उलटी गंगा- भाग 2: आखिर योगेश किस बात से डर रहा था

मैं तो कहती हूं उस की पत्नी को भी जेल में डाल देना चाहिए, जो एक गुनहगार की अगुआई कर रही है,’’ गुस्से से अपनी आंखें लाल कर नीलिका बोली.

‘‘हो सकता है अमनजी सही कह रहे हों और वह लड़की झूठ…’’

‘‘झूठ…? बीच में ही नीलिमा बोल पड़ी,’’ और वे सच बोल रहे हैं? क्यों, क्या वह लड़की पागल है जो खुद को ही बदनाम करेगी? जरूर कुछ किया ही होगा तभी तो वह बोल रही होगी… इसलिए गुनाह कर के भी मर्द बच निकलते हैं, क्योंकि उन की पत्नियां उन्हें बचाने के लिए दीवार बन कर उन के सामने खड़ी हो जाती हैं. जानती हैं कि पति गुनहगार है फिर भी… सच कहती हूं अगर उस की जगह मेरा पति होता न, तो मैं उसे नहीं छोड़ती. जेल भिजवा कर ही रहती साले को, ‘‘नीलिमा के मुंह से ऐसी बातें सुन कर योगेश के रोंगटे खड़े हो गए.’’

‘‘सोचो, खुद की भी बेटी है, अगर उस के साथ कोई ऐसा करे तो? छि:, अरे, औरत क्या कोई वस्तु है, जो जिस का जब मन चाहे इस्तेमाल कर लो, बिना उस की मरजी के?’’

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आज नीलिमा के तेवर देख योगेश की रूह कांप रही थी. बस मन ही मन यही

प्रार्थना किए जा रहा था कि वह इस सब से बचा रहे किसी तरह.

‘‘अब तुम्हें क्या हुआ?’’ योगेश के चेहरे पर हवाइयां उड़ते देख नीलिमा कहने लगी, ‘‘हां, पता है मुझे, तुम्हें भी सुन कर बुरा लग रहा होगा, है न? अरे किसी भी शरीफ इंसान को सुन कर बुरा लगेगा, मगर देखो, हम उन्हें क्या समझते थे और क्या निकले?’’ किसी का कुछ कहा नहीं जा सकता,’’ भुनभुनाते हुए नीलिमा किचन की तरफ बढ़ गई.

योगेश धम्म से वहीं सोफे पर बैठ गया. सोचने लगा कि आज जिस तरह से संस्कारी अमन अंकल की थूथू हो रही है, कल उस की बारी न हो. फिर कैसे नजरें मिलाएगा वह अपनी बेटियों से? गुमसुम सा वह आ कर कमरे में बैठ गया. नीलिमा ने पूछा, ‘‘कुछ खाओगे?’’

बच्चे और नीलिमा तो सो गए, उस की आंखें अब भी जाग रही थीं. अचानक उस के दिल में एक शूल सा उठता, फिर शांत हो जाता. कभी वह अपने सो रहे बच्चों को निहारता, तो कभी एकटक नीलिमा को देखता. आज नीलिमा उसे उस की पत्नी नहीं, बल्कि चंडिका का रूप लग रही थी, जो छूते ही भस्म कर देगी. इसलिए वह हौल में जा कर सोफे पर सोने की कोशिश करने लगा, लेकिन वहां भी उसे कहां चैन.

घर का 1-1 सामान जैसे उस के मुंह चिढ़ा रहा हो, हंस रहा हो उस पर और कह रहा हो, ‘‘देख रहे हो, कैसी उलटी गंगा बह रही है? नहीं बच पाओगे तुम भी योगेश बाबू. देरसबेर ही सही, पर कर्मों का फल तो सब को मिलता ही है. तुम्हें भी जरूर मिलेगा. उन की बातें सुन वह घबरा कर उठ बैठता और लंबीलंबी सांसें लेने लगता. डर के मारे हालत खराब हो रही थी उस की, पर बताए तो किसे और क्या? सोच कर ही कंपकंपा उठता कि अगर उस के किए गुनाह सब के सामने आ गए, तब क्या होगा? उस की तो बसीबसाई गृहस्थी ही उजड़ जाएगी.’’

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‘नहींनहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा. क्यों मैं बेकार की बातें सोच रहा हूं? वह कभी अपना मुंह नहीं खोलेगी और अगर खोल दिया तो? तो मैं उसे झूठा साबित कर दूंगा. कह दूंगा वही मुझ पर डोरे डाल रही थी. जब दाल नहीं गली, तो मुझ पर इलजाम लगा रही है. मगर उस ने कोई सुबूत पेश कर दिया या गवाह खड़ा कर दिया तो, तो क्या होगा? कौन गवाह? किस की  इतनी हिम्मत है कि जो मेरे खिलाफ बोले,’ वह खुद से ही सवालजवाब किए जा रहा था और परेशान हुए जा रहा था. मुक्ता के साथ किए 1-1 अत्याचार आज उस की आंखों के सामने चलचित्र की तरह नाचने लगे.

बात 7-8 साल पहले की है. जिस कंपनी में योगेश बौस था. उसी कंपनी में मुक्ता भी काम करती थी, पर छोटे पद पर. चूंकि योगेश मुक्ता का बौस था, इसलिए उस की मजबूरी थी उस की हर बात को मानना. गोरा रंग, लंबे घने बाल, मोटीमोटी झील सी आंखें और उस का छरहरा बदन देख योगेश उसे देखता ही रह जाता. जिस तरह वह उसे नजरें गड़ाए देखा करता. उस से मुक्ता एकदम असहज हो जाती और अपने कपड़े ठीक करने लगती.

जानती थी वह कि उसे ले कर योगेश के विचार कुछ ठीक नहीं हैं, इसलिए वह अपना काम समय के साथ कर लिया करती ताकि योगेश को उसे कुछ कहने का मौका ही न मिले. फिर भी किसी न किसी बहाने वह उसे अपने कैबिन में बुला ही लेता और घंटों बेमतलब के कामों में उलझाए रखता. जब वह कामों में उलझी रहती, योगेश लगातार अपनी नजरें उस पर ही टिकाए रखता.

आप कितने भी अपने काम में व्यस्त क्यों न हों अगर कोई आप को एकटक निहार रहा हो, तो आप की नजरें खुदबखुद उस ओर चली जाती हैं. ऐसा अकसर होता है. जब मुक्ता की नजर योगेश पर पड़ती, तब भी ढीठ की तरह वह उसे उसी प्रकार निहारता रहता. हार कर मुक्ता ही अपनी नजरें नीची कर लेती या वहां से हट जाती.

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मुक्ता को अब योगेश के सामने जाने से भी डर लगने लगा था, क्योंकि जिस तरह से वह उस के सीने पर अपनी नजरें गड़ाए रहता, उस से वह सहम सी जाती. योगेश के डर से ही अब उस ने जींस टीशर्ट और स्लीवलैस कपड़े पहनने छोड़ दिए थे. जानबूझ कर ढीलेढाले कपड़े पहन कर औफिस जाती, ताकि योगेश उसे न देखे, पर उस की गंदी नजरें फिर भी उसे घूरती रहतीं.

कई बार तो वह जानबूझ कर उस से टकरा जाता, फिर भी मुक्ता ही सौरी बोलती. एक बार तो उस ने उस के सीने पर हाथ ही रख दिया और फिर सौरीसौरी कहने लगा, लेकिन योगेश ने ऐसा जानबूझ कर किया, यह बात मुक्ता जानती थी. ऐसा पहली बार नहीं हुआ था. जब भी मौका मिलता, वह मुक्ता को यहांवहां छू देता और बेचारी कुछ न बोल कर आगे बढ़ जाती.

रोना आता उसे अपनी हालत पर. सोचती क्या लड़की होना इतना बड़ा पाप है? शुरू से ही मुक्ता पर उस की गंदी नजर थी. जानता था वह कि यह नौकरी उस के लिए कितना माने रखती है, क्योंकि उस के घर में कमाने वाला उस के सिवा और कोई नहीं था. पिता की असमय मौत ने घरपरिवार की सारी जिम्मेदारी उस के कंधों पर डाल दी थी. इसी कारण वक्तबेवक्त योगेश उस का फायदा उठाता रहता था.

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उस दिन जानबूझ कर योगेश ने मुक्ता को देर रात तक औफिस में रोक लिया और कहा कि वह उसे घर छोड़ देगा. औफिस के चपरासी को भी उस ने छुट्टी दे दी. लेकिन मुक्ता जल्दीजल्दी अपना काम निबटा कर वहां से जाने ही लगी कि पीछे से आ कर योगेश ने उसे अपनी बांहों में दबोच लिया और उसे यहांवहां छूने लगा.

‘‘सर, यह क्या कर रहे हैं आप? छोडि़ए मुझे,’’ कह कर मुक्ता ताकत लगा कर उस की पकड़ से निकली ही कि फिर से उस ने उसे दबोचना चाहा, यह बोल कर कि इसी मौके की तो उसे कब से तलाश थी. मगर ऐन वक्त पर वही चपरासी वहां पहुंच गया और मुक्ता बच गई. वरना तो आज योगेश उसे नहीं छोड़ता. शायद वह चपरासी भी योगेश के गंदे इरादे भांप गया था, इसलिए अपना खाने का डब्बा छूट जाने का बहाना कर वापस आ गया और मुक्ता बरबाद होने से बच गई.

जरा सी आजादी- भाग 4: नेहा आत्महत्या क्यों करना चाहती थी?

पिछली बालकनी में खड़ी रही शुभा देर तक. नजर नेहा के घर पर थी. रोशनी जल रही थी. वहां क्या हाल है क्या नहीं, यह उसे बेचैन कर रहा था. तभी उस के पतिदेव विजय का फोन आया तो सहसा सारा किस्सा उन्हें सुना दिया.

‘‘मुझे बहुत डर लग रहा है, विजय. अगर नेहा ने कुछ…’’

‘‘ब्रजेश को सब बताया है न तुम ने. अब वह देख लेगा न.’’

‘‘नहीं देखेगा. मुझे लगता है उसे पता ही नहीं कि उसे क्या करना चाहिए.’’

‘‘देखो शुभा, तुम अपना दिमाग खराब मत करो. तुम्हारा ब्लड प्रैशर बढ़ जाएगा और मैं भी वहां नहीं हूं. तुम कोई झांसी की रानी नहीं हो जो किसी की भी जंग में कूदना चाहती हो.’’

‘‘सवाल उस के जीनेमरने का है, विजय. अगर मेरे कूदने से वह बच जाती है तो मेरे मन पर कोई बोझ नहीं रहेगा और अगर उस ने कुछ कर लिया तो जीवनभर अफसोस रहेगा.’’

‘‘तुम ने ठेका ले रखा है क्या सब का? न जान न पहचान.’’

‘‘हम जिंदा इंसान हैं, विजय. क्या मरने वाले को लौटा नहीं सकते? मुझे लगता है मैं उसे मरने से रोक सकती हूं. आप एक बार ब्रजेश से बात कीजिए न. उस का फोन नंबर है मेरे पास, मैं आप को लिखवा देती हूं.’’

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मंदमंद मुसकराने लगे विजय. जानते हैं अपनी पत्नी को. समस्या को सुलझाए बिना मानेगी नहीं और सच भी तो कह रही है. खिलौना टूट जाने के बाद कोई कर भी क्या लेगा? प्रयास का कोई भी औचित्य तभी तक है जब तक प्राण हैं. पखेरू के उड़ जाने के बाद वास्तव में उन्हें भी अफसोस होगा. शुभा का कहा मान लेना चाहिए, किसी के जीवन से बड़ा क्या होगा भला?

‘‘अच्छा बाबा, तुम जैसे कहो. नंबर दे दो, मैं एक बार ब्रजेश से बात करता हूं. शायद कोई रास्ता निकल ही आए.’’

विजय ने आश्वासन दिया और उस का रंग उसे दूसरी सुबह नजर भी आ गया. पूरे 10 बजे ब्रजेश नेहा को उस के पास छोड़ते गए.

‘‘आप पर भरोसा करना चाहता हूं जिस में मेरा ही फायदा होगा.’’

नेहा भीतर जा चुकी थी और जातेजाते कहा ब्रजेश ने, ‘‘शायद कहीं मैं ही सही नहीं हूं. आप मेरी बहन जैसी हैं. वह भी इसी तरह अधिकार से कान मरोड़ देती है. आप जैसा चाहें करें. मैं दखल नहीं दूंगा. बस, मेरा घर बच जाए. मेरी नेहा जिंदा रहे.’’

आभार व्यक्त किया ब्रजेश ने और यह भी बता दिया कि नेहा ने नाश्ता नहीं किया है अभी. एक पीड़ा अवश्य नजर आई उसे ब्रजेश के चेहरे पर और एक बेचारगी भी. ब्रजेश चले गए और शुभा भीतर चली आई.

‘‘नाश्ता क्यों नहीं किया तुम ने?’’

‘‘आप ने कर लिया क्या?’’

‘‘अभी नहीं किया. बोलो, क्या खाएं? तुम्हारा क्या मन है, वही खाते हैं.’’

‘‘मैं बनाऊं क्या? आप पसंद करेंगी?’’

‘‘अरे बाबा, नेकी और पूछपूछ. ऐसा करती हूं, मैं जरा अपनी अलमारी ठीक कर लेती हूं. तुम्हारा मन जो चाहे बना लो.’’

पैनी नजर रखी शुभा ने क्योंकि रसोई में चाकू भी थे. तेज धार चाकू उस ने उठा कर छिपा दिए थे जिस पर नेहा ने आवाज दी. ‘‘दीदी, आप का चाकू आलू तक तो काटता नहीं है, आप इस से काम कैसे करती हैं?’’

‘‘आज बाजार चलेंगे, नेहा. कुछ सामान लाना है. चाकू भी लाने वाले हैं.’’

आधे घंटे के बाद नेहा ने नाश्ता मेज पर सजा कर रख दिया. आलूटमाटर की सब्जी और पूरी. खातेखाते नेहा ने कहा, ‘‘दीदी, आप का घर कितना खुलाखुला है. ऐसा लगता है सांस आती भी है और जाती भी है. मेरे घर में सामान ही इतना है कि…’’

‘‘पुराना सामान निकाल देते हैं. थोड़ा सा बदलाव करते हैं. तुम्हारा घर भी खुलाखुला हो जाएगा. आज बाजार चलते हैं न. चलो, अभी चलें. दोपहर का लंच बाहर ही करेंगे.’’

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‘‘कुछ रुपए दिए हैं ब्रजेश ने. अपने लिए जो चाहूं खरीदने को कहा है.’’

‘‘कोई बात नहीं, मेरे पास भी कुछ रुपए हैं. जरूरत पड़ी तो बैंक से निकाल लेंगे. तुम जो चाहो, ले लेना.’’

‘‘अरे नहीं बाबा, मुझे क्या ताजमहल खरीदना है जो इतने रुपए चाहिए. न सोना चाहिए न महंगी साड़ी. कुछ भी भारीभरकम नहीं चाहिए. कुछ हलकाफुलका चाहिए जिस का मेरी छाती पर कोई बोझ न हो.’’

अभियान शुरू किया नेहा की रसोई से. दुनियाजहान के पुराने बरतन, जिन्हें कभी अपना घर बनाने पर निकाल देंगे, पुराना फ्रिज, पुराना टीवी, रेडियो, पुरानी प्रैस, पुराना लोहा, पुरानीपुरानी किताबें, पुराना फर्नीचर, पुराने परदे, पुराने कपड़े, पुरानी तसवीरें, पुरानी साडि़यां, और भी बहुतकुछ था जिसे बदलने की आवश्यकता थी.

‘‘कल जब अपना घर होगा तब ले लेना नया सब.’’

‘‘अपना घर होगा जब रिटायरमैंट होगा और उस में अभी 4 साल पड़े हैं. तब तक तो मन भी मर जाएगा. कल का इंतजार कब तक, दीदी?’’

‘‘कल का इंतजार तुम अपने हाथों समाप्त कर लो, नेहा.’’

‘‘ब्रजेश औफिस के काम से बाहर जाने वाले हैं इस सोमवार, कह रहे हैं मुझे साथ लेते जाएंगे.’’

‘‘तुम वहां क्या करोगी?’’

‘‘क्या करूंगी, होटल में सड़ूंगी और क्या.’’

‘‘तो मत जाओ. मैं कागजकलम देती हूं, सामान की लिस्ट बनाओ जिसे बदलना चाहती हो. वे बाहर रहेंगे तो हम आराम से सफाई अभियान पूरा कर लेंगे.’’

‘‘घर में तांडव हो जाएगा. मेरी इतनी औकात कहां.’’

‘‘तुम घर की मालकिन हो न. अपनी इच्छा का मान भी करना सीखो. घर के बरतन बदलने में भी तुम ब्रजेशजी का मुंह देखती हो. उन्हें उन के औफिस तक ही रहने दो न.’’

‘‘नहीं रहते न औफिस तक. रसोई के चम्मच तक में उन की मरजी होती है. घर में ऐसा कुहराम मचेगा कि मुझे सांस तक लेना मुश्किल हो जाएगा,’’ खीज पड़ी थी नेहा, ‘‘कल मेरी सास की मरजी थी, अब पति की है. कल बहू की होगी, मेरी मरजी शायद अगले जन्म में होगी.’’

‘‘अगला जन्म किस ने देखा है, पगली. कल क्या होगा कौन जानता है. आज देखो. ब्रजेश को मैं और विजय समझा लेंगे. आज भी शायद विजय ने समझाया होगा.’’

‘‘तो क्या इसीलिए आज बारबार मुझ से कह रहे थे कि मेरा जो जी चाहे मैं करूं, वे मना नहीं करेंगे. कुछ अजीबअजीब सी बातें कर तो रहे थे.’’

‘‘तुम्हारी मरजी की बात अजीबअजीब सी लगी तुम्हें?’’

‘‘जो कभी नहीं हुआ वह एक दिन होने लगे तो अजीब ही लगेगा न.’’

नेहा की बातों में शुभा दिलचस्पी ले रही थी.

Serial Story: अस्मत का सौदा- भाग 1

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

हवेलीनुमा घर के एक हाल में बने एक शानदार औफिस में एक युवक, जिस की उम्र बामुश्किल 30 से 35 साल होगी, एक ऊंची पुश्त वाली कुरसी पर बैठा हुआ कुछ फाइलों के पन्ने पलट रहा था.

‘‘देखिए, आप लोगों के कागज तो पूरे हैं, पर इस में ‘सपोर्टिंग डौक्यूमैंट्स‘ की कमी है,‘‘ उस युवक ने अपनी आंखों के सवाल को सामने बैठी 2 महिला में से एक की आंखों की तरफ उछाला.

‘‘पर, हम ने तो सारे कागज लगा दिए हैं सर,‘‘ एक महिला उत्तेजित स्वर में बोल उठी.

उस की ये बात सुन कर उस युवक के चेहरे पर एकसाथ कई रंग आए और गए.

‘‘अरे, तू चुप रह… सर, यह अभी नईनई आई है न, इसे पता नहीं है आप का तरीका. मैं आप के ‘सपोर्टिंग डौक्यूमैंट्स‘ पूरे कर दूंगी. बस, आप इतना बता दीजिए कि ये बाकी के कागजात कहां पहुंचाने हैं,‘‘ एक महिला ने कहा.

‘‘वहीं, जहां आप हर बार पहुंचाती आई हैं… पर, इस बार मेरी एक छोटी सी शर्त है,‘‘ युवक ने कहा.

‘‘जी… कैसी शर्त?‘‘

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‘‘यही शर्त कि बाकी के कागजात जब आप देने आएं तो इन्हें भी साथ ले कर आएं,‘‘ युवक ने दूसरी महिला के बदन को घूरते हुए कहा.

‘‘जी, बिलकुल. आप के कागज भी पहुंच जाएंगे…. और ये भी,‘‘ महिला इतना कह कर मुसकराते हुए औफिस से बाहर चली गई और वह युवक अपनी ऊंची पुश्त वाली कुरसी में आराम से धंस गया और सिगरेट सुलगा कर गोला छल्ले उड़ाने लगा.

उस युवक का नाम रणबीर सिंह था, जो कि शहर के एक बड़े नेता का सारा कामकाज देखता था.

नेताजी के आगामी एक महीने का कार्यक्रम रणबीर सिंह के अनुसार ही तय किया जाता. कब, कहां किस की प्रतिमा का अनावरण, किस अस्पताल का उद्घाटन, अनाथालयों और विधवा आश्रमों में दिया जाने वाला दान भी रणबीर सिंह ही तय करता था.

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नेताजी के कार्यक्रमों में उन की किस एंगल की तसवीर प्रैस में जाएगी और कौन सी तसवीर सोशल मीडिया पर अपलोड की जाएगी, इन सब बातों को रणबीर सिंह की पारखी नजरों के एक्सरे से ही गुजरना होता था.

रणबीर सिंह भौतिकवादी व्यक्ति था. एक बहुत अच्छी जीवनशैली जीने का आदी हो चुका था रणबीर. निजी मकान, 2-3 गाड़ियां और कई बैंकों में कई खाते भी थे. ऐशोआराम और दौलत रणबीर सिंह ने नेताजी के नाम पर ही बनाई थी.

बहुत से लोग कई प्रकार के काम करवाने के लिए नेताजी के पास आते थे, तो उन सब लोगों से काम करवाने के बदले और सहयोग राशि के नाम पर रकम ऐंठना ही रणबीर सिंह का काम था. मसलन, कोई अपने बेटे की नौकरी लगवाने के लिए नेताजी के पास आता, तो कोई अपना ट्रांसफर अपने मनमुताबिक जगह पर करवाने को आता, तो कोई सिर्फ यही फरियाद ले कर आता कि नेताजी से कह दो कि मेरे नाम का फोन ही कर दें, तो मेरा काम हो जाएगा. और भी बहुत प्रकार के काम आते थे, जिस के एवज में पैसे ऐंठ कर नेताजी से काम करवा देता था रणबीर सिंह. इन सब कामों में रणबीर सिंह का कोई सानी नहीं था.

एक दिन ‘मजनूं का टीला‘ के एक शरणार्थी कैंप में नेताजी को जा कर शरणार्थियों को आर्थिक सहायता प्रदान करने का कार्यक्रम था. नेताजी पंक्ति में खड़े हुए असहाय शरणार्थियों को आर्थिक सहायता दे रहे थे और रणबीर सिंह उन के फोटो उतारने में लगा हुआ था.

‘‘सर, अभी कुछ ठीक नहीं आया… हां, अब जरा इधर देखिए… हां सर, अब मुसकराइए… सर, जरा इस बच्चे के सिर पर हाथ रखने वाला फोटो हो जाए… ऐसी तसवीरें सीधे दिल में उतर जाती हैं,‘‘ कहते हुए रणबीर सिंह पूरी तन्मयता से अपना काम कर रहा था.

तभी सहसा रणबीर सिंह की नजर एक सहमी हुई सी जवान लड़की पर पड़ी, जिस के चेहरे पर मैल लगा होने के बाद भी उस की सुंदरता रूप के पारखी रणबीर सिंह से न छुप सकी. उस लड़की की उम्र महज 20-22 साल ही रही होगी.

‘‘कसम से… अगर इस लड़की पर 20 रुपए की साबुन की टिकिया पूरी तरह खर्च कर दी जाए और इस के जिस्म को मलमल कर धो दिया जाए, तो कोहिनूर हीरा भी फेल हो जाए,‘‘ मन ही मन रणबीर सिंह बुदबुदा उठा था.

रणबीर सिंह ने आगे बढ़ कर उस लड़की को करीब से देखा और उस के सीने पर एक नजर डालते हुए बोला, ‘‘नाम क्या है तेरा?‘‘

‘‘सर, ये नाम नहीं बता पाएगी, क्योंकि गूंगी है,‘‘ उस लड़की के पास खड़ी दूसरी लड़की ने बताया.

‘‘ओह… गूंगी है बेचारी,‘‘ कुटिल भाव रणबीर के मन में आनेजाने लगे और वह सोचने लगा, माना कि उस के और नेताजी के बिस्तर पर सोने वाली लड़कियों की अभी तक कोई कमी नहीं है, पर फिर भी कभीकभी स्वाद बदलने के लिए एक गरीब शरणार्थी लड़की बुरी नहीं रहेगी. और फिर नेताजी के घर का काम भी करेगी और गाहेबगाहे मन बहलाने के काम भी आया करेगी. एक तरीके से गाड़ी की स्टैपनी के तौर पर इस्तेमाल करना चाहता था रणबीर.

ऐसा सोच कर रणबीर ने आननफानन में नेताजी को इशारा किया, जिसे केवल नेताजी ही समझ पाए थे और बदले में उन से मिले हुए इशारे के अनुसार रणबीर ने अपना काम शुरू कर दिया था.

Serial Story: निर्वासित राजकुमार का प्यार- भाग 3

रायसिंह अपनी पत्नी और 2 बेटों के साथ जैसलमेर रियासत छोड़ कर चले गए थे. इन्हीं रायसिंह की राजकुमारी थी नागरकुंवर बाईसा. नागरकुंवर को महारावल मूलराज ने रायसिंह के साथ नहीं जाने दिया था. इस कारण नागरकुंवर बाईसा रनिवास जैसलमेर में ही रहती थी.

रनिवास में कुंवर भीमसिंह की नजर नागरकुंवर पर पड़ी. गोरी गट्ट मोतियों के पानी जैसी. गाल जैसे मक्खन की डलियां, होंठ ऐसे जैसे मलाई में लाल रंग मिला कर मक्खन पर 2 फांके बना दी हों. आंखें ऐसी जैसे मखमल के बटुए में हीरे रखे हुए हों. भीमसिंह तो उस का रूप देख कर जड़ हो गया.

वापस मूलसागर आने पर एक ही चेहरा बेचैन किए जा रहा था. आंखें बंद करे तो नागरकुंवर, खोले तो नागरकुंवर. किसी से बात करे तो नागरकुंवर. वह परेशान हो गए. बहुत टालने की कोशिश की मगर मन पर काबू नहीं रहा. तब भीमसिंह अकसर रनिवास में जा कर नागरकुंवर से मिलने लगे.

नागरकुंवर 15-16 बरस की थी. ये वही दिन होते हैं, जब कोई दिल को अच्छा लगने लगता है. नागरकुंवर को भीमसिंह अच्छे लगे थे. यही हाल भीमसिंह का भी था. उन्हें नागरकुंवर के अलावा कुछ भी अच्छा नहीं लगता था.

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भीमसिंह का आनाजाना रनिवास में बढ़ा और नागरकुंवर से मिलनाजुलना भी. तब महारावल सा को उन के दीवान ने एक रोज कहा, ‘‘दाता, बड़ेबुजुर्गों के लिए बच्चे हमेशा बच्चे ही रहते हैं. पर हुकुम, समय आने पर वे भी बड़े होने लगते हैं. हम को उन की भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए. बाईसा 15-16 के पेटे में पहुंच गई हैं. वह शादी के लायक हो गई हैं. अब महाराज कुंवर रायसिंह तो यहां हैं नहीं. बाईसा की जिम्मेदारी अपने ऊपर है. दाता, आप फरमाएं तो शादी की बात चलाई जाए.’’

‘‘बाईसा इतनी बड़ी हो गईं क्या?’’

‘‘हां हुकुम, समय तो अपनी गति से चलता है.’’ दीवान बोला.

‘‘ठीक है, कोई ध्यान में है क्या?’’ महारावल मूलराज सफेद दाढ़ी को टटोलते हुए बोले.

‘‘एक है, आप माफी बख्शें तो अर्ज करूं.’’ दीवान ने कहा.

‘‘कौन है?’’ महारावल ने पूछा तो दीवान बोला, ‘‘राठौड़ अपने पुराने रिश्तेदार हैं. जोधपुर के कुंवर भीमसिंहजी यहां पधारे हुए हैं. शादी के हकदार भी हैं. कल को उन्हें राज मिलेगा. ऐसा मौका कब मिलेगा हुकुम. अभी अहसानों से दबे हैं. लगे हाथ बाईसा का ब्याह महाराज कुंवर भीमसिंह जी से कर लें तो सोने पर सुहागा हो जाए. घरघराना सब ठीक है.’’

आवाज को दबाते हुए दीवान आगे बोले, ‘‘हुकुम, जोधपुर से रोजरोज के झगड़ेटंटे होते हैं, वे भी खत्म हो जाएंगे. भीमसिंह जी के गद्दी बिराजने के बाद सरहद पर रोजरोज की किटकिट भी नहीं होगी.’’

‘‘पर भीमसिंह जी यह न समझें कि हम शरण दे कर अहसानों की कीमत ले रहे हैं.’’ महारावल ने कहा.

‘‘नहीं दाता, अहसान तो हम कर रहे हैं, शरण भी दी और बेटी भी.’’

‘‘महाराज कुंवरसा तो निर्वासित हैं. बारात कहां से आएगी. यों कैसे हो पाएगा ब्याह.’’

महारावल चिंता में पड़ गए. उन के बूढ़े चेहरे पर उदासी छा गई. ललाट पर पड़ी सलवटें और अधिक गहरा गईं. आखिर महारावल की सहमति मिल गई.

तब मूलसागर जा कर कुंवर भीमसिंह जी से बात की गई. सुन कर कुंवर भीमसिंह को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. उन का दिल बल्लियों उछलने लगा. मगर प्रत्यक्षत: गंभीर बने हुए बोले, ‘‘महारावलसा को पता है कि मैं एक निर्वासित राजकुमार हूं. निर्वासित का क्या भरोसा. उम्र भटकते हुए कट सकती है.’’

‘‘हम संबंधों को देखते हैं, सत्ता को नहीं. सत्ता तो आज है कल नहीं भी होगी. पर संबंध तो शाश्वत रहेंगे. राठौड़ वंश तो पीढि़यों से हमारे समधी रहे हैं. आप यहां पधारे हुए हैं. उस से अच्छा सुयोग और क्या होगा. आप नागरकुंवर बाईसा का पाणिग्रहण करें तो यह जैसलमेर पर आप का अहसान होगा. दाता की इच्छा है कि आप स्वीकृति दें तो विवाह की तिथि तय कर ली जाए.’’

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सारी बात खोल कर सामने रखी तो कुंवर जानबूझ कर पशोपेश में पड़े दिखाई देने लगे.

‘‘मैं आप लोगों का आभारी हूं कि आप ने मुझे इस योग्य समझा. पर आप तो जानते ही हैं कि बारात जोधपुर से नहीं आ पाएगी. इस से आप लोगों की गरिमा को ठेस पहुंच सकती है.’’

‘‘इतिहास गवाह है कुंवरसा, राजेमहाराजे कभी मुहूर्तों और बारातों के मोहताज नहीं होते. आप आदेश करें, सारे इंतजाम हो जाएंगे.’’

इस बार जवाब ठाकुर सवाईसिंह ने दिया, ‘‘जरूर हुकुम. महाराज कुंवरसा का विवाह बडे़ धूमधाम से होगा. आप तैयारियां कीजिए.’’

तुरंत शगुन में हीरे की अंगूठी, गुड़ और नारियल दिया, ‘‘आप ने शगुन कबूल किया हुकुम, सारा जैसलमेर आप का ऋणी हो गया है. महाराज कुंवरसा के यहां न होने से हमारी चिंताएं बढ़ गई थीं. आज हम धन्य हो गए हुकुम.’’

बात पक्की कर दी गई. शादी की तैयारियां बड़ी धूमधाम से की गईं. मूलसागर से बारात जैसलमेर आई. उस का भव्य स्वागत किया गया. सारा शहर दूल्हे की एक झलक देखने के लिए उमड़ पड़ा. रायसिंह अपनी बेटी का कन्यादान करने नहीं पहुंचे. न ही युवरानी या राजकुमारों को ही भेजा. महारावल ने स्वयं कन्यादान किया. शादी धूमधाम से संपन्न हुई.

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कुंवर भीमसिंह व राजकुमारी नागरकुंवर की मुलाकातों के चर्चे शहर में न हों और राजमहल की बदनामी न होने लगे, इसलिए उन दोनों का विवाह कर दिया गया. अब दोनों जीवनसाथी बन गए थे और उन्होंने अपना नवजीवन शुरू कर दिया था.

चंद दिन ही बीते थे कि महाराजा विजय सिंह का 46 साल की उम्र में स्वर्गवास हो गया. गुलाबराय की हत्या के बाद महाराजा विजय सिंह को कुछ भी अच्छा नहीं लगता था और थोड़े समय बाद वह भी चल बसे थे. तब कुंवर भीमसिंह अपनी रानी नागरकुंवर के साथ जोधपुर आ गए. भीमसिंह जोधपुर की राजगद्दी पर बैठ गए और नागरकुंवर महारानी बन गईं.

पुनर्मरण- भाग 3: शुचि खुद को क्यों अपराधी समझती थी?

मैं अपने पांवों को घसीटते हुए उधर गई जहां बैठ कर विभु भोजन कर रहे थे. देखा, वहां चावल, रोटी के बीच खून की धारें बह रही थीं. शरीर के चिथड़े बिखरे पड़े थे. इस विस्फोट ने माता के कई भक्तों की जानें ले ली थीं. मुझे विभु कहीं नजर नहीं आए. मैं जिसे देखती उसी से पूछती, ‘क्या आप ने विभु को देखा है?’ पर मेरे विभु को वहां जानता ही कौन था. कौन बताता भला.

घायलों की तरफ मैं गई तो विभु वहां भी नहीं थे. तभी मेरा कलेजा मुंह को आ गया. पांव बुरी तरह कांपने लगे. थोड़ी दूर पर विभु का क्षतविक्षत शव पड़ा हुआ था. मैं बदहवास सी उन के ऊपर गिर पड़ी. मैं चीख रही थी, ‘कोई इन्हें बचा लो…यह जिंदा हैं, मरे नहीं हैं.’

मेरी चीख से एक पुलिस वाला वहां आया. विभु का निरीक्षण किया और सिर हिला कर चला गया. मैं चीखतीचिल्लाती रही, ‘नहीं, यह नहीं हो सकता, मेरा विभु मर नहीं सकता.’ सहानुभूति से भरी कई निगाहें मेरी तरफ उठीं पर मेरी सहायता को कोई नहीं आया.

इस आतंकवादी हमले के बाद जो भगदड़ मची उस में मेरा पर्स, मोबाइल सभी जाने कहां खो गए. मैं खाली हाथ खड़ी थी. किसे अपनी सहायता के लिए बुलाऊं. विभु को ले कर कोलकाता तक का सफर कैसे करूंगी?

मैं ने हिम्मत की. विभु को एक तरफ लिटा कर मैं गाड़ी की व्यवस्था में लग गई. पर मुझे विभु को ले जाने से मना कर दिया गया. पुलिस का कहना था कि लाशें एकसाथ पोस्टमार्टम के लिए जाएंगी. मैं विभु को यों नहीं जाने देना चाहती थी पर पुलिस व्यवस्था के आगे मजबूर थी.

मेरा मन क्षोभ से भर गया, धर्म के नाम पर यह आतंकवादी हमले जाने कब रुकेंगे. क्यों करते हैं लोग ऐसा? मैं सोचने लगी, मेरे पति की तरह कितने ही लोग 24 घंटे के भीतर मर गए हैं. क्या गुजर रही होगी उन परिवारों पर. मैं खुद अनजान जगह पर विवश और परेशान खड़ी थी.

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विभु का शव मिलने में पूरा दिन लग गया. मेरे पास पैसा भी नहीं था. एक आदमी मोबाइल लिए घूम रहा था, मैं ने उस से विनती कर के अपने घर फोन मिलाया. घंटी बजती रही, किसी ने फोन नहीं उठाया. मांजी शायद मंदिर गई होंगी. फिर मैं ने बड़े बेटे का नंबर लगाया तो वह सुन कर फोन पर ही रोने लगा, ‘मां, हम जल्दी ही पहुंचने की कोशिश करेंगे पर फिर भी आने में 3 दिन तो लग ही जाएंगे. आप कोलकाता पहुंचिए. हम वहीं पहुंचेंगे.’

विभु का मृत शरीर मेरे पास था. कोई भी गाड़ी वाला लाश को कोलकाता ले जाने को तैयार नहीं हुआ. मैं परेशान, क्या करूं. उधर दूसरे दिन ही विभु का शरीर ऐंठने लगा था. कुछ लोगों ने सलाह दी कि इन का अंतिम संस्कार यहीं कर दीजिए. आप अकेली इन्हें ले कर इतनी दूर कैसे जाएंगी?

विभु जीवन भर पूजापाठ करते रहे. क्या इसी मौत के लिए विभु भगवान को पूजते रहे?

विभु के बेजान शरीर की और छीछालेदर मुझ से सही नहीं गई. मैं ने सोचा, यहीं गंगा के किनारे उन का अंतिम संस्कार कर दूं. कुछ लोगों की सहायता से मैं ने यही किया. विभु का पार्थिव शरीर अनंत में विलीन हो गया. मेरे आंसू सूख चुके थे. मेरे आंसुओं को पोंछने वाला हाथ और सहारा देने वाला संबल दोनों ही छूट गए थे.

मेरी तंद्रा किसी के स्पर्श से टूटी. जाने कितनी देर से मैं बिस्तर पर इसी हाल में पड़ी रह गई थी. दोनों बहुएं मेरे अगलबगल बैठी थीं और छोटी बहू का हाथ मेरे केशों को सहला रहा था.

‘‘उठिए, मां.’’

मैं ने धीमे से अपनी आंखें खोलीं. दोनों बहुएं आंखों में प्यार, सहानुभूति लिए मुझे देख रही थीं. छोटी बहू की आंखों में प्रेम के साथ कौतूहल भी था. वह बेचारी क्या समझ पाती कि यहां क्या कहानी गढ़ी जा रही है. वह बस टुकुरटुकुर मुझे निहारती रहती.

‘‘नीचे चलिए, मां, पंडितजी आ गए हैं और कुछ पूजाहवन करवा रहे हैं,’’ बड़ी बहू रेवती बोली.

‘‘शायद मेरी उपस्थिति मांजी को अच्छी न लगे. तुम लोग जाओ. मैं यहीं ठीक हूं.’’

‘‘पिताजी के किसी भी संस्कार में शामिल होने का आप को पूरा अधिकार है, मां. आप चलिए,’’ बड़ी बहू ने मुझ से कहा.

भारी कदमों से मैं नीचे उतरी तो वहां का दृश्य देख कर मन भारी हो गया. मांजी त्रिशंक से कह रही थीं, ‘‘बेटा, पंडितजी आ गए हैं. यह जैसा कहें वैसा कर, यह ऐसी पूजा करवा देंगे जिस से विभु का अंतिम संस्कार तेरे हाथों से हुआ माना जाएगा.’’

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अपने को बिना किसी अपराध के अपराधिनी समझ बैठी हूं मैं. एक मरे इनसान की अनदेखी आत्मा की शांति के लिए जो अनुष्ठान किया जा रहा था वह मेरी सोच के बाहर का था. इस क्रिया से क्या विभु की आत्मा प्रसन्न हो जाएगी? यदि मांजी यह सब करतीं तो शायद मुझे इतना दुख न लगता जितना अपने बड़े बेटे को इस पूजा में शामिल होते देख कर मुझे हो रहा था.

पंडितजी जोरजोर से कोई मंत्र पढ़ रहे थे. त्रिशंक सिर पर रूमाल रखे हाथ जोड़ कर बैठा था. एक ऊंचे आसन पर विभु का शाल रख दिया गया था. मांजी रोते हुए यह सब करवा रही थीं. काश, आज विभु यह सब देख पाते कि उन के संस्कारों ने किस तरह उन के बेटे में प्रवेश कर लिया है. गलत परंपरा की नींव त्रिशंक और मांजी मिल कर डाल रहे हैं. मैं भीगी आंखों से अपने पति को एक बार फिर मरते हुए देख रही थी.

Serial Story: धनिया का बदला- भाग 3

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

धनिया रोते हुए गांव के बाहर जाने लगी. वह कहां जाएगी, उसे कुछ पता नहीं था. तभी रास्ते में उसे एक बूढ़ी काकी ने रोक कर कहा, ‘‘धनिया… मैं छंगा को अच्छी तरह जानती हूं. वह कभी अच्छा नहीं था और वह कालिया… वह तो एक नंबर का बदमाश है. उस ने ऐसे ही छल कर के लोगों की जमीन हड़प ली है. लोग उस के डर के चलते कुछ कह नहीं पाते.’’

‘‘पर काकी, अब मैं क्या करूं…?’’

‘‘दुनिया का दस्तूर ही यही है… जैसे को तैसा.’’

धनिया को कुछ समझ नहीं आया, तो काकी ने एक 30 साल के आदमी की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘यह मेरा बेटा राजू है. यह शहर से पढ़ कर आया है, तो गांव में कंप्यूटर की दुकान खोलना चाहता था, पर कालिया को यह मंजूर नहीं हुआ कि गांव के लोग बाहर की दुनिया के बारे में जागरूक बनें, इसलिए रात में मेरे बेटे की दुकान लूट ली और जब यह पुलिस में रिपोर्ट करने गया, तो मारमार कर इस की टांग ही तोड़ दी.

‘‘दीदी, मेरा नाम राजू है. मुझ से आप को जो भी मदद चाहिए, बेझिझक बता दीजिएगा,’’ राजू ने कहा.

काकी और राजू की बातों से धनिया को कुछ हिम्मत मिली, तो उस ने कुछ समय गांव में ही रहने का फैसला किया और एक पेड़ के नीचे जा कर बैठ गई. उस की बच्चियां भूख से परेशान हो रही थीं. धनिया उन का मन बहलाने के लिए उन्हें सेमल का फूल पानी में डुबा कर खिलाने लगी.

‘‘अरे, यह सब करने से बच्चों का पेट नहीं भरेगा… यह लो, तुम भी खाना खाओ और इन्हें भी खिलाओ,’’ एक टोकरी में भर कर पूरीसब्जी ले कर आया था कालिया.

दोनों बच्चियां खाने की खुशबू से होंठों पर जीभ फेरने लगीं. धनिया से बेटियों का इस तरह से परेशान होना उसे दुखी कर रहा था.

धनिया ने निगाहें नीची रखीं, पर उस के हाथ खुद ब खुद खाने से भरी टोकरी लेने के लिए आगे बढ़ गए.

जैसे ही धनिया ने हाथ आगे बढ़ाए, कालिया ने अपने हाथों को रोकते हुए कहा, ‘‘खाना तो मैं दे रहा हूं, पर इस की कीमत तुम्हें देनी होगी,’’ कालिया ने अपनी एक आंख दबाते हुए कहा.

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‘‘क्या करना होगा मुझे…?’’ डर गई थी धनिया.

‘‘कुछ नहीं… तुम्हें कुछ नहीं करना होगा… जो भी करूंगा मैं करूंगा. तुम तो बस आज रात मेरे कमरे पर अकेली आ जाना बस,’’ कालिया ने धनिया को ऊपर से नीचे तक घूरते हुए कहा.

कालिया खाना देने के बदले धनिया से उस की इज्जत मांग रहा था. धनिया जानती थी कि उसे यह कदम तो उठाना ही पड़ेगा, इसलिए उस ने खाने की टोकरी ले ली और यह भी पूछ लिया कि उसे आना कहां पर है.

कालिया एक विजयी मुसकान के साथ वहां से चला गया.

रात हुई, तो धनिया कालिया की बताई गई जगह पर पहुंच गई. उस के इंतजार में कालिया बेकरार हुआ जा रहा था. जैसे ही धनिया उस के दरवाजे पर पहुंची, कालिया उस पर झपट पड़ा और पागलों की तरह उसे चूमने लगा.

धनिया उसे अपने से अलग करते हुए बोली, ‘‘सारा काम अभी कर लोगे, तो भला रातभर क्या करोगे… मैं तो सारी की सारी तुम्हारी हूं… इतनी भी बेचैनी ठीक नहीं.’’

‘‘अरे, तुम क्या जानो धनिया… मैं तो तुम से बहुत पहले से ही प्यार करता था, पर तुम ने शहर जाने के चक्कर में उस बीरू से शादी कर ली, पर मैं आज भी तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं… अब मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगा… आओ मेरी बांहों में समा जाओ,’’ कालिया ने बांहें फैलाते हुए कहा.

धनिया ने शराब का गिलास कालिया की ओर बढ़ाया, जिसे वह जल्दी से गटक गया और धनिया के सीने को घूरने लगा, ‘‘बस, अब तुम आ गई हो, तो

मुझे रोज रात को ऐसे ही खुश करती रहना… मेरी धनिया,’’ कालिया नशे में आ रहा था.

‘‘हांहां, बिलकुल… अब तो मुझे तुम्हारा ही सहारा है… पर, मुझे यह समझ नहीं आ रहा है कि भला  तुम्हारी मेरे पति से क्या दुश्मनी थी, जो तुम ने उसे गोली मार दी?’’ धनिया  की सवालिया नजरें कालिया के चेहरे  पर थीं.

‘‘नहीं… मैं ने तुम्हारे पति को नहीं मारा, बल्कि तुम्हारा देवर छंगा ही तुम्हारे पति का कातिल है… वह गांव के साहूकार की लड़की से प्यार करता है और उस से शादी करने के लिए उसे पैसे की जरूरत थी, जो उसे जमीन बेचने से मिल सकती थी, पर बीरू के वापस आने से उस के प्लान पर पानी फिर गया, इसीलिए उस ने उसे गोली मार दी.

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‘‘मुझ में और उस में एक करार था कि वह जमीन मुझे बेच कर मुझ से पैसे लेगा और उस पैसे के बल पर अपने पसंद की लड़की से शादी करेगा और तुम को मुझे सौंप देगा.

‘‘यही वजह थी कि छंगा ने तुम्हें आज तक छुआ भी नहीं था, क्योंकि मैं ने ही उसे ऐसा करने से मना किया था,’’ नशे में सब बताता जा रहा था कालिया.

धनिया ने कालिया को शराब पिलाना तब तक जारी रखा, जब तक वह नशे के चलते बेसुध नहीं हो गया और जब वह बेहोश होने लगा, तो धनिया ने जमीन के कागज, जो उस ने गांव की बड़ी काकी के बेटे की मदद से पहले से ही तैयार करवा कर रखे हुए थे, पर बड़ी सफाई से कालिया का अंगूठा लगवा लिया.

रात को कालिया के पास जाने से पहले राजू ने एक मोबाइल फोन धनिया को दे दिया था और वीडियो बनाना  भी सिखा दिया था, जिस में बड़ी सफाई से धनिया ने वे सारी बातें वीडियो के रूप में रिकौर्ड कर ली थीं, जिन में कालिया छंगा की पोल खोलता नजर आ रहा था.

अगले दिन धनिया ने पंचायत बुलाई और फिर से छंगा और कालिया को बुलाया गया. धनिया ने जमीन के कागज पंचायत को दिखाए और बताया कि कालिया ने फिर जमीन उस के नाम कर दी है.

‘‘नहीं, यह मेरे अंगूठे का निशान नहीं है,’’ कालिया चिल्ला उठा, पर कालिया के अंगूठे की छाप भी मेल खा रही थी.

धनिया ने मोबाइल फोन पर बनाई गई वीडियो क्लिप भी पंचों को दिखाई, जिसे देख कर सरपंच ने फैसला सुनाया, ‘‘चूंकि जमीन के कागजों पर लगा हुआ कालिया का अंगूठा इस बात की साफ गवाही दे रहा है कि कालिया ने जमीन धनिया के नाम कर दी है, इसलिए अब उस जमीन पर धनिया का हक है.

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‘‘जहां तक बीरू की हत्या की बात है, उस की जांच के लिए हम ने पुलिस को खबर भेजी है. आगे की जांच पुलिस ही करेगी.’’

यह सुन कर छंगा और कालिया वहां से भागने की कोशिश करने लगे, पर वहां मौजूद गांव वालों ने उन्हें पकड़ लिया और पुलिस के आने पर हवाले कर दिया.

संकरा- भाग 1: जब सूरज के सामने आया सच

‘बायोसिस्टम्स साइंस ऐंड इंजीनियरिंग लैब में कंप्यूटर स्क्रीन पर जैसेजैसे डीएनए की रिपोर्ट दिख रही थी, वैसेवैसे आदित्य के माथे की नसें तन रही थीं. उस के खुश्क पड़ चुके हलक से चीख ही निकली, ‘‘नो… नो…’’ आदित्य लैब से बाहर निकल आया. उसे एक अजीब सी शर्म ने घेर लिया था.

अचानक आदित्य के जेहन में वह घटना तैर गई, जब पिछले दिनों वह छुट्टियों में अपनी पुश्तैनी हवेली में ठहरा था. एक सुबह नींद से जागने के बाद जब आदित्य बगीचे में टहल रहा था, तभी उसे सूरज नजर आया, जो हवेली के सभी पाखानों की सफाई से निबट कर अपने हाथपैर धो रहा था.

आदित्य बोला था, ‘सुनो सूरज, मैं एक रिसर्च पर काम करने वाला हूं और मुझे तुम्हारी मदद चाहिए.’ सूरज बोला था, ‘आप के लिए हम अपनी जान भी लड़ा सकते हैं. आप कहिए तो साहब?’

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‘मुझे तुम्हारे खून का सैंपल चाहिए.’ सूरज बोला था, ‘मेरा खून ले कर क्या कीजिएगा साहब?’

‘मैं देखना चाहता हूं कि दलितों और ठाकुरों के खून में सचमुच कितना और क्या फर्क है.’ ‘बहुत बड़ा फर्क है साहब. यह आप का ऊंचा खून ही है, जो आप को वैज्ञानिक बनाता है और मेरा दलित खून मुझ से पाखाना साफ करवाता है.’

यह सुन कर आदित्य बोला था, ‘ऐसा कुछ नहीं होता मेरे भाई. खूनवून सब ढकोसला है और यही मैं विज्ञान की भाषा में साबित करना चाहता हूं.’ आदित्य भले ही विदेश में पलाबढ़ा था और उस के पिता ठाकुर राजेश्वर सिंह स्विट्जरलैंड में बस जाने के बाद कभीकभार ही यहां आए थे, पर वह बचपन से ही जिद कर के अपनी मां के साथ यहां आता रहा था. वह छुट्टियां अपने दादा ठाकुर रणवीर सिंह के पास इस पुश्तैनी हवेली में बिताता रहा था.

पर इस बार आदित्य लंबे समय के लिए भारत आया था. अब तो वह यहीं बस जाना चाहता था. दरअसल, एक अहम मुद्दे को ले कर बापबेटे में झगड़ा हो गया था. उस के पिता ने वहां के एक निजी रिसर्च सैंटर में उस की जगह पक्की कर रखी थी, पर उस पर मानवतावादी विचारों का गहरा असर था, इसलिए वह अपनी रिसर्च का काम भारत में ही करना चाहता था.

पिता के पूछने पर कि उस की रिसर्च का विषय क्या है, तो उस ने बताने से भी मना कर दिया था. आदित्य ने समाज में फैले जातिवाद, वंशवाद और उस से पैदा हुई समस्याओं पर काफी सोचाविचारा था. इस रिसर्च की शुरुआत वह खुद से कर रहा था और इस काम के लिए अब उसे किसी दलित का डीएनए चाहिए था. उस के लिए सूरज ही परिचित दलित था.

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सूरज के बापदादा इस हवेली में सफाई के काम के लिए आते थे. उन के बाद अब सूरज आता था. सूरज के परदादा मैयादीन के बारे में आदित्य को मालूम हुआ कि वे मजबूत देह के आदमी थे. उन्होंने बिरादरी की भलाई के कई काम किए थे. नौजवानों की तंदुरुस्ती के लिए अखाड़ा के बावजूद एक भले अंगरेज से गुजारिश कर के बस्ती में उन्होंने छोटा सा स्कूल भी खुलवाया था, जिस की बदौलत कई बच्चों की जिंदगी बदल गई थी.

पर मैयादीन के बेटेपोते ही अनपढ़ रह गए थे. उस सुबह, जब आदित्य सूरज से खून का सैंपल मांग रहा था, तब उसे मैयादीन की याद आई थी.

पर इस समय आदित्य को बेकुसूर सूरज पर तरस आ रहा था और अपनेआप पर बेहद शर्म. आदित्य ने लैब में जब अपने और सूरज के डीएनए की जांच की, तब इस में कोई शक नहीं रह गया था कि सूरज उसी का भाई था, उसी का खून.

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आदित्य को 2 चेहरे उभरते से महसूस हुए. एक उस के पिता ठाकुर राजेश्वर सिंह थे, तो दूसरे सूरज के पिता हरचरण. आदित्य को साफसाफ याद है कि वह बचपन में जब अपनी मां के साथ हवेली आता था, तब हरचरण उस की मां को आदर से ‘बहूजीबहूजी’ कहता था. हरचरण ने उस की मां की तरफ कभी आंख उठा कर भी नहीं देखा था. ऐसे मन के साफ इनसान की जोरू के साथ उस के पिता ने अपनी वासना की भूख मिटाई थी. जाने उस के पिता ने उस बेचारी के साथ क्याक्या जुल्म किए होंगे.

देसी मेम- भाग 1: क्या राकेश ने अपने मम्मी-पापा की मर्जी से शादी की?

लेखक- शांता शास्त्री

हवाई जहाज से उतर कर जमीन पर पहला कदम रखते ही मेरा अंग-अंग रोमांचित हो उठा. सामने नजर उठा कर देखा तो दूर से मम्मी और पापा हाथ हिलाते नजर आ रहे थे. इन 7 वर्षों में उन में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ था. हां, दोनों ने चर्बी की भारीभरकम चादर जरूर अपने शरीर पर लपेट ली थी.

पापा का सिर रनवे जैसा सपाट हो गया था. दूर से बस, इतना ही पता चला. पास पहुंचते ही दोनों मुझ से लिपट गए. उन के पास ही एक सुंदर सी लड़की हाथ में फूलोें का गुलदस्ता लिए खड़ी थी.

‘‘मधु, कितनी बड़ी हो गई तू,’’ कहते हुए मैं उस से लिपट गया.

‘‘अरे, यह क्या कर रहे हो? मैं तुम्हारी लाड़ली छोटी बहन मधु नहीं, किनी हूं,’’ उस ने  मेरी बांहों में कुनमुनाते हुए कहा.

‘‘बेटा, यह मंदाकिनी है. अपने पड़ोसी शर्माजी की बेटी,’’ मां ने जैसे मुझे जगाते हुए कहा. तभी मेरी नजर पास खडे़ प्रौढ़ दंपती पर पड़ी. मैं शर्मा अंकल और आंटी को पहचान गया.

‘‘लेट मी इंट्रोड्यूस माइसेल्फ. रौकी, आई एम किनी. तुम्हारी चाइल्डहुड फ्रेंड रिमेंबर?’’ किनी ने तपाक से हाथ मिलाते हुए कहा.

‘‘रौकी? कौन रौकी?’’ मैं यहांवहां देखने लगा.

टाइट जींस और 8 इंच का स्लीवलेस टौप में से झांकता हुआ किनी का गोरा बदन भीड़ का आकर्षण बना हुआ था. इस पर उस की मदमस्त हंसी मानो चुंबकीय किरणें बिखेर कर सब को अपनी ओर खींच रही थी.

‘‘एक्चुअली किनी, रौकी अमेरिका में रह कर भी ओरिजिनल स्टाइल नहीं भूला, है न रौकी?’’ एक लड़के ने दांत निपोरते हुए कहा जो शर्मा अंकल के पास खड़ा था.

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‘‘लकी, पहले अपनी आईडेंटिटी तो दे. आई एम श्योर कि रौकी ने तुम्हें पहचाना नहीं.’’

‘‘या…या, रौकी, आई एम लकी. छोटा भाई औफ रौश.’’

‘‘अरे, तुम लक्ष्मणशरण से लकी कब बन गए?’’ मुझे वह गंदा सा, कमीज की छोर से अपनी नाक पोंछता हुआ दुबलापतला सा लड़का याद आया जो बचपन में सब से मार खाता और रोता रहता था.

‘‘अरे, यार छोड़ो भी. तुम पता नहीं किस जमाने में अटके हुए हो. फास्ट फूड और लिवइन के जमाने में दैट नेम डजंट गो.’’

इतने में मुझे याद आया कि मधु वहां नहीं है. मैं ने पूछा, ‘‘मम्मी, मधु कहां है, वह क्यों नहीं आई?’’

‘‘बेटा, आज उस की परीक्षा है. तुझे ले कर जल्दी आने को कहा है. वरना वह कालिज चली जाएगी,’’ पापा ने जल्दी मचाते हुए कहा.

कार के पास पहुंच कर पापा ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठ गए. मंदाकिनी उर्फ किनी मां को पहले बिठा कर फिर खुद बैठ गई. अब मेरे पास उस की बगल में बैठने के अलावा और कोई चारा न था. रास्ते भर वह कभी मेरे हाथों को थाम लेती तो कभी मेरे कंधों पर गाल या हाथ रख देती, कभी पीठ पर या जांघ पर धौल जमा देती. मुझे लगा मम्मी बड़ी बेचैन हो रही थीं. खैर, लेदे कर हम घर पहुंचे.

घर पहुंच कर मैं ने देखा कि माधवी कालिज के लिए निकल ही रही थी. मुझे देख कर वह मुझ से लिपट गई, ‘‘भैया, कितनी देर लगा दी आप ने आने में. आज परीक्षा है, कालिज जाना है वरना…’’

‘‘फिक्र मत कर, जा और परीक्षा में अच्छे से लिख कर आ. शाम को ढेर सारी बातें करेंगे. ठीक है? वाई द वे तू तो वही मधु है न? पड़ोसियों की सोहबत में कहीं मधु से मैड तो नहीं बन गई न,’’ मैं ने नकली डर का अभिनय किया तो मधु हंस पड़ी. बाकी सब लोग सामान उतारने में लगे थे सो किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया. किनी हम से कुछ कदम पीछे थी. शायद वह मेरे सामान को देख कर कुछ अंदाज लगा रही थी और किसी और दुनिया में खो गई थी.

नहाधो कर सोचा सामान खोलूं तब तक किनी हाथ में कोई बरतन लिए आ गई. वह कपडे़ बदल चुकी थी. अब वह 8-10 इंच की स्कर्ट जैसी कोई चीज और ऊपर बिना बांहों की चोली पहने हुए थी. टौप और स्कर्ट के बीच का गोरा संगमरमरी बदन ऐसे चमक रहा था मानो सितारे जडे़ हों. मानो क्या, यहां तो सचमुच के सितारे जड़े थे. किनी माथे पर लगाने वाली चमकीली बिंदियों को पेट पर लगा कर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रही थी. मैं ने अपने कमरे में से देखा कि वह अपनी पेंसिल जैसी नोक वाली सैंडिल टकटकाते रसोई में घुसी जा रही है. मैं कमरे से निकल कर उस की ओर लपका…

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‘‘अरे, किनी, यह क्या कर रही हो? रसोई में चप्पलें?’’

‘‘यार रौकी, मुझे तो लग रहा है कि तुम अमेरिका से नहीं बल्कि झूमरीतलैया से आ रहे हो. बिना चप्पलों के नंगे पैर कैसे चल सकती हूं?’’

जी में आया कह दूं कि नंगे बदन चलने में जब हर्ज नहीं है तो नंगे पैर चलने में क्यों? पर प्रत्यक्ष में यह सोच कर चुप रहा कि जो अपनेआप को अधिक अक्लमंद समझते हैं उन के मुंह लगना ठीक नहीं.

सारा दिन किनी घंटे दो घंटे में चक्कर लगाती रही. मुझे बड़ा अटपटा लग रहा था. अपने ही घर में पराया सा लग रहा था. और तो और, रात को भी मैं शर्मा अंकल के परिवार से नहीं बच पाया, क्योंकि रात का खाना उन के यहां ही खाना था.

अगले दिन मुंहअंधेरे उठ कर जल्दीजल्दी तैयार हुआ और नाश्ता मुंह में ठूंस कर घर से ऐसे गायब हुआ जैसे गधे के सिर से सींग. घर से निकलने के पहले जब मैं ने मां को बताया कि मैं दोस्तों से मिलने जा रहा हूं और दोपहर का खाना हम सब बाहर ही खाएंगे तो मां को बहुत बुरा लगा था.

मां का मन रखने के लिए मैं ने कहा, ‘‘मां, तुम चिंता क्यों करती हो? अच्छीअच्छी चीजें बना कर रखना. शाम को खूब बातें करेंगे और सब साथ बैठ कर खाना खाएंगे.’’

दिन भर दोस्तों के साथ मौजमस्ती करने के बाद जब शाम को घर पहुंचा तो पाया कि पड़ोसी शर्मा अंकल का पूरा परिवार तरहतरह के पश्चिमी पकवानों के साथ वहां मौजूद था.

किनी ने बड़ी नजाकत के साथ कहा, ‘‘रौकी, आज सारा दिन तुम कहां गायब रहे, यार? हम सब कब से तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं कि इवनिंग टी तुम्हारे साथ लेंगे.’’

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कल से मैं अपने पर नियंत्रण रखने की बहुत कोशिश कर रहा था मगर आते ही घर में जमघट देख कर मैं फट पड़ा.

‘‘सब से पहले तो किनी यह रौकीरौकी की रट लगानी बंद करो. विदेश में भी मुझे सब राकेश ही कहते हैं. दूसरी बात, मैं इतना खापी कर आया हूं कि अगले 2 दिन तक खाने का नाम भी नहीं ले सकता.’’

मां ने तुरंत कहा, ‘‘बुरा न मानना मंदाकिनी बेटे, मैं ने कहा न कि राकेश को बचपन से ही खानेपीने का कुछ खास शौक नहीं है.’’

पिताजी ने भी मां का साथ दिया.

Father’s Day Special- कीमत संस्कारों की: भाग 1

‘‘सौरी डैड, मुझे पता है कि आप ने मुझे एक घंटा पहले बुलाया था, पर उस समय मुझे अपनी महिला मित्र को फोन करना था. चूंकि उस के पास यही समय ऐसा होता है कि मैं उस से बात कर सकता हूं इसलिए मैं आप के बुलावे को टाल गया था. अब बताइए कि आप किस काम के लिए मुझे बुला रहे थे.’’

‘‘कोई खास नहीं,’’ दीनप्रभु ने कहा, ‘‘दवा लेने के लिए मुझे पानी चाहिए था. तुम आए नहीं तो मैं ने दवा की गोली बगैर पानी के ही निगल ली.’’

‘‘डैड, आप ने यह बड़ा ही अच्छा काम किया. वैसे भी इनसान को दूसरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए. मैं कल से पानी का पूरा जार ही आप के पास रख दिया करूंगा.’’

हैरीसन के जाने के बाद दीनप्रभु सोचने लगे कि इनसान के जीवन की वास्तविक परिभाषा क्या है? और वह किस के लिए बनाया गया है. क्या वह बनाने वाले के हाथ का एक ऐसा खिलौना है जिस को बनाबना कर वह बिगाड़ता और तोड़ता रहता है और अपना मनोरंजन करता है.

इनसान केवल अपने लिए जीता है तो उस को ऐसा कौन सा सुख मिल जाता है, जिस की व्याख्या नहीं की जा सकती और यदि दूसरों के लिए जीता है तो उस के इस समर्पित जीवन की अवहेलना क्यों कर दी जाती है. यह कितना कठोर सच है

कि इनसान अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कठिन से कठिन परिश्रम करता है. वह दूसरों को रास्ता दिखाता है मगर जब वह खुद ही अंधकार का शिकार होने लगता है तो उसे एहसास होता है कि प्रवचनों में सुनी बातें सरासर झूठ हैं.

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हैरीसन घर से जा चुका था. कमरे में एक भरपूर सन्नाटा पसरा पड़ा था. दीनप्रभु के लिए यह स्थिति अब कोई नई बात नहीं थी. ऐसा वह पिछले कई सालों से अपने परिवार में देखते आ रहे थे मगर दुख केवल इसी बात का कि जो कुछ देखने की कल्पना कर के वह विदेश में आ बसे थे उस के स्थान पर वह कुछ और ही देखने को मजबूर हो गए. भरेपूरे परिवार में पत्नी और बच्चों के रहते हुए भी वह अकेला जीवन जी रहे थे.

अपने मातापिता, बहनभाइयों के लिए उन्होंने क्या कुछ नहीं किया. सब को रास्ता दिखा कर उन के घरों को आबाद किया और जब आज उन की खुद की बारी आई तो उन की डगमगाती जीवन नैया की पतवार को संभालने वाला कोई नजर नहीं आता था. सोचतेसोचते दीनप्रभु को अपने अतीत के दिन याद आने लगे.

भारत में वह दिल्ली के सदर बाजार के निवासी थे. पिताजी स्कृल में प्रधानाचार्य थे. वह अपने 7 भाईबहनों में सब से बड़े थे. परिवार की आर्थिक स्थिति संभालने का जरिया नौकरी के अलावा सदर बाजार की वह दुकान थी जिस पर लोहा, सीमेंट आदि सामान बेचा जाता था. इस दुकान को उन के पिता, वह और उन के दूसरे भाई बारीबारी से बैठ कर चलाया करते थे.

संयुक्त परिवार था तो सबकुछ सामान्य और ठीक चल रहा था मगर जब भाइयों की पत्नियां घर में आईं और बंटवारा हुआ तो सब से पहले दुकान के हिस्से हुए, फिर घर बांटा गया और फिर बाद में सब अपनेअपने किनारे होने लगे.

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इस बंटवारे का प्रभाव ऐसा पड़ा कि बंटी हुई दुकान में भी घाटा होने लगा. एकएक कर दुकानें बंद हो गईं. परिवार में टूटन और बिखराव के साथ अभावों के दिन दिखाई देने लगे तो दीनप्रभु के मातापिता ने भी अपनी आंखें सदा के लिए बंद कर लीं. अभी उन के मातापिता के मरने का दुख समाप्त भी नहीं हुआ था कि एक दिन उन की पत्नी अचानक दिल के दौरे से निसंतान ही चल बसीं. दीनप्रभु अकेले रह गए. किसी प्रकार स्वयं को समझाया और जीवन के संघर्षों के लिए खुद को तैयार किया.

दीनप्रभु के सामने अब अपनी दोनों सब से छोटी बहनों की पढ़ाई और फिर उन की शादियों का उत्तरदायित्व आ गया. उन्हें यह भी पता था कि उन के भाई इस लायक नहीं कि वे कुछ भी आर्थिक सहायता कर सकें. इन्हीं दिनों दीनप्रभु को स्कूल की तरफ से अमेरिका आने का अवसर मिला तो वह यहां चले आए.

अमेरिका में रहते हुए ही दीनप्रभु ने यह सोच लिया कि अगर वह कुछ दिन और इस देश में रह गए तो इतना धन कमा लेंगे जिस से बहनों की न केवल शादी कर सकेंगे बल्कि अपने परिवार की गरीबी भी दूर करने में सफल हो जाएंगे.

अमेरिका में बसने का केवल एक ही सरल उपाय था कि वह यहीं की किसी स्त्री से विवाह करें और फिर यह शार्र्टकट रास्ता उन्हें सब से आसान और बेहतर लगा. अपनी सोच को अंजाम देने के लिए दीनप्रभु अमेरिकन लड़कियों के वैवाहिक विज्ञापन देखने  लगे. इत्तफाक से उन की बात एक लड़की के साथ बन गई. वह थी तो  तलाकशुदा पर उम्र में दीनप्रभु के बराबर ही थी. इस शादी का एक कारण यह भी था कि लड़की के परिवार वालों की इच्छा थी कि वह अपनी बेटी का विवाह किसी भारतीय युवक से करना चाहते थे, क्योंकि उन की धारणा थी कि पारिवारिक जीवन के लिए भारतीय संस्कृति और संस्कारों में पला हुआ युवक अधिक विश्वासी और अपनी पत्नी के प्रति ईमानदार होता है.

एक दिन दीनप्रभु का विवाह हो गया और तब उन की दूसरी पत्नी लौली उन के जीवन में आ गई. विवाह के बाद शुरू के दिन तो दोनों को एकदूसरे को समझने में ही गुजर गए. यद्यपि लौली उन की पत्नी थी मगर हरेक बात में सदा ही उन से आगे रहा करती, क्योेंकि वह अमेरिकी जीवन की अभ्यस्त हो चुकी थी. दीनप्रभु वहां कुछ सालों से रह जरूर रहे थे पर वहां के माहौल से वह इतने अनुभवी नहीं थे कि अपनेआप को वहां की जीवनशैली का अभ्यस्त बना लेते. उन की दशा यह थी कि जब भी कोई फोन आता था तो केवल अंगरेजी की समस्या के चलते वे उसे उठाते हुए भी डरते थे. शायद उन की पत्नी लौली इस कमजोरी को समझती थी, इसी कारण वह हर बात में उन से आगे रहा करती थी.

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दीनप्रभु शुरू से ही सदाचारी थे. इसलिए अपनी विदेशी पत्नी के साथ निभा भी गए लेकिन विवाह के बाद उन्हें यह जान कर दुख हुआ था कि उन की पत्नी के परिवार के लोग अपने को सनातन धर्म का अनुयायी बताते थे पर उन का सारा चलन ईसाइयत की पृष्ठभूमि लिए हुए था. अपने सभी काम वे लोग अमेरिकियों की तरह ही करते थे. उन के लिए दीवाली, होली, क्रिसमस और ईस्टर में कोई भी फर्क नहीं दिखाई देता था. लौली के परिवार वाले तो इस कदर विदेशी रहनसहन में रच गए थे कि यदि कभीकभार कोई एक भी शनिवार बगैर पार्टी के निकल जाता था तो उन्हें ऐसा लगता था कि जैसे जीवन का कोई बहुत ही विशेष काम वह करने से भूल गए हैं.

विदाई- भाग 3: क्या कविता को नीरज का प्यार मिला?

‘‘दुनिया छोड़ कर जल्दी जाने वाली कविता के साथ इतना मोह रखना ठीक नहीं है नीरज,’’ उस की मां, अकसर अकेले में उसे समझातीं, ‘‘तुम्हारी जिंदगी अभी आगे भी चलेगी, बेटे. कोई ऐसा तेज सदमा दिमाग में मत बैठा लेना कि अपने भविष्य के प्रति तुम्हारी कोई दिलचस्पी ही न रहे.’’

नीरज हमेशा हलकेफुलके अंदाज में उन्हें जवाब देता, ‘‘मां, कविता इतने कम समय के लिए हमारे साथ है कि हम उसे अपना मेहमान ही कहेंगे और मेहमान की विदाई तक उस की देखभाल, सेवा व आवभगत में कोई कमी न रहे, मेरी यही इच्छा है.’’

वक्त का पहिया अपनी धुरी पर निरंतर घूमता रहा. कविता की शारीरिक शक्ति घटती जा रही थी. नीरज ने अगर उस के होंठों पर मुसकान बनाए रखने को जी जान से ताकत न लगा रखी होती तो अपनी तेजी से करीब आ रही मौत का भय उस के वजूद को कब का तोड़ कर बिखेर देता.

एक दिन चाह कर भी वह घर से बाहर जाने की शक्ति अपने अंदर नहीं जुटा पाई. उस दिन उस की खामोशी में उदासी और निराशा का अंश बहुत ज्यादा बढ़ गया.

उस रात सोने से पहले कविता नीरज की छाती से लग कर सुबक उठी. नीरज उसे किसी भी प्रकार की तसल्ली देने में नाकाम रहा.

‘‘मुझे इस एक बात का सब से ज्यादा मलाल है कि हमारे प्रेम की निशानी के तौर पर मैं तुम्हें एक बेटा या बेटी नहीं दे पाई… मैं एक बहू की तरह से…एक पत्नी के रूप में असफल हो कर इस दुनिया से जा रही हूं…मेरी मौत क्या 2-3 साल बाद नहीं आ सकती थी?’’ कविता ने रोंआसी हो कर नीरज से सवाल पूछा.

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‘‘कविता, फालतू की बातें सोच कर अपने मन को परेशान मत करो,’’ नीरज ने प्यार से उस की नाक पकड़ कर इधरउधर हिलाई, ‘‘मौत का सामना आगेपीछे हम सब को करना ही है. इस शरीर का खो जाना मौत का एक पहलू है. देखो, मौत की प्रक्रिया पूरी तब होती है जब दुनिया को छोड़ कर चले गए इनसान को याद करने वाला कोई न बचे. मैं इसी नजरिए से मौत को देखता हूं. और इसीलिए कहता हूं कि मेरी अंतिम सांस तक तुम्हारा अस्तित्व मेरे लिए कायम रहेगा…मेरे लिए तुम मेरी सांसों में रहोगी… मेरे साथ जिंदा रहोगी.’’

कविता ने उस की बातों को बड़े ध्यान से सुना था. अचानक वह सहज ढंग से मुसकराई और उस की आंखों में छाए उदासी के बादल छंट गए.

‘‘आप ने जो कहा है उसे मैं याद रखूंगी. मेरी कोशिश रहेगी कि बचे हुए हर पल को जी लूं… बची हुई जिंदगी का कोई पल मौत के बारे में सोचते हुए नष्ट न करूं. थैंक यू, सर,’’ नीरज के होंठों का चुंबन ले कर कविता ने बेहद संतुष्ट भाव से आंखें मूंद ली थीं.

आगामी दिनों में कविता का स्वास्थ्य तेजी से गिरा. उसे सांस लेने में कठिनाई होने लगी. शरीर सूख कर कांटा हो गया. खानापीना मुश्किल से पेट में जाता. शरीर में जगहजगह फैल चुके कैंसर की पीड़ा से कोई दवा जरा सी देर को भी मुक्ति नहीं दिला पाती.

अपनी जिंदगी के आखिरी 3 दिन उस ने अस्पताल के कैंसर वार्ड में गुजारे. नीरज की कोशिश रही कि वह वहां हर पल उस के साथ बना रहे.

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‘‘मेरे जाने के बाद आप जल्दी ही शादी जरूर कर लेना,’’ अस्पताल पहुंचने के पहले दिन नीरज का हाथ अपने हाथों में ले कर कविता ने धीमी आवाज में उस से अपने दिल की बात कही.

‘‘मुझे मुसीबत में फंसाने वाली मांग मुझ से क्यों कर रही हो?’’ नीरज ने जानबूझ कर उसे छेड़ा.

‘‘तो क्या आप मुझे अपने लिए मुसीबत समझते रहे हो?’’ कविता ने नाराज होने का अभिनय किया.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ नीरज ने प्यार से उस की आंखों में झांक कर कहा, ‘‘तुम तो सोने का दिल रखने वाली एक साहसी स्त्री हो. बहुत कुछ सीखा है मैं ने तुम से.’’

‘‘झूठी तारीफ करना तो कोई आप से सीखे,’’ इन शब्दों को मुंह से निकालते समय कविता की खुशी देखते ही बनती थी.

कविता का सिर सहलाते हुए नीरज मन ही मन सोचता रहा, ‘मैं झूठ नहीं कह रहा हूं, कविता. तुम्हारी मौत को सामने खड़ी देख हमारी साथसाथ जीने की गुणवत्ता पूरी तरह बदल गई. हमारी जीवन ज्योति पूरी ताकत से जलने लगी… तुम्हारी ज्योति सदा के लिए बुझने से पहले अपनी पूरी गरिमा व शक्ति से जलना चाहती होगी…मेरी ज्योति तुम्हें खो देने से पहले तुम्हारे साथ बीतने वाले एकएक पल को पूरी तरह से रोशन करना चाहती है. जीने की सही कला…सही अंदाज सीखा है मैं ने तुम्हारे साथ पिछले कुछ हफ्तों में. तुम्हारे साथ की यादें मुझे आगे भी सही ढंग से जीने को सदा उत्साहित करती रहेंगी, यह मेरा वादा रहा तुम से…भविष्य में किसी अपने को विदाई देने के लिए नहीं, बल्कि हमसफर बन कर जिंदगी का भरपूर आनंद लेने के लिए मैं जिऊंगा क्योंकि जिंदगी के सफर का कोई भरोसा नहीं.’

जब 3 दिन बाद कविता ने आखिरी सांस ली तब नीरज का हाथ उस के हाथ में था. उस ने कठिनाई से आंखें खोल कर नीरज को प्रेम से निहारा. नीरज ने अपने हाथ पर उस का प्यार भरा दबाव साफ महसूस किया. नीरज ने झुक कर उस का माथा प्यार से चूम लिया.

कविता के होंठों पर छोटी सी प्यार भरी मुसकान उभरी. एक बार नीरज के हाथ को फिर प्यार से दबाने के बाद कविता ने बड़े संतोष व शांति भरे अंदाज में सदा के लिए अपनी आंखें मूंद लीं.

नीरज ने देखा कि इस क्षण उस के दिलोदिमाग पर किसी तरह का बोझ नहीं था. इस मेहमान को विदा कहने से पहले उस की सुखसुविधा व मन की शांति के लिए जो भी कर सकता था, उस ने खुशीखुशी व प्रेम से किया. तभी तो उस के मन में कोई टीस या कसक नहीं उठी.

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विदाई के इन क्षणों में उस की आंखों से जो आंसुओं की धारा लगातार बह रही थी उस का उसे कतई एहसास नहीं था.

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