आखिर कितना घूरोगे : बौस को हड़काने वाली दब्बू लड़की

काली, कजरारी, बड़ीबड़ी मृगनयनी आंखें भला किस को खूबसूरत नहीं लगतीं? मगर उन से भी ज्यादा खूबसूरत होते हैं उन आंखों में बसे सपने कुछ बनने के, कुछ करने के. सपने लड़कालड़की देख कर नहीं आते. छोटाबड़ा शहर देख कर नहीं आते.

फिर भी अकसर छोटे शहर की लड़कियां उन सपनों को किसी बड़े संदूक में छिपा लेती हैं. उस संदूक का नाम होता है- कल. कारण वही पुराना. अभी हमारे देश के छोटे शहरों और कसबों में सोच बदली कहां है? घर की इज्जत है लड़की, जल्दी शादी कर उसे घर भेजना है, वहां की अमानत बना कर मायके में पाली जा रही है. इसीलिए लड़कियों के सपने उस कभी न खुलने वाले संदूक में उन के साथसाथ ससुराल और अर्थी तक की यात्रा करते हैं पर कुछ लड़कियां बचपन में ही खोल देती हैं उस संदूक को, उन के सपने छिटक जाते हैं.

इस से पहले बीन पाएं बड़ी ही निर्ममता से कुचल दिए जाते हैं उन के अपनों द्वारा, समाज द्वारा. विरली ही होती हैं, जो सपनों की पताका थाम कर आगे बढ़ती हैं. यहां भी उन की राह आसान नहीं होती. बारबार उन की स्त्रीदेह उन की राह में बाधक होती है. अपने सपनों को अपनी शर्त पर जीने के लिए उन्हें चट्टान बन कर हर मुश्किल से टकराना होता है. ऐसी ही एक लड़की है वैशाली.

हर शहर की एक धड़कन होती है. वह वहां के निवासियों की सामूहिक सोच से बनती है. दिल्लीमुंबई में सब पैसे के पीछे भागते मिलेंगे. वाहन सब दौड़ रहे हैं. एक मिनट भी जाया करना जैसे अपराध है. छोटे शहरों में इत्मीनान दिखता है. ‘‘हां भैया, कैसे हो?’’ के साथ छोटे शहरों में हालचाल पूछने में ही लोग 2 घंटे रुक जाते हैं. देवास की हवाओं में जीवन की सादगी और भोलेपन की धूप की खुशबू मिली हुई थी जब बाजारवाद ने पूरे देश के छोटेबड़े शहरों में अपनी जड़ें जमा दी थीं.

देवास अभी भी शैशव अवस्था में था. कहने का तात्पर्य यह है कि शहर का असर हमारी वैशाली पर भी था. इन मासूम हवाओं ने ही तो उसे बेहिचक इधरउधर घूमतीफिरती बेफिक्र वैशाली में बदल दिया था. उम्र हर साल एक सीढ़ी चढ़ जाती पर बचपना था कि दामन छुड़ाने का नाम ही नहीं लेता.

वैसे भी वह अपने मांबाप की एकलौती बेटी होने के कारण बहुत प्यार में पली थी. जो इच्छा करती झट से पूरी हो जाती. यों छोटीमोटी इच्छाओं के अलावा एक इच्छा जो वैशाली बचपन से अपने मन में पाल रही थी वह थी आत्मनिर्भर होने की. वह जानती थी कि इस मामले में मातापिता को मनाना जरा कठिन है, पर उस ने मेहनत और उमीद नहीं छोड़ी. वह हर साल अपने स्कूल में अच्छे नंबर ला कर पास होती रही. मातापिता की इच्छा थी कि पढ़लिख जाए तो फिर जल्दी ब्याह कर दें और गंगा नहाएं.

एक दिन उस ने मातापिता के सामने अपनी इच्छा जाहिर कर दी कि वह नौकरी कर के अपने पंखों को विस्तार देना चाहती है. शादी उस के बाद ही. काफी देर मंथन करने के बाद आखिरकार उन्होंने इजाजत दे दी. वैशाली तैयारी में जुट गई. आखिरकार उस की मेहनत रंग लाई और दिल्ली की एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई.

वैशाली की खुशी जैसे घर की हवाओं में अगरबत्ती की तरह महकने लगी. मातापिता भी उस की खुशी में शामिल थे पर अंदरअंदर डर था इतनी दूर दिल्ली में अकेली कैसे रहेगी.

आसपास के लोगों ने भी बहुत डराया, ‘‘दिल्ली है… भाई दिल्ली, लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं. जरा देखभाल के रहने का इंतजाम कराना.’’

वे खुद भी तो आए दिन अखबारों में दिल्ली की खबरें पढ़ते रहते थे. यह अलग बात है कि छोटेबड़े कौन से शहर लड़कियों के लिए सुरक्षित हैं पर खबर तो दिल्ली की ही बनती है.

दिल्ली देश की ही नहीं खबरों की भी है. आम आदमी तो खबरें पढ़पढ़ कर वैसे ही घबराया रहता है जैसे सारा अपराध बस दिल्ली में ही होते हो. जितना हो सकता था उन्होंने वैशाली को ऊंचनीच सम झाई भी. फिर भी डर था कि जाने का नाम नहीं ले रहा था. दिल्ली में निवास करने वाले अड़ोसपड़ोस के दूरदराज के रिश्तेदारों के पते लिए जाने लगे. न जाने कितने नंबर इधरउधर के परिचितों के ले कर वैशाली के मोबाइल की कौंटैक्ट लिस्ट में जोड़े जाने लगे.

तसल्ली बस इतनी थी कि किसी गाढ़े वक्त में बेटी फोन मिला देगी तो कोई मना थोड़ी न कर देगा. आखिर इतनी इंसानियत तो बची ही है जमाने में. उन्हें क्या पता कि दिल्ली घड़ी की नोंक पर चलती है.

आखिरकार लक्ष्मीनगर में एक गर्ल्स पीजी किराए पर ले लिया. खानानाश्ता मिल ही जाएगा. औफिस बस 2 मैट्रो स्टेशन दूर था. यहां सब लड़कियां ही थीं. पिता निश्चिंत हुए कि उन की लड़की सुरक्षित है.

वैशाली अपना रूम एक और लड़की से शेयर करती थी. उस का नाम था मंजुलिका. मंजुलिका वैस्ट बंगाल से थी. जहां वैशाली दबीसिकुड़ी सी थी वहीं मंजुलिका तेजतर्रार हाईफाई. कई सालों से दिल्ली में रह रही थी. चाहे आप इसे आबोहवा कहें या वक्त की जरूरत, दिल्ली की खास बात है कि वह लड़कियों को अपनी बात मजबूती से रखना सिखा ही देती है. मंडे की जौइनिंग थी. मातापिता चले गए थे.

अब शनिवार, इतवार पीजी में ही काटने थे. बड़ा अजीब लग रहा था… इतनी तेजतर्रार लड़की के साथ दोस्ती करना पर जरूरत ने दोनों में दोस्ती करा दी. शुरुआत मंजुला ने ही करी. पर जब उस ने अपने लोक के किस्सों का पिटारा खोला तो खुलता ही चला गया.

वैशाली रस लेले कर सुनती रही. उस के लिए यह एक अजीब दुनिया थी. अपना लोक याद आने लगा जहां लोगों के पास इतना समय होता था कि कभी भी, कहीं भी महफिलें जम जातीं. लोग चाचा, मामा, फूफा होते…मैडम और सर नहीं. देर तक बातें करने के बाद दोनों रात की श्यामल चादर ओढ़ कर सो गईं.

औफिस का पहला दिन था. वैशाली ने अपनी जींस और लूज शर्ट पहन ली. गीले बालों पर कंघी करती हुई वह बाथरूम से बाहर निकली ही थी कि मंजुलिका ने सीटी बजाते हुए कहा कि पटाखा लग रही हो, क्या फिगर है तुम्हारी. वह भी हंस दी.

वैसे जींसटौप तो कभीकभी देवास में भी पहना करती थी. कभी ऐसा कुछ अटपटा महसूस ही नहीं हुआ था. उस ने ध्यान ही कहां दिया था अपनी फिगर पर. उस का ऊपर का हिस्सा कुछ ज्यादा ही भारी है यह उसे आज महसूस हुआ जब औफिस पहुंचने पर बौस सन्मुख ने उसे अपने चैंबर में बुलाया और उस से बात करते हुए पूरे 2 मिनट तक उस के ऊपरी भाग को घूरते रहे.

वैशाली को अजीब सी लिजलिजी सी फीलिंग हुई जैसे सैकड़ों चींटियां उस के शरीर को काट रही हों. उस ने जोर से खांसा. बौस को जैसे होश आया. उसे फाइल पकड़ा कर काम करने को कहा.

फाइल ले कर वैशाली अपनी टेबल पर आ गई. संज्ञाशून्य सी. देवास में भी ने लफंगे टाइप के लड़के देखे थे पर शायद हर समय मां या पिताजी के साथ रहने या फिर सड़क पर घूमने वाले बड़ों का लिहाज था, इसलिए किसी की इतनी हिम्मत नहीं हुई थी. उफ, कैसे टिकेगी वह यहां? उसे पिताजी की याद आने लगी. जब शीशे के पार कैबिन में बैठे हुए उस ने सन्मुख को देखा तो पिता की ही तरह लगे थे. 50 के आसपास की उम्र, हलके सफेद बाल, शालीन सा चेहरा. बड़ा सुकून हुआ था कि बौस के रूप में उसे पिता का संरक्षण मिल गया है.

क्यों एक पुरुष अपनी बेटी की उम्र की लड़कियों के लिए बस पुरुष ही होता है. अपने विचारों को झटक कर वैशाली ने अपना ध्यान काम पर लगाने का मन बनाया. आखिर वह यहां काम करने ही तो आई है. कुछ बनने आई है. सारी मेहनत, सारा संघर्ष इसीलिए तो था. वह हिम्मत से काम लेगी और अपना पूरा ध्यान अपने सपनों को पूरा करने में लगाएगी. मगर जितनी बार भी उसे बौस के औफिस में जाना पड़ता उस का संकल्प हिल जाता. अब तो बौस और ढीठ होते जा रहे थे. उस के खांसने का भी उन पर कोई असर नहीं पड़ रहा था.

पीजी में लौटने के बाद वैशाली खुद को बहुत समझाती रही कि उसे बस अपने सपनों पर ध्यान देना है, पर उस लिजलिजी एहसास का वह क्या करे जो उसे अपनी देह पर महसूस होता, चींटियां सी चुभतीं, घिन आती. घंटों साबुन रगड़ कर नहाई पर वह फीलिंग निकलने का ही नहीं ले रही थी. काश,मैल साबुन से धोए जा सकते. आज उसे अपने शरीर से नफरत हो रही थी. पर क्यों? उस की तो कोई गलती नहीं थी. अफसोस, यह एक दिन का किस्सा नहीं था. आखिर रोजरोज उन काट खाने वाली नजरों से खुद को कैसे बचाती.

हफ्तेभर में वैशाली जींसटौप छोड़ कर सलवारकुरते में आ गई. 10 दिन बाद दुपट्टा भी पूरा खोल कर लेने लगी और 15वें दिन तक दुपट्टे में इधरउधर कई सेफ्टी पिन लगाने लगी. मगर बौस की ऐक्सरे नजरें हर दुपट्टे हर सेफ्टी पिन के पास पहुंच ही जातीं. आखिर वह इस से ज्यादा कर ही क्या सकती थी?

वह समझ नहीं पा रही थी कि इस समस्या का सामना कैसे करे. 1-1 दिन कर के 1 महीना बीता. पहली पगार उस के हाथ में थी. पर वह खुशी नहीं थी जिस की उस ने कल्पना की थी.

मंजुलिका ने टोका, ‘‘आज तो पगार मिली है, पहली पगार. आज तो पार्टी बनती है.’’

वैशाली खुद को रोक नहीं पाई और जितना दिल में भरा था सब उड़ेल दिया.

मंजुलिका दांत भींच कर गुस्से में बोली, ‘‘उस की मां की बहन नहीं हैं क्या? उन्हें जा के घूरे जितना घूरना है… और भी कुछ हरकत करता है क्या? ’’

‘‘नहीं, बस गंदे तरीके से घूरता है. ऐसा लगता है, ऐसा लगता है कि…’’ कुछ कहने के लिए शब्द खोजने में असमर्थ वैशाली की आंखें क्रोध, नफरत और दुख से डबडबा गईं.

‘‘अब समझी तू जींसटौप से सूट पर क्यों आई. अरे, तेरी गलती थोड़ी है न. देख तब भी उस का घूरना तो बंद हुआ नहीं. कहां तक सोचेगी. इग्नोर कर… हम लोग कहां परवाह करते हैं. जो मन आया पहनते हैं, ड्रैस, शौर्ट्स, जैगिंग… अरे जब ऐसे लोगों की आंखों में ऐक्सरे मशीन फिट रहती ही है तो वे कपड़ों के पार देख ही लेंगे, तो अपनी पसंद के कपड़ों के लिए क्यों मन मारें? जरूरी है हम अपना काम करें. परवाह न करें.

“वह कहावत सुनी है न कि हाथी चला बाजार कुत्ते भूंकें हजार. अब आगे बढ़ना है तो इन सब की आदत तो डालनी ही होगी. ठंड रख कुछ दिन बाद नया शिकार ढूंढ़ लेंगे,’’ मंजुलिका किसी अनुभवी बुजुर्ग की तरह उसे शांत करने की कोशिश करने लगी.

‘‘मैं सोच रही हूं, नौकरी बदल लूं…’’ वैशाली ने धीरे से कहा.

उस की बात पर मंजुलिका ने ठहाका लगा कर कहा, “नौकरी बदल कर जहां जाएगी वहां ऐसे ही घूरने वाले मिलेंगे बस नाम और शक्ल अलग होगी. कहा न इग्नोर कर.’’

‘‘इग्नोर करने के अलावा भी कोई तो तरीका होगा न…’’

वैशाली अपनी बात पूरी कर भी नहीं पाई कि मां का फोन आ गया. मांबाबूजी उस की पहली तनख्वाह की खुशी को उस के साथ बांटना चाहते थे. सब बधाई दे रहे थे कि उन की बहादुर बेटी अकेले अपने सपनों के लिए संघर्ष कर रही है.

‘आखिरकार महिला सशक्तीकरण में उन का भी कुछ योगदान है, सोच वह ‘ओह मां,’ ‘ओह पिताजी,’ इतना ही कह पाई पर अंदर तक भीग गई वह इन स्नेहभरे शब्दों से.

वैशाली सारी रात रोती रही. कहां उस के मातापिता उस पर इतना गर्व कर रहे हैं और कहां वह नौकरी छोड़ कर वापस जाने की तैयारी कर रही है और वह भी किसी और के अपराध की सजा खुद को देते हुए. मंजुलिका कहती है, इग्नोर कर… वही तो कर रही थी, वही तो हर लड़की करती है बचपन से ले कर बुढ़ापे तक. पर यह तो समस्या का हल नहीं है. इस से वह लिजलिजी वाली फीलिंग नहीं जाती.

सारी रात वैशाली सोचती रही. अगले दिन लंच पर उस ने अपनी बात साथ में काम करने वाली निधि को बताई. फिर तो जैसे बौस की इस हरकत का पिटारा ही खुल गया. कौन सी ऐसी महिला थी जो उस की इस हरकत से परेशान न होती हो.

निधि ने कहा, ‘‘हाथ पकड़े तो तमाचा भी लगा दूं. पर इस में क्या करूं? मुकर जाएगा.’’

समस्या विकट थी. बात केवल सन्मुख की नहीं थी, ऐसे लोग नाम और रूप बदल कर हर औफिस में हैं, हर जगह हैं. आखिर इन का इलाज क्या हो? और इग्नोर भी कब तक? नहीं वह जरूर इस समस्या का कोई न कोई हल खोज के रहेगी.

घर आने के बाद वैशाली का मन नहीं लगा रहा था. ड्राइंग फाइल निकाल कर स्कैचिंग करने लगी. यही तो करती है हमेशा जब मन उदास होता है.

तभी मामा के लड़के का फोन आ गया. गांव में रहने वाला 10 साल का ममेरा भाई जीवन उसे बहुत प्यारा है. अकसर फोन कर अपने किस्से सुनाता रहता है कि दीदी यह बात, दीदी वह बात… और शुरू हो जाते दोनों के ठहाके.

आज भी उस के पास एक किस्सा था, ‘‘दीदी, सुलभ शौचालय बनने के बाद भी गांव के लोग उस का इस्तेमाल नहीं करते. बस यहांवहां जहां जगह मिलती, बैठ जाते हैं. टीवी में विज्ञापन देख कर हम भी घंटी खरीद लाए. अब गांव में घूमते हुए जहां कोई फारिग होता मिल जाता तो बस घंटी बजा देते हैं.

“सच्ची दीदी, बहुत खिसियाता है. कपड़े समेट कर उठ खड़ा होता है. उस की झेंप देखने लायक होती है. उसे गलत काम का एहसास होता है. देखना एक दिन ये सब लोग शौचालय का इस्तेमाल करने लगेंगे.’’

बहुत देर तक वह इस बात पर हंसती रही फिर न जाने कब नींद ने उसे अपने आगोश में ले लिया. आंख सीधे सुबह ही खुली. घड़ी देखी, देर हो रही थी. सीधे बाथरूम की तरफ भागी.

आज उस ने जींसटौप ही पहना. बढ़ती धड़कनों को काबू कर पूरी हिम्मत के साथ औफिस गई और अपनी सीट पर बैठ कर फाइलें निबटाने लगी.

तभी बौस ने उसे कैबिन में बुलाया. उसे देख उन के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई. आंखें अपना काम करने लगीं.

‘‘एक मिनट सर,’’ वैशाली ने जोर से कहा. सन्मुख हड़बड़ा कर उस के चेहरे की ओर देखने लगे. वैशाली ने फिर से अपनी बात पर वजन देते हुए कहा, ‘‘एक मिनट सर, मैं यहां बैठ जाती हूं फिर 5 मिनट तक आप मुझे जितना चाहिए घूरिए और यह हर सुबह का नियम बना लीजिए. पर बस एक बार ताकि जितनी भी लिजलिजी फीलिंग मुझे होनी है वह एक बार हो जाए. उस के बाद अपनी सीट पर जा कर मैं काम करना शुरू करूं तो मुझे यह डर न लगे कि अभी आप फिर बुलाएंगे, फिर घूरेंगे और मैं फिर उसी गंदी फीलिंग से और अपने शरीर के प्रति उसी अपराधबोध से गुजरूंगी… जिस दिन से औफिस में आई हूं ये सब झेल रही हूं,’’ मन में आया कि पूछे कि क्या आप की मांबहन नहीं हैं क्या? जितना घूरना है उन्हें घूरो. पर फिर मन में आया कि नहीं, यह नहीं कहेगा, क्योंकि वह जानती है कि आप नहीं कोई और निश्चित तौर पर आप की मां, बहन को घूर रहा होगा. अपनी मांबहन, पत्नीबेटी सब से कह दीजिएगा कि वे भी घूरने का टाइम फिक्स कर दें. दोनों का समय और तकलीफ बचेगी.

‘‘जी सर, हमारा भी टाइम फिक्स कर दीजिए,’’ वैशाली के पीछे आ कर खड़ी हुई निधि व अन्य महिलाओं ने समवेत स्वर में कहा.

वैशाली अंदर आते समय जानबूझ कर गेट खुला छोड़ आई और उस के पीछे थी इस साहस पर तालियां बजाते पुरुष कर्मचारियों की पंक्ति.

बौस शर्म से पानीपानी हो रहे थे. फिर उस दिन के बाद सन्मुख कभी किसी किसी महिला को घूरते नहीं पाए गए.

चाहे आप इसे आबोहवा कहें या वक्त की जरूरत, दिल्ली की खास बात है कि वह लड़कियों को अपनी बात मजबूती से रखना सिखा ही देती है.

‘‘अगले दिन लंच पर उस ने अपनी बात साथ में काम करने वाली निधि को बताई. फिर तो जैसे बौस की इस हरकत का पिटारा ही खुल गया…’’

वहम : पत्नी के पहलू में गैर मर्द से झल्लाया सागर

सागर का शिप बैंकौक से मुंबई के लिए सेल करने को तैयार था. वह इंजनरूम में अपनी शिफ्ट में था. उस का शिप मुंबई से बैंकौक, सिंगापुर, हौंगकौंग होते हुए टोक्यो जाता था. वापसी में वह बैंकौक तक आ गया था. तभी शिप के ब्रिज (इसे कंट्रोलरूम कह सकते हैं) से आदेश आया रैडी टु सेल.

सागर ने शक्तिशाली एअर कंप्रैसर स्टार्ट कर दिया. जैसे ही ब्रिज से आदेश मिला ‘डैड स्लो अहेड’ उस ने इंजन में कंप्रैस्ड एअर और तेल छोड़ा और जहाज बैंकौक पोर्ट से निकल पड़ा. फिर ऊपर ब्रिज से जैसा आदेश मिलता, जहाज स्लो या फास्ट स्पीड से चलता गया. आधे घंटे के अंदर ही जहाज हाई सी में था. तब और्डर मिला ‘फुल अहेड.’

अब शिप अपनी पूरी गति से सागर की लहरों को चीरता हुआ मुंबई की ओर बढ़ रहा था. सागर निश्चिंत था, क्योंकि सिर्फ 3 हजार नौटिकल मील का सफर रह गया था. लगभग 1 सप्ताह के अंदर वह मुंबई पहुंचने वाला था. उसे मुंबई छोड़े 4 महीने हो चुके थे.

अपनी 4 घंटे की शिफ्ट खत्म कर सागर अपने कैबिन में सोफे पर आराम कर रहा था. मन बहलाने के लिए उस ने फिल्म ‘रुस्तम’ की सीडी अपने लैपटौप में लगा दी. इस फिल्म को वह पूरा देख भी नहीं सका था. उस का मन बहुत बेचैन था.

‘रुस्तम’ से पहले भी उस ने एक पुरानी फिल्म ‘ये रास्ते हैं प्यार के’ देखी थी. दोनों की स्टोरी लगभग एक ही थी, जिस में दिखाया गया था कि जब मर्चेंट नेवी का अफसर लंबी यात्रा पर जाता है, तो उस की पत्नी को मौजमस्ती करने का भरपूर मौका मिलता है.

उस के मन में भी शंका हुई कि कहीं उस की पत्नी शैलजा भी ऐसा ही कुछ करती हो. हालांकि तुरंत उस ने मन से यह डर भगाया, क्योंकि शैलजा उसे बहुत प्यार करती थी. पूरी यात्रा में जब भी तट पर होता वह फोन पर उस से कहा करती कि जल्दी लौट आओ, तुम्हें बहुत मिस कर रही हूं. मम्मी भी इलाहाबाद अपने मायके चली गई हैं.

सागर को शादी के 3 महीने के अंदर ही टोक्यो जाना पड़ा था. उस की पत्नी मुंबई में ही एक अपार्टमैंट में रहती थी. बीचबीच में सागर की मां इलाहाबाद से आ कर रहती थीं. उस की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उस ने अपार्टमैंट के दरवाजे पर एक ‘रिंग डोरबैल’ लगा दी थी. इस में एक सैंसर और कैमरा लगा होता है, जो वाईफाई द्वारा अलगअलग चुनिंदा सैल फोन ऐप्स से जुड़ा होता है.

दरवाजे पर कोई भी हरकत होने से या कौलबैल बजने से दरवाजे के बाहर का दृश्य सैल फोन पर देख सकते हैं. इतना ही नहीं टौक बटन दबाने से बाहर खड़े व्यक्ति से बात भी कर सकते हैं.

सागर ने पत्नी शैलजा और मां के फोन के अतिरिक्त मुंबई में एक रिश्तेदार के सैल फोन से इस डोरबैल को कनैक्ट कर रखा था. सागर की पत्नी शैलजा कुछ पार्टटाइम काम करती थी. बाकी टाइम घर में ही रहती थी. कभीकभी बोर हो जाती थी. हालांकि उस की सास से काफी पटती थी पर सभी बातें तो उन से वह शेयर नहीं कर सकती थी और वैसे फिर आजकल वे भी नहीं थीं.

सागर ने शैलजा को मुंबई पहुंचने का अनुमानित समय बता दिया था. फ्लैट की एक चाबी सागर के पास होती थी. शिप अब आधी दूरी तय कर भारतीय समुद्र सीमा में था. सागर 3 दिन से कुछ कम ही समय में मुंबई पहुंचने वाला था. इधर शिप बंगाल की खाड़ी की लहरों पर हिचकोले खा रहा था उधर उस का मन भी शैलजा से मिलने की आस में बेचैन था. वह केबिन में आराम कर रहा था कि दरवाजा खटखटा कर उस का सहकर्मी अंदर आया. बोला, ‘‘यार तुम ने ‘रुस्तम’ देख ली हो तो सीडी मुझे देना.’’

दोस्त तो सीडी ले कर चला गया पर एक बार फिर सागर का मन शंकित हो उठा कि कहीं उस की पत्नी भी किसी गैर की बांहों में न पड़ी हो. बहरहाल, उस ने मन को समझाया कि यह मात्र वहम है. मेरी शैलजा वैसी नहीं हो सकती है जैसा मूवी में दिखाया गया है.

सागर का जहाज मुंबई पोर्ट के निकट था पर पोर्ट पर बर्थ खाली नहीं होने के कारण जहाज को थोड़ी दूरी पर लंगर डालना पड़ा. शाम होने वाली थी. उस का वाईफाई काम करने लगा था. उस के फोन पर मैसेज मिला ‘रिंग ऐट योर डोर’. हलकी बारिश हो रही थी.

उस ने अपने फोन में देखा कि फ्लैट के दरवाजे पर जींस पहने छाता लिए कोई खड़ा है. शैलजा ने हंस कर उसे गले लगाया और फिर दरवाजा बंद हो गया. छाते की वजह से वह उस का चेहरा नहीं देख सका. पहले तो उस ने पत्नी को कहा था कि वह जहाज से निकलने से पहले उसे फोन करेगा पर इस दृश्य को देख कर उस ने अपना इरादा बदल लिया.

जहाज के लंगर डालने के थोड़ी देर बाद कंपनी के लौंच से वह तट पर आया. उस ने टैक्सी ली और अपने फ्लैट पर जा पहुंचा. तब तक लगभग मध्य रात्रि हो चुकी थी. उस ने अपनी चाबी से फ्लैट का दरवाजा जानबूझ कर धीरे से खोला ताकि कोई आहट न हो. अंदर फ्लोर लाइट का हलका प्रकाश था.

सागर ने अंदर आ कर देखा कि बैडरूम का दरवाजा खुला है. शैलजा झीनी नाइटी में अस्तव्यस्त किसी व्यक्ति के बहुत करीब सोई थी. वह व्यक्ति जींस और टीशर्ट पहने था. उस की कमर पर शैलजा की बांह थी. सागर केवल उस व्यक्ति की पीठ देख सकता था. उस के मन में संदेह हुआ कि यह शैलजा का कोई आशिक ही होगा. वह दबे पांव फ्लैट लौक कर लौट पड़ा. उस ने 3 दिन की छुट्टी ले रखी थी. वहां से सीधे होटल में जा कर ठहरा.

रात काफी हो चुकी थी. फिर भी उसे नींद नहीं आ रही थी. नींद खुली तो उस ने रूम में ही हलका ब्रेकफास्ट मंगवा लिया. थोड़ी देर बाद सागर ने शैलजा को फोन कर बताया कि वह मुंबई पहुंच गया है. फिर पूछा ‘‘कैसी हो शैलजा?’’

शैलजा बोली, ‘‘अच्छी हूं. पर कल रात बहुत थक गई थी और करीब 12 बजे सोई तो सुबह 7 बजे महरी आई तब नींद खुली. पर बड़ा मजा आया रात में वरना मैं तो बोर हो रही थी. तुम जल्दी आओ न? जहाज तो किनारे लग चुका होगा. कब आ रहे हो?’’

‘‘मैं जहाज से उतरने ही वाला हूं, 2-3 घंटे में आ रहा हूं.’’

सागर के पास सामान के नाम पर एक अटैची भर थी. उस ने टैक्सी ली. अपार्टमैंट पहुंच कर सिक्युरिटी वाले को अटैची रखने को दी और कहा, ‘‘जब मैं फोन करूं तब इसे मेरे फ्लैट में भेज देना.’’ फ्लैट पहुंच कर उस ने बैल बजाई तो

शैलजा ने अपने फोन पर उस का वीडियो देख लिया, दरवाजा खोल कर शैलजा उस के गले से लिपट गई. वह बैडरूम में गया और बोला, ‘‘शैलजा, टौवेल लाना, बाथरूम जाना है.’’

‘‘बाथरूम तो बिजी है. तुम गैस्टरूम वाले बाथ में चले जाओ.’’

‘‘क्यों? कोई है अंदर?’’

‘‘हां, कोई है.’’

‘‘कौन है?’’

‘‘देख लेना थोड़ी देर में. इतनी जल्दी क्या है?’’

‘‘नहीं, मुझे बाथ टब में नहाना है और गैस्टरूम में बाथ टब नहीं है. पर तुम से जरूरी बात भी करनी है.’’

‘‘ठीक है, थोड़ी देर गैस्टरूम में ही आराम करो, मैं चाय ले कर आती हूं. वहां बात कर लूंगी.’’

सागर गैस्टरूम में बैड पर लेट गया. उस ने सिक्युरिटी को फोन कर नीचे से अपना अटैची मंगवा ली. थोड़ी देर में शैलजा चाय दे कर किचन में चली गई.

कुछ देर बाद शैलजा ने कहा, ‘‘सागर, बाथरूम खाली हो गया है. अब तुम बैडरूम में जा कर बाथरूम यूज कर सकते हो.’’

सागर बाथरूम में गया. उस ने देखा कि वहां कल रात वाली जींस और टीशर्ट टंगी थी. जब तक वह नहा कर निकला शैलजा की आवाज आई, ‘‘डाइनिंग टेबल पर ही आ जाओ, नाश्ता रैडी है.’’

शैलजा ने जूस ला कर दिया, उस के बाद छोले की सब्जी का बाउल रख कर बोली, ‘‘एक मिनट में गरमगरम कचौरियां ले कर आ रही हूं.”

‘‘कचौरियां बाद में आ जाएंगी, पहले तुम यहां बैठो. तुम से जरूरी बात करनी है.’’

तभी किचन से आवाज आई, ‘‘तुम लोग वहीं बैठ कर बातें करो. मैं गरमगरम कचौरियां ले कर आ रही हूं.’’

थोड़ी देर में एक औरत ट्रे में कचौरियां ले कर आई और टेबल के पास बैठ गई. सागर उसे आश्चर्य से देखने लगा तो वह बोली ‘‘मुझे ही देखते रहोगे तो कचौरियां ठंडी हो जाएंगी.’’

शैलजा बोली, ‘‘यह नीरू है. मेरी ममेरी भाभी. मेरे भैया उम्र में हम से सिर्फ 2 साल बड़े हैं. यह भाभी कम दोस्त ज्यादा है. हम लोग क्लासफैलो भी रहे हैं. आजकल यह नासिक में है. इस के पहले तो गुवाहाटी में थी. कौंटैक्ट तो न के बराबर रहा था. भैया टूअर पर गए हैं, तो यहां चली आई. भैया की शादी में हम लोग नहीं जा सके थे.’’

‘‘बाथरूम में जींस और टीशर्ट किस की है?’’

‘‘नीरू भाभी की. कल शाम जब यह आई तो हम दोनों अपार्टमैंट के क्लब में चली गईं. वहां काफी देर तक बैडमिंटन खेलती रहीं. दोनों बहुत थक गई थीं. मैं ने इस से कहा था कि कपड़े चेंज कर ले पर यह इन्हीं कपड़ों में सो गई थी.’’

‘‘इतना ही नहीं, उस के बाद हम लोग, ‘रुस्तम’ मूवी देखने लगे. सीडी पड़ी है, तुम भी देख लेना.’’

“तुम लोगों ने भी ‘रुस्तम’ देखी? सागर ने पूछा.

‘‘हां. इस में ताज्जुब की क्या बात है?’’ नीरू बोली.

‘‘ताज्जुब की बात नहीं है. मैं ने भी शिप में देखी है,’’ और फिर सागर मन ही मन सोचने लगा कि अच्छा हुआ उस ने शैलजा से इस बारे में कोई बात नहीं की. उस के दिल और दिमाग से ‘रुस्तम’ का वहम निकला गया था.

तभी शैलजा बोली, ‘‘तुम कोई जरूरी बात करने वाले थे.’’

सागर ने असली बात को दिल में छिपाते हुए कहा, ‘‘मेरा शिप 10 दिन में फिर टोक्यो के लिए सेल करेगा.’’

‘‘मैं आज शाम को चली जाऊंगी. मेरे सामने थोड़े ही देवरजी जरूरी बात करेंगे,’’ नीरू बोली.

सभी हंसने लगे, पर असल माजरा तो सिर्फ सागर ही समझ रहा था.

कुआं ठाकुर का: आखिर झुमकी को क्यों अपराध करना पड़ा?

“तुम्हारे कष्टों का हल तब ही मिलेगा, जब तुम हमारे साथ भाग कर शहर चलोगी, वरना रोज़ रात की यही कहानी रहेगी तुम्हारे साथ,” कलुआ ने झुमकी को बांहों में लेते कहा.

“हां रे, मन तो हमारा भी यही कहता है कि अब हम वापस घर न जाएं लेकिन अगर न गए तो हमारा बाप हमारी मां को भूखा मार डालेगा,” झुमकी ने एक सर्द आह भरते हुए कहा.

“तेरा बाप, छी, मुझे तो घिन आती है तेरे बाप के नाम से. भला कोई बाप अपनी बीवी और बेटी से ऐसा काम भी करा सकता है? वह कम्बख्त मर जाए तो ही अच्छा है,” कलुआ ने गुस्से से कहा.

“ऐसा मत कहो. वह मेरा बाप है. मेरी मां उसी के नाम का सिंदूर लगाती है. और तुम क्या समझते हो, अगर अम्मा या मैं ने उस की बात मानने से इनकार किया तो, पहले तो वह गालीगलौच करता है और फिर कहता है कि हम लोग ने नीच जाति वाले घर में पैदा हो कर गलती कर दी है और अब ये सब करना तो हमारे करम में लिखा है. हम जब तक जिंदा रहेंगे तब तक हमें ये ही सब करना पड़ेगा,” सिसक उठी थी झुमकी.

झुमकी के बदन पर नोचनेखसोटने के निशान बने हुए थे. उन्हें प्यार से सहलाते हुए कलुआ  बोला, “हां, हम तुम्हारी इतनी मदद कर सकते हैं कि तुम्हें यहां  से खूब दूर अपने साथ शहर ले जाएं और वहां हम दोनों मजदूरी कर के अपना पेट पालें. तभी तुम इस नरक से मुक्ति पा सकती हो,” झुमकी को बांहों में समेट लिया  था कलुआ ने.

झुमकी की उम्र 20 बरस थी. छरहरी काया, पतली नाक और चेहरे का रंग ऐसा जैसे कि तांबा और सोना आपस में  घोल कर उस के चेहरे पर लगा दिया गया हो.

झुमकी के बाप को शराब की लत लग गई थी. गांव के पंडित और ठाकुर उसे शराब पिलाते और  बदले में वह अपनी पत्नी को इन लोगों का बिस्तर गरम करने के लिए भेज देता. दिनभर दूसरों के खेत और अपने घर के चूल्हेचौके में जान खपाने के बाद जब झुमकी की मां ज़रा आराम करने जा रही होती, तभी नशे में धुत हो कर झुमकी का बाप आता और झुमकी की अम्मा  को इन रसूखदार लोगों के यहां जाने को कहता. विरोध करने पर उन्हें उन की नीची जाति का हवाला देता और कहता कि ऐसा करना तो उन के समय में ही लिखा है. इसलिए उन्हें ये सब तो करना ही पड़ेगा. झुमकी की अम्मा समझ जाती कि उस की इज़्ज़त को तो पहले ही शराब पी कर  बेच आया है, इसलिए मन मार कर उन लोगों के बिस्तर पर रौंदी जाने के लिए चली जाती.

झुमकी जैसे ही 13 साल की हुई, तो ठाकुर ने तुरंत ही अपनी गिद्ध दृष्टि उस पर जमा दी और झुमकी के बाप से मांग करी कि आज के बाद वह अपनी पत्नी को नहीं, बल्कि झुमकी को उस के पास भेजा करेगा  और झुमकी को खुद ठाकुर के पास पहुंचा कर आया था झुमकी का बाप.

एक बार ऐसा हुआ, तो फिर तो मानो यह चलन हो गया. जब भी ठाकुरबाम्हन लोगों का मन होता, बुलवा भेजते झुमकी को और रातरातभर रौंदते उस के नाज़ुक जिस्म को.

वह तो उस दिन झुमकी ने गांव की नदी में डूब कर आत्महत्या ही कर ली   होती, अगर उस मल्लाह के लड़के कलुआ ने उसे सही समय पर बचाया न होता. कलुआ ने जान बचाने के बाद जब जरा डांट और जरा पुचकार से झुमकी से ऐसा करने का कारण पूछा तो कलुआ के प्यार के आगे उस की आंसू की धारा बह निकली और रोरो कर  सब बता दिया कलुआ को.

“हम नीच जात के हैं, तो भला इस में हमारा का दोष है. और अगर वे लोग बाम्हन और ठाकुर हैं तो वे हमारे साथ जो चाहे, कर सकते हैं का?” झुमकी के इस सवाल का कोई जवाब नहीं था कलुआ के पास.

झुमकी को कलुआ से थोड़ा  स्नेह मिला और इस स्नेह में उसे वासना के कीड़े नहीं दिखाई दिए. तो, मन ही मन वह उसे अपना सबकुछ मान बैठी थी. कलुआ भी तो झुमकी पर ही जान न्योछावर किए रहता था. पर उसे ऐसे झुमकी का बाह्मन और ठाकुर द्वारा शोषण किया जाना पसंद नहीं था और इसीलिए वह शहर जाने की ज़िद करता था पर हर बार झुमकी अपनी मां की दुहाई दे कर बात टाल जाती थी.

लेकिन, कल जब झुमकी दालान में बैठी अपने शरीर पर रात में आई खरोंचों पर कड़वा तेल का लेप लगा रही थी, तभी झुमकी की अम्मा आई और बोली, “बिटिया, हम तुम को जने हैं, इसलिए तुम्हारा दर्द सब से अच्छी तरह जानते हैं. और यह भी जानते हैं कि वह कलुआ तुम्हें पसंद करता है. तुम अगर यहां गांव में ही रह गई, तो इसी तरह  पिसती रहोगी. शायद, नीच जाति में पैदा होना ही हमारा कुसूर बन गया है. पर अगर सच में ही जीना चाहती तो यहां से कहीं और भाग जाओ और हमारी  चिंता मत करो. हम तो बस काट ही लेंगे अपना जीवन. पर तुम्हारे सामने अभी पूरा जीवन है, तू यहां रह गई तो ये मांस के भेड़िए तुझे रोज़ रात में नोचेंगे. इसलिए चली जा यहां से, चली जा…”

अभी  झुमकी की मां उसे समझा ही रही थी कि झुमकी का बाप अंदर आ गया. उस ने सारी बातें सुन ली थीं, बोला, “हां, झुमकी ज़रूर जाएगी पर कलुआ के साथ नहीं, बल्कि संजय कुमार के साथ. मैं ने  इस की शादी संजय कुमार के साथ तय कर दी है. चल री झुमकी, जल्दी तैयार हो जा. तेरा दूल्हा  बाहर बैठा हुआ है.”

यह कैसी  शादी थी, न बरात, न धूम, न नाच, न गाना.

झुमकी और उस की मां समझ गई थीं कि झुमकी का सौदा कर डाला गया है. पर झुमकी के लिए आगे कुंआ और पीछे खाई जैसी हालत थी. फिर भी उस के मन में एक दूल्हे के नाम से यह उम्म्मीद जगी कि यहां रोज़रोज़ इज़्ज़त नीलाम होने से तो कुछ सही ही रहेगा कि किसी एक मर्द से बंध कर रहे.

और इसी उम्मीद में झुमकी उस आदमी के साथ चली गई. जाते समय झुमकी का मन तो भारी  था पर इतनी खुशी ज़रूर थी कि उसे बेचने के बदले में उस के पिता को जो पैसे मिल जाएंगे उन के बदले वह कुछ दिन आराम से शराब पी सकेगा.

और इस तरह बिहार के एक गांव से चल कर झुमकी उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर में पहुंच गई.

“यह रहा हमारा कमरा,” संजय ने एक छोटे से कमरे में घुसते हुए कहा.

उस कमरे में कोई भी बिस्तर नहीं था, सिर्फ एक गद्दे पर चादर डाल कर उसे लेटने की जगह में तबदील कर दिया गया था. और इस समय उस गददे पर  2 आदमी बैठे हुए झुमकी को फाड़खाने की नज़रों से देख रहे थे.

“अरे, इन से शरमाने की ज़रूरत नहीं है. ये दोनों हमारे बड़े भाई हैं- विजय भैया और मनोज भैया. हम लोग  मजदूरी करते हैं और ये दोनों भी हमारे साथ इसी कमरे में रहते हैं. और एक बात बता  दें तुम्हें कि तुम्हें हमारे साथसाथ इन का भी ध्यान रखना होगा,” संजय कुमार ने ज़मीन पर बैठते हुए कहा.

“हम भाइयों ने दिन बांट रखे हैं. हफ्ते के पहले 2 दिन तुम को बड़े भैया के साथ सोना होगा और उसके बाद के 2 दिन तुम  मझले भैया के साथ सोओगी और मैं सब से छोटा हूं, इसलिए सब से बाद में मेरा नंबर आएगा.  तुम को शर्म न आए, इस के लिए हम बीच में एक परदा डाल लेंगे,” संजय ने बड़ी सहजता से ये सारी बातें कह डाली थीं.

“क….क्या मतलब,” चौंक उठी थी झुमकी.

“यही कि हम 3 भाई हैं और हमारे आगेपीछे माईबाप कोई नहीं हैं जो हम लोगों का ब्याह करवा सके  और न ही हम लोगों के पास इतना पैसा है कि हम लोग अलगअलग रहें और अपने लिए अलगअलग बीवी रख सकें. इसीलिए हम ने 3 भाइयों के बीच में एक ही बीवी खरीद कर रखने का प्लान  बनाया.”

संजय कुमार की बात सुन कर जब झुमकी ने 3 पतियों की बीवी बनने से इनकार किया

तो तीनों ने उस के पिता को पूरे पैसे देने की बात कह कर बारीबारी से झुमकी के साथ मुंह काला किया और बाद में तृप्त हो कर गहरी नींद में सो गए और जब वे तीनों  आधी रात के बाद नींद की आगोश में थे, तब झुमकी दबेपांव वहां से भाग निकली और ढूंढतेढांढते पुलिस स्टेशन पहुंची और थानेदार को पूरी कहानी बताई.

“अरे, तो इस में बुराई ही क्या थी. और फिर, तुम्हें तो गांव में भी ऊंची जाति के लोगों के साथ सोने की आदत थी ही. यहां भी तीनों को खुश कर के रहतीं, तो वे सब रानी बना कर रख़ते. तुम छोटी जाति वालों के साथ यही समस्या है कि ज़रा सी बात में ही शोर मचाने लगते हो. अब रात के 3 बजे तू यहां आई है और मैं ने तेरी रिपोर्ट  भी लिख ली है. अब अगर बदले में तू मुझे थोड़ा खुश कर देगी, तो तेरा कुछ घिस थोड़े ही जाएगा,” यह कह कर थानेदार ने मेज़ पर ही झुमकी को लिटा दिया और उस का बलात्कार कर डाला.

रोती रही झुमकी. आज उसे कलुआ बहुत याद आ रहा था. उस ने एक नज़र थानेदार पर डाली

जो अपनी शर्ट और पैंट को संभालने की कोशिश कर रहा था.

सुबह हो रही थी. झुमकी भारी मन से उठी और बाहर निकल गई. कमज़ोरी, थकान और अपने ऊपर हुए जुल्मों के कारण उस से चला भी न जा रहा था. झुमकी किसी तरह सड़क तक पहुंची और सड़क पर ही गिर कर बेहोश हो गई.

झुमकी को होश आया, तो उस ने अपनेआप को बिस्तर पर पाया और उस की आंखों के सामने एक युवक खड़ा मुसकरा रहा था.

युवक की आंखों पर हलके लैंस का चश्मा और चेहरे पर घनी दाढ़ी थी.

“घबराओ नहीं, तुम सुरक्षित जगह हो. तुम सड़क पर बेहोश हो गई थीं. संयोग से मैं वहीं से गुज़र रहा था. तुम्हें देखा, तो यहां ले आया.” वह युवक इतना बोल कर चुप हो गया.

झुमकी अब भी उस को प्रश्नवाचक नज़रों से देख रही थी.

“मैं एक समाजसेवक हूं. मेरा नाम मलय है  और तुम जैसे गरीब व पिछड़े लोगों की मदद करना ही मेरा काम है. थोड़ा आराम कर लो और फिर मैं तुम से पूछूंगा कि तुम्हारी यह हालत किस ने कर दी है.”

वह मुसकराता हुआ वहां से चला गया और झुमकी की देखभाल के लिए एक नर्स वहां आ गई. कुछ घंटों बाद जब मलय वहां आया तो झुमकी अपनेआपको तरोताज़ा महसूस कर रही थी और पहली बार उसे ऐसा लग रहा था कि वह सुरक्षित हाथों में है.

झुमकी ने अपने साथ बीती हुई सारी बातें मलय को बता दीं. सुन कर मलय काफी दुखी हुआ और उस को न्याय दिलाने का वादा किया.

झुमकी की सेहत भी अब ठीक हो रही थी और अब भी वह मलय के सर्वेंटरूम में ही रह रही थी.

एक रात को 10 बजे मलय उस सर्वेंटरूम में आया. वह अपने साथ एक बाम ले कर आया था.

“मेरे सिर में बहुत दर्द है, ज़रा बाम तो लगा दो झुमकी, ” मलय ने झुमकी के बिस्तर पर लेटे हुए कहा.

झुमकी बाम लगाने लगी मलय के माथे पर. मलय उसे लगातार घूरे जा रहा था. अचानक कुछ अच्छा नहीं लगा  झुमकी को.

“मैं सोच रहा हूं कि भले ही तुम नीच जाति की हो, तुम्हारे साथ इतने लोगों ने बलात्कार किया, तो ज़रूर तुम में कोई कशिश रही होगी और मुझे लगता है कि उन्होंने कोई गलती नहीं करी,” कह कर मलय चुप हो गया.

झुमकी ने बाम लगाना बंद कर दिया और दूर जाने लगी.

तभी पीछे से उस ने अपनी पीठ पर मलय का हाथ महसूस किया. वह कुछ बोल पाती, इस से पहले ही मलय ने झुमकी को पकड़ कर बिस्तर पर गिरा दिया और उस का बलात्कार कर दिया.

झुमकी एक बार फिर उस नरक के अनुभव से गुज़र रही थी. लेकिन इस बार वह सहेगी नहीं,

वह बदला लेगी. पर कैसे?

गुस्से में झुमकी ने कोने में पड़ा हुआ एक छोटा सा चाकू उठाया और पूरी ताकत से मलय पर वार कर दिया. मलय के हाथ पर हलाकि सी खरोंच आई. मलय नशे में तो था ही, खरोंच लगने से उसे और क्रोध आ गया और उस ने अपने दोनों हाथ झुमकी के गरदन पर कस दिए और अपना दबाव बढ़ाता गया. एक समाजसेवक  बलात्कारी के साथसाथ खूनी भी बन गया था.

और झुमकी, जो एक गांव में जन्म ले कर शहर तक आई, पिता से ले कर उस के जीवन में जो भी आया उसे झुमकी में सिर्फ वासनापूर्ति का साधन दिखाई दिया. यह उस के एक औरत होने की सज़ा थी या एक गरीब होने की या एक दलित महिला होने की एक प्रश्नचिन्ह अब भी बाकी है???

पवित्र पापी: अमृता बाबा के गलत इरादों को क्यों बढ़ावा देती थी?

अमृता इसी आश्रम में ब्याह कर आई थी. आश्रम बहुत बड़ी जमीन पर फैला हुआ था. आश्रम के नाम पर बहुत बड़ी जमींदारी थी. गांवों में जमीनें थीं. खूब चढ़ावा आता था. कई जगह मंदिर थे जिन में पुजारियों को तनख्वाह मिलती थी. अमृता का ससुर पंडित मोहनराम आश्रम की जमींदारी संभालता था. यहीं पर ही वह रहता था. उस का अलग से मकान इसी आश्रम के पिछवाडे़ में बना हुआ था.

बडे़ महाराज का नाम दूरदूर के गांवों में था. उन्होंने कई किताबें लिखी थीं. बहुत बडे़बडे़ कार्यक्रम यहीं होते थे. तब स्वरूपानंदजी काशी से पढ़ कर आए थे. पहले वह ब्रह्मचारी ही रहे, बाद में बडे़ महाराज ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया था और मरने के  बाद स्वरूपानंद ने जब गद्दी संभाली तो आश्रम को नया होना ही था.

तब अमृता बाबा स्वरूपानंद की महिला शाखा की  कर्ताधर्ता थी. उसी ने हर बार स्वरूपानंद की शोभायात्रा भी निकाली थी. वसंत पंचमी पर जो फूल- डोल का कार्यक्रम होता था उस में अमृता सैकड़ों महिलाओं के साथ वसंती कपडे़ पहन कर बाबा स्वरूपानंद के साथ गुलाल उछलवाती थी. बाबा की गाड़ी हमेशा इत्र की खुशबू से महकती रहती.

अमृता का पति रामस्वरूप हमेशा या तो भांग पिए रहता या बाबा की जमींदारी में गया होता और अमृता मानो खुद ही आश्रम की हो कर रह गई हो. कभी मंदिर में कभी भंडार में, कभी अतिथिशाला में, भागतेदौड़ते अमृता को देख यही लगता था मानो आश्रम का सारा भार उसी पर हो.

कब बेटा हुआ, कब बड़ा हुआ, उसे पता नहीं. हां, बेटा होने पर बाबा ने उसे 20 तोला सोना दिया था. मकान पक्का कराया, फ्रिज दिया, उसे वह सबकुछ याद है.

उस रात जब वह मंदिर के पट बंद कर नीचे आ रही थी तब बाबा स्वरूपानंद ने अचानक उस का हाथ पकड़ा और उसे बांहों में भींच लिया. उसे तब लगा कि जैसे उस का रोमरोम जल रहा हो. बाबा की उंगलियां उस की पीठ पर रेंग रही थीं. उस की आंखें बंद होने लगीं. फिर क्या उसे याद नहीं. वह तो बाबा की बांहों में एक नशे में थी.

सुबह जब इत्र से भीगी बाबा की गद्दी पर उस की आंखें खुलीं तो वह खुद अपनी देह को देख कर लजा गई थी. लगा, पंखडि़यां अब खिल गई हैं. उस की आस पूरी हुई. पूरी औरत हो गई है वह. उस ने देखा स्वरूपानंद की धोती खुली पड़ी थी. उस ने ठीक की तो बाबा को मुसकराते देखा और चुपचाप नीचे उतर गई.

बाबा का अंश उस के गर्भ में था. वह अपनी साधना यात्रा पर गतिशील रही. उस का परिवार फलताफूलता रहा. रामस्वरूप अस्वस्थ हो गया. अधिक भांग का नशा और अस्तव्यस्त जीवन के चलते रोगों ने उसे जकड़ लिया था. बाबा ने उस का इलाज करवाया, अस्पताल में भरती भी कराया पर बिगड़ी तबीयत सुधरी ही नहीं और एक दिन वह भी चल बसा. तब उस का काम धर्मस्वरूप ने संभाला. बाबा ने उसे एक मोटरसाइकिल भी दिला दी थी. वह पढ़ालिखा था. उस का विवाह भी कर दिया.

बाबा ने जब से मंगला को अमृता के साथ देखा तभी से उन्हें लग रहा था मानो आंखों के सामने हजार बिजलियां कौंध गई हों. जब मंगला ब्याह कर आई थी तब पतलीदुबली थी. चेहरा भी मलीन हुआ रहता था पर अमृता का प्यार और उस की देखभाल तथा आश्रम के तर भोजन से उस की देह भर आई थी. जब उस के बेटा हुआ तो अमृता ने पूरे आश्रम वालों को भोजन पर बुलाया था.

उस रात बाबा ने अमृता का हाथ पकड़ कर कहा था, ‘‘मंगला तो गदरा गई है.’’

‘‘चुप, चुप करो, तुम्हारी बहू है.’’

‘‘मेरी,’’ बाबा हंसा, ‘‘जोगीअवधूत किसी के नहीं होते.’’

‘‘तुम यह किस से कह रहे हो?’’

‘‘तुझ से, तू ने मेरा बहुत माल खाया है.’’

‘‘मैं ने तुझे अपना शरीर भी तो दिया है. मुफ्त में कोई किसी को कुछ नहीं देता.’’

‘‘बहुत बोलने लग गई है.’’

‘‘याद रखना, मंगला मेरी ही नहीं तेरी भी बहू है. उस पर निगाह डाली तो आंखें नोच लूंगी.’’

‘‘यह तू कह रही है.’’

‘‘हांहां,’’ उस ने अपनी साड़ी को ठीक करते हुए कहा, ‘‘तेरा मुझ से मन भर गया है यह तो मुझे तभी पता लग गया था जब उस सेठ की लुगाई को मैं ने यहां देखा था, पर मैं तुझे यह बता देना चाहती हूं कि मेरा मुंह मत खुलवाना. सब धरा रह जाएगा…यह नाम, यह इज्जत, यह शोहरत. कइयों का बाप है तू, यह मैं जानती हूं,’’ इतना कह कर अमृता जोरों से हंसी. उस की उस हंसी में भय नहीं था एक उद्दाम अट्टहास था.

बाबा स्वरूपानंद अवाक्रह गया, फिर धीरे से बोला, ‘‘चुप कर, तेरा मुंह बंद कर दूंगा. बोल, क्या चाहिए तुझे? इतना दिया है पर तेरा मन नहीं भरा है.’’

‘‘सवाल मन का नहीं, मेरे घर का है. मंगला मेरी बहू है. शर्म कर…’’

उस रात जो तनातनी हुई थी वह बढ़ती ही जा रही थी. अमृता आश्रम में आती, अपना काम करती, मंदिर की पहले की तरह सफाई का पूरा ध्यान रखती और अपना सारा काम कर घर चली जाती.

अब फूलडोल का महोत्सव आ गया था. कई दिन से तैयारियां हो रही थीं. ठाकुरजी का शृंगार होता था. महात्मा लोग प्रवचन करने आते थे. भास्करानंद भी तभी वहां आए हुए थे. बडे़ महाराज के ये प्रिय शिष्य थे. बाद में जब स्वरूपानंदजी गद्दी पर बैठे तो वह उनियारा चले गए थे. वहां भी आश्रम था. वह वहां की गद्दी संभालते थे.

उन दिनों स्वामी मृगयानंद के आश्रम से 2 छोटे बालक भी आश्रम में आए हुए थे. कम उम्र में ही दोनों ने आश्रम में प्रवेश ले लिया था. भास्करानंद उन्हें धर्मशास्त्र पढ़ाया करते थे. उन की देखभाल अमृता के जिम्मे थी.

उस दिन जब वह रात को भंडारगृह में ताला लगवा कर लौट रही थी कि तभी रसोइया नानकचंद दूध का गिलास ले कर आ गया.

‘‘अरे, तू कहां जा रहा है?’’ वह बोली.

‘‘भास्करानंदजी ने दूध मंगवाया है.’’

‘‘वे दोनों छोटे महाराज कहां हैं?’’

‘‘एक तो कमरे में है, दूसरे को महाराज ने पढ़ने के लिए बुलाया था.’’

वह नानकचंद के साथ भास्करानंद के कक्ष की तरफ बढ़ गई.

उधर कक्ष में भास्करानंद ने बालक दीर्घायु को अपने बहुत पास बैठा लिया था और रजिस्टर पर कुछ संस्कृत में लिख कर उसे पढ़ने को दे रहे थे.

‘‘इधर देखो,’’ और उन्होंने बालक दीर्घायु का हाथ पकड़ कर अपनी दोनों जांघों के बीच खींच लिया था. वह लड़खड़ाया और तेजी से उस का मुंह उन की गोदी में आ गिरा था. जब तक बालक दीर्घायु संभलता उन्होंने उसे भींचते हुए चूमना शुरू कर दिया था.

उस के गले से निकली हलकी सी चीख को सुन कर अमृता उधर ही दौड़ी. पीछेपीछे नानकचंद भी दूध को संभालता हुआ दौड़ रहा था. अमृता दौड़ती हुई उस कक्ष के दरवाजे तक पहुंच गई और जोर का धक्का दे कर दरवाजा खोल दिया.

दरवाजा खुलने के साथ ही भास्करानंद सकपका कर दूर सरक गया था और बालक दीर्घायु घबराया हुआ अमृता के पास आ गया.

‘‘क्या कर रहा था नीच? अरे अधर्मी, तुझे शर्म नहीं आती. तेरा पुराना चिट््ठा सब को याद है. यहां ज्ञान चर्चा करने आया है…’’

‘‘तू चुप रह, तू कौन सी दूध की धुली है. यहां तुझे कौन नहीं जानता कि तू स्वरूपानंद की रखैल है.’’

‘‘चुप कर वरना मुंह नोच लूंगी.’’

तब तक स्वरूपानंद भी वहां पहुंच गया. उस ने भास्करानंद को चुप रहने का आदेश दिया और बालक दीर्घायु को ले कर वह उस के कक्ष की तरफ चला गया.

नानकचंद रसोई की तरफ और अमृता जीने से नीचे उतर कर अपने घर की तरफ बढ़ गई.

रास्ते में बाबा ने उस के कदमों की आवाज पहचान कर खंखारा. वह ठिठकी.

‘‘क्या है?’’

‘‘बहुत नाराज हो?’’

वह चुप रही.

‘‘धर्मस्वरूप को एक एसटीडी, पीसीओ खुलवा देते हैं. बाहर सड़क पर उस की दुकान बनवा देंगे.’’

सुन कर अमृता सकपकाई.

‘‘और बहू तो अपनी है, कुछ सोना उस के लिए खरीदा है, ले जाना.’’

अमृता ने सुना और आगे बढ़ गई.

धर्मस्वरूप खाना खा कर अपने कमरे में चला गया था. मंगला भी रसोई का काम पूरा कर सोने चली गई. अमृता नीचे के कमरे में पलंग पर लेटी रही पर आंखों में नींद नहीं थी. घंटे भर बाद जब अंधेरा और बढ़ गया तो वह पलंग से उठी तथा आंगन से होती हुई पीछे की गली में चल कर जीने से होती हुई सीधी आश्रम के पिछवाडे़ में पहुंच गई.

बाबा स्वरूपानंद के कमरे में हलकी रोशनी थी. यहीं पर मोगरे की टोकरी भी रखी हुई थी. चारों ओर खुशबू फैल रही थी.

‘‘आओ…’’ बाबा ने मुसकरा कर अमृता का स्वागत किया क्योंकि आज उस ने कुछ और ही सोच रखा था. बड़ा बोरा मंगवा रखा था. बंद गाड़ी की चाबी आज उसी के पास थी. तालाब के किनारे बडे़ पत्थर भी रखवा लिए थे. यानी अमृता की जल समाधि का पूरा इंतजाम हो चुका था. बाबा सोच रहा था कि अमृता बहुत बोलने लगी है, इस को भी मुक्ति मिल जाएगी.

‘‘तू तो अब पूरी पराई हो चली है,’’ बाबा ने उसे बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘ले, यह सोने का बड़ा सा हार बहू के लिए है.’’

‘‘बहू? यह तुम कह रहे हो?’’

‘‘हां,’’ बाबा का स्वर धीमा था.

बाबा उठे, बाहर का दरवाजा बंद कर दिया. हलकी सी रोशनी थी. अमृता उन के साथ बिस्तर पर थी. साड़ी मेज पर पड़ी थी. अचानक बाबा मुडे़ और तकिया उठा कर उस की गर्दन के ऊपर रख दिया.

अमृता का गला भिंच गया था. सांस नहीं ले पा रही थी. बाबा लगातार तकिए पर दबाव डालता रहा. वह उस के ऊपर आ कर बैठ गया.

वह निढाल हो गई थी. कुछ ही देर में उस की सांसें उखड़ जातीं, पर उस के पहले ही उस ने पूरी ताकत से बाबा को एक धक्का दिया. बाबा संभलता इस के पहले उस ने पास में रखा चिमटा पूरी ताकत से स्वरूपानंद के सिर पर दे मारा. वह तेजी से उठी और पास टंगी बाबा की तलवार उतार कर पूरी ताकत से बाबा की गरदन पर दे मारी. बाबा खून से लथपथ चीख रहा था.

शोर मच गया. वह तेजी से पिछवाडे़ के जीने से होती हुई नीचे उतर गई.

पुलिस आई. बाबा के बयान लिए गए. वह बोला, ‘‘मैं सो रहा था, तब किसी ने मुझ पर हमला किया. मेरे चीखने पर वह भाग गया.’’

अमृता के लिए वह कुछ नहीं बोला था. जानता था, एक शब्द भी बोला तो बदनामी उसी की होगी.

अमृता उस रात के बाद वहां नहीं दिखी. जब तक बाबा स्वरूपानंद अस्पताल से आश्रम लौटते वह उस के पहले बहुत दूर अपने परिवार के साथ जा चुकी थी. उस के घर के दरवाजे पर बहुत बड़ा ताला लटका हुआ था.

वर्जित फल: जेठ को देख कर क्या फिसली मालती?

मालती ने जिस साल बीए का का इम्तिहान पास किया था, उसी साल से उस के बड़े भाई ने उस के लिए लड़का देखना शुरू कर दिया था.

इस सिलसिले में राकेश का पता चला, जो इंटर कालेज, चंपतपुर में अंगरेजी पढ़ाता है. वे 2 भाई हैं. उन के पास 8 एकड़ जमीन है, जिस पर राकेश का बड़ा भाई खेती करता है.

राकेश के घर वालों ने मालती को देखते ही शादी के लिए हां कह दी और शादी की तारीख तय करने के लिए कहा. उन की बात सुन कर मालती की मां ने कहा, ‘‘बहनजी,

अभी लड़के ने तो लड़की देखी नहीं है. उन्हें भी लड़की दिखा दी जाए. आखिर जिंदगी तो उन दोनों को ही एकसाथ गुजारनी है.’’

इस पर राकेश की मां ने जवाब दिया, ‘‘हमारा राकेश बहुत सीधा और संकोची स्वभाव का है. हम ने उस से लड़की देखने के लिए बारबार कहा, मगर

उस ने हर बार यही कहा, ‘‘आप लोग पहले लड़की देख लीजिए. जो लड़की आप को पसंद होगी, वही मुझे भी  पसंद होगी.’’

उन की बात सुन कर सभी लोग राकेश की तारीफ करने लगे, केवल मालती ही मन मसोस कर रह गई. उसे इस बात पर गुस्सा आ रहा था कि  क्या केवल लड़के को ही हक है कि वह अपना जीवनसाथी पसंद करे, लड़की को इस का हक नहीं है? उसे इतना भी हक नहीं है कि उसे जिस  के साथ जिंदगी बितानी है, उसे शादी  के पहले एक झलक देख ले.

शादी की तारीख तय होने के साथ ही परिवार में त्योहार का सा माहौल बन गया और देखते ही देखते बरात मालती के दरवाजे पर आ गई.

मालती की सखियां उसे सजा कर जयमाल के लिए सजाए गए मंच की ओर ले कर पहुंचीं. मालती हाथों में वरमाला लिए सखियों के साथ जब मंच पर पहुंची, तो वर पर नजर पड़ते ही वह सन्न रह गई. हड्डियों का ढांचा सिर पर मौर धरे उस के सामने खड़ा था.

मालती का चेहरा अपने वर को देख कर उतर गया. उस की इच्छा हुई कि  वह जयमाल को तोड़  कर फेंक दे और वहां से भाग जाए.

कैसेकैसे सपने देखे थे उस ने अपने जीवनसाथी के बारे में और यह कैसा जोड़ मिला है.

मालती यह सब सोच ही रही थी, तभी उस की बड़ी बहन ने उस का हाथ कस कर दबा दिया. उस की चेतना लौटी और उस ने बुझे मन से राकेश के गले में जयमाल डाल दी.

वर को देख कर हर कोई उस पर टिप्पणी कर रहा था. उन की बात सुन कर कुछ जिम्मेदार औरतों ने हालात संभालते हुए कहा, ‘कुछ लोगों की सेहत शादी के बाद सुधर जाती है. जब पत्नी के हाथ का भोजन करेगा, तो उस की सेहत सुधर जाएगी.

शादी के बाद मालती जब ससुराल पहुंची, तो घर की अच्छी हालत देख कर उसे कुछ तसल्ली हुई. ससुराल में उस के रूपरंग की खूब तारीफ हुई. उस की ननद और जेठानी ने उस की सुहागरात के लिए फूलों की सेज तैयार कराई और रात के साढ़े 9 बजे वे दोनों मालती के साथ हंसीमजाक करते हुए उस के कमरे में छोड़ आईं.

रात 10 बजे राकेश ने कमरे में प्रवेश किया, तो उस का दिल तेजी से धड़कने लगा. राकेश ने उस का घूंघट उठाया, तो मालती का खूबसूरत चेहरा देख कर उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वह देर तक मालती का मुंह चूमता रहा और उस के शरीर को प्यार से सहलाता रहा.

जब राकेश ने पहली बार संबंध बनाया, तो वह एक मिनट भी नहीं टिक सका. इस के बाद उस रात को उस ने 2 बार संबंध बनाया, पर दोनों बार वह एक मिनट से आधे मिनट के अंदर ही पस्त हो गया. मालती सारी रात प्यासी मछली की तरह छटपटाती रही.

मालती 5 दिन तक ससुराल में रही और हर रात उसे ऐसे ही दुखदायी हालात से गुजरना पड़ा.

मालती जब अपने मायके पहुंची, तो अपनी मां और भाभी के गले लग कर खूब रोई. उस की भाभी द्वारा रोने की वजह बारबार पूछे जाने पर उस ने सारी बात उन्हें बता दी.

2 महीने बाद राकेश बड़े भाई सुरेश के साथ ससुराल गया और मालती को विदा करा कर ले आया.

घर में परदा प्रथा होने के चलते भयंकर गरमी में भी मालती को राकेश के साथ बंद कमरे में ही सोना पड़ता था. उस के कमरे के आगे बने बरामदे में उस के जेठजेठानी सोते थे और उस के सासससुर छत पर सोते थे.

एक रात जब राकेश एक मिनट में अपनी मर्दानगी दिखा कर खर्राटे भर रहा था और मालती काम की आग में जलते हुए सोने की कोशिश कर रही थी, तभी बरामदे में चारपाई के चरमराने और औरत के सीत्कार की आवाज उसे सुनाई दी. यह आवाज तकरीबन 20 मिनट तक उस के कानों में गूंजती हुई उस की तड़प को बढ़ाती रही.

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अगले दिन फुरसत के पलों में मालती ने अपनी जेठानी को बातों ही बातों में आभास करा दिया कि कल रात जब वह जेठजी के साथ धमाचौकड़ी मचा रही थी, तो वह जाग रही थी.

मालती की जेठानी यह सुन कर शर्म से पानीपानी हो गई, फिर सफाई देते हुए बोली, ‘‘क्या करूं, रात में भोजन करने के बाद उन्हें होश ही नहीं रहता है. मेरे शरीर को तो वे रूई की तरह धुन कर रख देते हैं. उस समय इन के शरीर में बिजली जैसी फुरती और घोड़े जैसी ताकत आ जाती है. घंटों छोड़ते ही नहीं. मैं तो बेदम हो जाती हूं और अगले दिन घर का काम निबटाने में भी मुश्किल हो जाती है.’’

जेठानी की बात सुन कर मालती का मन हुआ कि वह अपनी छाती पीट ले, मगर उस ने हंस कर कहा, ‘‘तुम जेठजी को मनमानी करने दो, घर का काम मैं संभाल लूंगी.’’

इस चर्चा का नतीजा यह हुआ कि उस रात मालती की जेठानी बरामदे में न लेट कर अपने कमरे में जा कर लेट गई. रात में जब उस के जेठ ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘वहां क्यों गरमी में सड़ रही हो. यहां बाहर ठंडी हवा में क्यों  नहीं लेटती?’’

‘‘आज मैं कमरे में ही लेटूंगी. तुम्हें वहां लेटना हो तो लेटो,’’ जेठानी ने कमरे से ही जवाब दिया.

मालती अपने कमरे में लेटी उन दोनों की बातचीत सुन रही थी. राकेश  मालती को कुछ क्षणों में अपनी मर्दानगी दिखा कर हांफता हुआ एक तरफ को लुढ़क गया और जल्दी ही गहरी नींद में सो गया. मगर मालती को आधी रात तक नींद ही नहीं आई. इस बीच वह अपने कमरे से बाहर निकली. बरामदे में उस के जेठ खर्राटे भर रहे थे.

बाथरूम से जब वह वापस लौटी,  तो जेठ की चारपाई के पास आ कर उस के पैर ठिठक गए. उस ने एक क्षण रुक कर पूरे घर का जायजा लिया. घोर सन्नाटा पसरा हुआ था. उसे इतमीनान हो गया कि सभी लोग गहरी नींद में सो रहे हैं. वह हिम्मत कर के सुरेश की चारपाई पर उस से चिपक कर लेट गई.

नशे में चूर सुरेश की नींद जल्दी ही खुल गई और उस ने मालती को दबोच कर संबंध बनाना शुरू कर दिया. जल्दी ही मालती की झिझक दूर हो गई और वह भी सुरेश का साथ देने लगी.

जब सुरेश की पकड़ धीमी पड़ी, तब तक मालती संतुष्ट हो चुकी थी. पसीने से लथपथ सुरेश ने जब उसे छोड़ा, तभी उस की नजर मालती के चेहरे पर पड़ी. उस ने चौंक कर कहा, ‘‘तुम…?’’

तभी मालती ने सुरेश के मुंह पर हाथ रख कर कहा, ‘‘आप ने एक प्यासी की आज प्यास बुझाई है. आप के भाई तो किसी लायक हैं नहीं, मजबूरन मुझे अपनी प्यास बुझाने के लिए आप के पास आना पड़ा.’’

मालती चुपचाप अपने कमरे में आ कर सो गई.

इस के बाद से तो वह हर दूसरेतीसरे दिन रात को उठ कर सुरेश के पास जा कर अपनी प्यास बुझाने लगी.

सुरेश ने 2-3 बार तो संकोच का अनुभव किया, मगर फिर वह भी हर रात को मालती का इंतजार करने लगा. उस की अपनी पत्नी तो बच्चे पालने में ही परेशान रहती थी, फिर उम्र के साथ ही उस का जोश भी कम होता जा  रहा था.

सर्दियों में मालती ने सुरेश से नींद की गोलियां मंगवा लीं और रोजाना खाने में नींद की गोलियां डाल कर राकेश और अपनी जेठानी को देने लगी.

सुरेश अब दिनभर चौपाल में पड़ा सोता रहता और रात में राकेश के सोने के बाद उस के कमरे में घुस जाता और मालती के साथ मजे लेता.

मगर, एक रात सुरेश की मां जब आंगन में शौचालय जा रही थीं, तभी सुरेश को मालती के कमरे से निकल कर अपने कमरे में जाते हुए देख लिया. वे दबे पैर मालती के कमरे में गईं, राकेश खर्राटे भर रहा था.

उन्होंने मालती को बाल पकड़ कर उठाया और बोलीं, ‘‘वर्जित फल खाते हुए शर्म नहीं आई तु?ो कुलच्छिनी?’’

मालती चोरी पकड़े जाने पर पहले तो सकपकाई, मगर फिर संभल कर बोली, ‘‘भूख पर एक सीमा तक ही काबू रखा जा सकता है अम्मां. वर्जित फल स्वाद के लिए नहीं, मजबूरी में खाती हूं. तुम्हारे बेटे को तो औरत की जरूरत  ही नहीं है.  मैं उन के सहारे नहीं रह सकूंगी अम्मां.’’

उन दोनों की बातचीत सुन कर राकेश भी जाग गया था. उसे अपनी कमजोरी का अहसास तो था ही, इसीलिए वह चुपचाप सिर झुका कर कमरे के बाहर निकल गया.

सब से बड़ा रुपय्या : अपनों ने दिखाया असली रंग

घर के कामों के बोझ से लदीफदी सरिता को कमर सीधी करने की फुरसत भी बड़ी कठिनाई से मिला करती थी. आमदनी बढ़ाने के लिए शेखर भी ओवरटाइम करता. अपनी जरूरतें कम कर के भविष्य के लिए रुपए जमा करता. सरिता भी घर का सारा काम अपने हाथों से कर के सीमित बजट में गुजारा करती थी. सेवानिवृत्त होते ही समय जैसे थम गया. सबकुछ शांत हो गया. पतिपत्नी की भागदौड़ समाप्त हो गई. शेखर ने बचत के रुपयों से मनपसंद कोठी बना ली.

हरेभरे पेड़पौधे से सजेधजे लान में बैठने का उस का सपना अब जा कर पूरा हुआ था. बेटा पारस की इंजीनियरिंग की शिक्षा, फिर उस का विवाह सभी कुछ शेखर की नौकरी में रहते हुए ही हो चुका था. पारस अब नैनीताल में पोस्टेड है. बेटी प्रियंका, पति व बच्चों के साथ चेन्नई में रह रही थी. दामाद फैक्टरी का मालिक था. शेखर ने अपनी कोठी का आधा हिस्सा किराए पर उठा दिया था.

किराए की आमदनी, पैंशन व बैंक में जमा रकम के ब्याज से पतिपत्नी का गुजारा आराम से चल रहा था. घर में सुखसुविधा के सारे साधन उपलब्ध थे. सरिता पूरे दिन टैलीविजन देखती, आराम करती या ब्यूटी पार्लर जा कर चेहरे की झुर्रियां मिटवाने को फेशियल कराती.

शेखर हंसते, ‘‘तुम्हारे ऊपर बुढ़ापे में निखार आ गया है. पहले से अधिक खूबसूरत लगने लगी हो.’’

शेखर व सरिता सर्दी के मौसम में प्रियंका के घर चेन्नई चले जाते और गरमी का मौसम जा कर पारस के घर नैनीताल में गुजारते.

पुत्रीदामाद, बेटाबहू सभी उन के सम्मान में झुके रहते. दामाद कहता, ‘‘आप मेरे मांबाप के समान हैं. जैसे वे लोग, वैसे ही आप दोनों. बुजर्गों की सेवा नसीब वालों को ही मिला करती हैं.’’

शेखरसरिता अपने दामाद की बातें सुन कर गदगद हो उठते. दामाद उन्हें अपनी गाड़ी में बैठा कर चेन्नई के दर्शनीय स्थलों पर घुमाता, बढ़िया भोजन खिलाता. नौकरानी रात को दूध का गिलास दे जाती.

सेवा करने में बहूबेटा भी कम नहीं थे. बहू अपने सासससुर को बिस्तर पर ही भोजन की थाली ला कर देती और धुले कपड़े पहनने को मिलते.

बहूबेटों की बुराइयां करने वाली औरतों पर सरिता व्यंग्य कसती कि तुम्हारे अंदर ही कमी होगी कि तुम लोग बहुओं को सताती होंगी. मेरी बहू को देखो, मैं उसे बेटी मानती हूं तभी तो वह मुझे सुखआराम देती है.

शेखर भी दामाद की प्रशंसा करते न अघाते. सोचते, पता नहीं क्यों लोग दामाद की बुराई करते हैं और उसे यमराज कह कर उस की सूरत से भी भय खाते हैं.

एक दिन प्रियंका का फोन आया. उस की आवाज में घबराहट थी, ‘‘मां गजब हो गया. हमारे घर में, फैक्टरी में सभी जगह आयकर वालों का छापा पड़ गया है और वे हमारे जेवर तक निकाल कर ले गए…’’

तभी शेखर सरिता के हाथ से फोन छीन कर बोले, ‘‘यह सब कैसे हो गया बेटी?’’

‘‘जेठ के कारण. सारी गलती उन्हीें की है. सारा हेरफेर वे करते हैं और उन की गलती का नतीजा हमें भोगना पड़ता है,’’ प्रियंका रो पड़ी.

शेखर बेटी को सांत्वना देते रह गए और फोन कट गया. वे धम्म से कुरसी पर बैठ गए. लगा जैसे शरीर में खड़े रहने की ताकत नहीं रह गई है. और सरिता का तो जैसे मानसिक संतुलन ही खो गया. वह पागलों की भांति अपने सिर के बाल नोचने लगी.

शेखर ने अपनेआप को संभाला. सरिता को पानी पिला कर धैर्य बंधाया कि अवरोध तो आते ही रहते हैं, सब ठीक हो जाएगा.

एक दिन बेटीदामाद उन के घर आ पहुंचे. संकोच छोड़ कर प्रियंका अपनी परेशानी बयान करने लगी, ‘‘पापा, हम लोग जेठजिठानी से अलग हो रहे हैं. इन्हें नए सिरे से काम जमाना पडे़गा. कोठी छोड़ कर किराए के मकान में रहना पडे़गा. काम शुरू करने के लिए लाखों रुपए चाहिए. हमें आप की मदद की सख्त जरूरत है.’’

दामाद हाथ जोड़ कर सासससुर से विनती करने लगा, ‘‘पापा, आप लोगों का ही मुझे सहारा है, आप की मदद न मिली तो मैं बेरोजगार हो जाऊंगा. बच्चों की पढ़ाई रुक जाएगी.’’

शेखर व सरिता अपनी बेटी व दामाद को गरीबी की हालत में कैसे देख सकते थे. दोनों सोचविचार करने बैठ गए. फैसला यह लिया कि बेटीदामाद की सहायता करने में हर्ज ही क्या है? यह लोग सहारा पाने और कहां जाएंगे.

अपने ही काम आते हैं, यह सोच कर शेखर ने बैंक में जमा सारा रुपया निकाल कर दामाद के हाथों में थमा दिया. दामाद ने उन के पैरों पर गिर कर कृतज्ञता जाहिर की और कहा कि वह इस रकम को साल भर के अंदर ही वापस लौटा देगा.

शेखरसरिता को रकम देने का कोई मलाल नहीं था. उन्हें भरोसा था कि दामाद उन की रकम को ले कर जाएगा कहां, कह रहा है तो लौटाएगा अवश्य. फिर उन के पास जो कुछ भी है बच्चों के लिए ही तो है. बच्चों की सहायता करना उन का फर्ज है. दामाद उन्हें मांबाप के समान मानता है तो उन्हें भी उसे बेटे के समान मानना चाहिए. अपना फर्ज पूरा कर के दंपती राहत का आभास कर रहे थे.

बेटे पारस का फोन आया तो मां ने उसे सभी कुछ स्पष्ट रूप से बता दिया.

तीसरे दिन ही बेटाबहू दोनों आकस्मिक रूप से दिल्ली आ धमके. उन्हें इस तरह आया देख कर शेखर व सरिता हतप्रभ रह गए. ‘‘बेटा, सब ठीक है न?’’ शेखर उन के इस तरह अचानक आने का कारण जानने के लिए उतावले हुए जा रहे थे.

‘‘सब ठीक होता तो हमें यहां आने की जरूरत ही क्या थी,’’ तनावग्रस्त चेहरे से पारस ने जवाब दिया.

बहू ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘‘आप लोगों ने अपने खूनपसीने की कमाई दामाद को दे डाली, यह भी नहीं सोचा कि उन रुपयों पर आप के बेटे का भी हक बनता है.’’

बहू की बातें सुन कर शेखर हक्केबक्के रह गए. वह स्वयं को संयत कर के बोले, ‘‘उन लोगों को रुपए की सख्त जरूरत थी. फिर उन्होंने रुपया उधार ही तो लिया है, ब्याज सहित चुका देंगे.’’

‘‘आप ने रुपए उधार दिए हैं, इस का कोई सुबूत आप के पास है? आप ने उन के साथ कानूनी लिखापढ़ी करा ली है?’’

‘‘वे क्या पराए हैं जो कानूनी लिखापढ़ी कराई जाती और सुबूत रखे जाते.’’

‘‘पापा, आप भूल रहे हैं कि रुपया किसी भी इनसान का ईमान डिगा सकता है.’’

‘‘मेरा दामाद ऐसा इनसान नहीं है.’’

सरिता बोली, ‘‘प्रियंका भी तो है. वह क्या दामाद को बेईमानी करने देगी.’’

‘‘यह तो वक्त बताएगा कि वे लोग बेईमान हैं या ईमानदार. पर पापा, आप यह मकान मेरे नाम कर दें. कहीं ऐसा न हो कि आप बेटीदामाद के प्रेम में अंधे हो कर मकान भी उन के नाम कर डालें.’’

बेटे की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न रह गए. हमेशा मानसम्मान करने वाले, सलीके से पेश आने वाले बेटाबहू इस प्रकार का अशोभनीय व्यवहार क्यों कर रहे हैं, यह उन की समझ में नहीं आ रहा था.

आखिरकार बेटाबहू इस शर्त पर शांत हुए कि बेटीदामाद ने अगर रुपए वापस नहीं किए तो उन के ऊपर मुकदमा चलाया जाएगा.

बेटाबहू कई तरह की हिदायतें दे कर नैनीताल चले गए पर शेखर व सरिता के मन पर चिंताओं का बोझ आ पड़ा था. सोचते, उन्होंने बेटीदामाद की सहायता कर के क्या गलती की है. रुपए बेटी के सुख से अधिक कीमती थोड़े ही थे.

हफ्ते में 2 बार बेटीदामाद का फोन आता तो दोनों पतिपत्नी भावविह्वल हो उठते. दामाद बिलकुल हीरा है, बेटे से बढ़ कर अपना है. बेटा कपूत बनता जा रहा है, बहू के कहने में चलता है. बहू ने ही पारस को उन के खिलाफ भड़काया होगा.

अब शेखर व सरिता उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे, जब दामाद उन का रुपया लौटाने आएगा और वे सारा रुपया उठा कर बेटाबहू के मुंह पर मार कर कहेंगे कि इसी रुपए की खातिर तुम लोग रिश्तों को बदनाम कर रहे थे न, लो रखो इन्हें.

कुछ माह बाद ही बेटीदामाद का फोन आना बंद हो गया तो शेखरसरिता चिंतित हो उठे. वे अपनी तरफ से फोन मिलाने का प्रयास कर रहे थे पर पता नहीं क्यों फोन पर प्रियंका व दामाद से बात नहीं हो पा रही थी.

हर साल की तरह इस साल भी शेखर व सरिता ने चेन्नई जाने की तैयारी कर ली थी और बेटीदामाद के बुलावे की प्रतीक्षा कर रहे थे.

एक दिन प्रियंका का फोन आया तो शेखर ने उस की खैरियत पूछने के लिए प्रश्नों की झड़ी लगा दी पर प्रियंका ने सिर्फ यह कह कर फोन रख दिया कि वे लोग इस बार चेन्नई न आएं, क्योंकि नए मकान में अधिक जगह नहीं है.

शेखरसरिता बेटी से ढेरों बातें करना चाहते थे. दामाद के व्यवसाय के बारे में पूछना चाहते थे. अपने रुपयों की बात करना चाहते थे. पर प्रियंका ने कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया.

बेटीदामाद की इस बेरुखी का कारण उन की समझ में नहीं आ रहा था.

देखतेदेखते साल पूरा हो गया. एक दिन हिम्मत कर के शेखर ने बेटी से रुपए की बाबत पूछ ही लिया.

प्रियंका जख्मी शेरनी की भांति गुर्रा उठी, ‘‘आप कैसे पिता हैं कि बेटी के सुख से अधिक आप को रुपए प्यारे हैं. अभी तो इन का काम शुरू ही हुआ है, अभी से एकसाथ इतना सारा रुपया निकाल लेंगे तो आगे काम कैसे चलेगा?’’

दामाद चिंघाड़ कर बोला, ‘‘मेरे स्थान पर आप का बेटा होता तो क्या आप उस से भी वापस मांगते? आप के पास रुपए की कमी है क्या? यह रुपया आप के पास बैंक में फालतू पड़ा था, मैं इस रुपए से ऐश नहीं कर रहा हूं, आप की बेटी को ही पाल रहा हूं.’’

पुत्रीदामाद की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न कर रह गए और रुपए वापस मिलने की तमाम आशाएं निर्मूल साबित हुईं. उलटे वे उन के बुरे बन गए. रुपया तो गया ही साथ में मानसम्मान भी चला गया.

पारस का फोन आया, ‘‘पापा, रुपए मिल गए?”

शेखर चकरा गए कि क्या उत्तर दें. संभल कर बोले, ‘‘दामाद का काम जम जाएगा तो रुपए भी आ जाएंगे.’’

‘‘पापा, साफ क्यों नहीं कहते कि दामाद ने रुपए देने से इनकार कर दिया. वह बेईमान निकल गया,’’ पारस दहाड़ा.

सरिता की आंखों से आंसू बह निकले, वह रोती हुई बोलीं, ‘‘बेटा, तू ठीक कह रहा है. दामाद सचमुच बेईमान है, रुपए वापस नहीं करना चाहता.’’

‘‘उन लोगों पर धोखाधड़ी करने का मुकदमा दायर करो,’’ जैसे सैकड़ों सुझाव पारस ने फोन पर ही दे डाले थे.

शेखर व सरिता एकदूसरे का मुंह देखते रह गए. क्या वे बेटीदामाद के खिलाफ यह सब कर सकते थे.

चूंकि वे अपनी शर्त पर कायम नहीं रह सके, इसलिए पारस मकान अपने नाम कराने दिल्ली आ धमका. पुत्रीदामाद से तो संबंध टूट ही चुके हैं, बहूबेटा से न टूट जाएं, यह सोच कर दोनों ने कोठी का मुख्तियारनामा व वसीयतनामा सारी कानूनी काररवाई कर के पूरे कागजात बेटे को थमा दिए.

पारस संतुष्ट भाव से चला गया.

‘‘बोझ उतर गया,’’ शेखर ने सरिता की तरफ देख कर कहा, ‘‘अब न तो मकान की रंगाईपुताई कराने की चिंता न हाउस टैक्स जमा कराने की. पारस पूरी जिम्मेदारी निबाहेगा.’’

सरिता को न जाने कौन सा सदमा लग गया कि वह दिन पर दिन सूखती जा रही थी. उस की हंसी होंठों से छिन चुकी थी, भूखप्यास सब मर गई. बेटीबेटा, बहूदामाद की तसवीरोें को वह एकटक देखती रहतीं या फिर शून्य में घूरती रह जाती.

शेखर दुखी हो कर बोला, ‘‘तुम ने अपनी हालत मरीज जैसी बना ली. बालों पर मेहंदी लगाना भी बंद कर दिया, बूढ़ी लगने लगी हो.’’

सरिता दुखी मन से कहने लगी,‘‘हमारा कुछ भी नहीं रहा, हम अब बेटाबहू के आश्रित बन चुके हैं.’’

‘‘मेरी पैंशन व मकान का किराया तो है. हमें दूसरों के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ शेखर जैसे अपनेआप को ही समझा रहे थे.

जब किराएदार ने महीने का किराया नहीं दिया तो शेखर ने खुद जा कर शिकायती लहजे में किराएदार से बात की और किराया न देने का कारण पूछा.

किराएदार ने रसीद दिखाते हुए तीखे स्वर में उत्तर दिया कि वह पारस को सही वक्त पर किराए का मनीआर्डर भेज चुका है.

‘‘पारस को क्यों?’’

‘‘क्योेंकि मकान का मालिक अब पारस है,’’ किराएदार ने नया किरायानामा निकाल कर शेखर को दिखा दिया. जिस पर पारस के हस्ताक्षर थे.

शेखर सिर पकड़ कर रह गए कि सिर्फ मामूली सी पैंशन के सहारे अब वह अपना गुजारा कैसे कर पाएंगे.

‘‘बेटे पर मुकदमा करो न,’’ सरिता पागलों की भांति चिल्ला उठी, ‘‘सब बेईमान हैं, रुपयों के भूखे हैं.’’

शेखर कहते, ‘‘हम ने अपनी संतान के प्रति अपना फर्ज पूरा किया है. हमारी मृत्यु के बाद तो उन्हें मिलना ही था, पहले मिल गया. इस से भला क्या फर्क पड़ गया.’’

सरिता बोली, ‘‘बेटीदामाद, बेटाबहू सभी हमारी दौलत के भूखे थे. दौलत के लालच में हमारे साथ प्यारसम्मान का ढोंग करते रहे. दौलत मिल गई तो फोन पर बात करनी भी छोड़ दी.’’

पतिपत्नी दोनों ही मानसिक वेदना से पीड़ित हो चुके थे. घर पराया लगता, अपना खून पराया हो गया तो अपना क्या रह गया.

एक दिन शेखर अलमारी में पड़ी पुरानी पुस्तकों में से होम्योपैथिक चिकित्सा की पुस्तक तलाश कर रहे थे कि अचानक उन की निगाहों के सामने पुस्तकों के बीच में दबा बैग आ गया और उन की आंखें चमक उठीं.

बैग के अंदर उन्होंने सालोें पहले इंदिरा विकासपत्र व किसान विकासपत्र पोस्ट औफिस से खरीद कर रखे हुए थे. जिस का पता न बेटाबेटी को था, न सरिता को, यहां तक कि खुद उन्हें भी याद नहीं रहा था.

मुसीबत में यह 90 हजार रुपए की रकम उन्हें 90 लाख के बराबर लग रही थी. उन के अंदर उत्साह उमड़ पड़ा. जैसे फिर से युवा हो उठे हों. हफ्ते भर के अंदर ही उन्होंने लान के कोने में टिन शैड डलवा कर एक प्रिंटिंग प्रैस लगवा ली. कुछ सामान पुराना भी खरीद लाए और नौकर रख लिए.

सरिता भी इसी काम में व्यस्त हो गई. शेखर बाहर के काम सभांलता तो सरिता दफ्तर में बैठती.

शेखर हंस कर कहते, ‘‘हम लोग बुढ़ापे का बहाना ले कर निकम्मे हो गए थे. संतान ने हमें बेरोजगार इनसान बना दिया. अब हम दोनों काम के आदमी बन गए हैं.’’

सरिता मुसकराती, ‘‘कभीकभी कुछ भूल जाना भी अच्छा रहता है. तुम्हारे भूले हुए बचत पत्रों ने हमारी दुनिया आबाद कर दी. यह रकम न मिलती तो हमें अपना बाकी का जीवन बेटीदामाद और बेटाबहू की गुलामी करते हुए बिताना पड़ता. अब हमें बेटीदामाद, बेटाबहू सभी को भुला देना ही उचित रहेगा. हम उन्हें इस बात का एहसास दिला देंगे कि उन की सहायता लिए बगैर भी हम जी सकते हैं और अपनी मेहनत की रोटी खा सकते हैं. हमें उन के सामने हाथ फैलाने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

सरिता व शेखर के चेहरे आत्मविश्वास से चमक रहे थे, जैसे उन का खोया सुकून फिर से वापस लौट आया हो.

सरिता : भगोड़े पति की हिम्मती पत्नी

जिलाधीश राहुल की कार झांसी शहर की गलियों को पार करते हुए शहर के बाहर एक पुराने मंदिर के पास जा कर रुक गई. जिलाधीश की मां कार से उतर कर मंदिर की सीढियां चढ़ने लगीं.

‘‘मां, तेरा सुहाग बना रहे,’’ पहली सीढ़ी पर बैठे हुए भिखारी ने कहा.

सरिता की आंखों में आंसू आ गए. उस ने 1 रुपए का सिक्का उस के कटोरे में डाला और सोचने लगी, कहां होगा सदाशिव?

सरिता को 15 साल पहले की अपनी जिंदगी का वह सब से कलुषित दिन याद आ गया जब दोनों बच्चे राशि व राहुल 8वीं और 9वीं में पढ़ते थे और वह खुद एक निजी स्कूल में पढ़ाती थी. पति सदाशिव एक फैक्टरी में भंडार प्रभारी थे. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. एक दिन वह स्कूल से घर आई तो बच्चे उदास बैठे थे.

‘क्या हुआ बेटा?’

‘मां, पिताजी अभी तक नहीं आए.’

सरिता ने बच्चों को ढाढ़स बंधाया कि पिताजी किसी जरूरी काम की वजह से रुक गए होंगे. जब एकडेढ़ घंटा गुजर गया और सदाशिव नहीं आए तो उस ने राशि को घनश्याम अंकल के घर पता करने भेजा. घनश्याम सदाशिव की फैक्टरी में ही काम करते थे.

कुछ समय बाद राशि वापस आई तो उस का चेहरा उतरा हुआ था. उस ने आते ही कहा, ‘मां, पिताजी को आज चोरी के अपराध में फैक्टरी से निकाल दिया गया है.’

‘यह सच नहीं हो सकता. तुम्हारे पिता को फंसाया गया है.’

‘घनश्याम चाचा भी यही कह रहे थे. परंतु पिताजी घर क्यों नहीं आए?’ राशि ने कहा.

रात भर पूरा परिवार जागता रहा. दूसरे दिन बच्चों को स्कूल भेजने के बाद सरिता सदाशिव की फैक्टरी पहुंची तो उसे हर जगह अपमान का घूंट ही पीना पड़ा. वहां जा कर सिर्फ इतना पता चल सका कि भंडार से काफी सामान गायब पाया गया है. भंडार प्रभारी होने के नाते सदाशिव को दोषी करार दिया गया और उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया.

सरिता घर आ कर सदाशिव का इंतजार करने लगी. दिन भर इंतजार के बाद उस ने शाम को पुलिस में रिपोर्ट लिखवा दी.

अगले दिन पुलिस तफतीश के लिए घर आई तो पूरे महल्ले में खबर फैल गई कि सदाशिव फैक्टरी से चोरी कर के भाग गया है और पुलिस उसे ढूंढ़ रही है. इस खबर के बाद तो पूरा परिवार आतेजाते लोगों के हास्य का पात्र बन कर रह गया.

सरिता ने सारे रिश्तेदारों को पत्र भेजा कि सदाशिव के बारे में कोई जानकारी हो तो तुरंत सूचित करें. अखबार में फोटो के साथ विज्ञापन भी निकलवा दिया.

इस मुसीबत ने राहुल और राशि को समय से पहले ही वयस्क बना दिया था. वह अब आपस में बिलकुल नहीं लड़ते थे. दोनों ने स्कूल के प्राचार्य से अपनी परिस्थितियों के बारे में बात की तो उन्होंने उन की फीस माफ कर दी.

राशि ने शाम को बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया. राहुल ने स्कूल जाने से पहले अखबार बांटने शुरू कर दिए. सरिता की तनख्वाह और बच्चों की इस छोटी सी कमाई से घर का खर्च किसी तरह से चलने लगा.

इनसान के मन में जब किसी वस्तु या व्यक्ति विशेष को पाने की आकांक्षा बहुत बढ़ जाती है तब उस का मन कमजोर हो जाता है और इसी कमजोरी का लाभ दूसरे लोग उठा लेते हैं.

सरिता इसी कमजोरी में तांत्रिकों के चक्कर में पड़ गई थी. उन की बताई हुई पूजा के लिए कुछ गहने भी बेच डाले. अंत में एक दिन राशि ने मां को समझाया तब सरिता ने तांत्रिकों से मिलना बंद किया.

कुछ माह के बाद ही सरिता अचानक बीमार पड़ गई. अस्पताल जाने पर पता चला कि उसे टायफाइड हुआ है. बताया डाक्टरों ने कि इलाज लंबा चलेगा. यह राशि और राहुल की परीक्षा की घड़ी थी.

ट्यूशन पढ़ाने के साथसाथ राशि लिफाफा बनाने का काम भी करने लगी. उधर राहुल ने अखबार बांटने के अलावा बरात में सिर पर ट्यूबलाइट ले कर चलने वाले लड़कों के साथ भी मजदूरी की. सिनेमा की टिकटें भी ब्लैक में बेचीं. दोनों के कमाए ये सारे पैसे मां की दवाई के काम आए.

‘तुम्हें यह सब करते हुए गलत नहीं लगा?’ सरिता ने ठीक होने पर दोनों बच्चों से पूछा.

‘नहीं मां, बल्कि मुझे जिंदगी का एक नया नजरिया मिला,’ राहुल बोला, ‘मैं ने देखा कि मेरे जैसे कई लोग आंखों में भविष्य का सपना लिए परिस्थितियों से संघर्ष कर रहे हैं.’

दोनों बच्चों को वार्षिक परीक्षा में स्कूल में प्रथम आने पर अगले साल से छात्रवृत्ति मिलने लगी थी. घर थोड़ा सुचारू रूप से चलने लगा था.

सरिता को विश्वास था कि एक दिन सदाशिव जरूर आएगा. हर शाम वह अपने पति के इंतजार में खिड़की के पास बैठ कर आनेजाने वालों को देखा करती और अंधेरा होने पर एक ठंडी सांस छोड़ कर खाना बनाना शुरू करती.

इस तरह साल दर साल गुजरते चले गए. राशि और राहुल अपनी मेहनत से अच्छी नौकरी पर लग गए. राशि मुंबई में नौकरी करने लगी है. उस की शादी को 3 साल गुजर गए. राहुल भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में उत्तीर्ण हो कर झांसी में जिलाधीश बन गया. 1 साल पहले उस ने भी अपने दफ्तर की एक अधिकारी सीमा से शादी कर ली.

सरिता की तंद्रा भंग हुई. वह वर्तमान में वापस आ गई. उस ने देखा कि बाहर काफी अंधेरा हो गया है. हमेशा की तरह उस ने सदाशिव के लिए प्रार्थना की और घर के लिए रवाना हो गई.

‘‘मां, बहुत देर कर दी,’’ राहुल ने कहा.

सरिता ने राहुल और सीमा को देखा और उन का आशय समझ कर चुपचाप खाना खाने लगी.

‘‘बेटा, यहां से कुछ लोग जयपुर जा रहे हैं. एक पूरी बस कर ली है. सोचती हूं कि मैं भी उन के साथ हो आऊं.’’

‘‘मां, अब आप एक जिलाधीश की भी मां हो. क्या आप का उन के साथ इस तरह जाना ठीक रहेगा?’’ सीमा ने कहा.

सरिता ने सीमा से बहस करने के बजाय, प्रश्न भरी नजरों से राहुल की ओर देखा.

‘‘मां, सीमा ठीक कहती है. अगले माह हम सब कार से अजमेर और फिर जयपुर जाएंगे. रास्ते में मथुरा पड़ता है, वहां भी घूम लेंगे.’’

अगले महीने वे लोग भ्रमण के लिए निकल पड़े. राहुल की कार ने मथुरा में प्रवेश किया. मथुरा के जिलाधीश ने उन के ठहरने का पूरा इंतजाम कर के रखा था. खाना खाने के बाद सब लोग दिल्ली के लिए रवाना हो गए. थोड़ी दूर चलने पर कार को रोकना पड़ा क्योंकि सामने से एक जुलूस आ रहा था.

‘‘इस देश में लोगों के पास बहुत समय है. किसी भी छोटी सी बात पर आंदोलन शुरू हो जाता है या फिर जुलूस निकल जाता है,’’ सीमा ने कहा.

राहुल हंस दिया.

सरिता खिड़की के बाहर आतेजाते लोगों को देखने लगी. उस की नजर सड़क के किनारे चाय पीते हुए एक आदमी पर पड़ गई. उसे लगा जैसे उस की सांस रुक गई हो.

वही तो है. सरिता ने अपने मन से खुद ही सवाल किया. वही टेढ़ी गरदन कर के चाय पीना…वही जोर से चुस्की लेना…सरिता ने कई बार सदाशिव को इस बात पर डांटा भी था कि सभ्य इनसानों की तरह चाय पिया करो.

चाय पीतेपीते उस व्यक्ति की निगाह भी कार की खिड़की पर पड़ी. शायद उसे एहसास हुआ कि कार में बैठी महिला उसे घूर रही है. सरिता को देख कर उस के हाथ से प्याली छूट गई. वह उठा और भीड़ में गायब हो गया.

उसी समय जुलूस आगे बढ़ गया और कार पूरी रफ्तार से दिल्ली की ओर दौड़ पड़ी. सरिता अचानक सदाशिव की इस हरकत से हतप्रभ सी रह गई और कुछ बोल भी नहीं पाई.

दिल्ली में वे लोग राहुल के एक मित्र के घर पर रुके.

रात को सरिता ने राहुल से कहा, ‘‘बेटा, मैं जयपुर नहीं जाना चाहती.’’

‘‘क्यों, मां?’’ राहुल ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘क्या मेरा जयपुर जाना बहुत जरूरी है?’’

‘‘हम आप के लिए ही आए हैं. आप की इच्छा जयपुर जाने की थी. अब क्या हुआ? आप क्या झांसी वापस जाना चाहती हैं.’’

‘‘झांसी नहीं, मैं मथुरा जाना चाहती हूं.’’

‘‘मथुरा क्यों?’’

‘‘मुझे लगता है कि जुलूस वाले स्थान पर मैं ने तेरे पिताजी को देखा है.’’

‘‘क्या कर रहे थे वह वहां पर?’’ राहुल ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैं ने उन्हें सड़क के किनारे बैठे देखा था. मुझे देख कर वह भीड़ में गायब हो गए,’’ सरिता ने कहा.

‘‘मां, यह आप की आंखों का धोखा है. यदि यह सच भी है तो भी मुझे उन से नफरत है. उन के कारण ही मेरा बचपन बरबाद हो गया.’’

‘‘मैं जयपुर नहीं मथुरा जाना चाहती हूं. मैं तुम्हारे पिताजी से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘मां, मैं आप के मन को दुखाना नहीं चाहता पर आप उस आदमी को मेरा पिता मत कहो. रही मथुरा जाने की बात तो हम जयपुर का मन बना कर निकले हैं. लौटते समय आप मथुरा रुक जाना.’’

सरिता कुछ नहीं बोली.

सदाशिव अपनी कोठरी में लेटे हुए पुराने दिनों को याद कर रहा था.

3 दिन पहले कार में सरिता थी या कोई और? यह प्रश्न उस के मन में बारबार आता था. और दूसरे लोग कौन थे?

आखिर उस की क्या गलती थी जो उसे अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़ कर एक गुमनाम जिंदगी जीने पर मजबूर होना पड़ा. बस, इतना ही न कि वह इस सच को साबित नहीं कर सका कि चोरी उस ने नहीं की थी. वह मन से एक कमजोर इनसान है, तभी तो बीवी व बच्चों को उन के हाल पर छोड़ कर भाग खड़ा हुआ था. अब क्या रखा है इस जिंदगी में?

‘खटखट…’ किसी के दरवाजा खटखटाने की आवाज आई.

सदाशिव ने उठ कर दरवाजा खोला. सामने सरिता खड़ी थी. कुछ देर दोनों एक दूसरे को चुपचाप देखते रहे.

‘‘अंदर आने को नहीं कहोगे? बड़ी मुश्किलों से ढूंढ़ते हुए यहां तक पहुंच सकी हूं,’’ सरिता ने कहा.

‘‘आओ,’’ सरिता को अंदर कर के सदाशिव ने दरवाजा बंद कर दिया.

सरिता ने देखा कि कोठरी में एक चारपाई पर बिस्तर बिछा है. चादर फट चुकी है और गंदी है. एक रस्सी पर तौलिया, पाजामा और कमीज टंगी है. एक कोने में पानी का घड़ा और बालटी है. दूसरे कोने में एक स्टोव और कुछ खाने के बरतन रखे हैं.

सरिता चारपाई पर बैठ गई.

‘‘कैसे हो?’’ धीरे से पूछा.

‘‘कैसा लगता हूं तुम्हें?’’ उदास स्वर में सदाशिव ने कहा.

सरिता कुछ न बोली.

‘‘क्या करते हो?’’ थोड़ी देर के बाद सरिता ने पूछा.

‘‘इस शरीर को जिंदा रखने के लिए दो रोटियां चाहिए. वह कुछ भी करने से मिल जाती हैं. वैसे नुक्कड़ पर एक चाय की दुकान है. मुझे तो कुछ नहीं चाहिए. हां, 4 बच्चों की पढ़ाई का खर्च निकल आता है.’’

‘‘बच्चे?’’ सरिता के स्वर में आश्चर्य था.

‘‘हां, अनाथ बच्चे हैं,’’ उन की पढ़ाई की जिम्मेदारी मैं ने ले रखी है. सोचता हूं कि अपने बच्चों की पढ़ाई में कोई योगदान नहीं कर पाया तो इन अनाथ बच्चों की मदद कर दूं.’’

‘‘घर से निकल कर सीधे…’’ सरिता पूछतेपूछते रुक गई.

‘‘नहीं, मैं कई जगह घूमा. कई बार घर आने का फैसला भी किया पर जो दाग मैं दे कर आया था उस की याद ने हर बार कदम रोक लिए. रोज तुम्हें और बच्चों को याद करता रहा. शायद इस से ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकता था. पिछले 5 सालों से मथुरा में हूं.’’

‘‘अब तो घर चल सकते हो. राशि अब मुंबई में है. नौकरी करती है. वहीं शादी कर ली है. राहुल झांसी में जिलाधीश है. मुझे सिर्फ तुम्हारी कमी है. क्या तुम मेरे साथ चल कर मेरी जिंदगी की कमी पूरी करोगे?’’ कहतेकहते सरिता की आंखों में आंसू आ गए.

सदाशिव ने सरिता को उठा कर गले से लगा लिया और बोला, ‘‘मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिया है. यदि तुम्हारे साथ जा कर मेरे रहने से तुम खुश रह सकती हो तो मैं तैयार हूं. पर क्या इतने दिनों बाद राहुल मुझे पिता के रूप में स्वीकार करेगा? मेरे जाने से उस के सुखी जीवन में कलह तो पैदा नहीं होगी? क्या मैं अपना स्वाभिमान बचा सकूंगा?’’

‘‘तुम क्या चाहते हो कि मैं तुम से दूर रहूं,’’ सरिता ने रो कर कहा और सदाशिव के सीने में सिर छिपा लिया.

‘‘नहीं, मैं चाहता हूं कि तुम झांसी जाओ और वहां ठंडे दिल से सोच कर फैसला करो. तुम्हारा निर्णय मुझे स्वीकार्य होगा. मैं तुम्हारा यहीं इंतजार करूंगा.’’

सरिता उसी दिन झांसी वापस आ गई. शाम को जब राहुल और सीमा साथ बैठे थे तो उन्हें सारी बात बताते हुए बोली, ‘‘मैं अब अपने पति के साथ रहना चाहती हूं. तुम लोग क्या चाहते हो?’’

‘‘एक चाय वाला और जिलाधीश साहब का पिता? लोग क्या कहेंगे?’’ सीमा के स्वर में व्यंग्य था.

‘‘बहू, किसी आदमी को उस की दौलत या ओहदे से मत नापो. यह सब आनीजानी है.’’

‘‘मां, वह कमजोर आदमी मेरा…’’

‘‘बस, बहुत हो गया, राहुल,’’ सरिता बेटे की बात बीच में ही काटते हुए उत्तेजित स्वर में बोली.

राहुल चुप हो गया.

‘‘मैं अपने पति के बारे में कुछ भी गलत सुनना नहीं चाहती. क्या तुम लोगों से अलग हो कर वह सुख से रहे? उन के प्यार और त्याग को तुम कभी नहीं समझ सकोगे.’’

‘‘मां, हम आप की खुशी के लिए उन्हें स्वीकार सकते हैं. आप जा कर उन्हें ले आइए,’’ राहुल ने कहा.

‘‘नहीं, बेटा, मैं अपने पति की अनुगामिनी हूं. मैं ऐसी जगह न तो खुद रहूंगी और न अपने पति को रहने दूंगी जहां उन को अपना स्वाभिमान खोना पड़े.’’

सरिता रात को सोतेसोते उठ गई. पैर के पास गीलागीला क्या है? देखा तो सीमा उस का पैर पकड़ कर रो रही थी.

‘‘मां, मुझे माफ कर दीजिए. मैं ने आप का कई बार दिल दुखाया है. आज आप ने मेरी आंखें खोल दीं. मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं भी आप के समान अपने पति के स्वाभिमान की रक्षा कर सकूं.’’

सरिता ने भीगी आंखों से सीमा का माथा चूमा और उस के सिर पर हाथ फेरा.

‘‘मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा.’’

भोर की पहली किरण फूट पड़ी. जिलाधीश के बंगले में सन्नाटा था. सरिता एक झोले में दो जोड़े कपड़े ले कर रिकशे पर बैठ कर स्टेशन की ओर चल दी. उसे मथुरा के लिए पहली ट्रेन पकड़नी थी.

यही दस्तूर है : गरिमा के हरे जख्म

कालिज से लौट कर गरिमा ने जैसे ही अपने फ्लैट का दरवाजा खोला सामने के फ्लैट से रोहित निकल कर आ गए.

‘‘आप का पत्र कोरियर से आया है,’’ एक लिफाफा उस की तरफ बढ़ाते हुए रोहित ने कहा.

‘‘ओह…आइए न,’’ पत्र थाम कर गरिमा अंदर आ गई. रोहित भी अंदर आ गए.

‘‘पत्र विदेशी है. बेटे का ही होगा?’’ रोहित की बात पर गरिमा ने पलट कर उन्हें देखा. मानो कोई चुभती हुई बात उन के मुंह से निकल गई हो.

फिर वह खुद को संभालते हुए बोली, ‘‘आप बैठिए, मैं कौफी बनाती हूं.’’

‘‘पर खत तो पढ़ लीजिए.’’

‘‘कोई जल्दी नहीं है, पहले कौफी बना लूं.’’

रोहित को आश्चर्य नहीं हुआ यह देख कर कि बेटे का पत्र पढ़ने की उसे कोई जल्दी नहीं है. इतने दिन से गरिमा को देख रहे हैं. इतना तो जानते हैं कि यह विदेशी पत्र उसे विचलित कर गया है. कुछ तो है मांबेटे के बीच पर वह कभी पूछने का साहस नहीं कर पाए हैं.

गरिमा के बारे में सिर्र्फ इतना जानते हैं कि 30 वर्ष पूर्व गरिमा के पति नहीं रहे थे. तब वह मात्र 20 वर्ष की थी. समीर गोद में आ गया था. अपना पूरा यौवन उस ने बेटे को बड़ा करने में लगा दिया था. मांबाप ने एकाध जगह बात पक्की की पर बेटे के साथ उसे अपनाने वाला कोई उचित वर न मिला. भैयाभाभी उस से विशेष मतलब नहीं रखते. मां को अस्थमा का अकसर दौरा पड़ता था, इस के बावजूद वह समीर को अपने पास रखने को तैयार थीं. पर गरिमा ने खुद को बच्चे से अलग नहीं किया. मांपिताजी के पास रह कर उस ने बी.एड. किया और एक स्कूल में पढ़ाने लगी. 5 वर्ष पूर्व इस फ्लैट में आई है. बेटे को कभी आते नहीं देखा. बस, इतना पता है कि वह विदेश में है.

‘‘कौफी…’’ गरिमा की आवाज पर रोहित की तंद्रा टूटी. प्याला हाथ में ले कर गरिमा भी वहीं बैठ गई.

‘‘गरिमा, मैं ने आप से एक प्रश्न किया था, आप ने जवाब नहीं दिया?’’

अचानक पूछे गए इस प्रश्न पर गरिमा चौंक पड़ी. हां, रोहित ने 2 दिन पूर्व उन के सामने एक बात रखी थी. अपनी बोझिल पलकों को उठा कर उस ने रोहित की तरफ देखा. यह आदमी उन्हें अपनी पत्नी बनाना चाहता है.

बचे हुए जीवन के दिनों को हंसीखुशी से जी लेने का उस का भी दिल करता है. बेटे के कृत्य के लिए वह खुद को दोषी क्यों ठहराए. मगर इन 5-6 वर्षों में वह समीर के कुसूर को भूल नहीं पाई  है, उसे माफ नहीं कर पाई है.

रोहित के जाने के बाद उस ने समीर का पत्र खोला, लिखा था, ‘‘जानता हूं अभी तक नाराज हो. कुछ तो है जो अभिशाप बन कर हमारे बीच पसर गया है. शिखा 2 बार मां बनतेबनते रह गई. मां, जानता हूं तुम्हारा दिल दुखाया है, उसी की सजा मिल रही है. क्या मुझे क्षमा नहीं करोगी?’’

समीर के पत्र ने उस के जख्मों को फिर हरा कर दिया. शैल्फ पर रखी तसवीर पर उस की नजर अटक गई. लाख चाह कर भी वह इस तसवीर को हटा नहीं पाई है. आखिर है तो मां ही. तसवीर में समीर मां की गरदन में बांहें डाले था. उसे देखते हुए वह अतीत में खो गई.

पति के समय का ही एक माली था नंदू. माली कम सेवक ज्यादा. पति की बस दुर्घटना में मृत्यु हो गई  थी. नंदू ने काम छोड़ने से मना कर दिया था, ‘बचपन से खिलाया है रवि भैया को, उन के न रहने पर तो मेरी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है. मैं यहीं रहूंगा.’

रवि की मृत्यु के बाद आफिस का फ्लैट भी चला गया था. वह मां के पास रह कर बी.एड. करने लगी तो नंदू ने ही समीर को संभाला. फिर नौकरी लगने पर वह नंदू और समीर को ले कर दूसरे शहर आ गई.

समीर बड़ा हो गया और नंदू बूढ़ा. एक दिन वह गांव गया तो कई दिनों तक नहीं लौटा. उस की पत्नी की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी. गांव से लौटा तो 17-18 वर्ष की एक सांवलीसलोनी सी पोती भी उस के साथ थी, ‘बहूजी, इस के 4 भाईबहन हैं. गांव में कुछ सीख नहीं पाती. पढ़ना चाहती है, सो अपने साथ ले आया हूं. आप की छत्रछाया में कुछ गुण ढंग सीख लेगी.’

ज्योति नाम था उस का. 8वीं तक पढ़ी थी. 9वीं में एक स्कूल में नाम लिखवा दिया उस का. फिर तो हिरनी सी कुलांचें भरती कटोरी जैसी आंखों वाली वह छरहरी काया पूरे घर पर शासन कर बैठी. घर का सारा काम उस ने अपने ऊपर ले लिया. समीर इंजीनियरिंग कर रहा था. उस के पास जाने में वह थोड़ी झेंपती थी. लेकिन यह संकोच भी टूट गया जब उसे पढ़ाई में विज्ञान एवं गणित कठिन लगने लगे तब गरिमा ने ही समीर से कहा कि वह ज्योति की मदद कर दिया करे.

समीर की महत्त्वाकांक्षा काफी ऊंची थी. उस की इच्छा विदेश जा कर पढ़ने की थी. जहां भी कुछ अवसर मिलता वह फौरन आवेदन कर देता. पासपोर्र्ट उस ने बनवा रखा था. मां अकेली कैसे रहेगी, पूछने पर कहता, ‘मैं तुम्हें भी जल्दी ही बुला लूंगा. यहां इंडिया में अपना है ही कौन.’

पर गरिमा ने निश्चय कर लिया था कि वह अपना देश नहीं छोड़ेगी. उसे लगता कि ऐसी पढ़ाई से क्या फायदा जब बच्चे पढ़ते इंडिया में हैं और बसने विदेश चले जाते हैं. पर बेटे की महत्त्वाकांक्षा के सामने वह मौन हो जाती.

ज्योति ने समीर से पढ़ना शुरू किया तो दोनों एकदूसरे से काफी खुल गए. गरिमा इसे दोनों की नोकझोंक समझती रही. समीर ज्योति की बड़ीबड़ी आंखों में खो गया. प्रेम की यह पींग काफी ऊंची उड़ान ले बैठी. इतनी ऊंची कि झूला टूट कर गिर गया.

उस दिन वाशिंगटन से समीर के नाम एक पत्र आया था कि वह फैलोशिप के लिए चुन लिया गया है. इधर घर में एक जबरदस्त विस्फोट हुआ जब नंदू उस के सामने बिलख उठा, ‘बहूजी, मैं तो बरबाद हो गया. ज्योति ने तो मुझे मुंह दिखाने लायक नहीं रखा. मैं क्या करूं. कहां ले कर जाऊं इस कलंक को.’

ज्योति के मुंह से समीर का नाम सुनते ही वह सुलग उठी. उसे यह बात सच लगी कि हर व्यक्ति के अंदर एक जानवर होता है जो मौका पड़ते ही जाग जाता है. समीर के अंदर का जानवर भी जाग उठा था. समीर ने मां के विश्वास के सीने में छुरा घोंपा था.

दोषी तो ज्योति भी थी. उस ने समीर को इतने पास आने ही क्यों दिया कि अपनी अस्मत ही गंवा बैठी. गरिमा का जी चाहा कि वह जोरजोर से चीखे, रोए. पर कैसी लाचार हो गई थी वह. कहीं कोई सुन न ले, इस डर से मुंह से सिसकी भी न निकाली.

2 दिन तक गरिमा घर में पड़ी रही. क्या करे, कुछ समझ में नहीं आ रहा था. उधर समीर जो घर से गया तो 2 दिन तक लौटा ही नहीं. तीसरे दिन जरा सी आंख लगी ही थी कि आहट पर खुल गई. दरवाजा खुला छोड़ कर कोई बाहर गया था. ‘कौन है…’ वह बड़बड़ाते हुए उठी. देखा तो कमरे से समीर के कपड़े, अटैची सब गायब थे. एक पत्र जरूर मिला. लिखा था, ‘टिकट के पैसे नहीं हैं. कुछ रुपए और आप का हार लिए जा रहा हूं. हो सके तो क्षमा कर दीजिएगा.’

अरे, बेशर्म, क्षमा हार की मांग रहा है, पर जो कुकर्म किया है उस की क्षमा उसे कैसे मिलेगी. ज्योति की तरफ देख कर वह बिलख उठी थी. चाह कर भी वह उस के साथ न्याय नहीं कर पा रही थी. कौन अपनाएगा इसे. सबकुछ तितरबितर हो गया. क्या सोचा था, क्या हो गया. आंखों से आंसुओं की झड़ी भी सूख चली. बुद्घि, विवेक सबकुछ मानो किसी ने छीन लिया हो.

और एक दिन नंदू भी लड़की को ले कर कहीं चला गया. तब से अकेली है. पुराना मकान छोड़ कर नई कालोनी में यह फ्लैट ले लिया था, ताकि समीर को उस का पता न लग सके. पर जाने कहां से उस ने पता कर ही लिया है. पत्र भेजता है. पत्रों में उसे बुलाने का ही आग्रह होता है. शादी कर ली है….पर वह तो उसे आज तक क्षमा नहीं कर पाई है.

डोर बेल बजने पर वह अतीत से बाहर आई. बाई थी. उसे तो समय का ध्यान ही नहीं रहा कि रात के 8 बज चुके हैं. बाई ने उसे अंधेरे में बैठा देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है, बहूजी. तबीयत तो ठीक है न. यह अंधेरा क्यों?’’

‘‘यों ही आंख लग गई थी.’’

‘‘खाना क्या बनाऊं, बहूजी.’’

‘‘मेरे लिए कुछ नहीं बनाना. तेरा जो खाने का दिल करे बना ले.’’

‘‘पर आप….’’

‘‘मैं कुछ नहीं लूंगी.’’

‘‘तो फिर कौफी, दूध…कुछ तो ले लीजिए.’’

‘‘ठीक है दूध दे जाना कमरे में,’’ कहती हुई गरिमा अपने कमरे में चली गई.

समीर का पत्र एक बार फिर पढ़ा उस ने. बहू की फोटो भेजी थी समीर ने. एक बार देख कर उस ने तसवीर को अलमारी में रख दिया. सोचती रही, क्या करे. रोहित भी जवाब मांग रहे हैं. मां- पिताजी अब रहे नहीं. अपना कहने वाला कोई नहीं है. मां की अस्थमा की बीमारी उसे भी हो गई है. ऐसे में रोहित ही उस की देखभाल करते हैं. जब वह यहां आई थी तब रोहित से कटती रहती थी पर आमने- सामने रहने से कभीकभार की मुलाकात से परिचय गहरा हो गया. यही परिचय अब अच्छी मित्रता में बदल चुका है.

रोहित का व्यक्तित्व बहुत मोहक है. कम बोलना, पर जो बोलना सोचसमझ कर. 2 बच्चे हैं, बेटा पत्नी के साथ बंगलौर में है. बेटी कनाडा में है. 2 साल पहले पति के साथ आई थी. उसे बहुत पसंद करती है. जाने से पहले उस का हाथ अपने हाथ में ले कर अपने पिता से बोली थी, ‘‘जाने के बाद अब यह सोच कर तसल्ली होगी कि अब आप अकेले नहीं हैं.’’

वह चौंकी थी कि रोहित पर उस का क्या अधिकार है. कहीं रोहित ने ही तो बेटी से कुछ नहीं कहा. उन के बेटे से भी वह मिल चुकी है. जब भी आता है, उस के पैर छूता है. रोहित के प्रस्ताव में, लगता है दोनों बच्चों की सहमति भी छिपी है. रोहित के शब्द उस के कानों में गूंजने लगे, ‘गरिमाजी, मेरा और आप का रास्ता एक ही है तो क्यों न मंजिल तक साथ ही चलें. मुझ से शादी करेंगी?’

वह कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी. आज समीर के पत्र ने उसे झकझोर दिया था. उस ने कभी भी बेटे को कोसा नहीं है. आखिर क्यों कोसे? अब वह किसी का पति है. आखिर उस की पत्नी का क्या दोष? वह मां बनना चाहती है तो इस में वह क्या सहयोग कर सकती है सिवा इस के कि उसे अपनी शुभकामना दे. आखिर उस ने बहू शिखा को पत्र लिखने का निश्चय कर लिया.

दूसरे दिन उस ने शिखा को पत्र लिखा, ‘‘बेटी, हम दोनों एकदूसरे से अब तक नहीं मिले हैं, पर हमारे बीच आत्मीय दूरी नहीं है. तुम मेरी बहू हो और मैं तुम्हारी सास. तुम मां बनो और मैं दादी यह हृदय से कामना करती हूं. तुम्हारी मां.’’

पत्र मोड़ कर लिफाफे में रखते हुए गरिमा सोच रही थी कि उसे रोहित का प्रस्ताव अब मान लेना चाहिए. जीवन के बाकी दिन खुद के लिए भी तो जी लें.

दूसरा कोना: क्यों बदनाम हुई ऋचा?

‘‘अजीब तरह का व्यवहार कर रही थी अजय की पत्नी. पूरे समय बस अपनी खूबसूरती, हंसीमजाक, ब्यूटीपार्लर उफ, कोई कह सकता है भला कि उस के पति की अभीअभी कीमोथेरैपी हुई है. उस के हावभाव, अदाओं से कहीं से भी नहीं लग रहा था कि उस के पति को इतनी गंभीर बीमारी है. मुझे तो दया आ रही है बेचारे अजय पर. ऐसे समय में उस का खयाल रखने के बजाय, उस की पत्नी ऋचा अपनी साजसज्जा में लगी रहती है,’’ घर का दरवाजा खोलने के साथ ही प्रिया ने अपने पति राकेश से कहा.

‘‘हां, थोड़ा अजीब तो मुझे भी लगा ऋचा का तरीका, पर चलो छोड़ो न, तुम क्यों अपना दिमाग खराब कर रही हो. हमें कौन सा रोजरोज उन के घर जाना है. औफिस का कलीग है, कैंसर की बीमारी का सुना तो एक बार तो देखने जाना बनता था,’’ राकेश ने प्रिया को बांहों में लेते हुए कहा.

‘‘अरे, छोड़ो क्या, मेरे तो दिमाग से ही नहीं निकल रही यह बात. कोई इतना लापरवाह कैसे हो सकता है. ऋचा पढ़ीलिखी, अच्छे परिवार की लड़की है, फिर भी ऐसी हरकतें. मुझे तो शर्म आ रही है कि  ऐसी भी होती हैं औरतें.

‘‘ऋचा औफिस की पार्टीज में भी कितना बनसंवर कर आती थी. कितना मरता था अजय उस की खूबसूरती पर. एक से एक लेटैस्ट ड्रैसेज पहनती थी वह तब भी. पर अब हालत कैसी है, कम से कम यह तो सोचना चाहिए.’’ राकेश ने प्रिया की बातों में अब हां में सिर हिलाया और कहा कि बहुत नींद आ रही है, सुबह औफिस भी जाना है, चलो सो जाते हैं.

बिस्तर पर पहुंच कर भी प्रिया के मन में ऋचा की बातें, उस की हंसी फांस की तरह चुभ रही थी. आज की मुलाकात ने रिचा को प्रिया की आंखों के सामने लापरवाह औरत के रूप में खड़ा कर दिया था. यही सब सोचतेसोचते प्रिया की आंख कब लग गई, उसे पता ही नहीं चला.

अगली सुबह औफिस जाते हुए राकेश को गुडबाय किस देने के बाद अंदर आई तो देखा राकेश अपना टिफिन भूल गए. प्रिया ने राकेश को कौल कर के रुकने को कहा. दौड़ते हुए वह राकेश का टिफिन नीचे पार्किंग में पकड़ा कर आई. ‘‘तुम एक चीज भी याद नहीं रख सकते. मैं न होती तो तुम्हारा क्या होता?’’ प्रिया ने मुसकराते हुए कहा.

राकेश ने भी उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘तुम न होती तो कोई और होती.’’

इस पर प्रिया ने उसे घूरने वाली नजरों से देखा. राकेश ने जल्दी से ‘आई लव यू’ कहा और बाय कहते हुए वहां से निकल गया.

सब काम निबटा कर प्रिया ने चाय बनाई और टीवी औन कर लिया. चैनल पलटतेपलटते ‘सतर्क रहो इंडिया’ पर आ कर उस का रिमोट रुका. प्रिया ने बिना पलकें झपकाए पूरा एपिसोड देख डाला. उसे फिर ऋचा का खयाल आ गया. अब वह तरहतरह की बातें सोचने लगी कि ऋचा का कहीं किसी से चक्कर तो नहीं चल रहा, कहीं वह अजय से छुटकारा तो नहीं पाना चाहती? दिनभर प्रिया के दिमागी घोड़े ऋचा के घर के चक्कर लगाते रहे.

शाम को राकेश के आने पर प्रिया ने फिर से ऋचा की बात छेड़ी तो राकेश ने थोड़ा झुंझला कर कहा, ‘‘अरे यार, क्या ऋचाऋचा लगा रखा है? उन की जिंदगी है, तुम क्यों इतना सोच रही हो?’’

प्रिया चुप हो गई. वह राकेश को नाराज नहीं करना चाहती थी. बहुत प्यार जो करती थी वह उस से.

मगर प्रिया के दिमाग से ऋचा का कीड़ा उतरा नहीं था. उस ने अपनी किट्टी की सहेलियों को भी उस के व्यवहार के बारे में बताया.

सहेलियों में से एक बोली, ‘‘जिस के पति के जीवन की डोर कब कट जाए, पता नहीं, वह पति के बारे में न सोच कर सिर्फ अपने बारे में बातें कर रही है, कैसी औरत है वह.’’

‘‘जो बीमार पति से भी इधरउधर घूमने की फरमाइश करती है, कैसी अजीब है वह,’’ दूसरी सहेली ने कहा.

‘‘ऐसी औरतें ही तो औरतों के नाम पर धब्बा होती हैं,’’ तीसरी बोली.

सब सहेलियों ने मिल कर ऋचा के उस व्यवहार का पूरा पोस्टमौर्टम कर दिया. धीरेधीरे प्रिया के दिमाग से ऋचा का कीड़ा निकल गया. हां, कभीकभार वह राकेश से अजय के बारे में जरूर पूछ लेती. राकेश का एक ही जवाब होता, ‘अजय अब शायद ही औफिस आ सके.’ प्रिया को अफसोस होता और मन ही मन सोचती कि बेचारे अजय का तो समय ही खराब निकला.

4 महीने बाद एक दिन राकेश ने औफिस से फोन पर प्रिया को बताया कि अजय की मृत्यु हो गई. प्रिया को बहुत दुख हुआ. राकेश ने प्रिया से कहा कि तुम शाम को तैयार रहना, अजय के घर जाना है. औफिस के सभी लोग जा रहे हैं.

प्रिया और राकेश अजय के घर पहुंचे. घर में कुहराम मचा हुआ था. अभी उम्र ही क्या थी अजय की, अभी 42 साल का ही तो था. ऐसे माहौल में प्रिया का मन अंदर घुसते हुए घबरा रहा था. अंदर घुसते ही सब से पहले ऋचा पर उस की नजर पड़ी. ऋचा का रंग बिलकुल सफेद पड़ा हुआ था. जो ऋचा 4 महीने पहले उसे नवयुवती लग रही थी, आज वही मानो बुढ़ापे के मध्यम दौर में पहुंच गई हो. जिस तरह ऋचा रो रही थी, प्रिया का मन और आंखें दोनों भीग गए. वह ऋचा को संभालने उस के करीब पहुंच गई.

बाहर अजय की अंतिम यात्रा की तैयारियां चल रही थीं. राकेश भी बाहर औफिस के लोगों के साथ खड़ा था. सभी अजय की जिंदादिली और हिम्मत की तारीफ कर रहे थे.

राकेश के पास ही डा. प्रकाश खड़े थे. डा. प्रकाश राकेश के बौस के खास मित्र थे. औफिस की पार्टीज में अकसर उन से मिलना हो जाया करता था. डा. प्रकाश ने कहा, ‘‘अजय जितना हिम्मत वाला था, उस से भी बढ़ कर उस की पत्नी ऋचा है.’’

राकेश ने जब यह बात सुनी तो उस के मन में उत्सुकता जाग गई. उस ने डा. प्रकाश से मानो आंखों से ही पूछ लिया कि आप क्या कह रहे हैं.

‘‘अजय का पूरा इलाज मेरी देखरेख में ही हुआ है,’’ डा. प्रकाश ने कहा, ‘‘राकेश, अजय की रिपोर्ट्स के मुताबिक उस के पास मुश्किल से एक से डेढ़ महीने का समय था. यह ऋचा ही थी जिस ने उसे 4 महीने जिंदा रखा.’’

उन्होंने आगे कहा, ‘‘जब इन लोगों को कैंसर की बीमारी का पता चला तो ऋचा डिप्रैशन में चली गई थी. अजय अपनी बीमारी से ज्यादा ऋचा को देख कर दुखी रहने लगा था. अजय की चिंता देख कर मैं ने पूछा तब उस ने सारी बात मुझे बताई. उस दिन अजय और मेरे बीच बहुत बातें हुईं. मैं ने उसे ऋचा से बात करने को कहा.

‘‘अगली बार जब वे दोनों मुझ से मिलने आए तो हालात बेहतर थे. तब ऋचा ने मुझे बताया कि उस के पति उसे मरते दम तक खूबसूरत रूप में ही देखना चाहते हैं. उस ने कहा था, ‘अजय चाहते हैं कि मैं हर वह काम करूं जो उन के ठीक रहने पर करती आई हूं. उन के साथ नौर्मल बातें करूं. हंसीमजाक, छेड़ना सब करूं. बस, उन की बीमारी का जिक्र न करूं. इन थोड़े बचे दिनों में वे एक पूरी जिंदगी जीना चाहते हैं मेरे साथ.

‘‘अजय ने मुझ से कहा, ‘तुम्हें दुखी देख कर मैं पहले ही मर जाऊंगा. मुझे मरने से पहले जीना है.’ मैं ने भी दिल पर पत्थर रख कर उन की बात मान ली. डाक्टर साहब, अब अजय काफी अच्छा महसूस कर रहे हैं.’ उस दिन यह कहतेकहते ऋचा की आंखों में आंसू आ गए थे, मगर पी लिए उस ने अपने आंसू भी अजय की खातिर.

‘‘ऋचा बहुत हिम्मती है. आज देखो, दिल पर से पत्थर हटा तो कैसा सैलाब उमड़ आया है उस की आंखों में.’’

डा. प्रकाश की बातें सुन कर राकेश का मन ग्लानि से भर गया. जिस ऋचा के लिए उस ने और प्रिया ने मन में गलत धारणा पाल ली थी, आज उसी ऋचा के लिए उस के मन में बहुत आदरभाव उमड़ आया था.

राकेश को काफी शर्म भी महसूस हुई यह सोच कर कि कैसे हम लोग बिना विचार किए एक कोने में खड़े हो कर किसी के बारे में अच्छीबुरी राय बना लेते हैं. कभी दूसरे कोने में जा कर देखने या विचारने की कोशिश ही नहीं करते.

अजनबी : कौन था दरवाजे के बाहर

‘‘नाहिद जल्दी उठो, कालेज नहीं जाना क्या, 7 बज गए हैं,’’ मां ने चिल्ला कर कहा.

‘‘7 बज गए, आज तो मैं लेट हो जाऊंगी. 9 बजे मेरी क्लास है. मम्मी पहले नहीं उठा सकती थीं आप?’’ नाहिद ने कहा.

‘‘अपना खयाल खुद रखना चाहिए, कब तक मम्मी उठाती रहेंगी. दुनिया की लड़कियां तो सुबह उठ कर काम भी करती हैं और कालेज भी चली जाती हैं. यहां तो 8-8 बजे तक सोने से फुरसत नहीं मिलती,’’ मां ने गुस्से से कहा.

‘‘अच्छा, ठीक है, मैं तैयार हो रही हूं. तब तक नाश्ता बना दो,’’ नाहिद ने कहा.

नाहिद जल्दी से तैयार हो कर आई और नाश्ता कर के जाने के लिए दरवाजा खोलने ही वाली थी कि किसी ने घंटी बजाई. दरवाजे में शीशा लगा था. उस में से देखने पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था क्योंकि लाइट नहीं होने की वजह से अंधेरा हो रहा था. इन का घर जिस बिल्डिंग में था वह थी ही कुछ इस किस्म की कि अगर लाइट नहीं हो, तो अंधेरा हो जाता था. लेकिन एक मिनट, नाहिद के घर में तो इन्वर्टर है और उस का कनैक्शन बाहर सीढि़यों पर लगी लाइट से भी है, फिर अंधेरा क्यों है?

‘‘कौन है, कौन,’’ नाहिद ने पूछा. पर बाहर से कोई जवाब नहीं आया.

‘‘कोई नहीं है, ऐसे ही किसी ने घंटी बजा दी होगी,’’ नाहिद ने अपनी मां से कहा.

इतने में फिर घंटी बजी, 3 बार लगातार घंटी बजाई गई अब.

?‘‘कौन है? कोई अगर है तो दरवाजे के पास लाइट का बटन है उस को औन कर दो. वरना दरवाजा भी नहीं खुलेगा,’’ नाहिद ने आराम से मगर थोड़ा डरते हुए कहा. बाहर से न किसी ने लाइट खोली न ही अपना नाम बताया.

नाहिद की मम्मी ने भी दरवाजा खोलने के लिए मना कर दिया. उन्हें लगा एकदो बार घंटी बजा कर जो भी है चला जाएगा. पर घंटी लगातार बजती रही. फिर नाहिद की मां दरवाजे के पास गई और बोली, ‘‘देखो, जो भी हो चले जाओ और परेशान मत करो, वरना पुलिस को बुला लेंगे.’’

मां के इतना कहते ही बाहर से रोने की सी आवाज आने लगी. मां शीशे से बाहर देख ही रही थी कि लाइट आ गई पर जो बाहर था उस ने पहले ही लाइट बंद कर दी थी.

‘‘अब क्या करें तेरे पापा भी नहीं हैं, फोन किया तो परेशान हो जाएंगे, शहर से बाहर वैसे ही हैं,’’ नाहिद की मां ने कहा. थोड़ी देर बाद घंटी फिर बजी. नाहिद की मां ने शीशे से देखा तो अखबार वाला सीढि़यों से जा रहा था. मां ने जल्दी से खिड़की में जा कर अखबार वाले से पूछा कि अखबार किसे दिया और कौनकौन था. वह थोड़ा डरा हुआ लग रहा था, कहने लगा, ‘‘कोई औरत है, उस ने अखबार ले लिया.’’ इस से पहले कि नाहिद की मां कुछ और कहती वह जल्दी से अपनी साइकिल पर सवार हो कर चला गया.

अब मां ने नाहिद से कहा बालकनी से पड़ोस वाली आंटी को बुलाने के लिए. आंटी ने कहा कि वह तो घर में अकेली है, पति दफ्तर जा चुके हैं पर वह आ रही हैं देखने के लिए कि कौन है. आंटी भी थोड़ा डरती हुई सीढि़यां चढ़ रही थी, पर देखते ही कि कौन खड़ा है, वह हंसने लगी और जोर से बोली, ‘‘देखो तो कितना बड़ा चोर है दरवाजे पर, आप की बेटी है शाजिया.’’

शाजिया नाहिद की बड़ी बहन है. वह सुबह में अपनी ससुराल से घर आई थी अपनी मां और बहन से मिलने. अब दोनों नाहिद और मां की जान में जान आई.

मां ने कहा कि सुबहसुबह सब को परेशान कर दिया, यह अच्छी बात नहीं है.

शाजिया ने कहा कि इस वजह से पता तो चल गया कि कौन कितना बहादुर है. नाहिद ने पूछा, ‘‘वह अखबार वाला क्यों डर गया था?’’

शाजिया बोली, ‘‘अंधेरा था तो मैं ने बिना कुछ बोले अपना हाथ आगे कर दिया अखबार लेने के लिए और वह बेचारा डर गया और आप को जो लग रहा था कि मैं रो रही थी, दरअसल मैं हंस रही थी. अंधेरे के चलते आप को लगा कि कोई औरत रो रही है.’’

फिर हंसते हुए बोली, ‘‘पर इस लाइट का स्विच अंदर होना चाहिए, बाहर से कोई भी बंद कर देगा तो पता ही नहीं चलेगा.’’ शाजिया अभी भी हंस रही थी.

आंटी ने बताया कि उन की बिल्ड़िंग में तो चोर ही आ गया था रात में. जिन के डबल दरवाजे नहीं थे, मतलब एक लकड़ी का और एक लोहे वाला तो लकड़ी वाले में से सब के पीतल के हैंडल गायब थे.

थोड़ी देर बाद आंटी चाय पी कर जाने लगी, तभी गेट पर देखा उन के दूसरे दरवाजे, जिस में लोहे का गेट नहीं था, से   पीतल का हैंडल गायब था. तब आंटी ने कहा, ‘‘जो चोर आया था उस का आप को पता नहीं चला और अपनी बेटी को अजनबी समझ कर डर गईं.’’ सब जोर से हंसने लगे.

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