हमेशा की तरह – भाग 2 : सुमन को उस दिन कौन-सा सरप्राइज मिला

दरवाजे की घंटी बजी. सुमन भी कभीकभी बौखला जाती है. दरवाजे की नहीं, फोन की घंटी थी. लपक कर रिसीवर उठाया.

‘‘हैलो,’’ सुमन का स्वर भर्रा गया.

‘‘हाय, मां, जन्मदिन मुबारक,’’ न्यूयार्क से बेटे मन्नू का फोन था.

सुमन की आंखों में आंसू आ गए और आवाज भी भीग गई, ‘‘बेटे, मां की याद आ गई?’’

‘‘क्यों मां?’’ मन्नू ने शिकायती स्वर में पूछा, ‘‘दूर होने से क्या तुम मां नहीं रहीं? अरे मां, मेरे जैसा बेटा तुम्हें कहां मिलेगा?’’

‘‘चल हट, झूठा कहीं का,’’ सुमन ने मुसकराने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘शादी होने के बाद कोई बेटा मां का नहीं रहता.’’

‘‘मां,’’ मन्नू ने सुमन को सदा अच्छा लगने वाला संवाद दोहराया, ‘‘इसीलिए तो मैं ने कभी शादी न करने का फैसला कर लिया है.’’

‘‘मूर्ख बनाने के लिए मां ही तो है न,’’ सुमन ने हंसते हुए पूछा, ‘‘क्या बजा है तेरे देश में?’’

‘‘समय पूछ कर क्या करोगी मां, यहां तो 24 घंटे बस काम का समय रहता है. अच्छा, पिताजी को प्रणाम कहना. और हां, मेरे लिए केक बचा कर रख लेना,’’ मन्नू जल्दीजल्दी बोल रहा था, ‘‘मां, एक बार फिर, तुम्हारा जन्मदिन हर साल आए और बस आता ही रहे,’’ कहते हुए मन्नू ने फोन बंद कर दिया था.

थोड़ी देर बाद फिर फोन बजा.

‘‘हैलो,’’ सुमन ने आशा से कहा.

‘‘मैडम, मैं हैनरीटा बोल रही हूं,’’ गुलशन की निजी सचिव ने कहा, ‘‘साहब को आने में बहुत देर हो जाएगी. आप इंतजार न करें.’’

‘‘क्यों?’’ सुमन लगभग चीख पड़ी.

‘‘जी, जरमनी से जो प्रतिनिधि आए हैं, उन के साथ रात्रिभोज है. पता नहीं कितनी देर लग जाए,’’ हैनरीटा ने अचानक चहक कर कहा, ‘‘क्षमा करें मैडम, आप को जन्मदिन की बधाई. मैं तो भूल ही गई थी.’’

‘‘धन्यवाद,’’ सुमन ने निराशा से बुझे स्वर में पूछा, ‘‘साहब ने और कुछ कहा?’’

‘‘जी नहीं, बहुत व्यस्त हैं. एक मिनट का भी समय नहीं मिला. जरमनी के प्रतिनिधियों से सहयोग के विषय में बड़ी महत्त्वपूर्ण बातें हो रही हैं,’’ हैनरीटा ने इस तरह कहा मानो ये बातें वह स्वयं कर रही हो.

‘‘ओह,’’ सुमन के हाथ से रिसीवर लगभग फिसल गया.

घंटी बजी. पर इस बार फोन की नहीं, दरवाजे की थी. प्रेमलता को जाते देखा. उसे बातें करते सुना. जब रहा नहीं गया तो सुमन ने ऊंचे स्वर में पूछा, ‘‘कौन है?’’ प्रेमलता जब आई तो उस के हाथ में फूलों का एक सुंदर गुलदस्ता था. खिले गुलाब देख कर सुमन का चेहरा खिल उठा. चलो, इतना तो सोचा श्रीमान ने. गुलदस्ते के साथ एक कार्ड भी था, ‘जन्मदिन की बधाई. भेजने वाले का नाम स्वरूप.’ स्वरूप गुलशन का मित्र था.

सुमन ने एक गहरी सांस ली और प्रेमलता को उस से मेज पर रखने का आदेश दिया. सुमन सोचने लगी, ‘आज स्वरूपजी को उस के जन्मदिन की याद कैसे आ गई?’ अधरों पर मुसकान आ गई, ‘अब फोन कर के उन्हें धन्यवाद देना पड़ेगा.’

कुछ ही देर बाद फिर दरवाजे की घंटी बजी. प्रेमलता ने आने वाले से कुछ वार्त्तालाप किया और फिर सुमन को एक बड़ा सा गुलदस्ता पेश किया, ‘जन्मदिन की बधाई. भेजने वाले का नाम अनवर.’

गुलशन का एक और दोस्त. सुमन ने गहरी सांस ली और फिर वही आदेश प्रेमलता को. फिर जब घंटी बजी तो सुमन ने उठ कर स्वयं दरवाजा खोला. एक बहुत बड़ा गुलदस्ता, रात की रानी से महकता हुआ. गुलदस्ते के पीछे लाने वाले का मुंह छिपा हुआ था. ‘‘जन्मदिन मुबारक हो, भाभी,’’ केवलकिशन ने गुलदस्ता आगे बढ़ाते हुए कहा. गुलशन का एक और जिगरी दोस्त.

‘‘धन्यवाद,’’ निराशा के बावजूद मुसकान बिखेरते हुए सुमन ने कहा, ‘‘आइए, अंदर आइए.’’

‘‘नहीं भाभी, जल्दी में हूं. दफ्तर से सीधा आ रहा हूं. घर में मेहमान प्रतीक्षा कर रहे हैं. महारानी का 2 बार फोन आ चुका है,’’ केवलकिशन ने हंसते हुए कहा, ‘‘चिंता मत करिए. फिर आऊंगा और पूरी पलटन के साथ.’’

यही बात अच्छी है केवलकिशन की. हमेशा हंसता रहता है. अब दूसरा भी कब तक चेहरा लटकाए बैठा रहे. रात की रानी को सुमन ने अपने हाथों से गुलदान में सजा कर रखा. खुशबू को गहरी सांस ले कर अंदर खींचा. फिर से घंटी बजी. सुमन हंस पड़ी. फिर से दरवाजा खोला. हरनाम सिंह गुलदाऊदी का गुलदस्ता हाथ में लिए हुए था.

‘‘जन्मदिन की बधाई, मैडम,’’ हरनाम सिंह ने गुलदस्ता पकड़ाते हुए कहा, ‘‘जल्दी जाना है. मिठाई खाने कल आऊंगा.’’

इस से पहले कि वह कुछ कहती, हरनाम सिंह आंखों से ओझल हो गया. वह सोचने लगी, ‘क्लब में हमेशा मिलता है पर न जाने क्यों हमेशा शरमाता सा रहता है. हां, इस की पत्नी बड़ी बातूनी है. क्लब के सारे सदस्यों की पोल खोलती रहती है, टांग खींचती रहती है. उस के साथ बैठो तो पता ही नहीं लगता कि कितना समय निकल गया.’

गुलदस्ते को सजाते हुए सुमन सोच रही थी, ‘क्या उस के जन्मदिन की खबर सारे अखबारों में छपी है?’ इस बार यकीनन घंटी फोन की थी.

‘‘हैलो,’’ सुमन की आंखों में आशा की चमक थी.

‘‘क्षमा करना सुमनजी,’’ डेविड ने अंगरेजी में कहा, ‘‘जन्मदिन की बधाई हो. मैं खुद न आ सका. वैसे आप का तोहफा सुबह अखबार वाले से पहले पहुंच जाएगा. कृपया मेरी ओर से मुबारकबाद स्वीकार करें.’’

‘‘तोहफे की क्या जरूरत है,’’ सुमन ने संयत हो कर कहा, ‘‘आप ने याद किया, क्या यह कम है.’’

‘‘वह तो ठीक है, पर तोहफे की बात ही अलग है,’’ डेविड ने हंसते हुए कहा, ‘‘अब देखिए, हमें तो कोई तोहफा देता नहीं, इसलिए बस तरसते रहते हैं.’’

‘‘अपना जन्मदिन बताइए,’’ सुमन ने हंसते हुए उत्तर दिया, ‘‘अगले 15 सालों के लिए बुक कर दूंगी.’’

‘‘वाहवाह, क्या खूब कहा,’’ डेविड ने भी हंस कर कहा, ‘‘पर मेरा जन्मदिन एक रहस्य है. आप को बताने से मजबूर हूं, अच्छा.’’ डेविड ने फोन रख दिया. वह एक सरकारी कारखाने का प्रबंध निदेशक था. हमेशा क्लब और औपचारिक दावतों में मिलता रहता था. गुलशन का घनिष्ठ मित्र था. रात्रि के 2 बज रहे थे. गुलशन घर लौट रहा था. आज वह बहुत संतुष्ट था. जरमन प्रतिनिधियों से सहयोग का ठेका पक्का हो गया था. वे 30 करोड़ डौलर का सामान और मशीनें देंगे. स्वयं उन के इंजीनियर कारखाने के विस्तार व नवीनीकरण में सहायता करेंगे. भारतीय इंजीनियरों को प्रशिक्षण देंगे और 3 साल बाद जब माल बनना शुरू हो जाएगा तो सारा का सारा स्वयं खरीद लेंगे. कहीं और बेचने की आवश्यकता नहीं है. इस से बढि़या सौदा और क्या हो सकता है. अचानक गुलशन के मन में एक बिजली सी कौंध गई कि पता नहीं सुमन ने मिक्की को फोन किया या नहीं? उस के जन्मदिन पर वह सुबह उठ कर सब से पहले यही काम करता था. आज ही गलती हो गई थी. जरमन प्रतिनिधि मंडल उस के दिमाग पर भूत की तरह सवार था. जरूर ही मिक्की आज नाटक करेगी.

तभी एक और बिजली कड़क उठी. कितना मूर्ख है वह. अरे, सुमन का भी तो जन्मदिन है. आंख खुलते ही उस ने इतने सारे इशारे फेंके, पर वह तो जन्मजात मूर्ख है. बाप रे, इतनी बड़ी भूल कैसे कर दी. अब क्या करे? गुलशन ने फौरन कार को वापस होटल की ओर मोड़ दिया. जल्दीजल्दी कदम बढ़ाते हुए अंदर पहुंचा.

बकरा – भाग 2 : दबदबे का खेल

लटूरी देवता का मेला भरने लगा  था. गुर खालटू के पहुंचते ही प्रधान रातकू और गांव वालों ने उन की खूब आवभगत की.  गुर ने मंदिर से लटूरी देवता की पिंडी निकाली. पिंडी को स्नान करा कर धूपदीप व चावल से पूजाअर्चना कर के भेड़ू और मुरगे की बलि दिलाई गई. फिर देवता का रथ निकाल कर पूरे मेले में घुमाया गया.  इस के बाद गुर खालटू ने लोगों को मेले में गाने का आदेश दिया.

ढोलनगाड़े, शहनाईरणसींगे बजने लगे और मर्दऔरत लाइनों में गोलगोल नाचने लगे. गुर के आदेश पर प्रधान रातकू  खशों द्वारा धाम भी इस मैदान पर दी जानी थी. केवल लोहारों को मैदान से हट कर निचले खेत में खिलानेपिलाने का इंतजाम था.  शाम ढलने तक नाच और बाजे बंद हो गए थे. शराब का दौर शुरू हो गया था, जिस में मर्दऔरत बराबर शामिल थे.

जिसे जितनी पीनी थी पीए, कोई रोक नहीं थी.  नशे में ?ामते लोगों में मांसभात की धाम कोईकोई ही खा पाया था. वहां  से लोग ?ामतेगाते आधी रात तक अपनेअपने घर पहुंचते थे. नाचगानों और प्रधान रातकू की धाम के साथ हलके अंधेरे में लोगों से दूर एकांत में घटी एक घटना बड़ी ही दिलचस्प थी, जिस का 3 के सिवाय चौथे को पता न चला था.

हुआ यों था कि डिंपल अपनी सहेली कांता के साथ मेले में घूमने आई थी. मेले की जगड़ से कुछ दूर एक पेड़ के नीचे खड़ी हो कर वे आपस में बातें करने लगी थीं.  चेला छांगू भी कहीं से टपक कर चोरीछिपे उन की बातें सुनने लगा था. डिंपल पर उस की बुरी नजर से कांता पूरी तरह परिचित थी और वह उसे देख भी चुकी थी.  उस ने चेले को बड़ी मीठी आवाज में पुकारा, ‘‘चेलाजी, चुपकेचुपके क्या सुनते हो…

पास आ कर सुनो न.’’ छांगू था पूरा चिकना घड़ा. वह ‘हेंहेंहें’ करता हुआ उन के पास आ कर खड़ा हो गया. ‘‘दोनों क्या बातें कर रही हो, जरा मैं भी सुनूं?’’ उस ने कहा. ‘‘चेलाजी, हमारी बातों से आप को क्या लेनादेना. आप मेले में जाइए और मौज मनाइए,’’

डिंपल ने सपाट लहजे में कहा. उसे चेले का वहां खड़े होना अच्छा नहीं लगा था. ‘‘हाय डिंपल, तुम्हारी इसी अदा पर तो मैं मरता हूं,’’ छांगू चेले की ‘हाय’ कहने के साथ ही शराब पीए होने की गंध से एक पल के लिए तो उन दोनों के नथुने फट से गए थे, फिर भी कांता ने बड़े प्यार से कहा,

‘‘चेला भाई, आप की उम्र कितनी हो गई होगी?’’ ‘‘अजी कांता रानी, अभी तो मैं 40-45 साल का ही हूं. तू अपनी सहेली डिंपल को सम?ा दे कि एक बार वह मु?ा से दोस्ती कर ले, तो फायदे में रहेगी. देवता का चेला हूं, मालामाल कर दूंगा.’’ ‘‘क्या आप की बीवी और खसम करेगी?’’

‘‘चुप कर कांता, ये लोहारियां हम खशकैनेतों के लिए ही हैं. जब चाहे इन्हें उठा लें… पर प्यार से मान जाए तो बात कुछ और है. तू इसे सम?ा दे, मैं देवता का चेला हूं. पूरे तंत्रमंत्र जानता हूं.’’ डिंपल के पूरे बदन में बिजली सी रेंग गई. उस के दिल में एक बार तो आया कि अभी जूते से मार दे, पर बखेड़ा होने से वह मुफ्त में परेशानी मोल नहीं लेना चाहती थी, तो उस ने सब्र का घूंट पी लिया. ‘‘पर तुम्हारी मोटी भैंस का क्या होगा? वह और खसम करेगी या किसी लोहार के साथ भाग जाएगी,’’

कांता ने ताना कसते हुए कहा, तो छांगू चेला भड़क गया. ‘‘चुप कर कांता, लोहारों की इतनी हिम्मत कि वे हमारी औरतों को छू भी सकें. पर तू इसे मना ले. इसे देखते ही मेरा पूरा तन पिघल जाता है. इस लोहारी में बात ही कुछ और है. पर याद रख कांता, मैं देवता का चेला हूं, जरा संभल कर बात करना… हां.’’ तभी डिंपल ने उस के चेहरे पर एक जोर का तमाचा जड़ दिया.

दूसरा थप्पड़ कांता ने मारा. छांगू चेले का सारा नशा हिरन हो गया. उस की सारी गरमी पल में उतर गई. हैरानपरेशान सा गाल मलते हुए वह कभी डिंपल, तो कभी कांता को देखने लगा. ‘‘खबरदार, अगर डिंपल की तरफ नजर उठाई, तो काट के रख दूंगी. लोहारों की क्या इज्जत नहीं होती? लोहारों की औरतें औरतें नहीं होतीं? देवता के नाम पर तुम्हारे तमाशों को हम अच्छी तरह जानती हैं.

चुपचाप रास्ता नाप ले, नहीं तो गरदन उड़ा दूंगी,’’ कमर से दरांती निकाल कर कांता ने कहा, तो छांगू चेला थरथर कांपने लगा. वह गाल मलता हुआ दुम दबा कर खिसक लिया. डिंपल और कांता खूब हंसी थीं. फिर काफी देर तक वे गांव के रिवाजों और प्रथाओं पर चर्चा करते रहने के बाद अपनेअपने घरों को लौटी थीं. सुबह ही एक खबर जंगल की आग की तरह पूरे चानणा गांव में फैल गई कि माधो लोहार शराब के नशे में खशों के रास्ते चल कर उसे अपवित्र कर गया.

उस की बेटी डिंपल ने लटूरी देवता के मंदिर को छू कर अनर्थ कर दिया. खश तो आग उगलने लग गए. वहीं माधो  से खार खाए लोहार भी बापबेटी को बुराभला कहने लगे. गुर खालटू ने कारदारों के जरीए पूरे गांव को मंदिर के मैदान में पहुंचने का आदेश भिजवा दिया. वह खुद छांगू, भागू और 3-4 कारदारों के साथ माधो के घर जा पहुंचा.

आंगन में खड़े हो कर गुर खालटू ने रोब से पुकारा, ‘‘माधो, ओ माधो… बाहर निकल.’’ माधो की डरीसहमी पत्नी ने आंगन में चटाई बिछाई, लेकिन उस पर कोई न बैठा. इतने में माधो बाहर निकल आया और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया.  डिंपल भी अपनी मां के पास खड़ी हो गई. उस ने किसी को भी नमस्ते नहीं किया. उसे देख कर छांगू चेले ने गरदन हिलाई कि अब देखता हूं तु?ो. ‘‘माधो, तू ने रात खशों के रास्ते पर चल कर बहुत बड़ा गुनाह कर दिया है.

तू जानता है कि तु?ो ऐसा नहीं करना चाहिए था. तेरी बेटी ने भी मंदिर को छू कर अपवित्र कर दिया है. अब देवता नाराज हो उठेंगे,’’ गंभीर चेहरा किए गुर खालटू ने जहर उगला. ‘‘गुरजी, यह सब सही नहीं है. न मैं खशों के रास्ते चला हूं और न ही मेरी बेटी ने मंदिर को छुआ है.’’ ‘‘हां, मैं तो मंदिर की तरफ गई भी नहीं,’’ डिंपल ने निडरता से कहा, तो गुर थोड़ा चौंका. दूसरे लोग भी हैरान हुए, क्योंकि गुर और कारदारों के सामने बिना इजाजत कोई औरत या लड़की एक शब्द भी नहीं बोल सकती थी.

डिंपल देवता के नाम पर होने वाले पाखंड और कानून के खिलाफ हो रहे भेदभाव पर बहुतकुछ कहना चाहती थी, पर अपनी योजना के तहत वह चुप रही. ‘‘तू चुप कर डिंपल, मैं ने तु?ो मंदिर को हाथ लगाते देखा है,’’ छांगू चेले ने जोर से कहा. ‘‘हांहां, बिना हवा के पेड़ नहीं हिलता. तुम बापबेटी ने बहुत बड़ा गुनाह किया है, अब तो पूरे गांव को तुम्हारी करनी भुगतनी पड़ेगी. बीमारी, आग, तूफान, बारिश वगैरह गांव को तबाह कर सकती है. तुम लोगों को पूरे गांव की जिम्मेदारी लेनी होगी,’’ मौहता भागू गुस्से से बोला. ‘‘तुम दोनों चुपचाप अपना गुनाह कबूल करो. हां, देवता महाराज को बलि दे कर और माफी मांग कर खुश कर लो,’’ एक मोटातगड़ा कारदार बोला.

कुछ गुजर गया – भाग 2 : एक अलहदा इश्क

वह खामोश रह कर चाय पी रहा था.

‘‘आप की दीदी कैसी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘ठीक हैं… आप मेरी दीदी को जानती हैं क्या?’’ ‘‘हां…

काव्या को जानते हैं न आप? वे मेरी दीदी हैं.’’

‘‘आप की सगी दीदी?’’ ‘‘हां, तभी तो उस दिन शादी में मैं  भी थी.

आप को याद है, आप ने मुझे देखा था. ‘‘हां, याद है.’’

‘‘तब तो उस रिश्ते से मैं आप की दीदी भी हो गई.’’ ‘‘आप से 2-2 रिश्ते हो गए… दीदी का भी और भाभी का भी.’’ ‘‘आप कौन सा रखिएगा?’’ ‘‘भाभी का…’’

उस ने कहा. वह मेरे हसबैंड को पहले से जानता था और उन्हें भैया ही कहता था, तो उस ने मुझे भाभी ही कहा. लेकिन, मुझे क्या पता था कि इस रिश्ते से भी गहरा रिश्ता मेरा उस से जुड़ने वाला था. सबकुछ ताक पर रखते हुए कितना गहरा रिश्ता मेरे और उस के  बीच पैदा हो गया,

इस का आज एहसास होता है. वह तो मेरी पूरी जिंदगी में ही उतर गया, जबकि जब वह मुझे मिला  था तब ही मेरी शादी के 4 साल हो चुके थे और एक बेटी भी हो चुकी थी एक साल की.  मेरे पास उसे देने के लिए कुछ भी नहीं था, फिर भी वह मुझ से सबकुछ ले गया. जिस्म मैं अपने पति को दे चुकी थी और प्यार मेरी बेटी के हिस्से चला गया था. फिर भी वह क्यों मेरे इतने अंदर समा गया?

आज घर पर सिर्फ 3 लोग थे. जेठानी नीचे थीं और मैं ऊपर किचन के काम मे लग गई. वह आज भी सामने बैठा कोई किताब पलट रहा था. घर पर कोई और नहीं था, जिस के साथ मैं उसे बाहर भेजती.  ‘‘आप बाहर घूम कर आ जाइए,’’ फिर भी मैं ने उस से कहा.  ‘‘मुझे यहां के बारे में कुछ भी पता नहीं है.’’ ‘‘आप जाइए न, यहीं बाहर इस गली से निकलते ही मार्केट है.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर वह कमरे से बाहर निकला. वह सीढि़यों से नीचे उतरने लगा और मैं बाहर रेलिंग के पास आ कर उसे देखती रही. वह चला गया था. अब मैं उसे नहीं देख पा रही थी. मैं छत से कपड़े लाने चली गई. उसे आए तकरीबन एक महीना हो चुका था. अब वह मुझ से काफी खुल गया था. थोड़ा हंसीमजाक भी करता था. कभीकभी चाय भी बनाता था और अब मुझे उस के हाथ की बनी चाय की आदत लग रही थी.  मैं अकसर उसी से चाय बनाने के लिए कहती.

मेरी और उस की नजरों के मिलने का सिलसिला भी बढ़ता गया. अब काफी देर तक मैं उसे देखती रहती. वह मेरे बिस्तर पर बैठ कर कुछ पढ़ रहा होता और मैं किचन में कुछ काम कर रही होती. उस की भी कभी उठती अनायास नजर मुझ से आ कर मिल जाती और ठहर जाती. दोनों की आंखें ही बातें करती थीं. होंठ कंपकंपा कर रह जाते.  मेरे पति अकसर रात को देर से घर आते और सुबह जल्दी चले जाते. उन के पास मेरे लिए समय नहीं था.

जब वे रात को आते तब भी काफी थके होते, खाना खा कर सो जाते और सुबह होते ही ग्राहकों का फोन आने लगता और कई बार बिना ब्रश किए भी चले जाते. कई बार वे रात को आते ही नहीं थे. वहीं किसी दोस्त के घर सो जाते. रात को हम सब एक ही कमरे में सोते थे. मैं, मेरी बेटी, मेरे पति, मेरा भतीजा और वह… अब वह मेरा बहुत खयाल रखने लगा था और मेरी बेटी का खयाल भी अपनी बेटी की तरह रखता था. कई बार वह उस की गोद में खेलतेखेलते उस के कपड़े गीले कर देती.

वह उस के कपड़े भी बदल देता था. मेरी बेटी अब उसे अच्छे से पहचान चुकी थी. एक दिन मेरे पति दोपहर में घर आए थे. किसी बात पर मेरी उन से बहुत लड़ाई हो गई. उन्होंने मुझ पर हाथ भी उठा दिया था. फिर वे बाहर चले गए. मैं पलंग पर लेटी सुबक रही थी. थोड़ी देर में वह आया. उस ने आते ही कमरे की लाइट औन की और मुझे नाम से पुकारा,

‘‘क्या हुआ सुदीप्ता?’’ पहली बार ऐसा हुआ, जब उस ने मुझे मेरे नाम से पुकारा. वह मेरे बगल में आ कर बैठ गया. ‘‘कुछ नहीं…’’ मैं ने उस से सबकुछ छिपाना चाहा. लेकिन न जाने क्या हुआ, मैं फफक कर रो पड़ी. उस ने मेरा सिर उठा कर अपनी गोद में रख लिया और मुझे चुप कराने लगा. उस ने कई बार अपने हाथों से मेरे आंसू पोंछे. ‘‘सुदीप्ता, रोना वहीं चाहिए, जहां कोई आंसू पोंछने वाला हो, नहीं तो फिर रोने से क्या होगा… आंसू खुद ही बहतेबहते सूख जाएंगे.’’ मेरे साथ भी ऐसा ही हो रहा था.

लेकिन अभी मुझे चुप कराने के लिए वह था और मैं थोड़ी देर में चुप हो गई. फिर मैं ने उसे सबकुछ बता दिया कि किस बात पर मेरे पति ने मुझ पर हाथ उठाया.  उस ने सुन कर कुछ नहीं कहा. उस ने मेरी कमर पर हाथ लगा कर मुझे उठाया. उस के हाथ लगाते ही मैं उसे एक अजीब नजरों से देखने लगी. उस ने मुझ से खाना खाने के लिए कहा. वह जा कर खाना परोसने लगा.  मैं वहीं पलंग पर बैठ गई और उसे देखती रही. वह खाना ले कर आया. उस ने अपने हाथ से मुझे खाना खिलाया.

उसे खिलाना नहीं आ रहा था. उस ने 2-4 कौर ही खिलाए थे कि मैं ने उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘रहने दो, मैं खा लूंगी. तुम्हें खिलाना नहीं आ रहा है. देखो, ऐसे खिलाते हैं…’’ और मैं ने पहला कौर उसे अपने हाथ से खिलाया. मैं अपने दुख से बाहर निकल आई थी और उस के प्रेम में डूबी हुई थी.  मैं और वह एकसाथ नीचे वाले कमरे  में आए. दीदी मुझे देख कर खुश हुईं और उन्होंने मुझ पर व्यंग्य भी कसा, ‘‘मैं मनाने गई, तब तो तुम नहीं मानी…’’ सबकुछ धीरेधीरे ठीक हो गया.

अब मैं उस के और ज्यादा करीब आ गई थी. मैं अब कभीकभी अपने पति के सामने भी उस के साथ एक ही थाली में खाती. कई बार मेरे पति भी शामिल होते. वे इस बात का बुरा नहीं मानते थे.  एक सुबह वह कमरे में बैठा अखबार पढ़ रहा था. मैं ने उस से कहा, ‘‘आप नीचे जाइए, मुझे नहाना है.’’ चूंकि बाथरूम छोटा था, इसलिए मैं बाथरूम के बाहर ही नहाती थी. वह बोला,

‘‘नहीं, मुझे आप को नहाते हुए देखना है.’’ मैं कमरे से बाहर निकली और कमरे का दरवाजा सटा दिया. वह दरवाजे पर आ कर खड़ा हो गया. ‘‘जाओ न…’’ वह नहीं गया. मैं उस के सामने ही अपनी साड़ी उतारने लगी. अब मैं सिर्फ पेटीकोट और ब्लाउज में थी. मैं ने पेटीकोट को ऊपर खींच कर उसी से अपने ब्लाउज को ढक लिया, फिर अंदर से ब्लाउज और ब्रा भी  उतार दिए.  उस की नजर मुझ पर गड़ी जा रही थी. पेटीकोट ऊपर खींचने से वह मेरे घुटनों के ऊपर आ चुका था.

मेरे उभारों पर उस की नजर गड़ी थी.  मुझे महसूस हुआ कि देह पर पानी पड़ने और कपड़ा सूती और पतला होने की वजह से मेरे शरीर का गोरापन छलक रहा था. उस की नजर मेरी देह से हट नहीं रही थी. मुझे अच्छा लग रहा था, जब वह इस तरह से मुझे देख रहा था. मुझे न जाने क्या हुआ और अपने पेटीकोट को खोल कर थोड़ा सा नीचे सरका दिया. कुछ पल के लिए मेरे उभार बिलकुल नंगे हो गए. उस ने देखा, वह देख कर खुश हो गया.  मैं पेटीकोट भी उस के सामने उतार फेंकना चाहती थी.

मैं चाहती थी कि मेरे तन पर कोई कपड़ा ही न हो. वह आ कर मेरे बदन पर पानी डाले. मुझे सहलाए. मेरे हर अंग को चूम ले. मेरे उभारों से खेले. हां, मैं यह सबकुछ चाहती थी.  तभी दरवाजे पर घंटी बजी. मैं ने जल्दी उसे ऊपर जाने को कहा. इस तरह कुछ महीने बीत गए. ऐसे ही अब हमारी शरारतें बढ़ गई थीं. वह मुझे कभी चिकोटी काट लेता, कभी पैरों से मेरे पैर रगड़ता. मैं भी कभी उस पर पानी डाल देती. अब मुझे एक दूसरी जगह रहने के लिए जाना था. मेरे पति को यहां से आनेजाने में परेशानी होती थी, तो उन्होंने वहीं एक किराए का फ्लैट ले लिया. सारा सामान एक दिन पहले ही पहुंचाया जा चुका था.

आज मुझे जाना था इस घर को छोड़ कर. अब तक वह मेरे बहुत करीब आ चुका था. मेरा मन भारी हो रहा था.  विवेक गाड़ी लेने गया था. तभी वह मेरे पास आया और एक कागज का टुकड़ा पकड़ाते हुए कहा, ‘‘मुझे इस पर आप के होंठों के निशान चाहिए.’’ मैं थोड़ा चौंक गई, फिर मैं ने उस कागज को अपने होंठों से चूम लिया. मैं उसे चूमना चाहती थी. लिपस्टिक का गहरा निशान कागज पर उभर आया.  गाड़ी आ गई थी. मेरे साथ वह नहीं आया. मैं ने उसे साथ चलने के लिए कहा.

उस ने किसी और दिन आने के लिए कहा.  मुझे अपने नए घर में आए हुए 5-6 दिन हो गए थे. वह नहीं आया. मैं उस से मिलना चाहती थी. डोरबैल बजी. दरवाजा खोला, विवेक था. वह अंदर आ गया. तभी फिर दरवाजे पर दस्तक हुई. मैं मुड़ी. देखा कि वह सामने खड़ा था.

मैं उसे देख कर खिल गई. मैं उसे बांहों में भरना चाहती थी. उसे चूमना चाहती थी, लेकिन नहीं कर सकी… ‘‘बैठो, मैं चाय बनाती हूं.’’ मैं चाय बना कर ले आई और उस के बगल में बैठी. विवेक का मोबाइल फोन बजा और वह बात करते हुए बाहर निकल गया. ‘‘आए क्यों नहीं इतने दिनों से? अगले दिन ही आने के लिए कहा था न…’’ ‘‘नहीं आ सका… मैं आना नहीं चाहता था…’’ उस ने कहा. वह मुझ से मिलना क्यों नहीं चाहता था… वह शायद मुझ से दूर होने की कोशिश कर रहा था. उसे शायद अपना रिश्ता याद आ गया था. लेकिन, मैं भूल चुकी थी कि मैं शादीशुदा हूं और एक बच्ची की मां भी.

‘‘चाची, मैं दुकान पर जा रहा हूं. चाचा का फोन आया था,’’ विवेक ने अंदर आते हुए कहा, ‘‘अमित, तू यहीं रुक जा. दुकान से आता हूं, फिर यहीं खाना खा कर चलेंगे. चाची, मेरा भी खाना बना देना.’’ अमित अभी भी जूते पहने हुए था. मैं ने कहा, ‘‘जूते खोल कर आराम से बैठो.’’

वह जूते खोल कर पलंग पर चढ़ कर बैठ गया. मैं चाय का कप वापस किचन में रख कर आ गई.  उस ने मुझे अपनी गोद में बैठने के लिए कहा. मैं बैठ गई. उस की बाजुओं की पकड़ मेरे शरीर पर जकड़ गई. उस ने मेरे होंठों को चूम लिया.  उस के होंठ हलके गुलाबी थे. वह मुझे छोड़ नहीं रहा था. मेरे होंठ अब भी उस के होंठों से लगे हुए थे. उस की बाजुओं का जोर मेरी पीठ पर और मेरे उभार उस के सीने से दबे हुए थे. एक बार के लिए उस ने अपने होंठ अलग किए और फिर और जोर से मेरे होंठों को चूमने लगा. मैं सिहर गई. तभी दरवाजे पर आहट हुई. मैं तुरंत उस की गोद से उठ गई. दरवाजा अंदर से बंद नहीं था, हलके से सटाया हुआ था. शायद उस ने मुझे देख लिया था.

लेकिन मेरे शरीर पर मेरे पूरे कपड़े थे. पड़ोस की एक लड़की मेरी बेटी को ले कर आई थी. मैं ने उसे बताया, ‘‘ये मेरे देवर हैं.’’ उन दोनों ने एकदूसरे को ‘नमस्ते’ किया, फिर मैं ने उस से चाय के लिए पूछा. ‘‘नहीं. आप की बेटी रो रही थी. शायद इसे भूख लगी है. दूध पिला दो,’’ कहते हुए वह लड़की चली गई.  मैं दूध गरम कर के लाई. वह नहीं पी रही थी और जोर से रोने लगी.

वह मेरा दूध पीना चाहती थी.  मैं ने ब्लाउज के बटन खोले. उस की नजर मुझ पर थी. मेरी नजर मिलते ही उस ने दूसरी तरफ आंखें कर लीं. उस  ने आज मेरी छाती को बहुत करीब से देखा था.  मैं उस के चेहरे के बदले हुए भाव देख रही थी. मैं ने उस से बात करनी शुरू कर दी. मेरी बेटी चुप हो गई थी.  वह मेरी तरफ देख रहा था और बातें कर रहा था, लेकिन कई बार उस की नजर मेरी छाती पर रुक जाती. मैं ने कहा, ‘‘लो, इसे खिलाओ. मुझे खाना बनाना है.’’ वह मेरी गोद से मेरी बेटी को उठाने लगा कि तभी उस की कुहनी मेरी छाती से छू गई. अब अमित अकसर ही मेरे घर आनेजाने लगा.

2-4 दिन के अंदर वह आ ही जाता. कई बार वह खाना खाता और कई बार खा कर आया होता. यहां भी उस ने कई बार मेरे लिए चाय बनाई. इस बीच मेरी और उस की नजदीकियां काफी बढ़ गईं. अब जब कभी कोई नहीं होता, तो वह मुझे अपनी बांहों में ले लेता. मैं भी उस से लिपट जाती और उस के होंठों को चूमने लगती

आशा की नई किरण: भाग 2

‘‘बस यही कि आप एक अच्छे डाक्टर से सलाह ले कर इलाज करवा लें और जब तक आप का इलाज चलता रहेगा, मैं अपने जौब पर वापस जा कर खुश रहने का प्रयास करूंगी.’’

पीयूष सोच में पड़ गया. स्वाति का काम पर जाना उसे पसंद नहीं था. दरअसल, वह अपनी यौन अक्षमता से परिचित था और वह नहीं चाहता था कि शादी के बाद स्वाति अन्य पुरुषों के संपर्क में आए. स्त्री की अधूरी इच्छाएं और कामनाएं उसे भटका सकती थीं. इन पर किसी स्त्री का जोर नहीं चलता.

‘‘बाहर जा कर काम करने की इच्छा तुम मन से निकाल दो,’’ पीयूष ने कुछ कड़े स्वर में कहा, ‘‘मां, कभी नहीं मानेंगी और अगर मैं ने इजाजत दी तो घर में बेवजह कलह पैदा होगा. परंतु मैं एक काम कर सकता हूं. तुम में रचनात्मक प्रतिभा है. मैं घर पर कंप्यूटर ला देता हूं. तुम लेखकहानी लिख कर पत्रपत्रिकाओं में भेजो. इस से तुम्हारे अंदर का रचनाकार जीवित रहेगा और तुम समय का सही उपयोग भी कर सकोगी.’’ स्वाति जो चाहती थी, यह उस का सही समाधान नहीं था. चौबीसों घंटे घर पर रहने से एकाकीपन और ज्यादा डरावना लगने लगता है. यों तो स्वाति के ऊपर बाहर जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं था परंतु पुरानी सहेलियों और मित्रों से संपर्क टूट चुका था. एकाध से कभीकभार फोन पर बात हो जाती थी. अब उसे अपने पुराने रिश्तों को जीवित करना होगा. जिस घुटनभरी मानसिक अवस्था में वह जी रही थी, उस में उस का बाहर निकल कर लोगों के साथ घुलनामिलना आवश्यक था, वरना वह मानसिक अवसाद के गहरे कुएं में गिर सकती थी. स्वाति ने बुझे मन से पति के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया परंतु मन में विद्रोह के भाव जाग्रत हो उठे. वह बहुत सीधी, सरल और सच्चे मन की लड़की थी. उस के स्वभाव में विद्रोही भाव नहीं थे. परंतु परिस्थितियां मनुष्य को विद्रोही बना देती हैं. स्वाति के पास विद्रोह करने के एक से अधिक कारण थे परंतु अपनी मनोभावना को उस ने पति पर प्रकट नहीं किया. स्वाति ने संशय से पूछा, ‘‘और आप ने अपने बारे में क्या सोचा है?’’

‘‘अपने बारे में क्या सोचना?’’ उस ने टालने के भाव से कहा.

‘‘आप जानबूझ कर अनजान क्यों बन रहे हैं? क्या आप समझते हैं कि मैं इतनी भोली हूं और पुरुष के बारे में कुछ नहीं जानती. आप अपनेआप को किसी भ्रम में रखने की कोशिश न करें वरना मांजी पोतापोती का मुंह देखे बिना ही इस दुनिया से कूच कर जाएंगी.’’

पीयूष कुछ पल चुप रहा, फिर गंभीरता से कहा, ‘‘मैं अपना इलाज करवा लूंगा.’’

‘‘तो फिर कब चलेंगे डाक्टर के पास?’’ स्वाति ने उत्साह से कहा.

‘‘तुम क्यों मेरे साथ चलोगी? मैं स्वयं जा कर डाक्टर से सलाह ले लूंगा,’’ पीयूष की आवाज में बेरुखी साफ दिखाई पड़ रही थी.

स्वाति के मन में कुछ चटक गया. पतिपत्नी के प्रेम की डोर में एक गांठ पड़ गई. पीयूष ने दूसरे ही दिन एक डैस्कटौप कंप्यूटर, प्रिंटर के साथ ला कर घर पर लगवा दिया. स्टेशनरी भी रख दी. स्वाति ने अपने भावों को शब्दरूप में ढालना आरंभ किया. उस के लेखन को प्रकाशन के माध्यम से गति मिली. इस से काफी हद तक उसे मानसिक सुख और शांति का अनुभव हुआ. स्वाति अपनी दुश्चिंता और मानसिक परेशानी से बचने के उपाय ढूंढ़ रही थी, तो दूरी तरफ सासूमां उस की परेशानी बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही थीं. जैसेजैसे महीने साल में बदल रहे थे, सासूमां की वाणी की मधुरता गायब होती जा रही थी. उन के मुंह से अब केवल व्यंग्यबाण ही निकलते थे. स्वाति को बातबात पर कोसना उन की दिनचर्या में शामिल हो गया था. सासूमां की कटुता स्वाति अपनी कहानियों और कविताओं में भरती रहती थी.

सासूमां अकसर टोकतीं, ‘‘स्वाति, कुछ घर की तरफ भी ध्यान दो.’’

‘‘मेरे बिना घर का कौन सा काम रुका पड़ा है?’’ स्वाति ने अब अपनी स्वाभाविक सरलता त्याग दी थी. वह भी पलट कर जवाब देने लगी थी.

‘‘शादी के कई साल हो गए. अभी तक एक बच्चा पैदा न कर सकी. घरगृहस्थी की तरफ कब ध्यान दोगी, बच्चे कब संभालोगी?’’

‘‘जब समय आएगा, बच्चे भी पैदा हो जाएंगे?’’

‘‘वह समय पता नहीं कब आएगा?’’ सासूमां बोलीं.

स्वाति कुछ नहीं बोली, तो सासूमां ने आगे कहा, ‘‘तुम्हारे पैर घर में टिकते ही नहीं, बच्चों की तरफ ध्यान क्यों जाएगा? बाहर तुम्हारे सारे शौक पूरे हो रहे हैं, तो पति से क्या लगाव होगा? उसे प्यार दोगी तभी तो बच्चे पैदा होंगे.’’ स्वाति ने जलती आंखों से सासूमां को देखा. मन में एक ज्वाला सी भड़की. इच्छा हुई कि सासूमां को सबकुछ बता दे, कमसेकम उन का कोसना तो बंद हो जाएगा, परंतु क्या वे उस की बात पर विश्वास करेंगी? शायद न करें, अपने बेटे की कमजोरी को वे क्यों स्वीकार करेंगी?

‘‘पता नहीं कैसी बंजर कोख ले कर आई है. ऊसर में भी बरसात की दो बूंदें पड़ने से घास उग आती है, परंतु इस की कोख में तो जैसे पत्थर पडे़ हैं,’’ सासूमां के प्रवचन चलते ही रहते थे. सासूमां की जलीकटी सुनतेसुनते स्वाति तंग आ चुकी थी. लेख, कविता और कहानी के माध्यम से मन की भड़ास निकालने के बाद भी उस के मन की जलन कम नहीं होती थी. दिन पर दिन स्वाति का मानसिक तनाव बढ़ता जा रहा था. पीयूष की तरफ से उसे कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिल रहे थे. उस ने कहा था कि वह एक आयुर्वेदाचार्य से सलाह ले कर जननेंद्रियों को पुष्ट करने वाली कुछ यौगिक क्रियाएं कर रहा था और दूध के साथ कोई चूर्ण ले रहा था. स्वाति समझ गई, वह किसी ढोंगी वैद्य के चक्कर में फंस गया था. एक नियमित अवधि के बाद जब दोनों ने संबंध बनाए तो स्वाति को पीयूष की पौरुषता में कोई अंतर नजर नहीं आया.

‘‘आप किसी अच्छे डाक्टर को क्यों नहीं दिखाते?’’ स्वाति ने कहा.

‘‘क्या फायदा, जब आयुर्वेद में इस का इलाज नहीं है तो अंगरेजी चिकित्सा में कहां होगा?’’

‘‘आप कैसी दकियानूसी बातें कर रहे हैं. आप पढ़ेलिखे हैं. एक अनपढ़गंवार व्यक्ति के मुंह से भी यह बात अच्छी नहीं लगती. आज विज्ञान कहां से कहां पहुंच गया. चिकित्सा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हो रही है. कम से कम आप तो ऐसी बात न करें.’’

‘‘ठीक है, अगर तुम कहती हो तो मैं डाक्टर को दिखा दूंगा,’’ पीयूष ने बात को टालते हुए कहा और बाहर की तरफ चल दिया.

स्वाति पति के टालू स्वभाव से हैरान रह गई. पता नहीं किस मिट्टी का बना है यह इंसान. सासूमां का अत्याचार उस के ऊपर बदस्तूर जारी था, बल्कि दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा था. उन के तानों और जलीकटी बातों से स्वाति का हृदय फट कर रह जाता था. दूसरी तरफ पति की उपेक्षा से उस की मानसिक परेशानी दोगुनी हो जाती. उसे लगता, इस भरीपूरी दुनिया में वह बिलकुल अकेली पड़ गई है. उस का पति और सास ही उस के दुश्मन बन गए हैं. अपने मम्मीपापा से वह अपनी परेशानी बता नहीं सकती थी. अपना दर्द वह उन के हिस्से में क्यों डाले. उन्होंने तो अपनी जिम्मेदारी निभा दी थी. उस की शादी कर दी. अब अपने दांपत्यजीवन की परेशानियों से अवगत करा कर उन्हें क्यों परेशान करे? उस ने ठान लिया कि वह स्वयं ही अपनी परेशानियों से लड़ेगी और जीत हासिल करेगी. इन्हीं दुश्चिंताओं से गुजरते हुए उस ने इंटरनैट पर एक प्रसिद्ध सैक्सोलौजिस्ट का नाम व पता ढूंढ़ निकाला, फिर पीयूष से कहा, ‘‘आप स्वयं तो कुछ करने वाले नहीं हैं. मैं ने एक डाक्टर के बारे में इंटरनैट से जानकारी प्राप्त की है. उन से अपौइंटमैंट भी ले लिया है. कल हम दोनों उन के पास चलेंगे.’’ पीयूष ने अपने स्वर में और ज्यादा तल्खी घोलते हुए कहा, ‘‘एक बात समझ लो, मैं किसी डाक्टर के पास नहीं जाने वाला, तुम अपने काम से काम रखो. घर संभालो, मां की सेवा करो, अपना लेखन कार्य करो. तुम्हें जो चाहिए, मैं ला कर दूंगा. मेरे बारे में कुछ करने की तुम्हें जरूरत नहीं है.’’

 

एक कदम आगे – भाग 2

जुबेदा पढ़ीलिखी थी, सब समझती थी, पर इमरान की बेइंतहा मुहब्बत पा कर खुश थी. सास की जलीकटी चुपचाप सह लेती. कभी बात न बढ़ाती. रूना भाभी का व्यवहार ठीक ही था पर वे भी उस की नौकरी और खूबसूरती से खार खाती थीं. सुभान उसे खर्चे के सीमित पैसे देता था, इसलिए भी उसे चिढ़ होती थी.

पिछले कुछ दिनों से अम्मां ने एक नया मसला खड़ा कर दिया था कि शादी को 2 साल हो गए. अभी तक बच्चा नहीं हुआ. इस में जुबेदा का कोई कुसूर न था, पर उसे उलटीसीधी बातें सुननी पड़तीं कि बच्चे बिना औरत लकड़ी के ठूंठ जैसी होती है, न फूल लगने हैं न फल. ऐसी औरतें घर के लिए मनहूस होती हैं. रूना को देखो 5 साल में 2 बच्चे हो गए. घर में कैसी रौनक लगी रहती है.

वैसे बच्चे संभालने में कोई कभी मदद न करतीं. कभी थोड़ीबहुत सिलाई कर देतीं या फिर बेटों की फरमाइश पर कुछ पका देतीं. बाकी का वक्त महल्ले की खबरों में चला जाता. सब को सलाहें देने में और टीकाटिप्पणी करने में सब से आगे.

अम्मां की बातें सुन कर इमरान जुबेदा के साथ डाक्टर के पास गया. दोनों को पूरी तरह जांच करने के बाद डाक्टर ने कहा, ‘‘दोनों एकदम ठीक हैं. कोई खराबी नहीं है. औलाद हो जाएगी.’’

इमरान ने आ कर अम्मां को सब बता दिया और कहा, ‘‘अब आप औलाद को ले कर परेशान न होना. जब होना होगा बच्चा हो जाएगा. अब आप सब्र से बैठें और हां जुबेदा को भी कुछ कहने की जरूरत नहीं है. सब समय पर छोड़ दीजिए.’’

1-2 महीने अम्मां शांत रहीं, फिर एक नया राग शुरू कर दिया कि ‘करामात पीर’ के पास जाना पड़ेगा. उस पीर का एक एजेंट अकसर अम्मां के पास आ फटकता और उन्हें अपने हिसाब से ऊंचनीच समझाना शुरू कर देता. हर बार अम्मां की अंटी कुछ हलकी हो जाती. अम्मां बोलती रहीं पर जुबेदा ने ध्यान न दिया. अनसुनी करती रही.

उस दिन छुट्टी थी. सब घर पर ही थे. नाश्ते के बाद लान में बैठे बातें कर रहे थे कि तभी अम्मां कहने लगीं, ‘‘चलो जुबेदा तैयार हो जाओ. आज हम करामात पीरबाबा के पास जाएंगे. बहुत दिन झेल ली तुम्हारी बेऔलादी… वे एक ताबीज देंगे और पढ़ कर फूकेंगे कि तुम्हारी गोद में बच्चा आ जाएगा. आज तुम्हें चलना पड़ेगा.’’

जुबेदा ने धीरे से कहा, ‘‘अम्मां मैं इन बातों पर यकीन नहीं रखती और यह तो कतई नहीं मानती कि पीरबाबा की फूंक और ताबीज से बच्चे हो जाते हैं.’’

यह सुन कर अम्मां का पारा चढ़ गया. गुस्से से बोलीं, ‘‘यही तो बुराई है इन पढ़ीलिखी लड़कियों में. ये पीरबाबाओं पर यकीन नहीं रखतीं. पड़ोस की सकीना की बहू पीरबाबा के पास गई थी. 2 महीने से उम्मीद से है और सलामत की बेटी को 5 साल से बच्चा न था. उस की भी गोद भर गई. बाबा की एक और करामात है कि ऐसा पढ़ कर फूंकते हैं कि बेटा ही होता है. चलो, तुम्हारी गोद भी हरी हो जाएगी.’’

जुबेदा ने मजबूत लहजे में कहा, ‘‘अम्मां जब मुझे इन बातों पर यकीन ही नहीं है, तो मैं बाबा के पास क्यों जाऊं? ये सब झूठ है. मुझे समय पर भरोसा है… आप के कहने से सारे टैस्ट करवा लिए. सब ठीक है पर मैं करामात बाबा के पास नहीं जाऊंगी, यह मेरा फैसला है.’’

अम्मां ने शिकायती नजरों से इमरान को देखा तो वह बोला, ‘‘अम्मां, मुझे भी इन बातों पर यकीन नहीं है और मैं जुबेदा की मरजी के खिलाफ उस पर जबरदस्ती नहीं करूंगा. वह नहीं जाना चाहती है तो आप न ले जाएं.’’

इस बात पर अम्मां तैश में आ गईं. पूरा घर उन दोनों को छोड़ कर एक हो गया. कई तरह की खोखली दलीलें दे कर समझाने की कोशिश की गई पर वह न मानी और उठ कर अपने कमरे में चली गई. दरवाजा बंद कर लिया. उस की इस हरकत पर पूरा घर उस से नाराज हो गया. कोई उस से बात नहीं करता. ज्यादातर वह स्कूल या अपने कमरे में रहती. एक डेढ़ महीने के बाद घर का माहौल ठीक हुआ. जुबेदा सब्र से सब सह गई. दिन धूपछांव की तरह गुजरते रहे.

कहकशां जब दूध का गिलास ले कर आई तो जुबेदा चौंक कर अपने खयालों से बाहर आई. कहकशां ने जबरदस्ती उसे थोड़ी बै्रड दूध से खिलाई. 2-3 दिन तक रिश्तेदारों के यहां से खाना आता रहा. तीसरे दिन सियूम (मौत का तीसरा दिन तीजा) था उस दिन घर में खाना बनता है और सब रिश्तेदार व दोस्त वहीं खाना खाते हैं. सियूम बहुत शान से किया गया.

सारा दिन जुबेदा को सब के साथ बैठना पड़ा. पूरा वक्त इमरान की मौत का जिक्र, लोगों की बनावटी हमदर्दी, सियूम की तारीफ, शानदार खाना खिलाने पर वाहवाही. जुबेदा का दिल चाह रहा था वह इस माहौल से कहीं दूर भाग जाए.

कहकशां उसे ले कर कमरे में जाने लगी तो सास ने कहा, ‘‘अभी इसे यहीं बैठने दो. आज दिन भर औरतें पुरसा देने (हमदर्दी जताने) आएंगी. इस का यहां रहना जरूरी है.’’

‘‘जुबेदा को चक्कर आ रहा है. वह बैठ नहीं सकती. मुझे उसे लिटाने दीजिए,’’ कह कर उसे कमरे में ले गई.

उस के बाद 1 महीने की फारोहा हुई.

यह खाना करीबी रिश्तेदारों ने पकवा कर कुछ करीबी लोगों को खिलाया. 40-50 लोग हर बार शामिल होते थे. जुबेदा खामोश सब देखती रहती.

कहकशां 4 दिन के बाद चली गई थी. फिर 1 महीना होने पर बहन की मुहब्बत उसे फिर खींच लाई. 1 महीना होने के बाद दूसरे दिन जुबेदा सादे कपड़े पहन कर स्कूल जाने को तैयार हो गई. जैसे ही वह बाहर निकलने लगी सास और फूफी सास ने रोनापीटना शुरू कर दिया, ‘‘यह कैसी बदशगुनी है कि तुम इद्दत पूरी होने से पहले बाहर निकल रही हो.’’

यह सुन कर जेठ और ससुर भी रास्ता रोक कर खड़े हो गए, ‘‘तुम अभी घर से बाहर निकल कर स्कूल नहीं जा सकती. मैं अभी मौलाना साहब को बुलाता हूं, वहीं तुम्हें समझाएंगे.’’

मौलाना साहब आ गए. जबरन जुबेदा को परदे के पीछे बैठा दिया गया. कहकशां भी बेबस सी उस के पास बैठ गई. उन्होंने एक लंबा लैक्चर दिया, जिस का खुलासा यह था, ‘‘साढ़े 4 महीनों तक औरत न किसी गैरमर्द से मिल सकती है न कहीं बाहर जा सकती है और न ही भड़कीले रंगबिरंगे कपड़े पहन सकती है. उसे अपने कमरे में ही रहना होगा.’’

मौलाना साहब की बात सुन कर, तो सासससुर व जेठ सब को जबान मिल गई सब ने एकसाथ बोलना शुरू कर दिया. जुबेदा ने बुलंद आवाज में कहा, ‘‘एक मिनट, मेरी बात सुन लीजिए.’’

कमरे में सन्नाटा छा गया. जुबेदा ने कहा, ‘‘मौलाना साहब, मैं ने दुनिया के जानेमाने आलिम और इसलाम के बहुत बड़े स्कौलर से यूट्यूब पर सवाल किया था कि क्या औरत इद्दत के दौरान कतई बाहर नहीं निकल सकती? तब उन्होंने जो जवाब दिया उसे आप भी सुन लीजिए. उन का जवाब था, ‘‘औरत की अगर कोई मजबूरी है तो वह बाहर जा सकती है. अगर कोई सरकारी या फिर अदालत का काम करना जरूरी है तो भी उसे बाहर जाने की इजाजत है. अगर वह खुद कफील (खुद कमाने वाली) है और बाहर जाना जरूरी है तो वह परदे की एहतियात के साथ घर से निकल सकती है. मजबूरी की हालत में साढ़े 4 महीने की इद्दत पूरी करना जरूरी नहीं है.’’

आलिम साहब का बयान सुन कर सन्नाटा छा गया. सब चुप हो गए. परदे के पीछे से जुबेदा की आत्मविश्वास से भरी आवाज सुनाई दी, ‘‘आप ने आलिम साहब का फतवा सुन लिया. उन के मुताबिक मैं नौकरी के लिए बाहर जा सकती हूं. यह मेरी जरूरत और मजबूरी है. मैं पहले ही 1 महीने की छुट्टी ले चुकी हूं. अब और नहीं ले

सकती. मेरी सरकारी नौकरी है. मेरा स्कूल लड़कियों का स्कूल है. इसलिए बेपर्दगी का सवाल ही नहीं उठता. आलिम साहब के बयान के मुताबिक मुझे बाहर जाने की व नौकरी करने की इजाजत है.’’

मौलवी साहब व दूसरे लोग इतने बड़े आलिम साहब का विरोध करने का साहस न कर सके. उन लोगों के चुप होते ही बाकी लोगों ने भी हथियार डाल दिए. दूसरे दिन से जुबेदा ने हिजाब के साथ स्कूल जाना शुरू कर दिया. जिंदगी फिर सुकून से गुजरने लगी. जुबेदा अपने काम से काम रखती. ज्यादा वक्त तो उस का स्कूल में गुजर जाता. घर के बाकी लोग भी अपने काम में मसरूफ रहते.

परंपरा – भाग 1 : रिश्तों का तानाबाना

तनु रवि के दिल से उतर गई थी. विवाह करना चाहता था वह उस से लेकिन विदेश में रहते हुए भी धर्म, जाति, रिवाजों में जकड़े रवि के मातापिता विजातीय तनु को बहू बनाने के लिए हरगिज तैयार न थे. क्या रवि थोथी मान्यताओं के आगे  झुक गया?

उस दिन प्रतीक के परिवार ने एक धमाकेदार पार्टी दी थी. पूरा परिवार अपने दोस्तों और अमेरिका में बसे नजदीकी रिश्तेदारों के साथ जश्न मना रहा था. पार्टी घर पर ही रखी थी. लगभग 70 लोग थे. उन का घर भी तो आलीशान महल जैसा ही था. कैलिफोर्निया के फ्रीमौंट शहर की ऊंची पहाड़ी पर एक कालोनी में उन का बंगला था. पहाड़ी पर बीचबीच में कुछ जंगली पेड़ थे. डरहम रोड पर बसी थी उन की कालोनी. कभीकभी दिन में भी मेन रोड पर जंगल से निकल कर हिरण दौड़ते दिखता था.

पार्टी की वजह प्रतीक के इकलौते बेटे रवि का इंजीनियरिंग कालेज में ऐडमिशन होना था. वे अपनी पत्नी और 2 साल के बेटे रवि के साथ लगभग 18 साल पहले कैलिफोर्निया आए थे. कैलिफोर्निया अपने सिलिकौन वैली और हौलीवुड के लिए विख्यात है. यहां दोनों मियांबीवी सौफ्टवेयर इंजीनियर थे. रवि 20 साल का हो चुका था. उस के भी कुछ दोस्त पार्टी में आए थे. पार्टी के लिए कुछ खाना तो होटल से मंगवाया था, पर ज्यादातर घर पर ही बनवाया था. सभी लोग खाने की तारीफ कर रहे थे. नौर्थ इंडियन, साउथ इंडियन और गुजराती व्यंजन सभी का मिश्रण था खाने में. ‘इडली, ढोकला, खट्टामीठा भात, दूधपाक, मिठाइयां आदि विशेष आकर्षण थे.

रवि के अमेरिकी मित्र ने पूछा, ‘‘इतना सारा तुम लोग घर पर कैसे मैनेज कर लेते हो?’’

रवि बोला, ‘‘मेरे यहां 12 साल से एक गुज्जू (गुजराती) मेड है जो सभी प्रकार के इंडियन खाने बनाने में ऐक्सपर्ट हैं.’’

उसी समय एक बुजुर्ग महिला और एक युवती अपने हाथों में टे्र ले कर आईं. जो बाउल खाली हो चले थे उन में उन दोनों ने और पकवान ला कर भर दिए. रवि ने बुजुर्ग महिला की ओर इशारा कर मित्र को बताया कि हमारे यहां का ज्यादातर खाना यही बनाती हैं. तभी वे दोनों महिलाएं रवि के पास से गुजरीं. रवि ने बुजुर्ग महिला को रोक कर कहा, ‘‘आशा, बहुत स्वादिष्ठ खाना बनाया है आप ने. मेरा अमेरिकी दोस्त भी काफी तारीफ कर रहा है.’’

आशा थैंक्स बोल कर जाने लगी तभी रवि ने उन से पूछा, ‘‘आप के साथ यह लड़की कौन है? आज पहली बार देख रहा हूं.’’

‘‘यह मेरी बेटी तनुजा है. हम इसे प्यार से तनु कह कर बुलाते हैं. यह स्कूल के फाइनल ईयर में है. कल से यही पार्टटाइम काम करेगी. यह भी बहुत अच्छा खाना बनाती है.’’

रवि तनुजा को ऊपर से नीचे तक देखता रहा. तनुजा उन दोनों को हाय कर के चली गई. रवि उसे जाते हुए देखता रहा. उस के मित्र ने कहा, ‘‘यार, कहां खो गए? वह तो गई. पर मैं भी इस टिपिकल इंडियन ब्यूटी को सैल्यूट करता हूं, यार.’’

रवि बोला, ‘‘कोई बात नहीं. वह तो कल से रोज ही आएगी.’’

तनु की मां प्रतीक के यहां 3 घंटे रोज काम करती थीं, 20 डौलर प्रति घंटे के रेट से. किसी दिन काम ज्यादा होता तो कुछ और देर तक काम करना होता था. वह खाना बनाने के अलावा लौंड्री करती (औटोमैटिक मशीन में कपड़े धोने और पूरी तरह सुखाने का काम. यहां खुले में या धूप में कपड़े डालने का चलन नहीं है), घर की सफाई का काम करतीं और किचन के बरतन डिशवाशर में रख देतीं और अगर मशीन भर गई होती थी तो उसे औन कर दिया करती थीं. वे सिर्फ खाना बनाने वाले बरतन ही डिशवाशर में डालती, जूठे बरतन धोना उन का काम नहीं था.

आशा ने तनु को पूरा काम सम झा दिया था. रवि की मां प्रभा को भी बोल गई थीं कि कल से तनु ही आएगी. इंडियन स्टोर के किचन में काम मिल गया, सो, वहां ज्यादा टाइम देना पड़ेगा. और तनु भी कुछ महीने बाद कालेज जाएगी तो खर्च भी बढ़ जाएगा.

तनु के पिता भी फ्रीमौंट में उसी इंडियन ग्रौसरी स्टोर में काम करते थे. पतिपत्नी दोनों की आमदनी मिला कर परिवार चलाने लायक हो जाती थी. तनु मातापिता की इकलौती संतान थी. तनु भी बहुत दुलारी बेटी थी. देखनेसुनने में अति सुंदर, लाखों में एक, लड़के तो लड़के, लड़कियां भी उस की सुंदरता पर मुग्ध थीं.

पार्टी के अगले दिन से तनु ही प्रतीक के यहां आने लगी थी. प्रतीक का परिवार कट्टर ब्राह्मण था, यहां तक कि घर में लहसुनप्याज भी नहीं आते थे. गुजराती को प्रतीक ने काम पर खासकर इसलिए रखा था कि उस का परिवार भी शुद्ध शाकाहारी था.

जब रवि छोटा था तो उस की मां उसे स्कूल में ड्रौप कर देती थी. तनु की मां आशा दोपहर में अपनी कार से ले कर आतीं, उसे खाना खिलातीं, उस के कपड़े बदलतीं और उसे कुछ ऐक्स्ट्रा क्लासेज, स्विमिंग आदि के लिए अपनी कार से ड्रौप कर देती थीं. शाम को मां ही पिक कर लेती थीं.

अब तनु सुबह में बस एक घंटे आती, फिर दोपहर स्कूल से लौट कर 2 घंटे बाकी काम करती थी. वह अपनी कार से ही आती थी. अभीअभी 18 वर्ष की हुई थी, तब उसे ड्राइविंग लाइसैंस मिला था. तनु के आने के बाद रवि उस से फरमाइश कर गुजराती खाना बनवाता था. वह उस की सुंदरता पर फिदा था. तनु उस के कमरे को काफी साफसुथरा और सजा कर रखती थी. रवि उस के काम से बहुत खुश था. रोज किसी न किसी बहाने तनु से कुछ बात कर लिया करता था.

तब समर वैकेशन था. अमेरिका में जून से अगस्त तक लगभग 3 महीने का समर वैकेशन होता है. एक दिन दोपहर में तनु आई. वह घर का वैक्यूम कर रही थी. रवि उस के पास जा कर बोला, ‘‘हाय, तुम बहुत सुंदर हो.’’

हालांकि वैक्यूम की तेज आवाज में भी वह सुन चुकी थी, फिर भी अनजान बनते हुए कहा, ‘‘व्हाट?’’

रवि बोला, ‘‘यू आर टू ब्यूटीफुल.’’

एक बार फिर अनजान बन कर धीमी मुसकराहट के साथ तनु ने कहा, ‘‘व्हाट?’’

इस बार रवि ने अपने पैर से वैक्यूम का बटन दबा कर औफ कर दिया और कहा, ‘‘तुम बेहद खूबसूरत हो.’’

‘‘यह तो मैं जानती हूं. सभी कहते हैं. और कोई बात?’’

‘‘तुम खाना भी अच्छा बनाती हो.’’

‘‘यह भी मैं जानती हूं.’’

तब उस के सिर पर धीरे से थपकी देते हुए रवि ने कहा, ‘‘और कुछ नहीं, मेरी नानी. जाओ, थोड़ी कौफी पिलाओ. तुम अपने लिए भी बना लाओ.’’

तनु बोली, ‘‘नहीं, मैं नहीं पिऊंगी.’’

थोड़ी देर में वह कौफी बना कर रख गई और काम में लग गई. रवि ने पूछा, ‘‘तुम्हारी मम्मी बोल रही थीं कि फौल सौमेस्टर में तुम कालेज जौइन कर रही हो.’’

तनु बोली, ‘‘हां, मैं यहीं फ्रीमौंट के ओलन कालेज में अकाउंटिंग का कोर्स करूंगी.’’

‘‘यह तो मिशन बुलवार्ड पर है. बिलकुल घर के पास, एक मील की दूरी पर. वैसे तुम्हारी अकाउंटिंग की चौइस अच्छी है,’’ रवि बोला.

‘‘कालेज पास में है, इसीलिए तो कालेज में पढ़ने का साहस किया है. वरना कहीं बाहर भेज कर पढ़ाने की हैसियत पापा की नहीं है.’’

इसी तरह इन दोनों में धीरेधीरे बातचीत बढ़ती गई. एक दिन रवि ने तनु से कहा, ‘‘मु झे तुम गैराज तक ड्रौप कर सकती हो? मेरी कार मेकैनिक के पास है. सुबह छोड़ कर आया था. उस समय मम्मी ने वापस घर पर ड्रौप कर दिया था. वैसे कोई प्रौब्लम है, तो रहने दो, मैं  कैब बुला लूंगा.’’

चाहत के वे पल – भाग 1 : पत्नी की बेवफाई का दर्द

‘‘गौरा जब हंसती है तो मेरे चारों तरफ खुशी की लहर सी दौड़ जाती है. कैसी मासूम हंसी है उस की इस उम्र में भी. मुझे तो लगता है उस के भोले, निष्कपट से दिल की परछाईं है उस की हंसी,’’ अनिरुद्ध कह रहा था और शेखर चुपचाप सुन रहा था. अपनी पत्नी गौरा के प्रेमी के मुंह से उस की तारीफ. यह वही जानता था कि वह कितना धैर्य रख कर उस की बातें सुन रहा है. मन तो कर रहा था कि अनिरुद्ध का गला पकड़ कर पीटपीट कर उसे अधमरा कर दे, पर क्या करे यह उस से हो नहीं पा रहा था. वह तो बस गार्डन में चुपचाप बैठा अनिरुद्ध की बातें सुनने के लिए मजबूर था.

फिर अनिरुद्ध ने कहा, ‘‘अब चलें… मेरा क्या है. मैं तो अकेला हूं, तुम्हारे तो बीवीबच्चे इंतजार कर रहे होंगे.’’

‘‘क्यों, आज गौरा मिलने नहीं आएगी?’’

‘‘आज शनिवार है. उस के पति की छुट्टी रहती है और उस के लिए पति और बच्चे पहली प्राथमिकता हैं जीवन में.’’

‘‘तो फिर तुम से क्यों मिलती है?’’

‘‘तुम नहीं समझोगे.’’

‘‘बताओ तो?’’

‘‘फिर कभी, चलो बाय,’’ कह कर अनिरुद्ध तो चला गया, पर शेखर गुस्से में तपती अपनी कनपटियों को सहलाता रहा कि क्या करे. क्या घर जा कर गौरा को 2 थप्पड़ रसीद कर उस के इस प्रेमी की बात कर उसे जलील करे? पर क्या वह गौरा के साथ ऐसा कर सकता है? नहीं, कभी नहीं. गौरा तो उसे जीजान से प्यार करती है, उस के बिना नहीं रह सकती, फिर उस के जीवन में यह क्या और क्यों हो रहा है? यह अनिरुद्ध कहां से आ गया?

वह पिछले 3 महीनों के घटनाक्रम पर गौर करने लगा जब वह कुछ दिनों से नोट कर रहा था कि गौरा अब पहले से ज्यादा खुश रहने लगी थी. वह अपने प्रति बहुत सजग हो गई थी, सैर पर जाने लगी थी, ब्यूटीपार्लर जा कर नया हेयरस्टाइल, फेशियल, मैनीक्योर, पैडीक्योर सब करवाने लगी थी. पहले तो वह ये सब नहीं करती थी. अब हर तरह के आधुनिक कपड़ों में दिखती थी. सुंदर तो वह थी ही, अब बहुत स्मार्ट भी लगने लगी थी. दोनों बच्चों सिद्धि और तन्मय की देखरेख, घर के सारे काम पूरा कर अपने पर खूब ध्यान देने लगी थी. सब से बड़ी बात यह थी कि धीरगंभीर सी रहने वाली गौरा बातबात पर मुसकराती थी.

शेखर पर वह प्यार हमेशा की तरह लुटाती थी, पर कुछ तो अलग था, यह शेखर को साफसाफ दिख रहा था. अब तक गौरा ने शेखर को कभी शिकायत का मौका नहीं दिया था. उसे कुछ भी कहना शेखर को आसान नहीं लग रहा था. वह सच्चरित्र पत्नी थी, फिर यह क्या हो रहा है? क्यों गौरा बदल रही है? इस का पता लगाना शेखर को बहुत जरूरी लग रहा था. पर कुछ पूछ कर वह उस के सामने छोटा भी नहीं लगना चाहता था. क्या करे? गौरा का ही पीछा करता हूं किसी दिन, यह सोच कर उस ने मन ही मन कई योजनाएं बना डाली थीं.

शेखर गौरा का मोबाइल चैक करना चाहता था, पर उस की हिम्मत नहीं हो रही थी. घर में यह अलिखित सा नियम था, कोई किसी का फोन नहीं छूता था. यहां तक कि युवा होते बच्चों के फोन भी उन्होंने कभी नहीं छुए. पर कुछ तो करना ही था. एक दिन जैसे गौरा नहाने गई, उस ने गौरा का फोन चैक करना शुरू किया. किसी अनिरुद्ध के ढेरों मैसेज थे, जिन में से अधिकतर जवाब में गौरा ने अपने पति और बच्चों की खूब तारीफ की हुई थी. अनिरुद्ध से मिलने के प्रोग्राम थे. अनिरुद्ध? शेखर ने याद करने की कोशिश की कि कौन है अनिरुद्ध? फिर उसे सब कुछ याद आ गया.

गौरा ने एक दिन बताया था, ‘‘शेखर आज फेसबुक पर मुझे एक पुराना सहपाठी अनिरुद्ध मिला. उस ने फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजी तो मैं हैरान रह गई. वह यहीं है बनारस में ही.’’

‘‘अच्छा?’’

‘‘हां शेखर, कभी मिलवाऊंगी, कभी घर पर बुला लूं?’’

‘‘फैमिली है उस की यहां?’’

‘‘नहीं, उस की फैमिली लखनऊ में है. उस की पत्नी वहां सर्विस करती है. 2 बच्चे भी वहीं हैं, वह अकेला रहता है यहां. बीचबीच में लखनऊ जाता रहता है.’’

‘‘ठीक है, बुलाएंगे कभी,’’ शेखर ने थोड़ा रूखे स्वर में कहा, तो गौरा ने फिर कभी इस बारे में बात नहीं की थी. लेकिन दिनबदिन जब गौरा के अंदर कुछ अच्छे परिवर्तन दिखे तो वह हैरान होता चला गया. वह अभी भी पहले की ही तरह घरपरिवार के लिए समर्पित पत्नी और मां थी. फिर भी कुछ था जो शेखर को खटक रहा था. फोन चैक करने के बाद शेखर ने अब इस बात को बहुत गंभीरता से लिया. जाहिल, अनपढ़ पुरुषों की तरह इस बात पर चिल्लाचिल्ला कर शोर मचाना, गालीगलौज करना उस की सभ्य मानसिकता को गवारा न था. इस विषय में किसी से बात कर वह गौरा की छवि को खराब भी नहीं करना चाहता था. वह उस की पत्नी थी और दोनों अब भी जीजान से एकदूसरे को प्यार करते थे.

एक दिन गौरा ने जब कहा, ‘‘शेखर, मैं दोपहर में कुछ देर के लिए बाहर जा रही हूं… कुछ काम हो तो मोबाइल तो है ही.’’

शेखर को खटका हुआ, ‘‘कहां जाना है?’’

‘‘एक फ्रैंड से मिलने.’’

‘‘कौन?’’

‘‘रचना.’’

शेखर ने आगे कुछ नहीं पूछा था. लेकिन दोपहर में वह औफिस से उठ कर ऐसी जगह जा कर खड़ा हो गया जहां से वह गौरा को जाते देख सकता था. शेखर ने पहले बच्चों को स्कूल से आते देखा, फिर अंदाजा लगाया, अब गौरा बच्चों को खाना देगी, फिर शायद जाएगी. यही हुआ. थोड़ी देर में खूब सजसंवर कर गौरा बाहर निकली. अपनी सुंदर पत्नी को देख शेखर ने गर्व महसूस किया. फिर अचानक अनिरुद्ध के बारे में सोच कर उस के अंदर कुछ खौलने सा लगा. गौरा पैदल ही थोड़ी दूर स्थित नई बन रही एक सोसायटी की एक बिल्डिंग की तरफ बढ़ी. तीसरे फ्लैट की बालकनी में खड़े एक पुरुष ने उस की तरफ देख कर हाथ हिलाया. शेखर ने दूर से उस पुरुष को देखा. चेहरा जानापहचाना लगा उसे. यह तो रोज गार्डन में सैर करने के लिए आता है.

शीतल फुहार – भाग 1: दिव्या का मन

गांव की भोली, शर्मीली दिव्या के मन में प्यार, लोकलाज और शर्मोहया के परदे तले दबा हुआ था. अनुज जैसे मौडर्न, अमीरजादे के सामने भला वह कहां टिकती. लेकिन संदीप की नजरों में वह ऐसी छा गई थी जैसे सावन की छटा.

चारों तरफ रोशनी थी. सारा माहौल जगमगा रहा था. वह आलीशान कोठी खुशबू और टिमटिमाते बल्बों से दमक रही थी. विशाल लौन करीने से सजाया गया था. चारों तरफ मेजें सजी थीं. बैरे फुरती से मेहमानों की खातिरदारी में लगे थे. लकदक करते जेवर, कपड़ों से सजी औरतें और मर्द मुसकराते, कहकहे लगाते इधरउधर फिर रहे थे. फूलों से सजे स्टेज पर दूल्हादुलहन भी हंसतेमुसकराते फोटो के लिए पोज दे रहे थे. सब हंसीमजाक में मस्त थे.

आज मिस्टर स्वरूप के बड़े बेटे सतीश की शादी थी. पैसा जम कर बहाया गया था. वे शहर के जानेमाने रईस और रुतबे वाले व्यक्ति थे. उन की पत्नी सरोजिनी इस उम्र में भी काफी फिट और आकर्षक लग रही थीं. आज वे खुद भी दुलहन की तरह सजी थीं.

लौन के एक कोने में एक कुरसी में गुमसुम सी बैठी दिव्या सोच रही थी कि इस माहौल में वह कहां फिट होती है. कितनी ही देर से वह अकेली बैठी है पर किसी को भी उस का खयाल तक नहीं आया. अपनी उपेक्षा से उस का मन भर आया. उस का ग्रामीण परिवेश में पलाबढ़ा मानस इस चकाचौंधभरी दुनिया को देख कर सहम जाता था. अब तो उसे लगने लगा था कि इस परिवार के लोग इस बात को भुला ही चुके हैं कि वह इस परिवार की छोटी बहू बनने वाली है, अनुज की मंगेतर है. 7 महीने पहले ही धूमधाम से उन की सगाई हुई थी. अगर आज मम्मीपापा जीवित होते तो शायद परिस्थिति ही दूसरी होती. मातापिता की स्मृति से उस की आंखें भर आईं.

धुंधलाती आंखों से उस ने अनुज को अपनी तरफ आते देखा. तभी एक आधुनिक सी लड़की अनुज के करीब आ कर हंसहंस कर कुछ कहने लगी. अनुज भी हंसने लगा. फिर दोनों कार पार्किंग एरिया की तरफ चल दिए.

दिव्या ने निशब्द सिसकी ली. आंखें ?ापकाईं तो 2 बूंदें आंसू की पलकों से टपक पड़ीं. आंसू पोंछ कर वह यों ही इधरउधर देखने लगी. तभी कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर वह चौंक पड़ी.

‘‘भाभी तुम,’’ वह खुशी से चहकी. वे मीरा भाभी थीं, गांव में उस की पड़ोसी और सहेली.

‘‘अकेली क्यों बैठी हो? अनुजजी कहां हैं?’’ मीरा पास बैठते हुए बोलीं.

वह, जो अपनी उपेक्षा से आहत बैठी थी, क्या बताती उन्हें. दादी के कहने पर गांव से उन के साथ आ तो गई थी पर यहां उस से किसी ने सीधेमुंह बात तक न की थी. अनुज से तो अकेले में मुलाकात तक नहीं हुई थी.

एक दुर्घटना में मातापिता को गंवा कर वह वैसे भी दुखी थी. अब इस नए आघात ने तो उसे भीतर तक तोड़ डाला था. उसे अपना भविष्य अंधकारमय दिखने लगा था.

स्वरूप दिव्या के पिता के बचपन के मित्र थे. गांव में दोनों पड़ोसी थे. स्वरूप की मां दिव्या के पिता को बेटे की तरह प्यार करती थीं. दोनों परिवारों का प्यार अपनेआप में एक मिसाल था.

स्वरूप पढ़ने में तेज थे. शहर में उच्च शिक्षा ले कर वहीं व्यवसाय शुरू किया और देखतेदेखते उन की गिनती करोड़पतियों में होने लगी. दिव्या के पिता गांव में ही रह गए. पुरखों की काफी जमीनजायदाद थी तो वही संभालने लगे. एक ही बेटी थी दिव्या. स्वरूप की मां ने बचपन में ही दिव्या को छोटे पोते के लिए मांग लिया था. तब दोनों ही परिवार सहमत हो गए पर समय के साथसाथ जीवन स्तर का अंतर होने लगा था.

अब दादी चाहती थीं कि बड़े पोते सतीश के साथ ही अनुज की शादी भीकर दी जाए. अब न तो अनुज और न ही उस के मांबाप गांव की लड़की ब्याह कर लाना चाहते थे. पर दादी जिद पर अड़ गई थीं. स्वरूप मां को नाराज नहीं करना चाहते थे, सो, पत्नी और बेटे को सम?ाया गया कि अभी सगाई कर लेते हैं, शादी बाद के लिए टाल देंगे. कम से कम सतीश की शादी तो शांति से हो जाए.

बदलते मापदंड : भाग 1 – चिंता एक मां की

‘सोनल यूनिवर्सिटी चली गई है. अब चल कर उस का कमरा साफ करूं,’ माधुरी झुंझलाई, ‘कितनी बार कहा लाड़ली से कि या तो काम करने वाली बाई से साफ करवा लिया कर या खुद साफ कर लिया कर. मगर उस पर तो इस का कुछ असर ही नहीं होता. काम करने वाली बाई के समय उसे बाधा होने लगती है और बाद में यूनिवर्सिटी जाने की जल्दी.’

सारे काम करने के बाद माधुरी को सोनल का कमरा साफ करना बहुत अखरता था. वह सोचती कि अब सोनल कोई बच्ची तो नहीं, 20 वर्षीया युवती है, एम.एससी. फाइनल की छात्रा. परसों उस की सगाई भी हो गई है. 2 महीने बाद जब उस की परीक्षा हो जाएगी तब विवाह भी हो जाएगा, पर अब भी हर प्रकार के उत्तरदायित्व से वह कतराती है. यदि माधुरी इस संबंध में उस के पिताजी से बात करती तो वे यही कहते, ‘क्या है जी, फुजूल की बातों में उस का वक्त मत बरबाद किया करो, वह विज्ञान की छात्रा है. घरगृहस्थी का काम तो जीवनभर करना है.’ कभीकभी वह सोचती कि शायद उस के पिताजी ठीक कहते हैं. हमारे समय में क्या होता था कि जहां जरा सी लड़की बड़ी हुई नहीं कि उस को घरगृहस्थी का काम सिखाना शुरू कर दिया जाता था और फिर जीवनपर्यंत वह घरगृहस्थी पीछा नहीं छोड़ती थी.

यही सब सोचते हुए माधुरी सोनल के कमरे में आ गई. चारों तरफ कमरे में अव्यवस्था फैली हुई थी. तकिया पलंग के बीचोबीच पड़ा था और उतारे हुए कपड़े भी पलंग पर बिखरे पड़े थे. पढ़ाई की मेज पर किताबें आड़ीतिरछी पड़ी थीं. माधुरी को फिर झुंझलाहट हुई कि 2 महीने बाद इस लड़की का विवाह हो जाएगा. मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता कि यदि इस लड़की का यही हाल रहा तो यह गृहस्थी कैसे संभालेगी. सारा कमरा व्यवस्थित कर माधुरी पढ़ाई की मेज के पास आ गई, ‘यह किताबों के साथ मेज में बड़े रूमाल में क्या बंधा रखा है? पत्र मालूम पड़ते हैं. इतने पत्र, शायद अपनी सहेलियों के पत्र इकट्ठे कर रखे होंगे,’ माधुरी सोचने लगी. पत्र शायद संख्या में काफी थे. तभी तो रूमाल में बड़ी मुश्किल से बंध पाए थे. वह उन्हें उठा कर किनारे रखने लगी कि तभी कागज का एक टुकड़ा नीचे गिर गया. उस ने उस टुकड़े को उठा लिया. उस में लिखा था,  ‘प्रिय सोनल, तुम्हारे पत्र तुम्हें वापस कर रहा हूं. गिन लेना, पूरे 101 हैं. तुम्हारा सुमित.’

कागज के उस टुकड़े को पढ़ कर माधुरी को चक्कर सा आने लगा. वह अपनी उत्सुकता को नहीं रोक पाई. उस ने रूमाल खोल दिया. गुलाबी लिफाफों में सारे प्रेमपत्र थे. वह जल्दीजल्दी उन को पढ़ने लगी. फिर सिर पकड़ कर वहीं पलंग पर बैठ गई. उस की आंखों के सामने एकदम अंधेरा सा छा गया. थोड़ी देर बाद वह सामान्य हुई तो सोचने लगी,  ‘यह क्या, यह लड़की इस मार्ग पर इतनी दूर निकल गई और उसे मां हो कर आभास तक नहीं मिला. वह तो सुमित को मात्र सोनल का एक सहपाठी समझती रही. शुरू से ही वह सहशिक्षा विद्यालय में पढ़ी है. लड़कों से उस की मित्रता भी हमेशा रही है. सुमित के साथ  कुछ ज्यादा ही घुलामिला देखा सोनल को, मगर वह इस बारे में तो सोच ही न सकी. अच्छा हुआ, इस समय घर में कोई नहीं है. उस के पास 2-3 घंटे का समय है, पूरी बात सोचसमझ कर कुछ निर्णय लेने का.’

उस ने उठ कर पहले तो पत्रों को यथावत रूमाल में बांधा, फिर कुरसी पर आ कर चुपचाप बैठ गई. और फिर सोचने लगी, ‘यह लड़की इस संबंध में एक बार भी कुछ न बोली. परसों उसे देखने उस के ससुराल के लोग आए थे तो वह एकदम सहज थी. उस से मैं ने और उस के पिताजी ने इस संबंध में उस की राय भी पूछी थी तब भी उस ने शालीनता से अपनी सहमति जताई थी. ‘मगर उस ने भी तो आज से 22 वर्ष पूर्व यही किया था. प्यार किसी और से करने पर भी उस ने सोनल के पिताजी से विवाह के लिए इनकार नहीं किया था. जब वह इंटर में थी तो पड़ोस में एक नए किराएदार आ कर रहने लगे थे. उन का सुदर्शन बेटा, भैया का दोस्त और एमए का छात्र था.

‘जाड़े की कुनकुनी धूप में वह अपनी पुस्तकें ले कर ऊपर छत पर आ जाती पढ़ने को, तभी देखती कि छत की दूसरी ओर वह भी अपनी पुस्तकें ले कर आ गया है. पढ़ते समय बीच में जब भी उस की नजर उस ओर उठती एकटक उस को अपनी ओर ही देखते पाती थी. संदीप नाम था उस का. उस की नजर में जो वह अपने लिए तड़प महसूस करती थी, वह उसे अंदर तक बेचैन कर देती थी. ‘कब वह भी धीरेधीरे उस की ओर आकृष्ट हो गई, वह समझ ही न सकी थी. हालांकि दोनों में से कोई एकदूसरे से एक शब्द भी नहीं बोलता था, पर उसे हर क्षण दोपहर की प्रतीक्षा रहती थी. ‘ऐसे में ही एक दिन उस को पता चला कि उस को देखने लड़के वाले आ रहे हैं. वह जैसे आसमान से नीचे गिरी मगर कुछ कह न सकी थी और वे लोग मंगनी की रस्म पूरी कर के चले गए थे. उस के बाद से वह ऊपर छत पर जाती, पर उसे वहां दूसरी छत पर कोई दिखाई नहीं देता था. बाद में संदीप की मां ने माधुरी की मां को बताया था कि आजकल चौबीसों घंटे संदीप पढ़ाई ही करता रहता है. कहता है कि परीक्षा सिर पर है और उसे  ‘टौप’ करना है. दाढ़ी वगैरह भी नहीं बनाता. सुन कर वह कमरे में जा कर खूब रोई थी.

‘फिर विवाह के 2-3 दिन पूर्व उस ने उसे अचानक देखा था. भाई ने शायद उस से कोई संदेश कहलवाया था, भीतर मां के पास. देख कर वह तो पहचान ही न पाई थी. आंखें धंसी हुईं, बढ़ी  हुई दाढ़ी और उतरा चेहरा जैसे महीनों से बीमार हो. मां ने तो देखते ही कहा था, ‘अरे संदीप, यह क्या हाल बना रखा है तुम ने? अरे, पढ़ाई के साथसाथ स्वास्थ्य पर भी ध्यान दिया करो.’ ‘सभी बता रहे थे कि उस के विवाह में उस ने दिनरात की परवा किए बिना सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ओढ़ रखी थी. फिर वह ससुराल चली आई थी. किसी चीज की कमी नहीं थी ससुराल में. पति का प्यार, रुपयापैसा सभीकुछ था मगर फिर भी कभीकभी उसे लगता कि उसे कुछ नहीं मिला. अकेले में वह अकसर रो पड़ती थी. संदीप से उस के बाद जब वह मायके जाती तो भी न मिल पाती थी. उस के पिता का स्थानांतरण हो गया था और वह होस्टल में रह कर पीएच.डी. कर रहा था. ‘बाद में सोनल और अंशुल ने आ कर उन स्मृतियों को थोड़ा धूमिल अवश्य कर दिया था. शादी के 10 वर्षों बाद अचानक, एक दिन ट्रेन में उस की मुलाकात हुई थी संदीप से. वह तो उसे देखते ही पहचान गई थी, पर संदीप को थोड़ा समय लगा था उसे पहचानने में. शायद विवाह और बच्चों ने उस में काफी परिवर्तन ला दिया था और तब पहली बार उन लोगों में बातें हुई थीं. भले ही वे औपचारिक थीं.

‘जब उस ने संदीप से विवाह और बच्चों के बारे में पूछा तो पता चला कि उस ने अभी तक विवाह नहीं किया था, पति ने चुहल की थी कि कोई पसंद नहीं आई क्या? मगर संदीप ने बड़ी संजीदगी से उत्तर दिया था कि नहीं, एक पसंद तो आई थी मगर मेरे पसंद जाहिर करने से पहले ही उस ने दूसरे के साथ घर बसा लिया था. उस ने चौंक कर संदीप की आंखों में झांका था, जहां उसे अथाह वेदना लहराती नजर आई थी. वह फिर काफी दिनों तक बेचैन रही थी और अपने को अपराधिन अनुभव करती रही थी. ‘मगर उस का समय तो दूसरा था. प्रेम की बात को जबान पर लाने के लिए बड़ा साहस चाहिए था परंतु सोनल तो खुली हुई थी, वह तो उसे बता सकती थी कि हो सकता है उस ने सोचा हो कि हम लोग अंतर्जातीय विवाह नहीं करेंगे क्योंकि सुमित दूसरी जाति का था. मगर एक बार वह कह कर देखती. लगता है उस ने अपने मातापिता का दिल नहीं तोड़ना चाहा होगा.

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