Father’s Day Special- मौहूम सा परदा: भाग 1

डा. जाकिर अली लखनऊ से दिल्ली की फ्लाइट में उड़ान भर रहे थे. इस शहर से जुड़ी उन की पुरानी यादें हवाई जहाज की रफ्तार से भी तेजी से उन के दिमाग में घूम रही थीं.

वे 8-10 दिनों बाद गांव से दिल्ली लौटे तो खुद के कमरे की खिड़कियों की पत्थर की नक्काशीदार जालियों पर लोहे के फ्रेम में बारीक तारों की एक और जाली लगी देख कर असमंजस में पड़ गए. उन्हें कुछ समझ में नहीं आया.

उन्होंने बड़े बेटे शाहिद से जानना चाहा, तो वह बोला, ‘‘जी अब्बू, खिड़की की पुरानी जाली के बड़ेबड़े सूराखों से धूल, मच्छर, कीड़े वगैरा आते थे, इसलिए इस कमरे के अंदर की तरफ से यह जाली लगवा दी. कुल 3 हजार रुपए लगे और अब्बू, खिड़की की जाली के पत्थर पर पुराना शानदार नक्काशी का काम तो बाहर से आने वालों को पहले की तरह ही नजर आता है. और…और…इस के बाद कुछ तो नवाबी खानदान की घुट्टी में मिली तहजीब से पिता के प्रति सम्मान और कुछ कोई ठोस वजह वाले शब्द नहीं मिलने से वह हकलाते हुए चुप हो गया.

तभी उस के कमरे से उस की बीबी की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘और  लोगों की नजरों पर एक मोहूम सा परदा भी पड़ा रहेगा.’’ इस के बाद उस की बेशरम हंसी की आवाज आई तो डा. जाकिर अली बौखला गए. उन की मौजूदगी में उन की पुत्रवधू का इस तरह गुफ्तगू करना और ठहाका लगा कर हंसना उन के खानदानी आचरण में नहीं था. उन्होंने सवालिया नजरों से शाहिद को देखा तो वह शर्मिंदगी से नजर झुकाए पीछे मुड़ा और अपने कमरे में चला गया.

मोहूम से परदे का जुमला डा. जाकिर के दिल में नश्तर की तरह चुभ गया था. सो, शाहिद के चले जाने के बाद वे काफी देर गुमसुम खड़े रहे. फिर बोझिल कदमों से धीरेधीरे चल कर अपने कमरे में जा कर आरामकुरसी पर गिर से पडे़. डा. जाकिर अली की आंखों के सामने यह जुमला सिनेमा की रील की तरह चालू हो गया…

डा. जाकिर अली नवाबी खानदान से संबंध रखते थे. महानगर से 50 किलोमीटर दूर गांव में उन की 5 मंजिली पुश्तैनी हवेली, आम के कई बाग और काफी सारी खेती की जमीन थी. उर्दू उन के खून में थी. सो, गांव के मदरसे से शुरू हुई शिक्षा राज्य की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी से उर्दू और फारसी में एमए, पीएचडी कर के पूरी हुई. फिर उसी यूनिवर्सिटी में वे उर्दू के लेक्चरर बने और हैड औफ द डिपार्टमैंट के पद से रिटायर हुए.

यह कोई 30-35 साल पहले की बात है जब डा. जाकिर ने यूनिवर्सिटी में पढ़ाना शुरू किया. जब भी किसी शायर का कलाम पढ़ाते तो क्लास का माहौल ऐसा उर्दूमय और शायराना बना देते थे कि दूसरी क्लासों के लड़के उन की क्लास में आ कर बैठ जाया करते थे. ऐसे ही एक दिन वे किसी सूफी शायर की कोई कविता पढ़ा रहे थे और उस की तुलना भारतीय विशिष्ट अद्वैत से करने के लिए वे एक संस्कृत का श्लोक उद्धृत करना चाह रहे थे लेकिन नफीस उर्दू जबान पर संस्कृत का श्लोक बारबार फिसल जाता था. तभी उधर से संस्कृत विभाग की लेक्चरर डा. मंजरी निकलीं. डा. मंजरी ने उन्हें नमस्कार किया और बतलाया कि संस्कृत के कठिन शब्दों को 2 टुकड़ों में बांट कर बोलें तो वे बिलकुल सरल हो जाएंगे. डा. जाकिर अली की मुश्किल हल हो गई.

डा. मंजरी डा. जाकिर की हमउम्र थीं. उस दिन से संस्कृत के कठिन शब्दों की गांठ खोलने का जो सिलसिला शुरू हुआ उस के चलते वे न जाने कब एकदूसरे के सामने अपने मन की गांठें खोलने लगे और धीरेधीरे एकदूसरे के मन में इतने गहरे उतर गए कि अब अगर एक दिन भी आपस में नहीं मिलते थे तो दोनों ही बेचैन हो जाते. दूसरे दिन मिलने पर दोनों की आंखें गवाही देती थीं कि रातभर नींद का इंतजार करते दुख गई हैं.

ऐसे ही एक रतजगे के बाद दोनों मिले तो डा. जाकिर ने डा. मंजरी का हाथ अपने हाथ में थाम कर बेताबी से कहा, देखो, मंजरीजी, अब इस तरह गुजारा नहीं होगा. मैं क्या कहना चाह रहा हूं आप समझ रही हैं न.’ मंजरी ने जवाब दिया था, ‘जाकिर साहब, पिताजी तो खुले विचारों के हैं, इसलिए उन्हें तो करीबकरीब मना लिया है मगर मां को मनाने में थोड़ा वक्त लगेगा, थोड़ा इंतजार करिए, सब्र का फल मीठा होता है.’

तब वह जमाना था जब देश की गंगाजमुनी संस्कृति में राजनीति विष सी  बन कर नहीं घुली थी. वोटों की खातिर सत्ता के दलालों ने 2 संस्कृतियों को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का सांप्रदायिक लिबास नहीं पहनाया था. लवजिहाद या घरवापसी के नारे नहीं गूंजे थे. संस्कृत विभाग के प्रोफैसर

डा. रामकिंकर खुद डा. जाकिर के बड़े बन कर उन की तरफ से पैगाम ले कर मंजरी के घर गए थे और पहली बार उन की मां की गालियां खा कर चुपचाप लौट आए. मगर दूसरे दिन ही फिर पहुंच गए. फिर लगातार समझाइश के बाद आखिर उन्होंने खुद डा. जाकिर का बड़ा भाई बन कर  जिम्मेदारी ली कि विवाह के बाद न  तो मंजरी का नाम बदला जाएगा, न धर्म. फिर 2-4 पढ़ेलिखे और समाज के प्रतिष्ठित व प्रगतिवादी लोगों की मध्यस्थता से उन्होंने अपनी मुंहबोली भांजी डा. मंजरी का विवाह डा. जाकिर से करा दिया था.

डा. मंजरी विवाह के बाद भी मंजरी ही रहीं. शादी के 3 सालों बाद जब पहली संतान हुई तो मंजरी ने ही जाकिर अली से कहा, ‘जाकिर साहब, औलाद की पहचान बाप के नाम से होती है, आप बच्चे का नाम अपने खानदानी रिवायत के मुताबिक ही रखें.’ और बच्चे का नाम शाहिद तय हुआ था. इस के 3 सालों बाद जब दूसरा पुत्र हुआ तो उस का नाम साजिद रखा गया.

डा. जाकिर अली की शादी को 10 साल बीत गए थे. सबकुछ बेहद खुशगवार था. तभी उस साल चेचक महामारी बन कर फैली और पता नहीं कैसे डा. मंजरी उस की चपेट में आ गईं. बहुत दवा, कोशिशों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका.

डा. जाकिर अली की तो दुनिया ही उजड़ गई. वे एकदम टूट गए थे. अब न तो उन्हें पढ़ाने में वह दिलचस्पी रही थी न क्लास लेने में. घरगृहस्थी की परेशानी थी, सो अलग. पता नहीं मंजरी ने पिछले 10 सालों में उन्हें और उन के घर को कैसे संभाला था कि आज उन्हें यह भी मालूम नहीं था कि उन्हें बनियान कितने नंबर की आती है.

रिश्तेदारी और परिवार में कोई ऐसी महिला थी नहीं, जिसे वे घर ला कर बच्चों की परवरिश व घर की जिम्मेदारी दे कर निश्ंिचत हो जाते. घर जैसेतैसे पुराने बावर्ची और माली की मदद से चलता रहा. एक साल बीत गया तो उन्होंने शाहिद और साजिद को होस्टल में भेजने का निर्णय किया. यह पता चलने पर बूढ़े बावर्ची ने रोते हुए साजिद को कलेजे से लगा कर फरियाद की, ‘नवाब साहब, नमक खाया है इस घर का और आप के पिता ने हमें चाकर नहीं समझा. आज उन्हीं की याद दिला कर आप से कहता हूं कि बच्चों को हमारी नजरों से दूर नहीं करें.’

हार कर उन्होंने एक पढ़ीलिखी आया की जरूरत का इश्तिहार दे दिया. इंटरव्यू के लिए राबिया बानो उन के घर आईं तो डा. जाकिर को लगा कि शायद वे यों ही आई होंगी. राबिया यूनिवर्सिटी में म्यूजिक डिपार्टमैंट में ट्यूटर थीं और गजलों के संगीत की धुन बनाने के लिए उर्दू गजलों में अरबी या फारसी के कुछ कठिन शब्दों का सीधीसादी भाषा में अर्थ समझने के लिए अकसर उन से मिलती रहती थीं. उन के बारे में बताया गया था कि उन के शौहर मेकैनिकल इंजीनियर थे. कंपनी के कौंट्रेक्ट पर दुबई गए थे. वहां किसी विदेशी महिला की मुहब्बत के जाल में फंस गए और उस से निकाह कर के टैलीफोन पर 3 बार तलाक बोल कर राबिया बानो को तलाक दे दिया.

थोड़ी देर इधरउधर की बातें होती रहीं. मगर जब दूसरी महिला उम्मीदवार आने लगी तो राबिया खुद उन से बोलीं, ‘डाक्टर साहब, आप ने 2 बच्चों की परवरिश करने लायक एक पढ़ीलिखी आया की जरूरत का इश्तिहार दिया है न?’

‘जी हां, क्या आप की नजरों में कोई है, या आप किसी की सिफारिश कर रही हैं,’ डा. जाकिर ने अधीरता से पूछा तो राबिया ने बड़ी दृढ़ता से जवाब दिया, ‘न तो मेरी नजर में कोई है, न मैं किसी की सिफारिश कर रही हूं. डाक्टर साहब, मैं खुद हाजिर हुई हूं.’

जवाब सुन कर वे ऐसे चौंके थे जैसे कोई करंट का जोरदार झटका लगा हो. मगर बोले, ‘आप यह क्या कह रही हैं राबियाजी, आप, आप.’ आगे कोई उपयुक्त शब्द नहीं मिलने के कारण वे खुद को बेहद असहज महसूस करते हुए चुप हो गए.

उन की स्थिति को समझते हुए राबिया ने बड़ी संजीदगी से जवाब दिया, ‘डाक्टर साहब, मैं पूरे होशोहवास में आप के सामने यह प्रस्ताव रख रही हूं. पिछले 4 सालों से मैं अकेली इस समाज के भेड़ की खाल ओढ़े भेडि़यों से अपने को महफूज रखने की जंग लड़तेजूझते पस्त हो गई हूं. तलाकशुदा अकेली औरत को हर कोई मिठाई का टुकड़ा समझ कर निगल जाना चाहता है. पहले वर्किंग वुमेन होस्टल में रहती थी. वहां की वार्डन महोदया देखने में तो हमजैसी अकेली औरतों की बड़ी हमदर्द थीं, मगर वास्तव में वे भड़वागीरी करती थीं.

वहां से निकल कर यूनिवर्सिटी के गर्ल्स होस्टल में रहने लगी तो कुछ दिनों बाद ही वहां के वार्डन महोदय को उर्दू सीखने का शौक चर्राया और वे इस बहाने देर रात गए मेरे कमरे में जमने लगे. फिर उर्दू की सस्ती किताबों में बाजारू लेखकों के द्विअर्थी इशारों को समझने के बहाने घटिया हरकतें करने लगे. तो एक दिन मैं ने उन्हें सख्ती से डांट दिया. बस, 2 सप्ताह में ही उन्होंने मुझे वहां से यह कह कर हटवा दिया कि मेरे रहने पर गर्ल्स स्टूडैंट्स को एतराज है. अब जिस सोसाइटी के फ्लैट में रह रही हूं वहां के सैके्रटरी साहब, वैसे तो छोटी बहन कहते हैं, मगर बातबात में गले लगाने और देररात को, खासतौर पर उन की नर्स पत्नी की नाइट ड्यूटी होने पर, मेरी खैरियत के बहाने मेरे घर का दरवाजा थपथपाने के पीछे छिपे उन के मकसद, उन की नीयत को मैं समझ रही हूं.

‘आप भले ही इसे मेरी बेहयाई कहें या फिलहाल मुझे किसी लालच से प्रेरित समझें, मगर मैं आप के पास यह ख्वाहिश ले कर आई हूं कि मुझे आया नहीं, इन बच्चों की मां बन कर इन की परवरिश करने का मौका दें. मैं वादा करती हूं कि आप की दौलत और जमीनजायदाद से मेरा कोई संबंध नहीं रहेगा. सिर्फ आप की और इन बच्चों की खिदमत में जिंदगी गुजार दूंगी. बस, आप से सिर्फ यह गुजारिश करूंगी कि अगर मुझ से कभी कोई खता हो जाए तो इसी घर के किसी कोने में नौकरानी बन कर पड़े रहने की इजाजत दे दीजिएगा. उस सूरत में मुझे तलाक की सजा मत दीजिएगा’, कहतेकहते राबिया की आवाज रुंध गई और आंखों से आंसू टपकने लगे.

उन की बात सुन कर डा. जाकिर बेहद उलझन में पड़ गए थे. वे राबिया को पिछले 4 सालों से जानते थे. उन के बारे में कभी कोई इधरउधर की बात नहीं सुनी थी. मगर ऐसा कैसे मुमकिन होगा, सोचते हुए बेहद असमंजस में वे इधरउधर टहलने लगे. तो बूढ़े बावर्ची चाय ले कर पेश हुए और बोले, ‘नवाब साहब, छोटे मुंह बड़ी बात कहने की गुस्ताखी कर रहा हूं. मेरी आप से अपील है कि इन की बातों पर गौर फरमाएं. हमें इन की बातों में सचाई नजर आती है, मालिक.’

बूढ़े बावर्ची की समझाइश में कुछ ऐसा असर था कि एक सप्ताह बाद ही एक साधारण से समारोह में राबिया बानो, बेगम जाकिर अली बन गईं.

इस के 2 सप्ताह बाद ही जब राबिया ने यूनिवर्सिटी की सेवा से अपना त्यागपत्र देने की घोषणा की तो डा. जाकिर ने ही कहा था, ‘राबिया, अभी तुम ट्यूटर हो, जल्द ही तुम्हारा प्रमोशन होने वाला है. और जहां तक मैं समझता हूं, तुम्हें संगीत से लगाव महज प्रोफैशनल नहीं है, वरना किसी गजल को बिलकुल अक्षरश: सही समझ कर उस की धुन तैयार हो, यह जनून प्रोफैशनल में नहीं, डिवोशनल में ही हो सकता है जो संगीत को एक इबादत का दरजा देता हो. तुम्हें यूनिवर्सिटी की नौकरी नहीं छोड़नी चाहिए.’

उन की लंबी तकरीर सुन कर राबिया बेगम ने सिर्फ इतना कहा था, ‘जनाब, बच्चों की सही परवरिश और घरगृहस्थी की देखभाल भी एक इबादत है. संगीत की इबादत के लिए यूनिवर्सिटी की नौकरी की नहीं, रियाज की जरूरत होती है. मैं वक्त निकाल कर रियाज करती रहूंगी’ और उन्होंने इस्तीफा भेज दिया था.

बीते दिन फिर से लौटने लगे. राबिया की प्यारभरी देखभाल से बच्चे बेहद खुश रहते. डा. जाकिर बारबार राबिया बेगम से संगीत का रियाज जारी रखने की अपील करते. राबिया बेगम को इतने बड़े घर की देखभाल और बच्चों की परवरिश से बहुत कम समय मिलता था. फिर भी जब भी समय मिलता, वे रियाज करतीं. उन की आवाज में वह कशिश थी कि जब वे कोई गजल गाती थीं तो किसी खास भावुक पंक्ति की रवानगी पर वे इस कद्र भावुक हो जाती थीं कि शब्द आंसू बन कर उन की आंखों से बहने लगते थे और जाकिर साहब खुद की शायराना भावुकता से उन के आंसुओं को गजल के खयाल मान कर अपने होंठों से चूम लेते थे.

ऐसे ही 20-22 साल कब बीत गए, पता ही नहीं चला. जाकिर साहब रिटायर हो गए. बच्चे अच्छे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ाई पूरी कर के अच्छी नौकरियों में लग गए. जाकिर साहब अब पूरी तरह किताबों में डूबे रहते. शाम को वे राबिया बेगम से कोई गजल सुनाने के बहाने रियाज के लिए प्रेरित करते थे. उस दिन राबिया बेगम फैज साहब की गजल के अशआर लय में गा रही थीं.

‘गरचे मिल बैठे जो हम तुम, वो मुलाकात के बाद,अपना एहसासे जियां जानिए कितना होगा. हम सुखन होंगे जो हम तुम तो हर इक बात के बीच, अनकही बात का मोहूम सा परदा होगा.’ अशआर के आखिरी मिसरे को गाते हुए राबिया इतनी भावुक हो गईं कि शब्द उन की आंखों से बहने लगे तो हमेशा की तरह जाकिर अली अपनी कुरसी से उठे और उन्होंने राबिया बेगम का चेहरा अपने हाथों में थाम कर उन के आसुओं को होंठों में समा लिया.

संयोग से उसी समय शाहिद की बेगम खरीदारी कर के लौटी थी. कई सारे बैग्स के बोझ को हाथों में बदलने के लिए वह उन के कमरे की इस आदमकद खिड़की के बाहर रुकी थी. तभी उस ने इस भावनात्मक दृश्य को देखा और अपने पति से शिकायत लगाई, ‘इस उम्र में यह आशनाई-तौबातौबा. अगर कोई बाहर का आदमी देख लेता तो, आप इन आदमकद खिड़कियों पर परदा लगवाने के लिए तो कहिए.’

दरअसल बात यह थी कि इस हवेलीनुमा मकान के आखिरी कोने पर बने इस आदमकद खिड़कियों वाले कमरे पर शाहिद की बीवी की मुद्दत से नजर थी. कमरे के बाहर फलदार पेड़ों की कतार, और फूलों की क्यारियां थीं. शरद की मादक चांदनी रातों में और वसंत के मौसम में कमरे से बाहर निकले बिना इस खिड़की के सामने बैठ कर ही फूलों व आमों के बौर की खुशबू के साथ उस शायराना माहौल को महसूस किया जा सकता था. शाहिद की बीवी की तालीम बीए तक थी. शायरी और उर्दू की तहजीब तो उसे नहीं थी, हां, उस का मिजाज आशिकाना जरूर था. वह पहले भी कई मौकों पर यह इच्छा जाहिर कर चुकी थी कि अब्बू और अम्मी अगर गांव में जा कर रहें तो बेहतर होगा. वरना आधी से ज्यादा हवेली में अम्मी ने जो लड़कियों के लिए स्कूल खुलवा दिया है, स्कूल वाले धीरेधीरे पूरी हवेली पर ही काबिज जो जाएंगे. जमीनजायदाद की फसल वगैरा भी अभी कारिंदों की ईमानदारी पर ही मिल रही है. तब जमीनजायदाद की भी बेहतर देखभाल हो सकेगी.

इस के अलावा, वह, एक बार डा. जाकिर द्वारा आम के बागों का ठेका उस के एक रिश्तेदार को देने से इनकार कर देने की वजह राबिया बेगम को मानती थी, इसलिए उन से मन ही मन बेहद नाराज थी. सो, वह किसी भी तरह उन्हें इस घर से अलग कर देना चाहती थी.

इस वाकए के 2 दिनों बाद जाकिर अली अपने कमरे में बैठे किसी पत्रिका के लिए एक शायर के बारे में लेख लिख रहे थे कि राबिया बेगम उन के पास आ कर बोलीं, ‘‘आप को जनाब रामकिंकर साहब याद हैं न? अरे वही रामकिंकर साहब, जो संस्कृत के प्रोफैसर थे और बाद में किसी फैलोशिप के तहत लंदन चले गए थे. फिर वहीं बस गए.’’

‘‘अरे, आप ऐसे कैसे कह रही हैं, हम ऐसे एहसानफरामोश तो नहीं कि रामकिंकर साहब को भूल जाएं. हां, बताइए क्या हुआ रामकिंकर साहब को?’’ जाकिर अली ने कलम रोक कर उत्सुकता से पूछा.

‘‘अरे, उन्हें कुछ नहीं हुआ, कुछ दिनों पहले उन का फोन आया था. हमें लंदन आने का न्योता दिया है. कह रहे थे कि उन की ही एक संस्था भारतीय शास्त्रीय संगीत का कोई बड़ा कार्यक्रम करवा रही है, सो शास्त्रीय संगीत संबंधित कुछ साजों की संगत देने वालों की उन्हें काफी जरूरत है. वे तो कह रहे थे कि अब भी मेरे इल्म और हमारे फन की वहां बेहतर कदर हो सकेगी. क्या कहते हैं आप?’’ राबिया बेगम ने उन से मानो कुछ आश्वासन पाने की मुद्रा में प्रश्न किया.

अंतहीन- भाग 1: क्यों गुंजन ने अपने पिता को छोड़ दिया?

रामदयाल क्लब के लिए निकल ही रहे थे कि फोन की घंटी बजी. उन के फोन पर ‘हेलो’ कहते ही दूसरी ओर से एक महिला स्वर ने पूछा, ‘‘आप गुंजन के पापा बोल रहे हैं न, फौरन मैत्री अस्पताल के आपात- कालीन विभाग में पहुंचिए. गुंजन गंभीर रूप से घायल हो गया है और वहां भरती है.’’

इस से पहले कि रामदयाल कुछ बोल पाते फोन कट गया. वे जल्दी से जल्दी अस्पताल पहुंचना चाह रहे थे पर उन्हें यह शंका भी थी कि कोई बेवकूफ न बना रहा हो क्योंकि गुंजन तो इस समय आफिस में जरूरी मीटिंग में व्यस्त रहता है और मीटिंग में बैठा व्यक्ति भला कैसे घायल हो सकता है?

गुंजन के पास मोबाइल था, उस ने नंबर भी दिया था मगर मालूम नहीं उन्होंने कहां लिखा था. उन्हें इन नई चीजों में दिलचस्पी भी नहीं थी… तभी फिर फोन की घंटी बजी. इस बार गुंजन के दोस्त राघव का फोन था.

‘‘अंकल, आप अभी तक घर पर ही हैं…जल्दी अस्पताल पहुंचिए…पूछताछ का समय नहीं है अंकल…बस, आ जाइए,’’ इतना कह कर उस ने भी फोन रख दिया.

ड्राइवर गाड़ी के पास खड़ा रामदयाल का इंतजार कर रहा था. उन्होंने उसे मैत्री अस्पताल चलने को कहा. अस्पताल के गेट के बाहर ही राघव खड़ा था, उस ने हाथ दे कर गाड़ी रुकवाई और ड्राइवर की साथ वाली सीट पर बैठते हुए बोला, ‘‘सामने जा रही एंबुलैंस के पीछे चलो.’’

‘‘एम्बुलैंस कहां जा रही है?’’ रामदयाल ने पूछा.

‘‘ग्लोबल केयर अस्पताल,’’ राघव ने बताया, ‘‘मैत्री वालों ने गुंजन की सांसें चालू तो कर दी हैं पर उन्हें बरकरार रखने के साधन और उपकरण केवल ग्लोबल वालों के पास ही हैं.’’

‘‘गुंजन घायल कैसे हुआ राघव?’’ रामदयाल ने भर्राए स्वर में पूछा.

‘‘नेहरू प्लैनेटोरियम में किसी ने बम होने की अफवाह उड़ा दी और लोग हड़बड़ा कर एकदूसरे को रौंदते हुए बाहर भागे. इसी हड़कंप में गुंजन कुचला गया.’’

‘‘गुंजन नेहरू प्लैनेटोरियम में क्या कर रहा था?’’ रामदयाल ने हैरानी से पूछा.

‘‘गुंजन तो रोज की तरह प्लैनेटोरियम वाली पहाड़ी पर टहल रहा था…’’

‘‘क्या कह रहे हो राघव? गुंजन रोज नेहरू प्लैनेटोरियम की पहाड़ी पर टहलने जाता था?’’

अब चौंकने की बारी राघव की थी इस से पहले कि वह कुछ बोलता, उस का मोबाइल बजने लगा.

‘‘हां तनु… मैं गुंजन के पापा की गाड़ी में तुम्हारे पीछेपीछे आ रहा हूं…तुम गुंजन के साथ मेडिकल विंग में जाओ, काउंटर पर पैसे जमा करवा कर मैं भी वहीं आता हूं,’’ राघव रामदयाल की ओर मुड़ा, ‘‘अंकल, आप के पास क्रेडिट कार्ड तो है न?’’

‘‘है, चंद हजार नकद भी हैं…’’

‘‘चंद हजार नकद से कुछ नहीं होगा अंकल,’’ राघव ने बात काटी, ‘‘काउंटर पर कम से कम 25 हजार तो अभी जमा करवाने पड़ेंगे, फिर और न जाने कितना मांगें.’’

‘‘परवा नहीं, मेरा बेटा ठीक कर दें, बस. मेरे पास एटीएम कार्ड भी है, जरूरत पड़ी तो घर से चेकबुक भी ले आऊंगा,’’ रामदयाल राघव को आश्वस्त करते हुए बोले.

ग्लोबल केयर अस्पताल आ गया था, एंबुलैंस को तो सीधे अंदर जाने दिया गया लेकिन उन की गाड़ी को दूसरी ओर पार्किंग में जाने को कहा.

‘‘हमें यहीं उतार दो, ड्राइवर,’’ राघव बोला.

दोनों भागते हुए एंबुलैंस के पीछे गए लेकिन रामदयाल को केवल स्ट्रेचर पर पड़े गुंजन के बाल और मुंह पर लगा आक्सीजन मास्क ही दिखाई दिया. राघव उन्हें काउंटर पर पैसा जमा कराने के लिए ले गया और अन्य औपचारिकताएं पूरी करने के बाद दोनों इमरजेंसी वार्ड की ओर चले गए.

इमरजेंसी के बाहर एक युवती डाक्टर से बात कर रही थी. राघव और रामदयाल को देख कर उस ने डाक्टर से कहा, ‘‘गुंजन के पापा आ गए हैं, बे्रन सर्जरी के बारे में यही निर्णय लेंगे.’’

डाक्टर ने बताया कि गुंजन का बे्रन स्कैनिंग हो रहा है मगर उस की हालत से लगता है उस के सिर में अंदरूनी चोट आने की वजह से खून जम गया है और आपरेशन कर के ही गांठें निकालनी पड़ेंगी. मुश्किल आपरेशन है, जानलेवा भी हो सकता है और मरीज उम्र भर के लिए सोचनेसमझने और बोलने की शक्ति भी खो सकता है. जब तक स्कैनिंग की रिपोर्ट आती है तब तक आप लोग निर्णय ले लीजिए.

यह कह कर और आश्वासन में युवती का कंधा दबा कर वह अधेड़ डाक्टर चला गया. रामदयाल ने युवती की ओर देखा, सुंदर स्मार्ट लड़की थी. उस के महंगे सूट पर कई जगह खून और कीचड़ के धब्बे थे, चेहरा और दोनों हाथ छिले हुए थे, आंखें लाल और आंसुओं से भरी हुई थीं. तभी कुछ युवक और युवतियां बौखलाए हुए से आए. युवकों को रामदयाल पहचानते थे, गुंजन के सहकर्मी थे. उन में से एक प्रभव तो कल रात ही घर पर आया था और उन्होंने उसे आग्रह कर के खाने के लिए रोका था. लेकिन प्रभव उन्हें अनदेखा कर के युवती की ओर बढ़ गया.

‘‘यह सब कैसे हुआ, तनु?’’

विस्मृत होता अतीत : शादी से पहले क्या हुआ था विभा के साथ

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क्वार्टर : धीमा के सपनों का घरौंदा

कुंजू प्रधान को घर आया देख कर धीमा की खुशी का ठिकाना न रहा. धीमा की पत्नी रज्जो ने फौरन बक्से में से नई चादर निकाल कर चारपाई पर बिछा दी.कुंजू प्रधान पालथी मार कर चारपाई पर बैठ गया.

‘‘अरे धीमा, मैं तो तुझे एक खुशखबरी देने चला आया…’’

कुंजू प्रधान ने कहा, ‘‘तेरा सरकारी क्वार्टर निकल आया है, लेकिन उस के बदले में बड़े साहब को कुछ रकम देनी होगी.’’‘‘रकम… कितनी रकम देनी होगी?’’ धीमा ने पूछा.

‘‘अरे धीमा… बड़े साहब ने तो बहुत पैसा मांगा था, लेकिन मैं ने तुम्हारी गरीबी और अपना खास आदमी बता कर रकम में कटौती करा ली थी,’’

कुंजू प्रधान ने कहा.‘‘पर कितनी रकम देनी होगी?’’

धीमा ने दोबारा पूछा.‘‘यही कोई 5 हजार रुपए,’’

कुंजू प्रधान ने बताया.‘‘5 हजार रुपए…’’

धीमा ने हैरानी से पूछा, ‘‘इतनी बड़ी रकम मैं कहां से लाऊंगा?’’

‘‘अरे भाई धीमा, तू मेरा खास आदमी है. मुझे प्रधान बनाने के लिए तू ने बहुत दौड़धूप की थी. मैं ने किसी दूसरे का नाम कटवा कर तेरा नाम लिस्ट में डलवा दिया था, ताकि तुझे सरकारी क्वार्टर मिल सके. आगे तेरी मरजी. फिर मत कहना कि कुंजू भाई ने क्वार्टर नहीं दिलाया,’’

कुंजू प्रधान ने कहा.‘‘लेकिन मैं इतनी बड़ी रकम कहां से लाऊंगा?’’

धीमा ने अपनी बात रखी.‘‘यह गाय तेरी है…’’

सामने खड़ी गाय को देखते हुए कुंजू ने कहा, ‘‘क्या यह दूध देती है?’’

‘‘हां, कुंजू भाई, यह मेरी गाय है और दूध भी देती है.’’

‘‘अरे पगले, यह गाय मुझे दे दे. इसे मैं बड़े साहब की कोठी पर भेज दूंगा. बड़े साहब गायभैंस पालने के बहुत शौकीन हैं. तेरा काम भी हो जाएगा.

’’कुंजू प्रधान की बात सुन कर धीमा ने रज्जो की तरफ देखा, मानो पूछ रहा हो कि क्या गाय दे दूं? रज्जो ने हलका सा सिर हिला कर रजामंदी दे दी.रज्जो की रजामंदी का इशारा पाते ही कुंजू प्रधान के साथ आए उस के एक चमचे ने फौरन गाय खोल ली.

रास्ते में उस चमचे ने कुंजू प्रधान से पूछा, ‘‘यह गाय बड़े साहब की कोठी पर कौन पहुंचाएगा?’’‘‘अरे बेवकूफ, गाय मेरे घर ले चल. सुबह ही बीवी कह रही थी कि घर में दूध नहीं है. बच्चे परेशान करते हैं. अब घर का दूध हो जाएगा… समझ?’’

कुंजू प्रधान बोला.‘‘लेकिन बड़े साहब और क्वार्टर?’’ उस चमचे ने सवाल किया.‘‘मु?ो न तो बड़े साहब से मतलब है और न ही क्वार्टर से. क्वार्टर तो धीमा का पहली लिस्ट में ही आ गया था.

यह सब तो ड्रामा था.’’कुंजू प्रधान दलित था. जब गांव में दलित कोटे की सीट आई, तो उस ने फौरन प्रधानी की दावेदारी ठोंक दी थी, क्योंकि अपनी बिरादरी में वही तो एक था, जो हिंदी में दस्तखत कर लेता था.उधर गांव के पहले प्रधान भगौती ने भी अपने पुराने नौकर लालू, जो दलित था, का परचा भर दिया था, क्योंकि भगौती के कब्जे में काफी गैरकानूनी जमीन थी.

उसे डर था, कहीं नया प्रधान उस जमीन के पट्टे आवंटित न करा दे.इस जमीन के बारे में कुंजू भी अच्छी तरह जानता था, तभी तो उस ने चुनाव प्रचार में यह खबर फैला दी थी कि अगर वह प्रधान बन गया, तो गांव वालों के जमीन के पट्टे बनवा देगा.जब यह खबर भगौती के कानों में पड़ी, तो उस ने फौरन कुंजू को हवेली में बुलवा लिया था, क्योंकि भगौती अच्छी तरह जानता था कि अगला प्रधान कुंजू ही होगा.कुंजू और भगौती में सम?ौता हो गया था.

बदले में भगौती ने कुंजू को 50 हजार रुपए नकद व लालू की दावेदारी वापस ले ली थी. लिहाजा, कुंजू प्रधान बन गया था.आज धीमा के क्वार्टर के लिए नींव की खुदाई होनी थी. रज्जो ने अगरबत्ती जलाई, पूजा की. धीमा ने लड्डू बांट कर खुदाई शुरू करा दी थी.

नकेलु फावड़े से खुदाई कर रहा था, तभी ‘खट’ की आवाज हुई. नकेलु ने फौरन फावड़ा रोक दिया. फिर अगले पल कुछ सोच कर उस ने दोबारा उसी जगह पर फावड़ा मारा, तो फिर वही ‘खट’ की आवाज आई.‘‘कुछ है धीमा भाई…’’

नकेलु फुसफुसाया, ‘‘शायद खजाना है.’’नकेलु की आंखों में चमक देख कर धीमा मुसकराया और बोला, ‘‘कुछ होगा तो देखा जाएगा. तू खोद.’’

‘‘नहीं धीमा भाई, शायद खजाना है. रात में खोदेंगे, किसी को पता नहीं चलेगा. अपनी सारी गरीबी खत्म हो जाएगी,’’ नकेलु ने कहा.‘‘कुछ नहीं है नकेलु, तू नींव खोद.

जो होगा देखा जाएगा.’’नकेलु ने फिर फावड़ा मारा. जमीन के अंदर से एक बड़ा सा पत्थर निकला. पत्थर पर एक आकृति उभरी हुई थी.‘‘अरे, यह तो किसी देवी की मूर्ति लगती है,’’ सड़क से गुजरते नन्हे ने कहा.फिर क्या था.

मूर्ति वाली खबर गांव में जंगल की आग की तरह फैल गई और वहां पर अच्छीखासी भीड़ जुट गई.‘‘अरे, यह तो किसी देवी की मूर्ति है…’’

नदंन पंडित ने कहा, ‘‘देवी की मूर्ति धोने के लिए कुछ ले आओ.’’नदंन पंडित की बात का फौरन पालन हुआ. जुगनू पानी की बालटी ले आया.

बालटी में पानी देख कर नदंन पंडित चिल्लाया, ‘‘अरे बेवकूफ, पानी नहीं गाय का दूध ले कर आ.’’नदंन पंडित का इतना कहना था कि जिस के घर पर जितना गाय का दूध था, फौरन उतना ही ले आया.गांव में नदंन पंडित की बहुत बुरी हालत थी. उस की धर्म की दुकान बिलकुल नहीं चलती थी.

आज से उन्हें अपना भविष्य संवरता लग रहा था.नंदन पंडित ने मूर्ति को दूध से अच्छी तरह से धोया, फिर मूर्ति को जमीन पर गमछा बिछा कर 2 ईंटों की टेक लगा कर रख दिया. उस के बाद 10 रुपए का एक नोट रख कर माथा टेक दिया. इस के बाद नंदन पंडित मुुंह में कोई मंत्र बुदबुदाने लग गया था. लेकिन उस की नजर गमछे पर रखे नोटों पर टिकी थी.

गांव वाले बारीबारी से वहां माथा टेक रहे थे.धीमा और रज्जो यह सब बड़ी हैरानी से देख रहे थे. उन की सम?ा में कुछ नहीं आ रहा था कि अब क्या होगा.‘‘यह देवी की जगह है, यहां पर मंदिर बनना चाहिए,’’ भीड़ में से कोई बोला.‘हांहां, मंदिर बनना चाहिए,’

समर्थन में कई आवाजें एकसाथ उभरीं.दूसरे दिन कुंजू प्रधान के यहां सभा हुई. सभा में पूरे गांव वालों ने मंदिर बनाने का प्रस्ताव रखा और आखिर में यही तय हुआ कि मंदिर वहीं बनेगा, जहां मूर्ति निकली है और धीमा को कोई दूसरी जगह दे दी जाएगी.

धीमा को गांव के बाहर थोड़ी सी जमीन दे दी गई, जहां वह फूंस की झोपड़ी डाल कर रहने लगा था.धीमा अब तक अच्छी तरह समझ चुका था कि सरकारी क्वार्टर के चक्कर में उस की पुश्तैनी जमीन भी हाथ से निकल चुकी है.मंदिर बनने का काम इतनी तेजी से चला कि जल्दी ही मंदिर बन गया.

गांव वालों ने बढ़चढ़ कर चंदा दिया था.आज मंदिर में भंडारा था. कई दिनों से पूजापाठ हो रहा था. नंदन पंडित अच्छी तरह से मंदिर पर काबिज हो चुका था.

खुले आसमान के नीचे फूंस की ?ोंपड़ी के नीचे बैठा धीमा अपने बच्चों को सीने से लगाए बुदबुदाए जा रहा था, ‘‘वाह रे ऊपर वाले, इनसान की जमीन पर इनसान का कब्जा तो सुना था, मगर कोई यह तो बताए कि जब ऊपर वाला ही इनसान की जमीन पर कब्जा कर ले, तो फरियाद किस से करें?

प्यार की पहली किस्त : सदमे में जीती सायरा

बेगम रहमान से सायरा ने झिझकते हुए कहा, ‘‘मम्मी, मैं एक बड़ी परेशानी में पड़ गई हूं.’’

उन्होंने टीवी पर से नजरें हटाए बगैर पूछा, ‘‘क्या किसी बड़ी रकम की जरूरत पड़ गई है?’’

‘‘नहीं मम्मी, मेरे पास पैसे हैं.’’

‘‘तो फिर इस बार भी इम्तिहान में खराब नंबर आए होंगे और अगली क्लास में जाने में दिक्कत आ रही होगी…’’ बेगम रहमान की निगाहें अब भी टीवी सीरियल पर लगी थीं.

‘‘नहीं मम्मी, ऐसा कुछ भी नहीं है. आप ध्यान दें, तो मैं कुछ बताऊं भी.’’

बेगम रहमान ने टीवी बंद किया और बेटी की तरफ घूम गईं, ‘‘हां, अब बताए मेरी बेटी कि ऐसी कौन सी मुसीबत आ पड़ी है, जो मम्मी की याद आ गई.’’

‘‘मम्मी, दरअसल…’’ सायरा की जबान लड़खड़ा रही थी और फिर उस ने जल्दी से अपनी बात पूरी की, ‘‘मैं पेट से हूं.’’

यह सुन कर बेगम रहमान का हंसता हुआ चेहरा गुस्से से लाल हो गया, ‘‘तुम से कितनी बार कहा है कि एहतियात बरता करो, लेकिन तुम निरी बेवकूफ की बेवकूफ रही.’’

बेगम रहमान को इस बात का सदमा कतई नहीं था कि उन की कुंआरी बेटी पेट से हो गई है. उन्हें तो इस बात पर गुस्सा आ रहा था कि उस ने एहतियात क्यों नहीं बरती.

‘‘मम्मी, मैं हर बार बहुत एहतियात बरतती थी, पर इस बार पहाड़ पर पिकनिक मनाने गए थे, वहीं चूक हो गई.’’

‘‘कितने दिन का है?’’ बेगम रहमान ने पूछा.

‘‘चौथा महीना है,’’ सायरा ने सिर झुका कर कहा.

‘‘और तुम अभी तक सो रही थी,’’ बेगम रहमान को फिर गुस्सा आ गया.

‘‘दरअसल, कैसर नवाब ने कहा था कि हम लोग शादी कर लेंगे और इस बच्चे को पालेंगे, लेकिन मम्मी, वह गजाला है न… वह बड़ी बदचलन है. कैसर नवाब पर हमेशा डोरे डालती थी. अब वे उस के चक्कर में पड़ गए और हम से दूर हो गए.’’

रहमान साहब शहर के एक नामीगिरामी अरबपति थे. कपड़े की कई मिलें थीं, सियासत में भी खासी रुचि रखते थे. सुबह से शाम तक बिजनेस मीटिंग या सियासी जलसों में मसरूफ रहते थे.

बेगम रहमान भी अपनी किटी पार्टी और लेडीज क्लब में मशगूल रहती थीं. एकलौती बेटी सायरा के पास मां की ममता और बाप के प्यार के अलावा दुनिया की हर चीज मौजूद थी, यारदोस्त, डांसपार्टी वगैरह यही सब उस की पसंद थी.

हाई सोसायटी में किरदार के अलावा हर चीज पर ध्यान दिया जाता है. सायरा ने भी दौलत की तरह अपने हुस्न और जवानी को दिल खोल कर लुटाया था, लेकिन उस में अभी इतनी गैरत बाकी थी कि वह बिनब्याही मां बन कर किसी बच्चे को पालने की हिम्मत नहीं कर सकती थी.

‘‘तुम ने मुसीबत में फंसा दिया बेटी. अब सिवा इस बात के कोई चारा नहीं है कि तुम्हारा निकाह जल्द से जल्द किसी और से कर दिया जाए. अपने बराबर वाला तो कोई कबूल करेगा

नहीं. अब कोई शरीफजादा ही तलाश करना पड़ेगा,’’ कहते हुए बेगम रहमान फिक्रमंद हो गईं.

एक महीने के अंदर ही बेगम रहमान ने रहमान साहब के भतीजे सुलतान मियां से सायरा का निकाह कर दिया.

सुलतान कोआपरेटिव बैंक में मैनेजर था. नौजवान खूबसूरत सुलतान के घर जब बेगम रहमान सायरा के रिश्ते की बात करने गईं, तो सुलतान की मां आब्दा बीबी को बड़ी हैरत हुई थी.

बेगम रहमान 5 साल पहले सुलतान के अब्बा की मौत पर आई थीं. उस के बाद वे अब आईं, तो आब्दा बीबी सोचने लगीं कि आज तो सब खैरियत है, फिर ये कैसे आ गईं.

जब बेगम रहमान ने बगैर कोई भूमिका बनाए सायरा के रिश्ते के लिए सुलतान का हाथ मांगा तो उन्हें अपने कानों पर यकीन नहीं आया था.

कहां सायरा एक अरबपति की बेटी और कहां सुलतान एक मामूली बैंक मैनेजर, जिस के बैंक का सालाना टर्नओवर भी रहमान साहब की 2 मिलों के बराबर नहीं था.

सुलतान की मां ने बड़ी मुश्किल से कहा था, ‘‘भाभी, मैं जरा सुलतान से बात कर लूं.’’

‘‘आब्दा बीबी, इस में सुलतान से बात करने की क्या जरूरत है. आखिर वह रहमान साहब का सगा भतीजा है. क्या उस पर उन का इतना भी हक नहीं है

कि सायरा के लिए उसे मांग सकें?’’ बेगम रहमान ने दोटूक शब्दों में खुद ही रिश्ता दिया और खुद ही मंजूर कर लिया था.

चंद दिनों के बाद एक आलीशान होटल में सायरा का निकाह सुलतान मियां से हो गया. रहमान साहब ने उन के हनीमून के लिए स्विट्जरलैंड के एक बेहतरीन होटल में इंतजाम करा दिया था. सायरा को जिंदगी का यह नया ढर्रा भी बहुत पसंद आया.

हनीमून से लौट कर कुछ दिन रहमान साहब की कोठी में गुजारने के बाद जब सुलतान ने दुलहन को अपने घर ले जाने की बात कही तो सायरा के साथ बेगम रहमान के माथे पर भी बल पड़ गए.

‘‘तुम कहां रखोगे मेरी बेटी सायरा को?’’ बेगम रहमान ने बड़े मजाकिया अंदाज में पूछा.

‘‘वहीं जहां मैं और मेरी अम्मी रहती हैं,’’ सुलतान ने बड़ी सादगी से जवाब दिया.

‘‘बेटे, तुम्हारे घर से बड़ा तो सायरा का बाथरूम है. वह उस घर में कैसे रह सकेगी,’’ बेगम रहमान ने फिर एक दलील दी.

सुलतान को अब यह एहसास होने लगा था कि यह सारी कहानी घरजंवाई बनाने की है.

‘‘यह सबकुछ तो आप को पहले सोचना चाहिए था,’’ सुलतान ने कहा.

इस से पहले कि सायरा कोई जवाब देती, बेगम रहमान को याद आ गया कि यह निकाह तो एक भूल को छिपाने के लिए हुआ है. मियांबीवी में अभी से अगर तकरार शुरू हो गई, तो पेट में पलने वाले बच्चे का क्या होगा.

उन्होंने अपने मूड को खुशगवार बनाते हुए कहा, ‘‘अच्छा बेटा, ले जाओ. लेकिन सायरा को जल्दीजल्दी ले आया करना. तुम को तो पता है कि सायरा

के बगैर हम लोग एक पल भी नहीं रह सकते.’’

सुलतान और उस की मां की खुशहाल जिंदगी में आग लगाने के लिए सायरा सुलतान के घर आ गई.

2 दिनों में ही हालात इतने खराब हो गए कि सायरा अपने घर वापस आ गई. मियांबीवी की तनातनी नफरत में बदल गई और बात तलाक तक पहुंच गई, लेकिन मसला था मेहर की रकम का, जो सुलतान मियां अदा नहीं कर सकते थे.

10 लाख रुपए मेहर बांधा गया था. आखिर अरबपति की बेटी थी. उस के जिस्म को कानूनी तौर पर छूने की कीमत 10 लाख रुपए से कम क्या होती.

एक दिन मियांबीवी की इस लड़ाई को एक बेरहम ट्रक ने हमेशा के लिए खत्म कर दिया.

हुआ यों कि सुलतान मियां शाम को बैंक से अपने स्कूटर से वापस आ रहे थे, न जाने किस सोच में थे कि सामने से आते हुए ट्रक की चपेट में आ गए और बेजान लाश में तबदील हो गए.

सायरा बेगम अपने पुराने दोस्तों के साथ एक बड़े होटल में गपें लगाने में मशगूल थीं, तभी बीमा कंपनी के एक एजेंट ने उन्हें एक लिफाफे के साथ

10 लाख रुपए का चैक देते हुए कहा, ‘‘मैडम, ऐसा बहुत कम होता है कि कोई पहली किस्त जमा करने के बाद ही हादसे का शिकार हो जाए.

‘‘सुलतान साहब ने अपनी तनख्वाह में से 10 लाख रुपए की पौलिसी की पहली किस्त भरी थी और आप को नौमिनी करते समय यह लिफाफा भी दिया था. शायद वह यही सोचते हुए जा रहे थे कि महीने के बाकी दिन कैसे गुजरेंगे और ट्रक से टकरा गए.’’

सायरा ने पूरी बात सुनने के बाद एजेंट का शुक्रिया अदा किया और होटल से बाहर आ कर अपनी कार में बैठ कर लिफाफा खोला. यह सुलतान का पहला और आखिरी खत था. लिखा था :

तुम ने मुझे तोहफे में 4 महीने का बच्चा दिया था, मैं तुम्हें मेहर के 10 लाख रुपए दे रहा हूं.

तुम्हारी मजबूरी सुलतान.

सायरा ने खत को लिफाफे में रखा और ससुराल की तरफ गाड़ी को घुमा लिया.

वह होटल आई थी अरबपति रहमान की बेटी बन कर, अब वापस जा रही थी एक खुद्दार बैंक मैनेजर की बेवा बन कर.

माफी : तलाक के बाद का ट्विस्ट

शिफाली और प्रमोद को आज कोर्ट से तलाक के कागज मिल गए थे. लंबी प्रक्रिया के बाद आज कुछ सुकून मिला. शिफाली और प्रमोद तथा उनके परिजन साथ ही कोर्ट से बाहर निकले, उनके चेहरे पर विजय और सुकून के निशान साफ झलक रहे थे. चार साल की लंबी जदोजहद के बाद आज फैसला हो गया था.

दस साल हो गए थे शादी को मग़र साथ 6 साल ही रह पाए थे.

चार साल तो तलाक की कार्यवाही में ही बीत गये गए.

शेफाली के हाथ मे दहेज के समान की लिस्ट थी जो अभी प्रमोद के घर से लेना था और प्रमोद के हाथ मे गहनों की लिस्ट थी जो उसने शेफाली से लेने थे.

साथ मे कोर्ट का यह आदेश भी था कि प्रमोद शेफाली को  दस लाख रुपये की राशि एकमुश्त देगा.शेफाली और प्रमोद दोनो एक ही  औटो में बैठकर प्रमोद के घर आये.  आज ठीक 4 साल बाद आखिरी बार ससुराल जा रही थी शेफाली, अब वह कभी इन रास्तों से इस घर तक नहीं आएगी. यह बात भी उसे कचोट रही थी कि जहां वह 4 साल तक रही आज उस घर से उसका नाता टूट गया है. वह  दहेज के सामान की लिस्ट लेकर आई थी, क्योंकि सामान की निशानदेही तो उसे ही करनी थी.

सभी रिश्तेदार अपनेअपने घर जा चुके थे. बस, तीन प्राणी बचे थे. प्रमोद,शेफाली और उस की मां. प्रमोद यहां अकेला ही रहता था, क्योंकि उसके पेरेंट्स गांव में ही रहते थे.

शेफाली और प्रमोद की इकलौती 5 साल की बेटी जो कोर्ट के फैसले के अनुसार बालिग होने तक शेफाली के पास ही रहेगी. प्रमोद महीने में एक बार उससे मिल सकता है.

घर में  घुसते ही पुरानी यादें ताज़ी हो गईं. कितनी मेहनत से सजाया था शेफाली ने इसे. एक एक चीज में उसकी जान बसती थी. सबकुछ उसकी आंखों के सामने बना था. एकएक ईंट से उसने धीरेधीरे बनते घरौदे को पूरा होते देखा था. यह उसका सपनो का घर था. कितनी शिद्दत से प्रमोद ने उसके सपने को पूरे किए थे.

प्रमोद थकाहारा सा सोफे पर पसर गया और शेफाली से बोला, “ले लो जो कुछ भी तुम्हें लेना है, मैं तुम्हें नही रोकूंगा.”

शेफाली बड़े गौर से प्रमोद को देखा और सोचने लगी 4 साल में कितना बदल गया है प्रमोद. उसके बालों में  अब हल्की हल्की सफेदी झांकने लगी थी. शरीर पहले से आधा रह गया है. चार साल में चेहरे की रौनक गायब हो गई थी.

शेफाली स्टोर रूम की तरफ बढ़ी, जहां उसके दहेज का समान पड़ा था. कितना था उसका सामान. प्रेम विवाह था दोनो का. घर वाले तो मजबूरी में साथ हुए थे.

प्रेम विवाह था तभी तो नजर लग गई किसी की. क्योंकि प्रेमी जोड़ी को हर कोई टूटता हुआ देखना चाहता है.

बस एक बार पीकर बहक गया था प्रमोद. हाथ उठा बैठा था उस पर. बस तभी वो गुस्से में मायके चली गई थी.

फिर चला था लगाने सिखाने का दौर. इधर प्रमोद के भाईभाभी और उधर शेफाली की माँ. नौबत कोर्ट तक जा पहुंची और आखिर तलाक हो गया. न शेफाली लौटी और न ही प्रमोद लेने गया.

शेफाली की मां जो उसके साथ ही गई थीं,बोली, ” कहां है तेरा सामान? इधर तो नही दिखता. बेच दिया होगा इस शराबी ने ?”

“चुप रहो मां,” शेफाली को न जाने क्यों प्रमोद को उसके मुँह पर शराबी कहना अच्छा नही लगा.

फिर स्टोर रूम में पड़े सामान को एक एक कर लिस्ट से मिलाया गया.

बाकी कमरों से भी लिस्ट का सामान उठा लिया गया.

शेफाली ने सिर्फ अपना सामान लिया प्रमोद के समान को छुआ तक नही.  फिर शेफाली ने प्रमोद को गहनों से भरा बैग पकड़ा दिया.

प्रमोद ने बैग वापस शेफाली को ही दे दिया, ” रखलो, मुझे नही चाहिए काम आएगें तेरे मुसीबत में .”

गहनों की किम्मत 15 लाख रुपये से कम नही थी.

“क्यों, कोर्ट में तो तुम्हरा वकील कितनी दफा गहने-गहने चिल्ला रहा था.”

“कोर्ट की बात कोर्ट में खत्म हो गई, शेफाली. वहाँ तो मुझे भी दुनिया का सबसे बुरा जानवर और शराबी साबित किया गया है.”

सुनकर शेफाली की मां ने नाकभों चढ़ा दीं.

“मुझे नही चाहिए.

वो दस लाख रुपये भी नही चाहिए.”

“क्यों?” कह कर प्रमोद सोफे से खड़ा हो गया.

“बस यूं ही” शेफाली ने मुंह फेर लिया.

“इतनी बड़ी जिंदगी पड़ी है कैसे काटोगी? ले जाओ,,, काम आएंगे.”

इतना कह कर प्रमोद ने भी मुंह फेर लिया और दूसरे कमरे में चला गया. शायद आंखों में कुछ उमड़ा होगा जिसे छुपाना भी जरूरी था.

शेफाली की मां गाड़ी वाले को फोन करने में व्यस्त थी.

शेफाली को मौका मिल गया. वो प्रमोद के पीछे उस कमरे में चली गई.

वो रो रहा था. अजीब सा मुंह बना कर.  जैसे भीतर के सैलाब को दबाने  की जद्दोजहद कर रहा हो. शेफाली ने उसे कभी रोते हुए नही देखा था. आज पहली बार देखा न जाने क्यों दिल को कुछ सुकून सा मिला.

मग़र वह ज्यादा भावुक नही हुई.

सधे अंदाज में बोली, “इतनी फिक्र थी तो क्यों दिया तलाक प्रमोद?”

“मैंने नही तलाक तुमने दिया.”

“दस्तखत तो तुमने भी किए.”

“माफी नही मांग सकते थे?”

“मौका कब दिया तुम्हारे घर वालों ने. जब भी फोन किया काट दिया.”

“घर भी तो आ सकते थे”?

“मेरी हिम्मत नही हुई थी आने की?”

शेफाली की मां आ गई. वो उसका हाथ पकड़ कर बाहर ले गई. “अब क्यों मुंह लग रही है इसके? अब तो रिश्ता भी खत्म हो गया.”

मां-बेटी बाहर बरामदे में सोफे पर बैठकर गाड़ी का इंतजार करने लगी.

शेफाली के भीतर भी कुछ टूट रहा था. उसका दिल बैठा जा रहा था. वो सुन्न सी पड़ती जा रही थी. जिस सोफे पर बैठी थी उसे गौर से देखने लगी. कैसे कैसे बचत कर के उसने और प्रमोद ने वो सोफा खरीदा था. पूरे शहर में घूमी तब यह पसन्द आया था.”

फिर उसकी नजर सामने तुलसी के सूखे पौधे पर गई. कितनी शिद्दत से देखभाल किया करती थी. उसके साथ तुलसी भी घर छोड़ गई.

घबराहट और बढ़ी तो वह फिर से उठ कर भीतर चली गई. माँ ने पीछे से पुकारा मग़र उसने अनसुना कर दिया. प्रमोद बेड पर उल्टे मुंह पड़ा था. एक बार तो उसे दया आई उस पर. मग़र  वह जानती थी कि अब तो सब कुछ खत्म हो चुका है इसलिए उसे भावुक नही होना है.

उसने सरसरी नजर से कमरे को देखा. अस्त व्यस्त हो गया था पूरा कमरा. कहीं कंही तो मकड़ी के जाले झूल रहे थे.

कभी कितनी नफरत थी उसे मकड़ी के जालों से?

फिर उसकी नजर चारों और लगी उन फोटो पर गई जिनमे वह प्रमोद से लिपट कर मुस्करा रही थी.

कितने सुनहरे दिन थे वो.

इतने में मां फिर आ गई. हाथ पकड़ कर फिर उसे बाहर ले गई.

बाहर गाड़ी आ गई थी. सामान गाड़ी में डाला जा रहा था. शेफाली सुन सी बैठी थी. प्रमोद गाड़ी की आवाज सुनकर बाहर आ गया.

अचानक प्रमोद कान पकड़ कर घुटनो के बल बैठ गया.

बोला,” मत जाओ…माफ कर दो.”

शायद यही वो शब्द थे जिन्हें सुनने के लिए चार साल से तड़प रही थी. सब्र के सारे बांध एक साथ टूट गए. शेफाली ने कोर्ट के फैसले का कागज निकाला और फाड़ दिया .

और मां कुछ कहती उससे पहले ही लिपट गई प्रमोद से. साथ मे दोनो बुरी तरह रोते जा रहे थे.

दूर खड़ी शेफाली की माँ समझ गई कि कोर्ट का आदेश दिलों के सामने कागज से ज्यादा कुछ नही.

काश, उनको पहले मिलने दिया होता?

अगर माफी मांगने से ही रिश्ते टूटने से बच  जाएं, तो माफ़ी मांग लेनी चाहिए.

खरीदी हुई दुलहन : डर के साए में एक लड़की

38 साल के अनिल का दिल अपने कमरे में जाते समय 25 साल के युवा सा धड़क रहा था. आने वाले लमहों की कल्पना ही उस की सांसों को बेकाबू किए दे रही थी, शरीर में झुरझुरी सी पैदा कर रही थी. आज उस की सुहागरात है. इस रात को उस ने सपनों में इतनी बार जिया है कि इस के हकीकत में बदलने को ले कर उसे विश्वास ही नहीं हो रहा.

बेशक वह मंजू को पैसे दे कर ब्याह कर लाया है, तो क्या हुआ? है तो उस की पत्नी ही. और फिर दुनिया में ऐसी कौन सी शादी होती होगी जिस में पैसे नहीं लगते. किसी में कम तो किसी में थोड़े ज्यादा. 10 साल पहले जब छोटी बहन वंदना की शादी हुई थी तब पिताजी ने उस की ससुराल वालों को दहेज में क्या कुछ नहीं दिया था. नकदी, गहने, गाड़ी सभी कुछ तो था. तो क्या इसे किसी ने वंदना के लिए दूल्हा खरीदना कहा था. नहीं न. फिर वह क्यों मंजू को ले कर इतना सोच रहा था. कहने दो जिसे जो कहना था. मुझे तो आज रात सिर्फ अपने सपनों को हकीकत में बदलते देखना है. दुनिया का वह वर्जित फल चखना है जिसे खा कर इंसान बौरा जाता है. मन में फूटते लड्डुओं का स्वाद लेते हुए अनिल ने सुहागरात के लिए सजाए हुए अपने कमरे में प्रवेश किया.

अब तक उस ने जो फिल्मों और टीवी सीरियल्स में देखा था उस के ठीक विपरीत मंजू बड़े आराम से सुहागसेज पर बैठी थी. उस के शरीर पर शादी के जोड़े की जगह पारदर्शी नाइटी देख कर अनिल को अटपटा सा लगा क्योंकि उस का तो यह सोचसोच कर ही गला सूखे जा रहा था कि वह घूंघट उठा कर मंजू से बातों की शुरुआत कैसे करेगा. मगर यहां का माहौल देख कर तो लग रहा है जैसे कि मंजू तो उस से भी ज्यादा उतावली हो रही है.

अनिल सकुचाया सा बैड के एक कोने में बैठ गया. मंजू थोड़ी देर तो अनिल की पहल का इंतजार करती रही, फिर उसे झिझकते देख कर खुद ही उस के पास खिसक आई और उस के कंधे पर अपना सिर टिका दिया. यंत्रवत से अनिल के हाथ मंजू के इर्दगिर्द लिपट गए. मंजू ने अपनेआप को हलका सा धक्का दिया और वे दोनों ही बैड पर लुढ़क गए. मंजू ने अनिल के ऊपर झुकते हुए उस के होंठ चूमने शुरू कर दिए तो अनिल बावला सा हो उठा. उस के बाद तो अनिल को कुछ भी होश नहीं रहा. प्रकृति ने जैसे उसे सबकुछ एक ही लमहे में सिखा दिया.

मंजू ने उसे चरम तक पहुंचाने में पूरा सहयोग दिया था. अनिल का यह पहला अनुभव ऐसा था जैसे गूंगे को गुड़ का स्वाद, जिस के स्वाद को सिर्फ महसूस किया जा सकता है, बयान नहीं. एक ही रात में अनिल तो जैसे जोरू का गुलाम ही हो गया था. आज मंजू ने उसे वह तोहफा दिया था जिस के सामने सारी बादशाहत फीकी थी.

सुबह अनिल ने बेफिक्री से सोती हुई मंजू को नजरभर कर देखा. सबकुछ सामान्य ही था उस में. कदकाठी, रंगरूप और चेहरामोहरा सभी कुछ. मगर फिर भी रात जो खास बात हुई थी उसे याद कर के अनिल मन ही मन मुसकरा दिया और सोती हुई पत्नी को प्यार से चूमता हुआ कमरे से बाहर निकल गया.

मंजू जैसी भी थी, अनिल से तो इक्कीस ही थी. अनिल का गहरा सांवला रंग, मुटाया हुआ सा शरीर, कम पढ़ाईलिखाई सभीकुछ उस की शादी में रोड़ा बने हुए थे. अब तो सिर के बाल भी सफेद होने लगे थे. बहुत कोशिशों के बाद भी जब जानपहचान और अपनी बिरादरी में अनिल के रिश्ते की बात नहीं जमी तो उस की बढ़ती हुई उम्र को देखते हुए उस की बूआ ने उस की मां को सलाह दी कि अगर अपने समाज में बात नहीं बन रही है तो किसी गरीब घर की गैरबिरादरी की लड़की के बारे में सोचने में कोई बुराई नहीं है. और तो और, आजकल तो लोग पैसे दे कर भी दुलहन ला रहे हैं. बूआ की बात से सहमत होते हुए भी अनिल की मां ने एक बार उस की कुंडली मंदिर वाले पंडितजी को दिखाने की सोची.

पंडितजी ने कुंडली देख कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘बहनजी, शादी का योग तो हर किसी की कुंडली में होता ही है. किसीकिसी की शादी जल्दी तो किसी की थोड़ी देर से, मगर समझदार लोग आजकल कुंडली के फेर में नहीं पड़ते. आप तो कोई ठीकठाक सी लड़की देख कर बच्चे का घर बसा दीजिए. चाहे कुंडली मिले या न मिले. बस, लड़की मिल जाए और शादी के बाद दोनों के दिल.’’

अनिल की मां को बात समझ में आ गई और उन्होंने अपने मिलने वालों व रिश्तेदारों के बीच में यह बात फैला दी कि उन्हें अनिल के लिए किसी भी जातबिरादरी की लड़की चलेगी. बस, लड़की संस्कारी और दिखने में थोड़ी ठीकठाक हो.

बात निकली है तो दूर तलक जाएगी. एक दिन अनिल की मां से मिलने एक व्यक्ति आया जो शादियां करवाने का काम करता था. उसी ने उन्हें मंजू के बारे में बताया और अनिल से उस की शादी करवाने के एवज में 20 हजार रुपए की मांग की. अनिल अपनी मां और बूआ के साथ मंजू से मिलने उस के घर गया. बेहद गरीब घर की लड़की मंजू अपने 5 भाईबहनों में तीसरे नंबर पर थी. उस से छोटा एक भाई और भाई से छोटी एक बहन रीना. मंजू की 2 बड़ी बहनें भी उस की ही तरह खरीदी गई थीं.

25 साल की युवा मंजू उम्र में अनिल से लगभग 12-13 साल छोटी थी. एक कमरे के छोटे से घर में इतने प्राणी कैसे रहते होंगे, यह सोच कर ही अनिल हैरान हो रहा था. उसे तो यह सोच कर हंसी आ रही थी कि कैसी परिस्थितियों में ये बच्चे पैदा हुए होंगे.

खैर, मंजू को देखने के बाद अनिल ने शादी के लिए हां कर दी. अब यह तय हुआ कि शादी का सारा खर्चा अनिल का परिवार ही उठाएगा और साथ ही, मंजू के परिवार को 2 लाख रुपए भी दिए जाएंगे ताकि उन का जीवनस्तर कुछ सुधर सके. 50 हजार रुपए एडवांस दे कर अनिल और मंजू की शादी का सौदा तय हुआ और जल्दी ही घर के 4 जने जा कर मंजू को ब्याह लाए. बिना किसी बरात और शोरशराबे के मंजू उस की पत्नी बन गई.

मंजू निम्नवर्गीय घर से आई थी, इसलिए अनिल के घर के ठाटबाट देख कर वह भौचक्की सी रह गई. बेशक उस का स्वागत किसी नववधू सा नहीं हुआ था मगर मंजू को इस का न तो कोई अफसोस था और न ही उस ने कभी इस तरह का कोई सपना देखा था. बल्कि वह तो इस घर में आ कर फूली नहीं समा रही थी. जितना खाना उस के मायके में दोनों वक्त बनता था उतना तो यहां एक वक्त के खाने में बच जाता है और कुत्तों को खिलाया जाता है. ऐसेऐसे फल और मिठाइयां उसे यहां देखने और खाने को मिल रहे थे जिन के उस ने सिर्फ नाम ही सुने थे, देखे और चखे कभी नहीं.

‘अगर मैं अनिल के दिल की रानी बन गई तो फिर घर की मालकिन बनने से मुझे कोई नहीं रोक सकता’, मंजू ने मन ही मन सोच लिया कि आखिरकार उसे घर की सत्ता पर कब्जा करना ही है.

‘सुना था कि पुरुष के दिल का रास्ता उस के पेट से हो कर जाता है. नहीं. पेट से हो कर नहीं, बल्कि उस की भूख की आनंददायी संतुष्टि से हो कर जाता है. फिर भूख चाहे पेट की हो, धन की हो या फिर शरीर की हो. यदि मैं अनिल की भूख को संतुष्ट रखूंगी तो वह निश्चित ही मेरे आगेपीछे घूमेगा. और फिर, तू मेरा राजा, मैं तेरी रानी, घर की महारानी’, यह सोचसोच कर मंजू खुद ही अपने दिमाग की दाद देने लगी.

‘बनो दिल की रानी’ अपने इस प्लान के मुताबिक, मंजू रोज दिन में 2 बार अनिल को ‘आई लव यू स्वीटू’ का मैसेज भेजने लगी. लंचटाइम में उसे फोन कर के याद दिलाती कि खाना टाइम पर खा लेना. वह शाम को सजधज कर अनिल को उस के इंतजार में खड़ी मिलती.

रात के खाने में भी वह अनिल को गरमागरम फुल्के अपने हाथ से बना कर ही खिलाती थी चाहे उसे घर आने में कितनी भी देर क्यों न हो जाए और खुद भी उस के साथ ही खाती थी. यानी हर तरह से अनिल को यह महसूस करवाती थी कि वह उस की जिंदगी में सब से विशेष व्यक्ति है. और हर रात वह अनिल को अपने क्रियाकलापों से खुश करने की पूरी कोशिश करती थी. उस ने कभी अनिल को मना नहीं किया बल्कि वह तो उसे प्यार करने को प्रोत्साहित करती थी. उम्र में छोटी होने के कारण अनिल उसे बच्ची ही समझता था और उस की हर नादानी को नजरअंदाज कर देता था.

कहने को तो अनिल अपने मांबाप का इकलौता बेटा था मगर कम पढ़ेलिखे होने और अतिसाधारण शक्लसूरत के कारण अकसर लोग उसे कोई खास तवज्जुह नहीं दिया करते थे. वहीं, उस की शादी भी नहीं हो रही थी. सो, अनिल हीनभावना का शिकार होने लगा था. मगर मंजू ने उसे यह एहसास दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि वह कितना काबिल और खास इंसान है बल्कि वह तो कहती थी कि अनिल ही उस की सारी दुनिया है.

मंजू के साथ और प्यार से अनिल का आत्मविश्वास भी बढ़ने लगा. मंजू को पा कर अनिल ऐसे खुश था जैसे किसी भूखे व्यक्ति को हर रोज भरपेट स्वादिष्ठ भोजन मिलने लगा हो.

एक दिन मंजू की मां का फोन आया. वे उस से मिलना चाह रही थीं. रात में मंजू ने अनिल की शर्ट के बटन खोलते हुए अदा से कहा, ‘‘मुझे कुछ रुपए चाहिए. मां ने मिलने के लिए बुलाया है. पहली बार जा रही हूं. अब इतने बड़े बिजनैसमैन की पत्नी हूं, खाली हाथ तो नहीं जा सकती न.’’

‘‘तो मां से ले लो न,’’ अनिल ने उसे पास खींचते हुए कहा.

‘‘मां से क्यों? मैं तो अपने हीरो से ही लूंगी. वह भी हक से,’’ कहते हुए मंजू ने अनिल के सीने पर अपना सिर टिका दिया.

‘‘कितने चाहिए? अभी ये रखो. और चाहिए तो कल दे दूंगा,’’ अनिल ने निहाल होते हुए उसे 20 हजार रुपए थमा दिए और फिर मंजू को बांहों में कसते हुए लाइट बंद कर दी.

मंजू 15 दिनों के लिए मायके गईर् थी. मगर 5 दिनों बाद ही अनिल को उस की याद सताने लगी. मंजू की शहदभरी बातें और मस्तीभरी शरारतें उसे रातभर सोने नहीं देतीं. उस ने अगले ही दिन मंजू का तत्काल का टिकट बनवा कर आने के लिए कह दिया. मंजू भी जैसे आने के लिए तैयार ही बैठी थी. उस के वापस आने के बाद अनिल की दीवानगी उस के लिए और भी बढ़ गई. अब मंजू हर महीने अनिल से

10-15 हजार रुपए ले कर अपने मायके भेजने लगी. मंजू ने अनिल से उस का एटीएम कार्ड नंबर और पिन आदि ले लिया. जिस की मदद से वह अपनी बहनों और भाई के लिए कपड़े, घरेलू सामान आदि भी औनलाइन और्डर कर के भेज देती. मंजू के प्यार का नशा अनिल के सिर चढ़ कर बोलने लगा था. ‘सैयां भए कोतवाल तो अब डर काहे का.’ घर में मंजू का ही हुक्म चलने लगा.

बेटे की इच्छा को देख अनिल की मां को न चाहते हुए भी तिजोरी की चाबियां बहू को देनी पड़ीं. सामाजिक लेनदेन आदि भी सबकुछ उसी की सहमति या अनुमति से होता था. अनिल की मां उसे कुछ नहीं कह पाती थीं क्योंकि मंजू ने उन्हें भी यह एहसास करवा दिया था कि उस ने अनिल से शादी कर के अनिल सहित उन के पूरे परिवार पर एहसान किया है.

‘‘सुनिए न, मेरी बड़ी इच्छा है कि मेरा नाम हर जगह आप के नाम के साथ जुड़ा हो,’’ एक दिन मंजू ने अनिल से बड़े ही अपनेपन से कहा.

‘‘अरे, इस में इच्छा की क्या बात है? वह तो जुड़ा ही है. देखो, तुम मेरी अर्धांगिनी हो यानी मेरा आधा हिस्सा. इस नाते मेरी हर चलअचल संपत्ति पर तुम्हारा आधा हक हुआ न,’’ अनिल ने प्यार से मंजू को समझाया.

‘‘वह तो ठीक है, मगर यह सब अगर कानूनी रूप से भी हो जाता तो कितना अच्छा होता. मगर उस में तो कई पेंच होंगे न. चलो, रहने दो. बिना मतलब आप परेशान हो जाएंगे,’’ मंजू ने बालों की लट को उंगलियों में लपेटते हुआ कहा.

‘‘मेरी जान, मेरे तन, मन और धन… सब की मालकिन हो तुम,’’ अनिल ने उसे बांहों में भरते हुए कहा और फिर एक दिन वकील और सीए को बुला कर अपने घरदुकान, बैंक अकाउंट व अन्य चलअचल प्रौपर्टी में मंजू को कानूनन अपना उत्तराधिकारी बना दिया.

इधर एक बच्चे की मां बन कर जहां मंजू ने अनिल के खानदान को वारिस दे कर सदा के लिए उसे अपना कर्जदार बना लिया वहीं मां बनने के बाद मंजू के रूप और यौवन में आए निखार ने अनिल की रातों की नींद उड़ा दी. अनिल को अब अपनी ढलती उम्र का एहसास होने लगा था. वह यह महसूस करने लगा था कि अब उस में पहले वाली ऊर्जा नहीं रही और वह मंजू की शारीरिक जरूरतें पहले की तरह पूरी नहीं कर पाता. अपनी इस गिल्ट को दूर करने के लिए वह मंजू की हर भौतिक जरूरत पूरी करने की कोशिश में लगा रहता. अनिल आंख बंद कर के मंजू की हर बात मानने लगा था.

मंजू बेशक अनिल की प्रौपर्टी की मालकिन बन गई थी मगर उस ने भी अपने दिल का मालिक सिर्फ और सिर्फ अनिल को ही बनाया था. वह यह बात कभी नहीं भूल सकी थी कि जब उस के आसपड़ोस के लोेग उसे ‘खरीदी हुई दुलहन’ कह कर हिकारत से देखते थे तब यही अनिल कैसे उस की ढाल बन कर सामने खड़ा हो जाता था और उसे दुनिया की चुभती हुई निगाहों से बचा कर अपने दिल में छिपा लेता था. उस की सास ने उसे कभी अपने खानदान की बहू जैसा सम्मान नहीं दिया था मगर फिर भी अपनी स्थिति से आज वह खुश थी.

उस ने बहुत ही योजनानुसार अपने परिवार को गरीबी के दलदल से बाहर निकाल लिया था. मंजू ने मोमबत्ती की तरह खुद को जला कर अपने परिवार को रोशन कर दिया था. मंजू ने दुकान के काम में मदद करने के लिए अपने भाई को अपने पास बुला लिया. इसी बीच अनिल की मां चल बसीं, तो अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए मंजू ने अपने मांपापा और छोटी बहन रीना को भी अपने पास ही बुला लिया.

एक दिन वही दलाल अनिल के घर आया जिस ने मंजू से उस की शादी करवाई थी. रीना को देखते ही उस की मां से बोला, ‘‘क्या कीमत लगाओगे लड़की की? किसी को जरूरत हो तो बताना पड़ेगा न?’’

‘‘मेरी बहन किसी की खरीदी हुई दुलहन नहीं बनेगी,’’ मंजू ने फुंफकारते हुए कहा.

‘‘खरीदी हुई दुलहन, बड़ी जल्दी पर निकल आए. अपनी शादी का किस्सा भूल गई क्या?’’ दलाल ने मंजू पर ताना कसते हुए मुंह बनाया.

‘‘मेरी बात और थी. मैं तो बिना सहारे की बेल थी जिसे किसी न किसी पेड़ से लिपटना ही था. मगर रीना के साथ ऐसा नहीं है. देर आए दुरुस्त आए. कुदरत ने उसे अनिल के रूप मे सिर पर छत दे दी है और पांवों के नीचे जमीन भी. अभी मैं जिंदा हूं और अपनी बहन की शादी कैसे करनी है, यह हम खुद तय कर लेंगे. आप जा सकते हैं. लेकिन हां, अनिल को मेरी जिंदगी में लाने के लिए मैं सदा आप की कर्जदार रहूंगी, धन्यवाद,’’ मंजू ने दलाल से हाथ जोड़ते हुए आभार जताया. वहीं पीछे खड़ा अनिल मुसकरा रहा था. आज उस के दिल में मंजू के लिए प्यार के साथसाथ इज्जत भी बढ़ गई थी.

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अपूर्ण: मंदार के आने के बाद क्या हुआ धारिणी की जिंदगी में

‘‘धारिणीआज पहली बार नौकरी के लिए बाहर निकली थी. रुद्र के गुजरने के बाद वाह बहुत अकेली ही थी. समीरा की जिम्मेदारी निभाते हुए वह थक जाती थी. समीरा के जिंदगी में पिता रुद्र की खाली जगह भी धारिणी को ही पूरी करनी पड़ती थी. नौकरी के कारण धारिणी की समस्याएं और भी बढ़ गईं. मगर घर में ऐसे कितने दिन बीतते? इसलिए नौकरी धारिणी की जरूरत बन गई थी. एक होस्टल में उसे रिसैप्शनिस्ट की नौकरी मिली थी. रोज रेल से आनाजाना सब से बड़ी समस्या थी, क्योंकि उसे इस की आदत नहीं थी. पहले दिन धारिणी का भाई सारंग साथ आया.’’

सारंग ने उस की अपने दोस्तों से पहचान करा दी, ‘‘दीदी, ये सब आप को मदद करेंगे… किसी को भी पुकारो.’’

‘‘जरूर, टैंशन मत लो मैडम,’’ दोस्तों के गु्रप से आवाज आई.

‘‘दीदी, ये मंदार शेटे. ये और आप ट्रेन से साथसाथ ही उतरोगे. शाम को भी यह आप के साथ ही रहेंगे. चलो, मैं अब निकलता हूं.’’

‘‘हां, जाओ,’’ धारिणी थोड़ी नाराजगी

से बोली.

2 मिनट में ट्रेन आई. धारिणी महिलाओं के डब्बे में चढ़ने की कोशिश कर रही थी. सारंग के सभी दोस्त उसी डब्बे में चढ़ गए.

‘‘अरे, यह तो लेडीज डब्बा है… आप लोग इस डब्बे में कैसे?’’

‘‘ओ मैडम, हम यही रहते हैं. अपने गांव की ट्रेन में सबकुछ चलता है. यह मुंबई थोड़ी है,’’ मंदार बोला.

धारिणी चुप हो गई. मन ही मन आज का दिन अच्छा गुजरे ऐसी कामना करने लगी. जैसे

ही सावरगांव आया धारिणी और मंदार ट्रेन से नीचे उतरे, ‘‘चलो मैडम मैं आप को होटल तक छोड़ता हूं.’’

‘‘नहींनहीं, आप को क्यों परेशानी…’’

‘‘अरे, इस में किस बात की परेशानी. आप सारंग की बहन… सारंग मेरा अच्छा दोस्त है… मैं छोड़ता हूं आप को…’’

धारिणी का भी पहला दिन था. वह भी घबरा रही थी. मंदार के कारण उस ने खुद को थोड़ा हलका महसूस किया. इसलिए वह मंदार की गाड़ी में बैठ गई. वैसे दिन अच्छा ही गया. शाम रेलवे में उसे फिर मंदार मिला.

‘‘कैसा गया आज का दिन धारिणी… सौरी मैं जरा जल्द ही नाम से पुकारने लगा.’’

‘‘नहीं इट्स ओके. आप पुकारें नाम से. मैं गुस्सा नहीं होऊंगी.’’

दोनों घर पहुंचे. दूसरे दिन वही किस्सा. धीरेधीरे धारिणी और मंदार अच्छे दोस्त

बने. सुबहशाम मंदार और धारिणी रेल में मिलते थे. कभीकभार मंदार धारिणी को होटल तक छोड़ने के लिए भी आता था, तो कभी लेने के लिए आता था. रातबेरात व्हाट्सऐप पर उन का चैटिंग भी चलता था. धारिणी सभी समस्याएं मंदार के साथ शेयर करती थी.

‘‘जाने भी दो, कुछ नहीं होगा…’’ इन लफ्जों में मंदार धारिणी को समझता था.

धारिणी के लिए मंदार उस की स्ट्रैस रिलीफ की दवा था, समीरा, मांपिताजी, सारंग ये सभी रुद्र की खाली जगह भरने के लिए असमर्थ थे. लेकिन मंदार रुद्र की तरह मानसिक सहारा देता था. मंदार के कारण धारिणी फिर से संजनेसवरने लगी, हंसने लगी, अच्छे कपड़े पहन के घूमने लगी. उस के लिए वह अच्छा दोस्त था. बाइक पर कभीकभी वह उस के कंधे पर हाथ रखती थी. बोलतेबोलते अनजाने में पीठ पर चपत मारती थी. मगर ये सब एक अच्छा दोस्त होने के नाते ही होता था. 6-7 महीने अच्छे बीत गए. एक दिन सावरगांव उतर दोनों ने चाय पी.

‘‘तुम बहुत बातें करती हो मुझ से. ऐसा क्यों?’’

‘‘तुम अच्छे लगते हो मुझे. मुझे तुम्हारे साथ वक्त बिताना अच्छा लगता है. मुझे तुम्हारी पर्सनैलिटी भी बहुत अच्छी लगती है. रेल में नहीं बोल सकती सब के सामने. इस वक्त हम दोनों ही हैं, इसलिए बता रही हूं.’’

‘‘अरे बाप रे, क्या खा कर निकली हो

घर से?’’

‘‘कुछ नहीं, जो सच है वही बता रही हूं,

तुम से जो लड़की ब्याह करेगी वह सचमुच खुशहाल रहेगी.’’

‘‘हां, यहां से 35 किलीमीटर पर गुफाएं हैं. चलोगी देखने?’’

‘‘पागल हो गए क्या? मैं ने घर पर नहीं बताया. किसी कारण विलंब हुआ तो मांबाबूजी चिंता करेंगे.’’

‘‘नहीं, विलंब नहीं होगा, ट्रेन से तुम रात

9 बजे तक  घर पहुंच जाएगी.’’

‘‘मांबाबूजी क्या कहेंगे?’’

‘‘तुम मेरे साथ गुफा देखने जा रही हो यह मत बताना उन को. एक दिन झठ बोलेगी तो क्या फर्क पड़ने वाला है. पिछले 6 महीनों से मैं ने कुछ मांगा तुम से? थोड़ा घूम के आएंगे… तुम्हें चेंज मिलेगा. तुम्हारे लिए कह रहा हूं… मैं तो हजारों बार गया हूं वहां.’’

‘‘नहीं, मैं काम पर जाती हूं.’’

‘‘हां जाओ. अभी कह रही थी कि तुम्हारे साथ वक्त बिताना अच्छा लगता है. जब वक्त आया तो घबरा रही हो.’’

‘‘अरे, मुझे अच्छा लगता है तो क्या मैं तुम्हारे साथ पूरे गांव में कहीं भी घुमूं क्या?’’

‘‘ठीक है, यहां मेरा और सारंग का एक दोस्त रहता है. शाम को उस के बच्चे को देखने तो चलोगी न?’’

‘‘ट्रेन जाएगी फिर?’’

‘‘मैं छोड़ दूंगा तुम्हें तुम्हारे घर पर मेरी मां… इस बारे में पहले ही सोचा है मैं ने.’’

‘‘ठीक है, हो के आएंगे,’’ धारिणी ने मंदार नाराज न हो, इसलिए हामी भर दी.

‘‘1 घंटा जल्दी निकलना ताकि तुम्हें घर पहुंचने में देर न हो.’’

‘‘हां बाबा, कोशिश करूंगी.’’

शाम को धारिणी हमेशाकी तरह 4 बजे होटल के बाहर आ कर खड़ी हो गई. मंदार उस का ही इंतजार कर रहा था.

धारिणी ने बाइक पर बैठते हुए पूछा, ‘‘कहां रहता है तुम्हारा दोस्त?’’

आखिरकार गाड़ी एक घर के पास रुकी. घर को ताला लगा था. आसपास खेत फैले थे. जगह सुनसान थी. लोगों की बस्ती नहीं थी और चहलपहल भी नहीं थी.

‘‘इस घर को ताला क्यों लगा है मंदार?’’

‘‘चाबी मेरे पास है. आओ अंदर चलते हैं.’’

‘‘मगर क्यों? मुझे घर छोड़ दो.’’

‘‘बावली हो क्या? कभी न मिलने वाला एकांत मिला है हमें. आधा घंटा बैठेंगे, फिर निकलेंगे.’’

‘‘मैं नहीं जाउंगी अंदर.’’

‘‘देखो, तुम पहले आंखें बंद कर के खड़ी रहो. मैं सिर्फ एक जीभर के किस लूंगा और फिर निकलेंगे. तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है क्या?’’

‘‘देखो मंदार, तुम मुझे दोस्त की हैसीयत से अच्छे लगते हो. लेकिन इस बात के लिए मेरी नजदीकी सिर्फ रुद्र से थी और मरते दम तक उस से ही रहेगी.’’

‘‘लेकिन मुझे भी तुम अच्छी लगती हो और अगर मुझे तुम्हें स्पर्श करने को दिल करता है, तो इस में गलत क्या है?’’

‘‘शायद मेरी ही गलती… मुझे तुम से दूर रहना चाहिए था.’’

‘‘अरे सुनो तो, खाली 1/2 घंटा है हमारे पास. क्यों वक्त जाया कर रही हो? ऐसी कौन सी धनदौलत मांग रहा हूं तुम से…’’

‘‘माफ करना… मैं अगर अपनी मर्यादा समझती तो शायद तुम्हें गलतफहमी

न होती अपनी रिलेशनशिप पर… अब तो मेरी ट्रेन भी छूट गई होगी… मुझे सहीसलामत घर पहुंचा दो.’’

‘‘ओह मेरी मां. तुम टैंशन मत ले. तुम्हारी रजामंदी के सिवा मैं कुछ नहीं करूंगा,’’ कह मंदार ने जल्दी बाइक को किक लगाई. 8 बजे गाड़ी घर के सामने खड़ी थी. बाइक की स्पीड और मंदार का गुस्सा साथसाथ चल रहे थे. मगर रास्ते में दोनों एकदूसरे से एक लफ्ज तक नहीं बोले. घर आते ही धारिणी जल्दीजल्दी चलने लगी.

‘‘ओ मैडम, आप को बिना स्पर्श किए घर तक छोड़ा है मैं ने. आप जीत गईं, मैं हारा. मैं ही पागल था, जो हर वक्त आगेपीछे घूमता था. मेरी एक इच्छा पूरी करती, तो कौन सा पहाड़ टूट जाता… मैं कुछ सोने के लिए नहीं कह रहा था मेरे साथ. मैं भी अपनी मर्यादा जानता हूं मैडम.’’

‘‘मंदार, प्लीज इस तरह मुझ से बात मत करो. आखिरकार संस्कार भी कोई चीज होती है या नहीं? इस बात के लिए मेरा मन कभी भी राजी नहीं होगा. तुम्हारे कारण रुद्र के जाने के बाद मैं ने फिर से जीना सीखा. मगर तुम्हें अगर सिर्फ मेरा स्पर्श ही चाहिए, तो मुझ से फिर कभी मत मिलना.’’

‘‘यह भी कहती हो कि तुम मुझे अच्छे लगते हो… पगली स्पर्श करने से ही प्यार व्यक्त होता है.’’

‘‘मंदार मेरे तन पर केवल रुद्र का अधिकार था और रहेगा. तुम जो कह रहे हो वह मेरे संस्कार में कभी नहीं बैठेगा… मेरी सोच कुछ ऐसी ही है.’’

‘‘फिर एक बार गौर करना मेरे कहने पर… मैं इंतजार करूंगा तुम्हारा.’’

‘‘मंदार, तुम्हारी इस साल शादी होने वाली है. तुम्हारी पत्नी को क्या मुंह दिखाऊंगी मैं? तुम मेरे दोस्त हो. शायद उस से भी बढ़ कर हो. मगर हर चीज पूरी होनी ही चाहिए ऐसा नहीं होता. मेरे दोस्त, इसलिए आज से मैं तुम्हें कभी भी परेशान नहीं करूंगी… हम दोनों इस के बाद कभी नहीं मिलेंगे. अगर मेरे कारण तुम्हारा दिल टूट गया होगा, तो मुझे माफ कर देना.’’

सोने की पौलिश : जब एक प्रेमी की उतर गई कलई

ना हर और चिया में इश्क की रवानगी अपनी हद पर थी और आज चिया अपनी स्कृटी को लगातार एक उड़ान दिए जा रही थी. रफ्तार बढ़ाने के साथसाथ उस के चेहरे की बादामी चमक भी बढ़ती जा रही थी. यह फेशियल की चमक नहीं थी, बल्कि यह तो रोड पर मर्दों की भीड़ को पीछे छोड़ देने से उमड़े फख्र की रौनक थी.

चिया के बाल अब भी हलके से गीले थे और उस के बालों से उठती हुई नैचुरल गंध पीछे की सीट पर बैठे नाहर को बहुत भा रही थी. कभीकभी नाहर जानबूझ कर अपने चेहरे को थोड़ा आगे कर देता, जिस से चिया के बाल उस के चेहरे को छू जाते थे. 28 साल का नाहर रोमांचित हुए बिना नहीं रह पा रहा था.

चिया ने आज हलके पीले रंग का सूट पहन रखा था. अनजाने में ही उस ने यह कलर नहीं चुन लिया था, बल्कि इसे तो आज इसलिए पहना था, क्योंकि यह नाहर का पसंदीदा रंग था.

नाहर लखनऊ यूनिवर्सिटी से हिंदी भाषा में पीएचडी कर रहा था, तो चिया एमकौम की छात्रा थी. नाहर अकसर यूनिवर्सिटी के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेता था और उन्हीं कार्यक्रमों में चिया कौमर्स फैकल्टी की नुमाइंदगी करती थी. बस यहीं से 2 नौजवान दिल एकदूसरे के लिए धड़कने लगे थे.

नाहर ‘वीर भारत’ नामक एक पार्टी का सदस्य था और आगे चल कर वह इस पार्टी का बड़ा नेता बनना चाहता था, जबकि चिया चाहती थी कि वह कोई अच्छी नौकरी करे.

‘‘पर, तुम ने यहां स्कूटी क्यों रोकी? मुझे तो यहां नहीं जाना…’’ चिया ने अपनी स्कूटी रैजीडैंसी के सामने रोकी, तो नाहर ने बिना सीट से उतरे हुए पूछा.

चिया ने इशारे से अंदर चल कर बैठ कर समय बिताने को कहा, तो नाहर ने साफ मना कर दिया. नाहर का कहना था कि वह किसी ऐसी जगह नहीं जाना चाहता, जहां पर उसे अपने और अपने देश की गुलामी की झलक मिलती हो और यह ‘रैजीडैंसी’ उसे ऐसा ही महसूस कराती है, जैसे वे अब भी अंगरेजों के गुलाम हों.

‘‘ये विदेशी हमलावर, जिन्होंने हमारे देश को तोड़ा और लूटा, मैं इन की हर चीज से नफरत करता हूं. अंगरेजों और मुगलों ने हमारी संस्कृति को बरबाद किया है…’’ नाहर ने भड़ास निकाली.

चिया नाहर की बात सुन रही थी और उसे नाहर की बातें बच्चों जैसी लग रही थीं, ‘अगर हम गुलाम रहे तो इस में हमारी आपसी फूट और बुजदिली जिम्मेदार रही होगी और फिर नाहर को विदेशी संस्कृति से इतनी ही परेशानी है तो वह पैंट और शर्ट क्यों पहनता है? यह भी तो विदेशी पहनावा है. वह क्यों नहीं कुरता और धोती पहन लेता…’ चिया ने अपने मन में सोचा, पर नाहर के गुस्से को देखते हुए कुछ नहीं कहा.

उन दोनों में कुछ देर के बाद शहीद पार्क में जा कर बैठने की बात पर राजीनामा हुआ, तो चिया ने कुछ दूरी पर ही बने शहीद पार्क की तरफ स्कूटी दौड़ा दी.

शहीद पार्क पहुंच कर चिया और नाहर ने अपने भविष्य को ले कर बातचीत शुरू कर दी थी. चिया के मन में आज कुछ ऐसी बातें हुए थीं, जो वह नाहर को बताना चाह रही थी, पर नाहर तो पार्क में आ कर भी चिया की बात पर कम ध्यान दे रहा था. वह शहीद पार्क में बने ऊंचे स्तंभों के पास जाता, उन्हें छूता और लंबीलंबी सांसें लेता, जैसे उस के अंदर देशभक्ति की भावना जाग रही हो.

नाहर के अंदर का यह बदलाव चिया से छिपा नहीं था, पर कई बार 2 लोगों के बीच पनपा हुआ प्रेम एकदूसरे की बड़ी से बड़ी कमी भी देख नहीं पाता और यही हाल चिया का भी था. नाहर को आर्टिफिशियल गहने पसंद थे, तो चिया को खालिस सोने के गहनों का शौक था.

‘‘इन पर सोने की पौलिश होती है, उतर जाए तो अंदर का जंग लगा हुआ लोहा ही रह जाता है,’’ चिया ने एक लौकेट नाहर को लौटाते हुए कहा था. उस की इस बात पर नाहर नाराज भी हुआ था, पर शांत ही रहा था.

चिया तो आज नाहर को यह बताना चाह रही थी कि अब उन दोनों को शादी के बंधन में बंध जाना चाहिए, क्योंकि वह पेट से थी.

कुछ महीने पहले जब यूनिवर्सिटी का सालाना जलसा था, तब कार्यक्रम के दौरान हुई बारिश चिया और नाहर के प्रेमाग्नि की गवाह बनी थी और उन दोनों के बीच शारीरिक संबंध बन गए थे और उस के बाद कई बार बने थे. बच्चा ठहर जाने की बात चिया आज नाहर को बता देना चाह रही थी.

‘‘अरे वाह… चिया… तुम ने मुझे यह सब बता कर एक नया अनुभव दिया है. भले ही समाज इसे एक भूल कहे, पर तुम्हारा यह तोहफा मैं कभी नहीं भूलूंगा,’’ कहते हुए नाहर ने चिया का माथा चूम लिया था.

चिया को नाहर का इस तरह प्रेम प्रदर्शन अच्छा लग रहा था. अब इस शादी को अमलीजामा पहनाने के लिए जरूरी था कि नाहर और चिया के घर वाले एकदूसरे से बात कर लें. इसी दिशा में पहला कदम खुद नाहर ने बढ़ाया था.

नाहर को अपने मांबाप को ले कर चिया का हाथ मांगने के लिए उस के घर जाना था. ऐसा हुआ भी. दरवाजा चिया ने ही खोला था. हलकी सी शर्म की चमक लिए हुए वह हाथ से बैठने का इशारा कर के आगे बढ़ गई.

नाहर का परिवार ड्राइंगरूम में आ गया. दरवाजे पर सजी हुई कलाकृतियां चिया के कलाप्रेमी होने का सुबूत दे रही थीं और चिया के इस हुनर को नाहर अच्छी तरह जानता भी था.

चिया के पापा सामने आ कर बैठ गए और कुछ औपचारिक बातें होने लगीं. चिया कुछ देर बाद चाय ले कर आ गई.

नाहर की मां ने चिया को अपने पास बुलाया और प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा. चिया को फूलों का बुके दिया. शायद चिया उन्हें पसंद आ गई थी.

‘‘आंटी नहीं दिख रही हैं?’’ नाहर ने पूछा, तो चिया ने बताया कि अम्मी अभी अपना रोजा खोल रही हैं. वे कुछ देर बाद उन्हें जौइन करेंगी.

चिया के ये शब्द नाहर के कानों में पिघलते हुए सीसे की तरह उतरते चले गए. हजार सवाल नाहर के चेहरे पर तैरने लगे, ‘रोजा… तो क्या चिया की मां मुसलिम हैं?’ नाहर के मन में एकसाथ हैरानी और नफरत के भाव आते चले गए.

‘‘हां नाहर, मेरी मां एक मुसलमान परिवार से हैं, जबकि मेरे पिता हिंदू हैं… और मैं ने तुम से यह बात छिपाने की कोशिश नहीं की. इनफैक्ट, तुम्हारे सामने मैं ने अपनी मां को हमेशा ‘अम्मी’ ही कहा था.’’

‘इस इंटरनैट की दुनिया में लोग अपने मांबाप को किसी भी नाम से पुकारते हैं और फिर तुम्हारे जैसी अच्छी हिंदी बोलने वाली लड़की की मां एक मुसलिम होगी, यह बात मेरी समझ में नहीं आती…’ नाहर बहुतकुछ कहना चाह रहा था. शायद वह चिल्लाना भी चाह रहा था, पर ज्यादा गुस्से के चलते ऐसा कर नहीं सका और जब उसे कुछ समझ नहीं आया, तब वह उठ कर चला गया. मौके की नजाकत देख कर नाहर के मांबाप भी वहां से चले गए.

चिया को नाहर का बरताव बड़ा अजीब सा लगा था. उधर नाहर लगातार यह सोच कर परेशान था कि क्यों वह चिया की सचाई पहचान नहीं पाया था. चिया की मां मुसलिम है और पिता भले ही हिंदू है, पर चिया भी तो मुसलिम ही हुई. कैसे उस ने चिया के हाथों से उसी के घर का बना खाना खा लिया और आज तक वह कितनी बार तो चिया की मां से मिला था, पर उन के मुसलिम होने की बात आज ही उस के सामनेक्यों आई?

कहीं यह चिया द्वारा जानबूझ कर तो नहीं किया गया? यकीनन ही ऐसा किया गया होगा, तभी तो चिया ने उस दिन उसे शारीरिक संबंध बनाने से नहीं रोका और इस का मतलब तो यह भी है कि चिया ने जानबूझ कर उस का धर्म भ्रष्ट होने दिया और अब वह खुद को पेट से हो कर बता कर उस से शादी करना चाहती है.

‘‘ओह, एक गहरी और सोचीसमझी साजिश का शिकार हो गया मैं…’’ बुदबुदा उठा था नाहर. उसे अपने शरीर से भी घिन आ रही थी. वह बारबार अपनेआप को पानी से धो रहा था और सवालजवाब किए जा रहा था.

चिया से फोन पर बात करना मुमकिन नहीं था, इसलिए उस ने मोबाइल फोन पर मैसेज टाइप किया, ‘मुझे धोखे में क्यों रखा? गैरजाति की होते हुए मेरे साथ धोखा किया. मेरे लिए अब तुम से शादी करना मुमकिन नहीं.

‘और हां, होने वाले बच्चे की धमकी देने की कोशिश मत करना, क्योंकि तुम्हारे चरित्र का क्या भरोसा? जिस तरह तुम मेरे साथ सोई, उसी तरह किसी और के साथ सोई होगी…’ और नाहर मैसेज लिखता ही चला गया, जिस में उस ने जीभर कर चिया के चरित्र पर सवाल उठाए थे.

नाहर की तरफ से ऐसी बातें भी कही जा सकती हैं, यह चिया ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था. एक कमजोर और टूटे हुए दिल के सच्चे दोस्त उस के आंसू होते हैं. चिया अपनेआप को रोक न सकी और आंसुओं में बह गई.

‘‘तो क्या तू खुदकुशी करने को सोच रही है?’’ चिया की अम्मी शबनम ने उस के विचारों को पढ़ लिया था. कुछ न कह पाई चिया, बस अम्मी के सीने से चिपक कर रह गई.

एक समय में चिया की मां ने भी तो प्रेम ही किया था और चिया के पापा से शादी करने के लिए जातपांत के बंधनों को तोड़ कर और अपने परिवार को ठुकरा कर उस ने शादी रचाई थी, पर चिया के प्रति नाहर का प्रेम प्रेम नहीं कहा जा सकता.

‘‘अच्छा हुआ, जो समय रहते नाहर की हकीकत पता चला गई. ऐसी सोच जितनी जल्दी उजागर हो जाए, उतना अच्छा,’’ अम्मी ने चिया को समझाया कि उस ने तो नाहर से प्रेम किया था, पर नाहर जाति के फेर में उलझा हुआ एक साधारण सा लड़का निकला, इसलिए चिया को न ही परेशान होना चाहिए और न ही उसे कोई गलत कदम उठाने की जरूरत है.

‘‘तो फिर क्या करूं मैं? क्या इस बच्चे को दुनिया में आने से पहले ही मार दूं?’’ चिया फुसफुसाई तो अम्मी भी उस के पेट से होने की बात सुन कर ठिठक गईं, पर अगले ही पल उन्होंने कहा कि बेशक, वह बच्चे को मार सकती है, पर अगर वह ऐसा करेगी तो यह बच्चा जो नाहर और चिया के प्रेम की निशानी है, वह एक पाप की निशानी बन जाएगा.

अम्मी की बातें सुन कर चिया को ज्यादा कुछ समझ नहीं आया. वह अपने कमरे में चली गई.

कुछ दिनों बाद चिया के मोबाइल पर नाहर की मां ने बात की. उन्होंने चिया से परेशान न होने को कहा. साथ ही, यह भी कहा कि वे नाहर से खुल कर बात करेंगी और उसे इंसाफ दिला कर रहेंगी.

इंसाफ का नाम सुन कर चिया ने कुछ कहना चाहा, पर तब तक फोन कट चुका था.

‘‘तुम्हें एक लड़की से प्रेम हो जाता है और तुम उस के साथ घूमतेफिरते हो, संबंध भी बना लेते हो, फिर उस की मां के मुसलिम होने से तुम्हें एतराज हो जाता है,’’ मां नाहर से तीखे सुर में बोल रही थीं. बदले में नाहर ने भी गरमी से जवाब दिया कि उस के साथ धोखा हुआ है और उस से सही बात छिपाई गई है.

‘‘पर, क्या फर्क पड़ता है अगर उस की मां मुसलिम है, बचपन में तुम्हारे कई दोस्त थे जो मुसलिम थे और उन का घर पर भी आनाजाना था,’’ मां ने कहा.

‘‘बचपन की बात और थी मां, आगे चल कर मुझे नेता बनना है. इस के लिए मेरी हिंदूवादी छवि का बना रहना जरूरी है,’’ नाहर का रूखा जवाब था.

मां कुछ देर सोचती रहीं और फिर बोलीं, ‘‘और अगर मैं तुम्हें यह बता दूं कि तुम से पहले भी यह परिवार जाति का दंश झेल चुका है, तब तुम पर क्या बीतेगी?’’

मां ने कहा, तो नाहर बिफर उठा, ‘‘आप को जो कहना है कहो, पर सचाई तो यह है कि एक दूसरे धर्म की लड़की से शादी नहीं करूंगा मैं.’’

‘‘ठीक है तो सुनो, तुम्हारी बूआ ने भी एक मुसलिम से शादी कर ली थी और फिर उन्हें इस परिवार ने कभी नहीं स्वीकार किया. उन दोनों को जान से मार देने की कोशिश भी की गई थी. उन दोनों ने शहर छोड़ कर अपनी जान बचाई.

‘‘बूआ परिवार से अलग हो जाने का सदमा नहीं सहन कर पाई और उन्होंने खुदकुशी कर ली…’’ मां लगातार बोले जा रही थीं, पर आज यह सचाई सुन कर नाहर को भरोसा नहीं हो रहा था.

मां की बातें सुन कर दुविधा में पड़ गया था नाहर, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था. वह जातपांत के चक्कर में पड़ कर इतना बेगैरत कैसे हो गया था. उस ने भी तो चिया की जाति बिना जाने प्रेम ही किया था, फिर उस की मां की जाति और धर्म जानने के बाद उस का चिया के लिए प्रेम कैसे खत्म हो गया? और जो

इस तरह से खत्म हो जाए, वह प्रेम नहीं हो सकता.

सच में नाहर एक बड़ी गलती करने जा रहा था. आज उसे आईना दिखाया गया तो उसे अपना असली चेहरा दिखाई दिया. सच ही तो है कि प्रेम और शादी एक निजी मामला है, जो जाति देख कर नहीं किया जाता.

‘‘ओह, तो क्या मुझे चल कर चिया से माफी मांगनी चाहिए और चिया से शादी की बात भी फाइनल कर लेनी चाहिए…’’ नाहर पसोपेश में था और यह सब बुदबुदाते हुए बाहर निकल गया. अगले आधे घंटे के बाद ही वह चिया के सामने खड़ा था.

‘‘पर, अब बहुत देर हो गई है नाहर… अब हम एक नहीं हो सकते. और अच्छा हुआ, जो तुम्हारे अंदर बैठे जातपांत का मैल मेरे सामने पहले ही निकल कर आ गया. अगर तुम्हारी यह सचाई मुझे बाद में पता चलती, तो शायद मैं कुछ न कर पाती…’’ मानो चिया बहुतकुछ कह देना चाहती थी और उस ने नाहर को खूब लताड़ा.

‘‘नहीं, पर अब मेरी आंखों पर पड़ा परदा हट गया है. अब मैं तुम्हें स्वीकारने को तैयार हूं,’’ नाहर ने कहा.

‘‘मुझे स्वीकार कर के मुझ पर एहसान करने जैसी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि आज अगर मैं तुम्हारी ये बातें भूल भी जाऊं तो क्या गारंटी है कि तुम इन सब बातों को भविष्य में नहीं दोहराओगे?’’ चिया ने कहा.

नाहर चुप था. शायद उसे अपनी गलती का अहसास हो रहा था, ‘‘पर, इस बच्चे की जिम्मेदारी और खर्चा मैं उठाने को तैयार हूं,’’ नाहर ने कहा.

‘‘नहीं. तुम्हें उस के लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है. मैं अपने बच्चे के लिए मां भी बनूंगी और पापा भी, और मेरी पूरी जिंदगी में यह कोशिश रहेगी कि मैं उसे ऐसी सीख देने में कामयाब रहूं, जहां वह हिंदूमुसलमान के भेदभाव से ऊपर उठ सके,’’ चिया पर नाहर की चिकनीचुपड़ी बातों का कोई असर नहीं हो रहा था.

यह बात सच थी कि नाहर ने चिया से प्रेम किया था, मगर यह प्रेम का कैसा रूप था, जो चिया की मां के मुसलिम होने से नफरत में बदल गया? नाहर के चरित्र पर चढ़ी सोने की पौलिश हट रही थी और उस के अंदर का जंग लगा हुआ लोहा सामने आ रहा था.

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