ठगी का नया तरीका : औलाद की चाहत

नुसरत को जब कोई औलाद नहीं हुई, तो ससुराल वालों ने अपने एकलौते बेटे मसनून का दूसरा निकाह करने का मन बनाया. आपस में सलाह करने के बाद वे काजी मोहसिन के पास राय लेने उन के घर पहुंचे.

काजी मोहसिन के सामने उन्होंने अपनी बात रखी. पूरी बात सुनने के बाद काजी मोहसिन चुप रहे, फिर कुछ सोच कर उन्होंने मसनून के अब्बा खादिम मियां से कहा, ‘‘जनाब ऐसा है कि आजकल कानून बदल गया है. बीवी की रजामंदी और अदालत से मंजूरी ले कर निकाह कराओगे तो कोई कानूनी अड़चन नहीं आएगी, वरना…’’ कह कर वे खामोश हो गए.

‘‘फिर आप इस का कोई दूसरा हल निकालिए…’’ खादिम मियां ने काजी मोहसिन से कहा, ‘‘हमें आप पर पूरा भरोसा है. आप बहुतकुछ जानते हैं. तावीजगंडे हों या मजारों की मन्नत, हम सबकुछ करने को तैयार हैं. पैसा कितना भी लगे, हम खर्च करने को तैयार हैं. हमें खानदान को रोशन करने के लिए एक चिराग चाहिए,’’ खादिम मियां ने बात पूरी की.

‘‘बात तो आप ठीक कह रहे हैं. मु झे एक हफ्ते का वक्त दीजिए, इस के बाद ही मैं आप को कोई मशवरा दे सकता हूं. वैसे, मैं किसी को उलटीसीधी सलाह नहीं देता,’’ काजी मोहसिन ने जवाब दिया.

तकरीबन एक हफ्ता गुजर जाने के बाद एक दिन काजी मोहसिन खादिम मियां की दुकान के सामने से गुजर रहे थे, तभी खादिम मियां ने आवाज दे कर उन्हें बुलाया.

सलामदुआ के बाद खादिम मियां ने पूछा, ‘‘मेरी बात का क्या हुआ जनाब?’’

‘‘जी, मैं भी चाह रहा था कि इस बारे में आप से खुल कर बात करूं, पर मसरूफियत की वजह से समय ही नहीं मिला. मैं रात को खाना खा कर आप के पास आता हूं.

‘‘ठीक रहेगा न? वहीं बैठ कर इतमीनान से बात करेंगे,’’ काजी मोहसिन ने खादिम मियां से कहा.

‘‘आप ऐसा करें कि रात का खाना मेरे घर पर ही खाएं. आप अकेले जो ठहरे…’’ खादिम मियां बोले.

‘‘जी,’’ कह कर काजी साहब दुकान से उठ कर मदरसे चले गए.

मदरसे से लौट कर काजी मोहसिन ने अपने एक दोस्त काजी बाबुल को फोन लगा कर कहा, ‘‘बाबुल मियां, यहां के एक कबाड़ी परिवार से मेरी बात हुई है. उन की बहू को औलाद नहीं हो रही है. पैसे वाले लोग हैं. अगर हम चाहें तो सोनाचांदी और नकदी हड़प सकते हैं. वे गंडेतावीज, मजारों पर भरोसा करते हैं. अच्छा माल बन सकता है. हमारी सारी गरीबी दूर हो सकती है.’’

‘ठीक है, मैं अभी आप के पास आ रहा हूं. तुम तैयार रहना,’ काजी बाबुल ने कहा.

थोड़ी देर बाद ही काजी बाबुल काजी मोहसिन के घर पहुंच गया. दोनों के बीच खादिम मियां के बारे में खुल कर बात हुई.

शाम की नमाज से फारिग हो कर वे खादिम मियां के घर जा पहुंचे. उन के बीच बातचीत हुई और फिर फैसला लिया गया कि इसी हफ्ते इस काम पर अमल करना है.

काजी बाबुल ने खादिम मियां से कहा, ‘‘अगर आप को औलाद चाहिए, तो हमारी हर बात माननी पड़ेगी. जैसा हम कहेंगे, वैसा करना होगा.’’

खादिम मियां ने सिर हिला कर इस की मंजूरी दे दी.

‘‘आप हरे रंग के कपड़े की 4 नई थैलियां बनवा लें. उन में सोना, चांदी, तांबा, लोहा रख कर उन के मुंह सिल कर घर के एक खाली कमरे में रख दें. वहां चिल्ला बांध कर उन को फूलों से ढक दें. फिर ढाई दिनों तक उसी जगह रह कर मंत्र पढ़ें. इस के बाद मजार पर 2 घंटे चारों थैलियां रख कर वापस ले आएं, जो आप 9 महीने तक अपने घर में रखे रहेंगे. फिर आप उन्हें खोल कर इस्तेमाल में ले सकते हैं.’’

‘‘आप चाहें तो काजी मोहसिन से मदद ले सकते हैं, पर इस बात की किसी को कानोंकान खबर न हो.’’

खादिम मियां ने आननफानन हामी भर दी.

काजी बाबुल वहां से जाने लगे कि तभी खादिम मियां ने अगले जुमे को घर आ कर यह काम करनेकी गुजारिश की.

इधर काजी मोहसिन को बुला कर खादिम मियां ने जाप करने की तैयारी शुरू कर दी. एक छोटा कमरा खाली करा कर सफाई की गई. फिर किवाड़ से अच्छा लोहा और तांबा निकाल कर रखा गया.

रात को काजी मोहसिन ने घर आ कर एक थैली में लोहा, एक थैली में तांबा, एक थैली में सोने और चौथी थैली में चांदी के जेवर रख कर लोबान की धूनी दे कर कुछ देर तक जोरजोर से कुछ मंत्र पढ़ कर फूंके और थैली के मुंह सिलने लगे.

इसी बीच काजी मोहसिन ने बड़ी होशियारी से सोने और चांदी की थैलियों में पहचान के लिए अलग से दूसरे रंग की छाप लगा दी.

एक संदूक में चारों थैलियां रख कर बड़े से ताले में बंद कर चाबी खादिम मियां को दे दी.

काजी बाबुल के कहे मुताबिक ही काजी मोहसिन ने पूरी कार्यवाही को अंजाम दे कर उन से विदा ली और अपने घर आ गए.

जुमे की रात को काजी मोहसिन, काजी बाबुल, खादिम मियां और उन की बहू बैठे थे. कुछ फासले पर रखे संदूक पर फूल डाल कर और लोबान जला कर काजी बाबुल मंत्र बुदबुदाने लगे.

यह काम एक घंटे तक चला. फिर उन्होंने संदूक में से थैलियां निकालीं और बहू की गोद में रख कर मंत्र बुदबुदाए. लोबान की खुशबू से पूरा कमरा धुएं से भर गया था. यह सब आधा घंटे तक चला.

यह सिलसिला 2 दिनों तक शाम की नमाज के बाद डेढ़ घंटा चलता रहा.

तीसरे दिन वे सब सुबह की नमाज के बाद दूर जंगल में बने मजार पर पहुंचे. साथ में वह संदूक भी था, जिस में थैलियां रखी थीं.

काजी मोहसिन ने मजार के खादिम को पहले से सबकुछ बता रखा था.

वहां पहुंचने के बाद वे संदूक रख कर खड़े हो गए. मजार के खादिम ने संदूक खोल कर रखने को कहा और बोला, ‘‘हां जनाब, आप लोग गुसलखाने से फारिग हो कर आ जाएं.’’

वे सभी मजार पर खुला संदूक छोड़ कर कुछ दूरी पर बने गुसलखाने की तरफ चले गए.

इसी बीच मजार के खादिम ने काजी मोहसिन के बताए मुताबिक सोने व चांदी की निशान लगी थैलियां निकाल कर ठीक वैसी ही दूसरी थैलियां वहां रख दीं. उस ने असली थैलियां मजार के अंदर छिपा दीं और बाहर आ कर खड़ा हो गया.

उन सभी के गुसलखाने से फारिग होने के बाद मजार पर मंत्र बुदबुदाने का सिलसिला चला. फिर वे संदूक में थैलियां और फूल रख कर घर वापस आ गए.

बाबुल काजी ने समझाते हुए कहा, ‘‘औलाद मिल जाने पर संदूक खोल कर सोनेचांदी वाली थैलियां अलग रख लें, बाकी 2 थैलियों को पानी में बहा दें.

‘‘मैं 2 महीने बाद आऊंगा, तब तक बहू के पैर भारी हो जाएंगे. इन्हें आराम करने दें. संदूक पर फूल डालते रहें,’’ कह कर वे चले गए.

तकरीबन 3 महीने बीत गए, पर न तो काजी बाबुल और काजी मोहसिन लौटे, न बहू के पैर भारी हुए.

खादिम मियां को कुछ शक हुआ. उन्होंने संदूक खोल कर देखा तो पता चला कि सोनेचांदी वाली थैलियों में कंकड़पत्थर भरे थे. वे सम झ गए कि उन के साथ धोखा हुआ है.

गुपचुप तरीके से खोजबीन की गई, पर दूरदूर तक उन दोनों काजियों का कुछ भी पता नहीं चला.

15 अगस्त स्पेशल: फौजी ढाबा

ढाबा चलाने के लिए करतार सिंह ने 4 लड़कों का स्टाफ भी रख छोड़ा था, जो ग्राहकों को अच्छी सर्विस देते थे. उन की मजे में जिंदगी कट रही थी.

फौज में सूबेदार करतार सिंह का बड़ा जलवा था. अपनी बहादुरी के लिए मिले बहुत सारे मैडल उस की वरदी की शान बढ़ाया करते थे. बौर्डर से जब भी वह गांव लौटता तो पूरा गांव अपने फौजी भाई से सरहद की कहानी सुनने आ जाता था.

करतार सिंह सरहद की गोलीबारी और दुश्मन फौज की फर्जी मुठभेड़ की कहानी बड़े जोश से सुनाया करता था. अपनी बहादुरी तक पहुंचतेपहुंचते कहानी में जोश कुछ ज्यादा ही हो जाता था. गांव का हर नौजवान बड़ी हसरत से सोचता कि काश, वह भी फौज में होता तो करतार सिंह की तरह वरदी पहन कर गांव आया करता.

गांव के बुजुर्ग तो करतार सिंह पर फख्र किया करते हैं कि उस ने उन के गांव का नाम देशभर में रोशन किया है.

इस बार करतार सिंह जब घर आया तो अपने पैरों के बजाय बैसाखी के सहारे आया. असली मुठभेड़ में उस की एक टांग में गोली लगी थी जिसे काटना पड़ा.

6 महीने सेना के अस्पताल में गुजारने के बाद करतार सिंह को छुट्टी दे दी गई और साथ में जबरदस्ती रिटायरमैंट के कागजात भी भारीभरकम रकम के चैक के साथ थमा कर उसे वापस घर भेज दिया गया.

फौजी की कीमत उसी वक्त तक है, जब तक कि उस के हाथपैर सहीसलामत रहते हैं. जिस तरह टांग के टूटने के बाद घोड़ा रेस में दौड़ने के लायक नहीं रह जाता तो उसे गोली मार दी जाती है, ठीक उसी तरह फौज लाचार हो जाने वाले को रिटायर कर देती है.

करतार सिंह को बड़ी रकम के साथ सरकार ने हाईवे से लगी हुई एक जमीन भी तोहफे में दी थी जिस पर आज उस ने ‘फौजी ढाबा’ खोल दिया था. 2 बेटियां और एक बीवी के अलावा कोई खास जिम्मेदारी करतार सिंह पर थी नहीं. फौज से मिली हुई रकम और ढाबे से होने वाली आमदनी ने पैसों की अच्छी आवाजाही कर रखी थी, इसलिए अब काम में सुस्ती आने लगी. नौकरों के भरोसे ढाबा चल रहा था.

करतार सिंह ज्यादातर नशे में धुत्त रहता था. वह पीता पहले भी था, लेकिन फौज में इतनी दौड़ाई रहती थी कि कभी नशा सवार नहीं हो पाता था. अब काम कुछ था नहीं, इसलिए नशा उतरने भी नहीं पाता था कि बोतल दोबारा मुंह से लग जाती.

जब मालिक नशे में रहे तो नौकरों को मनमानी करने से कौन रोक सकता है. आमदनी कम होने लगी, पैसे गायब होने लगे.

मजबूर हो कर ढाबे की कमान बीवी सरबजीत कौर ने संभाली. अब वह गल्ले पर खुद बैठती और काम नौकरों से कराती.

तीखे नाकनक्श की सरबजीत कौर के ढाबे पर बैठते ही ढाबे ने एक बार फिर रफ्तार पकड़ ली. दाल मक्खनी और पिस्तई खीर के साथ सरबजीत कौर का तड़का भी फौजी ढाबे की पहचान बन गया.

एक बार फिर से ग्राहकों की तादाद कम होने लगी. सरबजीत कौर ने इस की वजह मालूम की तो एक नौकर ने बताया कि चंद कदम के फासले पर एक ढाबा और खुल गया है. अब ज्यादातर ट्रक वहां पर रुकते हैं.

दूसरे दिन सरबजीत कौर ने खुद जा कर देखा कि नया ढाबा, जिस का नाम ‘भाभीजी का ढाबा’ था, वहां 25-26 साल की एक खूबसूरत औरत गल्ले पर बैठी है और ग्राहकों से मुसकरामुसकरा कर डील कर रही है.

‘फौजी ढाबा’ को तोड़ने के लिए गंगा ने शुरू से ही अपनी बीवी को बिठा कर करतार सिंह के ग्राहकों पर डाका डाल दिया था.

सरबजीत कौर के पास अब इस के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं था कि वह अपने ब्लाउज के गले को बड़ा कर के गल्ले पर बैठा करे. इस तरकीब से कुछ सीनियर फौजी तो ढाबे पर आ गए, लेकिन अभी भी ‘भाभीजी का ढाबा’ नंबर वन पर चल रहा था.

‘फौजी ढाबा’ किस हाल से गुजर रहा था, इस की परवाह अब करतार सिंह को नहीं थी. उसे तो बस सुबहशाम 2 बोतल दारू और एक प्लेट चिकन टिक्का चाहिए था, जो किसी न किसी तरह सरबजीत कौर उस तक पहुंचा देती थी.

ढाबे की जिम्मेदारी अब पूरी तरह से सरबजीत कौर पर आ गई थी. बच्चियां छोटी थीं. यों भी स्कूल जाने वाली बच्चियों को ढाबे के काम में लगाना मुनासिब नहीं था.

एक बार उस ने एक बच्ची को पलंग पर बैठे एक ड्राइवर के पास सलाद देने के लिए भेजा तो यह देख कर उस का खून खौल गया कि ड्राइवर ने बच्ची के गाल को नोचा और फिर ड्राइवर का हाथ बच्ची की गरदन से नीचे आ गया.

छोटी बच्ची सलाद की प्लेट पटक कर घर के अंदर भाग गई. दुकानदारी पर कहीं असर न पड़े, इसलिए सरबजीत कौर ने बात आगे नहीं बढ़ाई.

बाप नशे में धुत्त और मां दिनरात ढाबे के गल्ले पर बैठने के लिए मजबूर, ऐसे में बच्चियों पर कौन नजर रखे. कच्ची उम्र से जवानी की दहलीज पर पैर रखने वाली गीता की नजर चरनजीत से टकरा गई. 1-2 महीने से शनिवार की शाम को एक नए ट्रक के साथ एक नौजवान आ कर सब से अलग बैठ जाता. खाना खा कर सो जाता और दूसरे दिन वह ट्रक ले कर कहीं चला जाता. स्याह कमीज, स्याह पैंट और नारंगी रंग की पगड़ी में वह बहुत खूबसूरत लगता था.

पहली बार जब गीता ने देखा तो वह उसे देखती ही रह गई. इत्तिफाक से उस की नजर भी गीता की तरफ उठ गई तो उस ने नजर हटाई नहीं. अपनी बड़ीबड़ी आंखों से वह गीता को घूरता ही रहा.

साथ में बैठे क्लीनर ने जब पुकारा, ‘‘चरनजीते, कहां खो गया,’’ तो गीता को मालूम हुआ कि उस का नाम चरनजीत है.

दूसरे शनिवार को जब वह फिर वहां आया तो गीता के दिल की धड़कन तेज हो गई. उसे ऐसा लगा कि वह सिर्फ उसी के लिए आया है. लेकिन, चरनजीत के बरताव में कोई फर्क नहीं आया. खाना खा कर वह पलंग पर सो गया.

गीता ने घर से एक तकिया मंगा कर ढाबे के एक लड़के को देते हुए कहा कि उन साहब को दे आए. पहली बार किसी ग्राहक को तकिया पेश किया गया था. तकिए के कोने में गीता का मोबाइल नंबर और नाम भी लिखा था.

किसी को खबर भी नहीं हुई और चरनजीत और गीता एकदूसरे के इश्क में डूबते चले गए. मोबाइल पर बातें होती रहतीं. किसी को मालूम ही नहीं चल पाता कि चंद कदमों के फासले पर आशिक और माशूक बैठे एकदूसरे से हालेदिल बयां कर रहे हैं. स्कूल टाइमिंग में बाहर मुलाकातें होने लगीं.

एक दिन ऐसा भी आया, जब चरनजीत ने गीता से कहा कि ऐसा कब तक चलता रहेगा. हम लोगों को शादी कर लेनी चाहिए. गीता खामोश हो गई.

‘‘क्या मैं ने कुछ गलत बात कह दी?’’

‘‘नहीं, तुम ने कुछ गलत नहीं कहा. मेरे पापा सूबेदार रहे हैं, मेरी शादी वे किसी ट्रक ड्राइवर से कभी नहीं करेंगे.’’

‘‘फिर तो हम लोगों को अलग हो जाना चाहिए,’’ कहते हुए चरनजीत ने गीता का हाथ छोड़ दिया.

‘‘अब मैं तुम्हारे बगैर नहीं रह सकती…’’ थोड़ी देर की खामोशी के बाद गीता ने कहा, ‘‘मुझे यहां से ले कर कहीं दूर चले जाओ. वहीं शादी कर लेंगे.’’

‘‘तुम्हारा मतलब है कि मैं तुम्हें भगा कर ले जाऊं. कितनी घटिया बात कही है तुम ने…’’ चरनजीत ने कहा, ‘‘मेरे मांबाप इस बात को पसंद नहीं करेंगे. तुम्हारे घर वाले भी यही सोचेंगे कि ट्रक ड्राइवरों का किरदार ऐसा ही होता है.

‘‘गीता, मैं पढ़ालिखा हूं. मास्टरी की है मैं ने. नौकरी नहीं मिली तो ड्राइवर बन गया.

‘‘यह मेरा अपना ट्रक है. शादी करूंगा तो इज्जत से करूंगा, वरना हम दोनों के रास्ते अलग हो जाएंगे. कल तुम्हारे मम्मीपापा से तुम्हारा हाथ मांगने आऊंगा. तैयार रहना.’’

करतार सिंह ने कभी सोचा भी नहीं था कि बेटियों की शादी भी की जाती है. उसे तो इस बात की फिक्र रहती थी कि कहीं रात में उस की बोतल खाली न रह जाए.

चरनजीत ने जब उस से उस की बेटी का हाथ मांगा तो सरबजीत कौर के साथ करतार सिंह के चेहरे का रंग भी बिगड़ गया. उसे ऐसा लगा, जैसे बोतल में किसी ने सिर्फ पानी मिला दिया था. पलभर में सारा नशा काफूर हो गया.

‘‘तुम ने गीता को मांगने से पहले यह नहीं सोचा कि तुम एक ट्रक ड्राइवर हो.’’

‘‘मैं ने यह तो नहीं सोचा, लेकिन यह जरूर सोचा कि आप की बेटी अगर मेरे साथ भाग जाएगी तो आप की कितनी बदनामी होगी. ट्रक ड्राइवरों पर से हमेशा के लिए आप का भरोसा उठ जाएगा.’’

ऐसा सुन कर फौजी करतार सिंह का सिर पहली बार किसी के सामने झुका था तो वह चरनजीत था.

‘‘अपने घर वालों से कहो शादी की तैयारी करें, गीता अब तुम्हारी हुई,’’ यह कह कर करतार सिंह ने शराब की बोतल को चरनजीत के सामने ही मुंह से लगा लिया.

Friendhsip Day Special: एक अच्छा दोस्त-सतीश से क्या चाहती थी राधा

सतीश लंबा, गोरा और छरहरे बदन का नौजवान था. जब वह सीनियर क्लर्क बन कर टैलीफोन महकमे में पहुंचा, तो राधा उसे देखती ही रह गई. शायद वह उस के सपनों के राजकुमार सरीखा था.

कुछ देर बाद बड़े बाबू ने पूरे स्टाफ को अपने केबिन में बुला कर सतीश से मिलवाया.

राधा को सतीश से मिलवाते हुए बड़े बाबू ने कहा, ‘‘सतीश, ये हैं हमारी स्टैनो राधा. और राधा ये हैं हमारे औफिस के नए क्लर्क सतीश.’’

राधा ने एक बार फिर सतीश को ऊपर से नीचे तक देखा और मुसकरा दी.

औफिस में सतीश का आना राधा की जिंदगी में भूचाल लाने जैसा था. वह घर जा कर सतीश के सपनों में खो गई. दिन में हुई मुलाकात को भूलना उस के बस में नहीं था.

सतीश और राधा हमउम्र थे. राधा के मन में उधेड़बुन चल रही थी. उसे लग रहा था कि काश, सतीश उस की जिंदगी में 2 साल पहले आया होता.

राधा की शादी 2 साल पहले मोहन के साथ हुई थी. वह एक प्राइवेट कंपनी में असिस्टैंट मैनेजर था. घर में किसी चीज की कमी नहीं थी, मगर मोहन को कंपनी के काम से अकसर बाहर ही रहना पड़ता था. घर में रहते हुए भी वह राधा पर कम ही ध्यान दे पाता था.

यों तो राधा एक अच्छी बीवी थी, पर मोहन का बारबार शहर से बाहर जाना उसे पसंद नहीं था. मोहन का सपाट रवैया उसे अच्छा नहीं लगता था. वह तो एक ऐसे पति का सपना ले कर आई थी, जो उस के इर्दगिर्द चक्कर काटता रहे. लेकिन मोहन हमेशा अपने काम में लगा रहता था.

अगले दिन सतीश समय से पहले औफिस पहुंच गया. वह अपनी सीट पर बैठा कुछ सोच रहा था कि तभी राधा ने अंदर कदम रखा.

सतीश को सामने देख राधा ने उस से पूछा, ‘‘कैसे हैं आप? इस शहर में पहला दिन कैसा रहा?’’

सतीश ने सहज हो कर जवाब दिया, ‘‘मैं ठीक हूं. पहला दिन तो अच्छा ही रहा. आप कैसी हैं?’’

राधा ने चहकते हुए कहा, ‘‘खुद ही देख लो, एकदम ठीक हूं.’’

इस के बाद राधा लगातार सतीश के करीब आने की कोशिश करने लगी. धीरेधीरे सतीश भी खुलने लगा. दोनों औफिस में हंसतेबतियाते रहते थे.

हालांकि औफिस के दूसरे लोग उन की इस बढ़ती दोस्ती से अंदर ही अंदर जलते थे. वे पीठ पीछे जलीकटी बातें भी करने लगे थे.

राधा के जन्मदिन पर सतीश ने उसे एक बढि़या सा तोहफा दिया और कैंटीन में ले जा कर लंच भी कराया.

राधा एक नई कशिश का एहसास कर रही थी. समय पंख लगा कर उड़ता गया. सतीश और राधा की दोस्ती गहराती चली गई.

राधा शादीशुदा है, सतीश यह बात बखूबी जानता था. वह अपनी सीमाओं को भी जानता था. उसे तो एक अजनबी शहर में कोई अपना मिल गया था, जिस के साथ वह अपने सुखदुख की बातें कर सकता था.

सतीश की मां ने कई अच्छे रिश्तों की बात अपने खत में लिखी थी, मगर वह जल्दी शादी करने के मूड में नहीं था. अभी तो उस की नौकरी लगे केवल 8 महीने ही हुए थे. वह राधा के साथ पक्की दोस्ती निभा रहा था, लेकिन राधा इस दोस्ती का कुछ और ही मतलब लगा रही थी.

राधा को लगने लगा था कि सतीश उस से प्यार करने लगा है. वह पहले से ज्यादा खुश रहने लगी थी. वह अपने मेकअप और कपड़ों पर भी ज्यादा ध्यान देने लगी थी. उस पर सतीश का नशा छाने लगा था. वह मोहन का वजूद भूलती जा रही थी.

सतीश हमेशा राधा की पसंदनापसंद का खयाल रखता था. वह उस की हर बात की तारीफ किए बिना नहीं रहता था. यही तो राधा चाहती थी. उसे अपना सपना सच होता दिखाई दे रहा था.

एक दिन राधा ने सतीश को डिनर पर अपने घर बुलाया. सतीश सही समय पर राधा के घर पहुंच गया.

नीली जींस व सफेद शर्ट में वह बेहद सजीला जवान लग रहा था. उधर राधा भी किसी परी से कम नहीं लग रही थी. उस ने नीले रंग की बनारसी साड़ी बांध रखी थी, जो उस के गोरे व हसीन बदन पर खूब फब रही थी.

सतीश के दरवाजे की घंटी बजाते ही राधा की बांछें खिल उठीं. उस ने मीठी मुसकान बिखेरते हुए दरवाजा खोला और उसे भीतर बुलाया.

ड्राइंगरूम में बैठा सतीश इधरउधर देख रहा था कि तभी राधा चाय ले कर आ गई.

‘‘मैडम, मोहनजी कहां हैं? वे कहीं दिखाई नहीं दे रहे,’’ सतीश ने पूछा.

राधा खीज कर बोली, ‘‘वे कंपनी के काम से हफ्तेभर के लिए हैदराबाद गए हैं. उन्हें मेरी जरा भी फिक्र नहीं रहती है. मैं अकेली दीवारों से बातें करती रहती हूं. खैर छोड़ो, चाय ठंडी हो रही है.’’

सतीश को लगा कि उस ने राधा की किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया है. बातोंबातों में चाय कब खत्म हो गई, पता ही नहीं चला.

राधा को लग रहा था कि सतीश ने आ कर कुछ हद तक उस की तनहाई दूर की है. सतीश कितना अच्छा है. बातबात पर हंसतामुसकराता है. उस का कितना खयाल रखता है.

तभी सतीश ने टोकते हुए पूछा, ‘‘राधा, कहां खो गई तुम?’’

‘‘अरे, कहीं नहीं. सोच रही थी कि तुम्हें खाने में क्याक्या पसंद हैं?’’

सतीश ने चुटकी लेते हुए जवाब दिया, ‘‘बस यही राजमा, पुलाव, रायता, पूरीपरांठे और मूंग का हलवा. बाकी जो आप खिलाएंगी, वही खा लेंगे.’’

‘‘क्या बात है. आज तो मेरी पसंद हम दोनों की पसंद बन गई,’’ राधा ने खुश होते हुए कहा.

राधा सतीश को डाइनिंग टेबल पर ले गई. दोनों आमनेसामने जा बैठे. वहां काफी पकवान रखे थे.

खाते हुए बीचबीच में सतीश कोई चुटकुला सुना देता, तो राधा खुल कर ठहाका लगा देती. माहौल खुशनुमा हो गया था.

‘काश, सब दिन ऐसे ही होते,’ राधा सोच रही थी.

सतीश ने खाने की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘वाह, क्या खाना बनाया?है, मैं तो उंगली चाटता रह गया. तुम इसी तरह खिलाती रही तो मैं जरूर मोटा हो जाऊंगा.’’

‘‘शुक्रिया जनाब, और मेरे बारे में आप का क्या खयाल है?’’ कहते हुए राधा ने सतीश पर सवालिया निगाह डाली.

‘‘अरे, आप तो कयामत हैं, कयामत. कहीं मेरी नजर न लग जाए आप को,’’ सतीश ने मुसकरा कर जवाब दिया.

सतीश की बात सुन कर राधा झूम उठी. उस की आंखों के डोरे लाल होने लगे थे. वह रोमांटिक अंदाज में अपनी कुरसी से उठी और सतीश के पास जा कर स्टाइल से कहने लगी, ‘‘सतीश, आज मौसम कितना हसीन है. बाहर बूंदों की रिमझिम हो रही?है और यहां हमारी बातोें की. चलो, एक कदम और आगे बढ़ाएं. क्यों न प्यारमुहब्बत की बातें करें…’’

इतना कह कर राधा ने अपनी गोरीगोरी बांहें सतीश के गले में डाल दीं. सतीश राधा का इरादा समझ गया. एक बार तो उस के कदम लड़खड़ाए, मगर जल्दी ही उस ने खुद पर काबू पा लिया और राधा को अपने से अलग करता हुआ बोला, ‘‘राधाजी, आप यह क्या कर रही?हैं? क्यों अपनी जिंदगी पर दाग लगाने पर तुली हैं? पलभर की मौजमस्ती आप को तबाह कर देगी.

‘‘अपने जज्बातों पर काबू कीजिए. मैं आप का दोस्त हूं, अंधी राहों पर धकेलने वाला हवस का गुलाम नहीं.

‘‘आप अपनी खुशियां मोहनजी में तलाशिए. आप के इस रूप पर उन्हीं का हक है. उन्हें अपनाने की कोशिश कीजिए,’’ इतना कह कर सतीश तेज कदमों से बाहर निकल गया.

राधा ठगी सी उसे देखती रह गई. उसे अपने किए पर अफसोस हो रहा था. वह सोचने लगी, ‘मैं क्यों इतनी कमजोर हो गई? क्यों सतीश को अपना सबकुछ मान बैठी? क्यों इस कदर उतावली हो गई?

‘अगर सतीश ने मुझे न रोका होता तो आज मैं कहीं की न रहती. बाद में वह मुझे ब्लैकमेल भी कर सकता था. मगर वह ऐसा नहीं है. उस ने मुझे भटकने से रोक लिया. कितना महान है सतीश. मुझे उस की दोस्ती पर नाज है.’

कार पूल : शेयरिंग कैब में भिड़े दो दिल

अर्पित अहमदाबाद एक संभ्रांत परिवार का लड़का था. लड़का क्या, नवयुवक था. सरकारी नौकरी करते हुए 6 माह हो चुके थे. उस के पास स्वयं की कार थी, लेकिन वह पूल वाली कैब से औफिस जाना पसंद करता था. शहर में कैब की सर्विस बहुत अच्छी थी.

अर्पित खुशमिजाज इनसान था. कैब में सहयात्रियों और कैब चालक से बात करना उस को अच्छा लगता था.

उस दिन भी वह औफिस से घर वापसी आते हुए रोज की तरह शेयरिंग वाली कैब से आ रहा था. रास्ते में श्रेया नाम की एक और सवारी उस कैब में सवार होनी थी.

अर्पित की आदत थी कि शेयरिंग कैब में वह पीछे की सीट पर जिस तरफ बैठा होता था, उस तरफ का गेट लौक कर देता था. उस दिन भी ऐसा ही था. श्रेया को लेने जब कैब पहुंची, तो उस ने अर्पित वाली तरफ के गेट को खोल कर बैठने की कोशिश की, पर गेट लौक होने के कारण उस का गेट खोलने में असफल रही श्रेया झल्ला कर कार की दूसरी तरफ से गेट खोल कर बैठ गई. युद्ध की स्थिति तुरंत ही बन गई और सारे रास्ते अर्पित और श्रेया लड़ते हुए गए.

घर आने पर अर्पित उतर गया. श्रेया के लिए ये वाकिआ बरदाश्त के बाहर था. असल में श्रेया को अपने लड़की होने का बहुत गुरूर था. आज तक उस ने लड़को को अपने आसपास चक्कर काटते ही देखा था. कोई लड़का इतनी बुरी तरह से उस से पहली बार उलझा था. श्रेया के तनबदन में आग लगी हुई थी.

अर्पित का घर श्रेया ने उस दिन देख ही लिया था. नामपते की जानकारी से श्रेया ने अर्पित के बारे में सबकुछ पता कर लिया और तीसरे ही दिन अर्पित के घर से 50 मीटर दूर आ कर लगभग उसी समय के अंदाजे के साथ कैब बुकिंग का प्रयास किया. जब अर्पित सुबह औफिस के लिए निकलता था.

श्रेया का भाग्य कहिए या अर्पित का दुर्भाग्य, श्रेया को अर्पित वाली कैब में ही बुकिंग मिल गई, एक कुटिल मुसकान कैब वाले एप पर ‘‘अर्पित के साथ पूल्ड‘‘ देख कर श्रेया के चेहरे पर तैर गई.

जिस तरफ श्रेया खड़ी थी, उसी तरफ कैब आती होने के कारण श्रेया को पिक करती हुई कैब अर्पित के घर के सामने रुकी. अर्पित बेखयाली में ड्राइवर के बगल वाली सीट पर सवार हो गया, तभी उसे पीछे से खनकती हुई आवाज आई, ‘‘कैसे हो अर्पितजी ?”

अर्पित ने चैंकते हुए पीछे मुड़ कर देखा, तो श्रेया सकपका गई, क्योंकि 3 दिन पुराना वाकिआ उसे याद आ गया लेकिन आज श्रेया के बात की शुरुआत करने का अंदाज ही अलग था, सो धीरेधीरे श्रेया और अर्पित की बातचीत दोस्ती में बदल गई.

दोनों का गंतव्य अभी बहुत दूर था. अर्पित कैब को रुकवा कर पीछे वाली सीट पर श्रेया के बगल में जा कर बैठ गया. एकदूसरे के फोन नंबर लिएदिए गए. अर्पित अपना औफिस आने पर उतर गया और श्रेया ने गरमजोशी से हाथ मिला कर उस को विदा किया.

अर्पित के मानो पंख लग गए. औफिस में अर्पित सारे दिन चहकाचहका रहा. दोपहर में श्रेया का फोन आया, तो अर्पित का तनबदन झूम उठा. श्रेया ने उस को लंच साथ करने का प्रस्ताव रखा, जो उस ने सहर्ष स्वीकार कर लिया.

दोपहर तकरीबन 1 बजे दोनों अर्पित के औफिस से थोड़ी दूर एक रेस्तरां में मिले और साथ लंच लिया.

अब तो यह लगभग रोज का ही किस्सा बन गया. औफिस के बाद शाम को भी दोनों मिलने लगे और साथसाथ घूमतेफिरते दोनों के बीच में जैसे प्यार के अंकुर फूट के खिलने लगे.

एक दिन श्रेया ने अंकुर को दोपहर में फोन कर के बताया कि शाम तक वह घर में अकेली है और अगर अर्पित उस के घर आ जाए, तो दोनों ‘अच्छा समय‘ साथ बिता सकते हैं. अर्पित के सिर पर प्यार का भूत पूरी तरह से चढ़ा हुआ था. अपने बौस को तबीयत खराब का बहाना बना कर अर्पित श्रेया के घर के लिए निकल पड़ा.

आने वाले किसी भी तूफान से बेखबर, मस्ती और वासना में चूर अर्पित श्रेया के घर पहुंचा और डोरबैल बजाई. एक मादक अंगड़ाई लेते हुए श्रेया ने अपने घर का दरवाजा खोला.

श्रेया के गीले और खुले बाल और नाइट गाउन में ढंका बदन देख कर अर्पित की खुमारी और परवान चढ़ गई. श्रेया ने अर्पित को अंदर ले कर गेट बंद कर दिया.

कुछ ही देर में दोनों एकदूसरे के आगोश में आ गए और एक प्यार भरे रास्ते पर निकल पड़े.

अर्पित ने श्रेया के बदन से कपड़े जुदा करने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई. उस ने श्रेया के पूरे बदन पर मादकता से फोरप्ले करते हुए समूचे जिस्म को प्यार से सहलाया.

धीरेधीरे अब अर्पित श्रेया के बदन से कपड़े जुदा करने लगा. एकाएक ही श्रेया जोरजोर से चिल्लाने लगी. अर्पित को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह चिल्ला क्यों रही है. कुछ ही पलों में अड़ोसपड़ोस के बहुत से लोग जमा हो गए और श्रेया के घर के अंदर आ गए.

श्रेया ने चुपचाप मेन गेट पहले ही खोल दिया था. श्रेया ने सब को बताया कि अर्पित जबरदस्ती घर में घुस कर उस का बलात्कार करने की कोशिश कर रहा था. उन मे से एक आदमी ने पुलिस को फोन कर दिया. ये सब इतनी जल्दी हुआ कि अर्पित को सोचनेसमझने का मौका नहीं मिला. थोड़ी ही देर बाद अर्पित सलाखों के पीछे था.

श्रेया ने उस दिन की छोटी सी लड़ाई का विकराल बदला ले डाला था.

जेल में 48 घंटे बीतने के साथ ही अर्पित को नौकरी से सस्पैंड किया जा चुका था. अर्पित को अपना पूरा भविष्य अंधकरमय नजर आने लगा और कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था.

कोर्ट में कई बार पेश किए जाने के उपरांत आज जज ने उस के लिए सजा मुकर्रर करने की तारीख रखी थी. अंतिम सुनवाई के उपरांत जज साहिबा जैसे ही अपना फैसला सुनाने को हुईं, अचानक ही इंस्पैक्टर प्रकाश ने कोर्ट मे प्रवेश करते हुए जज साहिबा से एक सुबूत पेश करने की इजाजत मांगी. मामला संगीन था और जज साहिबा बड़ी सजा सुनाने के मूड में थीं, इसलिए उन्होंने इंस्पैक्टर प्रकाश को अनुमति दे दी.

इंस्पैक्टर प्रकाश के साथ अर्पित का सहकर्मी विकास था और विकास के मोबाइल में अर्पित और श्रेया के बीच हुए प्रेमालाप की और श्रेया के मादक आहें भरने और अर्पित की वासना को और भड़काने के लिए प्रेरित करने की समूची औडियो रिकौर्डिंग मौजूद थी. दरअसल, जिस समय दोनों का प्रेमालाप शुरू होने वाला था, उसी समय विकास ने अर्पित की तबीयत पूछने के लिए उस को फोन मिलाया था और अर्पित ने गलती से फोन काटने के बजाय रिसीव कर के बेड के एक तरफ रख दिया था. विकास ने सारी काल रिकौर्ड कर ली थी.

श्रेया और अर्पित के बीच हुआ सारा वार्तालाप और श्रेया की वासना भरी आहें व अर्पित को बारबार उकसाने का प्रमाण उस सारी रिकौर्डिंग से सर्वविदित हो गया.

अदालत के निर्णय लिए जाने वाले दिन पूर्व में श्रेया द्वारा रूपजाल में फंसाए हुए अनिल ने भी अदालत में श्रेया के खिलाफ बयान दिया, जिस से श्रेया का ऐयाश होना और पुख्ता हो गया.

अदालत ने तमाम सुबूतों को मद्देनजर रखते हुए यह संज्ञान लिया कि श्रेया एक ऐयाश लड़की थी और भोलेभाले नौजवानों को अपने रूपजाल में फंसा कर उन के पैसों पर मौजमस्ती और ऐश करती थी. एक बेगुनाह नौजवान की जिंदगी बरबाद होने से बच गई. श्रेया को चरित्रहीनता और झूठे आरोप लगा कर युवक को बरबाद करने का प्रयास करने का आरोपी करार देते हुए जज ने जम कर फटकार लगाई. जज ने श्रेया को भविष्य में कुछ भी गलत करने पर सख्त सजा की चेतावनी देते हुए अर्पित को बाइज्जत बरी करने के आदेश दिए.

अर्पित ने मन ही मन ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करते हुए भविष्य में एक सादगी भरी जिंदगी जीने का निर्णय लिया.

मुसाफिर : चांदनी ने कैसे उस के साथ मजे किए

गर्भवती चांदनी को रहरह कर पेट में दर्द हो रहा था. इसी वजह से उस का पति भीमा उसे सरकारी अस्पताल में भरती कराने ले गया. उस ने लेडी डाक्टर से बड़ी चिरौरी कर जैसेतैसे एक पलंग का इंतजाम करवा लिया. नर्स के हाथ पर 10 रुपए का नोट रख कर उस ने उसे खुश करने का वचन भी दे दिया, ताकि बच्चा पैदा होने के समय वह चांदनी की ठीक से देखभाल करे.

चांदनी के परिवार में 4 बेटियां रानी, पिंकी, गुडि़या और लल्ली के अलावा पति भीमा था, जो सीधा और थोड़ा कमअक्ल था.

भीमा मरियल देह का मेहनती इनसान था. ढाबे पर सुबह से रात तक डट कर मेहनत से दो पैसे कमाना और बीवीबच्चों का पेट भरना ही उस की जिंदगी का मकसद था. जब कभी बारिश के दिनों में तालतलैया में मछलियां भर जातीं, तब भीमा की जीभ लालच से लार टपकाने लगती थी और वह जाल ले कर मछली पकड़ने दोस्तों के साथ घर से निकल पड़ता था.

गांव में मजदूरी न मिलने पर वह कई बार दिहाड़ी मजदूरी करने आसपास के शहर में भी चला जाता था. तब चांदनी अकेले ही सुबह से रात तक ढाबे पर रहती थी.

गठीले बदन और तीखे नाकनक्श की चांदनी 30 साल की हो कर भी गजब की लगती थी. जब वह ढाबे पर बैठ कर खनकती हंसी हंसती, तो रास्ता चलते लोगों के सीने में तीर से चुभ जाते थे. कितने तो मन न होते हुए भी एक कप चाय जरूर पी लेते थे.

अस्पताल में तनहाई में लेटी चांदनी कमरे की दीवारों को बिना पलक झपकाए देख रही थी. उसे याद आया, जब एक बार मूसलाधार बारिश में उस के गांव भगवानपुर से आगे 4 मील दूर बहती नदी चढ़ आई थी. सारे ट्रक नदी के दोनों तरफ रुक गए थे. तकरीबन एक मील लंबा रास्ता ट्रकों से जाम हो गया था.

तब न कोई ट्रक आता था, न जाता था. सड़क सुनसान पड़ी थी. इस कारण चांदनी का ढाबा पूरी तरह से ठप हो चुका था. वह रोज सवेरे ग्राहक के इंतजार में पलकपांवड़े बिछा कर बैठ जाती, पर एकएक कर के 5 दिन निकल गए और एक भी ग्राहक न फटका था. बोहनी तो हुई ही नहीं, उलटे गांठ के पैसे और निकल गए थे.

ऐसे में चांदनी एकएक पैसे के लिए मुहताज हो गई थी. चांदनी मन ही मन खुद पर बरसती कि चौमासे का भी इंतजाम नहीं किया. उधर भीमा भी 15 दिनों से गायब था. जाने कसबे की तरफ चला गया था या कहीं उफनती नदी में मछलियां खंगाल रहा था.

भीमा का ध्यान आते ही चांदनी सोचने लगी कि किसी जमाने में वह कितना गठीला और गबरू जवान था. आग लगे इस नासपिटी दारू में कि उस की देह दीमक लगे पेड़ की तरह खड़ीखड़ी सूख गई. अब नशा कर के आता है और उसे बेकार ही झकझोर कर आग लगाता है. खुद तो पटाके की तरह फुस हो जाता है और वह रातदिन भीतर ही भीतर सुलगती रहती है.

कभीकभी तो भीमा खुद ही कह देता है कि चांदनी अब मुझ में पहले वाली जान नहीं रही, तू तलाश ले कोई गबरू जवान, जिस से हमारे खानदान को एक चिराग तो मिल जाए.

तब चांदनी भीमा के मुंह पर हाथ रख देती और नाराज हो कर कहती कि चुप हो जा. शर्म नहीं आती ऐसी बातें कहते हुए. तब भीमा बोलता, ‘अरी, शास्त्रों में लिखा है कि बेटा पैदा करने के लिए घड़ी दो घड़ी किसी ताकतवर मर्द का संग कर लेना गलत नहीं होता. कितनों ने ही किया है. पंडित से पूछ लेना.’

चांदनी अपने घुटनों में सिर दे कर चुप रह जाती थी. रास्ता रुके हुए छठा दिन था कि रात के अंधेरे को चीरती एक टौर्च की रोशनी उस के ढाबे पर पड़ी. चांदनी आंखें मिचमिचाते हुए उधर देखने लगी. पास आने पर देखा कि टौर्च हाथ में लिए कोई आदमी ढाबे की तरफ चला आ रहा था.

वह टौर्च वाला आदमी ट्रक ड्राइवर बलभद्र था. बलभद्र आ कर ढाबे के बाहर बिछी चारपाई पर बैठ गया. बरसात अभी रुकी थी और आबोहवा में कुछ उमस थी.

बलभद्र ने बेझिझक अपनी कमीज उतार कर एक तरफ फेंक दी. वह एक गठीले बदन का मर्द था. पैट्रोमैक्स की रोशनी में उस का गोरा बदन चमक छोड़ रहा था. बेचैनी और उम्मीद में डूबती चांदनी कनखियों से उसे ताक रही थी.

थकान और गरमी से जब बलभद्र को कुछ छुटकारा मिला, तब उस का ध्यान चांदनी की ओर गया.

वह आवाज लगा कर बोला, ‘‘क्या बाई, कुछ रोटी वगैरह मिलेगी?’’

‘‘हां,’’ चांदनी बोली.

‘‘तो लगा दाल फ्राई और रोटी.’’

चांदनी में जैसे बिजली सी चमकी. उस ने भट्ठी पर फटाफट दाल फ्राई कर दी और कुछ ही देर में वह गरम तवे पर मोटीमोटी रोटियां पलट रही थी.

चारपाई पर पटरा लगा कर चांदनी ने खाना लगा दिया. खाना खाते समय बलभद्र कह रहा था, ‘‘5 दिनों में भूख से बेहाल हो गया.’’

जाने चांदनी के हाथों का स्वाद था या बलभद्र की पुरानी भूख, उसे ढाबे का खाना अच्छा लगा. वह 14 रोटी खा गया. पानी पी कर उस ने अंगड़ाई ली और वहीं चारपाई पर पसर गया. बरतन उठाती चांदनी को जेब से निकाल कर उस ने सौ रुपए का एक नोट दिया और बोला, ‘‘पूरा पैसा रख ले बाई.’’

चांदनी को जैसे पैर में पंख लग गए थे. उसे बलभद्र की बातों पर यकीन नहीं हो रहा था. बरतन नाली पर रख कर चांदनी फिर भट्ठी के पास आ बैठी. बलभद्र लेटेलेटे ही गुनगुना रहा था.

गीत गुनगुनाने के बाद बलभद्र बोला, ‘‘बाई, आज यहां रुकने की इच्छा है. आधी रात को कहां ट्रक के पास जाऊंगा. क्लीनर ही गाड़ी की रखवाली कर लेगा. क्यों बाई, तुम्हें कोई एतराज तो नहीं?’’

चांदनी को भला क्या एतराज होता. उस ने कह दिया कि उसे कोई एतराज नहीं है. अगर रुकना चाहो तो रुक जाओ और बलभद्र गहरी तान कर सो गया.

चांदनी की चारों बेटियां ढाबे के पिछले कमरे में बेसुध सोई पड़ी थीं. रात गहरी हो रही थी. बादलों से घिरे आसमान में बिजली की चमक और गड़गड़ाहट रहरह कर गूंज रही थी.

तब रात के 12 बजे होंगे. किसी और ग्राहक के आने की उम्मीद छोड़ कर चांदनी वहां से हटी. देखा तो बलभद्र धनुष बना गुड़ीमुड़ी हुआ चारपाई पर पड़ा था.

चांदनी भीतर गई और एक कंबल उठा लाई. बलभद्र को कंबल डालते समय चांदनी का हाथ उस के माथे से टकराया, तो उसे लगा कि उसे तेज बुखार है.

चांदनी ने अचानक अपनी हथेली बलभद्र के माथे पर रखी. वह टुकुरटुकुर उसे ही ताक रहा था. उन आंखों में चांदनी ने अपने लिए एक चाहत देखी.

तभी अचानक तेज हवा चली और पैट्रोमैक्स भभक कर बुझ गया. हड़बड़ा कर उठती चांदनी का हाथ सकुचाते हुए बलभद्र ने थाम लिया. थोड़ी देर कसमसाने के बाद चांदनी अपने बदन में छा गए नशे से बेसुध हो कर उस के ऊपर ढेर हो गई थी. सालों बाद चांदनी को बड़ा सुख मिला था.

भोर होने से पहले ही वह उठी और पिछले कमरे की ओर चल पड़ी थी. उस ने सोचा कि खुद भीमा ने ही तो इस के लिए उस से कहा था, और फिर इस काली गहरी अंधेरी रात में भला किस ने देखा था. यही सब सोचतेसोचते वह नींद में लुढ़क गई.

सूरज कितना चढ़ आया था, तब बड़ी बेटी ने उसे जगाया और बोली, ‘‘रात का मुसाफिर 5 सौ रुपए दे गया है.’’

वह चौंकती सी उठी, तो देखा बलभद्र जा चुका था. चारपाई पर पड़ा हुआ कंबल उसे बड़ा घिनौना लगा. वह देर तक बैठी रात के बारे में सोचती रही.

15 दिन बाद बलभद्र फिर लौटा और भीमा के साथ उस ने खूब खायापीया. नशे में डूबा भीमा बलभद्र का गुण गाता भीतर जा कर लुढ़क गया और चांदनी ने इस बार जानबूझ कर पैट्रोमैक्स बुझा दिया.

बलभद्र का अपना ट्रक था और खुद ही उसे चलाता था, इसलिए उस के हाथ में खूब पैसा भी रहता था. चांदनी का सांचे में ढला बदन और उस की चुप रहने की आदत बहुत भाई थी उसे. चांदनी अपने शरीर के आगे मजबूर होती जा रही थी और बलभद्र के जाते ही हर बार खुद को मन ही मन कोसती रहती थी.

अब बलभद्र के कारण भीमा की माली हालत सुधरने लगी. वह उस का भी गहरा दोस्त हो गया था. 3 लड़कों का बाप बलभद्र बताता था कि कितना अजीब है कि वह लड़की पैदा करना चाहता है और भीमा लड़के की अभिलाषा रखता है.

चांदनी चुप जरूर थी, लेकिन अंदर ही अंदर खुश रहती थी. उस का सातवां महीना था. भीमा के साथ आसपास के जानने वाले लोग भी बेचैनी से इस बच्चे के जन्म का इंतजार कर रहे थे.

तब पूरे 9 महीने हो गए थे. एक दिन अचानक बलभद्र खाली ट्रक ले कर वहां आ धमका और उदास होता हुआ बोला, ‘‘अब वह पंजाब में ही ट्रक चलाएगा, क्योंकि घर के लोगों ने नाराज हो कर उसे वापस बुलाया है.’’

यह सुन कर भीमा और चांदनी बेहद उदास हो गए थे. आखिरी बार चांदनी ने उसे अच्छा खाना खिलाया और दुखी मन से विदा किया. अगले ही दिन उसे अस्पताल आना पड़ा था. तब से वह बच्चा पैदा होने के इंतजार में थे.

उसे दर्द बढ़ गया, तो उस ने नर्स को बुलाया. आननफानन उसे भीतर ले जाया गया. आखिरकार उस ने बच्चे को जन्म दिया और बेहोश हो गई.

कुछ देर बाद होश में आने पर चांदनी ने जाना कि उस ने एक बेटे को  न्म दिया है. वह जल्दी से बच्चे को घूरने लगी कि लड़के की शक्ल किस से मिलती है… भीमा से या बलभद्र से?

आखिर कब तक: धर्म के नाम पर दो प्रेमियों की बलि

राम रहमानपुर गांव सालों से गंगाजमुनी तहजीब की एक मिसाल था. इस गांव में हिंदुओं और मुसलिमों की आबादी तकरीबन बराबर थी. मंदिरमसजिद आसपास थे. होलीदीवाली, दशहरा और ईदबकरीद सब मिलजुल कर मनाते थे. रामरहमानपुर गांव में 2 जमींदारों की हवेलियां आमनेसामने थीं. दोनों जमींदारों की हैसियत बराबर थी और आसपास के गांव में बड़ी इज्जत थी.

दोनों परिवारों में कई पीढ़ियों से अच्छे संबंध बने हुए थे. त्योहारों में एकदसूरे के यहां आनाजाना, सुखदुख में हमेशा बराबर की साझेदारी रहती थी. ब्रजनंदनलाल की एकलौती बेटी थी, जिस का नाम पुष्पा था. जैसा उस का नाम था, वैसे ही उस के गुण थे. जो भी उसे देखता, देखता ही रह जाता था. उस की उम्र नादान थी. रस्सी कूदना, पिट्ठू खेलना उस के शौक थे. गांव के बड़े झूले पर ऊंचीऊंची पेंगे लेने के लिए वह मशहूर थी.

शौकत अली के एकलौते बेटे का नाम जावेद था. लड़कों की खूबसूरती की वह एक मिसाल था. बड़ों की इज्जत करना और सब से अदब से बात करना उस के खून में था. जावेद के चेहरे पर अभी दाढ़ीमूंछों का निशान तक नहीं था.

जावेद को क्रिकेट खेलने और पतंगबाजी करने का बहुत शौक था. जब कभी जावेद की गेंद या पतंग कट कर ब्रजनंदनलाल की हवेली में चली जाती थी, तो वह बिना झिझक दौड़ कर हवेली में चला जाता और अपनी पतंग या गेंद ढूंढ़ कर ले आता.

पुष्पा कभीकभी जावेद को चिढ़ाने के लिए गेंद या पतंग को छिपा देती थी. दोनों में खूब कहासुनी भी होती थी. आखिर में काफी मिन्नत के बाद ही जावेद को उस की गेंद या पतंग वापस मिल पाती थी. यह अल्हड़पन कुछ समय तक चलता रहा. बड़ेबुजुर्गों को इस खिलवाड़ पर कोई एतराज भी नहीं था.

समय तो किसी के रोकने से रुकता नहीं. पुष्पा अब सयानी हो चली थी और जावेद के चेहरे पर दाढ़ीमूंछ आने लगी थीं. अब जावेद गेंद या पतंग लेने हवेली के अंदर नहीं जाता था, बल्कि हवेली के बाहर से ही आवाज दे देता था.

पुष्पा भी अब बिना झगड़ा किए नजर झुका कर गेंद या पतंग वापस कर देती थी. यह झुकी नजर कब उठी और जावेद के दिल में उतर गई, किसी को पता भी नहीं चला.

अब जावेद और पुष्पा दिल ही दिल में एकदूसरे को चाहने लगे थे. उन्हें अल्हड़ जवानी का प्यार हो गया था.

कहावत है कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. गांव में दोनों के प्यार की बातें होने लगीं और बात बड़ेबुजुर्गों तक पहुंची.

मामला गांव के 2 इज्जतदार घरानों का था. इसलिए इस के पहले कि मामला तूल पकड़े, जावेद को आगे की पढ़ाई के लिए शहर भेज दिया गया. यह सोचा गया कि वक्त के साथ इस अल्हड़ प्यार का बुखार भी उतर जाएगा, पर हुआ इस का उलटा.

जावेद पर पुष्पा के प्यार का रंग पक्का हो गया था. वह सब से छिप कर रात के अंधेरे में पुष्पा से मिलने आने लगा. लुकाछिपी का यह खेल ज्यादा दिन तक नहीं चल सका. उन की रासलीला की चर्चा आसपास के गांवों में भी होने लगी.

आसपास के गांवों की महापंचायत बुलाई गई और यह फैसला लिया गया कि गांव में अमनचैन और धार्मिक भाईचारा बनाए रखने के लिए दोनों को उन की हवेलियों में नजरबंद कर दिया जाए.

ब्रजनंदनलाल और शौकत अली को हिदायत दी गई कि बच्चों पर कड़ी नजर रखें, ताकि यह बात अब आगे न बढ़ने पाए. कड़ी सिक्योरिटी के लिए दोनों हवेलियों पर बंदूकधारी पहरेदार तैनात कर दिए गए.

अब पुष्पा और जावेद अपनी ही हवेलियों में अपने ही परिवार वालों की कैद में थे. कई दिन गुजर गए. दोनों ने खानापीना छोड़ दिया था. आखिरकार दोनों की मांओं का हित अपने बच्चों की हालत देख कर पसीज उठा. उन्होंने जातिधर्म के बंधनों से ऊपर उठ कर घर के बड़ेबुजुर्गों की नजर बचा कर गांव से दूर शहर में घर बसाने के लिए अपने बच्चों को कैद से आजाद कर दिया.

रात के अंधेरे में दोनों अपनी हवेलियों से बाहर निकल कर भागने लगे. ब्रजनंदनलाल और शौकत अली तनाव के कारण अपनी हवेलियों की छतों पर आधी रात बीतने के बाद भी टहल रहे थे. उन दोनों को रात के अंधेरे में 2 साए भागते दिखाई दिए. उन्हें चोर समझ कर दोनों जोर से चिल्लाए, पर वे दोनों साए और तेजी से भागने लगे.

ब्रजनंदनलाल और शौकत अली ने बिना देर किए चिल्लाते हुए आदेश दे दिया, ‘पहरेदारो, गोली चलाओ.’

‘धांयधांय’ गोलियां चल गईं और 2 चीखें एकसाथ सुनाई पड़ीं और फिर सन्नाटा छा गया.

जब उन्होंने पास जा कर देखा, तो सब के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई. पुष्पा और जावेद एकदूसरे का हाथ पकड़े गोलियों से बिंधे पड़े थे. ताजा खून उन के शरीर से निकल कर एक नई प्रेमकहानी लिख रहा था.

आननफानन यह खबर दोनों हवेलियों तक पहुंच गई. पुष्पा और जावेद की मां दौड़ती हुई वहां पहुंच गईं. अपने जिगर के टुकड़ों को इस हाल में देख कर वे दोनों बेहोश हो गईं. होश में आने पर वे रोरो कर बोलीं, ‘अपने जिगर के टुकड़ों का यह हाल देख कर अब हमें भी मौत ही चाहिए.’

ऐसा कह कर उन दोनों ने पास खड़े पहरेदारों से बंदूक छीन कर अपनी छाती में गोली मार ली. यह सब इतनी तेजी से हुआ कि कोई उन को रोक भी नहीं पाया.

यह खबर आग की तरह आसपास के गांवों में पहुंच गई. हजारों की भीड़ उमड़ पड़ी. सवेरा हुआ, पुलिस आई और पंचनामा किया गया. एक हवेली से 2 जनाजे और दूसरी हवेली से 2 अर्थियां निकलीं और उन के पीछे हजारों की तादाद में भीड़.

अंतिम संस्कार के बाद दोनों परिवार वापस लौटे. दोनों हवेलियों के चिराग गुल हो चुके थे. अब ब्रजनंदनलाल और शौकत अली की जिंदगी में बच्चों की यादों में घुलघुल कर मरना ही बाकी बचा था.

ब्रजनंदनलाल और शौकत अली की निगाहें अचानक एकदसूरे से मिलीं, दोनों एक जगह पर ठिठक कर कुछ देर तक देखते रहे, फिर अचानक दौड़ कर एकदूसरे से लिपट कर रोने लगे.

गहरा दुख अपनों से मिल कर रोने से ही हलका होता है. बरसों का आपस का भाईचारा कब तक उन्हें दूर रख सकता था. शायद दोनों को एहसास हो रहा था कि पुरानी पीढ़ी की सोच में बदलाव की जरूरत है.

ठगनी: लड़कों को हुस्न के जाल में फंसाने वाली लड़की

घर के बगीचे में बैठा मैं अपने मोबाइल फोन के बटनों पर उंगलियां फेर रहा था. चलचित्र की तरह एकएक कर नंबरों समेत नाम आते और ऊपर की ओर सरकते जाते. उन में से एक नाम पर मेरी उंगली ठहर गई. वह नंबर परेश का था. मेरा पुराना जिगरी दोस्त. आज से तकरीबन 10 साल पहले आदर्श कालोनी में परेश अपने मातापिता व भाईबहनों के साथ किराए के मकान में रहता था. ठीक उस से सटा हुआ मेरा घर था.

हम लोग एकसाथ परिवार की तरह रहते थे. फिर मेरी शादी हो गई. अचानक पिता की मौत के बाद मैं अपने आदर्श नगर वाला मकान छोड़ कर पिताजी द्वारा दूसरी जगह खरीदे हुए मकान में रहने चला गया.

कुछ दिनों के बाद मैं एक दिन परेश से मिला था, तो मेरे घर वालों का हालचाल जानने के बाद उस ने बताया था कि वे लोग भी आदर्श नगर वाला किराए का मकान छोड़ कर किसी दूसरी जगह रहने लगे हैं.

काम ज्यादा होने के चलते फिर हम लोगों की मुलाकातें बंद हो गईं. हमें मिले कई साल गुजर गए. बचपन की वे पुरानी बातें याद आने लगीं. हालचाल पूछने के लिए सोचा कि फोन लगाता हूं. फोन का बटन उस नंबर पर दबते ही घंटी बजनी शुरू हो गई.

मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा कि चलो, फोन तो लग गया, क्योंकि इन दिनों क्या बूढ़े, क्या जवान, सभी में एक फैशन सा हो गया है सिम कार्ड बदल देने का. आज कुछ नंबर रहता है, तो कल कुछ.

थोड़ी देर बाद ही उधर से किसी औरत की आवाज सुनाई दी, ‘हैलो… कौन बोल रहा है? देखिए, यहां लाउडस्पीकर बज रहा है. कुछ भी ठीक से सुनाई नहीं पड़ रहा है.’

मैं ने अंदाजा लगाया, शायद परेश की भी शादी हो गई है. हो न हो, यह उसी की पत्नी है.

मैं फोन पर जरा ऊंची आवाज में बोला, ‘‘हैलो, मैं मयंक बोल रहा हूं… हैलो… सुनाई दे रहा है न… परेश ने मुझे यह नंबर दिया था. यह उसी का ही नंबर है न… मुझे उसी से बात करनी है. वह मेरे बचपन का दोस्त है. आदर्श नगर में हम लोग एकसाथ रहते थे.’’

उधर से फिर आवाज आई, ‘देखिए, कुछ सुनाई नहीं दे रहा है, आप…’

मैं ने फोन काट दिया. मैं हैरान सा था. पक्का करने के लिए दोबारा फोन लगाया कि सही में वह औरत परेश की पत्नी ही है या कोई और, मगर साफ आवाज न मिल पाने के चलते दिक्कत हो रही थी. वैसे, यह नंबर खुद परेश ने मुझे एक बार दिया था. जब वह बाजार में मिला था. यह औरत यकीनन उस की पत्नी ही होगी. आवाज से ऐसा लग रहा था, जैसे वह मेरा परिचय जानने की कोशिश कर रही थी.

रात के 8 बजे मैं खापी कर कुछ लिखनेपढ़ने के खयाल से बैठ ही रहा था कि मेरे मोबाइल फोन पर एक फोन आया. किसी मर्द की आवाज थी, जिसे मैं पहचान नहीं पा रहा था. फोन पर उस ने मेरा नाम पूछा. मैं ने जैसे ही अपना नाम बताया, तो वह तपाक से बोल पड़ा, ‘हैलो, मयंक भैया. आप का फोन था? सवेरे आप ने ही फोन किया था?’

मैं ने कहा, ‘‘हां.’’

उधर से फिर आवाज आई, ‘अरे भैया, मैं परेश बोल रहा हूं. देखिए न, मैं जैसे ही घर आया, तो मेरी पत्नी ने बताया कि किसी मयंक का फोन आया था. मैं ने सोचा कि कौन हो सकता है? यही सोचतेसोचते फोन लगा दिया.

‘और भैया, कैसे हैं? आप तो आते ही नहीं हैं. आइए, घर पर और अपनी भाभी से भी मिल लीजिएगा. बहुत मजा आएगा मिल कर.’

‘‘सचमुच…’’

‘एक बार आ कर तो देखिए.’

मैं ने कहा कि जरूर आऊंगा और फोन कट गया. बहुत दिनों से छूटी दोस्ती अचानक उफान मारने लगी. बहुत सारी बातें थीं, जो फोन पर नहीं हो सकती थीं. बचपन के वे दिन जब हम परेश के भाईबहनों के साथ उस के घर में बैठ कर खेलते थे. उस की मां मुझे बहुत मानती थीं. मैं उन्हें ‘काकी’ कहता था.

एक बार वे बहुत बीमार पड़ गई थीं. मैं अपने मामा की शादी में गांव चला गया था. वहां से महीनों बाद आया, तो पता चला कि काकी अस्पताल में भरती थीं. उन्हें आईसीयू में रखा गया था. वे किसी को पहचान नहीं पा रही थीं. आईसीयू से निकलते वक्त मैं उन के सामने खड़ा था. जब सिस्टर ने पूछा कि आप इन्हें पहचानते हैं, तो उन्होंने तपाक से मेरा नाम बता दिया था. उन के परिवार में खुशियां छा गई थीं.

बचपन के वे दिन चलचित्र की तरह याद आ रहे थे. मैं परेश और उस के परिवार से मिलना चाहता था, खासकर परेश की पत्नी से. वह दिखने में कैसी होगी? मिलने पर खूब बातें करेंगे.

एक दिन सचमुच मैं ने उस के घर जाने का मन बना लिया. घर के पास पहुंच कर मैं ने फोन लगाया. फोन उस की पत्नी ने उठाया था. इस बार आवाज दोनों तरफ से साफ आ रही थी. उस की आवाज मेरे कानों में पड़ते ही मेरी सांसें जोरजोर से चलने लगीं. शरीर हलका होने लगा. आवाज कांपने और हकलाने लगी. पानी गटकने की जरूरत महसूस होने लगी.

मैं ने फोन पर अपनेआप को ठीक करते हुए कहा, ‘‘हैलो, मैं मयंक…’’

उधर से परेश की पत्नी की आवाज आई, ‘अरे आप, हांहां पहचान गई, कहिए, कैसे हैं?’

मेरे मुंह से आवाज निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी. किसी तरह गले को थूक से थोड़ा गीला किया और कहा, ‘‘हां, मैं मयंक. इधर ही आया था एक दोस्त के घर. सोचा, आया हूं तो मिलता चलूं. आप को भी देखना है कि कैसी लगती हैं?’’ मैं ने एक ही सांस में अपनी इच्छा जाहिर कर दी.

उस ने तुरंत कहा, ‘हांहां, आप ठीक जगह पर हैं. मैदान के बगल में सड़क है, जो नदी तक जाती है. उसी पर आगे बढि़एगा. सामने एक मकान दिखेगा, उस में एक नारियल का पेड़ है. याद रखिएगा. आइए.’ ऐसा लग रहा था, जैसे मैं हवा में उड़ता जा रहा हूं और उड़ते हुए उस का घर खोज रहा हूं, जिस में एक नारियल का पेड़ है. जल्द ही घर मिल गया.

मैं ने घर के सामने पहुंच कर दरवाजा खटखटाया. एक खूबसूरत औरत बाहर निकली. मेरा स्वागत करते हुए वह मुझे घर के अंदर ले गई.

थोड़ी औपचारिकता के बाद मैं ने इधरउधर गरदन हिलाई और पूछा, ‘‘परेश कहीं दिख नहीं रहा है… और काकी?’’

‘‘परेश आता ही होगा, काकी गांव गई हैं,’’ यह कहते हुए वह मेरे बगल में ही थोड़ा सट कर बैठ गई. इतना करीब कि हम दोनों की जांघें उस के जरा से हिलने से सटने लगी थीं. मैं रोमांचित होने लगा. यहां आने से थोड़ी देर पहले मैं उसे ले कर जो सोच रहा था, वह सब हकीकत लगने लगा था. मैं उस से हंसहंस कर बातें कर रहा था कि इतने में दरवाजे पर दस्तक हुई.

मैं जलभुन गया कि अचानक यह कबाब में हड्डी बनने कहां से आ गया.

दरवाजा खुलते ही सामने एक अजनबी आदमी दिखा. चेहरे से दिखने में खुरदरा, उस के तेवर अच्छे नहीं लग रहे थे. मैं ने परेश की पत्नी की तरफ देखते हुए उस आदमी के बारे में पूछा, तो उस ने सपाट सा जवाब दिया, ‘‘यही तो है परेश,’’ और उस की एक कुटिल हंसी हवा में तैर गई.

मैं सकपका गया. यह परेश तो नहीं है. क्या मैं किसी अजनबी औरत के पास…

अभी मन ही मन सोच ही रहा था कि वह आदमी मेरे सामने आ गया और कमर से एक देशी कट्टा निकाल कर उस से खेलने लगा. फिर मुझे धमकाते हुए बोला, ‘‘तुम्हारी हर हरकत मेरे मोबाइल फोन में कैद हो गई है. अब तुम्हारी भलाई इसी में है कि बदनामी से पिंड छुड़ाना चाहते हो, तो तुम्हें 50 हजार रुपए देने होंगे.

‘‘तुम्हें कल तक के लिए मुहलत दी जाती है, वरना परसों ये तसवीरें तुम्हारे घर के आसपास बांट दी जाएंगी.’’

मुझे काटो तो खून नहीं. मैं ने हिम्मत कर के कहा, ‘‘मगर, यह तो परेश का घर है और यह उस की पत्नी है.’’ वे दोनों एकसाथ हंस पड़े. उस आदमी ने कहा, ‘‘गलत नंबर पर पड़ गए बरखुरदार. होगा तुम्हारे किसी दोस्त का नंबर, लेकिन अब यह नंबर मेरे पास है. यह मेरी पार्टनर लीना है और हम दोनों का यही धंधा है.’’

वह औरत जो अब तक मुझ से सट कर बैठी थी, मुझ से छिटक कर उस के बगल में जा खड़ी हुई. वह मुझे धमकाते हुए बोली, ‘‘किसी से कहना नहीं, चल फटाफट निकल यहां से और जल्दी से पैसों का इंतजाम कर.’’

मैं सहमा सा उस खूबसूरत ठगनी का मुंह देखता रह गया.

मैं झूठ नहीं बोलती : सच बोलने वाली हिम्मती

जब से होश संभाला, यही शिक्षा मिली कि सदैव सच बोलो. हमारी बुद्धि में यह बात स्थायी रूप से बैठ जाए इसलिए मास्टरजी अकसर ही  उस बालक की कहानी सुनाते, जो हर रोज झूठमूठ का भेडि़या आया भेडि़या आया चिल्ला कर मजमा लगा लेता और एक दिन जब सचमुच भेडि़या आ गया तो अकेला खड़ा रह गया.

मां डराने के लिए ‘झूठ बोले कौआ काटे’ की लोकोक्ति का सहारा लेतीं और उपदेशक लोग हर उपदेश के अंत में नारा लगवाते ‘सच्चे का बोलबाला, झूठे का मुंह काला.’ भेडि़ये से तो खैर मुझे भी बहुत डर लगता है बाकी दोनों स्थितियां भी अप्रिय और भयावह थीं. विकल्प एक ही बचा था कि झूठ बोला ही न जाए.

बचपन बीता. थोड़ी व्यावहारिकता आने लगी तो मां और मास्टरजी की नसीहतें धुंधलाने लगीं. दुनिया जहान का सामना करना पड़ा तो महसूस हुआ कि आज के युग में सत्य बोलना कितना कठिन काम है और समझदार बनने लगे हम. आप ही बताओ मेरी कोई सहकर्मी एकदम आधुनिक डे्रस पहन कर आफिस आ गई है, जो न तो उस के डीलडौल के अनुरूप है न ही व्यक्तित्व के. मन तो मेरा जोर मार रहा है यह कहने को कि ‘कितनी फूहड़ लग रही हो तुम.’ चुप भी नहीं रह सकती क्योंकि सामने खड़ी वह मुसकरा कर पूछे जा रही है, ‘‘कैसी लग रही हूं मैं?’’

‘अब कहो, सच बोल दूं क्या?’

विडंबना ही तो है कि सभ्यता के साथसाथ झूठ बोलने की जरूरत बढ़ती ही गई है. जब हम शिष्टाचार की बात करते हैं तो अनेक बार आवश्यक हो जाता है कि मन की बात छिपाई जाए. आप चाह कर भी सत्य नहीं बोलते. बोल ही नहीं पाते यही शिष्टता का तकाजा है.

आप किसी के घर आमंत्रित हैं. गृहिणी ने प्रेम से आप के लिए पकवान बनाए हैं. केक खा कर आप ने सोचा शायद मीठी रोटी बनाई है. बस, शेप फर्क कर दी है और लड्डू ऐसे कि हथौड़े की जरूरत. खाना मुश्किल लग रहा है पर आप खा रहे हैं और खाते हुए मुसकरा भी रहे हैं. जब गृहिणी मनुहार से दोबारा परोसना चाहती है तो आप सीधे ही झूठ पर उतर आते हैं.

‘‘बहुत स्वादिष्ठ बना है सबकुछ, पर पेट खराब होने के कारण अधिक नहीं खा पा रहे हैं.’’

मतलब यह कि वह झूठ भी सच मान लिया जाए, जो किसी का दिल तोड़ने से बचा ले.

‘शारीरिक भाषा झूठ नहीं बोलती,’ ऐसा हमारे मनोवैज्ञानिक कहते हैं. मुख से चाहे आप झूठ बोल भी रहे हों आप की आवाज, हावभाव सत्य उजागर कर ही देते हैं. समझाने के लिए वह यों उदाहरण देते हैं, ‘बच्चे जब झूठ बोलते हैं तो अपना एक हाथ मुख पर धर लेते हैं. बड़े होने पर पूरा हाथ नहीं तो एक उंगली मुख या नाक पर रखने लगते हैं अथवा अपना हाथ एक बार मुंह पर फिरा अवश्य लेते हैं,’ ऐसा सोचते हैं ये मनोवैज्ञानिक लोग. पर आखिर अभिनय भी तो कोई चीज है और हमारे फिल्मी कलाकार इसी अभिनय के बल पर न सिर्फ चिकनीचुपड़ी खाते हैं हजारों दिलों पर राज भी करते हैं.

वैसे एक अंदर की बात बताऊं तो यह बात भी झूठ ही है, क्योंकि अपनी जीरो फिगर बनाए रखने के चक्कर में प्राय: ही तो भूखे पेट रहते हैं बेचारे. बड़ा सत्य तो यह है कि सभ्य होने के साथसाथ हम सब थोड़ाबहुत अभिनय सीख ही गए हैं. कुछ लोग तो इस कला में माहिर होते हैं, वे इतनी कुशलता से झूठ बोल जाते हैं कि बड़ेबड़े धोखा खा जाएं. मतलब यह कि आप जितने कुशल अभिनेता होंगे, आप का झूठ चलने की उतनी अच्छी संभावना है और यदि आप को अभिनय करना नहीं आता तो एक सरल उपाय है. अगली बार जब झूठ बोलने की जरूरत पड़े तो अपने एक हाथ को गोदी में रख दूसरे हाथ से कस कर पकड़े रखिए आप का झूठ चल जाएगा.

हमारे राजनेता तो अभिनेताओं से भी अधिक पारंगत हैं झूठ बोलने का अभिनय करने में. जब वह किसी विपदाग्रस्त की हमदर्दी में घडि़याली आंसू बहा रहे होते हैं, सहायता का वचन दे रहे होते हैं तो दरअसल, वह मन ही मन यह हिसाब लगा रहे होते हैं कि इस में मेरा कितना मुनाफा होगा. वोटों की गिनती में और सहायता कोश में से भी. इन नेताओं से हम अदना जन तो क्या अपने को अभिनय सम्राट मानने वाले फिल्मी कलाकार भी बहुत कुछ सीख सकते हैं.

विशेषज्ञों ने एक राज की बात और भी बताई है. वह कहते हैं कि सौंदर्य आकर्षित तो करता ही है, सुंदर लोगों का झूठ भी आसानी से चल जाता है. अर्थात सुंदर होने का यह अतिरिक्त लाभ है. मतलब यह भी हुआ कि यदि आप सुंदर हैं, अभिनय कुशल हैं तो धड़ल्ले से झूठ बोलते रहिए कोई नहीं पकड़ पाएगा. अफसोस सुंदर होना न होना अपने वश की बात नहीं.

गांधीजी के 3 बंदर याद हैं. गलत बोलना, सुनना और देखना नहीं है. अत: अपने हाथों से आंख, कान और मुंह ढके रहते थे पर समय के साथ इन के अर्थ बदल गए हैं. आज का दर्शन यह कहता है कि आप के आसपास कितना जुल्म होता रहे, बलात्कार हो रहा हो अथवा चोट खाया कोई मरने की अवस्था में सड़क पर पड़ा हो, आप अपने आंख, कान बंद रख मस्त रहिए और अपनी राह चलिए. किसी असहाय पर होते अत्याचार को देख आप को अपना मुंह खोलने की जरूरत नहीं.

ऐसा भी नहीं है कि झूठ बोलने की अनिवार्यता सिर्फ हमें ही पड़ती हो. अमेरिका जैसे सुखीसंपन्न देश के लोगों को भी जीने के लिए कम झूठ नहीं बोलना पड़ता. रोजमर्रा की परेशानियों से बचे होने के कारण उन के पास हर फालतू विषय पर रिसर्च करने का समय और साधन हैं. जेम्स पैटरसन ने 2 हजार अमेरिकियों का सर्वे किया तो 91 प्रतिशत लोगों ने झूठ बोलना स्वीकार किया.

फील्डमैन की रिसर्च बताती है कि 62 प्रतिशत व्यक्ति 10 मिनट के भीतर 2 या 3 बार झूठ बोल जाते हैं. उन की खोज यह भी बताती है कि पुरुषों के बजाय स्त्रियां झूठ बोलने में अधिक माहिर होती हैं जबकि पुरुषों का छोटा सा झूठ भी जल्दी पकड़ा जाता है. स्त्रियां लंबाचौड़ा झूठ बहुत सफलता से बोल जाती हैं. हमारे नेता लोग गौर करें और अधिक से अधिक स्त्रियों को अपनी पार्टी में शामिल करें. इस में उन्हीं का लाभ है.

बिना किसी रिसर्च एवं सर्वे के हम जानते हैं कि झूठ 3 तरह का होता है. पहला झूठ वह जो किसी मजबूरीवश बोला जाए. आप की भतीजी का विवाह है और भाई बीमार रहते हैं. अत: सारा बंदोबस्त आप को ही करना है. आप को 15 दिन की छुट्टी तो चाहिए ही. पर जानते हैं कि आप का तंगदिल बौस हर्गिज इतनी छुट्टी नहीं देगा. चाह कर भी आप उसे सत्य नहीं बताते और कोई व्यथाकथा सुना कर छुट्टी मंजूर करवाते हैं.

दूसरा झूठ वह होता है, जो किसी लाभवश बोला जाए. बीच सड़क पर कोई आप को अपने बच्चे के बीमार होने और दवा के भी पैसे न होने की दर्दभरी पर एकदम झूठी दास्तान सुना कर पैसे ऐंठ ले जाता है. साधारण भिखारी को आप रुपयाअठन्नी दे कर चलता करते हैं पर ऐसे भिखारी को आप 100-100 के बड़े नोट पकड़ा देते हैं. यह और बात है कि आप के आगे बढ़ते ही वह दूसरे व्यक्ति को वही दास्तान सुनाने लगता है और शाम तक यों वह छोटामोटा खजाना जमा कर लेता है.

कुछ लोग आदतन भी झूठ बोलते हैं और यही होते हैं झूठ बोलने में माहिर तीसरे किस्म के लोग. इस में न कोई उन की मजबूरी होती है न लाभ. एक हमारी आंटी हैं, उन की बातों का हर वाक्य ‘रब झूठ न बुलवाए’ से शुरू होता है पर पिछले 40 साल में मैं ने तो उन्हें कभी सच बोलते नहीं सुना. सामान्य बच्चों को जैसे शिक्षा दी जाती है कि झूठ बोलना पाप है शायद उन्हें घुट्टी में यही पिलाया गया था कि ‘बच्चे सच कभी मत बोलना.’  बाल सफेद होने को आए वह अभी तक अपने उसी उसूल पर टिकी हुई हैं. रब झूठ न बुलवाए, इस में उन की न तो कोई मजबूरी होती है न ही लाभ.

सदैव सत्य ही बोलूंगा जैसा प्रण ले कर धर्मसंकट में भी पड़ा जा सकता है. एक बार हुआ यों कि एक मशहूर अपराधी की मौत हो गई और परंपरा है कि मृतक की तारीफ में दो शब्द बोले जाएं. यह तो कह नहीं सकते कि चलो, अच्छा हुआ जान छूटी. यहां समस्या और भी घनी थी. उस गांव का ऐसा नियम था कि बिना यह परंपरा निभाए दाह संस्कार नहीं हो सकता. पर कोई आगे बढ़ कर मृतक की तारीफ में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं. अंत में एक वृद्ध सज्जन ने स्थिति संभाली.

‘‘अपने भाई की तुलना में यह व्यक्ति देवता था,’’ उस ने कहा, ‘‘सच भी था. भाई के नाम तो कत्ल और बलात्कार के कई मुकदमे दर्ज थे. अपने भाई से कई गुना बढ़ कर. अब उस की मृत्यु पर क्या कहेंगे यह वृद्ध सज्जन. यह उन की समस्या है पर कभीकभी झूठ को सच की तरह पेश करने के लिए उसे कई घुमावदार गलियों से ले जाना पड़ता है यह हम ने उन से सीखा.

मुश्किल यह है कि हम ने अपने बच्चों को नैतिक पाठ तो पढ़ा दिए पर वैसा माहौल नहीं दे पाए. आज के घोर अनैतिक युग में यदि वे सत्य वचन की ही ठान लेंगे तो जीवन भर संघर्ष ही करते रह जाएंगे. फिल्म ‘सत्यकाम’ देखी थी आप ने? वह भी अब बीते कल की बात लगती है. हमारे नैतिक मूल्य तब से घटे ही हैं सुधरे नहीं. आज के झूठ और भ्रष्टाचार के युग में नैतिक उपदेशों की कितनी प्रासंगिकता है ऐसे में क्या हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना छोड़ दें. संस्कार सब दफन कर डालें? प्रश्न कड़वा जरूर है पर पूछना आवश्यक. बच्चों को वह शिक्षा दें, जो व्यावहारिक हो जिस का निर्वाह किया जा सके. उस से बड़ी शर्त यह कि जिस का हम स्वयं पालन करते हों.

सब से बड़ा झूठ तो यही कहना, सोचना है कि हम झूठ बोलते नहीं. कभी हम शिष्टाचारवश झूठ बोलते हैं तो कभी समाज में बने रहने के लिए. कभी मातहत से काम करवाने के लिए झूठ बोलते हैं तो कभी बौस से छुट्टी मांगने के लिए. सामने वाले का दिल न दुखे इस कारण झूठ का सहारा लेना पड़ता है तो कभी सजा अथवा शर्मिंदगी से बचने के लिए. कभी टैक्स बचाने के लिए, कभी किरायाभाड़ा कम करने के लिए. चमचागीरी तो पूरी ही झूठ पर टिकी है. मतलब कभी हित साधन और कभी मजबूरी से. तो फिर हम सत्य कब बोलते हैं?

शीर्षक तो मैं ने रखा था कि ‘मैं झूठ नहीं बोलती’ पर लगता है गलत हो गया. इस लेख का शीर्षक तो होना चाहिए था,  ‘मैं कभी सत्य नहीं बोलती.’

क्या कहते हैं आप?

नैरो माइंड : तृप्ति के अधूरे सपने

‘‘मौम, आप कब से इतनी नैरो माइंड हो गई हैं, ऐसा क्या हुआ है? क्यों इतनी परेशान हो रही हैं? सब ठीक हो जाएगा, आजकल यह इतनी बड़ी बात नहीं है. सोसायटी में यह सब चलता रहता है. मैं आज ही विपुल से बात करूंगी.’’

तरू के एकएक शब्द ने तृप्ति के रोमरोम को घायल कर दिया. कितनी मुश्किलों और नाजों से उस ने दोनों बेटियों को पाला था.

तृप्ति और तपन ने तिनकेतिनके जोड़ कर यह घर बसाया था. उस ने अपने सारे अरमानों एवं इच्छाओं का गला घोंट कर इन्हीं बेटियों की खुशी के लिए अपना जीवन कुर्बान कर दिया था.

साधारण परिवार में जन्मी तृप्ति को पढ़ाई के साथ डांस और एक्ंिटग का जन्मजात शौक था. स्कूल में उस की प्रतिभा निखारने में उस की डांस टीचर मिस गोयल का बड़ा हाथ था. उन्होंने तृप्ति के गुण को परख कर उसे निखारा. तृप्ति ने भी उन्हें निराश नहीं किया और स्कूली शिक्षा के दौरान ही शील्ड और मेडल के ढेर लगा दिए.

वह विश्वविद्यालय में पहुंची तो सहशिक्षा के कारण उस के मातापिता ने इस तरह के कार्यक्रम से उसे दूर रहने की हिदायत दे दी, साथ ही कह दिया, ‘बहुत हुआ, अब जो करना हो अपने घर में करना.’ वह मन मार कर डांस और एक्ंिटग से दूर हो गई, लेकिन मन में एक कसक थी तभी उस का विवाह तपन से हो गया.

तपन बैंक में क्लर्क थे. सामान्य तौर पर घर में कोई कमी नहीं थी, लेकिन उस का शौक मन में हिलोरे मार रहा था. उस ने डांस स्कूल में काम करने के लिए तपन को किसी तरह से तैयार किया था तभी तन्वी के आगमन का एहसास हुआ. तन्वी छोटी ही थी तभी गोलमटोल तरू आ गई और वह इन दोनों बेटियों की परवरिश में सब भूल गई. 5-6 साल कब निकल गए, पता ही नहीं लगा. अब तृप्ति को अपनी खुशहाल जिंदगी प्यारी लगने लगी.

धीरेधीरे तन्वी और तरू बड़ी होने लगीं. जब दोनों छोटेछोटे पैरों को उठा कर नाचतीं तो तृप्ति का मन खिल उठता और अनायास ही अपनी बेटियों को स्टेज पर नृत्य करते हुए देखने की वह कल्पना करती. तन्वी एवं तरू को तृप्ति ने डांस स्कूल में दाखिला दिलवा दिया. जल्द ही उन की प्रतिभा रंग दिखाने लगी. वे नृत्य में पारंगत होने लगीं और इसी के साथ तृप्ति के सपने साकार होने लगे.

एक दिन तपन ने टोक दिया, ‘अब ये दोनों बड़ी हो गई हैं, डांस आदि छोड़ कर पढ़ाई पर ध्यान दें.’ तपन के टोकने से तृप्ति नाराज हो उठी और समय बदलने की दुहाई देने लगी. दोनों का आपस में अच्छाखासा झगड़ा भी हुआ और अंत में जीत तृप्ति की ही हुई. तपन चुप हो गए. उन्होंने दोनों लड़कियों को डांस और एक्ंिटग में आगे बढ़ने की इजाजत दे दी.

तन्वी का रुझान अपनेआप ही डांस से हट गया. वह पढ़ाई में रुचि लेने लगी. प्रोफेशनल कोर्स के लिए तन्वी होस्टल चली गई. तरू अकेली हो गई. चूंकि उस पर मां का वरदहस्त था, अत: वह डांस एवं एक्ंिटग के साथ ग्लैमर से भी प्रभावित हो गई थी.

अब तरू के आएदिन स्टेज प्रोग्राम होते. तृप्ति बेटी में अपने सपने साकार होते देख मन ही मन खुश होती रहती. तपन को तरू का काम पसंद नहीं आता था. तरू अकसर ग्रुप के साथ कार्यक्रम के लिए बाहर जाया करती थी. उस को अब बाहर की दुनिया रास आने लगी थी. उस के उलटेसीधे कपड़े तपन को पसंद न आते. अकसर तृप्ति से कहते, ‘तरू, हाथ से निकल रही है.’ इस पर वह दबी जबान से तरू को समझाती लेकिन उस ने कभी भी मां की बातों पर ध्यान नहीं दिया.

‘‘मौम, मुझे 1 हजार रुपए चाहिए.’’

‘‘क्यों? अभी कल ही तो तुम ने पापा से रुपए लिए थे.’’

‘‘मौम, सब मुझ से पार्टी मांग रहे थे… उसी में पैसे खर्च हो गए.’’

‘‘मैं तुम्हारे पापा से कहूंगी.’’

तरू तृप्ति से लिपट गई…तृप्ति पिघल गई. रुपए लेते ही वह फुर्र हो गई.

‘‘मौम, आजकल थिएटर में मेरा रिहर्सल चल रहा है, इसलिए देर से आऊंगी.’’

तृप्ति का माथा ठनका, ‘कल तो तरू ने कहा था कि इस हफ्ते मेरा कोई शो नहीं है.’

अभी वह इस ऊहापोह से निकल भी न पाई थी कि तपन पुकारते हुए आए.

‘‘तरू… तरू…’’

तृप्ति ने उत्तर दिया, ‘‘तरू का आज रिहर्सल है.’’

‘‘वह झूठ पर झूठ बोलती रहेगी, तुम आंख बंद कर उस पर विश्वास करती रहना. वह किसी लड़के की बाइक पर पीछे बैठी हुई कहीं जा रही थी, लड़का बाइक बहुत तेज चला रहा था,’’ तपन क्रोधित हो बोले थे.

तृप्ति घबरा कर चिंतित हो उठी. वह सोचने को मजबूर हो गई कि क्या तरू गलत संगत में पड़ गई है. मन ही मन घुटती हुई वह तरू के आने का इंतजार करने लगी.

लगभग रात में 11 बजे घंटी बजी. तृप्ति सोने की कोशिश कर रही थी. घंटी की आवाज सुन वह गुस्से में तेजी से उठी. दरवाजा खोलते ही तरू की हालत देख कर वह सन्न रह गई.

तरू की आंखें लाल हो रही थीं, एक लंबे बालों वाला लड़का उसे पकड़ कर खड़ा था. तृप्ति तपन से छिपाना चाह रही थी, इसलिए चुपचाप उस को सहारा दे कर उस के कमरे में ले गई और उसे बिस्तर पर लिटा दिया. तरू के मुंह से शराब की दुर्गंध आ रही थी.

तृप्ति की आंखों की नींद उड़ चुकी थी. वह मन ही मन रो रही थी और अपने को कोस रही थी. तरू को किस तरह सुधारे, वह क्या करे, कुछ सोच नहीं पा रही थी. उस का मन आशंकाओं से घिरा हुआ था. उसे तन्वी की याद आ रही थी. उस के मन में छात्रावास के प्रति अच्छे विचार नहीं थे लेकिन तरू तो उस की आंखों के सामने थी फिर कहां चूक हुई जो वह गलत हो गई. तपन ने तो सदैव उसे आगाह किया था, ‘लड़कियों को आजादी दो परंतु आजादी पर निगरानी आवश्यक है. नाजुक उम्र में बच्चे आजादी का नाजायज फायदा उठा कर खतरे में पड़ जाते हैं.’

तृप्ति ने रात पलकों में गुजारी. सुबह जब तरू उठी तो रात के बारे में पूछने पर अनजान बनती हुई बोली, ‘‘कल पार्टी में किसी ने उस की डिं्रक में कुछ मिला दिया था.’’

मां की ममता फिर से हावी हो गई. तृप्ति फिर से उस की बातों में आ गई थी.

अब जब हालात नियंत्रण से बाहर हो चुके थे तो तृप्ति उस पर रोक लगाना चाह रही थी. तरू एक न सुनती. एक दिन तृप्ति प्यार से उस का हाथ सहला रही थी, तभी उस के हाथों के काले निशान पर उस की नजर पड़ी. तुरंत तरू ने सफाई दी, ‘‘कुछ नहीं मौम. मैं स्कूटी ड्राइव करती हूं न, उसी का निशान है,’’ लेकिन उस के बहाने तृप्ति को विचलित कर चुके थे…उंगलियों के बीच में जले के निशान केवल सिगरेट के हो सकते हैं.

तृप्ति अब उस पर नजर रखने लगी. उसे तरहतरह से समझाने का प्रयास करती लेकिन तरू की आंखों पर तो ग्लैमर का चश्मा चढ़ा हुआ था. मोबाइल की घंटी सुनते ही वह भाग जाती थी. तृप्ति हालात को स्वयं ही सुधारने में लगी थी लेकिन तरू उस की एक न मानती.

निराशा एवं हताशा में तृप्ति बीमार रहने लगी तो तपन को चिंता हुई. उन्होंने तरू से कहा, ‘‘तुम कुछ दिन छुट्टी ले कर घर में रहो और मां की देखभाल करो, फिर कुछ दिन मैं छुट्टी ले लूंगा. लेकिन तरू ने एक न सुनी. तपन बहुत नाराज हुए और तृप्ति को ही कोसने लगे. तरू की बरबादी के लिए उसे ही जिम्मेदार बताने लगे. दिन और रात ठहर गए थे. अभी तक तृप्ति परेशान रहती थी अब तपन भी चिंतित और दुखी रहने लगे.

आज तो तरू को बेसिन पर उलटी करते देख कर तृप्ति सिहर गई. उस की बातों ने तो आग में घी का काम किया.

‘‘क्या हुआ, मौम? कोई पहाड़ टूट पड़ा है, क्यों मातम मना रही हो, क्या कोई मौत हो गई है. मैं डाक्टर के पास जा रही हूं, 1 घंटे की बात है, बस, सब नार्मल.’’

तृप्ति फूटफूट कर रो पड़ी. क्या हो गया इस नई पीढ़ी को. यह युवा वर्ग किधर जा रहा है, कहां गईं हमारी मान्यताएं. कहां गई शिक्षा. इतनी जल्दी इतना परिवर्तन. इतनी भटकन, क्या ऐसा संभव है?

हवस का नतीजा : देवर और भाभी की रासलीला

मुग्धा का बदन बुखार से तप रहा था. ऊपर से रसोई की जिम्मेदारी. किसी तरह सब्जी चलाए जा रही थी तभी उस का देवर राज वहां पानी पीने आया. उस ने मुग्धा के हावभाव देखे तो उस के माथे पर हाथ रखा और बोला, ‘‘भाभी, आप को तो तेज बुखार है.’’

‘‘हां…’’ मुग्धा ने कमजोर आवाज में कहा, ‘‘सुबह कुछ नहीं था. दोपहर से अचानक…’’

‘‘भैया को बताया?’’

‘‘नहीं, वे तो परसों आने ही वाले हैं वैसे भी… बेकार परेशान होंगे. आज तो रात हो ही गई… बस कल की बात है.’’

‘‘अरे, लेकिन…’’ राज की फिक्र कम नहीं हुई थी. मगर मुग्धा ने उसे दिलासा देते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं. मामूली बुखार ही तो है. तुम जा कर पढ़ाई करो, खाना बनते ही बुला लूंगी.’’

‘‘खाना बनते ही बुला लूंगी…’’ मुग्धा की नकल उतार कर चिढ़ाते हुए राज ने उस के हाथ से बेलन छीना और बोला, ‘‘लाइए, मैं बना देता हूं. आप जा कर आराम कीजिए.’’

‘‘न… न… लेट गई तो मैं और बीमार हो जाऊंगी,’’ मुग्धा बैठने वालियों में से नहीं थी. वह बोली, ‘‘हम दोनों मिल कर बना लेते हैं,’’ और वे दोनों मिल कर खाना बनाने लगे.

मुग्धा का पति विनय कंपनी के किसी काम से 3 दिनों के लिए बाहर गया हुआ था. वह कर्मचारी तो कोई बहुत बड़ा नहीं था, लेकिन बौस का भरोसेमंद था. सो, किसी भी काम के लिए वे उसे ही भेजते थे.

मुग्धा का 21 साल का देवर राज प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था. विनय जैसा प्यार करने वाला पति पा कर मुग्धा भी खुश रहती थी. कुछ पति की तनख्वाह और कुछ वह खुद जो निजी स्कूल में पढ़ाती, दोनों से मिला कर घर का खर्च अच्छे से निकल आता. सासससुर गांव में रहते थे. देवर राज अपनी पढ़ाई के चलते उन के साथ ही रहता था.

जिंदगी में कमी थी तो बस यही कि खुशहाल शादीशुदा जिंदगी के 10 सालों के बाद भी उन के कोई औलाद नहीं थी. अब मुग्धा 35 साल की हो चुकी थी. अपनी हमउम्र बाकी टीचरों को उन के बच्चों के साथ देखती तो न चाहते हुए भी उसे रोना आ ही जाता. वह अपनी डायरी के पन्ने इसी पीड़ा से रंगती जाती.

रोटियां बन चुकी थीं. राज ने उसे कुरसी पर बैठने को बोला और सामान समेटने लगा. मुग्धा ने सिर पीछे की ओर टिकाया और आंखें बंद कर लीं. वातावरण एकदम शांत था. तभी वहां वही तूफान फिर से गरजने लगा जिस का शोर मुग्धा आज तक नहीं भांप पाई थी.

राज की गरदन धीरे से मुग्धा की ओर घूम चुकी थी. वह कनखियों से मुग्धा की फिटिंग वाली समीज में कैद उस के उभारों को देखने लगा था. मुग्धा की सांसों के साथ जैसेजैसे वे ऊपरनीचे होते, वैसेवैसे राज के अंदर का शैतान जागता जाता.

‘‘हो गया सब काम…?’’ बरतनों की आवाज बंद जान कर मुग्धा ने अचानक पूछते हुए अपनी आंखें खोल दीं.

राज हकबका गया और बोला, ‘‘हां भाभी, बस हो ही गया…’’ कह कर राज ने जल्दीजल्दी बाकी काम निबटाया और खाने की चीजों को उठा कर मेज पर ले गया.

मुग्धा ने मुश्किल से 2 रोटियां खाईं, वह भी राज की जिद पर. वह जबरदस्ती सब्जी उस की प्लेट में डाल दे रहा था. खाने के बाद मुग्धा सोने जाने लगी तो राज बोला, ‘‘भाभी, 15 मिनट के लिए आगे वाले कमरे में बैठिए न… मैं आप के लिए दवा ले आता हूं.’’

‘‘अरे नहीं, रातभर में उतर जाएगा…’’ मुग्धा ने मना किया लेकिन राज कहां मानने वाला था.

‘‘मैं पास वाले कैमिस्ट से ही दवा ले कर आ रहा हूं भाभी… जहां से आप मंगाती हैं हमेशा… दरवाजा बंद कर लीजिए… मैं अभी आया…’’ कहता हुआ वह निकल गया.

मुग्धा ने दरवाजा बंद किया और सोफे पर पैर ऊपर कर के बैठ गई.

राज ने तय कर लिया था कि आज तो वह अपने मन की कर के ही रहेगा. इस बीच कैमिस्ट की दुकान आ गई.

‘‘क्या बात है राज बाबू?’’ कैमिस्ट ने राज को खोया सा देखा तो पूछा. राज का ध्यान वापस दुकान पर आया.

‘‘दवा चाहिए थी,’’ उस ने जवाब दिया.

‘‘अबे तो यहां क्या मिठाई मिलती है?’’ कैमिस्ट उसे छेड़ते हुए बोला. वह उस का पुराना दोस्त था.

राज मुसकरा उठा और कहा, ‘‘अरे, जल्दी दे न…’’

‘‘जल्दी दे न…’’ बड़बड़ाते हुए कैमिस्ट ने हैरत से उस की ओर देखा, ‘‘कौन सी दवा चाहिए, यह तो बता?’’

राज को याद आया कि उस ने तो सचमुच कोई दवा मांगी ही नहीं है. उस ने ऐसे ही बोल दिया, ‘‘भाभी की तबीयत ठीक नहीं है. उन्हें बुखार है. जरा नींद की गोली देना.’’

‘नींद की गोली बुखार के लिए…’ सोचते हुए कैमिस्ट ने उसे देखा. वह खुद भी मुग्धा के हुस्न का दीवाना था. हमेशा उस के बारे में चटकारे लेले कर बातें किया करता था. उस ने राज के मन की बात ताड़ ली. ऐसी बातों का उसे बहुत अनुभव जो था. उस ने नींद की गोली के साथ बुखार की भी दवा दे दी.

राज ने लिफाफा जेब में रखा और तेजी से वापस चलने को हुआ कि तभी कैमिस्ट चिल्लाया, ‘‘अरे भाई, खुराक तो सुन ले.’’

राज को अपनी गलती का अहसास हुआ. वह काउंटर पर आया. कैमिस्ट ने उसे डोज बताई और आंख मारते हुए बोला, ‘‘यह नींद वाली एक से ज्यादा मत देना… टाइट चीज है…’’

‘‘अबे, क्या बकवास कर रहा है,’’ राज के मन का डर उस की जबान से बोल पड़ा. उस की तो चोर की दाढ़ी में तिनका वाली हालत हो गई. वह जाने लगा.

कैमिस्ट पीछे से कह रहा था, ‘‘अगली बार हम को भी याद रखना दोस्त…’’

राज उस को अनसुना करता हुआ आगे बढ़ गया. घर लौटने पर डोर बैल बजाते ही मुग्धा ने दरवाजा खोल दिया और बोली, ‘‘यहीं बैठी थी लगातार…’’

‘‘जी भाभी, आइए अंदर चलिए…’’ राज ने अपने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा.

मुग्धा अपने कमरे में आ कर लेट गई. राज ने उसे पहले बुखार की दवा दी. मुग्धा दवा ले कर सोने के लिए लेटने लगी तो राज ने उसे रोका, ‘‘भाभी, अभी एक दवा बाकी है…’’

‘‘कितनी सारी ले आए भैया?’’ मुग्धा ने थकी आवाज में बोला और बाम ले कर माथे पर लगाने लगी.

‘‘भाभी दीजिए, मैं लगा देता हूं,’’ कह कर राज ने उस से बाम की डब्बी ले ली और उस के माथे पर मलने लगा. थोड़ी देर बाद उस ने मुग्धा को नींद वाली गोली भी खिला दी और लिटा दिया.

राज उस का माथा दबाता रहा. थोड़ी देर बाद उस ने पुष्टि करने के लिए मुग्धा को आवाज दी. ‘‘भाभी सो गईं क्या?’’

कोई जवाब नहीं मिला. राज ने उस के चेहरे को हिलाडुला कर भी देख लिया. कोई प्रतिक्रिया न पा कर वह समझ गया कि रास्ता साफ हो चुका है.

राज की कनपटियों में खून तेजी से दौड़ने लगा. वह बत्ती जलती ही छोड़ मुग्धा के ऊपर आ गया. मर्यादा के आवरण प्याज के छिलकों की तरह उतरते चले गए. कमरे में आए भूचाल से मेज पर रखी विनयमुग्धा की तसवीर गिर कर टूट गई.

सबकुछ शांत होने पर राज थक कर चूरचूर हो कर मुग्धा के बगल में लेट गया.

‘‘बस अब बुखार उतर जाएगा भाभीजी… इतना पसीना जो निकलवा दिया मैं ने आप का,’’ राज बेशर्मी से बड़बड़ाया और मुग्धा की कुछ तसवीरें खींचने के बाद उसे कपड़े पहना दिए.

मुग्धा अब तक धीमेधीमे कराह रही थी. राज पलंग से उतरा और खुद भी कपड़े पहनने लगा. तभी उस की नजर आधी खुली दराज पर गई. भूल से मुग्धा अपनी डायरी उसी में छोड़ी हुई थी. राज ने उसे निकाला और कपड़े पहनतेपहनते उस के पन्ने पलटने लगा.

अचानक एक पेज पर जा कर उस की आंखें अटक गईं. वह अभी अपनी कमीज के सारे बटन भी बंद नहीं कर पाया था लेकिन उस को इस बात की परवाह नहीं रही. वह अपलक उस पन्ने में लिखे शब्दों को पढ़ने लगा. उस में मुग्धा ने लिखा था, ‘बस अब बहुत रो लिया, बहुत दुख मना लिया औलाद के लिए. मेरा बेटा मेरे पास था और मैं उसे पहचान ही नहीं पाई. जब से मैं यहां आई, उसे बच्चे के रूप में देखा तो आज अपनी कोख के बच्चे के लिए इतनी चिंता क्यों? मैं बहुत जल्दी राज को कानूनी रूप से गोद लूंगी.’

राज की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा. वह सिर पकड़ कर वहीं बैठ गया और जोरजोर से रोने लगा, फिर भाग कर मुग्धा के पैरों को पकड़ कर अपना माथा उस से रगड़ते हुए रोने लगा, ‘‘भाभी, मुझे माफ कर दो… यह क्या हो गया मुझ से.’’

अचानक राज का ध्यान मुग्धा के बिखरे बालों पर गया. उस ने जल्दी से जमीन पर गिरी उस की हेयर क्लिप उठाई और मुग्धा का सिर अपनी गोद में रख कर बालों को संवारने लगा. वह किसी मशीन की तरह सबकुछ कर रहा था. हेयर क्लिप अच्छे से उस के बालों में लगा कर राज उठा और घर से निकल गया.

अगली सुबह तकरीबन 8 बजे मुग्धा की आंखें खुलीं. उस का सिर अभी तक भारी था. घर में भीड़ लग चुकी थी.

एक आदमी ने आखिरकार बोल ही दिया, ‘‘देवरभाभी के रिश्ते पर भरोसा करना ही पागलपन है…’’

मुग्धा के सिर में जैसे करंट लगा. वह सवालिया नजरों से उसे देखने लगी. तभी इलाके के पुलिस इंस्पैक्टर ने प्रवेश किया और बताया, ‘‘आप के देवर राज की लाश पास वाली नदी से मिली है. उस ने रात को खुदकुशी कर ली…’’

मुग्धा का कलेजा मुंह को आने लगा. वह हड़बड़ा कर पलंग से उठी लेकिन लड़खड़ा कर गिर गई.

एक महिला सिपाही ने राज के मोबाइल फोन में कैद मुग्धा की कल रात वाली तसवीरें उसे दिखाईं और कड़क कर पूछा, ‘‘कल रंगरलियां मनातेमनाते ऐसा क्या कह दिया लड़के से तू ने जो उस ने अपनी जान दे दी?’’

तसवीरें देख कर मुग्धा हैरान रह गई. अपनी शारीरिक हालत से उसे ऐसी ही किसी घटना का शक तो हो रहा था लेकिन दिल अब तक मानने को तैयार नहीं था. वह फूटफूट कर रोने लगी.

इंस्पैक्टर ने उस महिला सिपाही को अभी कुछ न पूछने का इशारा किया और बाकी औपचारिकताएं पूरी कर वहां से चला गया. धीरेधीरे औरतों की भीड़ भी छंटती गई.

विनय का फोन आया था कि वह आ रहा है, घबराए नहीं, लेकिन मुग्धा बस सुनती रही. उस की सूनी आंखों के सामने राज का बचपन चल रहा था. जब वह नईनई इस घर में आई थी.

दोपहर तक विनय लौट आया और भागते हुए मुग्धा के पास कमरे में पहुंचा. वह जड़वत अभी भी पलंग पर बैठी शून्य में ताक रही थी. विनय ने उस के कंधे पर हाथ रखा लेकिन मुग्धा का शरीर एक ओर लुढ़क गया.

‘‘मुग्धा… मुग्धा…’’ चीखता हुआ विनय उसे झकझोरे जा रहा था, पर मुग्धा कभी न जागने वाली नींद में सो चुकी थी.

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