राजनीति नकाब की – भाग 1

राखी का त्योहार 4 दिनों बाद है पर निहाल बहुत परेशान है. कारण यह है कि पिछले रक्षाबंधन पर निहाल ने अपनी बहन मिनी से वादा किया था कि अगले साल रक्षाबंधन तक वह उस को एक स्मार्टफोन गिफ्ट कर देगा. लेकिन यह तो अब तक होता दिख नहीं रहा था क्योंकि निहाल अभी तक सिर्फ 10 हजार रुपए ही जमा कर पाया था और एक अच्छा स्मार्टफोन कम से कम 20 हजार रुपए में आता है. निहाल एक युवा बेरोजगार था. शहर के एक अच्छे कालेज से परास्नातक होने के बावजूद उसे नौकरी नहीं मिली थी.

निहाल ने बहुत सी प्रतियोगी परीक्षाएं दीं पर इसे उस का बुरा समय कहें या समाज में बढ़ता हुआ बेरोजगारी का दौर, उसे कहीं भी नौकरी नहीं मिली.

निहाल इंटरव्यू देदे कर थक चुका था और अब उस की हिम्मत भी जवाब दे चुकी थी. इसीलिए उस ने अब हाथपैर मारना भी छोड़ दिया था. अब वह इधरउधर प्राइवेट जौब कर के ही अपना खर्चा चला रहा था.

उस के कालेज के पुराने दोस्त ही उस का एकमात्र सहारा थे जो कभीकभार पैसे से मदद कर देते थे या उसे कोई ऐसा कामचलाऊ काम दिला देते थे जिस से वक्तीतौर पर निहाल को कुछ पैसे मिल जाते और उस का काम चल जाता था.

निहाल का सब से विश्वसनीय दोस्त था देवराज उर्फ भैयाजी. कहने की जरूरत नहीं है कि भैयाजी प्रदेश की राजनीति में हाथपैर मार रहा था.

राजनीति में पैठ बनाने का आसान रास्ता विश्वविद्यालय था और इसीलिए देवराज गैरजरूरी पाठ्यक्रमों में दाखिला ले कर पढ़ाई कर रहा था जिस से होस्टल के कमरे में ही रहते हुए छात्र राजनीति आसानी से करे. चूंकि छात्र नेताओं को बड़े राजनेता अपना एक अच्छा वोटबैंक मानते हैं, इसलिए उन से भी देवराज का अच्छा संपर्क बना हुआ था.

निहाल जब भी किसी तरह की समस्या में घिरा होता तब वह भैयाजी के पास आता था और हर बार भैयाजी उस की सहायता कर देता था. हालांकि, निहाल यह जानता था कि देवराज भले ही उस का पुराना दोस्त है पर उस की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा से निहाल को भी डर लगा रहता था.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं, भैयाजी?’’ दरवाजे पर खड़े निहाल ने हौल में बैठे देवराज से पूछा.

‘‘अरे, निहाल, अरे यार, क्यों शर्मिंदा करते हो, आओआओ, अंदर आओ यार,’’ देवराज ने आगे बढ़ कर निहाल को गले लगा लिया.

‘‘और यह क्या भैयाजीभैयाजी कहते रहते हो. अरे, मैं अपने दुमछल्लों के लिए भैयाजी हूं, तुम्हारे लिए नहीं. तुम तो मु?ो देव ही कहा करो,’’ देवराज उर्फ भैयाजी ने निहाल के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

‘‘हां, पर नहीं, जब अपना दोस्त आगे बढ़ जाए और आप खुद उस से पीछे रह जाएं तो उस का सम्मान तो करना ही पड़ेगा. है न भैयाजी?’’ इतना कह कर देवराज और निहाल जोर से हंसने लगे.

‘‘आओ बैठ कर चाय पीते हैं, बड़े दिन हो गए तुम्हारे साथ चाय नहीं पी हम ने,’’ देवराज ने निहाल को अंदर ले जाते हुए कहा.

‘‘हां, चाय तो पिऊंगा ही, पर…’’ निहाल हिचकिचा सा गया.

‘‘हांहां, बोलो न क्या बात है. तुम कुछ छिपा रहे हो न मु?ा से?’’ देवराज ने निहाल के संकोच को पढ़ लिया था.

‘‘हां, भैयाजी, वह दरअसल रक्षाबंधन आने वाला है और मैं ने मिनी को स्मार्टफोन देने का वादा किया है. उस के लिए कुछ पैसे कम पड़ रहे हैं,’’ शर्म से गड़ गया था निहाल.

‘‘अमां यार, निहाल, बस, इतनी सी बात, बता भाई कितने पैसे चाहिए तु?ो?’’ देवराज ने माहौल को हलका बनाते हुए कहा.

‘‘वो भैयाजी, मेरे पास 10 हजार रुपए हैं, और जो स्मार्टफोन मिनी को चाहिए वह कम से कम 20 हजार रुपए में आएगा. मैं ने पिछले साल ही उस से वादा किया था कि उसे स्मार्टफोन दिलाऊंगा. तो अगर 10 हजार रुपए मिल जाते तो मेहरबानी…’’ बीच में ही रोक दिया देवराज ने निहाल को, ‘‘कैसी मेहरबानी यार, एक दोस्त ही दोस्त के काम आता है. आज मैं तुम्हारे काम आ रहा हूं और कल को अगर मु?ो जरूरत पड़ जाए तो तुम मेरे काम आना. ये लो 12 हजार रुपए,’’ देवराज ने निहाल के हाथ में पैसे रखते हुए कहा.

‘‘पर भैयाजी, मु?ो तो सिर्फ 10 हजार रुपए ही चाहिए,’’ यह कहते हुए निहाल की आंखों में नमी उतर आई थी.

‘‘अरे भाई, रक्षाबंधन का त्योहार है, मोबाइल के साथसाथ मिठाई की भी तो जरूरत होगी न, बाकी के 2 हजार रुपए मिठाई के लिए हैं. और हां, एक राखी मेरी भी कलाई पर बांधेगी मिनी,’’ देवराज ने निहाल की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा.

निहाल ने देवराज का बहुत आभार जताया और यह भरोसा भी दिलाया कि जल्दी से जल्दी वह देवराज के पैसे लौटा देगा, बदले में देवराज सिर्फ मुसकरा दिया.

भैयाजी से पैसे ले कर निहाल सीधा बाजार गया और जो ब्रैंड मिनी ने बताया था उसी ब्रैंड का मोबाइल खरीद लिया.

रक्षाबंधन का दिन भी आ गया. मिनी ने भाई निहाल की कलाई पर राखी बांधी और मिठाई भी खिलाई. निहाल ने एक चमकीली पैकिंग में मोबाइल मिनी की ओर बढ़ा दिया जिसे देख कर मिनी के चेहरे पर चमक बिखर गई.

‘‘ओह, वाओ भैया, आप दुनिया के सब से अच्छे भैया हो. आप मेरी पसंद का ब्रैंड वाला मोबाइल ले आए. अरे भैया, आप ने तो कमाल कर दिया,’’ मोबाइल ले कर ?ामने लगी थी मिनी. भाईबहन का यह प्यार देख कर निहाल की मां और पापा की आंखों में आंसू आ गए. निहाल भी खुशी से मिनी को चहकते हुए देखता रहा.

कौन कहेगा कि कुछ दिनों पहले फ्रौक पहन कर घूमती थी मिनी और आज शहर के विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में स्नातक की पढ़ाई कर रही थी. उस का सपना प्रोफैसर बनने का था जिस के लिए मिनी जीजान से लगी थी और उस से ज्यादा तो निहाल चाहता था कि मिनी पढ़लिख कर प्रोफैसर बन जाए ताकि अपने पैरों पर खड़ी हो सके.

निहाल ने पुरुषों द्वारा प्रताडि़त कितनी ही महिलाओं के किस्से सुने थे, इसलिए वह बिलकुल नहीं चाहता था कि मिनी की शादी के बाद वह किसी भी तरह से अपने पति से दब कर रहे. वह नहीं चाहता था कि घर से विश्वविद्यालय जाते समय मिनी को बस की भीड़ में दबना पड़े, इसलिए उस ने एक पुरानी स्कूटी दिला दी थी. निहाल ने बड़े ही प्यार से उस की पिछली नंबर प्लेट पर लिखवा दिया था. ‘मिनी मेल.’ कितना निश्छल और निस्वार्थ था भाईबहन का यह प्यार. निहाल का मोबाइल बजा तो उस ने देखा कि देवराज का फोन था.

‘‘हैल्लो, हां, देव भैयाजी, बताइए इस नाचीज को कैसे याद किया,’’ निहाल ने मोबाइल कान से लगाते हुए कहा.

‘‘अरे, कुछ नहीं बस ऐसे ही. दरअसल, तुम तो जानते ही हो कि मैं ने सिर्फ राजनीति के क्षेत्र में अपने पैर जमाने के लिए ही यहां दाखिला ले रखा है और यहां से निकल कर मु?ो खुल कर राजनीति करनी है और उस के लिए जरूरी है कि मेरा विश्वविद्यालय में खूब नाम हो और उस के लिए मु?ो धरने करना, भूख हड़ताल पर बैठना और छात्रों के रहनुमा के रूप में अपनेआप को प्रदर्शित करना है. यार, इसी सब में लगा हुआ हूं,’’ एक सांस में ही देवराज इतना कुछ बोल गया था.

‘‘हां, तो निहाल, तू ऐसा करना, ठीक 11 बजे विधानसभा के सामने आ जाना. अपने और लोग भी होंगे वहां पर. थोड़ी नारेबाजी, थोड़ी ड्रामेबाजी होगी और एकाध मीडिया वालों को भी इंटरव्यू दे देंगे और बस, खानापीना,’’ आखिरी के शब्द कहते हुए हंसने लगा था देवराज.

‘‘हां बिलकुल, तुम बुलाओ और मैं न आऊं ऐसा तो हो ही नहीं सकता. तुम निश्चिंत रहो, मैं पहुंच जाऊंगा,’’ निहाल ने हामी भर दी.

निहाल समय से पहले ही धरना स्थल पर पहुंच गया था. करीब 100 युवा विद्यार्थी वहां पर अपनी कुछ मांगों को ले कर प्रदर्शन के लिए आए थे. कुछ देर बाद देवराज भी अपने दुमछल्लों से घिरा हुआ एक खुली जीप में आया. देवराज ने सब के बीच खड़े हो कर भाषण दिया. क्या खूब बोला था. यह वह देवराज नहीं था जिस को निहाल जानता था. यह तो एक नए तेवर वाला कोई दूसरा ही देवराज था.

देवराज यहां पर भैयाजी ज्यादा था और उस के भाषण से लगता था कि जैसे देश का कोई बड़ा नेता हो. धरना खत्म हुआ तो देवराज ने सब के बीच से आगे बढ़ कर निहाल कोे गले लगाया और कहा, ‘‘दोस्त, तुम ने मेरे लिए जो समय निकाला उस के लिए तुम्हारा बहुत आभारी हूं. वरना आज की दुनिया में कौन दोस्तों को याद रखता है.’’

‘‘अरे देव, यह तो तुम्हारा बड़प्पन है. मैं तो कुछ भी नहीं,’’ निहाल ने कृतज्ञता से देवराज को देखते हुए कहा. देवराज ने कुरते की जेब में हाथ डाल कर 10 हजार रुपए निकाले और निहाल को पकड़ाते हुए बोला, ’’जानता हूं दोस्त, तुम्हारा समय बहुत कीमती है. मैं उस की पूरी कीमत तो नहीं चुका सकता पर जो थोड़ाबहुत कर सकता हूं, बस, वो ही कर रहा हूं.’’

‘‘य…ये…देवराज, पैसे क्यों दे रहे हो,’’ निहाल चौंक कर बोला.

इस के बदले में देवराज ने निहाल के हाथों को अपने हाथों में ले कर सिर्फ अपनी आंखों के मौन से ही सब कह दिया जो शब्दों से नहीं कहा जा सकता था.

बदचलनी का ठप्पा – भाग 1 : क्यों भागी परबतिया घर से?

कोलियरी की कोयला खदान में काम करने वाला एक सीधासादा मजदूर था अर्जुन महतो. पिछले से पिछले साल वह अपनी ननिहाल अनूपपुर गया था, तो वहां से पार्वती को ब्याह लाया. कच्चे महुए जैसा रंग और उस पर तीखे नयननक्श, खिलखिला कर हंसती तो उस के मोतियों जैसे दांत देखने वाले को बरबस मोहित कर लेते. वह कितनी खूबसूरत थी, उसे कह कर बताना बड़ा मुश्किल काम था. कोलियरी में जहां चारों ओर कोयले की कालिख ही कालिख बिखरी हो, वहां पार्वती की खूबसूरती उस के लिए एक मुसीबत ही तो थी. लोगों ने तरहतरह की बातें बनाईं.

एक ने कहा, ‘‘अर्जुन के दिन बहुरे हैं, जो इतनी सुंदर बहुरिया पा गया, वरना कौन पूछता उस कंगाल को?’’

एक छोटे दिल वाले ने जलभुन कर यह भी कह दिया, ‘‘ऐसा ही होता है यार, अंधे के हाथ ही बटेर लगती है.’’

उधर अर्जुन इन सब बातों से बेखबर, अपनी पार्वती में मगन था. लाड़ में वह उसे ‘परबतिया’ कह कर पुकारता था. उस की प्यारी परबतिया उस की गृहस्थी जमाने लगी थी.

अर्जुन को भी कोयला खदान की लोडर (गाड़ी में कोयला लादने वाला) की नौकरी में मकसद और जोश दोनों नजर आने लगे थे. कोलियरी के नेताओं के भाषणों में वह अमूमन एक ही घिसीपिटी बात सुनता था कि खदान से ज्यादा से ज्यादा कोयला निकालना है और सरकार के हाथ मजबूत करने हैं, पर अर्जुन भी इन भाषणों को और मजदूरों की तरह पान खा कर थूक देता था.

अर्जुन की सरकार तो उस की परबतिया थी. गोरीचिट्टी और गोलमटोल. धरती के पेट में छिपी कोयला खदान की उस काली दुनिया में जब अर्जुन अपने कंधों पर कोयले से भरी टोकरी लादे टब (एक टन कोयले  की गाड़ी) को भर रहा होता, तब भी  उस के दिल और दिमाग में सिर्फ उस  की परबतिया होती, उस के छोटे से  घर में खाना बना कर उस का इंतजार करती हुई. मेहनत करने से अर्जुन का शरीर लोहा हो गया था. पहली बार जब उस  ने पार्वती को अपनी मजबूत बांहों में जकड़ा था तो वह मीठेमीठे दर्द से चिहुक उठी थी.

अर्जुन को लगा था कि परबतिया तो कोयले से भरी उस टोकरी से बहुत हलकी है. कहां वह कालाकाला कोयला और कहां हलदी की तरह गोरी फूलों की यह चटकती कली. अर्जुन की बांहों की मजबूती पा कर वह कली खिलने लगी थी. कभीकभी अर्जुन पार्वती को छेड़ता, ‘‘कम खाया कर परबतिया, बहुत मोटी होती जा रही है.’’

पार्वती अर्जुन के चौड़े सीने से सट जाती और अपनी महीन आवाज में फुसफुसाती, ‘‘इतना प्यार क्यों करता है रे मुझ से? तेरा लाड़प्यार ही तो मुझे दूना किए दे रहा है.’’

अर्जुन निहाल हो जाता. उस जैसा एक आम मजदूर इस से बड़ी और किस खुशी की कल्पना कर सकता था. वह सिर्फ नाम का ही तो अर्जुन था, जिस के पास कोयला खदान की खतरनाक नौकरी के सिवा कुछ भी नहीं था. समय बीतता गया. इस बीच कोयला खदान से जुड़े नियमकानूनों में भारी बदलाव आए. कोयला खानों का ‘राष्ट्रीयकरण’ हो गया.

अर्जुन जैसे लोगों को इस ‘राष्ट्रीयकरण’ का अर्थ तो समझ में नहीं आया शुरू में, किंतु थोड़े ही दिन बाद इस का मतलब साफ हो गया. ‘राष्ट्रीयकरण’ के बाद  सभी मजदूर सरकारी मुलाजिम हो गए. और इस तरह मजदूर और कामगार कामचोर और उद्दंड भी हो गए, क्योंकि उन का कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता था. अर्जुन जैसे गिनती के मजदूरों पर ही पूरी ईमानदारी और खदान से ज्यादा से ज्यादा कोयला निकालने का जिम्मा आ पड़ा था.

मेहनत ऐसे मजदूरों के खून में थी, क्योंकि कोयला खानों से इन का रिश्ता उतना ही पुराना और मजबूत था, जितना एक खेतिहर का अपनी जमीन और माटी से होता है. धीरेधीरे यहां की कोलियरी में कई मजदूर नेता भी उभरने लगे. पर देवेंद्रजी ने, जिन का इतिहास भी यहां की कोयला खदान जितना ही पुराना है, अपने आगे किसी नए नेता को उभरने नहीं दिया. वे हमेशा से मजदूर के भरोसेमंद आदमी रहे थे और उन की चौपाल हमेशा हरीभरी रहती थी.  किसी मजदूर को घर चाहिए, तो किसी को बिजली. कहीं महल्ले में पानी का इंतजाम करवाना है, तो कहीं मजदूरों के लिए कैंटीन का. कोई रिटायर हो गया है, तो उस का दफ्तर से हिसाबकिताब करवाना है, भविष्य निधि वगैरह के पैसे दिलवाने हैं.

कोई भी काम हो, कैसी भी समस्या हो, देवेंद्रजी बड़ी आसानी से सुलझा देते थे. उन्हें मैनेजरों का पूरा भरोसा हासिल था, इसलिए विरोधी नेता भी उन्हें डिगा नहीं पाते थे.  अचानक इस कोलियरी में एक अजीब घटना हो गई. फैलने को या तो आग फैलती है या अफवाह. पर यह अफवाह नहीं थी, इसीलिए यहां के सभी लोग हैरान थे.

किसी ने कहा, ‘‘भाई, सुना तुम ने… बड़ा गजब हो गया.’’

दूसरे ने पूछा, ‘‘क्या पहाड़ टूट गया एक ही रात में? कल तक तो सबकुछ ठीकठाक था.’’

तीसरे ने कहा, ‘‘वाह भाई, कुछ दीनदुनिया की खबर भी रखा करो यार, खातेकमाते तो सभी हैं.’’

दूसरे ने फिर पूछा, ‘‘पर, हुआ क्या है, कुछ बताओगे भी?’’

‘‘अरे वह परबतिया थी न, दिनदहाड़े जा कर गया प्रसाद के घर बैठ गई,’’ बताने वाले की आवाज में ऐसा जोश था, मानो वह इस घटना के घटने का सालों से इंतजार कर रहा हो.

‘‘कौन परबतिया और कौन गया प्रसाद? यार, साफसाफ बताओ न,’’ पूछने वाले के चेहरे का रंग अजीब हो गया था.

‘‘गजब करते हो यार, धिक्कार है तुम्हारी जिंदगी को. अरे, परबतिया को नहीं जानते?’’ बताने वाले के चेहरे पर धिक्कार के भाव थे,

‘‘क्या उस जैसी  2-4 औरतें हैं यहां? अरे वही अर्जुन महतो की घरवाली. हां, वही पार्वती. कल वह अर्जुन का घर छोड़ गया प्रसाद के घर बैठ गई.’’

‘‘अच्छा, वह परबतिया,’’ उस घटना से अनजान आदमी ने चौंकते हुए  कहा, ‘‘अरे भई, ‘तिरिया चरित्तर’  को कौन समझ सकता है. भाई…बड़ी सतीसावित्री बनती थी.’’

जितने मुंह उतनी बातें. चारों तरफ कानाफूसी. लोग चटकारे लेले कर उस घटना की चर्चा कर रहे थे. बहुत दिनों से यहां कुछ हुआ नहीं था, इसलिए यहां के पान के ठेलों पर महफिलें सूनीसूनी रहने लगी थीं. पुरानी बातों  को ले कर आखिर लोग कब तक जुगाली करते…

इस नई घटना से सभी का जोश फिर लौट आया था. कुछ लोग इस घटना से दहशत और सन्नाटे की चपेट में भी आ गए थे. जब पार्वती जैसी बेदाग औरत ऐसा कर सकती है तो उन की अपनी बीवियों का क्या भरोसा? हर शक्की पति घबराया हुआ था. कहीं उन की बीवियां भी ऐसा कर बैठें तो…?

इस घटना के बाद देवेंद्र की  चौपाल फिर सजी थी ठीक किसी मदारी के तमाशे जैसी. कभी कोई भला आदमी गलती से यहां मर जाता तो अरथी के साथ चलने के लिए लोग  ढूंढ़े नहीं मिलते थे. कहते, ‘‘अरे, कोई मर गया तो मर गया. एक न एक  दिन तो सभी को मरना ही है.’’

भीड़ में आए ज्यादा लोगों को हमदर्दी अर्जुन महतो के साथ थी. बेचारा, बेसहारा अर्जुन. कितनी धोखेबाज होती हैं ये औरतें भी. और यदि खूबसूरत हुई तो मुसीबतें ही मुसीबतें. मनचले कुत्तों की तरह सूंघते फिरते हैं. देवेंद्र की चौपाल में भीड़ बढ़ी, तो पास ही मूंगफली बेचने वाली बुढि़या खुश हो गई थी. केवल वही थी वहां, जिसे सिर्फ अपनी मूंगफलियों की बिक्री की चिंता थी.

उसे न परबतिया से मतलब था, न गया प्रसाद से. घर के बाहर भीड़ का शोरगुल हुआ, तो देवेंद्र घर से बाहर निकल आए.  सभी ने उन को प्रणाम किया. वह वहीं नीम के पेड़ के नीचे कुरसी लगवा कर बैठ गए. देवेंद्रजी ने गहराई से भीड़ का जायजा लिया और परेशानी भरी आवाज में बोले, ‘‘फिर कौन सा बवाल हो गया भाइयो? क्या हमें अब एक दिन का चैन भी नहीं मिलेगा…”

अब पता चलेगा – भाग1 : राधा क्या तोड़ पाई बेटी संदली की शादी

दुबई से संदली उत्साह से भरे स्वर में अपने पापा विकास और मम्मी राधा को बता रही थी,”पापा, मैं आप को जल्दी ही आर्यन से मिलवाउंगी. बहुत अच्छा लड़का है. मेरे साथ उस का एमबीए भी पूरा हो रहा है. हम दोनों ही इंडिया आ कर आगे का प्रोग्राम बनाएंगे.”

विकास सुन कर खुश हुए, कहा,”अच्छा है,जल्दी आओ, हम भी मिलते हैं आर्यन से. वैसे कहां का है वह?”

”पापा, पानीपत का.”

”अरे वाह, इंडियन लड़का ही ढूंढ़ा तुम ने अपने लिए. तुम्हारी मम्मी को तो लगता था कि तुम कोई अंगरेज पसंद करोगी.‘’

संदली जोर से हंसी और कहा,”मम्मी को जो लगता है, वह कभी सच होता है क्या? फोन स्पीकर पर है पर मम्मी कुछ क्यों नहीं बोल रही हैं?”

”शायद उसे शौक लगा है आर्यन के बारे में जान कर.”

राधा का मूड बहुत खराब हो चुका था. वह सचमुच जानबूझ कर कुछ नहीं बोलीं.

जब विकास ने फोन रख दिया तो फट पड़ीं,”मुझे तो पता ही था कि यह लड़की पढ़ने के बहाने से ऐयाशियां करेगी. अब पता चलेगा पढ़ने भेजा था या लड़का ढूंढ़ने.”

”क्या बात कर रही हो, जौब भी मिल ही जाएगा. अब अपनी पसंद से लड़का ढूंढ़ लिया तो क्या गलत किया? संदली समझदार है, जो फैसला करेगी, अच्छा ही होगा.”

“अब पता चलेगा कि इस लड़की की किसी से निभ नहीं सकती, न किसी काम की अकल है, न कोई तमीज.और जो यह लोन ले रखा है, शादी कर के बैठ जाएगी तो कौन उतारेगा लोन? मुझे पता ही था कि यह लड़की कभी किसी को चैन से नहीं रहने दे सकती,” राधा जीभर कर संदली को कोसती रहीं.

विकास को उन पर गुस्सा आ गया, बोले,”तुम्हें तो सब पता रहता है. बहुत अंतरयामी समझती हो खुद को.पता नहीं कैसे इतना ज्ञानी समझती हो खुद को.

“आसपड़ोस की अपनी जैसी हर समय कुड़कुड़ करने वाली लेडीज की बातों के अलावा कुछ भी पता है कि क्या हो रहा है दुनिया में?”

हर बार की तरह दोनों का गुस्स्सा रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था.

विकास ने जूते पहनते हुए कहा, “मैं ही जा रहा हूं थोड़ी देर बाहर, अकेली बोलती रहो.”

यह कोई पहली बार तो हुआ नहीं था. बातबेबात किचकिच करने वाली राधा का तकियाकलाम था,’अब पता चलेगा.’

बड़ी बेटी प्रिया कनाडा में अपनी फैमिली के साथ रहती थी, संदली फिलहाल दुबई में थी. कोई भी कैसी भी बात करता, राधा हमेशा यही कहतीं कि उन्हें सब पता था. उन का कहना था कि उन्होंने इतनी दुनिया देखी है, उन्हें हर बात का इतना ज्ञान है कि कोई भी बात उन से छिपी नहीं रहती, फिर चाहे कुकिंग की बात हो या फैशन की.

यहां तक कि राजनीति की हलचल पर भी कोई बात होती तो उन का कहना होता कि उन्हें तो पता ही था कि फलां पार्टी यह करेगी. 1-2 दिन पहले वे किसी से कह रहीं थीं कि उन्हें तो पता ही था कि अब किसान आंदोलन होगा.

उन की बात सुनते हुए विकास ने बाद में टोका था,”ऐसी हरकतें क्यों करती हो, राधा? किसान आंदोलन होगा, यह भी तुम्हें पता था, कुछ तो सोच कर बोला करो.”

”अरे,मुझे पता था कि कुछ ऐसा होगा.”

विकास चुप हो गए, पता नहीं कौन सी ग्रंथि है राधा के मन में जो वह हर बात में घर में किसी न किसी बात में हावी होने की कोशिश करती थी. कई बार विकास अपने रिश्तेदारों के सामने राधा की बातों से शर्मिंदा भी हो जाते थे. बेटियां भी इस बात से हमेशा बचती रहीं कि राधा के सामने उन की फ्रैंड्स आएं.

विकास अंधेरी में एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरत थे. आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी पर राधा कंजूस भी थी और बहुत तेज भी, साथ ही उन्हें अपने उस ज्ञान पर भी बहुत घमंड था जो ज्ञान दूसरों की नजर में मूर्खता में बदल चुका था. अजीब सी आत्ममुग्ध इंसान थीं.

घर में उन के व्यवहार से सब हमेशा दुखी रहते. राधा ने संदली को अगले दिन फोन किया और सीधे पूछा,”अभी शादी कर लोगी तो तुम्हारा लोन कौन चुकाएगा?”

”मैं इंडिया आ कर जौब करूंगी, लोन उतार दूंगी. अभी हम दोनों सीधे मुंबई ही आ रहे हैं, आर्यन को आप लोगों से मिलवा दूं?”

राधा ने कोई उत्साह नहीं दिखाया. संदली ने उदास हो कर फोन रख दिया. संदली और आर्यन को एअरपोर्ट से लेने विकास खुद जा रहे थे.

प्रोग्राम यह तय हुआ कि विकास औफिस से सीधे एअरपोर्ट चले जाएंगे. देर रात सब घर पहुंचे तो राधा ने सब के लिए डिनर तैयार कर रखा था. आर्यन उन्हें पहली नजर में ही बहुत अच्छा लगा पर बेटी से मन ही मन नाराज थीं कि पढ़ने भेजा था, लड़का पसंद कर के घर ले आई है.

उन्हें विकास पर भी बहुत गुस्सा आ रहा था कि अभी से कैसे आर्यन को दामाद समझ रहे हैं. संदली फोन पर पहले ही बता चुकी थी कि पानीपत में आर्यन के पिता का बहुत लंबाचौड़ा बिजनैस है. बहुत धनी, आधुनिक परिवार है. 2 ही भाई हैं, आर्यन बड़ा है, छोटा भाई अभय अभी पढ़ रहा है.

आर्यन से मिलने, उस से बातें करने के बाद कोई कारण ही नहीं था कि राधा कुछ कमी निकालती पर यह बात हजम ही नहीं हो रही थी कि बेटी ने अपने लिए लड़का खुद पसंद कर लिया है.

विकास को भी आर्यन बहुत पसंद आया था. वह ऐसे घुलमिल गया था कि जैसे कब से इस परिवार का ही सदस्य है.

डिनर करते हुए संदली ने कहा,”मम्मी, हम दोनों अब कल ही दिल्ली जा रहे हैं. वहां आर्यन के पेरैंट्स हमें एअरपोर्ट पर लेने आ जाएंगे. मुझे भी उन से मिलना है. मैं जल्दी ही वापस आ जाउंगी.”

राधा ने कहा,”मुझे तो पता ही था कि तुम हम से पूछोगी भी नहीं, खुद ही होने वाले ससुराल पहुंच जाओगी.अब पता चलेगा.’’

विकास ने आर्यन की उपस्थिति को देखते हुए मुसकरा कर बात संभाली,”यह तो अच्छा ही है न कि तुम अपनी बेटी को जानती हो, तुम्हें पता था, अच्छा है.’

संदली ने मां की बात पर ध्यान ही नहीं दिया. युवा मन अपने सपनों में खोया था, प्यार से बीचबीच में एकदूसरे को देखते संदली और आर्यन विकास को बड़े अच्छे लगे.

आगे पढ़ें- विकास को गुस्सा आ गया…

मनमोहिनी – भाग 3 : एक संगदिल हसीना

अब वह किसी और स्कूल में अपना जलवा बिखेरने की तैयारी कर चुकी थी. मोहकलाल ने उसे भावभीनी विदाई दी.

मनमोहिनी उड़ी तो मोहकलाल कुछ दिन तक मजनू बने रहे. उन का मन स्कूल के किसी काम में नहीं लगता था. स्कूल के कौरिडोर उन्हें सूनेसूने से लगते. अपना गम भुलाने के लिए वे म्यूजिक रूम का रुख करते. तब वहां से दुखभरे फिल्मी नगमों की तान सुनाई पड़ती… ‘मेरी किस्मत में तू नहीं शायद जो तेरा…’, ‘आ लौट के आजा…’

इस पर कौरिडोर में चाय की खाली ट्रे ले जाती फूलवती आया अपने लहजे में जवाब देती, ‘‘अब तो वह चली गई, अब काहे बावरा हो रिया.’’

लेकिन बेचारी फूलवती को क्या पता था कि वियोग क्या होता है. वियोग तो अच्छेअच्छों को कवि बना देता है, तभी तो सुमित्रानंदन पंत ने कहा था :

‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान, निकल कर आंखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान.’

लेकिन इसी के साथ एक काम और हुआ. फूलवती की अनजाने में कही

गई बात किसी मुंहफट टीचर के कान

में पड़ गई. फिर तो वह बात स्कूल में सभी टीचरों के ‘हंसोड़खाने’ की आवाज बन गई.

इस बात को टीचर एकदूसरे को चटकारे लेले कर सुनाते और मजे लेते हैं. फूलवती को आज तक नहीं पता कि उस ने अनजाने में कितने काम की बात कही थी.                            द्य

जुम्मन और अलगू का बदला – भाग 1

आज अलगू की खुशी देखते ही बनती थी. सुबह से चहकाचहका घूम रहा था और सभी मिलने वालों से बड़ी हंसीखुशी से बात कर रहा था. कहां तो बंदे के चेहरे पर हमेशा एक सर्द खामोशी चस्पां रहती थी, पर आज तो वह बेवजह हंसा जा रहा था. उस के खुश रहने की वजह यह थी कि उस का बचपन का दोस्त जुम्मन वापस जो आ रहा था.

जुम्मन और अलगू एकसाथ खेले और बड़े हुए थे, पर तकरीबन 10 साल पहले ही जुम्मन गांव से शहर की ओर कमाने चला गया था. उस समय जुम्मन की उम्र महज 18 साल थी और अब वह 28 साल का हो गया था.

इन सालों में जुम्मन ने शहर में मोटर मेकैनिक का काम किया और एक से एक महंगी गाड़ी को अच्छे ढंग से  बनाना सीखा. अब तो वह किसी भी गाड़ी के मर्ज को मिनटों में भांप लेता था.

‘‘बाकी तो सब बात सही है, पर मुझे यह बताओ कि तुम गांव छोड़ कर चले गए थे और शहर में तुम्हारा रोजगार भी अच्छा चल रहा था, तब वापस क्यों आ गए?’’ अलगू ने जुम्मन से गले मिलते ही पहला सवाल दाग दिया.

जुम्मन ने अलगू को अपने प्लान के बारे में बताया, ‘‘शहर में रह कर मोटर मेकैनिक का काम करना बहुत मुश्किल है, क्योंकि इस लाइन में होड़ बहुत है. हर गलीमहल्ले में एकाध मेकैनिक मिल जाता है.

‘‘यहां गांव के सामने से ही तो शहर की ओर जाती हुई एक चौड़ी सड़क है, एकदम हाईवे टाइप. बस, इसी रोड के किनारे अपनी कार और मोटरसाइकिल रिपेयरिंग की दुकान खोलूंगा. सड़क पर गाडि़यों की आवाजाही रहेगी तो काम भी खूब मिलेगा. और फिर जब गांव में ही रोजगार मिल रहा है, तो शहर जाने की क्या जरूरत है?’’

जुम्मन ने बेशक गांव वापस आने के पक्ष में ये सारी दलीलें दे डाली थीं, पर अंदर ही अंदर अलगू अच्छी तरह से जानता था कि हकीकत कुछ और ही है और वह हकीकत थी रन्नो से जुम्मन की मुहब्बत.

जुम्मन और रन्नो शादी करना चाहते हैं, पर दिक्कत यह है कि जुम्मन एक मुसलमान परिवार से है और रन्नो हिंदू लड़की है.

कमबख्त जातपांत का लफड़ा तो रास्ते में रोड़ा बन कर आएगा ही, पर एक बार धंधा अच्छी तरह से जम जाए, तब खुद जा कर जुम्मन शान से रन्नो का हाथ मांग लेगा और अगर लड़की के पिता जातिधर्म की दुहाई देंगे तो उन्हें आज के जमाने की हकीकत से रूबरू कराते हुए बता देगा कि पुराना जमाना बदल रहा है, आजकल हिंदूमुसलिम कोई नहीं देखता, बस अपनी लड़की और लड़के की खुशी का ध्यान रखते हैं  मांबाप.

अगर वे लोग इतनी बात से सबकुछ समझ गए तो ठीक है, नहीं तो फिर जुम्मन और भी कच्चाचिट्ठा खोल देगा और यह बताने से बिलकुल नहीं डरेगा कि इस गांव में दूसरे धर्म की लड़की से प्यार करने वाला वह अकेला नहीं है, बल्कि और लोग भी हैं जो अलग धर्म में मुहब्बत करते हैं और शादी भी करना चाहते हैं.

अरे, फिर तो जुम्मन नाम बताने से भी नहीं चूकेगा, भले ही उस का दोस्त अलगू उस से नाराज हो जाए. अलगू, अरे हां भाई, अलगू ही तो है उस का दोस्त और उसे प्यार है एक मुसलिम लड़की से. अब अलगू को सलमा से प्यार है और सलमा भी तो अलगू से मुहब्बत करती है और यह मुहब्बत कोई जानबूझ कर नहीं की जाती, यह तो बस हो जाती है.

पर यह बात बाहुबली जिगलान को समझ आए तब तो. जिगलान इस गांव में रहने वाला खानदानी ठाकुर था. वह 48 साल का था, पर शरीर में जवानों जैसा कसाव और चेहरे पर ताजगी. उस की तलवारकट मूंछ उसे एक रोबीला इनसान बनाती थी.

हालांकि ठाकुर जिगलान को राजनीति में कोई पद तो हासिल नहीं था, पर बड़ेबड़े नेता उस के पैर छूने आते थे. इस की वजह सिर्फ एक थी कि चुनाव में ठाकुर जिगलान सभी गांव वालों के वोट दिलाने की गारंटी लेता था और बदले में नेता उसे पैसे देते थे.

हालांकि इस गांव में हिंदू तकरीबन 60 फीसदी और मुसलिम तकरीबन 40 फीसदी थे, फिर भी ठाकुर जिगलान ने अपनी इमेज एक सैक्युलर की बना रखी थी, जबकि वह गांव के हिंदूमुसलिमों को आपस में लड़ा कर रखता और अपना उल्लू सीधा करता था.

ठाकुर जिगलान जानता था कि अगर गांव के लोगों में एकता हो गई, तो वह अपनी मरजी गांव के लोगों पर नहीं चला पाएगा.

ठाकुर जिगलान के चारों तरफ उस के चमचे रहते थे, जो गांव की जवान होती लड़कियों पर बुरी नजर रखते थे.  गांव के लोग चाह कर भी इस बात का विरोध नहीं कर पाते थे, क्योंकि ठाकुर जिगलान के पास पैसा भी था और लोगों का समूह भी, जो उस के एक इशारे पर कुछ भी करगुजरने को तैयार रहते थे.

ठाकुर जिगलान अपने इर्दगिर्द इकट्ठे जवान लड़कों की कमजोर नस को अच्छी तरह जानता था और वह कमजोर नस थी दारू और मांस. तकरीबन हर दूसरे दिन ही ठाकुर  जिगलान की बगिया के कोने में बने बड़े से चूल्हे पर मांस पकाया जाता और सूरज डूबतेडूबते दारू और मांस खाने वाले इकट्ठे होने लगते थे.

जब कभी ठाकुर जिगलान का मन किसी लड़की पर आ जाता, तो वह उसे उठवा लेता और रेप कर देता था.कभीकभी तो ठाकुर जिगलान के मुंह लगे मुंशी जानकीदास को हैरानी होती कि साहब खुद इतने रसूख वाले हैं, पर कभीकभी इन्हें न जाने क्या हो जाता है.

खेत में पसीने में तर हो कर काम कर रही होती किसी भी औरत, जिस की खुली पीठ और काली रंगत की कमर कहीं से भी आकर्षक नहीं लग रही होती थी, उसे भी उठवा कर वे उस का रेप करने का मजा लेते हैं. अरे, कम से कम अपना रसूख भी तो देखें.

एक दिन जब 25 साल के जानकीदास से रहा नहीं गया, तो वह ठाकुर जिगलान से कह बैठा और उस की बात का ठाकुर ने मुसकराते हुए जवाब दिया, ‘‘अरे जनकिया, ठकुराई हमें विरासत में मिली है. यह सब करना हमारे खून में है और खून का असर जल्दी नहीं जाता.

‘‘हम जानते हैं कि वह लड़की जाति से छोटी है, फिर भी उस का रेप करते हैं, क्योंकि ये लोग हमारी जांघ के नीचे रहने लायक ही हैं.’’

ठाकुर जिगलान की बात जानकीदास की समझ में आई या नहीं, पर उस ने हां की मुद्रा में अपना सिर जरूर हिला दिया.

ठाकुर जिगलान की पत्नी, जो उम्र में महज 30 साल की थी, खामोशी से यह सब देखा करती थी. उस ने कई बार अपने पति को समझाना भी चाहा तो बदले में ठाकुर की डांट ही मिली और खामोश रहने की ताकीद भी.

बेचारी ठकुराइन समझ गई थी कि खामोशी को उसे अपना सिंगार बनाना होगा. उस ने तो जबान ही सिल ली थी.चूंकि गांव वाले ठाकुर जिगलान के रोब से अच्छी तरह वाकिफ थे, इसलिए लड़कियों के रेप के बाद भी कोई चूं तक नहीं करता और ज्यादातर मामलों में तो लड़की के मांबाप ही लड़की को नहलाधुला कर बैठा लेते और लड़की से भी चुप रहने को कह देते.

मजाक: पटनिया एडवैंचर, कुसूरवार कौन

पटनिया एडवैंचर आटोरिकशा ट्रिप बचपन से ही मुझे एडवैंचर ट्रिप पर जाने का शौक रहा है. जान हथेली पर रख कर स्टंट द्वारा लाइफ के साथ लाइफ से खेलने या मजा लेने की इच्छाएं मेरे खून, दिल, गुरदे, फेफड़े वगैरह में उफान मारा करती थीं, लेकिन कमजोर दिल और कमजोर अर्थव्यवस्था के चलते अपने इस शौक को मैं डिस्कवरी चैनल, ऐक्शन हौलीवुड मूवी या रोहित शेट्टी की फिल्में देख कर पूरा कर लिया करता था.कहते हैं कि जिस चीज की तमन्ना शिद्दत से की जाए तो सारी कायनात उसे मिलाने की साजिश करने लगती है. कुछ इसी तरह की घटना मेरे साथ भी हुई.

कुदरत ने मेरी सुन ली और मुझे भी कम खर्च में नैचुरल एडवैंचर जर्नी का सुनहरा मौका मिल ही गया.पहली बार बिहार की राजधानी पटना जाना हुआ. फिर क्या था, साधारण टिकट ले कर रेलवे के साधारण डब्बे में सेंध लगा कर घुस गया.

सेंध लगाना मजबूरी थी, क्योंकि 103 सीट वाली अनारक्षित हर बोगी में तकरीबन 300 पैसेंजर भेड़बकरियों की तरह सीट, लगेज सीट, फर्श, टौयलैट और गेट पर बैठेखड़े, लटके या फिर टिके हुए थे.  मैं भी इमर्जैंसी विंडो के सहारे किसी तरह डब्बे में घुस कर अपने आयतन के अनुसार खड़ा रहने की जगह पर कब्जा कर बैठा. स्टेशनों पर चढ़नेउतरने वाले मुसाफिरों की धक्कामुक्की और गैरकानूनी वैंडरों की ठेलमठेल के बीच खुद को बैलेंस करते हुए 6 घंटे की रोमांचक यात्रा के बाद मैं आखिरकार पटना जंक्शन पहुंच ही गया.

इस के बाद मैं पटना जंक्शन से पटना सिटी के लिए आटोरिकशा की तलाश में बाहर निकला.पटना सिटी के लिए बड़ी आसानी आटोरिकशा मिल गया. ड्राइवर ने उस के पीछे वाली चौड़ी सीट पर 3 लोगों को बैठाया, जबकि आगे की ड्राइवर सीट वाली कम जगह पर अपने अलावा 3 दूसरे पैसेंजर को बड़ी ही कुशलता से एडजस्ट कर लिया.कमोबेश सभी आटोरिकशा ड्राइवर तीनों पैसेंजर के साथ खुद को सैट कर  टेकऔफ करने के हालात में नजर आ रहे थे.

कुछ ड्राइवर ड्राइविंग सीट पर बीच में बैठ कर तो कुछ साइड में शिफ्ट हो कर बैठे थे. समझ लो कि अपनी तशरीफ को 45 डिगरी के कोण पर सैट कर के आटोरिकशा हुड़हुड़ाने को तैयार था.ड्राइवर समेत कुल 4 सीट वाले आटोरिकशा में 7 लोगों के सफर करने का हुनर देख कर मुझे समझते देर न लगी कि पटनिया आटोरिकशा ड्राइवर बेहतरीन मैनेजर होते हैं. मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इस तरह का रोमांचक सीन आल इंडिया लैवल पर सिर्फ और सिर्फ पटना की सड़कों पर ही देखा जा सकता है.

पटना की सड़कों पर दोपहिया और चारपहिया के बीच तिपहिया की धूम के आगे रितिक रौशन और उदय चोपड़ा की ‘धूम’ भी फेल है.पटनिया आटोरिकशा ड्राइवर समय का पक्का होता है. बसस्टैंड से पैसेंजर को बैठाने के चक्कर में ड्राइवर ने भले ही जितनी देरी की हो, पर पैसेंजर सीट फुल होने के बाद वह बाएंदाएं, राइट साइड, रौंग साइड, आटोरिकशा की मैक्सिमम स्पीड और तेज शोर के साथ राकेट की रफ्तार से मंजिल की ओर कूच कर गया.

भले ही इन लोगों के चलते सड़क पर जाम लग जाए, पर लाइन में रह कर समय बरबाद करने मे ये आटोरिकशा वाले यकीन नहीं रखते और अमिताभ बच्चन की तरह अपनी लाइन खुद तैयार कर लेते हैं.शायद आगे सड़क पर जाम था या पेपर चैकिंग मुहिम चल रही थी, पता नहीं, पर इस बात का ड्राइवर को जैसे ही अंदाजा हुआ, फिर क्या था… उस ने हम सब को पटना की ऐसी टेढ़ीमेढ़ी गलियों में गोलगोल घुमाया, जिन गलियों को ढूंढ़ पाना कोलंबस के वंशज के वश से बाहर था. मुझे समझते देर न लगी कि यहां के आटोरिकशा ड्राइवर आविष्कारक या खोजी सोच के होते हैं.

हम राकेट की रफ्तार से सफर का मजा ले ही रहे थे कि फ्लाईओवर पर पीछे से हुड़हुड़ाता हुआ एक आटोरिकशा काफी तेजी से हमारे आगे निकल गया. शायद सवारियों से ज्यादा मंजिल तक पहुंचने की जल्दी ड्राइवर को थी. इसी मकसद को पूरा करने के लिए वह तीखे मोड़ पर टर्न लेने के दौरान तेज रफ्तार से बिना ब्रेक लिए पलटीमार सीन का लाइव प्रसारण कर बैठा.हमारे खुद के आटोरिकशा की बेहिसाब स्पीड और रेस में आगे निकल रहे दूसरे आटोरिकशा का हश्र देख कर मेरे कलेजे के अंदर डीजे बजने लगा. समझते देर न लगी कि पटनिया सड़कों पर ड्राइवर के रूप में यमराज के दूत भी मौजूद हैं, जो अपनी हवाहवाई स्पीड और रेस से सवारियों को परिवार या परिचित तक पहुंचाने के साथसाथ अस्पताल से ऊपर वाले के दर्शन तक कराने में भी मास्टर होते हैं.

ऐसा नहीं है कि बिना सैंसर बोर्ड वाले वाहियात भोजपुरी गीत इंडस्ट्री की तरह पटनिया परिवहन बिना ट्रैफिक कंट्रोल सिस्टम वाली है.

सौ से सवा सौ मीटर पर यातायात पुलिस वाले मौजूद रहते हैं. ये पटनिया आटोरिकशा ड्राइवर की औकात से ज्यादा सवारी ढोने और जिगजैग ड्राइविंग जैसे साहसिक कारनामे के दौरान धृतराष्ट्र मोड में, जबकि हैलमैट, सीट बैल्ट, कागजात वगैरह चैक करने के दौरान संजय मोड में अपनी जिम्मेदारी पूरी करते नजर आते हैं.बातोंबातों में एक बात बताना भूल ही गया कि यहां के आटोरिकशा ड्राइवर किराया मीटर या दूरी के बजाय पैसेंजर की मजबूरी के मुताबिक तय कर लेते हैं.

घटतेबढ़ते पैट्रोल के कीमत की तरह समय, स्टैंड पर आटोरिकशा की तादाद और मुसाफिरों के मंजिल तक पहुंचने की जरूरत के हिसाब से ड्राइवर को किराया तय करते देख और सफर के दौरान ब्लूटूथ स्पीकर से सवारियों को भोंड़े भोजपुरी गीत सुनवाने की इन की आदत से मुझे समझते देर न लगी कि यहां के आटोरिकशा ड्राइवर कुशल अर्थशास्त्री और संगीत प्रेमी भी हैं.

अगर आप भी रोहित शेट्टी के प्रोग्राम ‘खतरों के खिलाड़ी’ में नहीं जा सके हों और महंगाई के आलम में जान हथेली पर वाले एडवैंचर ट्रिप के शौक को पूरा करने से चूक गए हैं, तो महज 10 से 20 रुपए में पटनिया टैंपू ट्रैवल एडवैंचर ट्रिप का मजा किसी भी सीजन में ले सकते हैं. मेरी गारंटी है कि इस शानदार ट्रिप में आप को हर पल यादगार रोमांच हासिल होगा.

जात : एक पेंटर का दर्द

गांव में एक शानदार मंदिर बनाया गया. मंदिर समिति ने एक बैठक कर के मंदिर में रंगरोगन और चित्र सज्जा के लिए एक अच्छे पेंटर को बुलाना तय किया. सब ने शहर के नामचीन पेंटर को बुला कर काम करने की सहमति दी.दूसरे दिन मंदिर समिति द्वारा चुने गए 2 लोग शहर के नामचीन पेंटर की दुकान पर पहुंचे, जिस ने कई मंदिरों और दूसरी जगहों को अपनी कला से निखारा था.

मंदिर समिति के लोगों ने उस पेंटर को बताया कि मंदिर में कौनकौन सी मूर्तियां लगेंगी और उन देवीदेवताओं की लीलाओं से संबंधित चित्र बनाने हैं और रंगरोगन करना है.उस पेंटर ने हामी भरी, तो मंदिर समिति के सदस्यों ने उसे 2,000 रुपए एडवांस दे दिए.दूसरे दिन वह पेंटर अपने रंगों व ब्रश के अलावा दूसरे तामझाम के साथ गांव पहुंच गया.

मंदिर में सामान रख कर वह एक दीवार को चित्रकारी के लिए तैयार कर ही रहा था कि मंदिर समिति का एक सदस्य वहां आया और चित्रकार से बोला, ‘‘पेंटर साहब, बापू साहब ने कहा है कि अभी कुछ दिन काम नहीं करना है, इसलिए आप अभी जाओ. काम कराना होगा तो बुला लेंगे.’’वह पेंटर अपना काम रोक कर सामान को समेटते हुए वापस शहर अपनी दुकान पर लौट आया.

4-5 दिन बाद गांव के कुछ खास लोग उस की दुकान पर पहुंचे और उन में से एक बोला, ‘‘पेंटर साहब, अभी काम बंद रखना है, इसलिए मंदिर की तरफ से जो पेशगी दी थी, वह वापस दे दो.’’पेंटर ने उन्हें वह राशि लौटा दी. सब चले गए. दूसरे दिन शहर में मंदिर समिति का एक सदस्य दिखाई दिया,

तो उस पेंटर ने इज्जत के साथ बुला कर उस से काम न कराने की वजह जाननी चाही, तो उस सदस्य ने समिति में हुई चर्चा बताते हुए कहा, ‘‘आप छोटी जाति के हो और मंदिर में उन का घुसना मना है, इसलिए आप को मना किया व दूसरे पेंटर को काम दे दिया.’’यह सुन कर वह पेंटर बोला,

‘‘पर, मैं न तो शराब पीता हूं, न मांस खाता हूं और न ही बीड़ीसिगरेट पीता हूं… मैं तो दोनों समय मंदिर जाता हूं.’’इस पर वह आदमी बोला, ‘‘वह सब तो ठीक है और बहुत सारे मंदिरों में आप ने बहुत अच्छा काम भी किया है, पर हमारे यहां बापू साहब ने मना किया, तो किस की हिम्मत जो आप के लिए बोले.’’

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