तितली: मांबाप के झगड़े में पिसती सियाली

रविवार के दिन की शुरुआत भी मम्मीपापा के  झगड़े की कड़वी आवाजों से हुई. सियाली अभी अपने कमरे में सो ही रही थी कि चिकचिक सुन कर उस ने चादर सिर तक ओढ़ ली, इस से आवाज पहले से कम तो हुई, पर अब भी उस के कानों से टकरा रही थी.

सियाली मन ही मन कुढ़ कर रह गई. पास पड़े मोबाइल को टटोल कर उस में ईयरफोन लगा कर उन्हें कानों में कस कर ठूंस लिया और आवाज को बहुत तेज कर दिया.

18 साल की सियाली के लिए यह कोई नई बात नहीं थी. उस के मांबाप आएदिन ही झगड़ते रहते थे, जिस की सीधी वजह थी उन दोनों के संबंधों में खटास का होना… ऐसी खटास, जो एक बार जिंदगी में आ जाए, तो आपसी रिश्तों का खात्मा ही कर देती है.

सियाली के मांबाप प्रकाश और निहारिका के संबंधों में यह खटास कोई एक दिन में नहीं आई, बल्कि यह तो  एक मिडिल क्लास परिवार के कामकाजी जोड़े के आपसी तालमेल बिगड़ने के चलते धीरेधीरे आई एक आम समस्या थी.

सियाली के पिता प्रकाश अपनी पत्नी निहारिका पर शक करते थे. उन का शक करना भी एकदम जायज था, क्योंकि निहारिका का अपने औफिस के एक साथी के साथ संबंध चल रहा था. जितना शक गहरा हुआ, उतना ही प्रकाश की नाराजगी बढ़ती गई और निहारिका का नाजायज रिश्ता भी उसी हिसाब से  बढ़ता गया.

‘‘जब दोनों साथ नहीं रह सकते, तो तलाक क्यों नहीं दे देते… एकदूसरे को,’’ सियाली बिस्तर से उठते हुए  झुं झलाते  हुए बोली.

सियाली जब तक अपने कमरे से बाहर आई, तब तक वे दोनों काफी हद तक शांत हो चुके थे. शायद वे किसी फैसले तक पहुंच गए थे.

‘‘तो ठीक है, मैं कल ही वकील से बात कर लेता हूं, पर सियाली को अपने साथ कौन रखेगा?’’ प्रकाश ने निहारिका की ओर घूरते हुए पूछा.

‘‘मैं समझती हूं… सियाली को तुम मुझ से बेहतर संभाल सकते हो,’’ निहारिका ने कहा, तो उस की इस बात पर प्रकाश भड़क सा गया, ‘‘हां, तुम तो सियाली को मेरे पल्ले बांधना ही चाहती हो, ताकि तुम अपने उस औफिस वाले के साथ गुलछर्रे उड़ा सको और मैं एक जवान लड़की के चारों तरफ एक गार्ड बन कर घूमता रहूं.’’

प्रकाश की इस बात पर निहारिका ने भी तेवर दिखाते हुए कहा, ‘‘मर्दों के समाज में क्या सारी जिम्मेदारी एक मां की ही होती है?’’

निहारिका ने गहरी सांस ली और कुछ देर रुक कर बोली, ‘‘हां, वैसे सियाली कभीकभी मेरे पास भी आ सकती है…  1-2 दिन मेरे साथ रहेगी तो मु झे भी एतराज नहीं होगा,’’ निहारिका ने मानो फैसला सुना दिया था.

सियाली कभी मां की तरफ देख रही थी, तो कभी पिता की तरफ, उस से कुछ कहते न बना, पर वह इतना सम झ गई थी कि मांबाप ने अपनाअपना रास्ता अलग कर लिया है और उस का वजूद एक पैंडुलम से ज्यादा नहीं है जो उन दोनों के बीच एक सिरे से दूसरे सिरे तक डोल रही है.

शाम को जब सियाली कालेज से लौटी, तो घर में एक अलग सी शांति थी. पापा सोफे में धंसे हुए चाय पी रहे थे, जो उन्होंने खुद ही बनाई थी. उन के चेहरे पर कई महीनों से बनी रहने वाली तनाव की शिकन गायब थी.

सियाली को देख कर उन्होंने मुसकराने की कोशिश की और बोले, ‘‘देख ले… तेरे लिए चाय बची होगी… लेले और मेरे पास बैठ कर पी.’’

सियाली पापा के पास आ कर बैठी, तो पापा ने अपनी सफाई में काफीकुछ कहना शुरू किया, ‘‘मैं बुरा आदमी नहीं हूं, पर तेरी मम्मी ने भी तो गलत किया था. उस के काम ही ऐसे थे कि मु झे उसे देख कर गुस्सा आ ही जाता था और फिर तेरी मां ने भी तो रिश्तों को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.’’

पापा की बातें सुन कर सियाली से भी नहीं रहा गया और वह बोली, ‘‘मैं नहीं जानती कि आप दोनों में से कौन सही है और कौन गलत है, पर इतना जरूर जानती हूं कि शरीर में अगर नासूर हो जाए, तो आपरेशन ही सही रास्ता और ठीक इलाज होता है.’’

बापबेटी ने कई दिनों के बाद आज खुल कर बात की थी. पापा की बातों में मां के प्रति नफरत और गुस्सा ही छलक रहा था, जिसे सियाली चुपचाप सुनती रही थी.

अगले दिन ही सियाली के मोबाइल पर मां का फोन आया और उन्होंने सियाली को अपना पता देते हुए शाम को उसे अपने फ्लैट पर आने को कहा, जिसे सियाली ने खुशीखुशी मान भी लिया था और शाम को मां के पास जाने की सूचना भी उस ने अपने पापा को दे दी, जिस पर पापा को भी कोई एतराज नहीं हुआ.

शाम को सियाली मां के दिए पते पर पहुंच गई. पता नहीं क्या सोच कर उस ने लाल गुलाब का एक बुके खरीद लिया था और वह फ्लैट नंबर 111 में पहुंच गई.

सियाली ने डोरबैल बजाई. दरवाजा मां ने ही खोला था. अब चौंकने की बारी सियाली की थी. मां गहरे लाल रंग की साड़ी में बहुत खूबसूरत लग रही थीं. उन की मांग में भरा हुआ सिंदूर और माथे पर बिंदी… सियाली को याद नहीं कि उस ने मां को कब इतनी अच्छी तरह से सिंगार किए हुए देखा था. हमेशा सादा वेश में ही रहती थीं मां और टोकने पर दलील देती थीं, ‘अरे, हम कोई ब्राह्मणठाकुर तो हैं नहीं, जो हमेशा सिंगार ओढ़े रहें… हम पिछड़ी जाति वालों के लिए साधारण रहना ही अच्छा है.’

तो फिर आज मां को ये क्या हो गया? बहरहाल, सियाली ने मां को बुके दे दिया. मां ने बड़े प्यार से कोने में रखी एक मेज पर उसे सजा दिया.

‘‘अरे, अंदर आने को नहीं कहोगी सियाली से,’’ मां के पीछे से आवाज आई.

सियाली ने आवाज की दिशा में नजर उठाई, तो देखा कि सफेद कुरतापाजामा पहने हुए एक आदमी खड़ा हुआ मुसकरा रहा था.

सियाली उसे पहचान गई. वह मां का औफिस का साथी देशवीर था. मां उसे पहले भी घर ला चुकी थीं.

मां ने बहुत खुशीखुशी देशवीर से सियाली का परिचय कराया, जिस  पर सियाली ने कहा, ‘‘जानती हूं मां… पहले भी आप इन से मुझ को मिलवा चुकी हो.’’

‘‘पर, पहले जब मिलवाया था तब ये सिर्फ मेरे अच्छे दोस्त थे, लेकिन आज मेरे सबकुछ हैं. हम लोग फिलहाल तो लिवइन में रह रहे हैं और तलाक का फैसला होते ही शादी भी कर लेंगे.’’

सियाली मुसकरा कर रह गई थी. सब ने एकसाथ खाना खाया. डाइनिंग टेबल पर भी माहौल सुखद ही था. मां के चेहरे की चमक देखते ही बनती थी.

सियाली रात को मां के साथ ही सो गई और सुबह वहीं से कालेज के लिए निकल गई. चलते समय मां ने उसे 2,000 रुपए देते हुए कहा, ‘‘रख ले, घर जा कर पिज्जा और्डर कर देना.’’

कल से ले कर आज तक मां ने सियाली के सामने एक आदर्श मां होने के कई उदाहरण पेश किए थे, पर सियाली को यह सब नहीं भा रहा था. फिलहाल तो वह अपनी जिंदगी खुल कर जीना चाहती थी, इसलिए मां के दिए गए पैसों से वह उसी दिन अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने चली गई.

‘‘सियाली, आज तू यह किस खुशी में पार्टी दे रही है?’’ महक ने पूछा.

‘‘बस यों समझो कि आजादी की पार्टी है,’’ कह कर सियाली मुसकरा दी थी.

सच तो यह था कि मांबाप के अलगाव के बाद सियाली भी बहुत रिलैक्स महसूस कर रही थी. रोजरोज की टोकाटाकी से अब उसे छुटकारा मिल चुका था और वह अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीना चाहती थी, इसीलिए उस ने अपने दोस्तों से अपनी एक इच्छा बताई, ‘‘यार, मैं एक डांस ग्रुप जौइन करना चाहती हूं, ताकि मैं अपने

जज्बातों को डांस द्वारा दुनिया के सामने पेश कर सकूं.’’

इस पर उस के दोस्तों ने उसे और भी कई रास्ते बताए, जिन से वह अपनेआप को दुनिया के सामने पेश कर सकती थी, जैसे ड्राइंग, सिंगिंग, मिट्टी के बरतन बनाना, पर सियाली तो मौजमस्ती के लिए डांस ग्रुप जौइन करना चाहती थी, इसलिए उसे बाकी के औप्शन अच्छे  नहीं लगे.

सियाली ने अपने शहर के डांस ग्रुप इंटरनैट पर खंगाले, तो ‘डिवाइन डांसर’ नामक एक डांस ग्रुप ठीक लगा, जिस में 4 मैंबर लड़के थे और एक लड़की थी.

सियाली ने तुरंत ही वह ग्रुप जौइन कर लिया और अगले दिन से ही डांस प्रैक्टिस के लिए जाने लगी और इस नई चीज का मजा भी लेने लगी.

इस समय सियाली से ज्यादा खुश कोई नहीं था. वह तानाशाह हो चुकी थी. न मांबाप का डर और न ही कोई टोकने वाला. वह जब चाहती घर जाती और अगर नहीं भी जाती तो भी कोई पूछने वाला नहीं था. उस के मांबाप का तलाक क्या हुआ, सियाली तो एक ऐसी चिडि़या हो गई, जो कहीं भी उड़ान भरने के लिए आजाद थी.

एक दिन सियाली का फोन बज उठा. यह पापा का फोन था, ‘सियाली, तुम कई दिन से घर नहीं आई, क्या बात है? कहां हो तुम?’

‘‘पापा, मैं ठीक हूं और डांस सीख रही हूं.’’

‘पर तुम ने बताया नहीं कि तुम डांस सीख रही हो…’

‘‘जरूरी नहीं कि मैं आप लोगों को सब बातें बताऊं… आप लोग अपनी जिंदगी अपने ढंग से जी रहे हैं, इसलिए मैं भी अब अपने हिसाब से ही  जिऊंगी,’’ इतना कह कर सियाली ने फोन काट दिया था, पर उस का मन एक अजीब सी खटास से भर गया था.

डांस ग्रुप के सभी सदस्यों से सियाली की अच्छी दोस्ती हो गई थी, पर पराग नाम के लड़के से उस की कुछ ज्यादा ही पटने लगी थी.

पराग स्मार्ट था और पैसे वाला भी. वह सियाली को गाड़ी में घुमाता और खिलातापिलाता. उस की संगत में सियाली को भी सिक्योरिटी का अहसास होता था.

एक दिन पराग और सियाली एक रैस्टोरैंट में गए. पराग ने अपने लिए एक बीयर मंगवाई और सियाली से पूछा, ‘‘तुम तो कोल्ड ड्रिंक लोगी न सियाली?’’

‘‘खुद तो बीयर पीओगे और मु झे बच्चों वाली ड्रिंक… मैं भी बीयर पीऊंगी,’’ कहते हुए सियाली के चेहरे पर  एक अजीब सी शोखी उतर आई थी.

सियाली की इस अदा पर पराग भी मुसकराए बिना न रह सका और उस ने एक और बीयर और्डर कर दी.

सियाली ने बीयर से शुरुआत जरूर की थी, पर उस का यह शौक धीरेधीरे ह्विस्की तक पहुंच गया था.

अगले दिन डांस क्लास में जब वे दोनों मिले, तो पराग ने एक सुर्ख गुलाब सियाली की ओर बढ़ा दिया और बोला, ‘‘सियाली, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं और तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

यह सुन कर ग्रुप के सभी लड़केलड़कियां तालियां बजाने लगे.

सियाली ने भी मुसकरा कर पराग के हाथ से गुलाब ले लिया और कुछ सोचने के बाद बोली, ‘‘लेकिन, मैं शादी जैसी किसी बेहूदा चीज के बंधन में नहीं बंधना चाहती. शादी एक सामाजिक तरीका है 2 लोगों को एकदूसरे के प्रति ईमानदारी दिखाते हुए जिंदगी बिताने का, पर क्या हम ईमानदार रह पाते हैं?’’ सियाली के मुंह से ऐसी बड़ीबड़ी बातें सुन कर डांस ग्रुप के लड़केलड़कियां शांत से हो गए थे.

सियाली ने थोड़ा रुक कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं ने अपने मांबाप को उन की शादीशुदा जिंदगी में हमेशा लड़ते ही देखा है, जिस का खात्मा तलाक के रूप में हुआ और अब मेरी मां अपने प्रेमी के साथ लिवइन में रह रही हैं और पहले से कहीं ज्यादा खुश हैं.’’

पराग यह बात सुन कर तपाक से बोला, ‘‘मैं भी तुम्हारे साथ लिवइन में रहने को तैयार हूं,’’ तो सियाली ने इसे झट से स्वीकार कर लिया.

कुछ दिन बाद ही पराग और सियाली लिवइन में रहने लगे, जहां वे जी भर कर जिंदगी का मजा ले रहे थे. पराग के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी.

कुछ दिनों के बाद उन के डांस ग्रुप की गायत्री नाम की एक लड़की ने सियाली से एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘सियाली, तुम्हारी तो अभी उम्र बहुत कम है… और इतनी जल्दी किसी के साथ लिवइन में रहना… कुछ अजीब सा नहीं लगता तुम्हें…’’

सियाली के चेहरे पर एक मीठी सी मुसकराहट आई और चेहरे पर कई रंग आतेजाते गए, फिर उस ने अपनेआप को संभालते हुए कहा, ‘‘जब मेरे मांबाप ने सिर्फ अपनी जिंदगी के बारे में सोचा और मेरी परवाह नहीं की, तो मैं अपने बारे में क्यों न सोचूं… और गायत्री, जिंदगी मस्ती करने के लिए बनी है, इसे न किसी रिश्ते में बांधने की जरूरत है और न ही रोरो कर गुजारने की…

‘‘मैं आज पराग के साथ लिवइन में हूं, और कल मन भरने के बाद किसी और के साथ रहूंगी और परसों किसी और के साथ, उम्र का तो सोचो ही मत… बस मस्ती करो.’’

सियाली यह कहते हुए वहां से चली गई, जबकि गायत्री अवाक सी खड़ी रह गई.

तितली कभी किसी एक फूल पर नहीं बैठती… वह कभी एक फूल पर, तो कभी दूसरे फूल पर, और तभी तो  इतनी चंचल होती है और इतनी खुश रहती है… रंगबिरंगी तितली, जिंदगी से भरपूर तितली.

और हीरो मर गया : कहानी स्ट्रगल के साथी की

जुनून इतना पुरजोर था कि उसे मुंबई खींच कर ले गया, पर यह तो उसे मुंबई पहुंच कर ही पता चला कि हर दिन मुंबई पहुंचने वाले लोगों में फिल्मी हीरोहीरोइन बनने की ख्वाहिश रखने वाले लड़केलड़कियों की भी बड़ी भारी तादाद होती है.

रोजरोज मुंबई आने वाले ये लोग फिल्म स्टार बनने की ख्वाहिश रखने वाले स्ट्रगलरों की भीड़ में इजाफा करते जाते हैं. विनय भी इस भीड़ का हिस्सा बन गया. इसी भीड़ की धक्कामुक्की और रेलमपेल ने एक दिन उसे एक फिल्म ऐक्टिंग इंस्टीट्यूट के दरवाजे पर पहुंचा दिया.

विनय ने घर से लाए अपने रुपएपैसों की गिनती की, फिर उस ने एक ऐक्टिंग इंस्टीट्यूट के एक साल के कोर्स में दाखिला ले लिया. वहां विनय की मुलाकात उदय नाम के एक लड़के से हुई. लंबाचौड़ा उदय बहुत हैंडसम था, पर महीनेभर में विनय अपनी ऐक्टिंग के दम पर सब के आकर्षण का केंद्र बन गया. विनय और उदय की दोस्ती धीरेधीरे इतनी गहरी हो गई कि वे रूम पार्टनर बन कर साथसाथ रहने लगे.

कोर्स पूरा हो जाने के बाद आत्मविश्वास से भरे इन दोनों नौजवानों की मेहनत रंग लाई. दोनों को ही 1-1 फिल्म मिल गई. मगर विनय की फिल्म 2 रील की शूटिंग के बाद ही अटक गई. उसे 2 और फिल्मों का भी औफर मिला, मगर वे दोनों फिल्में भी किसी न किसी वजह से बीच में ही दम तोड़ गईं. उधर, उदय की फिल्म न केवल पूरी हुई, साथ ही सुपरहिट भी हुई.

उदय की धूम मच गई. नतीजतन, उस के सामने बड़ेबड़े बजट की फिल्मों के प्रस्ताव वालों की कतार लगी थी, तो विनय स्ट्रगल करने वाले कलाकारों की कतार में धक्के खातेखाते पीछे होता जा रहा था.

उदय एक बड़े फिल्मकार द्वारा गिफ्ट किए गए शानदार फ्लैट में शिफ्ट हो गया. विनय अपने रूम में अकेला रह गया, तो उस ने अपना नया रूम पार्टनर बना लिया.

विनय को हार तो स्वीकार थी, मगर घुटने टेकना स्वीकार नहीं था. नाकामी का अंधेरा जितना ज्यादा गहराता जाता, उतना ही कामयाबी के उजालोें के लिए उस की जद्दोजेहद और मजबूती से बढ़ती जाती. हिम्मत की इसी चट्टान से उस के दिल का दर्द कविता और कहानी बन कर फूटने लगा.

मशहूर टैलीविजन की हस्ती और सीरियल बनाने वाली प्रीता नूरी की नजर विनय के लेखन पर पड़ी, तो उन्होंने उसे सीरियल लिखने वाले लेखकों की अपनी टीम में शामिल कर लिया.

प्रीता नूरी के लेखकों की टीम में लेखन करने के अलावा विनय एक फिल्म पत्रिका में पार्टटाइम न्यूज रिपोर्टर भी हो गया था. इस तरह उसे इतनी आमदनी होने लगी थी कि वह फिल्मी दुनिया में अपने बूते अपनी जद्दोजेहद जारी रख सकता था.

एक दिन एक पत्रिका में विनय ने पढ़ा, ‘फिल्म स्टार उदय अब सुपरस्टार के पायदान के नजदीक.’

विनय को खुशी हुई. इस बात का संतोष हुआ कि कम से कम उस के साथी कलाकार को तो कामयाबी मिली.

एक दूसरी फिल्म पत्रिका ने लिखा, ‘उदय एक दिन फिल्मी दुनिया का ध्रुव तारा साबित होगा,’ तीसरी पत्रिका ने लिखा, ‘सुपरस्टार उदय :

द हैंडसम हीरो: आंखें रोमांटिक और मुसकराहट जानलेवा.’

विनय जिस फिल्म पत्रिका में न्यूज रिपोर्टर था, उस के संपादक को जब पता चला कि फिल्म स्टार उदय कभी विनय का रूम पार्टनर रहा है, तो वह विनय के पीछे ही पड़ गया कि वह उदय का कोई धांसू इंटरव्यू तैयार करे. साथ ही, पत्रिका को चाहिए थे फिल्म स्टार उदय के रोमांस के किस्से. स्टार बनने से पहले और बाद के इश्क की रंगरंगीली दास्तान.

विनय उदय से मिलने शूटिंग पर गया, तो उदय ने बिजी कह कर मिलने में आनाकानी की.

कई बार तो विनय को लगा कि उदय उसे देख कर भी अनदेखा कर आगे बढ़ जाता है.

यह देख विनय हैरान था. क्या उदय वाकई इतना बिजी है कि उस के पास स्ट्रगल के दिनों के अपने दोस्त से बात करने की फुरसत भी नहीं थी? वह क्या इतना बड़ा स्टार बन गया है कि मुझ जैसे मामूली आदमी से मिलने में उसे अपनी तौहीन महसूस होती है? पर वह तो पत्रकार की हैसियत से मिलना चाहता है. तो क्या अब उदय इतना बड़ा हो गया है कि उसे मीडिया की दरकार भी नहीं रही?

विनय ने दूसरे दिन फिर से उदय से मिलने की कोशिश की, पर वह नाकाम रहा. तीसरे दिन फिर कोशिश की, फिर नाकाम रहा. आखिर एक दिन उस ने उदय के घर पर फोन किया, तो पीए ने जवाब दिया, ‘साहब के पास अभी बिलकुल भी टाइम नहीं है.’

उधर दूसरी ओर फिल्म पत्रिकाओं में उदय के चटपटे इंटरव्यू छप रहे थे.

विनय ने सिर थाम लिया. उस का संपादक उस के बारे में क्या सोच रहा होगा. दूसरी पत्रिकाओं में चटपटी खबर को पढ़ कर विनय ने उदय के पीए को मन ही मन कोसा, ‘देखो तो इसे… बोलता है कि साहब के पास अभी टाइम नहीं है. अच्छा, तो साहब के पास आजकल रोमांस के लिए टाइम है, दोस्तों से मिलने के लिए नहीं है’, विनय ने अपनेआप को भी कोसा, ‘तेरी तो किस्मत ही खराब है. फिल्मों में ऐक्टिंग करना तो दूर रहा, फिल्म पत्रकारिता भी तेरे बस की नहीं. छोड़ दे यह फिल्मी दुनिया…’

‘नहीं छोड़ूंगा,’ विनय के भीतर से आवाज आती रही और वह अपनी जिद पर डटा रहा कि वह फिल्मी दुनिया नहीं छोड़ेगा. वह इसी फिल्मी दुनिया में कामयाबी की अपनी एक अलग राह खोज कर रहेगा.

उधर, प्रीता नूरी विनय की काबिलीयत से काफी प्रभावित हो चुकी थीं. उन्होंने विनय को एक फिल्म की कहानी और पटकथा पर आयोजित एक मीटिंग में बतौर सलाहकार अपने साथ बिठाया. फिल्म इंडस्ट्री के मशहूर लेखक प्रवीण तन्मय कहानी और पटकथा पेश कर रहे थे. उस मीटिंग में फिल्म के हीरो और हीरोइन भी शामिल थे.

वहां विनय ने महसूस किया कि फिल्म इंडस्ट्री में पहले की तुलना में लेखकों की इज्जत काफी बढ़ चुकी है. उस ने देखा कि केवल डायरैक्टर और फिल्मकार ही नहीं, बल्कि फिल्म के हीरोहीरोइन भी लेखक प्रवीण तन्मय को काफी इज्जत दे रहे थे.

विनय को लगा कि वह भी एक कामयाब फिल्म लेखक बन सकता है.

इधर लेखक प्रवीण तन्मय की कहानी से प्रीता नूरी इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने उस का डायरैक्शन भी उन्हें ही सौंप दिया. प्रवीण तन्मय ने जब इस फिल्म के डायरैक्शन की बागडोर संभाली, तो विनय को अपना चीफ असिस्टैंट बनाया. कामयाबी के पायदान की तरफ विनय का यह पहला ठोस कदम था. उस का खोया हुआ आत्मविश्वास फिर से लौट आया था. भीतर के उजाले से उस की बाहर की दुनिया भी बदलनी शुरू हो गई थी.

एक दिन अचानक विनय के भीतर एक कहानी का आइडिया कौंध गया और कुछ समय चुरा कर उस ने कहानी पूरी कर ली, जिस का नाम था ‘और हीरो मर गया’.

इस कहानी ने खुद विनय को इतना रोमांचित कर दिया कि आननफानन उस ने उसे पटकथा और संवादों में भी ढाल दिया. फिल्म राइटर्स एसोसिएशन में रजिस्ट्रेशन कराने के बाद उस ने अपनी यह कहानी प्रवीण तन्मय को दिखाई. प्रवीण तन्मय खुशी से उछल पड़े. कहानी प्रीता नूरी को भी सुनाई गई, तो वे भी मुग्ध हो गईं.

इसी बीच लेखक प्रवीण तन्मय के डायरैक्शन में बनी फिल्म ‘युद्ध जारी है’ हिट हो चुकी थी. प्रवीण तन्मय को कुछ दूसरे प्रोड्यूसरों से भी लेखन और डायरैक्शन के प्रस्ताव मिल रहे थे, लिहाजा, वे काफी बिजी हो गए थे. इधर प्रीता नूरी ने विनय की कहानी ‘और हीरो मर गया’ के डायरैक्शन का भार विनय को ही सौंप दिया. कामयाबी के पायदान पर विनय का यह दूसरा ठोस कदम था.

फिल्म कम समय और कम लागत में बन कर तैयार हो गई. फिल्म में कोई बड़ा स्टार नहीं था. कहानी के मुताबिक, नए और छोटे कलाकारों को फिल्म में लिया गया था और तकरीबन सभी कलाकारों ने गजब की ऐक्टिंग की थी.

फिल्म ने लागत से कई गुना ज्यादा आमदनी की और इस तरह विनय का नाम हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में एक जानामाना नाम बन गया. कामयाबी के पायदान पर विनय का यह तीसरा ठोस कदम था.

विनय की तीसरी फिल्म ने तो इतनी कमाई कर डाली कि खुश हो कर फिल्मकार ने विनय को एक शानदार फ्लैट गिफ्ट कर दिया. अब विनय से कहानी लिखवाने व डायरैक्शन के लिए फिल्मकारों की लंबी कतार लग गई. उधर, उदय की 5 फिल्में लगातार पिट गई थीं. उस की फिल्मों के शूटिंग शैड्यूल ही कैंसिल हो गए.

एक दिन विनय तब सुखद आश्चर्य से भर गया, जब उदय को अपने सामने खड़ा पाया. यह वही सुपरस्टार उदय था, जिस के पास स्ट्रगल के दिनों के अपने साथी को पहचानने और बात करने का समय नहीं था.

विनय ने हैरानी से उदय से पूछा, ‘‘सुपरस्टारजी, आप तो धांसू डायलौग डिलीवरी के लिए मशहूर हैं और मेरी कहानियों के डायलौग बहुत साधारण होते हैं. कहानी भी सीधेसादे पात्रों को ले कर होती है.

‘‘हर फिल्म में आप की ड्रैसें महंगे फैशन डिजाइनरों द्वारा तैयार की जाती हैं और मेरी कहानी के पात्र तो आम होते हैं, इसलिए उन्हें साधारण पोशाक ही सूट करती हैं.

‘‘आप तो जोखिम भरे स्टंट करने के लिए मशहूर हैं. फिल्म में एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग पर छलांग लगाते हुए आप को देख कर दर्शक रोमांचित हो जाते हैं, जबकि मेरी कहानियों के पात्र हवा में नहीं उड़ते, जमीन पर चलते हैं.

‘‘आप की अभी तक की रिकौर्डतोड़ फिल्मों की कामयाबी का क्रेडिट परदे पर आप के द्वारा गाए गए सुपरहिट गीतों को दिया जाता है, डांस को दिया जाता है, जबकि मेरी कहानी के किरदार तो जिंदगी की हकीकत से रूबरू कराते हैं. भला आप ऐसे साधारण किरदारों को परदे पर करना क्यों पसंद करोगे?’’

सवाल का खुद जवाब न देते हुए उदय ने विनय से ही पूछ लिया, ‘‘हां, मैं जानता हूं कि आप की कहानियों के पात्र आम आदमी होते हैं, साधारण होते हैं. तो आप ही बताइए कि फिर दर्शक उन्हें पसंद क्यों कर रहे हैं?’’

उदय की बात सुन कर विनय बोला, ‘‘क्योंकि मेरी कहानियां मौलिक और असली होती हैं.’’

उदय ने विनय का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘मैं उन उंगलियों को चूमना चाहता हूं, जो ऐसी कहानियों को लिख रही हैं. कामयाबी के घमंड ने मुझे अंधा बना दिया था, पर स्ट्रगल से मिली आप की कामयाबी के उजालों ने मेरी आंखें खोल दी हैं. मेरी पतंग तो हवा में उड़ रही थी. कामयाबी तो यह है, जो आप ने अपने खूनपसीने से हासिल की है. फिल्म इंडस्ट्री में आप ने अपना पैर अंगद के पैर की तरफ जमा दिया है. मैं आप को बधाई देता हूं. हो सके, तो मुझे माफ कर दो.’’

विनय ने उदय को अपनी छाती से लगा लिया. उदय बोला, ‘‘भाग्य के भरोसे पर टिकी बेतुकी फिल्मों की अपनी कामयाबी से मेरा मन ऊब गया है. मैं जमीन पर पैर रख कर अपनी मेहनत से अपने हुनर को तौलना चाहता हूं.

‘‘दोस्त, तुम तो स्ट्रगल के दिनों के मेरे साथी हो. मेरे लिए कोई ऐसी ही कहानी लिखो न, जिस का किरदार विलक्षण हो, पर धरती के आम इनसान की तरह हो.’’

विनय ने उदय के सादगी से दमकते चेहरे की ओर देखा तो देखता ही रह गया. अब वह फिर वही पहले जैसा कलाकार उदय हो गया था. उस के भीतर का हीरो मर चुका था.

नायर साहब : सेना के सीक्रेट मिशन का अनोखा कोडवर्ड

टारगेट प्रैक्टिस कर रहे कमांडो सन्नी की गन से लगातार निकल रही गोलियां अचूक निशाने पर लग रही थीं. हर गोली कुछ एमएम इधरउधर हो रही थीं. रैपिड फायरिंग हो या लौंग रेंज या शौर्ट रेंज. गोलियों की आवाज कुछ देर के लिए रुकी. सामने लाल बत्ती जलबुझ रही थी. यह इमर्जैंसी का सिगनल था.

‘‘इमर्जैंसी?‘‘

इस के लिए ये कोई नई बात नहीं थी, चौबीसों घंटे वरदी पहने रहता था. पर बेस्ट कमांडो को प्रैक्टिस रोक कर बुलाने का मतलब…?

‘‘कोई हाईजैकिंग, टैररिस्ट अटैक हुआ क्या…?‘‘ सन्नी ने बाहर निकल कर घंटी बजाने वाले जवान से पूछा.

‘‘सर कुछ पता नहीं न्यूज चैनल में तो कुछ भी खास नहीं. वैसे तो वो लोग सभी न्यूज को ब्रेकिंग न्यूज बताते हैं. आप सर बेस्ट कमांडो अफसर हैं, वे लोग आप को बताएंगे, आप का मोबाइल नौनस्टौप बज रहा था, इसलिए आप को सिगनल दिया.‘‘

‘‘इडियट, जोकर है तुम… मोबाइल बज रहा था तो क्या…?‘‘ नाराज हो कर सन्नी लौटने वाला था.

तभी डरतेडरते जवान ने कहा, ‘‘सरजी, आप का स्पैशल मोबाइल बज रहा था और हैडक्वार्टर से आप का हालचाल कोई नायर साहब पूछ रहे थे कि आप की तबीयत कैसी है…?‘‘

‘‘ओह नायर साहब, वे तो मेरे दोस्त हैं…‘‘ सन्नी के तेवर नरम पड़े. प्रैक्टिस बीच में छोड़ना उसे पसंद नहीं था, पर बात जरूर खास थी.

‘‘मेरा प्रैक्टिस चैंबर बंद कर दो. अब मूड नहीं है,‘‘ सन्नी अपना सामान कप बोर्ड में रखता हुआ बोला.

सन्नी अपना बैग ले कर तुरंत गाड़ी में बैठा. ‘नायर साहब‘ कोड था कि कोई सीक्रेट मिशन है, जिस की चर्चा तक नहीं करनी है. स्पैशल हैक न होने वाले मोबाइल पर टैक्स्ट मैसेज था – आप का दिन शुभ हो, नायर साहब औफिस में आप का इंतजार कर रहे हैं.

औफिस पहुंच कर उस ने पूरे मिशन – ‘मिशन ग्रीन‘ की बारीकी से स्टडी की. 85 सीआरपीएफ जवानों की हत्या हुई थी और तमाम उपायों के बाद भी माओवादी हिंसा रुक नहीं रही थी. सन्नी जानता था कि उस का चयन बहुत ही सोचसमझ कर किया गया था. वह भी गांव का रहने वाला था और वहां की हर तरह के हालात को बेहतर तरीके से हैंडल कर सकता था.

सन्नी दूर तक फैले जंगल और ऊंची पहाड़ियों की ओर मुड़मुड़ कर देखता. आसपास के गांव की तलाश में आगे बढ़ा. जंगल अब खत्म हो गए थे और जंगल किनारे के खेत नजर आने लगे थे.

‘आपरेशन ग्रीन‘ सफल रहा था और उस ने उन के सुप्रीम कमांडर को मार गिराया था. किसी को पता नहीं था कि 2 गुटों की दबदबे की लड़ाई की आड़ में दोनों ओर के मारे गए लोग उस की अचूक निशानेबाजी के शिकार हुए थे. यह उस के पहले इंस्ट्रक्टर बुद्धन गुरु की सिखाई रणनीति थी, जो इसी इलाके के थे और अब रिटायर हो चुके थे.

अपनी सफलता की कहानी वह कमांडो ट्रेनिंग हैडक्वार्टर तक पहुंचा भी नहीं पाया था, क्योंकि कोई भी संचार उपकरण रखना खतरे से खाली नहीं था. अब वह निहत्था भी था. हथियार पहाड़ी झरने में फेंक आया था, ताकि कोई उसे पहचान न पाए.

पर उसे भी 2 गोलियां लगी थीं. वह बैस्ट कमांडो था और हर हालात में अपने को बचाने और जीवित रखने के तरीके जानता था, पर सीक्रेट मिशन के कारण वह ग्रामीण वेशभूषा में था और भयंकर गोलीबारी में अपने छापामार युद्ध के बाद बहुत खून बहने के कारण बुरी तरह थक चुका था. अब आपरेशन कर गोली निकालने में किसी अस्पताल या सरकारी एजेंसी की मदद भी नहीं ले सकता था.

नजदीकी थाना 20 किलोमीटर दूर था. दूसरे किसी और का मोबाइल इस्तेमाल करना बहुत हद तक खतरनाक था, क्योंकि वहां मोबाइल उन के ही लोगों के पास थे और कोई ऐसा समर्थक भी नहीं था तो किसी डाक्टर के आने पर उस से माओवादियों को शक हो जाता. अब उस के पास एक ही रास्ता था किसी रिटायर्ड फौजी या पुलिस वाले से मदद ले कर गोली बाहर निकलवाना.

‘‘पर, ऐसा फौजी इस जंगल के बीच मिलेगा कहां? अगर मिल भी गया तो इन माओवादियों के डर से उस की मदद कौन करेगा?‘‘

गांव में उस के खून सने कपड़े देख कर कोई मदद के लिए तैयार नहीं था. एक दयालु बुढ़िया ने उसे एक फौजी का घर दिखाया. दरवाजे की सांकल बजाते ही वह बुखार और कमजोरी से बेहोश हो कर गिर गया.

कई दिनों के बाद होश में आने पर उस ने अपने पहले इंस्ट्रक्टर हवलदार बुद्धन को देखा, जिस ने आज से 10 साल पहले उसे छापामार युद्ध की बारीकियां सिखाई थीं. वह अपने बारे में बताना चाह रहा था, पर गले में कांटे चुभ रहे थे और बोलना संभव नहीं था. वह अपने जमाने के बेस्ट इंस्ट्रक्टर के घर में था, इसलिए बच गया था. उसे हवलदार बुद्धन की दूर से आती आवाज सुनाई दी. वह स्थानीय भाषा में उस से उस का परिचय पूछ रहा था. फिर उस की आंखें मुंद गई थीं.

वह समझ गया था कि बुद्धन ने उसे नहीं पहचाना था. उस के जैसे सैकड़ों कमांडो को उस ने ट्रेनिंग दी होगी, कितनों को पहचानेगा? दूसरे, यहां एनएसजी के बेस्ट कमांडो का पाया जाना कल्पना से परे था. यहां तो पुलिस या पैरामिलिट्री फोर्स के जवान आते थे जो बाहरी होते थे और हावभाव, बोलीभाषा से पहचान लिए जाते थे.

पर, ये बात बुद्धन से छिपी नहीं रह सकती थी कि बहुत ही सफाई से दो खूंख्वार माओवादी गुटों को समाप्त करना किसी कमांडो के अलावा किसी से संभव नहीं था और वो भी जो यहां की भाषा, संस्कृति के साथ भूगोल से अच्छी तरह वाकिफ हो. ऐसे में अपने पुराने शिष्य को पहचान लेना मुश्किल नहीं था.

सन्नी ने अपना परिचय और उद्देश्य बता देना उचित समझा, क्योंकि वह जानता था कि बुद्धन एक देशभक्त फौजी रह चुका था और सच जानने के बाद यहां से सुरक्षित निकालने में उस की मदद कर सकता था.

एक दिन अकेले में जब बुद्धन उस की मरहमपट्टी कर रहा था, तो उस ने बुद्धन से पूछा, ‘‘सर, आप मिलिट्री में कहां थे?‘‘

बुद्धन चुप रहा और उसी दिन उसे अपने खेत के पास वाले घर में ले गया, जहां गांव वालों का आनाजाना नहीं था. वहां उस ने उसे उस के नाम से संबोधित कर कहा, ‘‘सन्नी, जब तक मैं न आऊं, किसी भी हाल में बाहर झांकना तक नहीं.‘‘

यह सुन कर सन्नी सन्न रह गया. उस का अनुमान सही था, तभी उसे याद आया कि उस की कोहनी के भीतरी तरफ दो निशान थे, जो हर बेस्ट कमांडो के हाथों में होते हैं. आम आदमी न समझ पाए, पर बुद्धन गुरु के लिए ये बहुत आसान था कि साधारण से दिखने वाले इस जवान के हाथ में ये निशान 2 छेद करने पर बने थे, जो खुद का खून पी कर जिंदा रहने की अंतिम ट्रेनिंग होती है. सन्नी किसी भी हालात के लिए तैयार था, जो उस की आदत थी.

उस सुनसान से घर में दिन में कुछ लोगों की आवाजें सुनाई पड़ती थीं, जो खेतों में काम करते थे. उन की बातें सुन कर उसे पता चला कि एक मारा गया सुप्रीम कमांडर उसी गांव का था और उस के बचेखुचे साथी दूसरे गुट और उस के सुप्रीमो से बहुत नाराज थे, जिस ने उस की हत्या की थी और खुद भी मारा गया था. अभी तक दूसरा गुट इस सदमे से उबर नहीं पाया था.

एक दिन एकदम मुंहअंधेरे बुद्धन गुरु उस के पास आया और बोला, ‘‘सन्नी, अब तुम बिलकुल ठीक हो. कुछ दिन मिलिट्री हौस्पिटल में रहोगे तो ड्यूटी के लिए फिट हो जाओगे. मैं ने पास के पुलिस कैंप से आगे जाने की व्यवस्था कर दी है. अभी चलो मेरे साथ…‘‘

सन्नी ने इतने दिनों तक रोज उसे दिनरात खिलानेपिलाने सेवा करने वाली बुद्धन की पत्नी से मिल कर आभार प्रकट करने की इच्छा व्यक्त की, ‘‘सर, मैं चाचीजी से मिल कर उन के पैर छूना चाहता हूं…‘‘

‘‘अभी उस की तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए उस को परेशान करना उचित नहीं,‘‘ बुद्धन ने कहा. दोनों तेजी से आगे बढ़ ही रहे थे कि बुद्धन की पत्नी सामने राइफल लिए खड़ी थी, ‘‘चलिए, मैं भी इसे छोड़ने चलती हूं और आप राइफल के बिना जंगल में निकलते कैसे हैं?‘‘

सन्नी ने 1-2 बार उन का आभार व्यक्त करने की कोशिश की, पर उन्होंने बात बदल दी, ‘‘यह जंगल है. यहां हर पल सावधान रहना पड़ता है, आगे देखो…” उन के उखड़े हुए स्वर से लगा कि वह अनचाहा मेहमान था. बुद्धन गुरु पहले की तरह भावहीन थे. सुबह होतेहोते तीनों जंगल के छोर पर पहुंच गए थे.

बुद्धन ने कहा, ‘‘यह रास्ता सीधा पुलिस कैंप तक जाएगा, कोई अगर पूछे तो बताना कि मेरे मेहमान हो, शहर जाना है.‘‘

सन्नी ने दोनों के पैर छुए, पर दोनों ने कुछ कहा नहीं. दो कदम आगे बढ़ते ही बुद्धन की पत्नी ने चिल्ला कर कहा, ‘‘अब हमारी सीमा समाप्त हो गई है और इसलिए ये हमारा मेहमान नहीं है. गोली मारो मेरे एकलौते बेटे के हत्यारे को…‘‘

सन्नी समझ गया था कि सुप्रीम कमांडर, जिस की उस ने हत्या की थी, बुद्धन सर का ही भटका हुआ बेटा था. राइफल कौक हुआ… सन्नी समझ चुका था कि अब एक बेटे का बाप उस के हत्यारे को सजा देने के लिए तैयार था, ठीक उस की तरह बुद्धन सर का निशाना कभी नहीं चूकता…

कुछ पल और बाकी थे और पीछे से गोली का एक धक्का उस के सिर के टुकड़े करने वाला था. उस ने अंतिम बार अपनी मां को याद किया…

गोली चली, पर यह हवाई फायर था. गोली पेड़ के ऊपर टहनियों से टकरा कर आगे निकल गई थी… वह समझ गया था कि एक रिटायर्ड फौजी भी फौजी ही होता है, जिस के लिए देश सब से पहले होता है. सन्नी ने उस दंपती को खड़े हो कर सैल्यूट किया और तेजी से आगे बढ़ गया.

हेलीकौप्टर के पायलट की बात सुन कर उस का पत्थरदिल भी पसीज गया, ‘‘सर, बुद्धन सर नहीं आए, उन्होंने ही हेडक्वार्टर फोन कर आप के लिए हेलीकौप्टर मंगवाया था.

‘‘सर, सच है, ‘‘वंस ए सोल्जर आल्वेज ए सोल्जर.‘‘

विरासत : मां का कद ऊंचा करती एक बेटी

मुझे ऐसा क्यों लगने लगा है कि शादी के बाद  लड़कियां बदल सी जाती हैं और उन का वह घर जहां वह अभी कुछ माह या साल पहले गई थीं, अधिक प्रिय हो जाता है. लगता है कि मेरी बेटी कामना के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ है. आती है तो खोईखोई सी रहती है, भाईबहन के साथ की वह धींगामस्ती भी अब नजर नहीं आती. छोटे भाईबहन को कभीकभार आइसक्रीम खिलाने ले जाना, कोई पिक्चर दिखाना या शापिंग के लिए ले जाना, सब ‘रुटीन वे’ में होता है. आज तो उस ने हद ही कर दी. मैं उस की पसंद का मूंग की दाल का हलवा बनाने में व्यस्त थी तभी मैं ने सुना वह अपनी छोटी बहन भावना से कह रही थी, ‘‘भानु, अब की बार मैं जल्दी चली जाऊंगी. तेरे जीजाजी आने वाले हैं. कैंटीन का खाना उन को बिलकुल सूट नहीं करता. आज शाम को बाजार चलते हैं, मुझे मम्मीजी की साड़ी भी लेनी है.’’

यह मम्मीजी कौन हैं? आप को बताने की जरूरत नहीं है. वही हैं जो ससुराल जाने पर हर लड़की की अधिकारपूर्वक मम्मीजी बन जाती हैं, चाहे वह उसे असली मम्मी की तरह मानें या न मानें.

मैं गलत नहीं कह रही हूं. पिछले 10 दिनोें से मुझे वायरल फीवर भी था. थोड़ी कमजोरी भी महसूस कर रही थी, पर उस कालिज से, जहां मैं पढ़ा रही थी, मैं ने छुट््टी ले ली थी. मुझे बस एक ही धुन थी कि बेटी को वह सब चीजें खिला दूं जो उसे पसंद थीं और वह थी कि अपनी बहन से जाने की जल्दी बता रही थी. जैसे मैं अब उस के लिए कुछ नहीं थी.

तभी मैं ने यह भी सुना, ‘‘भानु, इस सितार पर तो धूल जम गई है, तू क्या इसे कभी नहीं बजाती? मैं तो पहले ही जानती थी कि तू साइंस की स्टूडेंट है, भला तुझे कहां समय मिलेगा सितार बजाने का? मां से कह कर मैं इस बार यह सितार लेती जाऊंगी. मैं वहां क्लास ज्वाइन कर के सितार बजाना सीख लूंगी, वैसे भी अकेले बोर होती हूं.’’

हलवा बन चुका था पर कड़ाही कपड़े से पकड़ कर उतारना भूल गई तो उंगलियां जल गईं. अब किसी को बुला कर सितार पैक कराना होगा, जिस से लंबे सफर में कुछ टूटेफूटे नहीं. बेटी है न, उस के जाने के खयाल से ही मेरी आंखें भर आई थीं. मैं ने जल्दी से आंखें आंचल से पोंछ लीं. लगता है, मेरी बेटी अपनी सारी चीजें जिन से मेरी यादें जुड़ी हुई हैं, मुझ से दूर कर ही देगी.

पिछली बार जब वह आई थी, मैं उस के रूखे, घने, लंबे केशों में तेल लगा रही थी कि अचानक ही मैं ने सुना, ‘मां, मैं वह मसूरी वाली ‘पोट्रेट’ ले जाऊं जो आप ने ‘एम्ब्रायडरी कंपीटीशन’ के लिए बनाई थी. वही वाली जो आप ने प्रथम पुरस्कार पाने के बाद मुझे मेरे जन्मदिन पर प्रेजेंट कर दी थी. मम्मीजी उसे देख कर बहुत खुश होंगी. आप ने कितनी सुंदर कढ़ाई की है. पहाड़ लगता है बर्फ से भरे हैं.’’

मैं हां कहने में थोड़ी हिचकिचाई. कितने पापड़ बेलने पड़े थे उस तसवीर को काढ़ने में. कितने प्रकार की स्टिचेज सीखनी पड़ी थीं उसे पूरा करने में, और वह मुझ से ले कर उसे अपनी उन मम्मीजी को दे देगी. पर कोई बात नहीं, मैं तो उसे खुश देखने के लिए अपनी कोई भी प्रिय वस्तु देने को तैयार थी, यह तो फ्रेम में जड़ी केवल एक तसवीर ही थी.

अनुराग उसे लेने सुबह ही आ गया था. शाम को जब मैं दोनों को चाय के लिए बुलाने गई तो देखा दोनों दीवार से तसवीर उतार कर यत्नपूर्वक ब्राउन पेपर  के ऊपर अखबार लपेट रहे थे.

मैं ने दीवार की तरफ देखा, कितनी सूनी, बदरंग सी लग रही थी. ठीक उसी तरह जैसे कामना के चले जाने के बाद उस का कमरा लगता था. मैं बिना कुछ बोले तेज कदमों से वापस लौट आई. कब सुबह हुई, जल्दीजल्दी नाश्ता हुआ फिर साथ ले जाने का खाना पैक हुआ और कामना विदा हो गई, पता ही न चला. भावना सिसक रही थी, ‘‘दीदी, जल्दी आना.’’ मैं चुपचाप उसे देखती रही जब तक कि वह आंखों से ओझल न हो गई.

हर बार की तरह तीसरेचौथे महीने कामना नहीं आई. मैं सोचसोच कर परेशान थी कि क्या कारण हो सकता है उस के न आने का. तभी उस की मम्मीजी का एक छोटा सा पत्र मुझे मिला.

‘अत्यंत प्रसन्नता से आप को सूचित कर रही हूं कि हम दोनों की पदोन्नति हो गई है, यानी कि आप नानी और मैं दादी बनने वाली हूं. कामना को एकदम डाक्टर ने बेड रेस्ट बताया है, इसलिए कुछ महीने बाद ही जा सकेगी वह. हां, गोदभराई के लिए आप को हमारे यहां आना होगा क्योंकि हमारे घर की परंपरा है कि पहला बच्चा ससुराल में ही होता है. अत: डिलीवरी भी यहीं होगी. आप बिलकुल निश्ंिचत रहिएगा क्योंकि मैं भी तो कामना की मम्मी हूं.’

पत्र पढ़ कर कामना के न आने का दुख तो मैं भूल ही गई और खुशी से भावना को जोर से आवाज दी. खबर सुन कर वह भी नाच उठी. घर में कितनी ही देर तक हर्षोल्लास का वातावरण बना रहा. कामना के पापा जहां पोस्टेड थे वहां से घर वह छुट््टियों में ही आते थे. इस बार हमसब एकसाथ गए रस्म अदा करने. बेटी को देख कर उतनी ही खुशी हुई जितनी अपने हाथों से लगाए वृक्ष को फूलतेफलते देख कर होती है.

रस्म अदा करने के बाद कामना मेरा हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘मां, चलो, तुम्हें कुछ दिखाते हैं.’’

एक कमरे के पास आ कर वह रुक गई और बोली, ‘‘देखो मां, यह बच्चे की नर्सरी है.’’ अंदर जा कर मैं चकित रह गई. दीवार पर हलके रंग का प्लास्टिक पेंट, फूलपत्तियां बनी हुईं, छोटेछोटे बच्चे ऐंजेल बने हुए थे. एक तरफ ‘क्रिब’ में बिछी हुई गुलाबी प्रिंटेड और गुलाबी उढ़ाने की चादर भी. दूसरे कोने में तरहतरह के खिलौने, नर्सरी राइम्स की किताबें करीने से सजी हुईं.

‘‘मां, तुम मेरी वह छोटी कुरसीमेज भेज देना जिस पर मैं बचपन में पढ़ती थी.’’

मैं ने प्यार से उस के गाल पर हलकी सी चपत लगाई, ‘‘हां, मैं जाते ही शिबू से तुम्हारी मेजकुरसी पहुंचवा दूंगी.’’

कहना नहीं होगा, शिबू ही उस की देखभाल करता था जब मैं कालिज पढ़ाने चली जाती थी. घर पहुंचते ही कामना का कमरा खोला, दीवार पर उस के बचपन की कितनी ही तसवीरें लगी हुई थीं. एक कोने में उस की छोटी कुरसीमेज, मेज पर उस का एक छोटा सा बाक्स भी रखा हुआ था. बाक्स नीचे रखा और कुरसीमेज पेंट करा के उसे कामना की ससुराल पहुंचाने की बात मैं ने शिबू को बताई.

वह दिन भी आया कि कामना अपने छोटे से बेटे को साथ लिए आई. साथ में उस का पति अनुराग भी था. मैं तो कब से तीनों की राह देखती दरवाजे पर खड़ी थी. आगे बढ़ कर मैं ने बच्चे को गोद में ले लिया और चूम लिया.

‘‘मां, तुम मुझे प्यार करना भूल गईं.’’

‘‘अब तुम बड़ी जो हो गई हो,’’ मैं ने हंस कर कहा.

हंसीखुशी के बीच महीना कैसे बीत गया, पता ही न चला. कामना अकसर बच्चे को अपने कमरे में ले जाती, खिलाती, सुलाती.

कल ही उस की ट्रेन थी. मैं बरामदे की आरामकुरसी पर लेटी ही थी कि कामना आ पहुंची.

‘‘मां, बहुत थक गई हो न. लाओ न पैर दबा दूं थोड़ा,’’ और हाथ में ली हुई फाइल उस ने पास की कुरसी पर रख दी, पर मैं ने अपने पैर समेट लिए थे.

‘‘अरे, मैं तो ऐसे ही लेट गई थी’’ तभी बेटे के रोने की आवाज सुन कर वह चल दी. उत्सुकतावश मैं ने फाइल उठा ली. देखने में पुरानी किंतु नए रंगीन ग्लेज  पेपर, रिबन से बंधी हुई. मैं सीधे बैठ गई. अंदर लिखाई जानीपहचानी सी लग रही थी. फाइल में कितनी ही कटिंग थीं, समाचारपत्रों की, कालिज की पत्रिकाओं की. मेरी लिखी हुई टिप्पणियां भी थीं.

हां, वह पहली कटिंग भी थी जब कामना 8वीं में पढ़ती थी. मुझे याद आ गया, कामना 100 मीटर की रेस में भाग लेने वाली थी, कितनी ही बार वह खेलों में भाग ले कर पुरस्कार भी पा चुकी थी. पर उस दिन उस के पैर में भयानक दर्द था. कुछ मलहम मला, सिंकाई की, दवाई खिलाई, पैर में कस कर पट््टी बांध दी, पर उस के पैर के ‘क्रैंप’ न गए. उधर उस की जिद थी कि वह रेस में भाग जरूर लेगी. मुझे भी अपने कालिज पहुंचना जरूरी था. मैं ने शिबू द्वारा थर्मस में गरम दूध में कौफी डाल कर और एक नोट लिख कर भेजा, ‘बेटी कामना, रेस में हार कर दुखी मत होना. जीवन में ऐसी बहुत सी रेस आएंगी और तुम जरूर ही जीतोगी. तुम मेरी रानी बेटी हो न, हारने पर मन छोटा मत करना.’

मैं जब कालिज का काम खत्म कर कामना के स्कूल के सालाना स्पोर्ट्स देखने पहुंची तो कामना अपनी कक्षा की लड़कियों के साथ पिरामिड बनाने में लगी थी. सब से ऊपर वही थी. तालियों से मैदान गूंज उठा.

मुझे सुकून हुआ कि मेरी बेटी हार कर भी निराश नहीं थी. खेल खत्म होने पर जब वह मेरे पास आई तो उस की आंसू भरी आंखों को मैं ने चूम लिया था, इस की कटिंग भी थी.

ऐसी ही कितनी कटिंग काट कर उस ने संजो कर करीने से लगाई थीं. अकसर हम दोनों ही व्यस्त हो जाते थे, दूर हो जाते. मैं कभी परीक्षा लेने दूसरे शहर चली जाती तो मेरी अनुपस्थिति में उसे ही घर सुचारु रूप से चलाना है, मैं उसे लिख कर भेजती. लौट कर देखती कि वह थोड़े ही दिनों में और भी बड़ी हो गई है. किसी को मेरी याद तक न आती थी. कामना, जो घर में थी उन्हें संभालने के लिए.

मैं तल्लीन हो कर पेज पलटने में लगी थी तभी कामना आ पहुंची. एक शरारत भरी हंसी उस के अधरों पर फैल गई, ‘‘मां, अपनी फाइल ले जाऊं मैं,’’ मैं ने उठ कर कामना को सीने से लगा लिया. कौन कहता है कि बेटियां अपने उस घर के लिए बटोरती ही रहती हैं? सच तो यह है कि ये बेटियां ही तो मांबाप की सिखाई हुई अच्छीअच्छी बातों की विरासत से अपने उस दूसरे घर को भी प्रकाशमान करती हैं. मेरी इस बेटी ने इस विरासत को अपना कर मेरा सिर कितना ऊंचा कर दिया था.

तीन प्रश्न : कौन से सवाल थे वो

मैं पाकिस्तान की यात्रा पर जा रहा था. भारत का कभी हिस्सा रहे इस देश को करीब से देखने का यह मेरा पहला मौका था. वीजा लेने की कठोर कसरत के बाद मैं दिल्ली से अटारी जाने वाली समझौता एक्सप्रेस में रात को सवार हो गया. ट्रेन में अलगअलग तरह के यात्री मिल रहे थे. किसी को अपने रिश्तेदारों से मिल कर लौटने का गम था तो कोई रिश्तेदारों से मिलने जाने की खुशी लिए था और कोई भारी मात्रा में सामान बेच कर रुपए कमाने की चाहत लिए जा रहा था.

अलगअलग आवाजें आ रही थीं :

‘‘मेरे सारे रिश्तेदार पाकिस्तान में हैं. अब 60 साल बाद मिलने जा रहा हूं.’’

‘‘मेरी बेटी की शादी भारत में हुई है, 20 साल बाद मिली थी. अब अपनी नवासी की शादी कर के लौट रही हूं.’’

‘‘बंटवारे के बाद मेरा सारा कुनबा भारत आ कर बस गया. अपने मूल वतन रावलपिंडी देखने का सपना आज पूरा हुआ है.’’

‘‘10 हजार बनारसी साडि़यां पाकिस्तान ले जा कर बेचूंगा, वहां वे सोने के भाव बिकेंगी.’’

अगली सुबह, गाड़ी अटारी स्टेशन पहुंच गई. वहां से लगभग 10 किलोमीटर आगे बाघा बोर्डर पड़ता है, जहां से पाकिस्तानी सीमा शुरू होती है. लोग अपनाअपना सामान समेट कर इमिग्रेशन के लिए तैयार हो गए. पासपोर्ट और वीजा की जांच के बाद कस्टम की काररवाई होती है जोकि इस यात्रा का सब से तकलीफदेह हिस्सा होता है.

मुसाफिरों के सामान को खोल कर कस्टम अधिकारी एकएक चीज को झाड़ कर तलाशी ले रहे थे और लोगों से खूब रुपए भी ऐंठ रहे थे. यहां मजबूरी में लोग न चाहते हुए भी कस्टम से पीछा छुड़ाने के लिए रुपए खर्च कर रहे थे.

कस्टम की औपचारिकता के बाद यात्री एक बडे़ गेट को पार कर के उस पार एक तैयार ट्रेन में दोबारा सवार हो रहे थे. यह ट्रेन आगे चल कर बाघा होती हुई सब लोगों को लाहौर तक छोड़ती है. यहां के सीमा गेट पर ड्यूटी पर तैनात सुरक्षाकर्मी (सिपाही) हर यात्री से 100-100 रुपए मांग रहे थे.

जब सभी यात्री ट्रेन में सवार हो गए तो दोपहर ढाई बजे ट्रेन चल दी. लगभग 10 मिनट बाद ही भारत की सरहद खत्म हो गई और पाकिस्तान आ गया. बाघा स्टेशन पर गाड़ी रुकी. लोग ट्रौलियों में अपनाअपना सामान लाद कर दोबारा इमिग्रेशन और कस्टम के लिए तैयार हो रहे थे. खूब भगदड़ मची हुई थी. वहां काली वरदी में तैनात कस्टम अधिकारी भी भारतीय कस्टम अधिकारियों की तरह लोगों से रुपए ऐंठ कर अपना फर्ज अदा कर रहे थे. लगभग 4 घंटे में यहां की सारी काररवाई पूरी हुई तो ट्रेन लाहौर की तरफ चल दी, जोकि वहां से कुल 25 किलोमीटर की दूरी पर था.

मेरे जीजाजी लाहौर स्टेशन पर मुझे लेने के लिए खड़े थे. रात हो रही थी. अगले दिन हमें कराची जाना था, सो लाहौर घूम कर हम मुगलों की इस प्राचीन राजधानी को देखते रहे.

अगले दिन शाम को हम कराची के लिए रवाना हो गए.

पाकिस्तानी ट्रेन में बैठ कर मैं बेहद खुशी महसूस कर रहा था. यात्रा के दौरान मुझे एक पादरी मिले. वह पठानी सलवारकुर्ता पहने हुए पक्के पाकिस्तानी लग रहे थे और फर्राटेदार उर्दू बोल रहे थे.

‘‘मैं मुंबई का रहने वाला हूं. अंगरेजों के शासनकाल में मेरे अब्बा एक ईसाई मिशनरी के साथ कराची आए थे. जब बंटवारा हुआ तो कराची पाकिस्तान में चला गया और फिर हम यहीं बस गए.’’

मैं ने पूछा, ‘‘आप लोगों को यहां बहुत तकलीफ हुई होगी. सुना है, मुसलमानों के अलावा दूसरे धर्मों के लोगों के साथ अच्छा सुलूक नहीं होता है.’’

‘‘सब कहने की बातें हैं. नफरत और मोहब्बत दुनिया के हर हिस्से में है. पाकिस्तान में लोगों की यह सोच बनी हुई है कि भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं, उन्हें हर जगह भेदभाव से देखा जाता है. क्या यह सही है?’’

मैं ने और उत्सुकता दिखाई, ‘‘क्या पाकिस्तान में हिंदू या सिख नहीं रहते हैं?’’

पादरी ने समझाया, ‘‘जब बंटवारा हुआ तो भारत बड़ा था और पाकिस्तान छोटा. जिन सूबों में मुसलमानों की घनी आबादी थी, उन को मिला कर पाकिस्तान बना था. नौर्थवेस्ट फ्रंटियर  प्रौविंस और बलूचिस्तान में हिंदू आबादी कम थी. सिंध में अब भी हिंदू आबादी है, जोकि ज्यादातर जमींदार और महाजन हैं.’’

‘‘पंजाब में सिख लोग ज्यादा थे. पंजाब और बंगाल के 2 टुकड़े किए गए थे, इसलिए इन 2 सूबों में सब से ज्यादा कत्लेआम हुआ. कश्मीर को पाकिस्तान लेना चाह रहा था पर भारत ने नहीं दिया. दोनों मुल्कों में जंग हुई पर हमारे हुक्मरान मसले को सुलझाना नहीं चाहते.’’

हमारी ट्रेन पंजाब से बलूचिस्तान होती हुई सिंध की तरफ जा रही थी. बलूचिस्तान और सिंध ज्यादातर रेगिस्तानी क्षेत्र हैं. बीचबीच में स्टेशन पड़ रहे थे. स्टेशनों पर मांसाहारी चीजों जैसे कीमे के समोसे और पकौडे़, बिरयानी, कोरमा आदि की अधिकता थी. भारत के मुकाबले में पाकिस्तानी रेलवे स्टेशनों पर भीड़ कम होती है.

पाकिस्तान के सब से बडे़ शहर कराची को देख कर लखनऊ की याद आ गई, क्योंकि दोनों शहरों में उर्दू का गहरा असर है. कराची में भारत से गए हुए लोग सब से ज्यादा तादाद में हैं. क्षेत्रवाद के शिकार ये मुसलमान ‘मुहाजिर’ कहलाते हैं.

मैं कराची जी भर कर घूमा. भारत से अलग होने पर भी भारत की छाप साफ दिखाई दे रही थी. कई लोग मेरे भारतीय होने पर अपना आतिथ्य निभा रहे थे. मुझे वहां भारतीय और पाकिस्तानी लोगों में कोई खास फर्क नजर नहीं आया. इस से कहीं अधिक फर्क तो भारत के ही अलगअलग राज्यों के लोगों में है. उत्तर भारत का रहने वाला अगर दक्षिण भारत में चला जाए तो समझेगा कि कहीं विदेश में आ गया. वहां का रहनसहन अलग, खानपान अलग, भाषा अलग, पहनावा अलग मगर देश एक है.

विभाजन के 60 साल बाद भी संस्कृति ने अपनी छाप नहीं छोड़ी है. लोगों को धर्म जोड़े न जोडे़ पर क्षेत्र अवश्य जोड़ता है. पंजाब, बंगाल और कश्मीर के 2-2 टुकडे़ होते हुए भी यदि वहां के लोगों की आपस में तुलना की जाए तो पता चलता है कि धर्म के नाम पर तो उन्हें बांटा गया पर उन की समानता को कोई बांट नहीं सका.

भारत या पाकिस्तान के लोग अपने को धार्मिक कहते हैं पर हर धर्म की पहली सीढ़ी इनसानियत से इतनी दूर क्यों होती जा रही है?

पाकिस्तान की अपनी यात्रा के निचोड़ में 3 प्रश्न मेरे दिलोदिमाग में उत्तर के लिए भटक रहे हैं.

पहला, धर्म के नाम पर देश के बंटवारे का मूल उद्देश्य क्या था? धर्म इनसान के लिए है या इनसान धर्म के लिए? देश का बंटवारा कर के क्या सांप्रदायिकता खत्म हो गई? जबकि इसी के नतीजतन, एक नए देश के रूप में बंगलादेश का जन्म हुआ और कश्मीर एक अंतर्राष्ट्रीय मसला बना हुआ है. यही नहीं दोनों मुल्कों का जो अरबों रुपया, सीमा सुरक्षा में लग रहा है, काफी हद तक बच सकता था.

दूसरा, अंगरेजों की गुलामी से आजाद होने की इच्छा हर भारतीय में थी और हिंदू व मुसलमान दोनों ने मिल कर संघर्ष किया था पर जब बंटवारे की बात चली तो किसी के मन में यह विचार नहीं आया कि जब आजादी साथ पाई है तो रहेंगे भी साथ ही. कोई रास्ता निकाल कर बंटवारा रोको.

तीसरा, हम अंगरेजों को ‘फूट डालो राज करो’ की नीति के लिए दोषी ठहराते हैं. क्या यह नीति हमारे धार्मिक दुकानदारों और उन के पिट्ठू नेताओं में नहीं है? हर तरह का भेदभाव हमारे देश में ‘नई बोतल में पुरानी शराब’ की तरह बड़ी कुशलता से पनप रहा है और हमारे पंडे, मौलवी, नेताओं के वोट बैंक को पुख्ता कर रहे हैं.

पड़ोसी देशों को अपनी कमजोरियों के लिए दोष देना हमारे नेताओं की जन्मघुट्टी में मिला हुआ है. अगर पाकिस्तान नहीं बनता तो हमारे नेता आतंकवाद के लिए चीन को दोष देते या रूस को?

मौन: मसूरी, मनामी और उस की चुप्पी

सर्द मौसम था, हड्डियों को कंपकंपा देने वाली ठंड. शुक्र था औफिस का काम कल ही निबट गया था. दिल्ली से उस का मसूरी आना सार्थक हो गया था. बौस निश्चित ही उस से खुश हो जाएंगे.

श्रीनिवास खुद को काफी हलका महसूस कर रहा था. मातापिता की वह इकलौती संतान थी. उस के अलावा 2 छोटी बहनें थीं. पिता नौकरी से रिटायर्ड थे. बेटा होने के नाते घर की जिम्मेदारी उसे ही निभानी थी. वह बचपन से ही महत्त्वाकांक्षी रहा है. मल्टीनैशनल कंपनी में उसे जौब पढ़ाई खत्म करते ही मिल गई थी. आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक तो वह था ही, बोलने में भी उस का जवाब नहीं था. लोग जल्दी ही उस से प्रभावित हो जाते थे. कई लड़कियों ने उस से दोस्ती करने की कोशिश की लेकिन अभी वह इन सब पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता था.

श्रीनिवास ने सोचा था मसूरी में उसे 2 दिन लग जाएंगे, लेकिन यहां तो एक दिन में ही काम निबट गया. क्यों न कल मसूरी घूमा जाए. श्रीनिवास मजे से गरम कंबल में सो गया.

अगले दिन वह मसूरी के माल रोड पर खड़ा था. लेकिन पता चला आज वहां टैक्सी व बसों की हड़ताल है.

‘ओफ, इस हड़ताल को भी आज ही होना था,’ श्रीनिवास अभी सोच में पड़ा ही था कि एक टैक्सी वाला उस के पास आ कानों में फुसफुसाया, ‘साहब, कहां जाना है.’

‘अरे भाई, मसूरी घूमना था लेकिन इस हड़ताल को भी आज होना था.’

‘कोई दिक्कत नहीं साहब, अपनी टैक्सी है न. इस हड़ताल के चक्कर में अपनी वाट लग जाती है. सरजी, हम आप को घुमाने ले चलते हैं लेकिन आप को एक मैडम के साथ टैक्सी शेयर करनी होगी. वे भी मसूरी घूमना चाहती हैं. आप को कोई दिक्कत तो नहीं,’ ड्राइवर बोला.

‘कोई चारा भी तो नहीं. चलो, कहां है टैक्सी.’

ड्राइवर ने दूर खड़ी टैक्सी के पास खड़ी लड़की की ओर इशारा किया.

श्रीनिवास ड्राइवर के साथ चल पड़ा.

‘हैलो, मैं श्रीनिवास, दिल्ली से.’

‘हैलो, मैं मनामी, लखनऊ से.’

‘मैडम, आज मसूरी में हम 2 अनजानों को टैक्सी शेयर करना है. आप कंफर्टेबल तो रहेंगी न?’

‘अ…ह थोड़ा अनकंफर्टेबल लग तो रहा है पर इट्स ओके.’

इतने छोटे से परिचय के साथ गाड़ी में बैठते ही ड्राइवर ने बताया, ‘सर, मसूरी से लगभग 30 किलोमीटर दूर टिहरी जाने वाली रोड पर शांत और खूबसूरत जगह धनौल्टी है. आज सुबह से ही वहां बर्फबारी हो रही है. क्या आप लोग वहां जा कर बर्फ का मजा लेना चाहेंगे?’

मैं ने एक प्रश्नवाचक निगाह मनामी पर डाली तो उस की भी निगाह मेरी तरफ ही थी. दोनों की मौन स्वीकृति से ही मैं ने ड्राइवर को धनौल्टी चलने को हां कह दिया.

गूगल से ही थोड़ाबहुत मसूरी और धनौल्टी के बारे में जाना था. आज प्रत्यक्षरूप से देखने का पहली बार मौका मिला है. मन बहुत ही कुतूहल से भरा था. खूबसूरत कटावदार पहाड़ी रास्ते पर हमारी टैक्सी दौड़ रही थी. एकएक पहाड़ की चढ़ाई वाला रास्ता बहुत ही रोमांचकारी लग रहा था.

बगल में बैठी मनामी को ले कर मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे. मन हो रहा था कि पूछूं कि यहां किस सिलसिले में आई हो, अकेली क्यों हो. लेकिन किसी अनजान लड़की से एकदम से यह सब पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था.

मनामी की गहरी, बड़ीबड़ी आंखें उसे और भी खूबसूरत बना रही थीं. न चाहते हुए भी मेरी नजरें बारबार उस की तरफ उठ जातीं.

मैं और मनामी बीचबीच में थोड़ा बातें करते हुए मसूरी के अनुपम सौंदर्य को निहार रहे थे. हमारी गाड़ी कब एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर पहुंच गई, पता ही नहीं चल रहा था. कभीकभी जब गाड़ी को हलका सा ब्रेक लगता और हम लोगों की नजरें खिड़की से नीचे जातीं तो गहरी खाई देख कर दोनों की सांसें थम जातीं. लगता कि जरा सी चूक हुई तो बस काम तमाम हो जाएगा.

जिंदगी में आदमी भले कितनी भी ऊंचाई पर क्यों न हो पर नीचे देख कर गिरने का जो डर होता है, उस का पहली बार एहसास हो रहा था.

‘अरे भई, ड्राइवर साहब, धीरे… जरा संभल कर,’ मनामी मौन तोड़ते हुए बोली.

‘मैडम, आप परेशान मत होइए. गाड़ी पर पूरा कंट्रोल है मेरा. अच्छा सरजी, यहां थोड़ी देर के लिए गाड़ी रोकता हूं. यहां से चारों तरफ का काफी सुंदर दृश्य दिखता है.’

बचपन में पढ़ते थे कि मसूरी पहाड़ों की रानी कहलाती है. आज वास्तविकता देखने का मौका मिला.

गाड़ी से बाहर निकलते ही हाड़ कंपा देने वाली ठंड का एहसास हुआ. चारों तरफ से धुएं जैसे उड़ते हुए कोहरे को देखने से लग रहा था मानो हम बादलों के बीच खड़े हो कर आंखमिचौली खेल रहे होें. दूरबीन से चारों तरफ नजर दौड़ाई तो सोचने लगे कहां थे हम और कहां पहुंच गए.

अभी तक शांत सी रहने वाली मनामी धीरे से बोल उठी, ‘इस ठंड में यदि एक कप चाय मिल जाती तो अच्छा रहता.’

‘चलिए, पास में ही एक चाय का स्टौल दिख रहा है, वहीं चाय पी जाए,’ मैं मनामी से बोला.

हाथ में गरम दस्ताने पहनने के बावजूद चाय के प्याले की थोड़ी सी गरमाहट भी काफी सुकून दे रही थी.मसूरी के अप्रतिम सौंदर्य को अपनेअपने कैमरों में कैद करते हुए जैसे ही हमारी गाड़ी धनौल्टी के नजदीक पहुंचने लगी वैसे ही हमारी बर्फबारी देखने की आकुलता बढ़ने लगी. चारों तरफ देवदार के ऊंचेऊंचे पेड़ दिखने लगे थे जो बर्फ से आच्छादित थे. पहाड़ों पर ऐसा लगता था जैसे किसी ने सफेद चादर ओढ़ा दी हो. पहाड़ एकदम सफेद लग रहे थे.

पहाड़ों की ढलान पर काफी फिसलन होने लगी थी. बर्फ गिरने की वजह से कुछ भी साफसाफ नहीं दिखाई दे रहा था. कुछ ही देर में ऐसा लगने लगा मानो सारे पहाड़ों को प्रकृति ने सफेद रंग से रंग दिया हो. देवदार के वृक्षों के ऊपर बर्फ जमी पड़ी थी, जो मोतियों की तरह अप्रतिम आभा बिखेर रही थी.

गाड़ी से नीचे उतर कर मैं और मनामी भी गिरती हुई बर्फ का भरपूर आनंद ले रहे थे. आसपास अन्य पर्यटकों को भी बर्फ में खेलतेकूदते देख बड़ा मजा आ रहा था.

‘सर, आज यहां से वापस लौटना मुमकिन नहीं होगा. आप लोगों को यहीं किसी गैस्टहाउस में रुकना पड़ेगा,’ टैक्सी ड्राइवर ने हमें सलाह दी.

‘चलो, यह भी अच्छा है. यहां के प्राकृतिक सौंदर्य को और अच्छी तरह से एंजौय करेंगे,’ ऐसा सोच कर मैं और मनामी गैस्टहाउस बुक करने चल दिए.

‘सर, गैस्टहाउस में इस वक्त एक ही कमरा खाली है. अचानक बर्फबारी हो जाने से यात्रियों की संख्या बढ़ गई है. आप दोनों को एक ही रूम शेयर करना पड़ेगा,’ ड्राइवर ने कहा.

‘क्या? रूम शेयर?’ दोनों की निगाहें प्रश्नभरी हो कर एकदूसरे पर टिक गईं. कोई और रास्ता न होने से फिर मौन स्वीकृति के साथ अपना सामान गैस्टहाउस के उस रूम में रखने के लिए कह दिया.

गैस्टहाउस का वह कमरा खासा बड़ा था. डबलबैड लगा हुआ था. इसे मेरे संस्कार कह लो या अंदर का डर. मैं ने मनामी से कहा, ‘ऐसा करते हैं, बैड अलगअलग कर बीच में टेबल लगा लेते हैं.’

मनामी ने भी अपनी मौन सहमति दे दी.

हम दोनों अपनेअपने बैड पर बैठे थे. नींद न मेरी आंखों में थी न मनामी की. मनामी के अभी तक के साथ से मेरी उस से बात करने की हिम्मत बढ़ गई थी. अब रहा नहीं जा रहा था,  बोल पड़ा, ‘तुम यहां मसूरी क्या करने आई हो.’

मनामी भी शायद अब तक मुझ से सहज हो गई थी. बोली, ‘मैं दिल्ली में रहती हूं.’

‘अच्छा, दिल्ली में कहां?’

‘सरोजनी नगर.’

‘अरे, वाट ए कोइनस्टिडैंट. मैं आईएनए में रहता हूं.’

‘मैं ने हाल ही में पढ़ाई कंप्लीट की है. 2 और छोटी बहनें हैं. पापा रहे नहीं. मम्मी के कंधों पर ही हम बहनों का भार है. सोचती थी जैसे ही पढ़ाई पूरी हो जाएगी, मम्मी का भार कम करने की कोशिश करूंगी, लेकिन लगता है अभी वह वक्त नहीं आया.

‘दिल्ली में जौब के लिए इंटरव्यू दिया था. उन्होंने सैकंड इंटरव्यू के लिए मुझे मसूरी भेजा है. वैसे तो मेरा सिलैक्शन हो गया है, लेकिन कंपनी के टर्म्स ऐंड कंडीशंस मुझे ठीक नहीं लग रहीं. समझ नहीं आ रहा क्या करूं?’

‘इस में इतना घबराने या सोचने की क्या बात है. जौब पसंद नहीं आ रही तो मत करो. तुम्हारे अंदर काबिलीयत है तो जौब दूसरी जगह मिल ही जाएगी. वैसे, मेरी कंपनी में अभी न्यू वैकैंसी निकली हैं. तुम कहो तो तुम्हारे लिए कोशिश करूं.’

‘सच, मैं अपना सीवी तुम्हें मेल कर दूंगी.’

‘शायद, वक्त ने हमें मिलाया इसलिए हो कि मैं तुम्हारे काम आ सकूं,’ श्रीनिवास के मुंह से अचानक निकल गया. मनामी ने एक नजर श्रीकांत की तरफ फेरी, फिर मुसकरा कर निगाहें झुका लीं.

श्रीनिवास का मन हुआ कि ठंड से कंपकंपाते हुए मनामी के हाथों को अपने हाथों में ले ले लेकिन मनामी कुछ गलत न समझ ले, यह सोच रुक गया. फिर कुछ सोचता हुआ कमरे से बाहर चला गया.

सर्दभरी रात. बाहर गैस्टहाउस की छत पर गिरते बर्फ से टपकते पानी की आवाज अभी भी आ रही है. मनामी ठंड से सिहर रही थी कि तभी कौफी का मग बढ़ाते हुए श्रीनिवास ने कहा, ‘यह लीजिए, थोड़ी गरम व कड़क कौफी.’

तभी दोनों के हाथों का पहला हलका सा स्पर्श हुआ तो पूरा शरीर सिहर उठा. एक बार फिर दोनों की नजरें टकरा गईं. पूरे सफर के बाद अभी पहली बार पूरी तरह से मनामी की तरफ देखा तो देखता ही रह गया. कब मैं ने मनामी के होंठों पर चुंबन रख दिया, पता ही नहीं चला. फिर मौन स्वीकृति से थोड़ी देर में ही दोनों एकदूसरे की आगोश में समा गए.

सांसों की गरमाहट से बाहर की ठंड से राहत महसूस होने लगी. इस बीच मैं और मनामी एकदूसरे को पूरी तरह कब समर्पित हो गए, पता ही नहीं चला. शरीर की कंपकपाहट अब कम हो चुकी थी. दोनों के शरीर थक चुके थे पर गरमाहट बरकरार थी.

रात कब गुजर गई, पता ही नहीं चला. सुबहसुबह जब बाहर पेड़ों, पत्तों पर जमी बर्फ छनछन कर गिरने लगी तो ऐसा लगा मानो पूरे जंगल में किसी ने तराना छेड़ दिया हो. इसी तराने की हलकी आवाज से दोनों जागे तो मन में एक अतिरिक्त आनंद और शरीर में नई ऊर्जा आ चुकी थी. मन में न कोई अपराधबोध, न कुछ जानने की चाह. बस, एक मौन के साथ फिर मैं और मनामी साथसाथ चल दिए.

पवित्र पापी: अमृता बाबा के गलत इरादों को क्यों बढ़ावा देती थी?

अमृता इसी आश्रम में ब्याह कर आई थी. आश्रम बहुत बड़ी जमीन पर फैला हुआ था. आश्रम के नाम पर बहुत बड़ी जमींदारी थी. गांवों में जमीनें थीं. खूब चढ़ावा आता था. कई जगह मंदिर थे जिन में पुजारियों को तनख्वाह मिलती थी. अमृता का ससुर पंडित मोहनराम आश्रम की जमींदारी संभालता था. यहीं पर ही वह रहता था. उस का अलग से मकान इसी आश्रम के पिछवाडे़ में बना हुआ था.

बडे़ महाराज का नाम दूरदूर के गांवों में था. उन्होंने कई किताबें लिखी थीं. बहुत बडे़बडे़ कार्यक्रम यहीं होते थे. तब स्वरूपानंदजी काशी से पढ़ कर आए थे. पहले वह ब्रह्मचारी ही रहे, बाद में बडे़ महाराज ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया था और मरने के  बाद स्वरूपानंद ने जब गद्दी संभाली तो आश्रम को नया होना ही था.

तब अमृता बाबा स्वरूपानंद की महिला शाखा की  कर्ताधर्ता थी. उसी ने हर बार स्वरूपानंद की शोभायात्रा भी निकाली थी. वसंत पंचमी पर जो फूल- डोल का कार्यक्रम होता था उस में अमृता सैकड़ों महिलाओं के साथ वसंती कपडे़ पहन कर बाबा स्वरूपानंद के साथ गुलाल उछलवाती थी. बाबा की गाड़ी हमेशा इत्र की खुशबू से महकती रहती.

अमृता का पति रामस्वरूप हमेशा या तो भांग पिए रहता या बाबा की जमींदारी में गया होता और अमृता मानो खुद ही आश्रम की हो कर रह गई हो. कभी मंदिर में कभी भंडार में, कभी अतिथिशाला में, भागतेदौड़ते अमृता को देख यही लगता था मानो आश्रम का सारा भार उसी पर हो.

कब बेटा हुआ, कब बड़ा हुआ, उसे पता नहीं. हां, बेटा होने पर बाबा ने उसे 20 तोला सोना दिया था. मकान पक्का कराया, फ्रिज दिया, उसे वह सबकुछ याद है.

उस रात जब वह मंदिर के पट बंद कर नीचे आ रही थी तब बाबा स्वरूपानंद ने अचानक उस का हाथ पकड़ा और उसे बांहों में भींच लिया. उसे तब लगा कि जैसे उस का रोमरोम जल रहा हो. बाबा की उंगलियां उस की पीठ पर रेंग रही थीं. उस की आंखें बंद होने लगीं. फिर क्या उसे याद नहीं. वह तो बाबा की बांहों में एक नशे में थी.

सुबह जब इत्र से भीगी बाबा की गद्दी पर उस की आंखें खुलीं तो वह खुद अपनी देह को देख कर लजा गई थी. लगा, पंखडि़यां अब खिल गई हैं. उस की आस पूरी हुई. पूरी औरत हो गई है वह. उस ने देखा स्वरूपानंद की धोती खुली पड़ी थी. उस ने ठीक की तो बाबा को मुसकराते देखा और चुपचाप नीचे उतर गई.

बाबा का अंश उस के गर्भ में था. वह अपनी साधना यात्रा पर गतिशील रही. उस का परिवार फलताफूलता रहा. रामस्वरूप अस्वस्थ हो गया. अधिक भांग का नशा और अस्तव्यस्त जीवन के चलते रोगों ने उसे जकड़ लिया था. बाबा ने उस का इलाज करवाया, अस्पताल में भरती भी कराया पर बिगड़ी तबीयत सुधरी ही नहीं और एक दिन वह भी चल बसा. तब उस का काम धर्मस्वरूप ने संभाला. बाबा ने उसे एक मोटरसाइकिल भी दिला दी थी. वह पढ़ालिखा था. उस का विवाह भी कर दिया.

बाबा ने जब से मंगला को अमृता के साथ देखा तभी से उन्हें लग रहा था मानो आंखों के सामने हजार बिजलियां कौंध गई हों. जब मंगला ब्याह कर आई थी तब पतलीदुबली थी. चेहरा भी मलीन हुआ रहता था पर अमृता का प्यार और उस की देखभाल तथा आश्रम के तर भोजन से उस की देह भर आई थी. जब उस के बेटा हुआ तो अमृता ने पूरे आश्रम वालों को भोजन पर बुलाया था.

उस रात बाबा ने अमृता का हाथ पकड़ कर कहा था, ‘‘मंगला तो गदरा गई है.’’

‘‘चुप, चुप करो, तुम्हारी बहू है.’’

‘‘मेरी,’’ बाबा हंसा, ‘‘जोगीअवधूत किसी के नहीं होते.’’

‘‘तुम यह किस से कह रहे हो?’’

‘‘तुझ से, तू ने मेरा बहुत माल खाया है.’’

‘‘मैं ने तुझे अपना शरीर भी तो दिया है. मुफ्त में कोई किसी को कुछ नहीं देता.’’

‘‘बहुत बोलने लग गई है.’’

‘‘याद रखना, मंगला मेरी ही नहीं तेरी भी बहू है. उस पर निगाह डाली तो आंखें नोच लूंगी.’’

‘‘यह तू कह रही है.’’

‘‘हांहां,’’ उस ने अपनी साड़ी को ठीक करते हुए कहा, ‘‘तेरा मुझ से मन भर गया है यह तो मुझे तभी पता लग गया था जब उस सेठ की लुगाई को मैं ने यहां देखा था, पर मैं तुझे यह बता देना चाहती हूं कि मेरा मुंह मत खुलवाना. सब धरा रह जाएगा…यह नाम, यह इज्जत, यह शोहरत. कइयों का बाप है तू, यह मैं जानती हूं,’’ इतना कह कर अमृता जोरों से हंसी. उस की उस हंसी में भय नहीं था एक उद्दाम अट्टहास था.

बाबा स्वरूपानंद अवाक्रह गया, फिर धीरे से बोला, ‘‘चुप कर, तेरा मुंह बंद कर दूंगा. बोल, क्या चाहिए तुझे? इतना दिया है पर तेरा मन नहीं भरा है.’’

‘‘सवाल मन का नहीं, मेरे घर का है. मंगला मेरी बहू है. शर्म कर…’’

उस रात जो तनातनी हुई थी वह बढ़ती ही जा रही थी. अमृता आश्रम में आती, अपना काम करती, मंदिर की पहले की तरह सफाई का पूरा ध्यान रखती और अपना सारा काम कर घर चली जाती.

अब फूलडोल का महोत्सव आ गया था. कई दिन से तैयारियां हो रही थीं. ठाकुरजी का शृंगार होता था. महात्मा लोग प्रवचन करने आते थे. भास्करानंद भी तभी वहां आए हुए थे. बडे़ महाराज के ये प्रिय शिष्य थे. बाद में जब स्वरूपानंदजी गद्दी पर बैठे तो वह उनियारा चले गए थे. वहां भी आश्रम था. वह वहां की गद्दी संभालते थे.

उन दिनों स्वामी मृगयानंद के आश्रम से 2 छोटे बालक भी आश्रम में आए हुए थे. कम उम्र में ही दोनों ने आश्रम में प्रवेश ले लिया था. भास्करानंद उन्हें धर्मशास्त्र पढ़ाया करते थे. उन की देखभाल अमृता के जिम्मे थी.

उस दिन जब वह रात को भंडारगृह में ताला लगवा कर लौट रही थी कि तभी रसोइया नानकचंद दूध का गिलास ले कर आ गया.

‘‘अरे, तू कहां जा रहा है?’’ वह बोली.

‘‘भास्करानंदजी ने दूध मंगवाया है.’’

‘‘वे दोनों छोटे महाराज कहां हैं?’’

‘‘एक तो कमरे में है, दूसरे को महाराज ने पढ़ने के लिए बुलाया था.’’

वह नानकचंद के साथ भास्करानंद के कक्ष की तरफ बढ़ गई.

उधर कक्ष में भास्करानंद ने बालक दीर्घायु को अपने बहुत पास बैठा लिया था और रजिस्टर पर कुछ संस्कृत में लिख कर उसे पढ़ने को दे रहे थे.

‘‘इधर देखो,’’ और उन्होंने बालक दीर्घायु का हाथ पकड़ कर अपनी दोनों जांघों के बीच खींच लिया था. वह लड़खड़ाया और तेजी से उस का मुंह उन की गोदी में आ गिरा था. जब तक बालक दीर्घायु संभलता उन्होंने उसे भींचते हुए चूमना शुरू कर दिया था.

उस के गले से निकली हलकी सी चीख को सुन कर अमृता उधर ही दौड़ी. पीछेपीछे नानकचंद भी दूध को संभालता हुआ दौड़ रहा था. अमृता दौड़ती हुई उस कक्ष के दरवाजे तक पहुंच गई और जोर का धक्का दे कर दरवाजा खोल दिया.

दरवाजा खुलने के साथ ही भास्करानंद सकपका कर दूर सरक गया था और बालक दीर्घायु घबराया हुआ अमृता के पास आ गया.

‘‘क्या कर रहा था नीच? अरे अधर्मी, तुझे शर्म नहीं आती. तेरा पुराना चिट््ठा सब को याद है. यहां ज्ञान चर्चा करने आया है…’’

‘‘तू चुप रह, तू कौन सी दूध की धुली है. यहां तुझे कौन नहीं जानता कि तू स्वरूपानंद की रखैल है.’’

‘‘चुप कर वरना मुंह नोच लूंगी.’’

तब तक स्वरूपानंद भी वहां पहुंच गया. उस ने भास्करानंद को चुप रहने का आदेश दिया और बालक दीर्घायु को ले कर वह उस के कक्ष की तरफ चला गया.

नानकचंद रसोई की तरफ और अमृता जीने से नीचे उतर कर अपने घर की तरफ बढ़ गई.

रास्ते में बाबा ने उस के कदमों की आवाज पहचान कर खंखारा. वह ठिठकी.

‘‘क्या है?’’

‘‘बहुत नाराज हो?’’

वह चुप रही.

‘‘धर्मस्वरूप को एक एसटीडी, पीसीओ खुलवा देते हैं. बाहर सड़क पर उस की दुकान बनवा देंगे.’’

सुन कर अमृता सकपकाई.

‘‘और बहू तो अपनी है, कुछ सोना उस के लिए खरीदा है, ले जाना.’’

अमृता ने सुना और आगे बढ़ गई.

धर्मस्वरूप खाना खा कर अपने कमरे में चला गया था. मंगला भी रसोई का काम पूरा कर सोने चली गई. अमृता नीचे के कमरे में पलंग पर लेटी रही पर आंखों में नींद नहीं थी. घंटे भर बाद जब अंधेरा और बढ़ गया तो वह पलंग से उठी तथा आंगन से होती हुई पीछे की गली में चल कर जीने से होती हुई सीधी आश्रम के पिछवाडे़ में पहुंच गई.

बाबा स्वरूपानंद के कमरे में हलकी रोशनी थी. यहीं पर मोगरे की टोकरी भी रखी हुई थी. चारों ओर खुशबू फैल रही थी.

‘‘आओ…’’ बाबा ने मुसकरा कर अमृता का स्वागत किया क्योंकि आज उस ने कुछ और ही सोच रखा था. बड़ा बोरा मंगवा रखा था. बंद गाड़ी की चाबी आज उसी के पास थी. तालाब के किनारे बडे़ पत्थर भी रखवा लिए थे. यानी अमृता की जल समाधि का पूरा इंतजाम हो चुका था. बाबा सोच रहा था कि अमृता बहुत बोलने लगी है, इस को भी मुक्ति मिल जाएगी.

‘‘तू तो अब पूरी पराई हो चली है,’’ बाबा ने उसे बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘ले, यह सोने का बड़ा सा हार बहू के लिए है.’’

‘‘बहू? यह तुम कह रहे हो?’’

‘‘हां,’’ बाबा का स्वर धीमा था.

बाबा उठे, बाहर का दरवाजा बंद कर दिया. हलकी सी रोशनी थी. अमृता उन के साथ बिस्तर पर थी. साड़ी मेज पर पड़ी थी. अचानक बाबा मुडे़ और तकिया उठा कर उस की गर्दन के ऊपर रख दिया.

अमृता का गला भिंच गया था. सांस नहीं ले पा रही थी. बाबा लगातार तकिए पर दबाव डालता रहा. वह उस के ऊपर आ कर बैठ गया.

वह निढाल हो गई थी. कुछ ही देर में उस की सांसें उखड़ जातीं, पर उस के पहले ही उस ने पूरी ताकत से बाबा को एक धक्का दिया. बाबा संभलता इस के पहले उस ने पास में रखा चिमटा पूरी ताकत से स्वरूपानंद के सिर पर दे मारा. वह तेजी से उठी और पास टंगी बाबा की तलवार उतार कर पूरी ताकत से बाबा की गरदन पर दे मारी. बाबा खून से लथपथ चीख रहा था.

शोर मच गया. वह तेजी से पिछवाडे़ के जीने से होती हुई नीचे उतर गई.

पुलिस आई. बाबा के बयान लिए गए. वह बोला, ‘‘मैं सो रहा था, तब किसी ने मुझ पर हमला किया. मेरे चीखने पर वह भाग गया.’’

अमृता के लिए वह कुछ नहीं बोला था. जानता था, एक शब्द भी बोला तो बदनामी उसी की होगी.

अमृता उस रात के बाद वहां नहीं दिखी. जब तक बाबा स्वरूपानंद अस्पताल से आश्रम लौटते वह उस के पहले बहुत दूर अपने परिवार के साथ जा चुकी थी. उस के घर के दरवाजे पर बहुत बड़ा ताला लटका हुआ था.

घर का सादा खाना : प्रिया की उलझन

अनिल और बच्चे शुभम व शुभी औफिस चले गए तो प्रिया कुछ देर बैठ कर पत्रिका के पन्ने पलटने लगी. अचानक नजर नई रैसिपी पर पड़ी. पढ़ते ही मुंह में पानी आ गया. सामग्री देखी. सारी घर में थी. प्रिया को नईनई चीजें ट्राई करने का शौक था.

खानेपीने का शौक था तो ऐक्सरसाइज कर के अपने वेट पर भी पूरी नजर रखती थी. एकदम बढि़या फिगर थी. कोई शारीरिक परेशानी भी नहीं थी. वह अपनी लाइफ से पूरी तरह संतुष्ट थी. बस आजकल अनिल और बच्चों पर घर का सादा खाना खाने का भूत सवार था.

प्रिया अचानक अपने परिवार के बारे में सोचने लगी. अनिल हमेशा से बिग फूडी रहे हैं पर अब अचानक अपनी उम्र की, अपनी सेहत की कुछ ज्यादा ही सनक रहने लगी है. हैल्दी रहने का शौक तो पूरे परिवार को है पर यह कोई बात थोड़े ही है कि इंसान एकदम उबली सब्जियों पर ही जिंदा रहे और वह भी तब जब कोई तकलीफ भी न हो. उस पर मजेदार बात यह हो कि औफिस में सब चटरपटर खा लें पर घर पर कुछ टेस्टी बन जाए तो सब की नजर तेल, मसाले, कैलोरीज पर रहे.

अब टेस्टी चीजें कैलोरीज वाली होती हैं तो प्रिया की क्या गलती है. उस के पीछे पड़ जाते हैं सब कि कितना हैवी खाना बना दिया है. आप को पता नहीं कि हैल्दी खाना चाहिए. भई, मुझे तो यह भी पता है कि कभीकभी खा भी लेना चाहिए. इस बात पर आजकल प्रिया का मूड खराब हो जाता है. भई, तुम लोग इतने हैल्थ कौंशस हो तो औफिस में भी उबला खाओ.

शाम को कभी किसी से पूछ लो कि आज औफिस में क्या खाया तो ऐसीऐसी चीजें बताई जाती हैं कि प्रिया की नजरों के सामने घूम जाती हैं और उस के मुंह में पानी आ जाता है.

मन में दुख होता है कि मैं जब मूंग की दाल और लौकी की सब्जी खा रही थी, तो ये लोग पिज्जा और बिरयानी खा रहे थे और अनिल का यह ड्रामा रहता है कि टिफिन घर से ही ले कर जाना है, उन्हें घर का सादा खाना ही खाना है.

वह सुबह उठ कर 3-3 हैल्दी टिफिन तेयार करती है और शाम को पता चलता है कि लजीज व्यंजन उड़ाए गए हैं. खून जल जाता है प्रिया का. यह उस की गलती है न कि वह एक हाउसवाइफ है, घर में रहती है, रोज बाहर जा कर कभी कुछ डिफरैंट नहीं खा पाती. उसे तो वही खाना है न जो टिफिन के लिए बना हो. वह कहां जा कर अपना टेस्ट बदले.

किट्टी पार्टी एक दिन होती है, अच्छा लगता है. आजकल तो कभी जब वीकैंड में बाहर खाना खाने जाते हैं, तो प्रिया मेनू कार्ड देखते हुए मन ही मन एक से एक बढि़या नई डिशेज देख ही रही होती है कि अनिल फरमाते हैं कि सूप और सलाद खाते हैं. प्रिया को तेज झटका लगता है. सूप तो पसंद है उसे पर सलाद? यह क्या है, क्यों हो रहा है उस के साथ ऐसा?

पास्ता, वैज कबाब, कौर्न टिक्की और दही कबाब, जो उस की जान हैं, इन में आजकल अनिल को ऐक्स्ट्रा तेल नजर आ रहा है. भई, जब वह अब तक अपने परिवार की हैल्थ का ध्यान रखती आई है तो फिर कभीकभी तो ये सब खाया जा सकता है न? सलाद खाने तो वह नहीं आई है न 20 दिन बाद बाहर?

बच्चों ने भी जब अनिल की हां में हां मिलाई तो प्रिया सुलग गई और सूप व सलाद खाती रही. मन में तो यही चल रहा था कि ढोंगी लोग हैं ये. यह शुभम अभी 2 दिन पहले अपने फ्रैंड्स के साथ बारबेक्यू नेशन में माल उड़ा कर आया है और यह शुभी की बच्ची औफिस में तरहतरह की चीजें खा कर आती है.

शाम को घर आ कर कहती है कि मौम, डिनर हलका दिया करो, स्नैक्स हैवी हो जाते हैं. अरे भई, मेरी भी तो सोचो तुम लोग, घर का सादा खाना खाने का गाना मुझे क्यों सुनाते हो… मेरी जीभ रो रही है… अब क्या टेस्टी, मजेदार खाना खाने के लिए तुम लोगों को सचमुच रो कर दिखाऊं… अगर अच्छीअच्छी चीजें खाने के लिए सचमुच किसी दिन रोना आ गया न मुझे तो पता है मुझे, सारी उम्र मेरा मजाक उड़ाया जाएगा.

अभी अनिल की 5 दिन की मीटिंग थी. रोज शानदार लंच था. सुबह ही बता जाते कि शाम को कुछ खिचड़ी टाइप चीज बना कर रखना. कुछ दिन लंच बहुत हैवी रहेगा. मेरी आंखों में आंसू आतेआते रुके. शुभम और शुभी वीकैंड में अपने दोस्तों के साथ बाहर ही लाइफ ऐंजौय कर लेते हैं. बचा कौन? मैं ही न?

अब खाने के लिए रोना उसे भी अच्छा नहीं लग रहा है पर क्या करे, मन तो होता है न कभीकभी कुछ बाहर टेस्टी खाने का… कभीकभी अनहैल्दी भी चलता है न… यहां तक कि इन तीनों ने चाट खाना भी बंद कर दिया है, क्योंकि तीनों का औफिस में कुछ न कुछ बाहर का खाना हो ही जाता है.

अब बताइए, 6 महीनों में कभी छोलों के साथ भठूरे नहीं बन सकते? पर नहीं, रात में जैसे ही छोले भिगोती हूं, तीनों में से कोई भी शुरू हो जाता है कि भठूरे मत बनाना, बस रोटी या राइस… मन होता है छोलों का पतीला बोलने वाले के सिर पर पलट दूं… यह जरूरी क्यों हो कि घर में बस सादा ही खाना बने?

घर में भी तो कभी टेस्ट चेंज किया जा सकता है न?

पता नहीं तीनों कौन से प्लैनेट के निवासी बनते जा रहे हैं. यही फलसफा बना लिया है कि घर में खाएंगे तो सादा ही (बाकी माल तो बाहर उड़ा ही लेंगे.

पिछली किट्टी पार्टी में अगर अंजलि के घर खाने में पूरियां न होतीं, तो पूरियां खाए उसे साल हो जाता. बताओ जरा, उत्तर भारतीय महिला को अगर पूरियां खाए साल हो रहा हो तो यह कहां का न्याय है? अब कभी रसेदार आलू की सब्जी या पेठे की सब्जी, रायते के साथ पूरी नहीं खा सकते क्या? अहा, मन तृप्त हो जाता था खा कर. अब ये ढोंगी लोग कहते हैं कि हमारे लिए तो रोटी ही बना देना. अब अपने लिए 2-3 पूरियों के लिए कड़ाही चढ़ाती अच्छी लगूंगी क्या?

बस अब प्रिया के हाथ में था गृहशोभा का सितंबर, द्वितीय अंक और रैसिपी थी सामने गोभी पकौड़ा और अचारी मिर्च पकौड़ा. 2-3 बार दोनों रैसिपीज पढ़ीं. मुंह पानी से भर गया. पढ़ कर ही इतना खुश हुआ दिल… खा कर कितना मजा आएगा… बहुत हो गया घर का सादा खाना और सब से अच्छी बात यह है कि गोभी, समोसे बेक करने का भी औप्शन था तो वह बेक कर लेगी. तीनों कम रोएंगे, थोड़ा पुलाव भी बना लेगी, परफैक्ट, बस डन.

तीनों लगभग 8 बजे आए. आज प्रिया का चेहरा डिनर के बारे में सोच कर ही चमक रहा था. वैसे तो बनातेबनाते भी 2-3 समोसे खा चुकी थी… मजा आ गया था. पेट और जीभ बेचारे थैंक्स ही बोलते रहे थे जैसे तरसे हुए थे दोनों मुद्दतों से…

चारों इकट्ठा हुए तो प्रिया ने ‘आज फिर जीने की तमन्ना है…’ गाना गाते हुए खाना लगाया तो तीनों ने टेबल पर नजर दौड़ाई. अनिल के माथे पर त्योरियां पड़ गईं, ‘‘फ्राइड समोसे डिनर में? प्रिया, क्यों तुम सब की हैल्थ के लिए केयरलैस हो रही हो?’’

‘‘अरे, समोसे बेक्ड हैं, डौंट वरी.’’

‘‘पर मैदे के तो हैं न?’’

प्रिया का मन हुआ बोले कि कल जो पिज्जा उड़ाया था वह किस चीज का बना था? पर लड़ाईझगड़ा उस की फितरत में नहीं था. इसलिए चुप रही.

शुभम ने कहा, ‘‘मां, पकौड़े तो फ्राइड हैं न? मैं सिर्फ पुलाव खाऊंगा.’’

प्रिया ने शुभी को देखा, तो वह बोली, ‘‘मौम, आज औफिस में रिया ने बहुत भुजिया खिला दी… अब भी खाऊंगी तो बहुत फ्राइड हो जाएगा… मैं पुलाव ही खाऊंगी.’’

डिनर टाइम था. सब सुबह के गए अब एकसाथ थे. शांत रहने की भरसक कोशिश करते हुए प्रिया ने कहा, ‘‘ठीक है, तुम लोग सिर्फ पुलाव खा लो,’’

अनिल ने एक समोसा उस का मूड देखते हुए चख लिया, बच्चों ने पुलाव लिया. प्रिया ने जब खाना शुरू किया, सारा तनाव भूल उस का मन खिल उठा. जीभ स्वाद ले कर जैसे लहलहा उठी. आंसू भर आए, इतना स्वादिष्ठ घर का खाना. वाह, कितने दिन हो

गए, वह खुद रोज कौन सा तलाभुना खाना चाहती है, पर घर में भी कभी कुछ स्वादिष्ठ बन सकता है न… महीने में एक बार ही सही, पर यहां तो हद ही हो गई थी. वह जितनी देर खाती रही, स्वाद में डूबी रही. उस ने ध्यान ही नहीं दिया कौन क्या खा रहा है. उस का तनमन संतुष्ट हो गया था.

सब आम बातें करते रहे, फिर अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए. उस दिन जब प्रिया सोने के लिए लेटी, वह मन ही मन बहुत कुछ सोच चुकी थी कि नहीं करेगी वह सब के लिए इतनी चीजों में मेहनत, उसे कभीकभी अकेले ही खाना है न, ठीक है, उस का भी जब मन होगा, खा लेगी. बस एक फोन करने की ही देर है. अपने लिए और्डर कर लिया करेगी… यह बैस्ट रहेगा. उसे कौन सा कैलोरीज वाला खाना रोज चाहिए… कभीकभी ही तो मन करता है न… बस प्रौब्लम खत्म.

उस के बाद प्रिया यही करने लगी. कभी महीने में एक बार अपने लिए पास्ता और्डर कर लिया, कभी सिर्फ स्टार्टर्स और घर में सब खुश थे कि घर में अब सादा खाना बन रहा है. प्रिया तो बहुत ही खुश थी.

उस का जब जो मन होता, खा लेती थी. अपने प्यारे, ढोंगी से लगते अपनों के बारे में सोच कर उसे कभी हंसी आती थी, तो कभी प्यार, क्योंकि उन के निर्देश तो अब भी यही होते थे कि बाहर हैवी हो जाता है, घर में सादा ही बनाना.

झूठी शान: शौर्टकट काम की वारंटी वाकई काफी शौर्ट होती है!

सवेरेसवेरे किचन में नाश्ता बना रही निर्मला के कानों में आवाज पड़ी, ‘‘भई, आजकल तो लड़कियां क्या लड़के भी महफूज नहीं हैं. एक महीने में अपने शहर से 350 बच्चे गायब…’’ आवाज हाल में बैठ कर समाचार देख रहे निर्मला के पति परेश की थी.

निर्मला परेश को नाश्ता दे कर बाहर की ओर बढ़ गई. परेश को मालूम था कि उसे बच्चों की स्कूल की फीस जमा करवाने के लिए जाना है, फिर भी एक बार फर्ज के तौर पर ध्यान से जाने की हिदायत देते हुए नाश्ता करने में जुट गए.

इस पर निर्मला ने भी आमतौर पर दिए जाने वाला ही जवाब देते हुए कहा, ‘‘जी हां…’’ और बाहर का गरम मौसम देख कर बिना छाता लिए ही घर से निकल गई.

निर्मला आमतौर पर रिकशे से ही सफर किया करती, क्योंकि उस के पास और कोई साधन भी न था. स्कूल में सारे पेरेंट्स तहजीब से खुद ही सार्वजनिक दूरी बनाए अपनीअपनी कुरसियों पर बैठे अपना नंबर आने का इंतजार कर रहे थे.

निर्मला का नंबर सब से आखिर में था. उस के अकेलेपन की बोरियत को मिटाने के लिए न जाने कहां से उस की पुरानी सहेली मेनका भी उसी वक्त अपने बेटे की फीस जमा कराने वहां आ टपकी.

चेहरे पर मास्क की वजह से निर्मला ने उसे पहचाना नहीं, पर मेनका ने उस के पहनावे और शरीर की बनावट से उसे झट से पहचान लिया और दोनों में सामान्य हायहैलो के बाद लंबी बातचीत शुरू हो गई. दोनों सहेली एकदूसरे से दोबारा पूरे 5 महीने बाद मिल रही थीं.

यों तो दोनों का आपस में एकदूसरे से दूरदूर तक कोई संबंध नहीं था, पर दोनों के बच्चे एक ही जमात में पढ़ते थे. घर पास होने की वजह से निर्मला और मेनका की मुलाकात कई बार रास्ते में एकदूसरे से हो जाया करती.

धीरेधीरे बच्चों की दोस्ती निर्मला और मेनका तक आ गई. दोनों ही अकसर छुट्टी के समय अपने बच्चों को लेने आते, तब उन की भी मुलाकात हो जाया करती. दोनों एक ही रिकशा शेयरिंग पर लेते, जिस पर उन के बच्चे पीछे बैठ जाया करते.

निर्मला ने मेनका को देख कर खुशी से मुसकराते हुए कहा, ‘‘अरे, ये मास्क भी न, मैं तो बिलकुल ही पहचान ही नहीं पाई तुम्हें.’’

पर, असलियत तो यह थी कि वह उस के पहनावे से धोखा खा गई थी, क्योंकि जिस मेनका के लिबास पुराने से दिखने वाले और कई दिनों तक एक ही जैसे रहते. वह आज एक महंगी सी नई साड़ी और कई साजोसिंगार के सामान से लदी हुई थी. इस के चलते उसे यकीन ही नहीं हुआ कि यह मेनका हो सकती?है.

निर्मला ने उस की महंगी साड़ी को हाथ से छूने की चाह से जैसे ही उस की तरफ हाथ बढ़ाया, मेनका ने उसे टोकते हुए कहा, ‘‘अरे भाभी, ये क्या कर रही हो? हाथ मत लगाओ.’’

भले ही मेनका ने सार्वजनिक दूरी को जेहन में रख कर यह बात कही हो, पर उस के शब्द थोड़े कठोर थे, जिस का निर्मला ने यह मतलब निकाला कि ‘तुम्हारी औकात नहीं इस साड़ी को छूने की, इसलिए दूर ही रहो’.

निर्मला ने उस से चिढ़ते हुए पूछा, ‘‘यह साड़ी कहां से…? मेरा मतलब, इतनी महंगी साड़ी पहन कर स्कूल में आने की कोई वजह…?’’

‘‘महंगी… यह तुम्हें महंगी दिखती है. अरे, ऐसी साडि़यां तो मैं ने रोज पहनने के लिए ले रखी हैं,’’ मेनका ने बड़े घमंड में कहा.

निर्मला अंदर ही अंदर कुढ़ने लगी. उसे विश्वास नहीं हुआ कि ये वही मेनका हैं, जो अकसर मेरे कपड़ों की तारीफ करती रहती थी और खुद के ऊपर दूसरे लोगों से हमदर्दी की भावना रखती थी. ये तो कुछ महीनों पहले उम्र से ज्यादा बूढ़ी और बेकार दिखती थी, पर आज अचानक ही इस के चेहरे पर इतनी चमक और रौनक के पीछे क्या वजह है?

पहले तो अपने पति के कुछ काम न करने की मुझ से शिकायत करती थी, पर आज यह अचानक से चमकधमक कैसे? हां, हो सकता है कि विजेंदर भाई को कोई नौकरी मिल गई हो. हो सकता?है कि उन्होंने कोई धंधा शुरू किया हो, जिस में उन्हें अच्छा मुनाफा हुआ हो या कोई लौटरी लग गई हो तो क्या…?

मैं इतना क्यों सोचने लगी? अब हर किसी की किस्मत एक बार जरूर चमकती है, उस में मुझे इतनी जलन क्यों हो रही है?

जिन के पास पहले पैसा नहीं, जरूरी थोड़े ही न है कि उन के पास कभी पैसा आएगा भी नहीं. भूतकाल की अपनी ही उधेड़बुन में कोई निर्मला को मेनका उस के मुंह के सामने एक चुटकी बजा कर वर्तमान में ले कर आई और कहा, ‘‘अरे भई, कहां खो गईं तुम. लाइन तो आगे भी निकल गई.’’

निर्मला और मेनका दोनों एकएक कुरसी आगे बढ़ गए.

‘‘वैसे, एक बात पूछूं मेनका, तुम्हारी कोई लौटरी वगैरह लगी है क्या?’’ निर्मला ने बड़े ही सवालिया अंदाज में पूछा, जिस का मेनका ने बड़े ही उलटे किस्म का जवाब दिया, ‘‘क्यों, लौटरी वाले ही ज्यादा पैसा कमाते हैं क्या? अब उन्होंने मेहनत के साथसाथ दिमाग लगाया है, तो पैसा तो आएगा ही न?

‘‘अब परेश भाई को ही देख लो, दिनभर अपने साहब के कहने पर कलम घिसते हैं, ऊपर से उन की खरीखोटी सुनते हैं, पूरे दिन खच्चरों की तरह दफ्तर में खटते हैं, फिर भी रहेंगे तो हमेशा कर्मचारी ही.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. मेहनत के नाम पर ये कौन सा पहाड़ तोड़ते हैं सिर्फ दिनभर पंखे के नीचे बैठ कर लिखापढ़ी का काम ही तो करना होता है. इस से ज्यादा आराम और इज्जत की नौकरी और किस की होगी.’’

निर्मला ने मेनका को और नीचा दिखाने की चाह में उस से कहा, ‘‘पढ़ेलिखे हैं. आराम की नौकरी करते हैं. यों धंधे में कितनी भी दौलत कमा लो, पर समाज में सिर्फ पढ़ेलिखे और नौकरी वाले इनसान की ही इज्जत होती?है, बाकियों को तो सब अनपढ़ और गंवार ही समझते हैं.’’

इस पर मेनका अकड़ गई और अपने पास अभीअभी आए चार पैसों की गरमी का ढिंढोरा निर्मला के आगे पीटने लगी.

काउंटर पर निर्मला का नंबर आया. काउंटर पर बैठी रिसैप्शनिस्ट ने फीस  की लंबीचौड़ी रसीद, जिस में दुनियाभर के चार्जेज जोड़ दिए गए थे, निर्मला  को पकड़ाई.

निर्मला ने घर पर पैसे जोड़ कर जो हिसाब लगाया था, उस से कहीं ज्यादा की रसीद देख कर उन की आंखों से धुआं निकल आया. इतने पैसे तो उस के पर्स में भी न थे, पर इस बात को वह सब के सामने जताना नहीं चाहती थी, खासकर उस मेनका के सामने तो बिलकुल नहीं.

मेनका ने कहा, ‘‘मैडम, आप सिर्फ 3 महीने की ही फीस जमा कीजिए, बाकी मैं बाद में दूंगी.’’

तभी निर्मला के हाथ से परची लेते हुए मेनका ने निर्मला पर एहसान करने की चाह से अपने पर्स से एक चैकबुक निकाल अपने और उस के बच्चे की फीस खुद ही जमा कर दी.

निर्मला को यह बलताव ठीक न लगा, जिस के चलते उस ने उसे बहुत मना भी किया.

इस पर मेनका ने कहा, ‘‘अरे, भाईसाहब को जब पैसे मिल जाएं, तब आराम से दे देना. मैं पैनेल्टी नहीं लूंगी,’’ और वह हंसते हुए बाहर की ओर निकल गई.

स्कूल के बाहर निकल कर देखा, तो मालूम हुआ कि छाता न ले कर बहुत बड़ी गलती हुई. गरम मौसम की जगह तेज बारिश ने ले ली. इतनी तेज बारिश में कोई भी रिकशे वाला कहीं जाने को राजी न था.

निर्मला स्कूल के दरवाजे पर खड़ी बारिश रुकने का इंतजार कर रही थी, पर मन में यह भी डर था कि आखिर अभी तुरंत मेरे आगे निकली मेनका कहां गायब हो गई? वह भी इतनी तेज बारिश में.

‘चलो, अच्छा है, चली गई, कौन सुनता उस की ये बातें? चार पैसे क्या आ गए, अपनेआप को कहीं की महारानी समझने लगी. सारे पैसे खर्च हो जाएंगे, तब फिर वही एक रिकशा भी मेरे साथ शेयरिंग पर ले कर चला करेगी.

मन ही मन खुद को झूठी तसल्ली देती निर्मला के आगे रास्ते पर जमा पानी को चीरते हुए एक शानदार काले रंग की कार आ कर रुकी.

गाड़ी का दरवाजा खुला. अंदर बैठी मेनका ने बाहर निर्मला को देखते हुए कहा, ‘‘गाड़ी में बैठो निर्मला. इस बारिश में कोई रिकशे वाला नहीं मिलेगा.’’

निर्मला को न चाहते हुए भी गाड़ी में बैठना पड़ा, पर उस का मन अभी भी यकीन करने को तैयार नहीं था कि यह वही मेनका है, जो पैसे न होने के चलते एक रिकशा भी मुझ से शेयरिंग पर लिया करती थी?

‘‘सीट बैल्ट लगा लो निर्मला,’’ मेनका ने ऐक्सीलेटर पर पैर जमाते हुए कहा.

निर्मला ने सीट बैल्ट लगाते हुए पूछा, ‘‘कब ली? कैसे…? मेरा मतलब कितने की…?’’

‘‘कैसे ली का क्या मतलब? खरीदी है, वह भी पूरे 40 लाख रुपए की,’’ मेनका ने बड़े बनावटी लहजे में कहा.

निर्मला के अंदर ईष्या का भी अंकुर फूट पड़ा. आखिर कैसे इस ने इतनी जल्दी इतने पैसे कमाए, आखिर ऐसा कैसा दिमाग लगाया, विजेंदर भाई ने कि इतनी जल्दी इतने पैसे कमा लिए. और एक परेश हैं कि रोज 13-13 घंटे काम करने के बावजूद मुट्ठीभर पैसे ही ले कर आते हैं, वह भी जब घर के सारे खर्चे सिर पर सवार हों. एक इसी के साथ तो मेरी बनती थी, क्योंकि एक यही तो थी मुझ से नीचे. अब तो सिर्फ मैं ही रह गई, जो रिकशे से आयाजाया करूंगी. इस का भी तो कहना ठीक ही है कि किसी काम में दिमाग लगाए बिना सिर्फ मेहनत करने से जिस तरह गधे के हाथ कभी भी गाजर नहीं आती, उसी तरह हर क्षेत्र में मेहनत से ज्यादा दिमाग लगाना पड़ता है.

विजेंदर भाई ने दिमाग लगाया तो पैसा भी कमाया, वहीं परेश की जिंदगी तो सिर्फ खाने में ही निकल जाएगी, आज ये बना लेना कल वो बना लेना.

अपना घर नजदीक आता देख निर्मला ने सीट बैल्ट खोल दी और उतरने के लिए जैसे ही उस ने दरवाजा खोलना चाहा, उस से उस महंगी गाड़ी का दरवाजा न खुला. इस पर मेनका ने हंसते हुए अपने ही वहां से किसी बटन से दरवाजा अनलौक करते हुए निर्मला को अलविदा किया.

दरवाजा न खुलने वाली बात पर निर्मला को खूब शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था.

घर पहुंचते ही परेश ने एक पत्रिका में छपी डिश की तसवीर सामने रखते हुए वही डिश बनाने का आदेश दे डाला, जिस पर निर्मला ने परेश पर बिफरते हुए कहा, ‘‘पूरी जिंदगी तुम ने और किया ही क्या है, पूरे दिन गधों की तरह मेहनत करते हो और ऊपर से दफ्तर में बैठेबैठे फरमाइश और कर डालते हो कि आज यह बनाना और कल यह…

‘‘खाने के अलावा कभी सोचा है कि बाकी लोग तुम से कम मेहनत करते हैं, फिर भी किस चीज की कमी है उन्हें. घूमने को फोरव्हीलर हैं, पहनने को ब्रांडेड कपड़े हैं, कुछ नहीं तो कम से कम बच्चों की फीस का तो खयाल रखना चाहिए.

‘‘आज अगर मेनका न होती, तो फीस भी आधी ही जमा करानी पड़ती और बारिश में भीग कर आना पड़ता  सो अलग.’’

परेश समझ गया कि यह सारी भड़ास उस मेनका को देख कर निकाली जा रही है. परेश ने बात को और आगे न बढ़ाना चाहा, जिस के चलते उस ने चुप रहना ही बेहतर समझा.

दोपहर को गुस्से के कारण निर्मला ने कुछ खास न बनाया, सिर्फ खिचड़ी बना कर परेश और बेटे पारस के आगे रख दी.

परेश चुपचाप जो मिला, खा कर रह गया. उस ने कुछ बोलना लाजिमी न समझा.

रात तक निर्मला ने परेश से कोई बात नहीं की. उस के मन में तो सिर्फ मेनका और उस के ठाटबाट के नजारे ही रहरह कर याद आ जाया करते और परेश की काबिलीयत पर उंगली उठा जाते.

डिनर का वक्त हुआ. परेश ने न तो खाना मांगा और न ही निर्मला ने पूछा. देर तक दोनों के अंदर गुस्से का जो गुबार पनपता रहा, मानो सिर्फ इंतजार कर रहा हो कि सामने वाला कुछ बोले और मैं फट पडं़ू.

दोनों को ज्यादा इंतजार न कराते  हुए ठीक उसी वक्त भूख से बेहाल  बेटा पारस निर्मला से खाने की मांग करने लगा.

पारस को डिनर के रूप में हलका नाश्ता दे कर निर्मला ने परेश पर तंज कसते हुए कहा, ‘‘बेटा, आज घर में कुछ था ही नहीं बनाने को, इसीलिए कुछ नहीं बनाया. तू आज यही खा ले, कल देखती हूं कुछ.’’

परेश ने हैरानी से पूछा, ‘‘घर में कुछ था नहीं और तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं? आखिर किस बात पर तुम ने दोपहर से अपना मुंह सिल रखा है और सुबह क्या देखोगी तुम?’’

‘‘मैं ने नहीं बताया और तुम ने क्या सिर्फ खाने का ठेका ले रखा है? सब से ज्यादा जीभ तुम्हारी ही चलती है, तो इंतजाम देखना भी तो तुम्हारा ही फर्ज बनता है न? और वैसे भी मालूम नहीं हर महीने राशन आता है, तो इस महीने कौन लाएगा?’’

परेश बेइज्जती के ये शब्द बरदाश्त न कर सका. इस वजह से वह उस रात भूखा ही सोया रहा मगर निर्मला से कुछ बोला नहीं.

सवेरे होते ही राशन के सामान से भरा हुआ एक थैला जमीन पर पटक कर उस में से जरूरी सामान निकाल कर परेश खुद ही अपने और बेटे पारस के लिए चायनाश्ता बनाने में जुट गया.

रसोई के कामों से फारिग हो कर दोनों बापबेटे सोफे पर बैठ कर नाश्ता करने में मगन हो गए.

परेश रोज की तरह समाचार चैनल लगा कर बैठ गया. आज सब से बड़ी खबर की हैडलाइन देख कर उस के होश उड़ गए और उस से भी ज्यादा उस के पीछे से गुजर रही निर्मला के.

सब से बड़ी खबर की हैडलाइन में लिखा था, ‘शहर में पिछले महीनों से गायब हो रहे बच्चों के केस का आरोपी शिकंजे में, जिस का नाम विजेंदर बताया जा रहा है. कल ही चौक से एक बच्चे को बहला कर अगुआ करते हुए वह पकड़ा गया.’

मुंह काले कपड़े से ढका हुआ था, पर इतनी पुरानी पहचान के चलते परेश और निर्मला को आरोपी को पहचानते देर न लगी.

निर्मला को अपनी गलती का एहसास हो चुका था. वह जान चुकी थी कि जल्दी से जल्दी ज्यादा ऐशोआराम पाने के चक्कर में लोगों को कोई शौर्टकट ही अपनाना पड़ता है, जिस काम की वारंटी वाकई में काफी शौर्ट होती है.

आज अपनी मरजी से ही निर्मला ने दोपहर का खाना परेश की पसंद का बनाया था, जिस की उसे कल तसवीर दिखाई गई थी.

बदनाम गली: क्या थी उस गली की कहानी

‘‘हर माल 10 रुपए… हर माल की कीमत 10 रुपए… ले लो… ले लो… बिंदी, काजल, पाउडर, नेल पौलिश, लिपस्टिक…’ जोर से आवाज लगाते हुए राजू अपने ठेले को धकेल कर एक गली में घुमा दिया और आगे बढ़ने लगा. वह एक बदनाम गली थी. कई लड़कियां व औरतें खिड़की, दरवाजों और बालकनी में सजसंवर कर खड़ी थीं. कुछ लड़कियां खिलखिलाते हुए राजू के पास आईं और ठेले में रखे सामान को उलटपुलट कर देखने लगीं.

‘वह वाली बिंदी निकालो…

यह कौन से रंग की लिपस्टिक है…

बड़ी डब्बी वाला पाउडर नहीं है क्या…’

एकसाथ कई सवाल होने लगे. राजू जल्दीजल्दी उन सब की फरमाइशों के मुताबिक सामान दिखाने लगा.

जब राजू कोई सामान निकाल कर उन्हें देता तो वे सब उसे आंख मार देतीं और कहतीं, ‘पैसा भी चाहिए क्या?’ ‘‘बिना पैसे के कोई सामान नहीं मिलता,’’ राजू जवाब देता.

‘‘तू पैसा ही ले लेना. और कुछ चाहिए तो वह भी तुझे दे दूंगी,’’ तभी किसी लड़की ने ऐसा कहा तो बाकी सब लड़कियां भी खिलखिला कर हंस पड़ीं. राजू ने उन लड़कियों के ग्रुप के

पीछे थोड़ी दूरी पर एक दरवाजे पर खड़ी एक लड़की को देखा. घनी काली जुल्फें, दमकता हुआ गोरा रंग, पतली आकर्षक देह. राजू को लगा कि उस ने कहीं इस लड़की को देखा है.

राजू सामान बेचता रहा, पर लगातार उस लड़की के बारे में सोचता रहा. वह बारबार उसे अच्छी तरह देखने की कोशिश करता रहा, लेकिन सामान खरीदने वाली लड़कियों के सामने रहने की वजह से अच्छी तरह देख नहीं पा रहा था. तभी राजू ने देखा कि एक बड़ीबड़ी मूंछों वाला अधेड़ आदमी आया और उस लड़की को ले कर मकान के अंदर चला गया. शायद वह आदमी ग्राहक था.

थोड़ी देर बाद राजू सामान बेच कर आगे बढ़ गया, लेकिन वह लड़की उस के ध्यान से हट ही नहीं रही थी. धीरेधीरे शाम होने को आई. जब वह घर के करीब एक दुकान के पास से गुजरा तो उस ने देखा कि दुकान पर रामू चाचा के बजाय उन की 10 साला बेटी काजल बैठी थी और ग्राहकों को सामान दे रही थी. यह देख उसे कुछ याद आया.

आधी रात हो गई थी. राजू अब फिर उस बदनाम गली में था. उस की आंखें उसी लड़की को ढूंढ़ रही थीं. वहां कई लड़कियां सजसंवर कर ग्राहकों के आने का इंतजार कर रही थीं. राजू को देख कर वे उस से नैनमटक्का करने लगीं. ‘‘क्या रे, तू फिर आ गया… रात को भी सामान बेचेगा क्या?’’ एक लड़की मुसकरा कर बोली.

‘‘नहीं, अब मैं ग्राहक बन कर आया हूं,’’ राजू ने कहा.

‘‘अच्छा तो यह बात है. फिर बता, तुझे कौन सी वाली पसंद है?’’ एक लड़की ने पूछा.

राजू ने जवाब दिया, ‘‘मुझे तो सब पसंद हैं, लेकिन…’’ ‘‘लेकिन क्या…? चल मेरे साथ.

मुझे सब रंगीली बुलाते हैं,’’ एक लड़की ने आगे आ कर राजू का हाथ पकड़ लिया.

‘‘आज रहने दे रंगीली. मुझे तो वह पसंद है…’’

राजू ने अपना हाथ छुड़ाते हुए दिन में जिस लड़की को देखा था, उस के बारे में पूछा. ‘‘बहुत पूछ रहा है उसे. नई है न…’’

रंगीली बोली, ‘‘एक आशिक उसे ले कर कमरे में गया है. वह उस का रोज का ग्राहक है. खूब पसंद करता है उसे. तुझे चाहिए तो थोड़ी देर ठहर. वह उसे निबटा कर आ जाएगी यहीं.’’

राजू बेचैनी से उस लड़की के बाहर आने का इंतजार करने लगा. तकरीबन आधा घंटे बाद एक ग्राहक कमरे से बाहर निकल कर एक तरफ चला गया.

कुछ देर बाद उस कमरे से एक लड़की बाहर आई और दरवाजे पर खड़ी हो गई. राजू ने उसे देखा तो पहचान गया. वह वही लड़की थी, जिस की तलाश में वह आया था.

‘‘जा मस्ती कर. तेरी महबूबा आ गई,’’ रंगीली ने कहा. राजू उस लड़की के पास जा कर बोला, ‘‘जब से तुम्हें देखा है, तब से मैं तुम्हारा दीवाना हो गया हूं इसीलिए अभी आया हूं.’’

‘‘तो चलो,’’ वह लड़की राजू का हाथ पकड़ कर कमरे में ले जाने लगी. ‘पुलिस… पुलिस… भागो… भागो…’ तभी जोरदार शोर हुआ और चारों तरफ भगदड़ मच गई. सभी लड़कियां, ग्राहक और दलाल इधरउधर भाग कर छिपने की कोशिश करने लगे.

थोड़ी देर में ही पुलिस ने कोठेवाली, दलाल और कई ग्राहकों को गिरफ्तार कर लिया और थाने ले गई. कई लड़कियों को पुलिस ने आजाद करा कर नारी निकेतन भेज दिया. राजू को भी पुलिस ने उस लड़की के साथ गिरफ्तार कर लिया था, पर उस लड़की को नारी निकेतन नहीं भेजा गया. वह डर से थरथर कांप रही थी.

‘‘डरो नहीं खुशबू, अब तुम आजाद हो,’’ थाने पहुंच कर राजू ने उस लड़की से कहा. ‘‘तुम मेरा नाम कैसे जानते हो?’’ उस लड़की ने चौंक कर पूछा.

‘‘खुशबू, मेरी बेटी. कहां थी तू अब तक,’’ राजू के कुछ कहने से पहले वहां एक अधेड़ औरत आई और उस लड़की को अपने गले से लगा कर फफकफफक कर रोने लगी.

‘‘मां, मुझे बचा लो. मैं उस नरक में अब नहीं जाऊंगी,’’ खुशबू भी उस औरत से लिपट कर रोने लगी और अपनी आपबीती सुनाने लगी कि कैसे 6 महीने पहले कुछ गुंडों ने उस की दुकान के आगे से रात 9 बजे उठा लिया था और कुछ दिन उस की इज्जत से खेलने के बाद चकलाघर में बेच दिया था.

‘‘अब आप के साथ कुछ गलत नहीं होगा. सारे बदमाशों को गिरफ्तार कर मैं ने जेल भेज दिया है…’’ तभी थानेदार ने कहा, ‘‘बस आप लोगों को कोर्ट आना होगा मुकदमे की कार्यवाही को आगे बढ़ाने के लिए.’’ ‘‘मैं कोर्ट जाऊंगी. उन सभी बदमाशों को सजा दिलवा कर रहूंगी जिन्होंने मेरी बेटी की जिंदगी खराब की है…’’ वह औरत आंसू पोंछते हुए बोली.

‘‘अब मेरी बेटी से कौन ब्याह करेगा?’’ खुशबू की मां ने कहा. ‘‘अब आप लोग घर जा सकते हैं. जाने से पहले इन कागजात पर दस्तखत कर दें,’’ थानेदार ने कहा तो खुशबू, उस की मां और राजू ने दस्तखत कर दिए.

‘‘पर, आप लोगों को मेरे बारे में कैसे पता चला?’’ थाने से बाहर निकल कर खुशबू ने पूछा. ‘‘यह सब राजू के चलते मुमकिन हुआ. इसी ने मुझे बताया कि तुम्हें एक कोठे पर देखा है…

‘‘फिर मैं राजू के साथ पुलिस स्टेशन गई. जहां तुझे छुड़ाने की योजना बनी,’’ खुशबू की मां बोली. ‘‘राजू मुझे कैसे जानता है?’’ खुशबू ने हैरानी से पूछा.

‘‘तुम्हारी मां की परचून की दुकान पर मैं अकसर सौदा लेने जाता था वहीं तुम्हें देखा था. तब से ही मैं तुम्हें पहचानता था. जब तुम गायब हो गईं तो तुम्हारी मां दुकान पर हमेशा रोती रहती थीं. कहती थीं कि तुम्हारे बाबा जिंदा होते तो तुम्हें ढूंढ़ लाते. लेकिन वह अकेली कहां ढूंढ़ती फिरेंगी. ‘‘आज जब मैं अपना ठेला ले कर सामान बेचने गया तो कोठे पर तुम्हें देख कर तुम्हारी मां को सब बता दिया,’’ राजू बोल पड़ा.

‘‘आप का यह एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी,’’ खुशबू ने रुंधे गले से शुक्रिया अदा करते हुए कहा. तभी राजू झिझकते हुए खुशबू की मां से बोला, ‘‘आप एक एहसान मुझ पर भी कर दीजिए.’’

‘‘कहो बेटा, मैं क्या कर सकती हूं तुम्हारे लिए?’’ खुशबू की मां ने पूछा. ‘‘मुझे खुशबू का हाथ दे दीजिए,’’ राजू अटकअटक कर बोला.

राजू की मांग सुन कर दोनों मांबेटी की आंखों में आंसू आ गए. खुशबू ने आगे बढ़ कर राजू के पैर छू लिए. ‘‘तेरे जैसा बेटा पा कर मैं धन्य हो गई. पर यह तो बता कि तुझे जातपांत का वहम तो नहीं.’’

‘‘नहीं जी, हम गरीबों की क्या जाति. हमें तो दूसरों के लिए हड्डी तोड़नी ही है. फिर यह जाति का दंभ क्यों पालें. खुशबू जो भी हो, मुझे पसंद है,’’ राजू तमक कर बोला. नई सुबह के इंतजार में उन तीनों के कदम घर की ओर तेजी से बढ़ने लगे.

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