुश थे हम. लेकिन सब मटियामेट हो गया.’’

अपने आंसू पोंछते हुए रघु बताने लगा कि अभी 2 साल पहले ही वह अपने गांव सिवान से गुजरात आया था. वह यहां मिस्त्री का काम करता था, जिस से उस की अच्छीखासी कमाई हो जाती थी. अपने मांबाप के पास घर भी पैसे भेजता था. लेकिन अब क्या करेगा, समझ नहीं आ रहा है.

बताने लगा कि वह यहां अहमदाबाद में एक कमरे का घर ले कर रह रहा था. सोचा था कि मांबाप को भी ले आएगा, सब साथ मिल कर रहेंगे. लेकिन जिंदगी में ऐसी उथलपुथल मच जाएगी, नहीं सोचा था.

रघु हमेशा खुश रहने वाला, हंस कर बोलने वाला इंसान था और यही बात मुन्नी को, जो उस की ही बस्ती में रहती

थी और नेपाल से थी, उस के करीब लाती थी.

रघु का साथ मुन्नी को खूब भाता था. उस के पिता बड़े बाजार से थोकभाव में सब्जीफल ला कर बाजार में बेचते थे. उसी से उन के 8 जनों का परिवार का खर्चा चलता था. मुन्नी भी दोचार घरों में

झाड़ बरतन कर के कुछ पैसे कमा लेती थी. मगर रघु को मुन्नी का दूसरे के घरों में

?ाड़ ूबरतन करना जरा भी अच्छा नहीं लगता था. उसे जब कोई गंदी नजरों से घूरता, तो रघु की आंखों में खून उतर आता. मन करता उस का कि जान ही ले ले उस की. कितनी बार उस ने मुन्नी से कहा कि छोड़ दे वह लोगों के घरों में काम करना. पर मुन्नी उस की बात को यह कह कर टाल दिया करती कि उसे क्यों बुरा लगता है? कौन लगती है वह उस की?

वैसे तो मुन्नी को भी दूसरे के घरों

में ?ाड़ ूबरतन करना अच्छा नहीं लगता था, मगर क्या करे वह भी? अब 8-8 जनों का पेट एक की कमाई से थोड़े ही भर सकता था. कितनी बार लोगों की भेदती नजरों का वह निशाना बनी है. जिन घरों में वह काम करती है, वहां के मर्द ही उस पर गंदी नजर रखते हैं.

कहते तो बेटीबहन समान है, पर गलत इरादों से यहांवहां छेड़ देते हैं. देखने की कोशिश करते हैं कि लड़की कैसी है? लेकिन मुन्नी उस टाइप की लड़की थी ही नहीं. वह तो अपने काम से मतलब रखती थी. गरीबों के पास एक इज्जत ही तो होती है, वही चली जाए तो मरने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता है. कुछ बोल भी नहीं सकती थी, अगर आवाज उठाती तो उलटे मुंह गिरती. सो, बच कर रहने में ही अपनी भलाई सम?ाती थी.

गलती मुन्नी के मांबाप की भी कम नहीं थी. एक बेटे की खातिर पहले तो धड़ाधड़

5 बेटियां पैदा कर लीं और अब उसी बेटी को दूसरेतीसरे घरों में काम करने भेजने लगे, ताकि पैसे की कमाई होती रहे.

चूंकि मुन्नी घर में सब से बड़ी थी, इसलिए छोटे भाईबहनों की जिम्मेदारी भी उस के ऊपर ही थी. बेचारी दिनभर चक्करघिन्नी की तरह पिसती रहती, फिर भी मां से गालियां पड़तीं कि ‘करमजली, कहां गुलछर्रे उड़ाती फिरती है पूरे दिन.’

इधर मुन्नी को देखदेख कर रघु का कलेजा दुखता रहता, क्योंकि प्यार जो करने लगा था वह उस से. अपने काम से वापस आ कर हर रोज वह घर के बाहर खटिया लगा कर बैठ जाता और मुन्नी को निहारता रहता था. लेकिन आज कहीं भी उसे मुन्नी नहीं दिख रही थी, सो हैरानपरेशान सा वह इधरउधर देख ही रहा था कि उस के सिर पर आ कर कुछ गिरा. देखा, तो पेड़ पर चढ़ी मुन्नी उस के सिर पर पत्ता तोड़तोड़ कर फेंक रही थी.

मनमोहिनी – भाग 2 : एक संगदिल हसीना

अब तो मोहकलाल ने मनमोहिनी का दिल जीतने में पलभर की देरी भी नहीं की. स्कूल में एक नया पद ‘कोऔर्डिनेटर’ बना दिया गया, जिस पर मनमोहिनी का कब्जा हो गया.

अब मनमोहिनी को स्कूल में सभी टीचरों के बीच तालमेल बिठाना था. यह काम उस ने ‘गुटबंदी’ कर के बखूबी किया. जो टीचर पढ़ाने में यकीन करते थे, उन का मनमोहिनी से कभी तालमेल नहीं हुआ, हो भी नहीं सकता था. लेकिन जिन को पढ़ाने में कम और दूसरी बातों में ज्यादा मजा आता था, वे सब मनमोहिनी के खेमे में शामिल हो गए.

मनमोहिनी जब अपने औफिस से निकलती तो अपने बाएं और दाएं2 मैडमों को अपना बौडीगार्ड बना कर चलती. धमक ऐसी कि किसी को कुछ भी कह दे. कोई शिकायतकर्ता मोहकलाल तक पहुंचता तो उसे मोहकलाल की लताड़ और सुननी पड़ती.

इस तरह स्कूल में मनमोहिनी का एकछत्र राज कायम हो गया. या तो वह मोहकलाल के औफिस में मिलती या फिर मोहकलाल उस के औफिस में. अब मोहकलाल को स्कूल में कहीं ढूंढ़ने की जरूरत नहीं थी. सब को पता था कि वे कहां मिल सकते हैं.

धीरेधीरे मोहकलाल का संगीत प्रेम भी सुलगने लगा. प्रेम और संगीत का तो वैसे भी चोलीदामन का साथ है. अब तो स्कूल में आएदिन संगीत सभाओं और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन होने लगे.

ऐसे कार्यक्रमों में मोहकलाल से गाना गाने की डिमांड होती. उन के गाने के बिना ऐसा कोई कार्यक्रम पूरा ही नहीं होता, भले ही टाइम ओवर हो जाए. मोहकलाल अपने गाने से प्रेम रस की बौछार करते और उस से मनमोहिनी को तरबतर कर देते.

लेकिन मनमोहिनी ने कोई कच्ची गोलियों तो खेली नहीं थीं. वह जानती थी कि उस की ‘मन मोहिनी’ माया का असर 3-4 साल से ज्यादा नहीं होता. यहां भी यही हुआ. प्रिंसिपल मोहकलाल उसे छोड़ नहीं पा रहे थे और स्कूल की मैनेजमैंट कमेटी मनमोहिनी को बरदाश्त नहीं कर पा रही थी. एक साल तो इसी कशमकश में खिंच गया.

मनमोहिनी के लिए ‘चेंज ओवर’ करने के लिए यह काफी समय था.

मनमोहिनी – भाग 1 : एक संगदिल हसीना

मनमोहिनी अपनी ड्रैस से मैच करता हुआ पर्स अपनी बगल में लटका कर और कूल्हे मटका कर जब चलती तो ऐसा लगता जैसे बौलीवुड की कोई हीरोइन सड़क पर रैंप वाक कर रही हो. भले ही मनमोहिनी ने 40 हरेभरे सावनभादों देख लिए हों, लेकिन वह किसी भी सूरत में 30 से ज्यादा की नहीं लगती थी. यह उस की गजब की फिटनैस का जादू था.

मनमोहिनी को होना तो चाहिए था किसी मौडलिंग कंपनी में, लेकिन वह शिक्षा विभाग में आ गई. लेकिन उस ने आपदा में भी अवसर ढूंढ़ लिया, इसलिए अब उसे कोई गम नहीं था. उस के पास अपनी खूबसूरती और लटकेझटकों का भरपूर खजाना था. इन के दम पर वह आत्मविश्वास से लबालब भरी हुई थी.

इस बात का गहरा ज्ञान और अनुभव मनमोहिनी को कालेज लाइफ में ही हो गया था कि औरत ही औरत की कट्टर दुश्मन होती है, इसलिए उस ने कभी भूल कर भी यह गलती नहीं की कि वह अपनी ‘कंचन काया’ को ले कर महिला कालेज की महिला इंटरव्यू मंडली के सामने आए, जो उस के जोबन और लटकेझटकों को देखते ही जलभुन कर खाक हो जाए.

मनमोहिनी तो मर्दों की कमजोरी को बहुत पहले से जानती थी, इसलिए उस ने अपनी खूबसूरती के हंटर और अदाओं के तीर हमेशा मर्दों पर चलाए, क्योंकि वहां कामयाबी का फीसद सौ से कम नहीं था.

जब मनमोहिनी मर्द मंडली या

फिर अकेले मर्द के सामने इंटरव्यू के लिए हाजिर होती तो उस के हावभाव रीतिकाल के महाकवि बिहारी लाल की उस नायिका की तरह होते जो भरे भवन में भी अपने नायक से नैनों से बात कर लेने में माहिर है. बकौल बिहारी लाल :

‘कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात,

भरे भौन में करत है नैननु ही सब बात.’

अब भला कौन बूढ़ा खूसट होगा, जो मनमोहिनी को न चुने या फिर उस के नाम की सिफारिश न करे. बूढ़े से बूढ़ा भी मनमोहिनी के लटकेझटकों पर रीझ जाता था, नौजवान मसखरों की तो बात ही जाने दीजिए, वे तो किस खेत की मूली. इसी के बूते एक बड़े स्कूल में मनमोहिनी को नौकरी मिलने का चांस बन गया.

प्रिंसिपल मोहकलाल मनमोहिनी की खूबसूरती में इंटरव्यू के समय ही गिरफ्तार हो गए थे. मनमोहिनी ने जल्दी ही भांप लिया था कि अब आगे

क्या होने वाला है. वजह, औरतों में भविष्य को सूंघने की ताकत मर्दों के मुकाबले बहुत ज्यादा होती है.

मर्द तो वर्तमान में ही अपनी सुधबुध खो बैठता है और वर्तमान का ही मजा लूटने में रह जाता है. ऐसे मामलों में वह तब जागता है, जब ‘छीछालेदरी का सूरज’ उग चुका होता है. लेकिन औरतें ऐसे मामलों में मर्दों के बजाय एक कदम आगे होती हैं. वे भविष्य को वर्तमान के साथ बांध कर चलती हैं.

मनमोहिनी का पढ़ाईलिखाई से कोई ज्यादा वास्ता तो था नहीं, इसलिए उस ने एक नई जुगत भिड़ाई. 2-4 बार वह किसी न किसी बहाने से मर्दों को लुभाने वाला इत्र लगा कर प्रिंसिपल मोहकलाल के कमरे में गई. अपने पल्लू को ठीक करने के बहाने उस ने मोहकलाल की आंखों समेत दिल तक को बींध कर

रख दिया.

फिर मौका देख कर मनमोहिनी बड़े कमसिन अंदाज में बोली, ‘‘सर, मैं कोऔर्डिनेशन का काम बड़े अच्छे से जानती हूं. अगर आप मुझे यह काम दे

दें, तो मैं आप को अपना हुनर दिखा सकती हूं.’’

जब मनमोहिनी प्रिंसिपल मोहकलाल को यह बात बता रही थी, तो मोहकलाल को न जाने क्यों ऐसा एहसास हुआ, जैसे  मनमोहिनी ने अपनी बाईं आंख झपकाई नहीं, बल्कि उन की तरफ देख कर दबाई हो. मोहकलाल को अपने अंदर झटके के साथ किसी करंट का एहसास हुआ.

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