Story in Hindi

Story in Hindi
Story in Hindi
अंकिता ने अमित को अपने खास दोस्तों से मिलवाने के लिए अपनी सहेली महक के घर लंच पर बुलाया था. उन दोनों को वहां पहुंचे चंद मिनट ही हुए होंगे कि अंकिता की दूसरी प्रिय सहेली रिया भी अपने पति राजीव के साथ आ पहुंची.
महक के पति मोहित ने रिया पर नजर पड़ते ही उस की तारीफ की, ‘‘रिया, आज तो तुम्हें देख रास्ते में न जाने कितने लड़के गश खा कर गिरे होंगे.’’
‘‘एक भी नहीं गिरा,’’ रिया ने उदास दिखने का अभिनय किया.
‘‘मैं नहीं मान सकता. देखो, संसार की सब से खूबसूरत स्त्री को सामने देख कर मेरा दिल कितना तेज धड़क रहा है,’’ अपनी छाती पर रखने के लिए मोहित ने अचानक रिया का हाथ पकड़ लिया.
‘‘जय बाबा सैम की…’’ रिया ने अपना हाथ छुड़ाने का प्रयास करने के बजाय शरारती अंदाज में नारा लगाया.
‘‘जय…’’ अंकिता और महक ने हाथ उठा कर जोशीली आवाज में नारा पूरा किया तो मोहित ने झेंपते हुए रिया का हाथ छोड़ दिया.
अमित को इन तीनों सहेलियों का व्यवहार अटपटा लगा.
‘‘यार, इस नए बंदे के सामने तो अपने बाबा सैम का गुणगान इतनी जल्दी शुरू मत करो,’’ मोहित ने बुरा सा मुंह बना कर टिप्पणी की.
‘‘हम मरते दम तक भी बाबा का गुणगान करना बंद नहीं करेंगे,’’ महक ने अपने पति के गाल पर प्यार से चिकोटी काटी.
‘‘उन्होंने हमें जो ज्ञान दिया है, उसे हम तीनों ने हमेशा के लिए गांठ बांध लिया है,’’ अंकिता ने महक की बात का समर्थन किया.
‘‘यह बाबा सैम कौन हैं?’’ अमित ने उत्सुकता दर्शाते हुए अंकिता से सवाल पूछा.
‘‘सैम का किस्सा तुम्हें जरा फुरसत में सुनाऊंगी अमित, पहले यह बताओ कि चाय पियोगे या कौफी?’’ महक ने टालते हुए कहा.
‘‘मैं चाय पिऊंगा.’’
सालभर पहले अंकिता अपनी इन दोनों करीबी सहेलियों महक और रिया से परिचित नहीं थी. एक रविवार की सुबह ये दोनों बिना कोई सूचना दिए पहली बार उस से मिलने कामकाजी महिलाओं के होस्टल में आ पहुंची थीं. महक ने अपना परिचय दिया तो पता चला कि वह मेरठ की रहने वाली है और वहां कालेज में समीर के साथ पढ़ा करती थी. समीर जौब करने दिल्ली आ गया था जबकि महक मेरठ में एक पब्लिक स्कूल में पढ़ा रही थी.
उस दिन महक ने गंभीर लहजे में अंकिता को बताया था, ‘‘किसी जानकार ने मुझे महीनाभर पहले बताया कि उस ने समीर को एक सुंदर लड़की के साथ फिल्म देख कर बाहर निकलते देखा था. यह सुन कर मेरा माथा ठनका, क्योंकि समीर ने मुझ से शादी करने का वादा कर रखा है. हम दोनों के बीच प्रेम का रिश्ता करीब 4 साल से चल रहा है. कहीं वह मुझे धोखा तो नहीं दे रहा, यह जानने के लिए मैं ने जब उस के पीछे एक प्राइवेट डिटैक्टिव लगाया तो पता चला कि जनाब दिल्ली में एक नहीं बल्कि 2-2 लड़कियों से चक्कर चला रहे हैं.’’
उस का इशारा अंकिता और रिया की तरफ था. अंकिता समीर की कंपनी में जौब कर रही थी जबकि रिया से उस का परिचय किसी दोस्त के माध्यम से एक विवाह समारोह में हुआ था.
उन तीनों ने आपस में खुल कर बातें कीं तो समीर की बेवफाई सामने आ गई. वह अंकिता और रिया के साथ भी प्यार का खेल खेल रहा था.
बहुत ज्यादा परेशान और गुस्से में नजर आ रही महक बोली, ‘‘हमारे लिए सब से पहले यह जानना जरूरी है कि समीर हम में से किसी का जीवनसाथी बनने लायक है भी या नहीं. अगर वह हम तीनों को बेवकूफ बना कर हमारी भावनाओं से खेल रहा है तो हिसाब बराबर करने के लिए हमें उसे तगड़ा सबक सिखाना चाहिए.’’
उन तीनों ने साथ बैठ कर समीर की असलियत उजागर करने के लिए योजना बनाई. फिर योजनानुसार पहले अंकिता ने फोन कर के समीर से कहा कि वह आज शाम उस के साथ गुजारना चाहती है. उस ने 6 बजे नेहरू पार्क में उसे मिलने के लिए बुलाया.
रिया ने भी उसी शाम समीर को अपने घर में 6 बजे चाय पीने के लिए बुलाया. बातोंबातों में वह उसे यह बताना नहीं भूली कि उस शाम उस के मातापिता भी घर पर नहीं होंगे.
आखिर में महक ने समीर को फोन कर के जानकारी दी कि वह एक रिश्तेदार को देखने आज दिल्ली आ रही है और रात 8 बजे के करीब वापस मेरठ लौट जाएगी. अत: उस ने 6 बजे उसे अपने मामा के घर मिलने के लिए बुलाया.
समीर ने उन तीनों से ही शाम 6 बजे मिलने का वादा कर लिया.
अमित ने चाय का पहला घूंट भरने के बाद जायकेदार चाय बनाने के लिए महक की दिल खोल कर तारीफ की.
महक ने प्रसन्न अंदाज में अमित से पूछा, ‘‘अब तुम यह बताओ कि हमारी अंकिता के साथ तुम ने इश्क का चक्कर कब, कहां और कैसे चलाया?’’
‘‘यह मेरे दोस्त नीरज की शादी में आई हुई थी. मैं तो पहली ही नजर में इसे अपना दिल दे बैठा था,’’ अमित ने कुछ शरमाते हुए सब को जानकारी दी.
‘‘पहली बार अंकिता को देख कर मुझ पर भी कुछ ऐसा ही प्रभाव पड़ा था, पर अफसोस कि तब तक मेरी बरात रिया के फार्म हाउस तक पहुंच चुकी थी,’’ राजीव के इस मजाक पर सब दिल खोल कर हंसे तो रिया ने चिढ़ाने वाले अंदाज में अपनी जीभ निकाली.
‘‘अच्छा, एक बात बताओ. क्या तुम किसी भी सुंदर लड़की को देख कर लाइन मारना शुरू कर देते हो?’’ महक ने एक ही झटके से यह टेढ़ा सवाल अमित से पूछा.
‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ अमित की आवाज में लड़खड़ाहट थी.
‘‘ऐसी बात हो भी तो फिक्र नहीं,’’ महक ने उस की टांग खींचना जारी रखा, ‘‘किसी भी सुंदर लड़की को देखते ही अगर तुम्हारे सिर पर लाइन मारने का भूत सवार हो जाता हो तो अपना यह शौक तुम रिया और मेरे साथ फ्लर्ट कर के पूरा कर लेना. हम दोनों ऐसी किसी छेड़छाड़ का बिलकुल बुरा नहीं मानेंगी.’’
‘‘वाह, क्या खुलेआम झूठ बोला जा रहा है यहां,’’ मोहित ने हंसते हुए अपनी पत्नी की बात का विरोध किया, ‘‘बहुत अच्छी हैं ये सालियां, हंसीमजाक करो और खाओ इन से गालियां… कितनी शानदार और बढि़या तुकबंदी की है न मैं ने, राजीव?’’ मोहित ने खुद ही अपनी तारीफ कर डाली.
राजीव के बोलने से पहले ही रिया ने उस की बात को खारिज करते हुए कहा, ‘‘बिलकुल झूठी बात है यह. सहेलियो, हम स्वस्थ हंसीमजाक का जवाब गालियों से बिलकुल नहीं देतीं लेकिन जब मामला शालीनता की सीमा तोड़ता नजर आए तो ही मजबूर हो कर यह नारा लगाती हैं, ‘‘बोलो, बाबा सैम की…’’
‘‘जय…’’ तीनों सहेलियों ने एकसाथ जोशीले अंदाज में ‘जय’ कहा, तो राजीव और मोहित से आगे कुछ कहते नहीं बना.
समीर के मन में खोट था और वह शाम को 6 बजे रिया या महक के बजाय अंकिता से मिलने पहुंच गया. घर में किसी और के न होने का फायदा उठाते हुए जब वह जबरदस्ती उस के कपड़े उतारने की कोशिश करने लगा तो बैडरूम में छिपी महक और रिया वहां से निकल कर उस के सामने ड्राइंगरूम में आ गईं. उन तीनों को एकसाथ सामने देख समीर की हालत एकदम से बेहद खस्ता हो गई. उस ने महक को सफाई देने की कोशिश की, पर उस का झूठ चला नहीं.
उन तीनों के तेज गुस्से को भांप उस ने अपनी जान बचा कर वहां से भागने की कोशिश की, पर तीनों गुस्साई शेरनियों के चंगुल से वह कैसे बच सकता था. तीनों ने उस चालबाज इंसान की पहले जम कर चप्पल व सैंडिलों से धुनाई की और फिर उसे एक झटके में अपनीअपनी जिंदगियों से निकाल कर फेंका.
महक और रिया उस रात अंकिता के घर में ही रुकीं. उस रात साथसाथ हंस और आंसू बहा कर सुबह तक वे तीनों अच्छी सहेलियां बन गई थीं. महक ने वार्त्तालाप को फिर से रास्ते पर लौटाते हुए इस बार अंकिता से पूछा, ‘‘क्या तू ने भी अमित को अपना भावी जीवनसाथी बनाने का फैसला उसी रात कर लिया था?’’
अंकिता ने प्यार से अमित का हाथ पकड़ कर जवाब दिया, ‘‘नहीं, मुझे तो इन जनाब को अपना भावी जीवनसाथी स्वीकार करने में महीना लग गया. वैसे मुझे नहीं लगता कि अमित दिलफेंक इंसान है. इसलिए तुम दोनों इसे ज्यादा तंग मत करो.’’
‘‘क्या हम तुम्हें तंग कर रही हैं?’’ महक ने अमित का हाथ थाम कर बड़ी अदा से पूछा.
‘‘नहीं तो,’’ उस के खुले व्यवहार ने अमित को शरमाने पर मजबूर कर दिया था.
‘‘शरमाओ मत, अमित. मौका मिलते ही अपनी इन दोनों सालियों से फ्लर्ट किया करो, क्योंकि किसी और लड़की के साथ फ्लर्ट करना तुम्हारे लिए अब ख्वाब बन कर रह जाएगा,’’ मोहित ने शरारती अंदाज में मुसकराते हुए अमित को सलाह दी.
‘‘लगे हाथ तुम्हें एक किस्सा और सुना देती हूं,’’ महक ने एकाएक संजीदा हो कर बोलना शुरू किया, ‘‘तुम्हें नेक सलाह देने वाले मेरे पति पर भी मात्र 6 महीने पहले शिखा नाम की एक खूबसूरत तितली से रोमांस करने का भूत चढ़ा था. जब हम तीनों को इन के रोमांस के बारे में पता चला…’’
मोहित ने अपनी पत्नी को टोकते हुए सफाई दी, ‘‘मुझ पर उस से इश्क लड़ाने का भूत नहीं चढ़ा था बल्कि शिखा ही इस स्मार्ट बंदे के पीछे हाथ धो कर पड़ गई थी.’’
उस के कहे कोअनसुना कर महक ने बोलना जारी रखा, ‘‘…तो हम तीनों शिखा से मिलने उस के फ्लैट पर पहुंच गईं. तुम अंदाजा लगा सकते हो कि हम तीनों गुस्साई शेरनियों ने शिखा का क्या हाल किया होगा. हम से उस ने थप्पड़ भी खाए और कुछ कीमती सामान भी हमारे हाथों तुड़वाया. मुझे विश्वास है कि हमारी शक्लें याद कर उसे महीनों ढंग से नींद नहीं आई होगी,’’ रिया अमित को यह बताते हुए काफी खुश लग रही थी.
मोहित ने झेंपे से अंदाज में मुसकराते हुए अमित को सफाईर् दी, ‘‘मेरे मन में कोई खोट नहीं था, पर इन्हें कौन समझाए. तुम ही बताओ कि किसी से मारपीट करना अच्छी बात है क्या?’’
‘‘बाबा सैम के साथ हुए अनुभव ने हमें उस मामले में बिलकुल सही राह दिखाई थी. बोलो, बाबा सैम की…’’
‘‘जय…’’ महक की आवाज में अपनी आवाज मिलाते हुए तीनों सहेलियों ने नारा लगाया और फिर जोर से हंसने लगीं.
समीर वाली घटना से सबक ले कर उस रात वे तीनों इस नतीजे पर पहुंचीं कि अधिकतर स्मार्ट, सुंदर और सफल युवक शादी होने के बाद भी अन्य खूबसूरत लड़कियों के साथ फ्लर्ट करेंगे. समस्या यह थी कि वे तीनों अपने भावी जीवनसाथी के रूप में ऐसे ही स्मार्ट, सुंदर और सफल युवकों के सपने देखती थीं.
‘‘हमारे जीवनसाथी हमें अंधेरे में रख कर समीर की तरह मूर्ख बनाएं, हम ऐसी नौबत कभी आने ही नहीं देंगी. हम अपने पतियों की किसी गलत हरकत को कभी एकदूसरे से नहीं छिपाएंगी. उन्होंने अगर किसी अन्य लड़की से गलत रिश्ता बनाने की कोशिश की तो हम तीनों मिल कर उस अवैध प्रेम संबंध का समूल नाश करेंगी. चालाक और चरित्रहीन समीर आज से हमारे लिए ‘बाबा सैम’ हुआ और उस से मिले सबक को हम तीनों कभी नहीं भूलेंगी,’’ तीनों सहेलियों ने उस दिन से एकदूसरे के हितों का हमेशा ध्यान रखने की कसम खाई थी.
हंसी का दौर थम जाने के बाद महक ने अमित को बताया, ‘‘शिखा का हम ने जो बुरा हाल किया था, उस की खबर इश्क लड़ाने की शौकीन अन्य खूबसूरत तितलियों तक हम ने ही पहुंचाई. आज की तारीख में वे सब इन दोनों कामदेव के अवतारों से फ्लर्ट करने से डरती हैं.’’
राजीव ने अमित को भावुक लहजे में समझाने का नाटक करना शुरू किया, ‘‘अमित, मेरी मानो तो अंकिता के साथ शादी करने से बचो. शादी के बाद तुम्हें मन मार कर जीना पड़ेगा. जब भी कोई सुंदर लड़की तुम से हंसनाबोलना शुरू करेगी तो इन तीनों की सैम बाबा का नारा लगाती सूरतें आंखों के सामने आ कर तुम्हारी जबान को लकवा मार देंगी.’’
‘‘मेरे दिल में न अब खोट है, न कभी आएगा. अंकिता से शादी कर के मैं खुशीखुशी इन तीनों शेरनियों के साथ रिश्ता जोड़ने को तैयार हूं,’’ खुल कर मुसकराते अमित ने उस की सलाह को नजरअंदाज करते हुए अंकिता का हाथ चूम लिया.
अमित की आंखों में अपने लिए प्यार का सागर लहराते देख अंकिता खुश हो कर उस के गले लग गई.
‘‘मैं ने गाजर का हलवा बनाया है. हमारे गु्रप में एक समझदार इंसान के शामिल होने की खुशी में मैं सब का मुंह मीठा कराती हूं,’’ महक किचन की तरफ चली गई थी.
‘‘अमित, हमारे इतना समझाने के बावजूद तुम ने ‘आ बैल मुझे मार’ वाली कहावत सच साबित कर दी है,’’ मोहित ने यों अपना चेहरा लटका लिया मानो सचमुच बहुत दुखी हो, तो बाकी सब ने उस के इस बढि़या अभिनय पर जोरदार ठहाका लगाया.
कुछ देर बाद गाजर के हलवे का स्वाद चखते ही राजीव ने महक से कहा, ‘‘महक, जरा अपना हाथ इधर करो, मैं उसे चूमना चाहता हूं.’’
‘‘किस खुशी में?’’
‘‘बहुत स्वादिष्ठ हलवा बनाया है तुम ने.’’
‘‘मुंह से मेरी तारीफ कर देने से काम चल जाएगा.’’
‘‘पर हाथ चूम कर तारीफ करने का मजा ही कुछ और है,’’ कहते हुए राजीव ने महक का हाथ पकड़ लिया.
‘‘बोलो, बाबा सैम की…’’ महक ने हाथ छुड़ाने की कोशिश किए बिना नारा लगाने की शुरुआत की.
‘‘जय…’’ रिया और अंकिता नाटकीय अंदाज में आंखें तरेरती हुईं अपनी सहेली की सहायता करने को उठ खड़ी हुईं.
राजीव ने महक का हाथ छोड़ा और मोहित की तरफ देख कर मरे से स्वर में बोला, ‘‘बाबा सैम…’’
‘‘हाय… हाय…’’ मोहित ने बेहद दुखी इंसान की तरह अपना माथा ठोंकते हुए नारा पूरा करने में उस का साथ दिया तो बाकी सभी हंसतेहंसते लोटपोट हो गए.
Story in Hindi
Story in Hindi
Story in Hindi
ढाई इंच मोटी परत चढ़ आई थी, पैंतीसवर्षीय अनुभा के बदन पर. अगर परत सिर्फ चर्बी की होती तो और बात होती, उस के पूरे व्यक्तित्व पर तो जैसे सन्नाटे की भी एक परत चढ़ चुकी थी. खामोशी के बुरके को ओढ़े वह एक यंत्रचालित मशीनीमानव की तरह सुबह उठती, उस के हाथ लगाने से पहले ही जैसे पानी का टैप खुल जाता, गैस पर चढ़ा चाय का पानी, चाय के बड़े मग में परस कर उस के सामने आ जाता. कार में चाबी लगाने से पहले ही कार स्टार्ट हो जाती और रास्ते के पेड़ व पत्थर उसे देख कर घड़ी मिलाते चलते, औफिस की टेबल उसे देखते ही काम में व्यस्त हो जाती, कंप्यूटर और कागज तबीयत बदलने लगते.
आज वह मल्टीनैशनल कंपनी में सीनियर पोस्ट पर काबिज थी. सधे हुए कदम, कंधे तक कटे सीधे बाल, सीधे कट के कपड़े उस के आत्मविश्वास और उस की सफलता के संकेत थे.
कादंबरी रैना, जो उस की सेके्रटरी थी, की ‘गुडमार्निंग’ पर अनुभा ने सिर उठाया. कादंबरी कह रही थी, ‘‘अनु, आज आप को अपने औफिस के नए अधिकारी से मिलना है.’’
‘‘हां, याद है मुझे. उन का नाम…’’ थोड़ा रुक कर याद कर के उस ने कहा, ‘‘जीजीशा, यह क्या नाम है?’’
कादंबरी ने हंसी का तड़का लगा कर अनुभा को पूरा नाम परोसा, ‘‘गिरिजा गौरी शंकर.’’
किंतु अनुभा को यह हंसने का मामला नहीं लगा.
‘‘ठीक है, वह आ जाए तो 2 कौफी भेज देना.’’
बाहर निकल कर कादंबरी ने रोमा से कहा, ‘‘लगता है, एक और रोबोट आने वाली है.’’
‘‘हां, नाम से तो ऐसा ही लगता है,’’ दोनों ने मस्ती में कहा.
जीजीशा तो निकली बिलकुल उलटी. जैसा सीरियस नाम उस का, उस के उलट था उस का व्यक्तित्व. क्या फिगर थी, क्या चाल, फिल्मी हीरोइन अधिक और एक अत्यंत सीनियर पोस्ट की हैड कम लग रही थी. उस के आते ही सारे पुरुषकर्मी मुंहबाए लार टपकाने लगे, सारी स्त्रियां, चाहें वे बड़ी उम्र की थीं
या कम की, अपनेअपने कपड़े, चेहरे व बाल संवारने लगीं.
लगभग 35 मिनट के बाद जीजीशा जब अनुभा के कमरे से लौटी तो उस के कदम कुछ असंयमित से थे. वह कादंबरी के सामने की कुरसी पर धम से बैठ गई.
‘‘लीजिए, पानी पीजिए. उन से मिल कर अकसर लोगों के गले सूख जाते हैं,’’ मिस रैना ने अनुभा के औफिस की तरफ इशारा किया. अनुभा तो थी ही ऐसी, कड़क चाय सी कड़वी, किंतु गर्म नहीं. कड़वाहट उस के शब्दों में नहीं, उस के चारों ओर से छू कर आती थी.
जीजीशा अनुभा की हमउम्र थी, परंतु औफिस में उसे रिपोर्ट तो अनुभा को ही करना था. औफिस में सब एकदूसरे का नाम लेते थे, सिर्फ नवीन खन्ना को बौस कहते थे.
ऐसा नहीं था कि गला सिर्फ जीजीशा का सूखा हो, उस से मिल कर अनुभा की जीवनरूपी मशीन का एकएक पुर्जा चरचरा कर टूट गया था. जीजीशा ने उसे नहीं पहचाना, किंतु अनुभा उसे देखते ही पहचान गई थी. जीजीशा, उर्फ गिरिजा गौरी शंकर या मिट्ठू?
पलभर में कोई बात ठहर कर सदा के लिए स्थायी क्यों बन जाती है? अनुभा के स्मृतिपटल पर परतदरपरत यह सब क्या खुलता जा रहा था? कभी उसे अपना बचपन झाड़ी के पीछे छुप्पनछुपाई खेलता दिखता तो कभी घुटने के ऊपर छोटी होती फ्रौक को घुटने तक खींचने की चेष्टा में बढ़ा अपना हाथ.
एक दिन फ्रौक के नीचे सलवार पहन कर जब वह बाहर निकली थी उस की फैशनेबल दीदी यामिनी, जो कालेज में पढ़ती थीं, उसे देख कर हंसते हुए उस के गाल पर चिकोटी काट कर बोलीं, ‘अनु, यह क्या ऊटपटांग पहन रखा है? सलवारसूट पहनने का मन है तो मम्मी से कह कर सिलवा ले, पर तू तो अभी कुल 14 बरस की है, क्या करेगी अभी से बड़ी अम्मा बन कर?’
इठलाती हुई यामिनी दीदी किताबें हवा में उछाल कर चलती बनीं.
अनुभा कभी भी दीदी की तरह नए डिजाइन के कपड़े नहीं पहन पाई. उस में ऐसा क्या था जो तितलियों के झुंड में परकटी सी अलगथलग घूमा करती थी. घर में भी आज्ञाकारी पुत्री कह कर उस के चंचल भाईबहन उस पर व्यंग्य कसते थे.
‘मां की दुलारी’, ‘पापा की लाड़ली’, ‘टीचर्स पैट’ आदि शब्दों के बाण उस पर ऐसे छोड़े जाते थे मानो वे गुण न हो कर गाली हों. अनुभा के भीतर, खूब भीतर एक और अनुभा थी, जो सपने बुनती थी, जो चंचल थी, जो पंख लगा कर आकाश में ऊंची उड़ान भरा करती थी. उस के अपने छोटेछोटे बादल के टुकड़े थे, रेशम की डोर थी और तीज बिना तीज वह पींग बढ़ाती खूब झूला झूलती थी, जो खूब शृंगार करती थी, इतना कि स्वयं शृंगार की प्रतिमान रति भी लजा जाए. पर जिस गहरे अंधेरे कोने में वह अनुभा छिपी थी उसे कोई नहीं जान पाया कभी.
एक दिन जब उस के साथ कालेज आनेजाने वाली सहेली कालेज नहीं आई थी, वह अकेली ही माल रोड की चौड़ी छाती पर, जिस के दोनों ओर गुलमोहर के सुर्ख लाल पेड़ छतरी ताने खड़े थे, साइकिल चलाती घर की तरफ आ रही थी. रेशमी बादलों के बीच छनछन कर आ रही धूप की नरमनरम किरणों में ऐसी उलझी कि ध्यान ही नहीं रहा कि कब उस की साइकिल के सामने एक स्कूटर और स्कूटर पर विराजमान एक नौजवान उसे एकटक देख रहा था.
‘लगता है आप आसमान को सड़क समझ रही हैं. यदि मैं अपना पूरा बे्रक न लगा देता तो मैडम, आप उस गड्ढे में होतीं और दोष मिलता मुझे. माना कि छावनी की सड़कें सूनी होती हैं, पर कभीकभी हम जैसे लोग भी इन सड़कों पर आतेजाते हैं और आतेजाते में टकरा जाएं और वह भी किस्मत से किसी परी से…’
अनुभा इस कदर सहम गई, लजा गई और पता नहीं ऐसा क्या हुआ कि गुलमोहर का लाल रंग उस के चेहरे को रंग गया. अटपटे ढंग से ‘सौरी’ बोल कर तेजतेज साइकिल भगाती चल पड़ी वहां से.
स्कूटर वाला तो निकला उस के भाई सुमित का दोस्त, जो कुछ दिन पहले ही एअरफोर्स में औफिसर बन कर लौटा था. बड़ा ही स्मार्ट, वाक्चतुर. ड्राइंगरूम में उसे बैठा देख वह चौंक पड़ी, वह बच कर चुपके से अपने कमरे की ओर लपकी तभी उस के भाई ने उसे आवाज दी, अपने मित्र से परिचय कराया, ‘आलोक, मिलो मेरी छोटी बहन अनुभा से.’
‘हैलो,’ कह कर वह बरबस मुसकरा पड़ी.
‘सुमित, अपनी बहन से कहो कि सड़क ऊपर नहीं, नीचे है.’
और वह भाग गई, उस के कानों में उन दोनों की बातचीत थोड़ीथोड़ी सुनाई पड़ रही थी, समझ गई कि माल रोड की चर्चा चल रही थी. अपने को बातों का केंद्र बनता देख वह कुमुदिनी सी सिमट गई थी. रात होने को आई, पर उस रात वह कुमुदिनी बंद होने के बदले पंखड़ी दर पंखड़ी खिली जा रही थी.
उन के घर जब भी आलोक आता, उस के आसपास मीठी सी बयार छोड़ जाता. पगली सी अनुभा आलोक की झलक सभी चीजों में देखने लगी थी, सिनेमा के हीरो से ले कर घर में रखी कलाकृतियों तक में उसे आलोक ही आलोक नजर आता था. अनुभा अचानक भक्तिन बनने लगी, व्रतउपवास का सिलसिला शुरू कर दिया. मां ने समझाया, ‘पढ़ाई की मेहनत के साथ व्रतउपवास कैसे निभा पाएगी?’
‘मम्मी, मेरा मन करता है,’ उस ने उत्तर दिया था.
‘अरे, तो कोई बुरा काम कर रही है क्या? अच्छे संस्कार हैं,’ दादी ने मम्मी से कहा.
अनुभा के मन में सिर्फ अब आलोक को पाने की चाहत थी. कालेज जाने से पहले वह मन ही मन सोचती कि बस किसी तरह आलोक मिल जाए.
‘बिटिया, कहीं पिछले जन्म में संन्यासिनी तो नहीं थी? पता नहीं इस का मन संसार में लगेगा कि नहीं?’ मम्मी को चिंता सताती.
‘कुछ नहीं होगा. अपनी यामिनी तो दोनों की कसर पूरी कर देती है. चिंता तो उस की है. न पढ़ने में ध्यान, न घर के कामकाज में. जब देखो तब फैशन, डांस और हंगामा,’ उस के पिता ने मां से कहा था.
‘हां जी, ठीक कहते हो, अब यामिनी की शादी कर दो. फिर मेरी अनुभा के लिए एक अच्छा सा वर ढूंढ़ देना.’
और अनुभा के भीतर वाली अनुभा ‘धत्’ बोल कर हंस पड़ी.
उस के पैर द्रुतगति से तिगदा-तिग-तिग, तिगदा-तिग-तिग तिगदा-तिग-तिग-थेई की ताल पर थिरक रहे थे. परंतु सहसा उस के पैरों की थिरकन द्रुतगति से विलंबित ताल पर होती हुई समय आने से पहले ही रुक गई. पैरों से घुंघरू उतार कर वह चुपचाप जाने लगी तो उस के डांस टीचर ने कहा, ‘आज एक नया तोड़ा सिखाना था, यामिनी तो कभी ठीक से सीखती नहीं, अब तुम भी जा रही हो.’
‘5 साल से नृत्य सीख रही हूं मास्टरजी, अब मैं सितार सीखूंगी,’ अनुभा ने सहज भाव से कहा.
‘हांहां क्यों नहीं,’ मास्टरजी ने भी हामी भर दी थी.
कौन जान पाया कि अनुभा के पैरों की थिरकन क्यों रुक गई. उस में कोई बाहरी परिवर्तन होता तो कोई देखता. अनुभा अपनी पढ़ाई और सितार के तारों में खो गई. दीदी यामिनी की शादी में आलोक दूल्हा बन के आया. दीदी चली गई, उस सपने के हिंडोले में बैठ कर जो उस ने अपने लिए बुना था.
‘याद है माल रोड वाली सड़क की वह टक्कर.’
जीजा बना आलोक उस से ठिठोली करता. जीजा को साली से मजाक करने का पूरा अधिकार था.
जिस घोड़ी पर बैठ कर आलोक आया था उस के गले में पड़ा खूबसूरत हार सब के आकर्षण का केंद्रबिंदु था. उस हार में जड़ा था खूबसूरत पत्थर, जिसे सब देखते नहीं थकते थे.
‘यह कौन है?’ जिज्ञासा से भरे सवाल निकले.
‘आलोक की क्या लगती है?’
‘हाय कितनी सुंदर है, पूरी मौडल जैसी.’
पता चला कि आलोक के पिता के मित्र की लड़की थी और आलोक की बचपन की ‘स्वीटहार्ट’. तब आलोक ने उस से शादी क्यों नहीं की? वह अभी छोटी थी और बहुत महत्त्वाकांक्षी. उस ने अपने लिए जो लक्ष्य तय किए थे उस में विवाह का स्थान था ही नहीं. विवाह को वह बंधन मानती थी. वे दोनों स्वतंत्र थे और स्वच्छंद भी.
यामिनी दीदी ने अपना घर बसाया, खिड़कियों पर झालरदार सफेद लेस के पर्दे टांगे, परंतु जब वह ‘खूबसूरत पत्थर’ उन के घर की खिड़कियों के सारे शीशे तोड़ गया, तब 6 महीने की अपनी प्यारी सी गुडि़या आन्या को गोद में लिए, अपने हाथों बसाए घर का दरवाजा खोल कर, मायके लौट आई थीं. टूटे हुए दिल व उजड़ी हुई गृहस्थी के दुख से यामिनी दीदी थरथर कांप रही थीं. मम्मी, पापा और पूरे घर ने उसे आत्मीयता का गरम लिहाफ ओढ़ा कर संभाल लिया था. दीदी की सारी मस्ती स्वाह हो गई. वे कभी ठीक से पढ़ी नहीं, जैसेतैसे उन्हें पापा ने एकआध कोर्स करवा कर स्कूल में नौकरी दिलवा दी थी. पुनर्विवाह तो क्या, उस घर में विवाह शब्द एक अछूत रोग की तरह माना जाने लगा. यहां तक कि अनुभा के लिए विवाह प्रसंग कभी छिड़ा ही नहीं. वह तो अच्छा हुआ कि सुमित की शादी यामिनी की शादी के महीने भर बाद ही हो गई थी वरना…
आज वही खूबसूरत नुकीला पत्थर उस के सामने कुरसी पर बैठा था. अनुभा सोच में पड़ी थी. क्या वह पोल खोल दे?
न मालूम कितनी और गृहस्थियां उजाड़ देगी यह! किंतु ऐसा क्यों होता है कि हमेशा ‘पति, पत्नी और वो’ में सब से अधिक दोष ‘वो’ को देते हैं? क्या स्त्री प्यार, प्रशंसा व प्रलोभनों से परे है? क्यों पुरुष के हाथ उस के अपने वश में नहीं रहते? इसी उधेड़बुन में डूबतीउतराती, वह नवीन खन्ना से आज की मीटिंग के बारे में बताने दाखिल हुई.
केवल 40 वर्ष की उम्र में नवीन जिस मुकाम पर पहुंचा था, वह मुकाम पुराने जमाने में 60 साल तक भी हासिल नहीं होता था. कंपनी का सीईओ मोटी तनख्वाह, उस से भी मोटे बोनस, उस से भी अधिक धाक. देशविदेश की डिगरियां हासिल कर के उस ने अपने लिए कौर्पोरेट जगत में एक विशिष्ट स्थान बना लिया था. बड़ीबड़ी कंपनियां व बैंक उसे पके आम की तरह लपकने को तैयार रहते थे.
अनुभा स्वयं भी अत्यंत मेधावी थी. आईआईएम में सब से पहला व बड़ा पैकेज उसी को मिला था. 2 साल जापान रही, फिर लंदन. नवीन खन्ना से उस की मुलाकात लंदन में हुई थी. जिस कंपनी में अनुभा काम कर रही थी उस का विलय दूसरी कंपनी में होने वाला था, नवीन खन्ना ने उस की योग्यता को भांप लिया था और उसे सीधे 4 सोपान आगे की पोस्ट व तनख्वाह दे डाली थी.
अनुभा भी भारत वापस आना चाहती थी. सो आ गई. बस तब से वह मुंबई में काम कर रही थी. उस पर नवीन की योग्यताओं की प्रमाणपट्टी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. जो व्यक्ति अनेक डिगरियां हासिल कर ले, जो करोड़ों रुपयों का ढेर लगाता हो, परंतु जिस का कोई नैतिक चरित्र न हो, जो धड़ल्ले से बातबात पर झूठ बोलता हो, जो अपनी पत्नी का फोन देख कर काट देता हो, जो मीटिंग व क्लायंट का भूत अपनी घरगृहस्थी पर लादे रहता हो, जो पति, पिता व पुरुष की मर्यादा न पहचानता हो, उसे अनुभा न तो आदर दे सकती थी न अपनी मित्रता. अनुभा के पिता अकसर अंगरेजी की एक कहावत कहा करते थे, जिस का सारांश था, ‘मैं कालेज तो गया, परंतु शिक्षित नहीं हुआ.’
बस यों समझ लीजिए कि नवीन खन्ना उस कहावत का साक्षात प्रमाण था.
एक बार एक बेहद खूबसूरत किंतु 55 वर्षीय महिला क्लायंट ने अनुभा से कहा था, ‘तेरा बौस तो मुझ जैसी बुढि़या पर भी लाइन मार रहा था.’
अनुभा कर भी क्या सकती थी. चारों तरफ यही सब तो बिखरा पड़ा था. आज के जमाने में दो ही तो पूजे जा रहे हैं, लाभ और पैसा.
कभी वह सोचती थी, क्या इन पुरुषों की पत्नियों को इन के चक्करों का पता नहीं चलता? क्या औफिस में काम कर रही विवाहित स्त्रियों के पतियों को पता नहीं चलता या फिर पता होते हुए भी वे खुली आंखों सोते रहते हैं या फिर पैसे की हायहाय ने प्यार व वफा का कोई मतलब नहीं रहने दिया है?
जो भी हो जीजीशा की नियुक्ति के बाद जीजीशा और नवीन को अकसर औफिस के बाद इकट्ठे बाहर निकलते देखा जाता था. जीजीशा अभी तक स्वतंत्र थी और उसी तरह स्वच्छंद भी. पता नहीं आलोक को और आलोक की तरह कितनों को कब और कहां छोड़ आई थी?
अनुभा का रिश्ता शुद्ध कामकाज से था. रात को सोते समय कभीकभी पापा की सुनाई हुई लाइनें ‘किसकिस को याद कीजिए, किसकिस को रोइए, आराम बड़ी चीज है, मुंह ढक के सोइए’ मजे के लिए दोहराती थी.
परंतु वह आराम की नींद कब सो पाई थी. अभी जीजीशा को आए 4-5 महीने ही हुए थे कि वह अचानक एक हफ्ते तक औफिस नहीं आई और जब आई तो बेहद दुबली लग रही थी. मेकअप के भीतर भी उस के गालों का पीलापन छिप नहीं पा रहा था. एक भयावह डर उस की आंखों में तैर रहा था. पता चला कि जीजीशा बीमार है, बहुत बीमार.
‘क्या हुआ है उसे?’ सब की जबान पर यही प्रश्न था.
15 दिन औफिस आने के बाद वह फिर गैरहाजिर हो गई थी. वह अस्पताल में भरती थी. उस के रोग का निदान नहीं हो पा रहा था. अनुभा फूलों का गुलदस्ता ले कर उस से मिलने गई थी और ‘शीघ्र स्वस्थ हो जाओ’ भी कह आई थी.
फिर एक दिन औफिस में उस खबर का बर्फीला तूफान आया. जीजीशा के रोग की पहचान की खबर. जिस रोग के लक्षण उसे क्षीण कर रहे थे उस ने उस के अंतरंग मित्रों के होश उड़ा दिए थे. नवीन खन्ना का औफिस व घर मानो 8 फुट मोटी बर्फ से ढक गया था. सब के दिमाग में अफरातफरी मची थी. जिस बीमारी का नाम लेने की हिम्मत न होती हो, उस एचआईवी के लक्षण जीजीशा की रक्त धमनियों में बह रहे थे. कितने ही लोग अपनेअपने रक्त का निरीक्षण करा रहे थे. अनुभा भयभीत हो उठी. आज पहली बार अनुभा इतनी बेचैन हुई. वह उस कड़ी को देख कर कातर हो रही थी जो यामिनी दीदी, आन्या और आलोक को जोड़ रही थी. आलोक और जीजीशा के रिश्ते की कड़ी. घबरा कर उस ने पहली फ्लाइट पकड़ी और मुंबई से अपने घर इलाहाबाद आ गई.
‘अनुभा मैडम को क्या हुआ?’ उस के औफिस में एक प्रश्नवाचक मूक जिज्ञासा तैर गई. इलाहाबाद पहुंच कर बगैर किसी से कुछ कहेसुने, उस ने यामिनी दीदी और आन्या के तमाम टैस्ट करवाए और जब दोनों के निरीक्षण से डाक्टर संतुष्ट हो गए, तब जा कर वह इत्मीनान से पैर पसार कर लेट गई. मां ने उस का सिर अपनी गोद में ले लिया और स्नेहपूर्वक उस के माथे का पसीना पोंछने लगीं, ‘‘एसी चल रहा है और तू है कि पसीने में तरबतर, जैसे किसी रेस में दौड़ कर आई हो.’’
‘‘रेस में ही नहीं मम्मा, मैं तो महारेस में दौड़ कर आई हूं. ट्राईथालौन समझती हो, बस उसी में दौड़ कर लौटी हूं.’’
हक्कीबक्की मां उस का मुंह ताकती रह गईं. मन ही मन अनुभा मां से जाने क्याक्या कहे जा रही थी. एक ही जीवन में कई तरह की दौड़ हो गई. सब से पहले मालरोड पर साइकिल चलाई, फिर पढ़ाई कैरियर और यामिनी दीदी की बिखरी हुई जिंदगी के दलदल में फंसी और दौड़ का अंतिम चरण? वह तो मुंबई से इलाहाबाद, इलाहाबाद से अस्पताल, अस्पताल के गलियारों की दौड़. उफ, यह अंतिम दौर उस का कठिनतम दौर था. उसे लगा जैसे दीदी और आन्या किसी सुनामी से बच कर किनारे पर सुरक्षित पड़ी हों.
निश्ंिचतता और मां की गोद उसे धीरेधीरे नींद की दुनिया में ले जाने लगी, वह सपनों के हिंडोले में झूलने लगी. अचानक उसे लगा कि अगर आलोक उसे मिल गए होते तो…तो…हिंडोला टूट गया. यह क्या? फिर भी वह हंस रही है. खुशी की हंसी, राहत की हंसी. अच्छा हुआ, आलोक की वह नहीं हुई.
शाम हुई और हीरो जैसे कपड़े पहन कर, उन्हीं की तरह बनावसिंगार कर के वह मियां मजनू सड़क पर खड़ा नजर आने लगा.
कुछ दिनों तक मामला केवल नजरें फेंकने तक ही सिमटा रहा. एक दिन दिल पर हाथ रख कर वह आहें भी भरने लगे और फिर अपनी हथेली पर चुम्मा ले कर सुहानी की तरफ उछालने का सिलसिला भी उस ने शुरू कर दिया.
सुहानी उस मजनू की इन हरकतों के एवज में कभीकभी उस के सामने एकाध मुसकान भी फेंक देती थी. मुसकान पा कर तो वह निहाल हो जाता था. ठंडीठंडी आहें भरने लगता और दीवानगी की ढेर सी हरकतें करने लगता.
जब यह सिलसिला चलते हुए बहुत दिन हो गए, तो मुझे सड़क पर गोश्त और रोटी बेचने वाले नसीम भटियारे से कहना पड़ा, ‘‘नसीम चाचा, इन मियां मजनू को समझाओ, नहीं तो मैं बदनाम हो जाऊंगी.’’
नसीम भटियारा हंस कर बोला, ‘‘बेटी, ऐसी बात है, तो मैं कल ही उसे फटकारता हूं. नजारे तो मैं भी रोज ही देखता रहा हूं. मैं ने समझा था कि शायद ताली दोनों हाथ से बज रही है.’’
‘‘नहीं चाचा, भला ऐसे सड़कछाप मजनुओं से मेरा क्या लेनादेना,’’ सुहानी ने कहा.
दूसरे दिन सुहानी ने देखा कि जब उस का आशिक आए और खिड़की की तरफ मुंह कर के ‘दिल तड़प रहा है, आ भी जा…’ गाने पर ऐक्टिंग शुरू की तो नसीम भटियारे ने उसे समझाया, ‘‘जनाब, यह शरीफों का महल्ला है. यहां शरीफ औरतें रहती हैं. आप अपनी ये बेहूदा हरकतें कहीं और जा कर कीजिए.’’
शायद उस हीरो में दिलीप कुमार जाग उठा. वह उसी की तरह धीरे से बोला, ‘‘ऐ मुहब्बत के दुश्मन, तू नहीं जानता कि प्यार करना कोई बुरा काम नहीं है. मैं भी एक शरीफ घराने का लड़का हूं. तुम क्यों विलेन बनते हो? हटो, प्यार के रास्ते से हटो और अपनी गोश्तरोटी बेचो.’’
दूसरे दिन मेरे एक चचेरे भाई ने उसे समझाया, तो उस ने राजेश खन्ना की तरह कहा, ‘‘अरे बेवकूफ, प्यार करना या न करना, न तेरे बस में है, न मेरे बस में. प्यार तो ऊपर वाला कराता है. हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं, जो उसी के इशारे पर नाचती हैं.’’
सुहानी की गली के उस हीरो ने उस के बाद हर तरह के लोगों को कई सिनेमा हीरो के अंदाज में प्यार को सही बता कर चुप करा दिया और चलता बना.
वैसे, उसे रोकना जरूरी था, क्योंकि तब सुहानी की बदनामी तय लग रही थी. इसीलिए अपने एक अन्य चचेरे भाई से उसे कहना पड़ा. वह थोड़ा अक्खड़ मिजाज का था.
उस ने गली के उस हीरो को समझाते हुए कहा, ‘‘देख बे मजनू की औलाद, यहां मनमोहन नाम का एक लड़का तेरी तरह आशिकी बघारने आता था, हम ने उस की वह धुनाई की थी कि उस का नाम ही लोगों ने मनमोहन ‘घायल’ रख दिया. कल से अगर तू ने इस गली में कदम रखा, तो समझ ले
कि तेरे नाम के आगे भी ‘अधमरा’ या ‘अधकुचला’ लग जाएगा.’’
‘‘प्यार में तो लोग शहीद भी हो जाते हैं,’’ उस ने हंसते हुए कहा था.
सुहानी के उस चचेरे भाई को उस दिन एक जरूरी काम था, इसलिए उस दिन तो वह चला गया, लेकिन दूसरे दिन उस के अपने तकरीबन 20 साथियों के साथ गली के उस हीरो को उस समय घेर लिया, जब वह सुहानी की तरफ चुम्मा उछाल रहा था.
गली का वह हीरो इतनी भीड़ देख कर घबराया नहीं, बल्कि उस ने मुसकरा कर सुहानी की ओर देखा, फिर अपनी कमीज की बांहों को ऊपर की ओर खींचा.
शायद तब उस में धर्मेंद्र जाग उठा था. उस ने अपनी ओर बढ़ रही भीड़ में से एक के जबड़े पर हथौड़ा मार्का घूंसा जड़ दिया.
‘‘वाह…’’ सुहानी के मुंह से अचानक निकला, ‘‘सचमुच, धर्मेंद्री हथौड़ा है.’’
चोट खाने वाले लड़के के 2 दांत हथेली पर निकल आए थे. बेचारा कराह कर एक तरफ गिर पड़ा था. सुहानी को लगा कि ठीक हिंदी फिल्मों की तरह ही अब उस की गली का वह हीरो एकएक की धुनाई कर देगा, लेकिन हुआ उस का उलटा ही.
भीड़ में शायद इंकलाब जाग उठा था. उन सब ने एकएक ही हाथ उस पर चलाया. किसी ने जबड़े पर घूंसा मारा, तो किसी ने पेट पर या पीठ पर, कुछ लोगों ने लातें भी चलाई थीं.
इन सब का फल भी तब हिंदी फिल्मों के फल के उलटा निकला था. बेचारा वह… गली का हीरो सचमुच अधमरा हो गया था. उस की देह पर केवल जांघिया और बनियान ही नजर आ रहे थे.
‘‘यह सब क्या चल रहा है?’’ दारोगाजी ने प्रेमनाथ की तरह पूछा. वे उसी समय अपने एक दीवान और सिपाही के साथ उधर से गुजर रहे थे.
‘‘हुजूर…’’ दीवानजी और सिपाही के चेहरों को देखता हुआ नसीम भटियारा मुकरी की तरह मिमियाया, ‘‘यह रोटीसालन खा कर बिना पैसे दिए भाग रहा था. जब मेरे आदमियों ने इसे रोका, तो इस ने एक के 2 दांत तोड़ दिए. मेरे आदमी ने इसे पकड़ रखा था. बस, इतनी सी बात है हुजूर.’’
‘‘क्यों बे लफंगे की औलाद…’’ इस बार दारोगाजी अमरीश पुरी की तरह गुर्राए, ‘‘चोरी, ऊपर से सीनाजोरी,’’ फिर सिपाही की तरफ देख कर उन्होंने कहा, ‘‘इसे गिरफ्तार कर लो.’’
और सचमुच, सुहानी के गली के उस हीरो पर मुकदमा हो गया. गवाहों की क्या कमी थी. फिर उस ने जुर्म तो किया ही था, इसलिए बेचारे को सजा हो गई.
कुछ समय बाद सजा काट कर जब वह एक बार सुहानी की गली में गलती से चला आया, तो बच्चे उस के पीछे दौड़े, ‘अधमराजी… अधमराजी…’
तब वह बेचारा भाग खड़ा हुआ. वह फिर कभी सुहानी की गली में नहीं दिखा.
भारी बदन की और गोरीचिट्टी खालाजान पानदान खोले बैठी थीं. बड़े से देशी पान का डंठल तोड़ कर पान फैला कर उस में पानदान से तांबे की छोटीछोटी चमचियों से चूना और कत्था लगाते हुए वे मुझ से कहने लगीं, ‘‘देख रानी बिटिया, यह तो मर्दमारनी है. तेरा घर बिगड़वा देगी. देखा नहीं, कैसे बालों की लटें चेहरे पर डाले घूम रही है खसमखानी. ‘‘अभी पिछले हफ्ते ही दाना साहब मियां की मजार के पास, वह जो गुड्डू पगला रहता है न, इसे छेड़ने लगा था. और यह उसे मर्दानी गालियां दे रही थी.
वह तो अच्छा हुआ तेरे खालू साहब उधर से गुजर रहे थे. उन्होंने गुड्डू को डांट कर भगाया और इसे भी चुप करा कर घर भेजा. अगर तू थोड़ा रुक जाए, तो मैं तेरे लिए कोई उम्रदराज कामवाली ढूंढ़ दूंगी.’’मैं बड़ी कशमकश में थी. मुझे फौरन ही किसी कामवाली की सख्त जरूरत थी. मेरा एकाध दिन में मेजर आपरेशन होने वाला था. डाक्टरनी ने साफसाफ लफ्जों में कह दिया था कि यह बच्चा नौर्मल डिलीवरी से नहीं हो सकता. आपरेशन करना जरूरी है. कुछ अंदरूनी प्रौब्लम है.
मैं ने एक नजर गुडि़या पर डाली थी. जब वह खालाजान के घर का काम निबटा कर 1-2 सैकंड को खालाजान के सामने खड़ी हुई, जैसे कह रही हो कि काम निबट चुका है, अब मैं घर जाऊं? मगर उस ने मुंह से कुछ नहीं कहा. खालाजान ने उस का मतलब समझ लिया और आंख के इशारे से ही उसे जाने की इजाजत दे दी.पहली नजर में मुझे गुडि़या सांवली रंगत की छरहरे बदन की तकरीबन 15-16 साल की एक चटपटी सी लड़की लगी. बालों की एक लट उस ने कर्ल कर रखी थी.
वही घुंघराले बालों की लट उस के बाएं गाल को छूती हुई झूल रही थी और अच्छी लग रही थी.मैं ने मन ही मन तय कर लिया कि इसे काम पर जरूर रखूंगी. 2 छोटे बच्चों को कुछ देर देखेगी, फिर झाड़ूपोंछा करने के बाद अगर मौका लगा तो खाना भी बना दिया करेगी. मुझे उस की साफसफाई ने सब से ज्यादा प्रभावित किया. अमूमन काम वाली औरतें गंदे कपड़े पहने रहती हैं, जबकि वह साफसुथरे कपड़े पहने हुए खुद भी साफसुथरी नजर आ रही थी.गुडि़या जब पहले दिन मेरे घर आई, वही घुंघराली लट गाल को छूती हुई थी. आंखों में काजल लगा था, जो पहली नजर में ही दिखाई दे जाए.
मैं ने गुडि़या का तीखी नजरों से जायजा लिया. वह इकहरे बदन की सांवली सी लड़की थी. उम्र के लिहाज से स्वभाव में थोड़ी लापरवाही और झिझक थी. होशियार औरत किसी दूसरी औरत को किसी पहुंचे हुए हकीम की तरह नब्ज नहीं, बल्कि चेहरा देख कर ही उस के पेट, दिल और दिमाग का हाल जान ही लेती है.पहले दिन मैं ने गुडि़या को घर का पूरा काम समझाया. उस के परिवार का पूरा हाल जाना. वह एक टूटेबिखरे परिवार की लड़की थी. उस की मां 2 बच्चे छोड़ कर महल्ले के ही पति के एक दोस्त के साथ दिल्ली भाग कर भजनपुरा महल्ले में रहती थी. भाई उस से छोटा था.
उसे बाप ने एक मोटर मेकैनिक की दुकान पर लगा दिया था. बाप खुद एक लौंड्री पर कपड़े प्रैस करने का काम करता था. डाल से टूटा पत्ता और डोर से टूटी पतंग गरीब की जोरू की तरह होती है, जिसे हर कोई मुफ्त का माल समझ कर झपटना चाहता है. जाहिर है, जमाने ने गुडि़या को इतनी आसानी से नहीं बख्शा होगा. फब्तियों और छींटाकशी की तो उसे इतनी आदत हो गई होगी कि वे अब उस के लिए बेअसर हो गई होंगी.मैं ने पहले ही दिन से गुडि़या को काम समझाने के साथसाथ नैतिकता का पाठ भी पढ़ाना शुरू कर दिया था, ‘‘देखो गुडि़या, अच्छी लड़कियां बालों की लटें नहीं निकालतीं, कभी पान नहीं खातीं और रास्ते में चलते हुए कभी इधरउधर देख कर हंसीठट्ठा नहीं करतीं.’’गुडि़या मेरी नसीहत सुन कर ऐसे मुसकराई, जैसे टीचर की बातों से बोर हो कर लड़कियां मुसकराने लगती हैं.
शाम को अख्तर साहब के आने पर मैं ने गुडि़या की सारी दास्तान उन्हें सुनाई और खालाजान ने जो गुडि़या के बारे में किस्से बयान किए थे, वे भी बताए.अख्तर साहब फौरैस्ट अफसर थे. 5 फुट, 10 इंच कद. भरा पर तंदुरुस्त कसरती बदन. भरी मूंछों में वे बहुत हैंडसम लगते थे. जंगलजंगल की खाक उन्होंने छानी थी. वे दुनिया देखेभाले थे. वैसे भी उन्हें घर आने की फुरसत ही कब मिलती थी. जब भी घर आने का समय मिलता, तो वे घर के कामों में ही बिजी रहते. मेरी बातें सुन कर अख्तर साहब बोले, ‘‘तुम्हें काम से मतलब है, इसलिए काम से ही मतलब रखो. सलोनी के कुछ बड़े होने तक तो इसे रखना ही पड़ेगा.
इसे मजबूरी समझ लो या जरूरत.’’खालाजान को जब मैं ने जा कर बताया कि गुडि़या को मैं ने घर के कामकाज के लिए रख लिया है, तो उन के मुंह का स्वाद मानो कसैला हो गया. वे मुंह बिगाड़ कर मुझे ऊंचनीच का लैक्चर देने लगीं.शाम के समय जब खालू साहब अपनी फ्रूट की आड़त से घर आए तो खालाजान फिर गुडि़या का दुखड़ा ले बैठीं, ‘‘कलमुंही, महल्ले के आवारा लड़कों से बहुत नैनमटक्का करती है. दीदे तो इतने फट गए हैं कि उस की बेहयाई देख लो, तब भी हयाशर्म नहीं है उसे. बस, दांत फाड़ कर हंस देती है.’’खालू साहब चुपचाप पानी पीते रहे.
कुछ ‘हांहुं’ भी न की. खालाजान की बड़ी लड़की शमा खालू साहब को चाय देने के बाद जब मुड़ी, तो वह मुसकरा रही थी.खालाजान की छोटी लड़की आयशा तेज आवाज में अपनी पढ़ाई कर रही थी. वह भी अब चुप हो कर खालाजान की बातें दिलचस्पी से सुनने लगी.
शमा ने मेज पर नाश्ता लगा दिया, तो मैं ने सेब का एक टुकड़ा उठाया और खालाजान से बोली, ‘‘खालाजान, आजकल कामवाली आसानी से नहीं मिलती है और जब जरूरत हो तो कतई दिखाई नहीं देती. आप उम्रदराज कामवाली मेरे लिए कहां से ढूंढ़तीं?’’खालाजान तखत पर बैठ कर खालू साहब और अपने लिए पानदान खोल कर पान बनाने लगीं. वे मेरी बात से सहमत थीं, मगर गुडि़या से न जाने क्यों उन्हें कुढ़न थी, जबकि वे खुद उस से अपने घर का काम करा रही थीं.
गुडि़या घर का सारा काम खत्म करने के बाद सलोनी को गोद में ले कर खिलाने लगती, तो कभी बाहर गली की दुकान से उस के लिए चौकलेट या बिसकुट खरीद लाती. धीरेधीरे वह मेरे घर में काफी हिलमिल गई थी. अब उस की लटें भी धीरेधीरे लंबी हो कर बालों में समा गई थीं और वह कभी पान खा कर भी नहीं आती थी.कुछ अरसा गुजरा. इसी बीच गुडि़या का बाप और भाई भी कई बार गाहेबगाहे किसी न किसी काम से घर आने लगे थे. वे निश्चिंत थे कि गुडि़या मेरे घर में पूरी तरह से महफूज है.
अब गुडि़या धीरेधीरे मेरी सभी नसीहतों पर भी अमल करने लगी. पहली बार जब मेरे साथ बाजार गई, तो काफी घबराई सी पूरे बाजार में मेरे साथ चिपक कर चलती रही. मैं ने उस के चेहरे की घबराहट को समझा. घर की गली से निकल कर बाजार तक पहुंचने तक मैं ने देखा कि कुछ मनचले थोड़ी दूर तक उस का पीछा करते रहे, मगर मेरे साथ रहने की वजह से वे रास्ते में ही रुक गए.
किसी ने कोई फिकरा भी नहीं कसा. घर आ कर मैं ने गुडि़या से पूछा कि वह बाजार जाते समय इतनी घबराई हुई क्यों थी? पहले तो वह खामोशी से नीचे जमीन की तरफ देखती रही, फिर जब उस ने नजरें उठाईं, तो उस की आंखों में आंसू झिलमिला रहे थे. गुडि़या ने बताया, ‘‘जब से मेरी मां ने घर से बाहर कदम रखा है, दुनिया मेरी दुश्मन हो गई है.
लोगों ने मेरी मां की बदचलनी का लेबल मेरे माथे पर चिपका दिया है. मैं जहां भी जाती हूं, लोग मेरी तरफ इस तरह देखते हैं कि जैसे कोई अजूबा हूं.‘‘गलती मां ने की थी, सजा मैं भुगत रही हूं. फिर मैं ने सोचा कि दुनिया से लड़ने के लिए दुनिया जैसा ही बनने का नाटक करना पड़ेगा, इसलिए मैं ने दूसरा रास्ता अख्तियार कर लिया. लड़कों के छेड़े जाने पर उन्हें मर्दानी गालियां देती. हावभाव ऐसे कर लिए जैसे कोई बिगड़ैल लड़की हूं, ताकि मनचले मुझ से आंख न मिला सकें.
’’मैं ने गुडि़या को समझाया, ‘‘अब तुझे किसी तरह का नाटक करने की जरूरत नहीं है. तेरी तरफ अगर किसी ने आंख भी उठाई तो उस की खैर नहीं होगी. बस, तू महल्ले में बेवजह घूमना छोड़ दे.’’गुडि़या अब मेरे घर के सदस्य जैसी हो गई थी. सुबह आ कर घर का सारा कामधाम अपनेआप बड़ी जिम्मेदारी से करती. काम खत्म करने के बाद सलोनी को घंटों खिलौनों से खिलाती. मैं भी अब उस के खाने और खर्चे का पूरा खयाल रखती. हमारे घर में रहने की वजह से अब वह बेखौफ आतीजाती.
अब उस ने खालाजान के घर का काम भी छोड़ दिया था.एक दिन गुडि़या के बाप ने आ कर बताया कि एक रिश्तेदार के लड़के से गुडि़या की शादी की बात चल रही है, आप की क्या राय है?अब सलोनी भी 3 साल की हो गई थी. वह नर्सरी में जाने लगी थी. मुझे भी अब गुडि़या की तरफ से जिम्मेदार होने का अहसास होने लगा था. मैं ने गुडि़या के बाप से कहा, ‘‘आप शादी की तारीख तय कीजिए. हम शादी में हर तरह से मदद करेंगे.’’कुछ दिनों बाद गुडि़या दुलहन बन कर ससुराल जाने लगी.
मुझ से जो बन सका, मैं ने उस की शादी में जिम्मेदारी निभाई.विदा होते समय गुडि़या मुझ से लिपट कर रोने लगी. हिचकियां लेने के बीच वह कह रही थी, ‘‘मेरी मां ने तो मेरे साथ कुछ नहीं किया, मगर आप ने मां की तरह मुझे सहारा दिया. मुझे अच्छेबुरे की समझ दी. हिफाजत की मेरी. मैं आप को कभी नहीं भूलूंगी.’’गुडि़या के जाने के बाद मुझे कुछ अधूरापन सा महसूस हुआ.
घर में अजीब सी खामोशी छाई रहती, मगर मेरे दिल में सुकून था कि गुडि़या अपनी नई दुनिया में खुश थी और जमाने का बिगड़ी हुई लड़की का लेबल उस के माथे से मिट चुका था.एक दिन खालाजान के घर से एक बुरी खबर सुनने को मिली. मैं दौड़ीदौड़ी उन के घर पहुंची. वे मुझे देखते ही चिपट कर रोने लगीं. मैं ने उन को धीरज बंधाया, तो टुकड़ोंटुकड़ों में उन्होंने बताया कि उन की बड़ी लड़की शमा महल्ले के ही एक आवारा लड़के के साथ सुबहसुबह ही घर में रखे सारे जेवर और नकदी ले कर भाग गई.
खालू साहब सुबह से ही उस की तलाश में निकले हुए हैं. छोटी लड़की आयशा सहमी सी डरीडरी निगाहों से खालाजान को देख रही थी और घर में सन्नाटा पसरा हुआ था.
Story in Hindi